SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक ८.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ११२. [प्र०] केवतिया णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! अणंता आभिणियोहियनाणपजवा पन्नत्ता। ११३. [प्र०] केवतिया णं भंते ! सुयनाणपजवा पण्णत्ता ? [उ०] एवं चेव, एवं जाव केवलणाणस्स । एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स य.। ११४. [प्र०] केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपजवा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा! अणंता विभंगनाणपजवा पण्णत्ता। ११५. प्रि०] एएसिणं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवाणं, सुयनाणपजवाणं ओहिनाणपजवाणं मणपजवनाणपजवाणे केवलनाणपजवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा मणपजवनाणपजवा, ओहिनाणपजवा अणंतगुणा, सुयनाणपजवा अणंतगुणा, आभिणिबोहियनाणपजवा अणंतगुणा, केवलनाणपजवा अणंतगुणा। ११२. ग्रिन हे भगवन ! आमिनिबोधिकज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छे? [ उ०] हे गौतम! आभिनिबोधिकज्ञानना अनन्त ग्रामिनियोधिकया नना पर्यायोपर्यायो कह्या छे. ११३. [प्र०] हे भगवन् ! श्रुतज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छ ? [ उ० ] हे गौतम ! पूर्वप्रमाणे [अनन्त पर्यायो ] जाणवा. ए श्रुतज्ञानादिना पर्यायो. प्रमाणे यावत् केवलज्ञानना पर्यायो जाणवा, तेम मतिअज्ञान अने श्रुतअज्ञानना पण पर्यायो जाणवा. ११४. [प्र०] हे भगवन् ! विभंगज्ञानना केटला पर्यायो कह्या छ ? [उ.] हे गौतम ! विभंगज्ञानना अनन्त पर्यायो कह्या छे. विभंगज्ञानना पर्यायो. ११५. [प्र०] हे भगवन् ! ए (पूर्वे कहेला ) आमिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञानना पर्या- पांच शानना पर्यायोमा कोना पर्यायो कोनाथी यावद् विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम ! मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो सौथी थोडा छे, तेथी अवधिज्ञानना योनुं अल्पवत्व. पर्यायो अनंतगुण छे, तेथी श्रुतज्ञानना पर्यायो अनन्त छे, तेथी अनंतगुण आमिनिबोधिकज्ञानना पर्यायो छे, अने तेथी अनंतगुण केवलज्ञानना पर्यायो छे. गतिमा होय छ माटे तेथी असंख्यात गुणा छे. तेथी आभिनिबोधिकज्ञानी अने श्रुतज्ञानी विशेषाधिक होवानुं कारण अवध्यादिज्ञानरहित छतां पण केटलाक 'पंचेन्द्रियजीवो अने केटलाक विकलेन्द्रियो पण (सास्वादनसम्यग्दर्शननो संभव होवाथी) मति-श्रुतज्ञानी होय छे. अज्ञानिना अल्पबहुत्वमा पंचेन्द्रियोनेज विभंगज्ञान संभवे छे माटे ते सौथी थोडा छ, मत्यज्ञानी अने श्रुताज्ञानी एकेन्द्रियो पण होय छे; माटे तेथी तेओ अनन्तगुण छ अने परस्पर तुल्य छे. ज्ञानी अने अज्ञानिना मिश्र अल्पबहुत्वमा सौथी थोडा मनःपर्यवज्ञानी छ, तेथी असंख्यात गुणा अवधिज्ञानी, तेथी आभिनिवोधिकज्ञानी अने श्रुतज्ञानी विशेषाधिक छे अने परस्पर तुल्य छे. तेथी विभंगज्ञानी असंख्यात गुणा छ, केमके सम्यग्दृष्टि देव अने नारक करतां मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुणा छे. तेथी केवलज्ञानी अनन्तगुणा छ, केमके एकेन्द्रिय शिवाय बाकीना