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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ८.-उद्देशक ३. ६.[प्र०] अह भंते ! कुम्मे, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणा, गोणावलिया, मणुस्से, मणुस्सावलिया, महिसे, महिसावलिया-एएसिणं भंते ! दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा? [उ०] हंता फुडा।
७. प्र०] पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा, पादेण वा, अंगुलियाए वा, सलागाए वा, कट्टेण वा, किलिंचेण आमसमाणे वा, संमुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलिहमाणे वा, अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिंदमाणे वा, विछिंदमाणे वा, अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेदं वा कर? [उ०] णो तिण? समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ।
८. [प्र०] कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-रयणप्पभा, जाप अहे सत्तमा, ईसीपभारा।
९. [प्र०] इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा? [उ.] चरिमपदं निरवसेसं भाणियचं । जाव वेमाणिया णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा, अचरिमा? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति।
अट्ठमसए ततिओ उद्देसो समत्तो।
बीवप्रदेशोथी सृष्ट.
बीवप्रदेशोने शसादिकयी पीटा थाय?
६. [प्र०] हे भगवन् ! काचबो, काचबानी श्रेणि, गोधा (घो), गोधानी श्रेणी, गाय, गायनी श्रेणि, मनुष्य, मनुष्यनी श्रेणि, महिष (पाडो), महिषनी श्रेणि-ए बधाना बे, त्रण के संख्याता खंड कर्या होय तो तेओनी वच्चेनो भाग शुं जीवप्रदेशथी स्पृष्ट-स्पर्शायेलो होय ! [उ०] हे गौतम ! हा, स्पृष्ट होय.
७. [प्र०हे भगवन् ! कोइ पुरुष [ते काचबादिना खंडोना ] अन्तराल-वच्चेना भागने हाथथी, पगथी, आंगळीथी, सळीथी, काष्ठथी अने नाना लाकडाथी स्पर्श करतो, विशेष स्पर्श करतो, थोडं विशेष आकर्षण करतो, अथवा कोइ पण तीक्ष्ण शस्त्रना समूहथी छेदतो, अधिक छेदतो, अग्नि वडे बाळतो, ते जीवप्रदेशोने थोडी के अधिक पीडा उत्पन्न करे, या तेना कोइ अवयवोनो छेद करे: उ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी, केमके जीव प्रदेशोने शस्त्र असर करतुं नथी.
पृथ्वीमो.
८. [प्र०] हे भगवन् ! केटली पृथ्वीओ कही छे ? [उ०] हे गौतम! आठ पृथिवीओ कही छे, ते आ प्रमाणे रत्नप्रभा, यावत् अधःसप्तमपृथिवी अने ईषत् प्राग्भारा (सिद्धशिला).
९. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी शुचरम-प्रान्तवर्ती छे के अचरम-मध्यवर्ती छे ? इत्यादि. [उ०] अहीं (प्रज्ञापना सूत्रनुं) 'चरम' पद सघळु कहे. यावत्-प्र०] 'हे भगवन् ! वैमानिको स्पर्श चरम वडे शुं चरम छे के अचरम छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओ चरम पण छे अने अचरम पण छे.' हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. [एम कही भगवान् गौतम यावत् विचरे छे.]
अष्टमशते तृतीय उद्देशक समाप्त.
१तरा छ, (जं अंतरं)ते अतरे घ। २ कलिंचेण घ। ३ संकमहग-घ।
९. * रत्नप्रभा पृथिवी संबन्धे एकवचनान्त अने बहुवचनान्त चरम अने अचरमना चार प्रश्नो, तेमज चरमान्तप्रदेश अने अचरमान्तप्रदेशना बे प्रश्नो मळी छ प्रश्नो छे, भगवान् तेनो उत्तर आपे छे-हे गौतम ! रमप्रभा चरम पण नथी, तेम अचरम पण नथी-इत्यादि. चरम एटळे पर्यन्तवर्ती अगे अचरम एटले मध्यवर्ती. चरमपणु अने अचरमपणुं अन्यवस्तु सापेक्ष छे ते अन्य वस्तुनुं अहीं कथन नहि होवाथी रमप्रभा पृथिवी चरम के अचरम कही शकाय नहि, एज कारणथी बहुवचनान्त चरम, अचरम, चरमान्तप्रदेश अने अचरमान्तप्रदेश पण कही शकाय नहि. परन्तु जो रमप्रभा पृथिवी असंख्यात प्रदेशावगाढ होवाथी तेना भनेक अवयवनी विवक्षा करीए तो ते अचरमरूप, तेम बहुवचनान्त चरमरूप, चरमान्तप्रदेशरूप अने अचरमान्तप्रदेशरूप कही शकाय, कारण के रमप्रभाना प्रान्त भागमा अवस्थित खंडो अनेकपणे विवक्षित करीए त्यारे बहुवचनान्त 'चरम' कही शकाय अने मध्यभागवर्ती खंड एकपणे विवक्षित करीए त्यारे एकवचनान्त 'अचरम' कहेवाय. ए प्रमाणे प्रदेशदृष्टिथी चरमान्तप्रदेश अने अचरमान्तप्रदेशरूप पण कही शकाय.विशेष माटे जुओ-प्रज्ञा. चरमपद.१०.प.१५४-१.
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