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शतक ११. - उद्देशक १०.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
७. [प्र० ] तिरियलोपत्रे त्तलोप थे भंते किंसंडिए पते ? [] गोवमा ! इरिडिय] पसे ।
८. [अ०] उसोयखेत्तलोय-पुच्छा [अ०] उड्डमुईगाकारसंठिए पक्षले ।
९. [0] खोप णं मंते किंसंडिए पते १ [ड०] गोयमा सुपडुगसंठिए लोप पप, संजा विधि, जो संखिते, जहा सत्तमसप पदमुदेस जाच अंतं करेति ।
१०. [प्र० ] अलोप णं भंते । किंसंठिए पनते १ [उ०] गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पनन्ते ।
११. [प्र०] अहेलोगखेत्तलोप णं भंते! किं जीवा, जीवदेसा, जीवपपसा ? [उ०] एवं जहा वृंदा दिसा तदेव निरसेसं भाणिय, जाय-भद्धासमय i
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१२. [०] तिरियलोष लोप णं भंते किं जीवा० १ [४०] एवं चेच, एवं उलोवलेतलोर वि, नवरं अमी छविदा, अद्धासमओ नत्थि ।
१३. [प्र० ] लोप णं भंते किं जीवा० १ [उ०] जहा वितियसप अत्थिउद्देसप लोयागासे, नवरं अरूवी सत्तविहा, जा-अम्मत्धिकायस्स परसा, नोआगासत्विकाप, भागासत्विकायस्स देखे, आगासत्विकायपरसा, अद्धासमर, सेसं तं चेच
१४. [प्र० ] अलोए णं भंते! किं जीवा० १ [उ०] एवं जहा अत्थिकायउद्देसप अलोयागासे, तद्देव निरवसेसं जावअतभागूणे ।
'७. [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यग्लोकक्षेत्रलोक केवा संस्थाने छे ? [अ०] हे गौतम! ते झालरने आकारे छे.
८. [प्र०] हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक केवा आकारे छे ? [उ०] हे गौतम ! उभा मृदंगने आकारे छे.
९. [प्र० ] हे भगवन् ! लोक केवा आकारे संस्थित छे ? [उ०] हे गौतम! लोक सुप्रतिष्ठकने आकारे संस्थित छे, ते आ प्रमाणे- लोकनुं संस्थान"नीचे पहोळो, मध्यभागमां संक्षिप्त - संकीर्ण" - इत्यादि * सातमा शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवुं. [ ते लोकने उत्पन्न ज्ञान दर्शनने धारण करनारा केवलज्ञानी जाणे छे अने त्यार पछी सिद्ध थाय छे ] यावद् 'सर्व दुःखोनो अन्त करे छे'.
१०. [प्र०] हे भगवन् ! अलोक केवा आकारे कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! अलोक पोला गोळाने आकारे कह्यो छे.
• लोक संस्थान.
११. [अ०] हे भगवन्! अंधोलोक क्षेत्रलोक शुं जीनरूप छे, जीवदेशरूप छे, जी प्रदेशरूप के इलादि [अ०] हे गौतम! जैम अपोलो जीव + ऐन्द्री दिशा संबन्धे कह्युं छे ते प्रमाणे सर्व अहिं जाणवुं, यावद् 'अद्धासमय (काल) रूप छे'.
रूप के इत्यादि प्रश्न.
१२. [प्र० ] हे भगवन् । तिर्यग्लोक शुं जीवरूप छे इत्यादि [ उ०] पूर्ववत् जाणवुं. ए प्रमाणे ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक संबन्धे पण जाणवु पन्तु विशेष एछे के ऊ अरूपी धन्य छ प्रकारे छे, कारण के वां अद्धा समय नथी.
९ * लोकनुं संस्थान जुओ भग० खं० ३ श० ७ ० १ ० २.
११ + जुओ ऐन्द्री दिशासंबन्धे प्रश्न भग० खं० ३ श० १० १. पृ० १८९. १३ | भग० खं० १ ० २ उ० १० पृ० ३१०. सू० ६६.
१२११२ धर्माखिकामना प्रदेश ३ अधर्मास्तिकाय ४ अधर्मास्तिकायना प्रदेश ५ आकातिकायनो देश, ६ अशास्तिकायना प्रदेशो, भने ७ काल. ए अरूपीना सात प्रकार छे. तेमां प्रथम धर्मास्तिकाय छे. कारण के ते संपूर्ण लोकने विषे विद्यमान छे. धर्मास्तिकायनो देश नथी, केमके लोकमा अखंड धर्मास्तिकाय छे. तथा धर्मास्तिकायना प्रदेशो छे, कारण के धर्मस्तिकाय ते प्रदेशोना समुदायरूप छे. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना 'पण बे मेद जाणवा. आकाशास्तिकाय नथी, कारण के लोकमां तेनो एक भाग छै, अने तेथीज आकाशास्तिकायनो देश छे. आकाशास्तिकायना प्रदेशो छे. तथा काल द्रव्य छे. टीका.
१४ ९ भग० खं० १ ० २ ० १० पृ० ३१० सू० ६७०
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तिर्यग्लोकनुं संस्थान.
१३. [प्र०] हे भगवन् ! लोक शुं जीव छे इत्यादि ? [उ०] बीजा शतकना | अस्तिउद्देशकमां लोकाकाशने विषे कर्तुं छे ते रूप प्रमाणे अहं जाण. परन्तु विशेष एछे के अहिं अरूपी सात प्रकारे जाणवा, यावद् ४ 'अधर्मास्तिकायना प्रदेशो, ५ नोआकाशास्तिकाय
इत्यादि.
· रूप, आकाशास्तिकायनो देश, ६ आकाशास्तिकायना प्रदेशो अने ७ अद्धासमय. बाकी पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवुं.
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१४. [प्र०] हे भगवन् ! अलोक शुं जीव छे इत्यादि ? [उ०] जेम [अस्तिकायउद्देशकमा अलोकाकाराने विषे कयुं छे ते प्रमाणे लोकाकाश जीवअजाण यावत् ते [ सर्वाकाशना ] 'अनन्तमा भाग न्यून छे.
रूप के इत्यादि.
संस्थान.
तिर्यग्लोक जीवरूप के इत्यादि.
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