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५३३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.७ * न्यायखण्डखाद्यविरोधपरिहारः *
अथ तत्रापि नैकावच्छेदेन नानारूपसत्त्वं, किन्तु नीलपीतकपालाद्यवच्छेदकभेदेनेति चेत् ? सत्यम, इत एवोपाधिभेदादेव नित्यत्वाऽनित्यत्वादय एका समाविशन्तीत्युक्तम् ।
अथवा विरुदं = विरुध्दत्वेनाऽभिमतं, हटा - नित्यानित्यत्वादिकं, नैकगाऽसत् - नेकाऽवृत्ति । कुत: ? प्रमाणप्रसिदितः = एकवृत्तितया प्रमाणेन प्रमीयमाणत्वादित्यर्थः । एकवृत्तित्वेन प्रमीयमाणस्यापि विरुदत्वाभिमानात समावेशानभ्युपगमे नीलपीतादीनामपि स न स्यादित्याहुः - विरादेति । तथा चायं प्रयोगः - नित्यानित्यत्वादिकं नैकत्राऽवृत्ति
= जयलता * सम्बन्धेन नीलादिकं प्रति समवायेन नीलादे; कारणत्वाऽङ्गीकारात् । न च प्रकरणकारेणेव न्यायखण्डखाये -> 'नीलत्यादिवचित्रत्वमपि जातिविशेष एच' «- (न्या.ख.खा. ) इत्यभ्यधायीति तद्विरोधप्रसङ्ग इति वाच्यम्, अतिरिक्तैकचित्ररूपाभ्युपगन्तृणो मतमबलम्ब्य तत्र तधोक्तत्वादिति व्यक्तमेव न्यायप्रभायाम् । दीधितिकारेणापि -> नानारूपवदवयवारब्धेऽवयविनि अन्याप्य -
नारूपाण्येवोत्पद्यन्ते, चित्रत्वब्यवहारस्तु परस्परसमानाधिकरणनानारूपवत्तनिबन्धन - इत्यङ्गीकारात् ।
धः शङ्कत्ते - अथेति । तत्र - चित्रघटे अपि नैकापछेदेन नानारूपसत्त्वं विरोधात्, किन्तु नीलपीतकपालायबच्छेदकभेदेन एव । न चैवमेकत्र घटे नित्यत्ला निनवादीति सम्मति. नीलकणाला कोलेज नित्यत्वं पीतकपालावच्छेदेन
चा:नित्यत्वमिति वक्तुमशाक्यत्वात् । ततो न मेचकवस्तुदृष्टान्तेनाऽन्यत्र नित्यत्वाऽनित्यत्वार्दानि समानाधिकरणानि कल्पयितुं | युज्यन्त इति शङ्कातात्पर्यम् । प्रकरणकृत् समाधत्ते-सत्यमिति । अर्धाऽङ्गीकारसूचकमिदं पदम् । इत एव = एकाबच्छेदे। नैकत्र कथञ्चिद्विरुद्धधर्माणां समावेशाऽसम्भवादेव, उपाधिभेदात् = अवच्छेदकभेदात् एव नित्यत्वाऽनित्यत्वादयो धर्मा एकत्र
धर्मिणि समाविशन्तीति । नीलपीतकपालयो: नित्यत्वानित्यत्वावच्छेदकत्वाऽसम्भवेऽपि द्रव्यत्वपर्यायत्वयोः तधात्वसम्भवात । देशवत भावानामप्यवच्छेदकत्वसम्भवात् । न चोपाधिभेदान्नित्यत्त्वानित्यत्वादीनामेकत्र समावेशो मूलकृदभिप्रायविरुद्धः, तदुक्तं | तैरेव अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां- 'उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं, नार्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यत च । इत्यप्रचुध्यैव विरोधभीता जडास्तदेकान्तहताः पतन्ति ॥२४॥
___ यदि च 'नित्यत्यानित्यत्वयोरेकाश्रयवृत्तित्वाञ्चगाहिनी बुद्धिः नाममा विरोधगीचरप्रमाणप्रसिद्धचभावादिति व्याख्याने लक्षणाया आश्रयणात्कश्चिदस्वरसमुद्भावयेत्तन्मनसिकृत्य व्याख्यान्तरमावेदयति - अथवेति । सुगम शेषम् ।
:::: ::व्यवहार मुमकिन है, तर चित्रत्व को भी नीलत्व आदि धर्म की भाँति रूपविभागप्रयोजक उपाधि मानना नामुनासिब है। नीलरूप से पीतत्वप्रकारक प्रतीति या व्यवहार नामुमकिन होने की वजह नीलरूप से पीतरूप को अतिरिक्त मान कर नीलत्व से अतिरिक्त पीतल धर्म को रूपविभाजक उपाधि मानना आवश्यक है । जब कि एकरूप से विशिष्ट अन्य रूप के निमिन से चित्रत्वप्रकारक प्रतीति या व्यवहार मुमकिन होने से नील आदि रूप से सर्वधा अतिरिक्त चित्र रूप को मानना और नीलत्वादि पाँच धर्मों से अतिरिक्त चित्रत्व धर्म को रूपविभाजक उपाधि मानना अनावश्यक है . यही स्याद्रादियों का अभिप्राय है, जो विचार करने पर समुचित प्रतीत होता है । यहाँ यह कहा जाय कि -> 'एक घट में एक ही भाग में अनेक वर्ण नहीं रह सकते, किन्तु भिन्न-भिन्न भाग में ही विविध वर्ण रह सकते हैं। मतलब कि नील रूप घट में नीलकपालावच्छेदेन, पीत वर्ण पीतकपालावच्छेदेन और रक्त रूप रक्तवर्णविशिष्टकपालावच्छेदेन रहते हैं, इसी तरह माना जा सकता है' - तो हम स्याद्वादी भी इस बात का सहर्ष स्वीकार करते हैं । भिन्नदेशावच्छेदेन = अवच्छेदकभेद से एक धर्मी में परस्पर कथंचित् विरोधी नील, पीत, रक्त आदि रूप का समावेश हमें मान्य होने की वजह ही उपाधिभेद = अवच्छेदकभेद से ही नित्यअनित्यत्व आदि परस्पर कथंचित् विरुद्ध धर्मों का एक धर्मी में समावेश होता है। ऐसा कहा है।
*स.तिचें लोकी प्यास्या* अथवा. । महोपाध्यायजी वीतरागस्तोत्र के अएम प्रकाश की सातवी कारिका का अन्य रीति से निरूपण करते हैं कि - प्रतिवादी को विरुद्धत्वरूप से अभिमत नित्यत्व अनित्यत्व आदि धर्मयुगल एक अधिकरण में अवृत्ति नहीं है, क्योंकि एकअधिकरणवृत्तित्वविधया प्रमाण से सम्यक ज्ञायमान है । एकअधिकरणनिरूपितवृतित्वमत्त्वरूप से प्रमाण के होने पर भी नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मयुग्म को अभिनिवेश से विरुद्ध मान कर उनका एक अधिकरण में समावेश मान्य