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________________ शतक ८.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १११ चमाई वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो; देसवंधंतरं जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालंवणस्सइकालो; एवं जाव अच्चुए । नवरं जस्स जा ठिती सा सवबंधंतरं जहण्णेण वासपुहत्तमभहिया कायवा, सेस तं चेव । ५७. [प्र०] गेवेजकप्पातीय-पुच्छा । [उ.] गोयमा! सतवंधंतरं जहन्नेण बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो । देसवंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। ५८. [प्र०] जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइय-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सबबंधंतरं जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाइं । देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाई । ५९. [प्र०] एएसिणं भंते! जीवाणं वेउचियसरीरस्स देसवंधगाणं, सवबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा? [उ०] गोयमा! सवत्थोवा जीवा वेउवियसरीरस्स सच्चवंधगा, देसबंधगा असंखेजगुणा, अवंधगा अणंतगुणा । ६०. [३०] आहारगसरीरप्पओगवंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? उ०] गोयमा! एगागारे पण्णत्ते । ६१. [प्र०] जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्साहारगसरीरप्पओगवंधे, अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे ? [उ०] गोयमा! मणुस्साहारगसरीरप्पओगबंधे, नो अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगवंधे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इडिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिहिपजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरप्पओगबंधे, णो अणिढिपत्तपमत्त० जाव आहारगसरीरप्पओगवंधे। , ६२. [प्र०] आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? [उ०] गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दधयाए जाव लद्धिं च पडुञ्च आहारगसरीरप्पओगणामाए कम्मरस उदएणं आहारगसरीरप्पओगबंधे। गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी *वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम, अने उत्कृष्ट अनंतकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त होय. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अने उत्कृष्ट अनंतकाल-वनस्पतिकाल होय. ए प्रमाणे यावद् अच्युत देवलोकपर्यन्त जाणवं, परन्तु सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी जेनी जे स्थिति होय ते वर्षपृथक्त्व अधिक करवी. बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू. ५७. [प्र०] ग्रैवेयक कल्पातीत वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धना अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी गैवेयककरुपातीत. वर्षपृथक्त्व अधिक बावीश सागरोपम, अने उत्कृष्टथी अनंतकालं-वनस्पतिकाल सुधी होय. तथा देशबन्धन अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अने उत्कृष्टथी वनस्पतिकाल जाणवो. ५८. [प्र०] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेवसंबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व अधिक अनुत्तरोपपातिक. एकत्रीश सागरोपम, अने उत्कृष्टथी संख्यात सागरोपम छे. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी वर्षपृथक्त्व, अने उत्कृष्टथी संख्यात सागरोपम होय छे. ५९. [प्र०] हे भगवन्! ए वैक्रियशरीरना देशबंधक, सर्वबंधक अने अबंधक जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावद् अपबहुस्व. विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! वैक्रियशरीरना सर्वबन्धक जीवो सौथी थोडा छे, तेथी देशबन्धको असंख्यातगुणा छे, अने तेथी अबन्धको अनन्तगुणा छे. ६०. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरनो प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! एक प्रकारनो कह्यो छे. आहारकशरीरम योगबन्ध. ६१. [प्र०] जो (आहारकशरीरप्रयोगबन्ध) एक प्रकारनो कह्यो छे तो शुं ते मनुष्योने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध छे के मनुष्य- अहारकशरीर प्रयो. शिवाय बीजा जीवोने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध छे! [उ०] हे गौतम! मनुष्योने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण मनुष्य शिवाय, गबन्ध मनुष्य के ते 4 शिवाय चीजाने होय. बीजा जीवोने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होतो नथी. ए प्रमाणे ए अभिलापथी अवगाहनासंस्थान' पदमां कह्या प्रमाणे यावद् ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्षना आयुष्वाळा कर्मभूमिमा उत्पन्न थएला गर्भज मनुष्यने आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे, पण ऋद्धिने अप्राप्त प्रमत्तसंयतने यावद् आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होतो नथी. ६२. [प्र०] हे भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी होय छे ? [उ०] हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता अने भाधारक शरीरप्रयो गवन्ध कया कर्मना सद्रव्यताथी यावद् लब्धिने आश्रयी आहारकशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होय छे. उदयधी होय! १-पुहुत्तम-ग। २ अचुया क। ३-बंधतरे क ।४-पुहुत्त ग-ङ। ५-भूमिगगम्भ -ग, भूमिगठभ-ङ। ६ लड़ि वा ङ। ५६. *आनतकल्पनो कोई देव अढार सागरोपमना आयुषवाळो उत्पत्तिने प्रथम समये सर्वबन्धक होय, अने त्यांची च्यवीने वर्षपृथक्त्व आयुषपर्यन्त मनुष्यमा रहीने पुनः तेज आनत कल्पमा उत्पन्न थईने प्रथम समये सर्वबन्धक थाय, तेथी सर्वबन्धनुं जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व अधिक अढार सागरोपम जाणवू-टीका. ५८. अनुत्तरोपपातिकने विषे उत्कृष्ट सर्वबंधान्तर अने देशबंधान्तर संख्याता सागरोपम छे, कारण के त्यांथी च्यवीने अनन्तकाल संसारमा भ्रमण करतो नथी-टीका. ६१. प्रज्ञा० पद. २१ प. ४२३-१.५-११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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