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शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
७३ १०४. प्र०] ओहिनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते ? गोयमा! से समासओ चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-दष्पयो, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं ओहिनाणी रूविदचाई जाणइ पासइ, जहा नंदीए, जाव भावओ।
१०५. प्रि०] मणपजवनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पन्नते, ते जहा-दपओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दचओ णं उजमती अणंते अणंतपदेसिए, जहा नंदीए, जाव भावओ।
१०६. [प्र०] केवलणाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पन्नते, वं जहा-दघओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दधओ णं केवलनाणी सवदवाई जाणइ पासइ । एवं जाव भावओ।
१०७. [प्र० मइअन्नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउविहे पन्नत्ते, तं जहा-दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयाई दवाई जाणइ पासइ, एवं जाव भावओ मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगए भावे जाणइ पासइ ।
१०८. [प्र०] सुयअन्नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते? [उ०] गोयमा! से समासओ चउधिहे पन्नत्ते, तं जहा-दधओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दद्यओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगयाई दवाइं आघवेति, पनवेइ, परवेइ । एवं खेत्तो, कालओ। भावओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगए भावे आघवेति तं चेव ।
१०४. [प्र०] हे भगवन् ! अवधिज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम ! संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ अवधिशाननो प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी; द्रव्यथी अवधिज्ञानी रूपिद्रव्योने जाणे छे अने देखे छे-इत्यादि जेम नंदीसूत्रमा का छे तेम यावत् भाव सुधी जाणवू. १०५. [प्र०] हे भगवन् ! मनःपर्यवज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते मनापर्यवधानको
विषय. आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी ऋिजुमतिमनःपर्यवज्ञानी [मनपणे परिणत ] अनंतप्रदेशिक अनन्त स्कंधोने 'जाणे अने देखे-इत्यादि जेम नंदीसूत्रमा का छे तेम अहीं जाणवं, यावत् भावथी जाणे छे.
१०६. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ० ] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते केवख्याननो विग्य. आ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी केवलज्ञानी सर्व द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे, ए प्रमाणे यावद् भावथी [केवलज्ञानी सर्व भावोने जाणे छे अने जुए छे.]
१०७. [प्र०] हे भगवन् ! मतिअज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- मतिअचाननो विपक द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी मतिअज्ञानी मतिअज्ञानना विषयने प्राप्त द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे; ए प्रमाणे यावर 'भावथी मतिअज्ञानी मतिअज्ञानना विषयभूत भावोने जाणे छे अने जुए छे.
१०८. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतअज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [ उ० ] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते छतममायनो विषयआ प्रमाणे-द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी. द्रव्यथी श्रुतअज्ञानी श्रुतअज्ञानना विषयभूत द्रव्योने कहे छे, जणावे छे अने प्ररूपे छे; ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने कालथी जाणवू. भावथी श्रुतअज्ञानी श्रुतअज्ञानना विषयभूत भावोने कहे छे, जणावे छे अने प्ररूपे छे..
१०४. * द्रव्यथी अवधिज्ञानी जघन्यथी तैजस अने भाषाद्रव्योनी अंतरे रहेला एवा सूक्ष्म अनन्त पुद्गलद्रव्योने जाणे, उत्कृष्टथी बादर अने सूक्ष्म सर्व द्रव्योने जाणे, अने अवधिदर्शनथी देखे. क्षेत्रथी अवधिज्ञानी जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भागने अने उत्कृष्टथी शक्तिनी अपेक्षाए अलोकने विषे असंख्य लोकप्रमाण खंडने जाणे अने जुए, कालथी अवधिज्ञानी जघन्य आवलिकाना असंख्यातमा भागने अने उत्कृष्टथी असंख्यात उत्सर्पिणी भने अवसपिणी अतीत अनागत कालने जाणे अने जुए-एटले तेटला कालमा रहेला रूपी द्रव्यने जाणे. यावत् भावथी अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावोने जाणे अने जुए, पण दरेक द्रव्य दीठ अनन्त भावोने न जाणे. उत्कृष्टथी पण अनन्त भावोने जाणे अने जुए. ते भावो सर्व पर्यायनो अनन्तमो भाग जाणवो. जुओ-नंदी. प. ९-१ पं. १०.
१०५. ऋजु-सामान्यग्राही मति ते ऋजुमतिमनःपर्यव, जेम 'एणे घट चिन्तव्यो' एवं सामान्य केटलाक पर्यायविशिष्ट मनोद्रव्य- ज्ञान. द्रव्यथी ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानी अढी द्वीपमा रहेला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोए मनरूपे परिणमावेला मनोवर्गणाना अनन्त स्कंधोने साक्षात् जाणे, परन्तु तेणे चिन्तवेल घटादिरूप अर्थने [आवा आकारवाळो मनोद्रव्यनो परिणाम आवा प्रकारना चिन्तन शिवाय न घटे' एवा] अनुमानथी जाणे; माटे 'देखे' एम कपुं. विपुलअनेकविशेषग्राही मति-ज्ञान, अर्थात् पुष्कळ विशेषविशिष्ट मनोद्रव्यर्नु ज्ञान ते विपुलमति मनःपर्यवज्ञान; जेम 'एणे द्रव्यथी माटीनो, क्षेत्रथी पाटलिपुत्रनो, कालथी वसंतकाळनो, अने भावथी पीतवर्णनो घट चिन्तब्यो.' क्षेत्रथी ऋजुमति जघन्यथी अंगुलनो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्टथी तिर्यक् मनुष्यलोकर्मा रहेला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्ताना मनोगत भावोने जाणे देखे, अने विपुलमति अढी आंगुल अधिक ते क्षेत्रमा रहेला मनोगत भावने जाणे देखे, कालथी ऋजुमति जघन्य पल्योपमना असंख्यातमा भागने अने उत्कृष्टपणे पल्योपमना असंख्यातमा भाग जेटला अतीत अनागत कालने जाणे अने जुए, तेने ज विपुलमति पधारे स्पष्टपणे जाणे. भावथी ऋजुमति सर्व भावोना अनन्तमा भागे रहेला अनन्त भावने जाणे अने जुए. वेने विपुलमति विशुद्ध अने स्पष्टपणे जाणे अने जुए. जुओ-नंदी० प. १०४-२. पं. ११.
१. भ. सू.
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