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कलिकालसर्वज्ञ आचार्यदेवश्री हेमचन्द्रसूरिचित वीतरागस्तोमाष्टमप्रकाशातनिहितमर्मयोतक न्याराविशारद - व्यायाचार्य - महामहोपाध्यायश्री यशोविजयगणिवररचित
मुलि यशोविजयकृत - जयलतावृति - रमणीयाव्याख्याऽलङ्गत
RTHNE
SAMBHARTAINS
...
स्याद्वादरहस्य
POSTANTRA
(मध्यम)
(व्दितीय खण्ड)
(दिव्याशिष) वर्धमानापोनिधि न्यायविशारद संहितचित्तक गच्छाधिपति स्व.आचार्यदेवेश
श्रीमदविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज
(प्रेरक-प्रोत्साहक) सिन्दान्तदिवाकर गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय
जयघोषसूरीश्वरजी महाराज
-: प्राप्तिस्थान :
-: प्रकाशक :
दिव्यदर्शन ट्रस्ट ३६, कलिकुण्ड सोसायटी,
धोलका.
१, प्रकाशक २, भरतभाइ चतुरदास शाह, कालुशीपोल, कालुपुर,
अमदाबाद. Pin-380001
Pin ,387810.
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मध्यमस्याडादरहस्ये खण्डः २
महामहोपाध्यााजी के उद्धार → यस्य सर्वत्र समता नयेषु ततोष्वेिव । तस्थालेकालतवादस्य क्व क्यूनाधिकशेमुषी ।।
अध्यात्मोपनिषत् १/६५) जैसे माता को अपने सब बच्चों के प्रति समान प्यार होता है ठीक वैसे जिस अनेकान्तवाद को सब नयों के प्रति समान हदि होती है उस स्यादात को एक लय में हीनता की बुद्धि और तय नय के प्रति उच्चता की बुन्दि कैसे होगी ? अर्थात किसी भी जय में हीनता या उच्चता की बुद्धि स्याहार को नहीं होती है।
ग्रंथशरीरपरिचय
पत्रक्रमांक
(III)
प्रकाशकीय वक्तव्य प्रास्ताविक विषयमार्गदर्शिका प्रस्तुत प्रकरण - द्वितीय खण्ड परिशिष्ट (लघुस्याद्वादरहस्य-सम्पूर्ण)
(IV) (XUF) २१८-५४८ (1-18)
संशोधक न्यायादिशास्त्रमर्मज्ञ तपोस्त मुनिप्रवरश्री पुण्यरत्नविजयजी महाराज
कोम्प्युटर्स टाईप सेटींग प्रथम आवृति व
थ्री पाच कोम्प्युटर्स, वि.सं. २०५२ ( मूल्यः रु. १४५... )
| ३३, auel सोसारा, केरान पर,
घोडासर, सहमदावाद-३८००१0. नकल - ६००
__फोt :- 396246
| सर्वाधिकार श्रमणप्रधान श्री क्षेतांबरमूर्तिपूजक जैन संघ के स्वाधीन
नोंध :- यह ग्रंथ दाानिक अध्ययनशील जैन साधु साध्वीनी भगवंत को भेट रूप में मिल सकेगा। ज्ञाननिधि से प्रस्तुत पुस्तक का
मुद्रण होने से बिना मूल्य के गृहस्थ इस पुस्तक को अपनी मालिकी में नहीं रख सकते ।
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ ।
| प्रकाशकीय वक्तव्य |
पाज मुमुक्षुव के पासिंगपन में जयलता (संस्कृत टीका) एतं रमणीया (हिन्दी व्याया) से सुशोभित स्पालादरहस्य (मध्यमपरिमाणवारगे) गन्धरता का दितीय खंड प्रस्तुत करते हुए हम आज अदितीरा आनंद की अनुभूति कर रहे हैं।
प्रस्तुत विसर रखंड में वलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज से निर्मित मुलखान्य स्वरूप वीतरारलोन प्रकरण के प्रस्टम प्रकाश को 5-10-८वी कारिकाःयों का महोपाध्याय श्रीमशोविजराजी
तरवित (मध्यम) स्थानादरहस्य विवरण एवं उसकी जगलता तामक संस्कृत दीका और रमणीया नामक हिन्दी व्याख्या मुद्रित हैं। परिशिष्ट के समय में लघुपरिमाणवाला स्पासादरहस्य he भी इस पुस्तता में समाविष्ट है। जिस ग्रन्थ को प्रत्येक पंति व्ययाय की क्लिाया पारिभाषित पदावली से पास होने से अत्यंत ल-तुझेंप है ऐसे कठिनातम दार्शनिक ग्राथ की संस्तत एवं हिन्दी भाषा के माध्यम से रसपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करने के लिये हम मुनिश्री यशोविजयजी का अभिवा करते हैं।
प्रस्तुत महत्वपूर्ण सतथ के दितीय खंड की दोनों माख्याओं में श्रुटि रहने वा पाये तदर्थ लदिपरिकामतमति तपस्वी मनिराजश्री पुण्यरत्नविजयजी महाराज ने संशोधन के लिये पर्याय श्रम किया है। एतदर्थ हम करके भी जारी है। मुद्रण :आदि कार्य में कोई भी अति सा रह जाए उसके लिए व्याख्याकार गुनिटी को भी प्रफसिलंग आदि कार्य में काफि उद्यम किया है। फिर भी मद्राण आदि में छद्मस्थतामूलक कोई क्षति हागोचर हो तब उसका परिमार्जन करतो के लिये पतावर्ग से हमारी प्रार्थना है।
पस्तुत सत्य के प्रथम खंड के प्रकाशन के बाद अन्य समयावधि में सर्वांग सुन्दर कम्पोज-सेटिंगगुद्रण आदि कार्यसहित विद्वतीय खंड के प्रकाशन में श्री पा कोम्प्युटर्स वाले अजयभाई और विमलभाई ने भी अच्छा सक्रिय सौजारा दिखाया है। एतदर्थ वे भी अवश्य हमारे धपताद के पात्र हैं।
पसाराध्यपाद वर्धमारतपोनिधि साविशारद सकलसंघहितचिंतक गच्छाधिपति आचार्यदेवेश स्व. श्रीमहातजा भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा की पुषित प्रेरणा से प्रारब्ध हमारी संस्था को आज भी उनकी दिव्य कया से ऐसे शास्त्रीय प्रकाशनों का लाभ मिल रहा है। इस बात का हमें गौरव है और आगे भी ऐसे महत्वपूर्ण शास्त्र सयों के प्रकाशन का नाम हमारी संस्था को मिलता रहे -ऐसी हम प.पू.स्व. गुपतिश्री से याचा करते हैं।
प्रान्त, अधिकृत जिज्ञासु समक्ष वाचकवर्ण टीकाब्दयसहित इस संघरत्न का सम्यग अध्ययन कर के पारमार्थित विश्वकायारागकर तत्चों के श्रवण-मन निदिध्यासन से मोक्षमार्ग की ओर प्रगति करेपही एक शुभेच्छा ।
लि. विस्यदर्शनट्रस्ट के ट्रस्टी
कुमारपाल वि. शाह Reभाई चतुस्वास शाह. मर्यकभाई शाह आदि ।
परमपूज्य सिद्धांतदिवाकर गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. की पावन प्रेरणा से प्रस्तुत द्वितीय खंड का संपूर्ण आर्थिक सहयोग श्री लालबाग श्रेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छ जैन संघ - मुम्बई- ज्ञाननिधि की ओर से प्राप्त हुआ है । एतदर्थ हम उनके ऋणी है और उस संघ के ट्रस्टीओं को हार्दिक धन्यवाद देते हैं । अस्तु !
