SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ८.--उद्देशक २. १०९.प्र०] विभंगणाणस्स णं मंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा! से समासओ चविहे पन्नत्ते, तं जहा-दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयाइं दवाई जाणइ पासइ, एवं जाव भावो णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ पासइ । ११०. [प्र०] णाणी णं भंते ! 'णाणित्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? [उ०] गोयमा! नाणी दुविहे पण्णत्ते, तं.जहासाइए वा अपजवसिए, साइए वा संपजवसिए । तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावदि सागरोवमाइं सातिरेगाई। १११. [प्र०] आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणिबोहिय०. एवं नाणी, आभिणिबोहियनाणी, जाव केवलनाणी, अनाणी, मइअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी-एएसि दसण्हवि वि संचिट्टणा जहा कायट्टिईए । अंतरं सवं जहा जीवाभिगमे । अप्पाबहुगाणि तिन्नि जहा बहुवत्तवयाए । विभंगशाननो विषय. १०९. [प्र०] हे भगवन् ! विभंगज्ञाननो विषय केटलो कह्यो छे ? [उ० ] हे गौतम ! ते संक्षेपथी चार प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी अने भावथी; द्रव्यथी विभंगज्ञानी विभंगज्ञानना विषयभूत द्रव्योने जाणे छे अने जुए छे, ए प्रमाणे यावद् भावथी विभंगज्ञानी विभंगज्ञानना विषयभूत भावोने जाणे छे अने जुए छे. शानी शानीपणे ११०. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानी ज्ञानीपणे कालथी क्यांसुधी रहे ! [उ०] हे गौतम ! ज्ञानी बे प्रकारना कह्या छे, ते आ क्यांसुधी रहे। प्रमाणे- सादि सपर्यवसित अने सादिअपर्यवसित. तेमां जे ज्ञानी सादिसपर्यवसित छे ते जघन्यथी अन्तर्मुहुर्त सुधी अने उत्कृष्टथी कांइक अधिक छासठ सागरोपम सुधी ज्ञानीपणे रहे छे. जाभिनिबोधिकादि १११. [प्र०] हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानीपणे कालथी केटला काल सुधी रहे ! [उ.] ए प्रमाणे दशनो स्थितिकाल. ज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानी, यावत् केवलज्ञानी, अज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी अने विभंगज्ञानी-ए दशनो ज्ञानी पणे स्थितिकाल प्रज्ञापनासूत्रना अढारमा कायस्थितिपदमां कह्या प्रमाणे जाणवो; अने जीवाभिगम सूत्रमा कह्या प्रमाणे ए दशर्नु परस्पर अन्तर जाणवू. तेमज प्रज्ञापना सूत्रना बहुवक्तव्यता पदमां कह्या प्रमाणे त्रणे ज्ञानी, अज्ञानी अने उभयना अल्पबहुत्वो जाणवा. १ अटुण्ड वि छ। ११०.* कालद्वारमा सादि अपर्यवसित (जेनी आदि छे पण अन्त नथी ते) केवलज्ञानी, अने सादि सपर्यवसित (जेनी आदि अने अन्त बजे छ ते) मत्यादिज्ञानवाळो. तेमां केवलज्ञाननो सादिअपर्यवसित काल छे, अने बीजा मत्यादिज्ञाननो सादिसपर्यवसित काल छे. तेमां आदिना बे ज्ञाननी अपेक्षाए जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल कह्यो छे, अन्यथा अवधि अने मनःपर्यवनो जघन्य काल एक समय छे, अने उत्कृष्ट कंइक अधिक छासठ सागरोपम काल आदिना प्रण ज्ञानने आश्रयी कह्यो छे.-टीका. १११. 