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दियफासिदियपयागपा
शतक ८.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
४७ जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालिय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहुमपुढविक्काइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुवीए नेया, जस्स जइ सरीराणि, जाव जे पजत्तासचट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियवेउधिय-तेया-कम्मासरीर- जाव परिणया ते वन्नओ कालवनपरिणता वि, जाव आयतसंठाणपरिणता वि (दं. ७)
जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियफासिंदियपयोगपरिणता ते वन्नओ कालवनपरिणया, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहुमपुढदिकाइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुवीए. जस्स जति इंदियाणि तस्स तति भाणियवाणि, जाव जे पज्जत्तासवटसिद्धअणुत्तरोववाइअ- जाव देवपंचिदियसोतिदिय-जाव फासिंदियपयोगपरिणता ते वनओ कालवनपरिणया, जाव आयतसंठाणपरिणता वि । (दं.८)
जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालिय-तेया-कम्मा-फासिदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया वि, जाव आयतसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहुमपुढविकाइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुश्वीए जस्स जति सरीराणि इंदियाणि य तस्स तति भाणियवाणि, जाव जे पजत्तासवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियवेउविय-तेया-कम्मा-सोइंदियजाव फासिदियपओगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया, जाव आयतसंठाणपरिणता वि । एवं एते नव दंडगा।
जति इंदियाणि तो कालवनपरिणया,
२५. [प्र०] मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा-एगिदियमीसारिणया, जाव पंचिंदियमीसापरिणया।
२६. [प्र०] एगिदियमीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! एवं जहा पओगपरिणतेहि नव दंडगा भणिया, एवं मीसापरिणएहिं वि नव दंडगा भाणियचा, तहेव सवं निरवसेस, नवरं अभिलायो 'मीसापरिणया' भाणियचं, सेसं तं चेव, जाव जे पजत्तासघट्टसिद्ध-अणुत्तरोववाइअ- जाव आयतसंठाणपरिणया वि ।
जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियऔदारिक, तैजस अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे, ते वर्णधी कालावणे पण सप्तम दंडक परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे. ए प्रमाणे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रयोगपरिणत पुद्गलो पण जाणवा. ए प्रकारे यथानुक्रमे जाणवू. जेने जेटलां शरीर होय [तेने तेटलां कहेवां ] यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय वैक्रिय, तैजस . अने कार्मणशरीरप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी काळावणे पण परिणत छे, अने संस्थानथी यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे [दं. ७]
जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रियस्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे परिणत छे, यावत् आयतसंस्थान . पटन देखकरूपे पण परिणत छे. जे पुद्गलो पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिक एकेन्द्रियस्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते पण ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे सर्व अनुक्रमे जाणवू, जेने जेटली इन्द्रियो होय तेने तेटली कहेवी; यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावर्णे परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानपणे परिणत छे [दं.८] - जे पुद्गलो अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मण, अने स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावर्णे नवम दंवक पण परिणत छे, यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत छे. जे पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिक-[एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस अने कार्मण तथा
प्रयोगपरिणत छे ते पण ] ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रकारे अनुक्रमे सर्व जाणवं. जेने जेटलां शरीर अने इन्द्रियो होय तेने तेटला कहेवां, यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकदेवपंचेन्द्रिय-वैक्रिय, तैजस अने कार्मण तथा श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत छे ते वर्णथी कालावणे अने यावत् आयतसंस्थानपणे पण परिणत छे. ए प्रमाणे ए नव दंडको कह्या.
२५. [प्र०] हे भगवन् ! मिश्रपरिणत पुद्गलो केटला प्रकारना कह्या छे ! [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारना कह्या छे; ते आ प्रमाणे एकेन्द्रियमिश्रपरिणत अने यावत् पंचेन्द्रियमिश्रपरिणत.
मिश्रपरिणत पुवको
२६. [प्र०] हे भगवन् ! एकेन्द्रियमिश्रपरिणतपुद्गलो केटला प्रकारना छे ! [उ० ] हे गौतम! जेम प्रयोगपरिणतपुद्गलो संबन्धे नव दंडक कह्या तेम मिश्रपरिणतपुद्गलो संबन्धे पण नव दंडक कहेवा, तेम बाकी, सर्व कहे, परन्तु विशेष ए छे के [प्रयोग परिणतने स्थाने ] 'मिश्रपरिणत' एवो पाठ कहेवो. बाकी बधुं ते प्रमाणे जाणवू. यावत् जे पुद्गलो पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकप्रयोगपरिणत छे ते यावत् आयतसंस्थानरूपे पण परिणत छे.
मिमपरिणत पुदलोने वि. पे नव दंडक
१-२-णता विक।
-णए हिं न-क।
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