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३२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १३.-उद्देशक ४. ४२. [प्र०] जत्थ णं भंते ! एगे पुढविक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविकाइया ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र० केवतिया आउकाइया ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवइया तेउकाइया ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवइया वाउकाइआ ओगाढा ? [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? [उ०] अणंता।
४३. [प्र०] जत्थ णं भंते । पगे आउक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० १ [उ०] असंखेजा। [प्र०] केवतिया आउ० ? [उ०] असंखेजा । एवं जहेव पुढविक्काइयाणं वत्तष्वता तहेव सच्चसि निरवसेसं भाणियचं जाव-वणस्सइकाइयाणं, जाव- [प्र०] केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? [उ०] अणंता ।
४४. [प्र०] एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकार्यसि चक्किया केई आसइत्तए वा चिट्टित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा? [उ०] नो इणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा । [प्र०] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एतंसि णं धम्मत्थि० जाव-आगासत्थिकायंसि णो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव-ओगाढा' १ [उ०] गोयमा! से जहानामए-कूडागारसाला सिया, दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा,जहा रायप्पसेणइजे, जाव-दुवारवयणाई पिहेइ, दु०२ पि. हेत्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेजा, से नूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमन्नपुट्ठाओ जाव-अन्नमनघडत्ताय चिटुंति ? हंता चिटुंति । चक्किया गं गोयमा! केई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव-तुयट्टित्तए वा ? भगवं! णो तिणटे समटे । अणंता पुण तत्थ जीवा भोगाढा, से तेणट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जाव-'ओगाढा' ।
४५. [प्र०] कहि णं भंते ! लोए बहुसमे ? कहिणं भंते ! लोए सध्धविग्गहिए पण्णत्ते ? [उ०] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए उवरिमडिल्लेसु खुडागपयरेसु एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सधविग्गहिए पण्णत्ते।
पृथिवीकायिक.
४२. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक पृथिवीकायिक जीव अवगाढ होय त्या बीजा केटला पृथिवीकायिक जीवो रहेला होय ! [उ०] असंख्याता पृथिवीकायिको रहेला होय. [प्र०] केटला अप्कायिक जीवो अवगाढ होय ! [उ०] असंख्याता जीवो अवगाढ होय. [प्र०] केटला तेज कायिक जीवो रहेला होय ? [उ०] असंख्याता रहेला होय. [प्र०] केटला वायुकायिक जीवो रहेला होय! [उ०] असंख्याता रहेला होय. [प्र.] केटला वनस्पतिकायिको रहेला होय ! [उ०] अनन्ता वनस्पतिकायिको रहेला होय.
४३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक अप्कायिक रहेलो होय त्यां केटला पृथिवीकायिक जीवो रहेला होय! [उ०] असंख्याता रहेला होय. [प्र०] केटला अप्कायिको रहेला होय ! [उ०] असंख्याता रहेला होय. ए प्रमाणे जेम पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही, तेम सर्वमी सघळी वक्तव्यता यावत्-वनस्पतिकाय सुधी कहेवी. यावत्-प्र०] केटला वनस्पतिकायिको रहेला होय? उ.] अनन्ता रहेला होय.
भप्कायिक
११ अस्तिकाय-
धर्मास्तिकायादि त्रण द्रव्यमा बेसवाने समर्थ थाय।
४४. [प्र०] हे भगवन् ! आ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अने आकाशास्तिकायने विषे कोइ पुरुष बेसवाने, उभो रहेवाने, नीचे बेसवाने अने आळोटवाने शक्तिमान् होय ! [उ०] हे गौतम! आ अर्थ यथार्थ नथी, परन्तु ते स्थाने तो अनन्ता जीवो अवगाढ-रहेला छे. प्र०] हे भगवन्! शा हेतुथी एम कहो छो के आ 'धर्मास्तिकाय, यावत्-आकाशास्तिकायने विषे कोइ पुरुष बेसवाने शक्तिमान् नथी'इत्यादि यावत्-त्या अनन्ता जीवो अवगाढ-रहेला छे ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ कूटागारशाला होय, तेने अंदर ने बहार लीपी होय, चारे तरफथी ढांकेली होय, अने तेनां बारणां पण बन्ध कां होय-इत्यादि* राजप्रश्नीय सूत्रमा कह्या प्रमाणे तेनुं वर्णन जाणवू, यावत्ते कूटागार शालाना द्वारना कमाडने बंध करी, ते कूटागार शालाना बराबर मध्यभागमा जघन्यथी एक, बे, त्रण अने उत्कृष्टथी एक हजार दीवाओ सळगावे. हे गौतम ! खरेखर ते दीवाओनुं तेज परस्पर मळीने, परस्पर स्पर्श करीने, यावत् एक बीजा साथे एकरूपे थइने रहे ! हा, भगवन् ! रहे, हे गौतम! कोइ पण पुरुष ते दिवाओना तेजमां बेसवाने यावत्-अथवा आळोटवाने शक्तिमान् थाय? हे भगवन्! ए अर्थ योग्य नथी, पण अनन्ता जीवो त्यां अवगाढ-रहेला होय छे, ते माटे हे गौतम! एम कहेवाय छे के यावत्-'अनन्ता जीवो या अवगाढ होय छे.'
१२ बहुसमदार.
४५. [प्र०] हे भगवन् ! लोकनो बराबर सम-(प्रदेशनी वृद्धि हानिरहित) भाग क्या कहेलो छे! हे भगवन् ! लोकनों सर्वथी संक्षिप्तसांकडो भाग क्या कहेलो छे ! [उ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीना उपर अने नीचेना क्षुद्र (लघु) प्रतरने विषे अहिं लोकनो बराबर सिमभाग कहेलो छे, अने अहिंज लोकनो सर्वथी संक्षिप्त (सांकडो) भाग कहेलो छे.
४४ * कूटागारशालानुं वर्णन जुओ-राजप्रश्नीय प०१३४.. . .४५ आ.बन्ने क्षुद् प्रतरोथी आरंभीने उपर अने नीचे प्रतरती वृद्धि थाप छे-टीका.
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