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प्रास्ताविकम
ॐ ह्रीं श्री शङ्खेश्वरपार्श्वनाथाय नमः
मियाँजी जंगल में बिल्ली को छोड़ कर तीन दिन के बाद वापस घर लौटे तब बीबी चिल्ला उठी ।
'हजरत इतने दिन कहाँ गये थे ?"
'बेगम साहेबा ! जंगल में मिट्टी को छोडने के बाद घर का रास्ता भूल गया था. '
'तो फिर यहाँ वापस कैसे लौटे ?"
'अजी, उसी निशी के पीछे पीछे पर आ गया "
इस प्रस में एकान्तवादी मानस का प्रतिबिंब निहित है । अनेकान्तवाद को कुतर्क एवं कुयुक्तियों से एकान्तवाद की सीमा के बाहर निकालने के बाद एकान्तपादी परदर्शनी वापस अपने एकान्तवाद के क्षेत्र में प्रवेश पाने की क्षमता को खो देते हैं। अपने एकान्तवाद के सिद्धान्त की स्थापना करने के लिये एवं उसकी त्रुटियाँ दूर करने के लिये स्वाद्वाद का ही आश्रय लेना आवश्यक बन जाता है। सापेक्षवाद से वहिर्भूत निरपेक्ष एकान्तवाद की प्रतिष्ठा कभी नहीं की जा सकती। अनेकान्तवाद का जन्म मुमकिन है एकान्तवादी परदर्शनी के सिद्धान्त किस तरह अनेकान्तवाद से संमीलित हैं इस विषय का सतर्क सम्यक् प्रतिपादन कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने वीतरागस्तोत्र के अहम प्रकाश में किया है। इसी अहम प्रकाश में अन्तर्निहित रहस्य के योतनार्थ एवं उसमें अन्तर्गत शान्तरस का आस्वाद करने के लिये महामहोपाध्याय श्रीमद् पशोविजयजी महाराज ने स्वाद्वादरहस्य प्रकरण बनाया। नव्य न्याय की शैली में अष्टम प्रकाशस्वरूप बाग को नवपल्लवित करने में न्यायविशारदजी ने कुछ कसर नहीं रखी है
इस बात का भली भाँति परिचय श्रीमद्जी की कृति पर गौर से निगाह करने पर सुझ पाठक महाशयों को अनापास ही मिल जाता है । अष्टम प्रकाश को नव्य न्याय की परिभाषा से परिप्लावित करने के लिये न्यायाचार्यजी के उलास और उमंग में इतनी उभार आई कि जिसके फलस्वरूप इसी अष्टम प्रकाश पर जपन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट परिमाणनाले स्वाद्वादरहस्य नाम के तीन प्रकरणरत्न का अनुपम उपहार जिनशासन को मिला हमारा यह वहा सौभाग्य एवं सद्भाग्य है ।
मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
जीव में से शिव बनने की साधना करनेवाले साधकों को परास्त करने के लिये मोहमल सदा सज्ज रहता आया है । अतएव मुमुक्ष के लिये मोहमहामल के स्वरूप की समीचीन जानकारी एवं उसको हटाने की क्षमता को प्राप्त करना अनिवार्य बन जाता है । ज्ञानयोग से उपासक मोहमल के सही स्वरूप को पहचान सकते हैं एवं भक्तियोग से भक्त मोह का उन्मूलन करने का सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। न तो हम मोह की भावाजाल से अपरिचित होते हुए, शक्ति होने पर भी उसे हटा सकते हैं और न तो मोह की इन्द्रजाल को ठीक तरह पहचानते हुए भी सम्यक् आत्मशक्ति के प्रयोग के बिना, उसका उच्छेद कर सकते हैं। अतः ज्ञानयोग एवं भक्तियोग की नितांत आवश्यकता है। जि एवं शक्ति के आप उग्रमस्थानस्वरूप अरिहंत परमात्मा एवं शुद्धमहाव्रतधारी गुरुवर्ग तथा साधना में सहायक साधर्मिक की भक्ति से मोह का विच्छेद करने की ताकत पानेवाले आराधकों के लिये भी मोहोन्मूलन के लिये मोहराजा की सम्यक् समझ जरूरी बन जाती है।
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द्रव्यानुयोग का महत्त्व
आज हम यहाँ ज्ञानयोग के बारे में कुछ विमर्श करते हैं। पोडशक आदि ग्रन्थ में ज्ञानयोग के तीन भेद बताये
हैं (१) श्रुतज्ञान (२) चिन्ताज्ञान (३) भावनाज्ञान । श्रुतज्ञान के चार विभाग हैं (१) द्रव्यानुयोग ( २ ) गणितानुयोग (३) चरणकरणानुयोग (v) धर्मकथानुयोग सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शुद्ध-वृद्धि-स्थिरता के लिए द्रव्यानुयोग का गहरा अभ्यास करना आवश्यक है। यदि षड्जीवनिकाय की अवधारणापूर्वक श्रद्धा रखते हुए भी द्रयानुषांग से कोई अज्ञात है तो वह द्रव्य सम्पदृष्टि कहा जाता है, भाव सम्पग्दर्शन का वह भाजन नहीं बन सकता इस बात की घोषणा करनेवाले 'सम्मतितर्ककार श्रीमद् सिद्धसेनदिवाकर सूरिवर ने इम्यानुयोग की गंभीरता और आवश्यकता की और अंगुलिनिर्देश किया १. नियमेण तो छकाए भाषओ न सess हंदि अपजवे विसरणा होइ अविभत्ता । सं.व. २/१८
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मध्यमस्याद्वादरइस्पे खण्डः २
है। उन्होंने तो यहाँ तक साफ साफ प्रतिपादन किया है कि हेतुवादगम्य पदार्थों का हेतु तर्क से एवं आगमचादरम्य पदार्थों का आगम से प्ररूपण करनेवाला ही जैनसिद्धान्त का प्रज्ञापक है । हेतुवादगम्य पदार्थ का आगम से एवं आगमैकगम्य पदार्थ का तर्क और पुक्ति से प्रतिपादन करने वाला सचमुच सर्वज्ञप्रणीत सिद्धान्त का विराधक है मंजक है ।
1
