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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ७.-उद्देशक. ९.
मित्ता तुरए निगिण्हइ, तुरए निगिव्हिसा रहं ठवेइ, रहं ठवेत्ता, रहाओ पंच्चोरुहद, रहाओ पचोरुहित्ता तुरए मोपा, तरए मोएत्ता तुरए विसजेइ, तुरए विसजित्ता ब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दम्भसंथारगं दूरुहइ, दम्भसंथारगं रुहिता.
वाभिम संपलियंकनिसन्ने करयल- जाव कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं, जाव संपत्ताणं; नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स, आइगरस्स, जाव संपाविउकामस्स, मम धम्मायरियस्स, धम्मोवदेसगस्स; वंदामि गं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे से भगवं तत्थगए, जाव वंदति, नमंसति, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-पुधिपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए, एवं जाव थूलए परिग्गहे पञ्चक्खाए जावजीवाए, इयाणि पि" अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अंतिए सघं पाणातिवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए, एवं जहा खंदओ, जाय एयं पिणं चरमेहिं ऊसास-नीसासेहि वोसिरिस्सामि त्ति कटु सन्नाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिकंते, समाहिपत्ते, आणुपुष्वीए कालगए । तए णं तस्स वरुणस्स णागणत्तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अवले जाव अधारणिजमिति कट्ठ वरुणं णागणत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिणिक्खममाणं पासइ, पासित्ता तुरए निगेण्हइ, तुरए निगेण्हित्ता जहा वरुणे जाव तुरए विसजेति, पेंडसंथारगं दूरुहइ, पडसंथारगं दूरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अंजलिं कट्टु एवं वयासी-जाई भंते ! मम पियवालवयंसस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स सीलाई, वयाई, गुणाई, वेरमणाई, पञ्चक्खाण-पोसहोववासाई, ताई णं मम पि भवंतु ति कट्ट सन्नाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुचीए कालगए । तए णं तं वरुणं णागणतयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि दिच्चे सुरभिगंधो-दगवासे बुट्टे, दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिघे य गीय-गंधधनिनादे कए या वि होत्था । तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स तं दिवं देविहि, दिवं देवजुति, दिवं देवाणुभागं सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ, जाव परूवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो भवति ।
सर्व प्राण्पति- पातादिविरमण.
भागमा आवे छे, एकान्त भागमा आवी घोडाओने थोभावे छे, थोभावी रथने उभो राखे छे, उभो राखी रथथी उतरे छे, उतरीने रथथी घोडाओने छुटा करे छे, छुटा करी घोडाओने विसर्जित करे छे; विसर्जित करी डाभनो संथारो पाथरे छे, डाभनो संथारो पाथरी पूर्वदिशा सन्मुख ते डाभना संथारा उपर बेसे छे. पूर्वाभिमुख पर्यकासने डाभना संथारा उपर वेसी हाथ जोडी यावत् ते नागनो पौत्र वरुण आ प्रमाणे बोल्यो-पूज्य अर्हतोने नमस्कार थाओ, यावत् जेओ [सिद्धिगतिने ] प्राप्त थया छे. श्रमण भगवान् महावीरने नमस्कार थाओ, जे तीर्थनी आदि करनारा छे, यावत् [सिद्धिने ] प्राप्त करवानी इच्छावाला छे; जे मारा धर्माचार्य अने धर्मना उपदेशक छे. त्यां रहेला भगवानने अहीं रहेलो हुँ वांदुं छु. त्यां रहेला भगवान् मने जुओ. यावत् वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने ते [वरुण ] आ प्रमाणे बोल्योपहेलां में श्रमण भगवान् महावीरनी पासे जीवनपर्यंत स्थूलप्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान कर्यु हतुं, ए प्रमाणे यावत् स्थूल परिग्रहनु प्रत्याख्यान जीवनपर्यंत कर्यु हतुं, अत्यारे अरिहंत भगवान् महावीरनी पासे सर्व प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान यावजीव करूं छु. ए प्रमाणे *स्कन्दकनी पेठे सर्व जाणवू. आ शरीरनो पण छेल्ला श्वासोच्छासनी साथे त्याग करीश, एम धारी सन्नाहपट्ट-बख्तरने छोडे छे, बख्तरने छोडीने [बाणादिना ] शल्यने बहार काढे छे, बहार काढीने आलोचना लइ प्रतिक्रान्त थइ-पडिक्कमी समाधिने प्राप्त थयेलो ते कालधर्म पाम्यो. हवे ते नागना पौत्र वरुणनो एक प्रिय बालमित्र रथमुशल संग्राम करतो हतो, ज्यारे ते एक पुरुषथी सख्त घायल थयो, त्यारे ते शक्तिरहित, बलरहित यावत् पोते 'टकी नहि शके' एम समजी नागना पौत्र वरुणने रथमुशल संग्रामथी बहार नीकळता जुए छे, जोइने ते घोडाओने थोभावे छे, थोभावीने वरुणनी पेठे यावत् घोडाओने विसर्जित करे छे, अने पटना (बस्त्रना) संथारा उपर बेसे छे. संथारा उपर पूर्वदिशा सन्मुख बेसीने यावत् अंजली करीने आ प्रंमाणे बोल्यो-हे भगवन् ! मारा प्रिय बालमित्र नागना पौत्र वरुणना जे शीलवतो, गुणवतो, विरमणवतो, प्रत्याख्यान अने पोषधोपवास होय ते मने पण हो, एम कही वख्सरने छोडे छे, छोडीने शल्यने काढे छे, शल्यने काढीने ते अनुक्रमे कालधर्म पाम्यो. हवे ते नागना पौत्र वरुणने मरण पामेलो जाणीने पासे रहेला वानव्यंतर देवोए तेना उपर दिव्य अने सुगंधी गंधोदकनी वृष्टि करी, पांच वर्णना फुलो तेना उपर नांख्या, तथा दिव्य गीत गान्धर्वनो शब्द पण कर्यो. त्यार वाद ते नागना पौत्र वरुणनी दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति अने दिव्य देवप्रभाव सांभळीने अने जोइने घणा माणसो परस्पर एम कहे छे, यावत् प्ररूपणा करे छे के-हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे घणा मनुष्यो यावत् देवलोकमां उत्पन्न थाय छे.
गंधोदक तथा “पुष्पवृष्टि
पञ्चोरुभति क। २.पुरच्छाभि-घ। ममं ख। ४ णं तस्सेय घ। ५ अरिहंतस्सेव घ। ६ अतियं घ। ७ पडिसं-क विनाऽन्यत्र । ८ दुरुहइ ख, दुरूहद घ। ९ दुरुहि-ख, दुरूहि-घ। १० जयणं-ख। . प्पिय-ख । १२ भाणुपुम्विए ग।
१३. *जुओ (भ. श. २. उ०१ पृ. २४४)
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