________________
औदारिक शरीरना सर्वबन्धक, देशव
अल्पबहुत्व. वैक्रिय शरीर प्रयोग बन्ध.
वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना
उदयथी थाय छे ?
वायुकायिक क्रिय शरीर प्रयोगवन्ध.
नैरयिकवैक्रिय शरीरप्रयोगवन्थ.
१०८
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ८. - उद्देशक ९.
पोग्गलपरियट्टा आवलियांए असंखेज्जइभागो । देसबंधंतरं जहन्त्रेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो । जहा पुढविकाइयाणं एवं वणस्सइकाइयवजाणं जाव मणुस्साणं । वणरसइकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई एवं चेव, उक्कोसेणं असंखेजं कालं - असंखेजाओ उसप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोसेणं पुढविकालो ।
४०. [प्र०] एएसि णं भंते! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं, सङ्घबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरे- जाव विसेसाहिया वा ? [30] गोयमा ! सवत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सङ्घबंधगा, अबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा असंखेज्जगुणा ।
Jain Education International
४१. [प्र०] वेउचियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? [उ०] गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - एर्गिदियवेउधियसरीरप्पओगबंधे य पंचेंदियवेउधियसरीरप्पओगबंधे य ।
४२. [प्र०] जइ एगिंदियवेडवियसरीरप्पओगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदियसरीरप्पओगबंधे य, अवाउक्काश्यपगिंदियसरीओगबंधे ? [30] एवं पणं अभिलावेणं जहा भोगाहणसंठाणे वेउधियसरीरभेदो तहा भाणियधो, जाव पज्जत्तासधट्ठसिद्ध. अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिदियवेऽ द्वियसरीरप्पओगबंधे य, अपजत्तसवट्टसिद्ध - जाव पओगबंधे य ।
४०. [प्र०] हे भगवन् ! ए औदारिक शरीरना देशबन्धक, सर्वबन्धक अने अबन्धक जीवोमां कया जीवो कोनाथी यावद् विशेवाधिक ? [उ० ] हे गौतम! सौथी थोडा जीवो औदारिक शरीरना सर्वबन्धक छे, तेथी अबन्धक जीवो विशेषाधिक छे, अने तेथी देशबन्धक जीवो असंख्यात गुण छे.
४३. [प्र०] वेउध्धियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदपणं ? [अ०] गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दवयाप जाव आउयं वा लद्धिं वा पडुच्च वेउधियसरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदपणं वेउद्वियसरीरप्पओगबंधे ।
४४. [प्र०] वाउक्काइयपगिंदियवे उचियसरीरप्पओगपुच्छा । [ उ०] गोयमा ! वीरिय-सजोग - सद्दवयाप एवं चैव जाव लद्धिं पडुच्च वाउक्काइयए गिदियवेउधिय- जाव बंधे ।
४५. [प्र०] रयणंभापुढविने रइयपंचिदियवे उद्वियसरी रप्पओगवंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदपणं ? [उ०] गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दवयाए जाव आउयं वा पडुच्च रैंयणप्पभापुढवि - जाव बंधे, एवं जाव अहे सत्तमाए ।
उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी छे, क्षेत्रंथी अनन्तलोक - असंख्य पुद्गलपरावर्त छे, अने ते पुद्गलपरावर्त आवलिकाना असंख्यातमा भागना (समय) तुल्य छे. तथा देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी समयाधिक क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी अनन्त काल, यावत् आवलिकाना असंख्यातमा भागना सत्य तुल्य असंख्य पुद्गलपरावर्त छे. जेम पृथिवीकायिकोने कह्युं तेम वनस्पतिकायिक सिवाय बाकीना यावद् मनुष्य सुधीना जीवो माटे जाणवु. वनस्पतिकायिकोने सर्वबन्धनुं अन्तर जघन्यथी कालनी अपेक्षाए ए प्रमाणे [त्रण समय न्यून ] वे क्षुल्लक भव, अने उत्कृष्टथी असंख्यकाल-असंख्य उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी सुधी छे, क्षेत्रथी असंख्य लोक छे; देशबन्धनुं अन्तर जघन्यथी ए प्रमाणे ( समयाधिक क्षुल्लक भव) जाणवुं. अने उत्कृष्टथी पृथिवीकायना स्थितिकाल ( असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी) सुधी जाणवुं.
४१. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरनो प्रयोगबन्ध केटला प्रकारनो को छे ? [ उ० ] हे गौतम! बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध अने पंचेन्द्रिय वैकियशरीरप्रयोगबन्ध.
४२. [प्र० ] जो एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध छे तो शुं वायुकायिक एकेन्द्रियशरीरप्रयोगबन्ध छे के वायुकायिक भिन्न एकेन्द्रिय शरीरप्रयोगबन्ध छे ? [उ०] ए प्रमाणे ए अभिलापथी जेम *"अवगाहनासंस्थान' पदमां वैक्रिय शरीरनो भेद कह्यो छे तेम कहेवो; यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय वैकियशरीरप्रयोगबन्ध अने अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिकयावद् वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध.
४३. [प्र० ] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ? [ उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सद्द्रव्यताथी यावद् आयुष् अने लब्धिने आश्रयी वैक्रियशरीरप्रयोग नामकर्मना उदयथी वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे.
४४. [प्र०] वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध संबन्धे प्रश्न. [ उ०] हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता अने सद्रव्यताथी पूर्वनी पेठे यावद् लब्धिने आश्रयी वायुकायिकएकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग नामकर्मना उदयथी यावद् वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध थाय छे.
४५. [प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कया कर्मना उदयथी थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता अने सद्द्रव्यताथी यावद् आयुष्यने आश्रयी रत्नप्रभा पृथिवीनैरयिकपंचेन्द्रियशरीरप्रयोगनामकर्मना उदयथी यावद् वैकिय शरीरप्रयोगबन्ध थाय छे. ए प्रमाणे यावत् नीचे सातमी नरकपृथ्वी सुधी जाणवुं.
१ तं चैव क । २-३- पंभपुढवि क ।
# ४२. प्रज्ञा० पद. २१. प. ४१४-२. पं. ५.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org