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________________ चोदसमं सयं । १. १ र २ उम्माद ३ सरीरे ४ पोग्गल ५ अगणी तहा ६ किमाहारे । ७ संसि ८ मंतरे खलु ९ अणगारे १० केवली चैव ॥ पढमो उद्देसो । २. [प्र० ] रायगिछे जाव एवं वयासी- अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वीतिकंते, परमं देवावासमसंपत्ते, पत्थ णं अंतरा कालं करेजा, तस्स णं भंते ! कहिं गती, कहिं उववाप पनते १ [०] गोयमा ! जे से तत्थ परियसओ तल्लेसा देवावासा, तर्हि तस्स गई, तर्हि तस्स उववार पन्नते । से य तत्थ गए विराहेजा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेजा, तामेव लेस्सं उवसंपजित्ता णं विहरति । चतुर्दश शतक. १. [उद्देशक संग्रह - ] १ चरमशब्दसहित होवाथी चरमनामे प्रथम उद्देशक, २ उन्मादना अर्थनो प्रतिपादक होवाथी उन्मादनाम बीजो उद्देशक, ३ शरीरशब्दसहित होवाथी शरीरनामे त्रीजो उद्देशक, ४ पुद्गल - पुद्गलार्थं प्रतिपादित करवाथी पुद्गलनामे चोथो उद्देशक, ५ अग्निशब्दसहित होवाथी अग्निनामे पंचम उद्देशक, ६ किमाहार - ( कई दिशाना आहारवाळो होय छे ! ) ए प्रश्नयुक्त होवाथी किमाहारनामे षष्ठ उद्देशक, ७ *“चिरसंसिद्धो सि गोयमा' ! - आ पदमां आवेला संश्लिष्टशब्दसहित होवाथी सातमो संश्लिष्ट उद्देशक, ८ नरकपृथिवीना 'अन्तरने प्रतिपादन करवाथी आठमो अन्तर उद्देशक, ९ प्रारंभमां 'अनगार' - पद होवाथी नवमो अनगार उद्देशक, अने १० आरंभमा 'केवली' - ए पद होवाथी दशमो केवली उद्देशक - [ए प्रमाणे चौदमां शतकमां दश उद्देशको कहेवामां आवशे.] प्रथम उद्देशक. २. [प्र० ] राजगृह नगरमा [ भगवान् गौतम] यावद् - आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार (साधु) जेणे चरम - छेल्ला देवावासनुं उल्लंघन कर्तुं छे अने हजी परम-आगळना देवावासने प्राप्त थयो नथी, आ अवसरे ते काळ करे मरण पामे तो हे भगवन् ! तेनी: क्यां गति थाय अने तेनो क्यां उत्पाद थाय ? [ उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसायस्थानने विषे वर्तमान अनगार चरम - सौधर्मादिदेवलोकना आ छेडे वर्तमान देवावासनी स्थित्यादिना बन्धने योग्य अध्यवसायस्थानने ओळंगी गयो छे, अने परम-उपर रहेला सनत्कुमारादि देवलोकना स्थित्यादिना बन्धने योग्य अध्यवसायने प्राप्त थयो नथी, आ अवसरे काळ करे तो ते क्यां उपजे ?] [उ०] हे गौतम! चरम देवावास अने परम देवावासनी पासे ते लेश्याबाळां देवावासो छे त्यां तेनी गति अने त्यां तेनो उत्पाद कहेलो छे. [सौधर्मादिदेवलोक अने सनत्कुमारादि देव - "लोकनी पासे ईशानादि देवलोकमां जे लेश्याए, साधु मरण पामे ते लेश्यावाळा देवावासोने विषे तेनी गति अने तेनो उत्पाद थाय छे.] ते साधु ज़इने पोतानी पूर्व लेश्याने विराधे-छोडे तो ते कर्मलेश्या – भावलेश्याथी पडे छे, अने जो ते त्यां जइने न विराधे तो तेज लेश्यानो आश्रय करी विहरे छे. हे गौतम! तुं लांबा काळथी [मारी साथे] संबन्धवाळो छे. २ + देव अने नारको द्रव्य लेश्याथी पडतां नथी, भावलेश्याथी पढे छे, कारण के तेने द्रव्यलेश्या अवस्थित होय छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only भावितात्मा अन गार जेणे चरम देवानासन उलं धन कर्तुं छे भने परम देवावासने प्राप्त भयो नयी ते मरीने क्या उपजे www.jainelibrary.org
SR No.004642
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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