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२४५ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *प्रतियोगितादेरनतिरिक्तत्वविमर्शः * ! त्वामोक्तदोष इति वायम्, उक्तनीत्या घटत्वादिसम्बन्धावच्छिन्नपदादिनिष्ठप्रतियोगिताकल्प
मेऽपि घटत्वादिधर्मावच्छिन्नतदकल्पनात् । न च ताशप्रतियोगिता-तदवच्छेदकत्वादेः स्वरूपानतिरिक्ततया न तत्कल्पनागौरवमिति वाव्यम, एवं सति गुरुधर्मे कारणतावच्छेदकत्वादेण्या
=-:.--. ... .. . जयलता ननुवादी तं प्रत्याचष्टे - उक्तनीत्येति । 'समयत्येन घटादितादात्म्य -घटत्वादेरेक्यमि तिप्रदर्शितदिशेति । घटत्वादिसम्बन्धावच्छिन्नपटादिनिष्ठप्रतियोगिताकल्पनेऽपि = 'घटो न पट:' इत्यादी पदादिनिष्ठप्रतियोगिताया घटादितादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नत्वेन घटत्वाद्यवच्छिन्नत्वसम्मवेपि घटत्वादः सम्बन्धविजययाऽयनछेदकल्यं न तु धर्मविधया, भेदीयप्रतियोगितायाः संसर्गावच्छिन्नत्वनियमात् । अत एव घटत्वादिधर्मावच्छिन्न-तदकल्पनात् = घटत्वादिधर्मावच्छिन्नपटादिनिष्ठप्रतियोगित्वाऽकल्पनात्, धर्मविधया घटत्वादेः स्वानाश्रयपटादिनिष्ठभेदीयप्रतियोगिताया अनवच्छेदकत्वान । ततः 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादिप्रतीती घटत्वादिधर्मे पटादि वृत्तिप्रतियोगितानिरूपित्तावच्छेदकत्ववत्त्वस्याऽक्लप्सत्वेन व्यधिकरणधर्मावछिन्नप्रतियोगिताकामावस्याप्रामाणिकत्वात न द्वितीयादिभङ्गप्रामाण्यम् । अतः प्रमाणावष्टम्भविकलैव सप्तभङ्गीति गौलपूर्वपक्षिण: तात्पर्यम् ।
न चेति । अन्चयश्चाऽस्य वायमित्यनेन सह । तादृशप्रतियोगिता-तदवच्छेदकत्वादेः = व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितातादृशप्रतियोगिताइच्छेदकत्वादेः, स्वरूपानतिरिक्ततया = प्रतियोगि-प्रतियोगितावच्छेदकरूपतया, न कल्पनागीरवं = अतिरिक्तत्वकल्पनाप्रयुक्तगौरवम् । आदिशब्देन कारणता-विषयता:धिकरणता-तत्त्व-तदवच्छेदकत्वादेर्ग्रहणम् । अयं भावः यदि प्रतियोगिता प्रतियोगिव्यतिरिक्ता कल्प्येत प्रतियोगितावच्छेदकत्वञ्च प्रतियोगितावच्छेदकातिरिक्तं कल्प्येत तदा तु समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितातो ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगित्वस्व विलक्षणत्वेन तत्कल्पनायां गौरवं स्यादेव । एवमेव समानाधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकाद् व्यधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकस्य विलक्षणत्वेन तत्राऽन्यतिरिक्तावच्छेदकत्वकल्पना प्रसज्येत । न चैवम्, यतः प्रतियोगिता प्रतियोगिस्वरूपेव प्रतियोगितावच्छेदकल्पञ्च प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूपमेवेत्यङ्गीकारात् । तयोः तत्स्वरूपत्वे तु नैब कल्पनागौरवम, तस्वरूपाणां क्लृप्तत्वात् । अत एव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रामाण्योपगमे न तत्कल्पनागौरवमपि । । अतः द्वितीयादिभङ्गानां तदर्भितसप्तभङ्ग्याश्च प्रामाण्यमक्षतमेवति स्याद्रादिन आशयः ।
ननुवादी मौलपूर्वपक्षी तन्निराकुरुते - एवं सतीति । प्रतियोगिता-तदवच्छेदकत्वादेः प्रतियोगि-प्रतियोगितावच्छेदकाद्यनतिरिक्तत्वाभ्युपगमे सतीत्यर्थः । गुरुधर्मे = लघुधर्मसमनियतगुरुधर्म, कारणतावच्छेदकत्वादेरिति । आदिशब्देनाधिकरण.
= प.दित्ति प्रतियोगिता का अपरोपका धविधया घटत्वादि नहीं हो सकता - पूर्वपक्षी =
पूर्वपक्षी :- उक्तनीत्या. इति । उस्ताद ! आपने घटत्त्व और घटतादात्म्य में समनयत्य के बल पर अभेद सिद्ध करने का प्रयत्न किया वह ठीक है । मगर भेदनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक संबंध होता है । अतः 'घटः पटभेदवान्' इत्यादि प्रतीति में पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता का अवच्छेदक जैसे घटादितादात्म्य संबंध बन सकता है वैसे उससे अभिन्न घटत्वादि भी बन सकता है, मगर वह सम्बन्धविधया अवच्छेदक हो सकता है, धर्मविधया नहीं । अतः पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता में हम संबंधविधया घटत्वादि से अवच्छिन्नत्व की कल्पना करते हैं, न कि धर्मविधया घटत्वादि से अवच्छिन्नत्व (= नियंत्रितत्व) की। अतः उक्त उदाहरण के बल से 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि स्थल में आप घटत्वादिधर्मावच्छेिन पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता की कल्पना नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह उभय मत से सिद्ध नहीं है। अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक अभाव अप्रामाणिक ही है। अतएव तन्मूलक द्वितीयादि भंग एवं सप्तभंगी भी अप्रामाणिक ही है -यह सिद्ध होता है।
क प्रतियोगितादि प्रतियोगी आदि स्वरूप है - शंका स्याद्वादी :- न च ताद. इति । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता एवं ताइश प्रतियोगिता के व्यधिकरण धर्म में रही हुई अवच्छेदकता स्वरूप से अतिरिक्त नहीं होती है । मतलब कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता प्रतियोगिस्वरूप ही है, उससे भिन्न नहीं है । एवं प्रतियोगितान्यधिकरण धर्म में रही हुई प्रतियोगितावच्छेदकता तादृश व्यधिकरण धर्मस्वरूप ही है, उससे अतिरिक्त नहीं । प्रतियोगितावच्छेदक और प्रतियोगी का स्वरूप नो उभयमत से सिद्ध ही है । अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव के स्वीकार में न तो अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना से प्रयुक्त गौरव है और न तो अतिरिक्त प्रतियोगितावच्छेदकता की कल्पना से प्रयोज्य गौरख दोष है। अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को