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इतना ही नहीं वह ज्ञानगर्भित वैराग्य से भी शून्य है यह महोपाध्याय यशोविजयजी महाराजा के उद्गार हैं। सम्यक् मीमांसा के बिना चाहे अनेक शास्त्रों को पते जनसम्मत बन जाये अनेक शिष्यों के परिवार से समृद्ध बन जाये जो भी यदि वह स्वसिद्धांत के विषयविभाग से अज्ञात है, वह चाहे कितना ही चारित्र के मूल गुण एवं उत्तर गुण में उद्यम करे फिर भी चरण-करण के तास्विक फल को वह जान नहीं सकता, अनुभव की तो बात ही कहाँ ? यह पूर्वधर श्रीमत् सिजसेनदिवाकर सूरिवर का वक्तव्य 'द्रस्यानुयोग का कितना मूल्यांकन करना चाहिये ?' इस दिशा में विचार करने के लिये प्राज्ञ मुमुक्षु के लिये पर्याप्त है उन्होंने तो यहीं तक कह दिया है कि- 'केवल शासन की भक्ति से सिद्धांत का सम्प ज्ञाता नहीं बना जा सकता एवं कुछ इधर से, कुछ उधर से ज्ञान पानेवाला वास्तव में स्पाद्वादगति सिद्धान्त की प्ररूपणा करने में असमर्थ एवं अनधिकारी है' । ' शास्त्रपरिकर्मित प्रज्ञा के बिना केवल आशयशुद्धि का कुछ भी महत्त्व नहीं है. यह सुरिपुरंदर हरिभद्रसूरि महाराजा का टंकोत्कीर्ण वचन है "अतएव सूत्रअभ्यास के बाद नय निक्षेप प्रमाण से अर्थ का अभ्यास करना यानी द्रव्यानुयोग का अध्ययन करना नितांत आवश्यक है । जो आचार्य होते हुए भी तात्विक शास्त्रार्थ से अज्ञान है वह जिनेश्वरदेव की महाभाज्ञा की विटंबना करता है। उपर्युक्त पूर्वधर महर्षि के वचनों का उल्लेख करने के पीछे हमारा आशय सिर्फ इतना ही है कि मोक्षमार्ग की नीव जो नैअधिक सम्प दर्शन है, उसकी प्राप्ति के लिए स्वपरदशन के सिद्धान्त का सूक्ष्म प्रज्ञा से तलस्पर्शी अभ्यास जीवननिर्वाहक अन-पानहवा प्रकाश आदि से भी ज्यादा मूल्यवान् है । कहने दो कि वह अमूल्य ही है । इस वक्तव्य के विधेयात्मक हार्द को सुक्ष पाठकवर्ग अच्छी तरह समझ पायेंगे - यह मंगलकामना ।
नव्यन्यायअध्ययन की आवश्यकता
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जिनशासनस्वरूप विशाल नभस्थल में द्रव्यानुयोगमर्म के प्रकाशक पूर्वधर श्रीसिद्धसेनदिवाकर सूरीश्वर मल्लवादी आचार्य, वाताल शांतिसूरिजी कलिकालसर्वज्ञ श्रीहरिभद्रसूरि हेमचन्द्रसूरिजी श्रीवादिदेवसूरिवर, भीरत्नप्रभाचार्य आदि अनेक सूरजचाँद सितारे उदित हो चुके उपर्युक्त महर्षियों की प्रतिपादनशैली प्राचीन न्याय की परिभाषा से प्लावित है। किसी विषय के बारे में अनेक संभावित विकल्पों की जाल बिछा कर वस्तु के सत्स्वरूप का मंडन करना एवं असतूस्वरूप का खण्डन करना यह प्राचीन न्याय की शैली है। न्यायशब्द का प्रयोग प्राचीनन्याय, जैनम्याय, वीजन्याय तथा नव्यन्याय के स्वरूप में बहुधा भारतीय दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्ध है। न्यायशब्द का अर्थ है तर्क अथवा युक्ति 'न्याय' शब्द की शास्त्रीय व्युत्पत्ति यह है कि 'भीयतेऽनेन वस्तुस्वरूपं इति न्याय' अर्थात् जिसके आधार पर किसी निर्णय तक पहुँचा जाए वह न्याय है। भाष्यकार अत्स्यायन ने 'प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:' (न्यायसूत्र वा.भा. १-१-१) ऐसा कह कर 'प्रमाणों के आधार पर अर्थ की परीक्षा का नाम न्याय है' ऐसी निजी परिभाषा बनाई है । परन्तु कालान्तर में
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न्यापशब्द मुख्यतः गौतमदर्शन ( अक्षपादमत) के लिये रूड हो गया । के लिये व्यायशब्द का प्रयोग कर के वात्स्यायन ने उसे 'परमो न्याय: से दार्शनिक प्रमेयों की स्थापना करनेवाले गीतमीय दर्शन के रूप में आवश्यक है कि (१) इन्द्रभूति गौतम गणधर (२) गौतम बुद्ध एवं ठीक उसी तरह भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं जैसे शब्दवाच्य लवण, पख और अन ।
महर्षि गौतम के द्वारा प्रतिपादित पञ्च अवयवों संज्ञा प्रदान की और पथापन तथा उस प्रचालि स्थापित किया । यहाँ इस बात पर ध्यान देना (३) न्यायदर्शनप्रस्थापक गौतम महर्षि ये तीनों
गीतम महर्षि के कई शताब्दियों के पश्चात् प्राचीन न्यायदर्शन की शैली ने नया परिमाण एवं नया परिवेष धारण
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१. जो वाक्यम्मि सो आगमे च आगमिभो । भो ससमयपण्णव सिद्धंतविराहओ अभो ॥ सं. न. ३/४५
२. आज्ञयाऽऽगमिकार्थानां यौक्तिकानां च युक्तितः । न स्थाने योजकत्वं चेत् १ न तदा ज्ञानगर्भता । अध्यात्मसार ६ ३८ । २. ज ज ओ सम्मओ व सियागणसंपरिवु अविणिच्छिओर सम, तह तह सितपरिणी
। सम्भतितर्क ३-६६ ।
४. चरणकरणप्पाणा ससमयपरसमयमुकवावारा, चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं पण याति ॥ संत ३-६७ ।
५. शासणभनिमेतरण सिद्धतजाणओ होहण विजानपि शिषमा पष्णवणाणिच्छिओ नाम ॥ सं.स. ३-६२ ॥
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६. जिणाणार कुणंताणं नूणं नित्राणकारणं । सुंदर पि सबुद्धिए सवं भवनिबंधणं ॥
७. तम्हा अडिगवसुलेण अत्यसंपादणम्नि जगणं आवरीय धीरहत्था देवि महाणं पितन्ति ॥ संत ३६५
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
