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________________ १८० श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ९. - उद्देशक ३३. सते णं ते समणा निर्गचा जमालि अणगारं एवं वयासीनो देवाप्पिया णं सेजासंधारण कडे, कजइ । राष्ट पं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूचे अहत्थिर जाव समुप्यजित्थानं णं समने भगवं महावीरे एवं आइसर जाय एवं प बे-एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरियमाणे उदीरीए, जाय निजरिजमाणे पिजिने तं पं मिच्छा इमं व णं पञ्चम्यमेव दीसद सेज्जा संथारए कजमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए, जम्हा णं सेजासंथारए कजमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए, जाव निज्जरिज्जमाणे वि अणिजिन्ने, एवं संपेहेर, संपेहित्ता समणे णिग्गंथे सहावे, सम० २ सदावित्ता एवं वयासी जं णं देवाप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइस्लर, जाव परुवेह एवं खलु चलमाणे चलिए, तं चैव स जाव पिजरमाणे अणिजिने । तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवं आइक्यमाणस्स जाय परुवेमाणस्स अत्थेगईया समणा मिया पचमहं सहंति, पत्तियंति, रोयंति, अत्थेगईया समणा णिगंधा पयम नो सद्दति, नो पतियंति नो रोयंति । तत्य णं जे ते समणा निमगंधा जमालिस्स अणगारस्स एयम सइति, पत्तियंति, रोयंति से णं जमालि चेष अणगारे उपसंपत्ति णं विहरंति तस्य णं जे ते समणा णिगंधा जमालिस्स अणगारस्स एवं अहं णो सद्दति णो पतियंति णो रोयंति ते णं जमालिस्स अणगारस्स अंतियाओ, कोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिस्वमंति, पडिनिफ्समिता पुवाणुपुि चरमाणे गामाशुगामं दूइजमाणे जेणेच चंपा नयरी, जेणेव पुनभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति उचागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेद्र, करिता बंदद्द नम॑सद, बंदिता नर्मसत्ता सम भगवं महावीरं उवसंपजित्ता णं विहरति । ३३. तप णं से जमाली अणगारे अन्नया केयावि ताओ रोगायंकाओ विप्यमुक्के, हँट्ठे जाए, अरोप बलियसरीरे, सावस्थी नवरीओ कोयाओ घेइयाओ पडिनिषसमति, पडिनिपसमित्ता पुचाणुपु िचरमाणे, गामाशुम्गामं दृइजमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छर, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं क्यासी जहा णं देवाप्पियाणं यदये अंतेवासी समणा विग्गंचा संस्तारक कर्मों के कराय के लार पछी ते श्रमण निर्मम्धोए जमालि अनगारने एम क के देवानुप्रियाने माठे शय्यासंस्तारक कय नधी, पण कराय छे'. मार पछी ते जमालि अनगारने आ आया प्रकारनो संकल्प उत्पन्न भयो के “श्रमण भगवंत महावीर जे ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के, चालतुं होय ते चाल्युं कहेवाय, उदीरातुं होय ते उदीरायुं कहेवाय, यावत् निर्जरातुं होय ते निर्जरायुं क - मायसेमिया छे. कारण के आ प्रत्यक्ष देखाय छे के, शय्या संस्तारक करातो होय स्वां सुधी ते करायो नथी, पथरातो होव यां सुधी ते पथरायो नथी; जे कारणची आ शय्या संस्तारक करातो होय खां सुथी ते करायो नथी, पथरातो होय यां सुधी ते पथरायेलो नथी; ते कारणथी चालतुं होय त्यां सुधी ते चलित नथी, पण अचलित छे; यावत् निर्जरातुं होय त्यां सुधी ते निर्जरायुं नथी पण अनिर्जरित छे" ए प्रमाणे विचार करे छे. विचार करीने ते जमालि अनगार श्रमण निर्बंधोने बोलावे छे, बोलावीने तेणे आ प्रमाणे कां - 'है देवानुप्रियो ! श्रमण भगवंत महावीर जे आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के-खरेखर ए प्रमाणे “चालतुं ते चलित कहेवाय" - इत्यादि, पूर्ववत् सर्व कहे, यावत् निर्जरा होय ते निर्जरित नथी, पण अनिर्जरित छे. ज्यारे जमालि अनगार र प्रमाणे कहता हता यावत् प्ररूपणा करता हता, त्यारे केटलाएक श्रमण निर्ग्रन्थो ए वातने श्रद्धापूर्वक मानता हता, तेनी प्रतीति करता हता, रुचि करता हता; अने केटलाक भ्रमण निर्मन्थो ए यात मानता न होता, तथा तेनी प्रतीति अने रुचि करता न होता. तेमां जे श्रमण निर्मचो ते जमालि अनगारना आ मन्तव्यनी श्रद्धा करता हता, प्रतीति करता हता अने रुचि करता हता तेओ ते जमालि अनगारने आश्रयी विहार करे छे. अने जे श्रमण निर्ग्रथो जमालि अनगारना ए मन्तव्यमां श्रद्धा करता न होता, प्रतीति करता न होता अने रुचि करता न होता तेओ जमालि अनगारनी पासेथी कोष्ठक चैत्य थकी बहार नीकळे छे, अने बहार नीकळीने अनुक्रमे विचरता, एक गामथी बीजे गाम विहार करता ज्यां चंपा नगरी छे, ज्यां पूर्णभद्र चै छे, अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर हे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवंत महासीरने प्रण बार प्रदक्षिणा करे छे, करीने बांद छे; नगे छे अने बांदी नमीने श्रमण भगवंत महावीरनी मिश्राए बिहार करे छे. ३३. त्यार पछी कोई एक दिवसे ते जमालि अनगार पूर्वोक्त रोगना दुःखथी विमुक्त थयो, हृष्ट, रोगरहित अने बलवान् शरीर'वाळो थयो अने श्रावस्ती नगरीथी अने कोष्ठक चैत्यथी बहार नीकळी अनुक्रमे विचरता ग्रामानुग्राम विहार करता ज्यां चंपानगरी छे, ज्यां पूर्णभद्र चैत्य छे, अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवंत महावीरनी अत्यन्त दूर नहि सेम अनन्त पासे नहि, तेम उभा रहीने श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कजिम देवानुप्रियना घणा शिष्यो अमन निर्मन्थो उप Jain Education International १ - पिया ! से- क । २ कथाई घ, कयाती क ३ हडे सुट्टे जा- घ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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