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शतक ८.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र,
४९ ___ ३२. [प्र०] जदि मोसमणप्पयोगपरिणते किं आरंभमोसमणप्पओगपरिणए वा ? [उ०] एवं जहा सञ्चेणं तहा मोसेण वि, एवं सच्चामोसमणप्पयोगेण वि, एवं असच्चामोसमणप्पयोगेण वि।
३३. [प्र०] जदि वइप्पयोगपरिणते किं सञ्चवइप्पयोगपरिणते, मोसवइप्पयोगपरिणते ? [उ०] एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा वयप्पयोगपरिणए वि, जाव असमारंभवइप्पयोगपरिणते वा।।
३४. [प्र०] जदि कायप्पयोगपरिणते किं ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते, ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणते, वेउवियसरीरकायप्पयोगपरिणए, वेउनियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणते, आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणते, कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणते ? [उ०] गोयमा ! ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते वा, जाव कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणते वा । . ३५. [प्र०] जदि ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते किं एगिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते, एवं जाव पंचिंदियओरालिय- जाव परिणते ? [उ०] गोयमा! पगिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणते वा, बेइंदिय- जाव परिणते वा, जाव पंचिंदियओरालियकायप्पयोगपरिणए वा।
३२. [प्र०) हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य मृषामनःप्रयोगपरिणत होय तो शुं आरंभमृषामनःप्रयोगपरिणत होय ! [ उ० ] ए प्रमाणे जेम सत्यमनःप्रयोगपरिणतने विषे का तेम मृषामनःप्रयोगपरिणत विषे जाणवू. ए प्रमाणे सत्यमृषामनःप्रयोगने विषे अने असत्यामृषामन:प्रयोगने विषे पण जाणवू.
३३. प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य वाक्प्रयोगपरिणत होय तो शुं सत्यवाक्प्रयोगपरिणत होय? [उ.] ए प्रमाणे जेम मनःप्रयोगपरिणतने विषे कह्यु, तेम वचनप्रयोगपरिणतने विषे पण जाणवं, यावत् असमारंभवचनप्रयोगपरिणत होय, ____ ३४. [प्र०] हे भगवन् ! जो ते एक द्रव्य कायप्रयोगपरिणत होय तो शुं १ *औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, २ औदारिक औदारिकादिकाय
प्रयोगपरिणत. मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ३ वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ४ विक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ५ आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, ६ आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होय के ७ कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ? [उ.] हे गौतम ! ते एक द्रव्य औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत पण होय, यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगपरिणत पण होय.
३५. [प्र०] जो ते (एक द्रव्य ) औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय तो शुं एकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, औदारिककावप्रपो बेइन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, के यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय ! [उ०] हे गौतम ! ते एक द्रव्य एकेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय, बेइन्द्रियकायप्रयोगपरिणत होय, यावत् पंचेन्द्रियऔदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत होय.
गपरिणत.
1-प्पयोगपरिणएण विग। २ मोसवय-क।
३४. * औदारिककायप्रयोग पर्याप्ताने ज होय छे, ते वडे परिणत जे पुद्गल द्रव्य ते औदारिककायप्रयोगपरिणत कहेवाय छे. ज्यारे औदारिकशरीर उत्पत्तिसमये अपूर्णावस्थामां कार्मण साथे मिथ थाय छे त्यारे ते औदारिकमिश्र कहेवाय छे, ते कायप्रयोगथी परिणत जे द्रव्य ते औदारिकमित्रकायप्र योगपरिपत कहेवाय छे. आ औदारिकमिश्रकायप्रयोग अपर्याप्त जीवने ज होय छे. परभवमा उत्पत्तिसमये जीव प्रथम कार्मणयोग वडे आहार करे छे, त्यार पछी ज्यो. सुधी शरीर ( शरीरपर्याप्ति ) निष्पन्न न थाय त्यांसुधी औदारिकमिश्रयोगवडे आहार करे छे. ए प्रकारे काम ग साथे औदारिकशरीरनी मित्रता होवाथी त्यां औदारिकमिश्रकायप्रयोग जाणवो; केमके उत्पत्तिने लीधे औदारिकशरीरनी प्रधानता छे. वळी औदारिकशरीरवाळो मनुष्य, तिर्यंच के बादरवायुकायिक ज्यारे वैक्रियशरीर करे त्यारे ते औदारिककाययोगने विषे वर्ततो आत्मप्रदेशोने विस्तारी वैकियशरीरयोग्य पुद्गलोने ग्रहण करे, अने ज्यांसुधी ते वैकियशरीरपर्याप्ति पूर्ण न करे त्यांसुधी वैक्रियनी साथे औदारिकशरीरनी मिश्रता होवाथी तेने औदारिकमिश्रकायप्रयोग जाणवो, केमके ते प्रारंभक होवाथी देनी (औदारिककायप्रयोगनी) प्रधानता छे. एवी रीते आहारकनी साये औदारिकनी मित्रता जाणवी.
वैक्रियमिश्रकायप्रयोग देव अने नारकमां उत्पन्न थता अपर्याप्ताने होय छ; अहीं वैक्रियशरीरनी मिश्रता कार्मगनी साये छे. पळी लन्धिजन्य वैकियशरीरनो त्याग करता अने औदारिकने ग्रहण करता औदारिकशरीरवाळाने वैकियनी प्रधानता होवाथी त्यां औदारिकनी साथे वैकियनी मित्रता छे वेधी खां पैक्रियमिश्रकायप्रयोग जाणवो.
आहारकमिश्रकायप्रयोग औदारिकनी साथे आहारकनी मित्रता धाय त्यारे होय छ, भने ते आहारकशरीरने त्याग करता बने औदारिकशरीरले प्रहण करतां होय छे. अर्थात्-ज्यारे आहारकशरीरी पोतार्नु कार्य समाप्त करीने पुनः औदारिकशरीरने धारण करे त्यारे आहारकर्नु प्राधान्य होवाची अवे तेनो औदारिकशरीरने ग्रहण करवामा व्यापार होवाथी ज्यांसुधी तेनो सर्वथा त्याग न करे त्यांसुधी तेनी (आहारकशरीरनी ) औदारिकनी माये मित्रता होय छे, तेथी या आहारकमिश्रकायप्रयोग जाणवो.
अहीं कार्मणशरीरकायप्रयोग विप्रहगतिमा सर्व संसारी जीवोने, भने समुद्घात करता केवलज्ञानीने श्रीजा, चोपा अने पांचमा समये दोय के.
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