किया, जिससे प्राचीन न्याय एवं नव्य न्याय ऐसे दो विभाग प्रचलित हो गये । बौद्ध, मीमांसक, वेदान्ती तपा जैनों के साथ लगभग हजार वर्ष के वैचारिक संघर्ष के फलस्वरूप गौतमीय नैयायिकों ने अपने विवेचन को प्रमाणमीमांसा पर केन्द्रित किया, जिसके फलस्वरूप नव्यन्याय का जन्म हुआ। प्राचीन न्याय में पश्चावयवों के विवेचन के साथ साथ 'बाद' के सभी अङ्गों के प्रतिपादन के अतिरिक्त पदार्थमीमांसा, तत्वमीमांसा, तथा शानमीमांसा भी प्रस्तुत की गयी है, जब कि नव्यन्याय प्राचीन नैयायिकों के द्वारा विवेचित निग्रहस्थान-बाद-जल्प-वितण्डा आदि के सिद्धांतों की ओर उदासीन रहते हुए मुरूपतः प्रमाण के स्वरूप, फल एवं हेतु विषयक विचार पर अपना अवधान केन्द्रित करता है । प्रमाण की जिस प्रकार पारिभाषिक शब्दावली नव्यन्याप में विवेचित है वैसी किसी भी शायद अन्य न्याय में या दर्शन में उपलब्ध नहीं है । नव्य न्याय ने पदार्थों के विशेषरूपों का अन्वेपण कर के उनकी सर्वशृद्ध परिभाषा करने पर विशेष जोर दिया ताकि उनके विषय में किसी प्रकार की भ्रान्ति या सन्दिग्धता का अवसर ही न रहे । नव्यनैयायिक मोक्षपुरुषार्थ के प्रति आग्रह छोड़ कर 'वस्तु' के यथार्थ बोध के प्रति अधिक संवेदनशील है । पक्षता, अनुयोगिता, प्रतियोगिता, अवच्छेदकता, अवच्छिनता, प्रकारता, विषयता, प्रकारिता, विषपिता, संसर्गता, प्रतिबन्धकता, प्रतिबध्यता, निरूपकता-निरूपितता आदि शब्दावली से गर्मित नव्य न्याय की प्रवृत्ति, शब्दों में सन्दिग्धता को अवकाश न देते हुए, पदार्थ को विशेष व्यक्त करने की रही है। अतएव नव्य न्याय के आधुनिक पारिभाषिक पदार्थों का परिचय पाना अत्यन्त दुरुह है.। वस्तु के वास्तविक स्वरूप को निःसन्दिग्धरूप में प्रस्तुत करने में प्राचीन न्याय की अपेक्षा नव्य न्याप अधिक सक्षम होता हुआ भी प्रसङ्गवशात् प्रमाण-प्रमेय-प्रमा या न्याप्ति की जटिल परिभाषा दे कर अच्छे अच्छे प्राज्ञ पांडता को भा दिन में आसमान के तारे दीखाने लगता है । रोमांचित करनेवाली पारिभाषिक अर्वाचीन पदावली में पदार्थविवेचन की जो सूक्ष्मता है वही नव्यन्याय की मुख्य विशेषता है । विषय की सूक्ष्मता को प्रदर्शित करने के लिये जिन नवीन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है वही उसका प्राचीन न्याय से वैलक्षण्य है । ये नवीन सांकेतिक शब्द ही नन्य न्याय को अन्य सभी शास्त्रों से भिन्न शास्त्र के स्वरूप में स्थापित करते हैं। नवीन न्याय की इस पारिभाषिक तकनीकी ने उसके नूतन अध्येताओं के लिये अनुत्साह का सृजन किया । जब तक नवीन पारिभाषिक शब्दों के अर्थ ही समझ में नहीं आते तब तक 'उनके उपयोग से अर्धच्छटा की सूक्ष्मता कैसे उत्पन्न होती है? इसका भी पता नहीं लगता । परिणामतः प्राज्ञ मुमुक्षु भी नव्यन्याय · से दूरी से ही घबड़ाते हैं।
अलौकिक प्रतिभाशाली गनेश उपाध्याय ने प्राचीन न्यायशास्त्रों का मन्थन कर के उसके सारमय जिस तत्त्वचिन्तामणि नामक ग्रन्थ का सृजन किया उससे प्रारंभ होनेवाला शास्त्र मन्यन्याय के रूप में विख्यात हुआ । अतएव गङ्गेश उपाध्याय नव्यन्याय के आच प्रस्थापक के रूप में प्रसिद्ध हुए। बाद में नवद्वीप के वासुदेव सार्वभौम, रघुनाथ शिरोमणि, मधुरानाथ, जगदीश तालंकार, गदाधर भट्टाचार्य, विक्षनाथ पश्चानन भट्ट आदि विद्वानों ने नव्यन्यायगङ्गा को अपनी अपनी कृतियों से प्रवहणशीलता प्रदान की। इनके अतिरिक्त मिथिला के पक्षधरमिश्र, वर्धमान उपाध्याय, यज्ञपति उपाध्याय, रुचिदसमिश्र, भगीरथ ठकुर, महेवा ठक्कर आदि ने भी नव्य न्याय के ग्रन्थों की रचना कर के नव्यन्याय सम्प्रदाय को गीरवान्वित किया। जहाँ तक पदाधप्रतिपादन का सवाल है हम कह सकते हैं कि नव्य नैयायिकों ने प्राचीन न्याय को मान्य वैशेषिक पदार्थों को विशेपस्नरूप से आत्मसात् कर के अपने शास्त्र की मंजील खटी की है।
नव्यन्याय के सृजन के पश्चात् इसका प्रभाव विभिम दर्शनों के शास्त्रों पर बड़े व्यापकरूप से पड़ा है । इस शास्त्र के प्रादुर्भाव के पश्चात् भारतीय दार्शनिक विद्या के लगभग हरएक क्षेत्र को इसने प्रभावित किया । नन्य न्याय की संकलनाओं के और दार्शनिक पारिभापिक पदावली के ठीक तरह परिचय के बिना मानो कि धर्मशास्त्र, साहित्यशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, तन्त्रशास्त्र तथा अन्य दर्शनों के सर्वमान्य ग्रन्थों का सूक्ष्म अध्यपन नामुमकिन हो गया । दीधितिकार आदि से नवीन न्याय पल्लवित और पुष्पित होने के बाद प्रायः प्रत्येक दर्शनकार नवीन न्याय की परिभाषा को अपना कर अपने सिद्धांतों का सूक्ष्म एवं सतर्क प्रतिपादन करने को उद्यत बने । मधुसूदन सरस्वती के अवैतसिद्धिग्रन्थ की गौडब्रह्मानंदी टीका, काव्यप्रकाशव्याख्या, परिभाषा शब्देन्दुशेखर, जल्पकल्पतरु, मञ्जूषा आदि वेदान्त आदि दर्शनों के ग्रंथों में नव्य न्याय की पदावली का काफि उपयोग किया गया है, जिनमें स्वसिद्धान्तस्थापन एवं परसिद्धान्तनिकन्दन किया गया है। अन्य नन्य दार्शनिकों ने स्याद्वाद का भी विना सोचे समझे खण्डन किया । अनएव नवीन न्याय की शैली में स्याद्वादबाधक कुतको का निरसन एवं स्थाबाद का सूक्ष्म समीचीन प्रतिपादन करना जैन मनीषियों के लिये कर्तव्य बना। इस कार्य का श्रीगणेश महामहोपाध्याय
