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शतक ७.-उद्देशक ७.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७. प्र० एएसिणं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं, नोकामीणं नोभोगीणं, भोगीण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा कामभोगी, नोकामी नोभोगी अणंतगुणा, भोगी अणंतगुणा ।' - १८. [प्र०] छउमत्थे णं भंते ! मणूसे जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजित्तए, से तृणं भंते ! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं, कम्मेणं, वलेणं, वीरिएणं, पुरिसकार-परकमेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए ? से पूर्ण भंते ! एयमटुं एवं वयह ? [उ०] गोयमा! णो 'तिणटे समटे, पभू णं भंते ! से उठाणेण वि, कम्मेण वि, वलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसकार-परक्कमेण वि अन्नयराई विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिचयमाणे महानिजरे, महापजवसाणे भवइ ।
१९. [प्र०] आहोहिए णं भंते ! मैणूसे जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु ? [उ०] एवं चेव, जहा छउमत्थे जाव महापजवसाणे भवति ।
२०. [प्र०] परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए, जाव अंतं करेत्तए, से पूर्ण भंते ! से खीणभोगी-? [उ०] सेसं जहा छउमत्थस्स।
२१. [प्र०] केवली णं भंते ! मैणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं ? [उ०] एवं जहा परमाहोहिए, जाव महापज्जयसाणे भवइ ।
२२. [प्र. जे इमे भंते! असन्निणो पाणा, तं जहा-पुढविक्काइआ जाव वणस्सइकाइआ, छट्ठा य एगतिया तसा, एए गं अंधा, मूढा, तमं पविट्ठा, तमपडल-मोहजालपड़िच्छन्ना अकामनिकरणं वेदणं वेदन्तीति वत्तवं सिया? [उ०] हंता, गोयमा! जे इमे असन्निणो पाणा, जाव पुढविकाइआ जाव वणस्सइकाइआ छट्ठा य जाव वेदणं वेदेंतीति वत्तवं सिया।
अस्पबहुल
छयस्य मनुष्प
१७. प्र०] हे भगवन् ! कामभोगी, नोकामी नोभोगी अने भोगी जीवोमां कया जीवो क्या जीवोथी यावत् विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम ! कामभोगी जीवो सौथी थोडा छे, नोकामी नोभोगी जीवो अनन्तगुण छे, अने भोगी जीवो अनन्तगुण छे.
१८. [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य जे कोइ पण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते क्षीणभोगी-दुर्बलशरीरवाळो उत्थान वडे, कर्म वडे, बल वडे, वीर्य वडे अने पुरुषकार-पराक्रम वडे विपुल एवा भोग्य भोगोने भोगववा समर्थ छे ? हे भगवन् ! खरेखर आ अर्थने आ प्रमाणे कहो छो! [उ० ] हे गौतम ! आ अर्थ योग्य नथी. ते उत्थान वडे पण, कर्म वडे पण, बलवडे पण, वीर्य वडे पण अने पुरुषकार-पराक्रम वडे पण कोइ पण विपुल एवा भोग्य भोगोने भोगववा समर्थ छे, ते माटे ते भोगी भोगोनो त्याग करतो महानिर्जरावाळो अने महापर्यवसान-महाफलवाळो थाय छे.
१९. [प्र०] हे भगवन् ! अधोऽवधिक-नियतक्षेत्रना अवधिज्ञानवाळो-मनुष्य जे कोइ पण देवलोकमा देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य अधोवषिशानी. छे ते क्षीणभोगी पुरुषकार-पराक्रमवडे विपुल भोगोने भोगववा समर्थ छे? [ उ०] ए प्रमाणे छद्मस्थनी पेठे यावत् ते महापर्यवसानमहाफलवाळो थाय छे.
२०. [प्र०] हे भगवन् ! परमावधिज्ञानी मनुष्य जे तेज भवमा सिद्ध थवाने यावत् [ सर्व दुःखोनो] अन्त करवाने योग्य छे, हे परमावधि ज्ञानी. भगवन् ! खरेखर ते क्षीणभोगी विपुल भोगोने भोगववा समर्थ छे? [उ.] बाकी- सर्व उमस्थनी पेठे जाणवु.
२१. [प्र०] केवलज्ञानी मनुष्य जे तेज भवमां सिद्ध थवाने यावत् [दुःखोनो] अन्त करवाने योग्य छे ते-[ विपुल भोगोने भोगववा समर्थ छे?][उ.] परमावधिज्ञानी पेठे जाणवं, यावत् ते महापर्यवसान-महाफलवाळो थाय छे.
फेवलशानी.
२२. [प्र०] हे भगवन् ! जे आ "असंज्ञी-मनरहित प्राणीओ छे, जेमके, पृथिवीकायिको यावत् बनस्पतिकायिको अने छटा केटला असंधी जीयो मकामएक (संमूर्छिम ) त्रसजीवो, जेओ अंध-अज्ञानी, मूढ, अज्ञानान्धकारमा प्रवेश करेला, अज्ञानरूप आवरण अने मोहजाल बडे ढंकायेला छे पूर्वक पेदना । तेओ अकामनिकरण-अनिच्छापूर्वक-वेदना वेदे छे एम कहेवाय ! [उ.] हा, गौतम! जे आ असंज्ञी प्राणीओ पृथिवीकायिको यावत् वनस्पतिकायिको अने छठा [संमूर्छिम सो अनिच्छापूर्वक वेदना वेदे छे एम कहेवाय.
इणहे घ। २ मणुस्से घ। ३ मणुस्से घ। ४-छिना ख।
२२. * 'जे असंज्ञी-मनरहित प्राणीओ छे, तेओने मन नहि होवाथी. इच्छाशक्ति भने ज्ञानशक्तिने अभावे भकामनिकरण-अनिष्ठापूर्वक अज्ञानपणे वेदना-सुखदुःखनो अनुभव करे आवो प्रश्ननो भावार्थ छ, तेना उत्तरमा 'हा' अनुभव करे एम कयुं छे.
४ भ. सू.
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