1 ज्ञानी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, अज्ञानी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी अने विभंगज्ञानीनो स्थितिकाल 'पन्नवणासूत्र'ना अढारमा कायस्थिति पदमां कह्या प्रमाणे जाणवो. तेमां ज्ञानीनो अवस्थितिकाल पूर्वे (सू. ११०.) कहेलो छे, छतां अहीं पण कयो ते एक प्रकरणना संबंधने लीधे कह्यो छ: आमिनिबोधिकज्ञान अने श्रुतज्ञाननो काल जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त, अने उत्कृष्टथी कंइक अधिक छासठ सागरोपम छे. अवधिज्ञाननो उत्कृष्ट स्थितिकाल पण ए प्रकारे छे, पण जघन्यथी एक समय छे. जेमके, ज्यारे कोई विभंगज्ञानी सम्यग्दर्शन पामे त्यारे तेना प्रथम समयेज विभंगज्ञान अवधिज्ञानरूपे परिणत थाय छे, त्यार पछी तरतज बीजे समये पडे त्यारे मात्र एक समय अवधिज्ञान रहे छे. मनःपर्यवज्ञानीनो अवस्थितिकाळ जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी वर्ष होय छे; जेम अप्रमत्त गुणस्थानके वर्तमान कोइ संयतने मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थाय, अने तरतज बीजे समये नष्ट थाय सारे तेने जघन्य एक समय थाय छे भने उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी वर्ष छे; पूर्वकोटी वर्षना आयुषवाळा कोई मनुष्यने चारित्र अंगीकार कर्या पछी तरतज मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थाय अने यावजीव रहे त्यारे तेनो स्थितिकाल उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी वर्ष थाय छे. केवलज्ञाननो 'स्थितिकाल सादि अनन्त छे. अज्ञान, मत्यज्ञान अने श्रुतअज्ञाननो स्थितिकाल त्रिण प्रकारनो छ-१ अनादि अनन्त अभव्योने आश्रयी, २ अनादि सान्त भव्योने आश्रयी, अने ३ सादि सान्त सम्यग्दर्शनथी पडेलाने आश्रयी. तेमां सादि सान्त काल जघन्यथी अन्तमुहूर्त होय छे, केमके कोइ जीव सम्यग्दर्शनथी पडे अने पुनः अन्तर्मुहूर्त पछी सम्यग्दर्शन पामे. उत्कृष्टथी अनन्त काल जाणवो. केमके कोइ जीव सम्यक्त्वथी पड़ी अनंतकाले पुनः सम्यक्त्व पामे. विभंगज्ञाननो स्थितिकाल जघन्यथी एक समय छे, केमके ते उत्पन्न थया पछी बीजे समये तेनो नाश थाय, अने उत्कृष्टथी कंइक न्यून पूर्वकोटी अधिक तेत्रीश सागरोपम छे. जेम कोइ मनुष्यमां कंइक न्यून पूर्वकोटि वर्ष विभंगज्ञानिपणे रहीने सातमी नरक पृथिवीमा उत्पन्न थाय. जुओ-प्रज्ञा० पद. १८. प. ३८९-१६.३. अन्तरद्वारने विषे पांच ज्ञान अने त्रण अज्ञानतुं अन्तर जेम जीवाभिगमसूत्रमा कहुं छे ते प्रमाणे जाणवू. आभिनिबोधिक ज्ञान- परस्पर अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी कइक न्यून अर्ध पुद्गलपरावर्त काल छे. ए प्रमाणे श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानीने पण जाणवं. केवलज्ञा. नीने परस्पर अन्तर नथी. मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानीनुं अन्तर जघन्यथी अन्तर्मुहुर्त अने उत्कृष्टथी कंइक अधिक छासठ सागरोपम होय छे. विर्भगज्ञानीनू जघन्यथी अन्तर अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी (वनस्पतिना काल जेटलो) अनन्तकाल छे. जुओ-(जीवाभि० प. ४५९-१५. ५.) पापांच ज्ञान अने त्रण अज्ञान- अल्पबहुत्व-सौथी थोडा जीवो मनःपर्यवज्ञानी छे, तेथी अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा छ, तेथी आभिनियोधिकं ज्ञानी भने भुतज्ञानी बन्ने विशेषाधिक छे अने परस्पर तुल्य छे, तेथी केवलज्ञानी अनन्तगुण छे. सौथी थोडा विभंगज्ञानी छे, तेथी मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी अनन्त'गुण छे अने परस्पर सरखा छे. तेमा प्रथम ज्ञानीना अल्पबहुत्वमा मनःपर्यवज्ञानी सौथी थोडा छ, कारण के संयतने ज मनःपर्यवज्ञान. होय छे. अवधिज्ञानी चारे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy