Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 275
________________ - * व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्वीकारः * व्यवहाराच्च । किन्तु विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं सत्त्वं निषेधमुखप्रत्ययवेद्यत्वचाऽसत्वमिति ।। तदुभयमपि घटादौ स्व-परद्रव्यचतुष्टयावच्छेदेन प्रत्यक्षत एव प्रतीयते । प्रतीयन्ति हि पामरा अपि 'घटः कपाले सन्न तु तन्तुग्विति । अथ सत्ता जातिरेव प्रत्यक्षवेद्या योग्यत्वान्न तु विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं, अयोग्यपतित ---=-=-== * जयलता ----.-.......... ..... सत्त्वव्यवहाराच्च । तर्हि सत्त्वस्याऽसत्त्वस्य च किं स्वरूपं ययोरेकत्र वृत्तित्वसाधनार्थमयमुपक्रमः ? इत्याशङ्कायामाहकिन्विति । विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं = अस्तित्वप्रकारकज्ञानविषयत्वं, सत्त्वं = सत्त्वपदप्रतिपाद्यं, निषेधमुखप्रत्ययवेद्यत्वं = नास्तित्वप्रकारकधीगोचरत्वं चाऽसत्त्वं = असत्त्वपदावान्यमिति । तदभयं दर्शितविषयताद्वयं अपि एक द्रव्यचतुष्टयावच्छेदेन प्रत्यक्षत एव प्रतीयते, स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावावच्छेदेन सत्त्वं परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावावच्छेदेन चासत्त्वं अध्यक्षत एव ज्ञायते । तदेव समर्थयति · प्रतीयन्ति हि पामरा अपि 'घटः कपाले सन्न तु तन्तुध्विति । उपलक्षणात 'घटः काशीयत्वेन सन्न तु प्रथागीयत्वेने त्यादर्ग्रहणम् ।। अत्र सोपयोगित्वात् लघुस्याद्वादरहस्यस्थपाठः दयते । तदुक्तं तत्र -> 'सर्वं हि वस्तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया सत् परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च न सत् । व्यवहरन्ति हि 'घटोऽयं मार्त्तत्वेन काशीयत्वेनाऽद्यतनत्वेन रक्तत्वेन चास्ति, न तु ग्रावीयत्वेन प्रयागीयत्वेन श्वस्तनत्वेन श्यामत्वेन चेति । नन्वेतादृशमसत्त्वं व्यधिकरणथर्मावच्छित्राभावपर्यवसन्त्रमिति चेत् ? किं तारता ? तादृशाभावे मानमेव नास्तीति चेत् ? न, 'घटत्वेन पटो नास्तीति प्रतीतेरेव तत्र मानत्वात् । यत्किञ्चिद्भर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं यत्र तृतीयान्ताल्लभ्यते तत्र प्रकारीभूततद्धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्यैव व्युत्पत्तिबललभ्यत्वात् । कथमन्यथा 'घटत्वेन कम्बग्रीवादिमानास्ती'त्यादिप्रतीतेरपि प्रामाण्यम् ? प्रत्यक्षे हि येन रूपेण प्रतियोगिनाइनुपलम्भः तद्धर्मावच्छिन्ना प्रतियोगिता संसर्गमर्यादया भासते, तादृशधर्म एव च तृतीयान्तेनोल्लिख्यते इति । घटास्तित्वञ्च प्रदेशपुञ्जपरिणमनरूपं मातत्वेन न विरुद्धम । न च समयकालस्याऽनवच्छेदकत्वाद् द्रव्यादिचतुष्टयदाधः, तत्र प्रतीतिबलात स्वस्यैब स्वास्तित्वावच्छेदकत्वात् । अथ यदेव स्वरूपेणाऽस्तित्वं तदेव पररूपेण नास्तित्वमिति द्वयमेव ताबनदर्शनीयमिति चेत् ? नयनमुन्मीलय, ग्रावत्वेन नास्तित्ववति पदादी कि मार्त्तत्वेनाऽस्तित्वमुपलब्धवानसि? मानव-मातभिन्नत्वाभ्यामस्तित्व-नास्तित्वयोः तथाप्यद्वैत पलमे इति चेत् ? तत्किं तननिमित्तापेक्षाकृतविशेषं ज्ञातवानसि ? साहजिकभेदयाचा तु पृथग्द्रत्र्ययोरेवोचिता" - (ल.स्या.रह. पृ.१९) इति । परः शङ्कते - अथेति । अयोग्यघटितत्वेन चाक्षुषाद्ययोग्यप्रत्ययघटितत्वेन विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वस्यापि अयोग्यत्वात् = । चाक्षुषाद्ययोग्यत्वात् । ततः सत्ताजातिमत्त्वस्यैव सत्त्वपदार्थत्वमस्तु न तु विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वस्येति नैयायिकाभिप्रायः । - - वृत्तित्व को सत्त्वपदार्थ मानने की अपेक्षा वृत्तित्व को ही सत्त्वपदार्थ मानना मुनासिब है, क्योंकि इसमें लाघव है । दूसरी बात यह है कि 'अभावः सन्' पानी 'अभाव विद्यमान = वृति है' ऐसा व्यवहार भी होता है। मगर अभाव में सर्वत्र सत्ता के अधिकरण में वृत्तिता का भान नहीं होता है । जाति आदि में भी घटाभाव आदि का भान होता है, मगर जाति में सत्ता जाति नहीं रहती है । अतः सत्त्वपद का अर्थ वृत्तित्वमात्र है, न कि सत्ता के साय एक अधिकरण में वृत्तित्वयह फलित होता है। इसलिए प्रामाणिकत्व या वर्तमानकालसंबन्धित्व को भी सत्त्वपदार्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि विनष्ट घट आदि में भी सत्व का व्यवहार होता है। अतीत घट आदि में प्रामाणिकत्व या वर्तमानकालसंबद्धत्व नहीं है, फिर भी वहाँ सत्त्व का व्यवहार होता है । इसलिए यही मानना उचित है कि विधिमुख ज्ञान से वेग्रता ही सत्त्वपदार्थ है और निषेधमुख ज्ञान से चेग्रता यानी निपथमुख ज्ञान की विषयता ही असत्त्वपदार्थ है । एक ही घट में स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाषाबच्छेदेन बिधिमुख प्रत्यक्ष की विपयता और परदून्य-क्षेत्र-काल-भावावच्छेदेन निषेधमुख प्रत्यक्ष की विपयता प्रसिद्ध ही है। आचाल-गोपाल यह प्रतीति प्रसिद्ध है कि 'घट कपाल (मिट्टी) में सत् है, न कि तंतु में' । इस प्रतीति से 'कपालादेन घट विधिमुख ज्ञान का विषय है और तंतुअवच्छेदेन निषेधमुख प्रतीति का विषय है। यह सिद्ध होता है। अतः एक ही प्रतीति से एक घट में सत्त्व और असत्त्व का निवेश मुमकिन है। अतः उन्हें परस्पर अविरोधी मानना चाहिए । अथ स. इति । यहाँ यह नैयायिक वक्तव्य कि -> "सत्ता जाति ही विधिमुख प्रत्यक्ष प्रमाण से वेद्य है, क्योंकि वह योग्य है । चिधिमुखप्रतीतिवेद्यत्व को प्रत्यक्ष से वेग नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह अयोग्य पदार्थ से घटित होने

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