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________________ शतक १५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ર 9 उत्थं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से पंचमे पउट्टपरिहारे से णं आलभियाए नगरीए बहिया पत्तकालगयंसि चेयंसि रोहस्स सरीरगं विप्यजहामि, रोह० २ - जहिया भारद्दाइस्स सरीरगं अणुप्यविसामि भा० २ प्यविसित्ता अट्ठारस वासाइं पंचमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से छट्ठे पउट्टपरिहारे से णं वेसालीए नगरीए बहिया कोंडियायणसि इयंसि भारद्वाइयस्स सरीरं विप्पजहामि मा० २ जहित्ता अजुगगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुष्पविसामि अ० २ -प्पविसित्ता सत्तरस वासाई छटुं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से सत्तमे पउट्टपरिहारे से णं इहेव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अनुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजदामि अज्जुण० २ विप्यजहित्ता । गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं 'अलं थिरं धुवं धारणिजं सीयसहं उण्हसहं खुद्दासहं विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणं ति कट्टु तं अणुप्यविसामि तं० २ प्यवित्ता सोलस वासाई दमं सत्तमं पडट्टपरिहारं परिहरामि । एवमेव आउसो कासवा ! एगेणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पट्टपरिहारा परिहरिया भवतीति मक्खाया, तं सु णं आउसो कासवा 1 मर्म एवं वयासी, साधु गं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी- 'गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासि सि गोसाले ० २ ॥ १४. तरणं समणे भगवं महाबीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बवासी 'गोसाला ! से जहानामए तेणए सिया, गामेलपहि परम्भमाणे प० २ कत्थ य गडुं वा दरि वा दुग्गं वा णिनं वा पचयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उन्नालोमेण वा सणलोमेण या कप्पापपण या तणसूपण या असणं आवरेत्ता णं चिद्वेजा, से णं अणावरिय आवरियमिति अप्पाणं मन्नइ, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मन्नति, अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मन्नति, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मति एयामेव तु पि गोसाला ! अपने संते अन्नमिति अप्याणं उपलभसि तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला ! 3 , सच्चैव ते सा छाया नो अन्ना' । १५. तर से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं सुते समाणे आसुरुते ५ समणं भयं महावीरं उच्चावचाहि आउसणाहि आउसति, उच्चा० २ आउसित्ता उच्चावयाहि उणादि उसेति उसेत्ता उद्यादवाहि निमं शरीरान्तर परावर्तन के ते वाराणसी नगरीनी बहार काममहावन नामे चैलने विषे मंडिकना शरीरनो व्याग करी रोहकना शरीरमा प्रवेश कर्यो, प्रवेश करीने खां ओगणीश वर्ष सुधी चोधुं शरीरान्तर परावर्तन कई रोमां जे पांच शरीरान्तर परावर्तन छे ते आलभिका नग रीनी बहार प्राप्तकाल नागे चैखने विषे रोहना शरीरनो त्याग करी भारद्वाजना शरीरमा प्रवेश क्यों प्रवेश करीने अठार वर्ष सुधी पांचमुं पश शरीरान्तर परावर्तन क तेमां जे छ शरीरान्तर परावर्तन छे ते वैशाली नगरीनी बहार कुंडियायननामे चैत्यने लिये भारद्वाजमा शरीरनो स्याग करी गौतमपुत्र अर्जुनना शरीरमा प्रवेश कर्यो, प्रवेश करीने त्यां सत्तर वर्ष सुची शरीरान्तर परावर्तन क तेमां जे सातर्मु शरीरान्तर परावर्तन छे ते आज श्रावस्ती नगरीने विषे हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण - हाटने विषे गौतमपुत्र अर्जुनना शरीरनो त्याग करी मंखलिपुत्र गोशालकनुं शरीर समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करवा योग्य, शीतने सहन करनार, उष्णताने सहन करनार, क्षुधाने सहन करनार, विविध डांस मच्छर वगैरे परिषह अने उपसर्गने सहन करनार, तथा स्थिर छेएम समजी तेमां में प्रवेश कर्यो, अने तेमां सोळ वरससुधी आ सातमुं शरीरान्तरपरावर्तन कयुं छे. ए प्रमाणे हे आयुष्मन् काश्यप ! में एकसो तेत्रीश वर्षमां सात शरी- सप्तमशरीरप्रवेश. रान्तर परावर्तन कर्या -एम में कहुं छे. ते माटे हे आयुष्णन् काश्यप । तमे मने ए प्रमाणे सारं कहो छो, हे आयुष्मन् काश्यप ! तमे मने ए प्रमाणे ठीक कहो छो के 'लिपुत्र गोशालक मारो धर्मान्तेवासी छे'. २. १४. [ उपर प्रमाणे गोशालके कह्युं एटले ] श्रमण भगवान् महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे क- 'हे गोशालक ! जेम कोइ चोर होय अने ते ग्रामवासी जनोपी पराभव पामतो २ कोइ गर्ता-खाडो, गुफा, दुर्ग- दुःखे जया योग्य स्थान, निन-नीचाण प्रदेश, पर्वत के विषमखाडा अने टेकरामाला प्रदेशने नहि प्राप्त करतो एक मोटा उनना खोमची, शणना कोमधी, कपासना टोमधी अने तृणना अग्रभागथी पोताने ढांकीने रहे, अने ते नहि ढंकाया छतां हुं ढंकायेल छं एम पोताने माने, अप्रच्छन्न- नहि छुपाया छतां पोताने प्रच्छन्न–छुपायेल माने, नहि संतावा छतां पोताने संतायेल माने, अपलापित- गुप्त नहि छतां पोताने गुप्त माने, ए प्रमाणे हे गोशालक ! तुं पण अन्य नहि छतां हूं अन्य हूं-एम पोताने देखावे छे. ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, हे गोशालक एम करवाने तु योग्य नथी. ! तेज आ तारी प्रकृति छे, अन्य नथी. १५. श्रमण भगवान् महावीरे ९ प्रमाणे कां एटले ते मंसलिपुत्र गोशालक एकदम गुस्से वयो जने भ्रमण भगवान् महावीरने अनेक प्रकारना अनुचित बचनोवडे आक्रोश करया साम्यो, आक्रोश करीने अनेक प्रकारनी उदर्पणा-पगभवना वचनोवढे तिरस्कार करवा लाग्यो, तिरस्कार करी अनेक प्रकारनी निर्भर्त्सना वडे निर्भसित करवा लाग्यो, निर्भर्त्सना करी अनेक प्रकारनी निश्छोना - कर्कश Jain Education International For Private & Personal Use Only षष्ठशरीरप्रवेश. भगवन्ते कथं के हे पोशाक! सारा आत्माने पावे छे. वचनो कहेवा. www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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