१. न्या.सू.वा.भा. १-१-१
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
VII
पशोबिजयजी महाराज ने किया । श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी, श्रीहरिभद्रसूरिजी, मलवादी आचार्य आदि प्राचीन पूर्वजों के ग्रन्थों का मनन-निदिध्यान कर के उनमें से सुधारस निकाल कर परिवेषण करने की अद्भुत क्षमता. महोपाध्याय श्रीमद्जी को वरी हुई थी । स्याद्वाद, सप्तभङ्गी, नय, निक्षेप आदि के हार्ट को एवं प्राचीन शास्त्र के समीचीन तात्पर्य को परिस्फुरित करती हुई नव्यन्यायगर्भित महोपाध्यायजी की कृतियों का आस्वाद लेने के लिए प्राज्ञ मुमुक्षु के लिए नव्यन्याय की पारिभाषिक पदावली का सही ज्ञान पाना जरूरी बन जाता है। ऐसे देखा जाय तो एकान्तवादावलम्बी परदर्शनवार्ता को स्वदर्शनप्रतिपादन में कुछ स्थान ही नहीं है फिर भी मार्गानुसारी बुद्धि की विशदता एवं सूक्ष्मता के लिए तथा नैवयिक सम्पग्दर्शन की स्पर्शना के लिये एकान्तवादी-परदर्शननिरसन भी आवश्यक है, जो जैनन्याय के प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थों में द्रष्टिगोचर होता है । भनेका तार के कगाथो में सन्स् एकान्तवादों का इतना समन्वय किया गया है कि उसका हार्द समझे बिना एकान्तवाद का खण्डन करने पर अनेकान्तवाद पर ही कुठारनहार हो जाय एवं तन्मूलक द्वादशांगी की भी भारी आशातना हो जाप । इसीसे पता चलता है कि नव्यन्याय का अध्ययन कितना आवश्यक है ? जब अनेकान्तवाद को केन्द्रित कर के सब दानों का अभ्यास किया जाय तब तो स्वदर्शन एवं परदर्शन का आग्रह ही छूट जाता है । मगर केवल श्रद्धा के स्तर पर इस परमोच्च स्थिति पर पहुँचना मुश्किल ही है किन्तु किसी भी हालत में इस मन:स्थिति के पाने के बाद भी उसे चिरस्थायी रखना तो बकरे की दाड़ी से दूध निकालना है । मोहनीयक्षयोपशमानुविद्ध सूक्ष्म प्रज्ञाशक्ति से ही उपर्युक्त शमत्व अवस्था प्राप्य है एवं स्थाप्य है । तो स्वतंत्र केवल बुद्धि वेश्या ही है मगर मार्गानुसारी क्षयोपशम से नियन्त्रित बन जाने पर स्याबाद राजराजेश्वर की वह मुशील महारानी बन सकती है । तदर्थ सम्यक एकान्तवादों की नींव पर स्थित स्यावाद का परिशीलन एवं तदर्थ परदर्शनों का यथावत् अवलोकन अनिवार्य बन जाता है ।
दार्शनिक अभ्यास द्रव्यानुयोग का एवं सर्वदर्शनअध्ययन का अपने क्षेत्र में महन्न होते हुए भी रत्नत्रयी के समाराधक मुमुक्षु के लिए संस्कृत-प्राकृन-काव्य आदि के निपुण अभ्यास के बाद जैन आचारविज्ञान के लिये दशवकालिक, ओपनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, आशरांगसूत्र, पंचसूत्र, पंचवस्तु, पत्राशक आदि शास्त्रों का अध्ययन एवं जैन पदार्थविज्ञान के लिये आवश्यकनियुक्ति, विवोषावश्यकभाण्य, लोकप्रकाश, प्रवचनसारोद्धार, प्रज्ञापना आदि शास्त्रों का परिचय नो सत्र से पहले ही जरूरी है । बाद में प्रशाशक्ति के अनुसार जैनन्याय के जैनतर्कभाषा स्यावादभाषा, स्याद्वादमञ्जरी, रत्नाकरावतारिका, थर्मसङ्ग्रहणीटीका आदि का अच्छी तरह वीक्षण करने के पश्चात् महोपाध्यायजी महाराज के रसप्रद साहित्य का मधुर आस्वाद पाने के लिये नव्यन्याय
1, तर्कसङ्ग्रह, मुक्तावली, दिनकरी, व्याप्तिपञ्चक, सिद्धान्तलक्षण, अवच्छेदकनिरुक्ति, व्युत्पत्तिवाद आदि ग्रन्थों का अध्ययन उचित समझा जा सकता है । साथ ही सायदर्शन की सांख्यतत्त्वकौमुदी, बौद्धदर्शन के न्यायविन्दु, वेदान्तदर्शन के वेदान्तपस्भिाषा, मीमांसादर्शन के मीमांसापरिभाषा या अर्थसङ्ग्रह, योगदर्शन के पातञ्जलयोगसूत्र की राजमार्तण्ड पा मणिप्रभा टीका आदि का अन्वीक्षण जरूरी है, क्योंकि उपाध्यायजी महाराज अवसरोचित पड्दर्शन के सिद्धांतों की समीक्षा करने के लिये लालायित रहते हैं । जहाँ तक हम समझते हैं, हम यह कह सकते हैं कि उपाध्यायजी महाराज के साहित्य का सानंद एवं सम्यक् लाभ उठाने के लिये उपर्युक्त क्रम से अभ्यास करना ठीक रहेगा । साथ साथ योगदृष्टिसमुचय, योगबिन्द, ललितविस्तरा आदि योगग्रन्थों का अभ्यास करना इट न जाये पह भी ध्यान में रखना जरूरी है। विद्यारसिक मुमुक्षु के लिये आनन्द की बात यह है कि बहुधा उपदर्शित षड्दर्शनों के प्राथमिक ग्रन्थ हिन्दी या गुजराती में सविवेचन उपलब्ध होते हैं । एवं उपाध्यायजी महाराज के भी नवीनन्यायगर्भित अनेक प्रकरणरल भी हिन्दी या गुजराती भाषा में सविवेचन उपलब्ध हैं । जो मुमुक्षु अधिक प्रज्ञाशाली हैं एवं उपाध्यापजी महाराज के अन्धों की प्रत्येक पंक्ति एवं पदों का समीचीन सूक्ष्म हाई पाने के लिए उत्साही हैं उनके लिये प्राचीनन्याय के न्यायकुसुमांजलि, आत्मतत्वविवेक, न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि आदि ग्रन्थों का एवं नवीनन्याय के सामान्यनिरुक्ति, व्यधिकरण जागदीशी, वादवारिधि, तत्त्वालोक, प्रामाण्यवादगादाधारी, तत्त्वचिन्तामणि की माधुरी पा दीधिति टीका आदि ग्रन्थों का, सांख्यदर्शन के गौडपादभाष्य, सांख्यसूत्रभाष्य आदि प्रकरणों का, यौद्रदर्शन के प्रमाणवार्तिक, तत्त्वसङ्ग्रह, माध्यमिककारिका आदि ग्रंथों का, मीमांसादर्शन के आकर ग्रन्थ श्लोकवार्तिक का, व्याकरणदर्शन के वाक्यपदीय (जो पांच भाग में साम्रतकाल में सटीक उपलब्ध है) ग्रंथ का, वैशेषिकदर्शन के न्यायलीलावती, प्रशस्तपादभाष्य आदि शास्त्रों का, वेदान्तदर्शन के चित्सुखी (अपग्नाम तत्त्वप्रदीपिका), अवैतसिद्धि,
