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चउत्थो उद्देसो ।
१. [ प्र० ] रायगिहे जाव एवं बयासी कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ ? [30] गोयमा ! पंच किरियाओ - सामो, तंजहा - काश्या, अहिमरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियां, जाव मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ । सेयं मंते । सेयं भंते! सि
अट्टमस चउत्थो उद्देसो समतो
चतुर्थ उद्देशक.
१. [प्र०] राजगृह नगरमा यावत् [ गौतम] ए प्रमाणे बोल्या के हे भगवन्! केटली क्रियाओ कही छे [उ०] हे गौतम! पांच क्रियाओ कही है, ते आ प्रमाणे कायिकी, अधिकरणिकी-ए प्रमाणे अहीं [ प्रज्ञापना सूत्रनुं बाबीशसुं] सप "क्रियापद यावत् 'मायाप्रत्यधिक क्रियाओ विशेषाधिक हे त्यां सुधी कहे. हे भगवन्! ते एमज छे, हे भगवन् से एमज छे [ एम कही भगवान् गौतम यावत् विहरे के ].
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अष्टमशते चतुर्थ उद्देशक समाप्त
१. कायिकी; अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी अने प्राणांतिपाति की ए पांच क्रियाओ छे. तेमां कायिकी क्रिया ने प्रकारे छे-अनुपरत कायिकी अनेकानि चादि सारा योगची देशी के सर्वदा अनित थपेडाने अनुपरतकाविकी क्रिया होय . आ कि मात्र अरिने हो
योगया से धधकायिकी कद्देवाय छे. आ किया प्रमत्त साने पण होय छे अधिकरणिकी किया प्रकारेाधिकरणको सनेनिर्वर्तनाच संयोजन बनाये आदि माना सापने मेळवी तैयार राखवा ते संयोजनाधिकरडी, अने ना बनावा से निर्वर्तनाधिकरणिकी. पोतानुं, परनुं अथवा बनेनुं अशुभ चिंतवनुं ते प्राद्वेषिकी. जे पोताने परने अथवा उभयने दुःख आपे ते पारितापनिकी. जे पोताने, पर अपना बने जीती रहित करे ये प्राणातिपातिकी विशेषमा जुओ प्रशाप २१.४३५१.
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पांच फिनामो
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