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* अवच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधितिसंवादः
तद्धर्मस्य विशेषणतावच्छेदकतया भासकसामग्रयां एव प्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकत्वात्, पटादौ घटत्वादिभानस्य आवश्यकत्वात् तस्य च प्रमारूपस्याऽसम्भवात् भ्रमस्य च
ॐ जयलता
पदोपस्थापितधर्मान्योऽङ्गीकार्यः । ततः घटत्वेन पटो नास्ती' त्यादी व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावसिद्धिः | नित्हा । अनेन गुरुधर्मस्यापि प्रतियोगितावच्छेदकत्वं प्रामाणिकमिति ध्वनितम्, 'घटत्वेन घटो नास्ती' त्यत्र यथा घटत्वेऽभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वभानमभावे च स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन बटत्वमानं प्रामाणिकं तथैव 'कम्बुग्रीवादि| मत्त्वेन घटो नास्तीत्यत्र कम्बुग्रीवादिमत्त्वेऽत्यन्ताभावप्रतियोगिता वच्छेदकत्व मानस्यात्यन्ताभावे च स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंसर्गेण कम्बुग्रीवादिमत्त्वभानस्यापि प्रामाणिकत्वात् । इदमेवाभिप्रेत्य अवच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधिती "गौरवप्रतिसन्धानदशाया'मपि 'कम्बुग्रीवादिमान्नास्तीति प्रतीतिचलाद गुरुरपि धर्मोऽवच्छेदकः प्रतियोगितायाः " (अव.नि. दी. पू. १२५ ) इत्युक्तम् । ततश्च द्वितीयभङ्गोऽपि प्रामाणिक एवेति फलितमिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ।
ननुवादी मौलपूर्वपक्षी प्रकृतस्याद्वाद्याशयं प्रत्याचष्टे तद्धर्मस्येति । तृतीयांत पदोपस्थापितधर्मस्येति । विशेषणतावच्छेदकतया अभावीयविशेषणतावच्छेदकविधया भासकसामग्रयाः = ज्ञापकसामग्रचाः एव प्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकत्वात् अभावीयविशेषणतावच्छेदकनिष्ठस्य अभावनिरूपित प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य उपलम्भकत्वात् 'घटत्वेन पटो नास्तीत्यादी घटत्वादेः पटादिप्रतियोगिका भावीयप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभ्युपगमे पटादौ घटत्वादिभानस्य = पटस्य स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरू| पितानुयोगितासम्बन्धेन अभाववृत्तित्वेनाऽभावविशेषणीभूत - पटादिनिरूपितवृत्तित्वविशिष्टघटत्वादिज्ञानस्य, आवश्यकत्वात्. अभाबीयविशेषणतावच्छेदकत्वेनाऽज्ञातस्य तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वासम्भवात् । परन्तु तस्य पटादिवृत्तितया घटत्वादिभानस्य, च प्रभारूपस्य = तद्वति तत्प्रकारकत्वविशिष्टस्य असम्भवात् घटत्वादेः पटाद्यवृत्तित्वात् । अस्तु तर्हि भ्रमात्मकमेव तद्वानमित्याशङ्कायामाह् - भ्रमस्य च वस्त्वसाधकत्वात् = वैज्ञानिकसम्बन्धेन घटत्वादिविशिष्टपटादिविषयकज्ञानस्य घटत्वादौ
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| यह है कि उक्त अभाव का प्रतियोगी है कम्बुग्रीवादिमान् । अतः प्रतियोगिता उसमें रहेगी। अतः प्रतियोगिता का अन्वयितावच्छेदक बनेगा कम्बुग्रीवादिमत्त्व । तादृश अन्वयितावच्छेदकीभूत कम्बुग्रीवादिमत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से घटत्व तो तादृश अत्यन्ताभाव में नहीं रह सकता है । अतः तादृश प्रतियोगिता का अवच्छेदक घटत्व नहीं बनेगा, किन्तु कम्बुग्रीवादिमत्त्व होगा मगर कम्बुग्रीवादिमत्त्व गुरुभूत होने से प्रतियोगितावच्छेदक नहीं होता है - यह तो आपका मूल सिद्धांत है । अतः फलतः तादृश प्रसिद्ध प्रतीति को भी अप्रामाणिक माननी पड़ेगी, जो आप नैयायिक महाशय को इष्ट नहीं है । अतः उपर्युक्त प्रतीति के प्रामाण्य का निर्वाह करने के लिए तृत्तीयतपदसमभिव्याहार स्थल में तृतीयांतपदवाच्य धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व अभाव में मानना आवश्यक है । तब तो घटत्वेन पटो नास्ति' यह प्रतीति भी उपदर्शित पद्धति से प्रामाणिक होगी, जिसके फलरूप में प्रतियोगिताव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव की सिद्धि हो जायेगी । इस परिस्थिति में सप्तभंगी के द्वितीय भंग का प्रामाण्य भी अबाधित रहेगा।
* प्रभावविशेषणतावच्छेदकत्व और अभावप्रतियोगितावच्छेदकत्व की ज्ञापक सामग्री एक पूर्वपक्ष
पूर्वपक्षी :- तद्धर्मस्य इति । स्याद्वादी महाशय ! आपने उपर्युक्त रीति से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को सिद्ध करने का प्रयास किया है, वह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि प्रतियोगिताव्यधिकरण धर्म में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व का भान नहीं होता है । यह एक अकाट्य नियम है कि जिस सामग्री से जिस धर्म में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व का भान होता है उसी सामग्री से उसी धर्म में अभावीयप्रतियोगितावच्छेदकत्व का भान होता है । यह नियम इस तरह स्पष्ट हो जायेगा । देखिये, 'घटो नास्ति' इस प्रतीति में घट है प्रतियोगी और अभाव है अनुयोगी अतः घट में प्रतियोगिता और अभाव में अनुयोगिता रहती है । प्रतियोगिता और अनुयोगिता परस्पर सापेक्ष होने से एक-दूसरे से निरूपित बनती है । अनुयोगी विशेष्य बनता है और प्रतियोगी विशेषण । अतः पट स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपितानुयोगितासंबंध से अभाव में रहता है । तादृश संबंध से घटविशिष्ट अभाव बनता है । विशेषण में रहने वाला धर्म विशेषणतावच्छेदक कहा जाता है । अतः यहाँ विशेष्यभूत अभाव के विशेषणरूप घट में रहने वाला घटत्व अभावविशेषणतावच्छेदक कहा जाता है । घटप्रतियोगि काभावनिरूपितप्रतियोगिता का अवच्छेदक होता है । अतः घटत्व धर्म में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व की भासक सामग्री ही घटत्वरूप धर्म में अभावप्रतियोगितावच्छेदकत्व की भासक = ज्ञापक होती है। अब 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि
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