१, सीसमइविप्फारणमेनोऽयं कओ समुल्लाओ । इहरा कहामुह चेव त्थि एवं ससमर्थमि ।। सं.त. ३/२५ । २. आत्मीयः परकीयो दा का सिद्धान्तो विपक्षिताम ? ||| योगविन्द . १२५
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मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ सिद्धान्तबिन्दु, खण्डनखण्डखाय, वेदान्तकल्पलतिका आदि ग्रन्थों का, योगदर्शन में पातंजलयोगसूत्रभाष्य पर तत्त्ववैशारदी टीका, जो वाचस्पतिमिश्रकृत है, उसका एवं मंडनमिश्रकृत विधिविवेक की वाचस्पतिमिश्रकृत न्यायकणिका टीका का अध्ययन हो || जाय तो वहा सौभाग्य एवं सद्भाग्य समझा जायेगा ।
पश्चात् जैन नव्यन्याय के अध्ययनार्थ नयरहस्य, नयोपदेश न्यायालोक, आत्मख्याति, वादमाला, प्रमेयमाला, न्यायखण्डखाय, स्थाद्वादकल्पलता, स्याद्वादरहस्य, अनेकान्तब्यवस्था आदि ग्रन्थों का, नव्यन्याय गर्भित आगमिक एवं योगग्रन्थों के अभ्यासार्थ उपदेशरहस्य, भाषारहस्य, धर्मपरीक्षा, अध्यात्ममतपरीक्षा, आध्यात्मिकमतपरीक्षा, देवधर्मपरीक्षा, गुरुतत्त्वविनिश्चय, ज्ञानबिन्द्र, ज्ञानार्णव, प्रतिमाशतक, षोडशकनव्यटीका, द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका, योगविंशिकावृत्ति, द्रव्यगुणपर्यायरास, ऐन्द्रस्तुति चतुर्विशतिका आदि का अध्ययन करना उचित समझा जाता है। प्राचीन जैनन्याय के द्वादशार-नयचक्र, सम्मतितर्कटीका, स्याद्वादरत्नाकर, न्यायावतारवार्तिक, प्रमाणमीमांसा आदि आकर ग्रन्ध भी मननीय हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवचनसार, बृहद्रव्यास्तिकाय, त्यायविनिश्रय, सिद्धिविनिश्चय, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थ-राजवार्तिक, तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक, प्रमेयरत्नमाला आदि न्यापग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । एवं शेष आगमग्रन्थों का, योगग्रन्थों का, वैराग्यवर्धक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् अध्यात्मबिन्दु, अध्यात्मउपनिषद्, अध्यात्मसार, ज्ञानसार, पोगसार, योगशतक आदि निश्पनयप्रधान ग्रन्थों का अध्यपन भी प्रशमरसवाहिता के अनुभवार्य उपयोगी माने जाते हैं। यहाँ जो कुछ अध्ययनक्रम बताया गया है वह तो एक दिग्दर्शनमात्र है । इस पद्धति के अनुसार अन्य जितने भी ग्रन्थों का अध्ययन किया जाय उतना कम है, क्योंकि जैनशासन तो सम्यक शास्त्ररत्नों का महासागर है । उसका पार कौन पा सकता है ?
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि दार्शनिक ग्रन्थों का ज्ञान जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्व दार्शनिक अध्यपन के दौरान वैराग्यकल्पलता, उपमितिभवप्रपंचाकथा, समाइश्चकहा, संबंगरंगशाला, अध्यात्मकल्पद्रुम, शांतसुधारस, प्रशमरति आदि आत्मपरिणतिविद्धिकारक ग्रन्थरत्नों के अध्ययन का भी है। यदि केवल शुष्क तर्कग्रन्थों के अध्ययनार्थ उपर्युक्त वैराग्यपोषक ग्रन्थों की उपेक्षा की जाय तो जीव में से शिव बनने की साधना निश्चेतन एवं प्राणविहीन बनने की भी पूर्णतया संभावना है । अतः दोनों विभागों का अच्छा सन्तुलन गुरुगम से किया जाय यही उपासक का सम्यक् ज्ञानमार्ग है। गंगाजल की भांति न्यायविद्या-तर्कविद्या अपने आपमें पवित्र एवं निर्मल होते हुए भी अयोग्यस्थान को पाकर जहर भी बन सकती है । इस भयस्थान से मुक्त बनने के लिये भक्तियोग भी एक उत्तम-सुरक्षित-ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक उपाप है। दार्शनिक अभ्यासार्थ संयमयोगों की निर्दोष एवं आवश्यक चर्या कुरबान की जाय - यह भी कथमपि सङ्गत नहीं है ।
