________________
शतक ९.-उद्देशक ३३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
१७१ १८. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं घयासी-तहा वि णं तं अम्म-याओ! गं तुम्मे मम एवं यह-इमाओ ते जाया! विपुलकुल- जाव पवाहिसि; एवं खलु अम्म-याओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई, असासया, चंतासवा, पित्तासवा, खेलासवा, सुकासवा, सोणियासवा, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-पूय-सुक्क-सोणियसमुभवा, अमणुनदुरूव-मुत्त-पूइय-पुरिसपुन्ना, मयगंधुस्सास-असुभनिस्सासउष्वेयणगा, बीभत्था, अप्पकालिया, लहूसगा, कलमलाहियासदुक्खबहुजणसाहारणा, परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा, अबुहजणणिसेविया, सदा साहुगरहणिजा, अणंतसंसारवद्धणा, कडुगफलविवागा चुडल्लिष्ठ अमुच्चमाणदुक्खाणुबंधिणो, सिद्धिगमणविग्या; से के सणं जाणइ अम्म-याओ! के पुचि गमणयाए के पच्छा ? तं इच्छामि णं अम्म-याओ! जाव पश्चात्तए ।
१९. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमे य ते जाया! अजय-पज्जय-पिउपज्जयागए सुबहुहिरन्ने य, सुवन्ने य, कंसे य, दूसे य, विउलधण-कणग- जाव संतसारसावएजे, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलघंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्तं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सए इद्वि-सकारसमुदए, तो पच्छा अणुहूयकल्लाणे, वड्डियकुलवंस- जाव पवइहिसि ।
२०. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म-याओ! जणं तुम्भे ममं एवं वदह-इमं च ते जाया! अजग-पजग- जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्म-याओ! हिरने य, सुवन्ने य, जाव सावएज्ये अग्गिसाहिए, चोरसाहिए, रायसाहिए, मञ्चसाहिए, दाइयसाहिए, अग्गिसामने जाव दाइयसामन्ने, अधुवे, अणितिए, असासए, पुष्विं वा पच्छा वा अवस्स विप्पजहियो भविस्सइ, से केस णं जाणइ तं चेव जाव पवइत्तए।
___२१. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्म-याओ जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य, पन्नवणाहि य, सन्नवणाहि य, विनवणाहि य आघवेत्तए वा, पनवेत्तए वा, सन्नवेत्तए वा, विनवेत्तए वा, ताहे विसयपडिकूलाहिं
१८. त्यारपछी ते जमालि नामे क्षत्रियकुमारे पोताना माता पिताने आ प्रमाणे कयु के-'हे माता-पिता! हमणा तमे जे मने कह्यु नमालि. के-हे पुत्र ! तारे विशाल कुलमा [ उत्पन्न थयेली आ आठ स्त्रीओ छे ]-इत्यादि यावत् तुं दीक्षा लेजे, ते ठीक छे. पण हे माता-पिता ! ए प्रमाणे खरेखर मनुष्यसंबन्धी कामभोगो अशुचि अने अशाश्वत छे; वात, पित्त, श्लेष्म, वीर्य अने लोहीने झरवावाळा छे; विष्ठा, मूत्र, मनुष्पसबन्धी श्लेष्म, नासिकानो मेल, वमन, पित्त, परु, शुक्र अने शोणितथी उत्पन्न थयेलां छे; वळी ते अमनोज्ञ, खराब मूत्र अने दुर्गन्धी विष्ठाथी भर- कामभागी
कामभोगो मशुचि
भने मशाश्वत के पुर छे; मृतकना जेवी गंधवाळा उच्छासथी अने अशुभ निःश्वासथी उद्वेगने उत्पन्न करे छे, बीभत्स, अल्पकाळस्थायी, हलका, अने कलमल-(शरीरमा रहेल एक प्रकारना अशुभ द्रव्य )ना स्थानरूप होवाथी दुःखरूप अने सर्व मनुष्योने साधारण छे; शारीरिक अने मानसिक अत्यंत दुःखवडे साध्य छ; अज्ञान जनथी सेवाएला छे; साधु पुरुषोथी हमेशां निंदनीय छ; अनंत संसारनी वृद्धि करनारा छे, परिणामे कटुकफळवाळा छे, बळता घासना पूळानी पेठे न मुकी शकाय तेवा दुःखानुबंधी अने मोक्षमार्गमां विघ्नरूप छे. वळी हे माता-पिता ! ते कोण जाणे छे के कोण पहेलां जशे अने कोण पछी जशे ? माटे हे माता-पिता ! हुं यावद् दीक्षा लेवाने इच्छं छु.'
१९. त्यारपछी ते जमालि नामे क्षत्रियकुमारने तेना माता-पिताए आ प्रमाणे कयु के हे पुत्र ! आ अर्या (पितामह ), पर्या मात-पिता, (प्रपितामह ) अने पिताना पर्या-(प्रपितामह-) थकी आवेलं घणुं हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र, विपुल धन, कनक यावत् सारभूत हिरण्यादिनो उपद्रव्य विद्यमान छे, अने ते तारे सात पेढी सुधी पुष्कळ दान देवाने पुष्कळ भोगववाने अने वहेंचवा माटे पूरतुं छे. माटे हे पुत्र! मनुष्य- भोग कर संबन्धी विपुल ऋद्धि अने सन्मानने भोगव, अने त्यारपछी सुखनो अनुभव करी, अने कुलवंशने वधारी यावत् तुं दीक्षा लेजे.'
२०. त्यारबाद जमालि नामे क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने आ प्रमाणे कयु के-'हे माता-पिता ! तमे जे ए प्रमाणे कर्यु नमालि. के, 'हे पुत्र! आ हिरण्यादि द्रव्य तारा पितामह अने प्रपितामहथी यावत् आवेलुं छे, इत्यादि यावत् तुं दीक्षा लेजे. ए ठीक छ, पण हे माता-पिता ! ए प्रमाणे खरेखर ते हिरण्य, सुवर्ण, यावत् सर्व सारभूत द्रव्य अग्निने साधारण छे, चोरने साधारण छे, राजाने साधारण हिरण्यादि भनि य
भने भशापाठे. छे, मृत्युने साधारण छे, दायाद (भायात) ने साधारण छे, अग्निने सामान्य छे, यावद् दायादने सामान्य छे. वळी ते अध्रुव, अनित्य, अने अशाश्वत छे. पहेलां के पछी ते अवश्य छोडवानुं छे, तो कोण जाणे छे के पहेला कोण जशे अने पछी कोण जशे ? इत्यादि यावत् हुं प्रव्रज्या लेवाने इच्छं छु.'
२१. ज्यारे जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता पिता विषयने अनुकूल एवी घणी उक्तिओ, प्रज्ञप्तिओ, संज्ञप्तिओ अने विज्ञप्तिओथी मात-पिताकहेवाने, जणाववाने, समजाववाने, विनववाने समर्थ न थया त्यारे तेओए विषयने प्रतिकूल, अने संयमने विषे भय अने उद्वेग करनारी
-सयका-ग,-स्सया ङ। २ भालाहि ग।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.