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शतक ७.-उद्देशक २.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १. देसुत्तरगुणपञ्चक्लाणे गं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! सत्तविहे पन्नते, तं जहा-२ दिसिधयं, २ उखभोगपरिभोगपरिमाणं, ३ अन्नत्थदंडवेरमणं, ४ सामाश्यं, ५ देसावगासियं, ६ पोसहोवधासो, ७ अतिहिसंविभागो अपच्छिममारणंतियसलेहणायूसणाऽऽराहणता ।
९. [H०] जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपश्चक्खाणी, उत्तरगुणपश्चक्खाणी, अपश्चखाणी १ .[उ०] गोयमा ! जीवा मूलगुणपप्पक्खाणी वि, उत्तरगुणपश्चक्खाणी वि, अपचक्याणी वि।
१०. [प्र०] नेरइया णं भंते ! किं मूलगुणपश्चक्खाणी?-पुच्छा [उ०] गोयमा! नेरइया नो मूलगुणपशक्खाणी, नो उत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी; एवं जाव चउरिदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीवा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया।
११. [प्र०] एएसि णं भंते ! जीवाणं मूलगुणपशक्खाणीणं, उत्तरगुणपश्चपखाणीणं, अपक्वाणीण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपश्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपक्ष क्खाणी अणंतगुणा ।
१२.प्र० एएसिणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। उ०] गोयमा! संवत्थोवा जीवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुणपञ्चपखाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी असंखिजगुणा ।
१३. [प्र०] एएसि णं भंते ! मणुस्साणं मूलगुणपञ्चक्खाणीणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! सवत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी संखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा ।
१४. [प्र०] जीवा णं भंते ! किं सधमूलगुणपश्चक्खाणी, देसमूलगुणपशक्खाणी, अपञ्चक्खाणी ? [उ०] गोयमा ! जीवा सपमूलगुणपञ्चपखाणी, देसमूलगुणपञ्चक्खाणी, अपश्चक्खाणी वि ।
८. [प्र०] हे भगवन् ! देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ०] हे गौतम ! देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान *सात प्रकारे देशोत्तरगुणप्रत्या कडं छे, ते आ प्रमाणे-१ दिग्वत, २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडविरमण, ४ सामायिक, ५ देशावकाशिक, ६ पोषधोपवास, ७ 'अतिथिसंविभाग अने अपश्चिममारणान्तिक-संलेखणाजोषणाऽऽराधना.
९. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो शुं मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी के अप्रत्याख्यानी छ ? [उ.] हे गौतम! जीवो जीवो मूलगुणप्रयामूलगुणप्रत्याख्यानी पण छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी पण छे अने अप्रत्याख्यानी पण छे. १०. [प्र०] हे भगवन् ! नारकजीवो शुं मूलगुणप्रत्याख्यानी छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! नारको मूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, शुं नारको मूलगुण
प्रत्याख्यानी इत्यादि उत्तरगुणप्रत्याख्यानी नथी, पण अप्रत्याख्यानी छे. ए प्रमाणे यावत् चउरिन्द्रिय जीवो जाणवा. पंचेन्द्रिय तिर्यच अने मनुष्यो जेम जीवो कह्या तेम जाणवा. वानमंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक देवो जेम नारको कह्या तेम जाणवा.
११. [प्र०] हे भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण कोनाथी यावत् विशेषा- मूलगुणप्रत्याख्यानी धिक छे ! [उ०] हे गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी जीवो सौथी थोड़ा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी अनंत- वरनु अरुप
ख्यानना प्रकार
ख्यानी-वगेरे.
गुण छे.
१२. [प्र०] हे भगवन् ! ए (पूर्वे कहेला) जीवोमां पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी पंचे- पवेन्द्रियतिथचोर्नु
भल्पबहुत्व. न्द्रिय तिर्यंच जीवो सर्वथी थोडा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. ... १३. [प्र०] हे भगवन् ! ए जीवोमा मूलगुणप्रत्याख्यानी वगेरे मनुष्योनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यो मनुष्यनुं अल्पयजुत्व. सर्वथी थोडा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यो संख्यातगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी मनुष्यो असंख्यगुण छे. १४. [प्र०] हे भगवन् ! झुं जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे के अप्रत्याख्यानी छे ? [उ० हे जीवो सर्वमूलगुण म
याख्यानी वगेरे गौतम ! जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, अने अप्रत्याख्यानी पण छे.'
* विशेष माटे जुओ-(उपासक. प. ६-१.)
4. अपधिम-जेना पछी बीजी संलेखना नथी एटले सौथी छेशी, मारणान्तिक-मरणकाले, संलेखना-शरीर अने कपायादिने कृश करनार तपविशेष-नो जोषणा-खीकारकरवा-वडे आराधन कर ते अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाऽऽराधना. देशोत्तरगुणमा दिग्नतादि सात गुणनी गणना करी, अने आ संले. खनानी गणना न करी तेनुं कारण ए छे के दिग्त्रतादि सात गुणो अवश्य देशोत्तरगुणरूप छ, भने आ संलेखनानो नियम नथी, केमके ते देशोत्तरगुणवाळाने देशोत्तरगुणरूप भने सर्वोत्तरगुणवाळाने सर्वोत्तरगुणरूप छे, तो पण देशोत्तरगुणवाळाने पण अन्ते करवा योग्य छे एम जणाववा आठमी संलेखना कही. जुओ
(भ. टी. प. २९४-१). Jain Education International
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