श्री सिद्धर्षिमणिवर ने उपमितिभवप्रपश्चा कथा में भवभ्रमणहेतुभूत कुविकल्प के दो प्रकार बताये हैं (१) आभिसंस्कारिक (२) सहज । मिथ्यागासश्रवण के संस्कार से उत्पन्न होनेवाले कुविकल्प आभिसंस्कारिक कहे जाते हैं, जो कभी गीतार्थ स्वपरसमयज्ञ भवभीरु सद्गुरु के सत्संग के प्रभाव से निवृत्त होते हैं तो कभी सम्यग् एकान्तअविनाभावी अनेकान्तबाद के अवण-मनन-चिन्तन-निदिध्यासन से भी । पौद्गलिकसुख की लालसा, दुःख से खीफ, कञ्चन-कीर्ति-कामिनी में परमार्थसुखबुद्धि ये सब कुविकल्प सहज कहे जाते हैं, जिनकी निवृत्ति अधिगम सम्यग्दर्शन के बिना नामुमकिन है । अधिगम सम्यकत्व का मतलब है अनेकांतगर्भित-सद्गुरुउपदेशजन्य नैश्वयिक सम्यक्त्व । नैश्रयिक सम्यग्दर्शनवाले प्रत्येक जीवों को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। इसका मतलब यह हुआ कि निश्चय सम्यग्दर्शन और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा परस्पर समन्याप्त अविनाभावी हैं और परस्पर के उपहम्भक हैं । दृष्टिवादपद से द्वादशांगी के अन्तिम अङ्गसूत्र, जिसमें १४ पूर्व सामिल हैं, का भी ग्रहण हो सकता है और अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद-स्याद्वाद प्रमाण का भी । दृष्टिवाद अगसूत्र अन्तर्गत १४ पूर्व तो कालिकानुयोग-नयबाद-प्रमाणवाद इत्यादि की मीमांसा से भरसक हैं, जो नैवयिक सम्पग्दर्शन का मूल आधार है । अनेकान्तवाद के बिना केवल नैश्रयिक दर्शन ही नहीं बल्कि लौकिकव्यवहार भी कथमपि सङ्गत नहीं हो सकता । अतएव
१. ये खल्वमी कुविकल्पाः प्राणिनो भवन्ति । तद्यथा - एके कुशास्त्रश्रवणवासनाजनिताः यदत्त - 'अण्डसमुद्भूतमेतत्रिभुवनं, महेश्वरनिर्मितं, ब्रह्मादिकृतं, प्रकृतिविकारात्मक, क्षणविनश्वर, विज्ञानमात्र, शून्यरूपं वा' इत्यादयः 1 ते हि आभिसंस्कारिका इत्युच्यन्ते । तथा अन्ये सुखमभिलपन्तो दुःखं द्विषन्तो द्रविणादिषु परमार्थबुद्धयध्यवसायिनः, अत एव तत्संरक्षणप्रवणचेतसोऽदृष्टतत्त्वमार्गस्यास्य जीवस्य प्रवर्तन्ते, पैरेव जीयोऽशनीयानि शकते, अचिन्तनीयानि चिन्तयति, अभाषितव्यानि भाषते, अनाचरणीयानि समाचरति । ने तु कुविकल्पाः सहजा इत्यभिधीयन्ते । तत्राभिसंस्कारिकाः प्रथमसुगुरुसम्पर्कप्रभावादेव कदाचिनिदर्तेरन् । एते पुनः सहजा यावदेष जीवो मिथ्यात्वोपप्लुतबुद्धिस्तावन कथविद् निवर्तन्ते । यदि परमधिगमजसम्पग्दर्शनमेव प्रादुर्भूनमेनानिवर्तयतीति । उपमितिभवप्रपञ्चायां पीठबन्धे दृश्यतां ७६ तमे पृष्ठे प्रती । २. जण विणा लोगस्मबि बबहारो सन्चहा न निब्बहइ । तस्स भुवणेकगुरुगो नमो अणेगंतवायरस ॥
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मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २
अनेकान्तवाद सब के लिये अवश्य नमस्करणीय है । सम्यगेकान्त वादों से अनुप्राणित अनेकान्तवाद की सही जानकारी वर्तमान में परदर्शनों के अभ्यास के बिना अधूरी समझी जाती है। एक पदार्थ की संपूर्ण इप्ति के लिए सब पदार्थों का ज्ञान आवश्यक है और सब पदार्थों की परिपूर्ण जानकारी के लिये एक पदार्थ का सूक्ष्म बोध आवश्यक है। इस तरह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, स्थिरता एवं वृद्धि के लिये परदर्शन अध्ययन की आवश्यकता होने पर भी बिना विनव-विवेकपैराग्य के वर्कअभ्यास मुक्तिसाधना में दिन भी पैदा कर सकता है यह भयस्थान जरुर है । मगर इस भयस्थान
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को अवसर ही न मिले तदर्थ हमने पूर्व बताया वैसे भक्तिमार्ग एवं वैराग्यपोषक शास्त्रपरिशीलन का अमोघ सहारा लिया जा सकता है। मगर इस भवस्थान से परदर्शन अध्ययन को ही अलविदा करना तो गले में फोटा होने पर गले को ही काटना है । जैसे फोडे की चिकित्सा कर के गले को सुरक्षित रखना ही अक्लमन्द का कार्य है ठीक वैसे ही परदर्शनअध्यवनस्थलीय भवस्थान को दूर कर के मोक्षमार्गबीजतुल्य नैषयिक सम्यग्दर्शन के योगक्षेमार्थ सर्वदर्शनों का गुरुगम के सहारे मार्गानुसारी बुद्धि से अध्ययन किया जाय यही विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य है ।
-: द्वितीय खण्ड विषय :
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मध्यमस्याद्वादरहस्य के प्रथम खण्ड में वीतरागस्तोत्र अष्टम प्रकाश की आय ४ कारिका की श्रीमद् महोपाध्यायजीकृत म. स्याद्वादरहस्याभिधान व्याख्या, उसकी जयलतानामक संस्कृतटीका एवं रमणीया हिन्दी विवेचन का समावेश किया गया है। प्रस्तुत द्वितीय खण्ड में वी.स्तो भएम प्रकाश की ५६.७-८ कारिका की मदोपाध्यायकृत ज्यारूपा, उसकी संस्कृतटीका एवं हिन्दीवितरण उपलब्ध है। अवशिष्ट ग्रंथांश एवं व्याख्याएं तृतीय भाग में सभ्य होगी पंचम श्लोक की व्याख्या में महोपाध्यायजी ने 'जिनोक्त नित्यानित्यत्वभित्र वस्तुस्वभाव किसी प्रकार के दोष से कलकित नहीं है' इस खोकार्य की पुष्टि के हेतु (१) प्रारंभ में सप्तमी का विस्तार से प्रतिपादन किया। यहाँ व्यधिकरणंधर्मावचित्र प्रभाव को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्न अभाव से ही अन्यमासिद्ध बतानेवाले भवदेव आदि नव्य नैयायिकों के मत का नव्य न्याय की गुठली में उन्मूलन किया गया है। बाद में एवकार की शक्ति अयोगव्यवच्छेद में न मान कर अन्ययोगव्यवच्छेद में मानने वाले नवीन नैयायिकों के मत का निरसन कर के अयोग एवं व्यवच्छेद में एवपद की खण्डशः शक्ति का समर्थन किया गया त्वमेवं भेद 'स्वादववतव्यः' में अभेद या पुनरुक्ति दोष का समाधान श्रीमद्जी ने यह दिया कि द्वितीयभंग में वक्तव्यत्वाभाव का प्रतिपादन अभिमत है और चतुर्थ भंग में उससे भिम अवक्तव्यत्वनामक स्वतंत्र जात्यन्तरभूत धर्म का कथन अभिमत है (पृ.नं. २८१) । वह समाधान उपाध्यायजी की अलौकिक प्रतिमा का दर्शन कराता है। बाद में प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कारसूत्र का हवाला देकर सलादेश एवं विकलादेशस्वरूप दी सप्तभङ्गी का निरूपण कर के सप्तभङ्गीवादस्थल पर पर्दा डालने के पूर्व 'सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेव अर्थ बोधयति' इस न्याय के तात्पर्यार्थ का नव्य पदावली मे निरूपण किया है (पृष्ठ २८९) ।
