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________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ९.-उद्देशक ३३. १५. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमं च ते जाया! सरीरगं पंविसिटुरुव-लक्षणबंजणगुणोववेयं, उत्तमबल-वीरीय-सत्तजुत्तं, विण्णाणवियक्खणं, संसोहागुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खम, विविवाहित रोगरहियं, निरुवय-उदत्त-लटुं, पंचिंदियपडुपढमजोधणत्थं, अणेगउत्तमगुणेहिं संजुत्तं, तं अणुहोहि ताव जाया! नियगसरीररूव-सोहग्ग-जोवणगुणे, तओ पच्छा अणुभूय नियंगसरीररूव-सोहग्गजोधणगुणे अम्हेहिं कालगएहि समाणेहि परिणयवये, वद्वियकुलवंसतंतुकजम्मि निरवयवखे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइहिसि। १६. तए णं से जमाली स्वत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं व्यासी-तहा विणं तं अम्म-याओ! जं गं तुम्भे ममं एवं 'वदह-इमं च णं ते जाया! सरीरगं तं चेव जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्म-याओ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं, विविहवाहिसयसंनिकेतं, अट्ठियकट्ठट्ठियं, छिरा-पहारुजालओणद्धसंपिणद्धं, मट्टियभंडं व दुबलं, असुइसंकिलिटुं, अणिट्ठवियसवकालसंठप्पयं, जराकुणिम-जन्जरघरं व सडण-पडण-विद्धसणधम्मं, पुश्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियचं भविस्सर; से के सणं जाणति अम्मयाओ! के पुषिं तं चेव जाव पवइत्तए। १७. तए गं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरोएवं वयासी-इमाओ य ते जाया! विपुलकुलबालियाओ सरिसियाओ, सरित्तयाओ, सरिचयाओ, सरिसलावन्न-रूव-जोधणगुणोववेयाओ, सरिसरहिंतो कुलेहितो आणिपल्लियाओ कलाकुसल-सवकाललालिय-सुहोचियाओ, मद्दवगुणजुत्त-निउणविणओवयारपंडिय-वियवखणाओ, मंजुल-मिय-महुरभणियविहसिय-विप्पेक्खियगति-विलास-चिट्ठियविसारदाओ, अविकलकुल-सीलसालिणीओ, विसुद्धकुल-वंससंताणतंतुवद्धणप्पगन्भवयभाविणीओ, मणाणुकूल-हियइच्छियाओ, अट्ट तुज्झ गुणवल्लहाओ, उत्तमाओ, निचं भावाणुरत्तसधंगसुंदरीओ भारियाओ, तं भुंजाहि ताव जाया ! एताहिं सद्धि विउले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी, विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले अम्हहिं कालगएहिं जाव पवइहिसि । माननीता १५. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारने तेना माता पिताए आ प्रमाणे कर्यु के-“हे पुत्र ! आ तारं शरीर उत्तम रूप, लक्षण, व्यंजन (मस, तल वगेरे) अने गुणोथी युक्त छे, उत्तम बल, वीर्य अने सत्त्वसहित छे, विज्ञानमा विचक्षण छे, सौभाग्य गुणथी उन्नत छे, कुलीन छे, अत्यन्त समर्थ छे, अनेक प्रकारना व्याधि अने रोगथी रहित छे, निरुपहत, उदात्त, अने मनोहर छे, पटु (चतुर) एवी पांच इन्द्रियोथी युक्त अने उगती युवावस्थाने प्राप्त थयेलं छे, अने ए शिवाय बीजा अनेक उत्तम गुणोथी भरपूर छे. माटे हे पुत्र ! ज्यां सुधी तारा पोताना शरीरमा रूप, सौभाग्य तथा यौवनादि गुणो छे त्यांसुधी तेनो तुं अनुभव कर, अने अनुभव करी अमो कालगत थया पछी वृद्धावस्थामा कुलवंशरूप तन्तुनी वृद्धि करीने निरपेक्ष एवो तुं श्रमण भगवान् महावीर पासे दीक्षा लइने गृहवासनो त्याग करी अनगारिकपणाने स्वीकारजे. १६. त्यारपछी ते जमालि क्षत्रियकुमारे पोताना माता-पिताने ए प्रमाणे कयु के-'हे माता-पिता! ते बरोबर छे, पण जे तमे मने ए प्रमाणे कर्दा के'हे पुत्र! आ तारुं शरीर [ उत्तमरूप, लक्षण व्यंजन अने गुणोथी युक्त छे] इत्यादि यावत् [ अमारा कालगत थया पछी ] तुं दीक्षा लेजे.' पण ए रीते तो हे माता--पिता ! खरेखर आ मनुष्यनुं शरीर दुःखनुं घर छे, अनेक प्रकारना सेंकडो व्याधिओर्नु स्थान छे, अस्थिरूप लाकडानुं बनेलं छे, नाडीओ अने स्नायुना समूहथी अत्यन्त विटाएल छे, माटीना वासणनी पेठे दुर्बल छे, अशुचिथी भरपूर छे, जेनुं शुश्रूषा कार्य हमेशा चालु छे. जीर्ण मृतक अने जीर्ण घरनी पेठे सडवू, पडवू अने नाश पामवो-ए तेना सहज धर्मो छे. बळी ए शरीर पहेला के पछी अवश्य छोडवानुं छे. तो हे माता-पिता! ते कोण जाणे छे के कोण पहेलां [जशे अने कोण पछी जशे.! ] इत्यादि. बमालि. माता-पिता १७. त्यारपछी तेना माता-पिताए ते जमालि क्षत्रियकुमारने आ प्रमाणे कधू के-'हे पुत्र! आ तारे आठ स्त्रीओ छे, ते विशाल कुलमा उत्पन्न थयेली अने बाळाओ छे, ते समान त्वचावाळी, समान उमरवाळी, समान लावण्य, रूप अने यौवनगुणथी युक्त छे; वळी ते समान कुलथी आणेली, कलामां कुशल, सर्वकाल लालित अने सुखने योग्य छे; ते मार्दवगुणथी युक्त, निपुण, विनयोपचारमा पंडित अने विचक्षण छे; सुंदर मित, अने मधुर बोलवामा, तेमज हास्य, विप्रेक्षित, (कटाक्ष दृष्टि ), गति, विलास अने स्थितिमा विशारद छे; उत्तम कुल अने शीलथी सुशोभित छे विशुद्ध कुलरूप वंशतंतुनी वृद्धि करवामां समर्थ यौवनवाळी छे: मनने अनुकूल अने हृदय वळी गुणो वडे प्रिय अने उत्तम छे, तेमज हमेशा भावमा अनुरक्त अने सर्व अंगमां सुंदर छे. माटे हे पुत्र! तुं ए स्त्रीओ साथे मनुष्यसंबन्धी विशाल कामभोगोने भोगव अने त्यार पछी भुक्तभोगी थइ विषयनी उत्सुकता दूर थाय त्यारे अमारा कालगत थया पछी यावत् तुं दीक्षा लेजे.' १.पतिविसिह-क। २ ससोभन्ग-क-ङ। ३-समूसियं क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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