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श्रीरायचन्द्र-जिनांगमसंग्रहे
शतक ८.-उद्देशक १० २७. [प्र०] वीससापरिणता णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-पन्नपरिणता, गंधपरिणता, रसपरिणता, फासपरिणता, संठाणपरिणता । जे वनपरिणता ते पंचविहा पन्नता, तं जहा-कालवनपरिणता, जाव सुक्किलवनपरिणता।जे गंधपरिणता ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुन्भिगंधपरिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया वि, एवं जहा पनवणाए तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणतो आयतसंठाणपरिणता ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि ।
२८. [प्र०] एगे भंते ! दवे किं पयोगपरिणए, मीसापरिणप, वीससापरिणए ? [उ०] गोयमा ! पयोगपरिणए था, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा।
२९. [प्र०] जेदि पयोगपरिणते किं मणप्पयोगपरिणए, वैयप्पयोगपरिणए, कायप्पयोगपरिणए ? [उ०] गोयमा ! मणप्पओगपरिणए वा, घेयप्पयोगपरिणए वा, कायप्पओगपरिणए वा ।
३०. [प्र०] जदि मणप्पओगपरिणते किं सच्चमणप्पयोगपरिणते, मोसमणप्पयोगपरिणते, सञ्चामोसमणप्पयोगपरिणते, असच्चामोसमणप्पओगपरिणते ? [उ०] गोयमा! संचमणप्पयोगपरिणते वा, मोसमणप्पयोगपरिणते वा, सचामोसमणप्पयो गपरिणते वा, असच्चामोसमणप्पओगपरिणते वा।
३१. [प्र०] जदि संञ्चमणप्पओगपरिणते किं आरंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए, अणारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए, सारंभसच मणप्पयोगपरिणए, असारंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए, समारंभसचमणप्पयोगपरिणए, असमारंभसञ्चमणप्पयोगपरिणए ? [उ०] गोयमा! आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणते वा, जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए वा ।
विनसापरिपतपुद्गलो.
२७. [प्र०] हे भगवन् । विस्रसापरिणत (स्वभावथी परिणामने प्राप्त थयेला) पुदगलो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ.] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे ते आ प्रमाणे-वर्णपरिणत, गंधपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत अने संस्थानपरिणत. जे वर्णपरिणत पुद्गलो
छे ते पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे-कालावर्णरूपे परिणत, यावत् शुक्लवर्णरूपे परिणत. जे गंधपरिणत छे ते बे प्रकारना छे ते आ प्रमाणे--सुगंधपरिणत अने दुर्गंधपरिणत. ए प्रमाणे जेम प्रज्ञापना पदमां का छे तेम सर्व जाणवू. यावत् जे (पुद्गलो) संस्थानथी आयतसंस्थानरूपे परिणत छे ते वर्णथी काळावर्णरूपे पण परिणत छे, यावत् रूक्षस्पर्शरूपे पण परिणत छे.
एकछव्यपरिणाम
२८. [प्र०] हे भगवन् ! एक द्रव्य शुं प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! एक द्रव्य - प्रयोगपरिणत होय, मिश्रपरिणत होय के विस्रसापरिणत पण होय.
२९. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते [एकद्रव्य ] प्रयोगपरिणत होय तो शुं मिनःप्रयोगपरिणत होय, वाक्प्रयोगपरिणत होय, के कायप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते मनःप्रयोगपरिणत होय, वाक्प्रयोगपरिणत होय के कायप्रयोगपरिणत होय.
मनःप्रयोगादिपरिणत.
३०. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एकद्रव्य मनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, मृषामनःप्रयोगपरिणत होय; सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय के असल्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, मृपामनःप्रयोगपरिणत होय, सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होय के असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होय.
३१. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एकद्रव्य सत्यमनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, अनारंभसत्यमन:प्रयोगपरिणत होय, संरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, असंरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, समारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय के असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय ? [उ०] हे गौतम! ते आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत होय, यावत् असमारंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत पण होय.
भारंभसत्यमनप्रयोगादिप
रिणत.
कालावन-क। २-वणए क। ३ मीसप-क। ४जइ घ। ५ वइप्प-ध। ६ सञ्चामण-क। २७. * प्रज्ञा० पद १५-१०-१
२९. औदारिकादिकाययोगवडे मनोवर्गणा द्रव्यने ग्रहण करी तेने मनोयोग वढे मनपणे परिणमाव्या जे पुद्गलो ते मनःप्रयोगपरिणत कहेवाय छे, औदारिकादिकाययोग बडे भाषाद्रव्यने ग्रहणकरी वचनयोग वढे भाषारूपे परिणमावी बहार कढाता जे पुद्गलो ते वाक्प्रयोगपरिणत कहेवाय छ, भने फाययोग वहे ग्रहण करीने औदारिकादिशरीररूपे परिणमाव्या जे पुद्गलो ते कायप्रयोगपरिणत कहेवाय छे-टीकाकार.
३०. सत्यपदार्थना चिन्तनकरवारूप मननो व्यापार ते सत्यमनःप्रयोग कहेवाय छे. कंइक सत्य भने कंइक असत्य एम मिश्रित थयेल होय ते सत्यमृपा कहेवाय छे, अने सत्य ने असल्य बनेथी रहित ते असलमृपा कहेवाय छे.
३१. आरम्भ-जीवहिंसा, तेने विषे मनःप्रयोग एटले मननो व्यापार, ते बढे परिणाम पामेल जे पुतलो ते आरंभसत्यमनःप्रयोगपरिणत कहेवाय छे, ए प्रमाणे बीजा पण जाणी लेवा; परन्तु विशेष ए छे के अनारंभ-जीवहिंसानो अभाव, संरभ-वधनो संकल्प भने समारंभ-परिताप उपजावपो.टीकाकार.
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