सर्व जीवोथी सिद्धो अनन्तगुणा छ, तेथी मत्यज्ञानी अने श्रुताज्ञानी अनन्तगुण छे अने परस्पर तुल्य छे, केमके साधारण वनस्पतिजीवो मतिअज्ञानी अने श्रुतअज्ञानी होय छे अने तेओ सिद्ध पकी अनन्तगुण छे. जुओ-प्रज्ञा० पद. ३ प. १३६-२ पं. १०. ११२. * पर्याय एटले भिन्न भिन्न अवस्थाओ के मेदो. तेना बे प्रकार छे-खपर्याय अने परपर्याय. क्षयोपशमनी विचित्रताथी मतिज्ञानना अवप्रहादि अनन्त भेदो थाय छे ते स्वपर्याय कहेवाय छे, अथवा मतिज्ञानना विषयभूत ज्ञेय पदार्थो अनन्त छे, अने ज्ञेयना मेदथी ज्ञानना पण अनन्त भेदो थाय छे, माटे ते रीते पण तेना अनन्त पर्यायो छे. अथवा केवलज्ञान वडे मतिज्ञानना अंश करता अनन्ता अंश याय ते मतिज्ञानना अनन्त पर्यायो कहेवाय छे. मतिज्ञान शिवाय वीजा पदार्थोना पर्यायो छे ते तेना परपर्यायो छ भने ते स्वपर्यायथी अनन्तगुण छे. अहिं कोई शंका करे के जो ते परपर्यायो छे तो ते मतिज्ञानना छ एम केम कहेवाय, अने जो ते मतिज्ञानना छे तो परपर्यायो केम कहेवाय ? तेनो उत्तर आ प्रमाणे छे-परपदार्थोना पर्यायोनो मतिज्ञानने विषे संबन्ध नयी माटे ते परपर्याय कहेवाय छे, परन्तु मतिज्ञानना खपर्यायोने जाणवामां, अने तेनाथी जूदा पाडवामां प्रतियोगि-संबन्धी तरीके तेनो उपयोग छे माटे वे मतिज्ञानना परपर्यायो कहेवाय छे.-टीका. __ ११३. 1 श्रुतज्ञानना पण खपर्यायो अने परपर्यायो अनन्त छे. तेमां वपर्यायो जे श्रुतज्ञानना अक्षरश्रुतादि मेदो छ ते जाणवा, ते अनन्त छ, केमके तेनो क्षयोपशम विचित्र होवाथी अने विषय अनन्त होवाथी श्रुतानुसारी बोधना अनन्त प्रकार थाय छे. अथवा केवलज्ञान बडे श्रुतज्ञानना अनन्त अंशो थाय ते तेना खपर्याय कहेवाय छे, तेथी भिन्न पदार्थोना विशेष धर्मो ते श्रुतज्ञानना परपर्यायो छे. अवधिज्ञानना अनन्त खपर्यायो छ, कारणके तेना भवप्रत्यय अने क्षायोपशमिक भेदधी, नारक तिर्यच मनुष्य अने देवरूप स्वामीना मेदथी, असंख्य क्षेत्र अने कालना मेदथी, अनन्त द्रव्य पर्यायना मेदथी, अने तेना अनन्त अंशो थता होवाथी तेना अनन्त मेदो थाय छे. ए प्रमाणे मनःपर्यवज्ञानना अने केवलज्ञानना विषयना अनन्त मेदथी तेम अनन्त अंशोनी कल्पनाथी अनन्त पर्यायो थाय छे.-टीका. ११५. अहीं खपर्यायनी अपेक्षाए अल्पबहुत्व समजवं, केमके व अने परपर्यायनी अपेक्षाए सर्व ज्ञानोना सरखा पर्यायो छे. तेमां सौथी थोडा मनःपर्यवज्ञानना पर्यायो छे, केमके तेनो विषय मात्र मन छे. तेथी अवधिज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छे, केमके मनःपर्यवज्ञाननी अपेक्षाए अवधिज्ञाननो विषय द्रव्य अने पर्यायोथी. अनन्तगुण छे. तेथी श्रुतज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छ, केमके तेनो विषय रूपी अने अरूपी द्रव्यो होवाथी तेनाथी अनन्तगुण छे. तेथी आभिनिबोधिकज्ञानना पर्यायो अनन्तगुण छ, कारणके तेनो विषय अभिलाप्य अने अनभिज्ञाप्य पदार्थो होवाशी तेथी अनन्तगुण छे. तेथी केवलज्ञानना । पर्यायो अनन्तगुण छे, केमके तेनो विषय सर्व द्रव्यो भने सर्व पर्यायो होवाथी तेथी अनन्तगुण छे. ए प्रमाणे अज्ञानोना अल्पबहुत्वनुं कारण जाणी लेवु.-टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy