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* अवान्तरजातीयरूपादिन्यावृत्तिविधारः * अथ तत्र शुक्लतरत्वाद्यवान्तरजातयः स्वीक्रियन्ते, परमाणों स्वन्त्यकार्याऽवृत्तित्वादवान्तरजातयः स्वीकतुं न शक्यन्त इति चेत् । तथापि अवान्तरजातीयेष्वपि रूपादौ(?दिषु) परस्परख्यावृत्ति: किमधीना ?
* जयलता * || जरतीयापत्तेः ।
परः शङ्कते - अथेति । 'वेदि' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तत्र = परमाणुगणेषु शुक्लादिलक्षणेषु, शुक्लत्तरत्वाद्यचान्तर- ! जातयः = शुक्लत्वादिव्याप्याः शुक्लसात गुरुलतमकीलता वादिनमः ल्वी क्रियाले अस्माभिः नैयायिकैरिति शेषः ।। सजातीयपरमाण्वोः शुक्लगुणो शुक्लत्वव्याख्याभ्यां शुक्लतरत्व-शुक्लतमत्त्वाभ्यामेव परस्परं भिद्यते इति न तदर्थं तत्र विशेष| कल्पनमर्हति । अक्लप्तकल्पने तु गौरचमिति योगाशय: । 'तर्हि सजातीयपरमाणुष्वपि पृथ्वीत्वाद्यदान्तरजातयः कल्पयतस्तव किं छिद्यते येन तत्र विशेषकल्पनायासमातनुसे ?' इत्याशङ्कायां नैयायिक आह् - परमाणी त्विति । परमाणुगुणापेक्षया परमाणी विशेषसूचनार्थः तुशब्दः । तदेवाह - अन्त्यकार्याऽवृत्तित्वात् = सजातीयव्यणुकलक्षणान्त्यकार्याऽसमबेतत्वात्, अवान्तरजातयः = पृथ्वीत्वादिव्याप्यजातयः स्वीकर्तुं न शक्यन्त इति । पार्थिवजलीयद्वयणुकयोः द्रव्यत्वव्याप्यपृथ्वीत्त्वजलत्वजात्योः समवेतत्वेन तत्कारणीभूतपरमाणुष द्रव्यत्वन्यूनवृत्तिपृथिवीत्वजलत्वजातिविशेषो कल्पयितुं शक्येते परं सजातीयद्वचणुकयो: पृथिवीत्वाधवान्तरजातिविरहेण तत्कारणीभूतपरमाणुषु पृथिवीत्वादिव्याप्यजातयः कल्पयितुं नाईन्ति । ततश्च सजातीयपरमाणुषु परस्परप्रतियोगिकभेदगोचरयोगिप्रत्यक्षान्यथानुपपत्त्या अतिरिक्तविशेषकल्पनमस्त्येवेति नैयायिकाभिप्रायः ।।
___ यद्यपि परमाण्वादिसमवेतनित्यैकत्वपरिमाणादिगुणेषु परेणाऽवान्तरजातयो नैव स्वीकर्तुं शक्यन्त इति तत्र विशेषपदार्थाङ्गीकारप्रसङ्गस्य दुरित्वं तथापि स्फुटत्वात्तदोषमुपेक्ष्य अभ्युपगमवादेन प्रकरणकृदाह - तथापीति । सजातीयपरमाणुशुक्लादिगुणेषु शुक्लतरत्व-शुक्लतमत्वादीनां शुक्लत्वादिव्याप्यजातीनां कल्पनेऽपीति । अवान्तरजातीयेपु शुक्लत्यादिव्याप्यजाति। विशेषविशिष्टेषु अपि रूपादिषु शुक्लादिरूपादिगुणेषु सजातीयपरमाणुसमवेतेषु परस्परयावृत्तिः = इतरेतरप्रतियोगिक
भेदलक्षणन्यावृत्ति: किमधीना ? = किंनिमित्तका ? परमाणसमवेतयोः शक्लतरशक्लतमरूपयो: परस्परल्यावृत्तेः शुक्लतरत्व शुक्लतमत्वजातिविशेषनिमित्तकत्वोपपादनेऽपि सजातीयपरमाणुसमवेतयोः शुक्लतररूपयोः परस्परप्रतियोगिकभेदस्य योगिसाक्षाकारविषयस्य नाऽवान्तरजातिविशेषनिमित्तकत्वमुपपादयितुं शक्यते, द्वयोः शुक्लतरत्वजातेः समवेतत्वेनाऽविशेषात् । अतः तत्र
से भेदाश्रय सजातीय परमाणुओं में विशेष पदार्थ का स्वीकार जैसे किया जाता है, ठीक वैसे ही सजातीय परमाणुओं के सजातीय शुक्ल आदि गुणों के भेदविषयक योगिप्रत्यक्ष की अन्यथाअनुपपनि से सजातीयपरमाणुवृत्ति अनेक शुक्ल गुणों में भी, जो परस्परप्रतियोगिक भेद के आश्रय हैं, विशेप पदार्थ का स्वीकार भी तुल्य युक्ति से मान्य करना होगा।
नैयायिक :- अथ त, इति । जी नहीं, परमाणुगत अनेक सजातीय शुक्ल गुणों में विशेष पदार्थ के स्वीकार की आपत्ति हमारे मत में नहीं होगी, क्योंकि परमाणुओं के अनेक शुक्ल गुणों में शुक्लतरत्व, शुक्लतमत्वस्वरूप अवान्तर जातिविशेप का हम अंगीकार करते हैं, जो उनका भेदक है। मगर पार्थिव अनेक परमाणु या जलीय अनेक परमाणुओं में अवान्तर जातिविशेष की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि अंत्य कार्य पार्थिव द्वयणुकों में ही अवान्तर जातिविशेष नहीं रहती है । पार्धिक द्वयणुक और जलीय ट्यणुक में अचान्तर = द्रव्यत्वव्याप्य पृथ्वीत्व-जलत्व जातिविशेष रहने से पार्थिव परमाणु और जलीय परमाणु में अवान्तर पृथ्वीवादि जातिविशेष की कल्पना की जा सकती है । मगर दो पार्थिव पणुक में अवान्तर जातिविशेप नहीं होने से उनके अवयच पार्थिव परमाणुओं में अवान्तर जातिविशेप की कल्पना नहीं की जा सकती है। सजातीय परमाणुओं में परस्पर भेदक जातिविशेष नहीं होने की वजह उनमें विशेष पदार्थ की कल्पना आवश्यक बन जाती है, जिससे सजातीय परमाणुओं में परस्पर भेदविषयक योगिप्रत्यक्ष मुमकिन बने ।
स्याद्वादी :- तथापि, इति । ठीक है दो शुक्ल गुण में शुक्लतरत्व और शुक्लतमत्व नामक जातिविशेप की कल्पना कर के आप नैयायिक महाशय ने दो शुक्ल गुण में भेदविषयक योगिप्रत्यक्ष का समर्थन किया । मगर अनेक शुक्लतर गुणों में, जो सजातीय अनेक परमाणुओं में रहते हैं, परस्पर भेदविषयक जो योगिप्रत्यक्ष होता है, उसकी उपपत्ति आप कैसे करेंगे ? क्योंकि उनमें तो शुक्लतरत्व जाति समान ही है। इसलिए अवान्तर जातिविशेष की कल्पना से भी वहाँ भेदावगाही योगिसाक्षात्कार की उपपत्ति नहीं हो सकती है। इसलिए शुक्लतरत्व जाति के आश्रय अनेक शुक्लतर गुणों में भी विशेष पदार्थ का स्वीकार आपके लिए अनिवार्य हो जायेगा, जिससे उनमें परस्परभेदावगाही योगिप्रत्यक्ष की उपपत्ति हो सके, अन्यथा