(५) तत्वादस्थल में नीलरूप स्पर्श का व्याप्य नहीं है' इस प्रबल तर्क से अन्धकार में यत्वबाधक रूपाभाव का निराकरण किया गया है। असरेणु के स्पर्श में अनुत्य का स्थापन, अर्थसमाजसिद्ध धर्म में कार्यतानवच्छेदकता का प्रतिपादन, तमोद्रव्यत्वसाधक पूर्वाचार्यमतमंडन, आलोकगत चाक्षुषकारणता का उल्लूचाक्षुषादि में व्यभिचार से निराकरण, उच्छृंखलमत-मीमांसा सामसेन्द्रियवादी तारिककदेशीयमतसमीक्षा, प्रभाकरमिश्रमत समालोचना, प्रकाशकरूपाभावात्मकतमोवादी प्रगल्भ के मत का समीक्षण, वर्धमानउपाध्यायमत अपाकरण, स्वतन्त्रमतप्रतिपादन में जन्यभावमात्र में ससमवायिकारणकत्वनियम का पराकरण एवं परिष्कार, अन्धकार में रत्नप्रभसूरिमतानुसार भावत्व साधन, तम में पृथ्वीत्वबाधन, व्यवहार के बल से अन्धकार में द्रव्यत्वसिद्धि पुनः वर्धमानमतनिरास एवं कन्दलीकारमतकर्तन कर के तमोद्रव्यत्वाद को तिलांजलि दी गई है।
" अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने पर मध्याह्नकाल में राजमार्ग पर यकायक घट आदि को उलटा करने पर घट आदि के अंदर अन्धकारव्य की उत्पत्ति कैसे गुमकिन होगी ? क्योंकि तब वातावरण में अन्धकार के अवयव अनुपस्थित है और प्रीड आलोक होने के समय अन्य देश से भी तमोऽवयन का आगमन नामुमकिन १" यह वर्धमान उपाध्याय का स्पाबादी के प्रति आक्षेप है जिसकी समीक्षा करते हुए उपाध्यायजी ने अपने परिणम्य परिणामकभाव के सिद्धान्त को लक्ष्य में रख कर यह बताया कि - पनतर आवरण के सहकार से वहाँ आलोकद्रव्य ही अन्धकारात्मना परिणत होता है। नियतारम्भवादी नैयायिक के बतानुसार इसकी कथमपि सङ्गति नहीं हो सकती मगर उपर्युक्त रीति से अनियतारम्भवादी जैनों के मतानुसार ही यह सम्भव है । इस विषय का विस्तार से निरूपण स्थाद्वादकल्बलता, बादमाला आदि ग्रन्थों में
१. जो एवं जाणइ सो सव्वं जाण । जो सव्वं जाणइ सो एगं जाई || आचारांगसूत्र
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भी उपलब्ध है ।
न्यायकन्दलीकार श्रीधर का मत यह है कि
आरोपित नील रूप ही अन्धकार है, न कि इत्यादि । इसका समीक्षण
श्रीमद् न्यायविशारदजी इस तरह करते हैं कि निराश्रय रूप वैशेषिकसिद्धान्तानुसार भी नामुमकिन है। अतः प्रतीयमान नील रूप के आश्रपीभूत द्रव्य को ही अन्धकार कहना मुनासिव है ।
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः १
पथम कारिका का आकर्षक तृतीय वादस्थल है ईश्वरवाद । क्षिति आदि में ईश्वर कर्तृत्वसाधक कार्यत्व हेतु
अन्यत्र वह प्राप्य नहीं है (१) प्रयत्न भी विलक्षणसंयोग प्रयोजक है । मगर निश्वयतः स्वद्रव्य मिट्टी ही घटजनक साधक दीधितिकार की तो हम इस तरह न्यायाचार्य
का विकल्पषट्रक से जो निरसन यहाँ उपलब्ध है, हमारी धारणा है का ही हेतु है (२) व्यवहार से दण्डादि घट के कारण नहीं किन्तु है (२) खण्डपटजनक ईश्वरीय कृति के आश्रयविधया महेश्वर के ने निकाली है कि तब घटसामान्य के प्रति कुलालत्वेन हेतुता का ही उच्छेद हो जायगा । स्थाद्वादकल्पलता में उपर्युक्त दीधितिकारमत की समालोचना स्वसिद्धान्तानुसार इस तरह प्राप्य है कि खण्डपस्थल में हम नवीन घट की उत्पत्ति नहीं मानते हैं। अतः खण्डपटजनकविधवा ईश्वरसिद्धि नामुमकिन है। इसी बात को श्रीमद्जी ने भापारहत्य स्वोपज्ञविवरण में इस तरह बताई है कि घट में छिद्र पर्याय उत्पन्न होता है, न कि नूतन छिपट (भा.र. पृ. ३३) । न्यायकुसुमाञ्जलिकार उदयन के वृतिआदिहेतुक अनेक अनुमानप्रयोगों का खण्डन आगे चल कर किया है। ईश्वरसाधक उदयनउपन्यस्त 'कार्यायोजनवृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात् सङ्ख्याविशेपाच साध्यो विश्वविदन्यधः ॥ ( न्या. कु. ५/१) इन वा हेतुओं की एवं दशहेतु के नवीन अर्थ की विस्तार से कडी समालोचना न्यायाचार्य ने स्याद्वादकल्पलता के तृतीय स्तवक में की है । अष्टसहस्रीविवरण आदि ग्रन्थों में भी यह बादस्थल उपलब्ध है । श्रीसिद्धसेनादि प्राचीन जैनाचार्यों की युक्तिओं का भी अवसरोचित उपयोग न्यायाचार्यजी ने किया है ।
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पञ्चम कारिका का चतुर्थ वादस्थल है सर्वसिद्धि मीमांसक आदि असर्वज्ञवादी के मत का यहाँ खण्डन करते हुए पपदार्थ का बहुत मार्मिक प्रतिपादन कर के इस वादस्थल को एवं प्रथम कारिका को दिगम्बर अनुयायी की युक्ति बता कर जलाञ्जलि दी है (पृ.४५८) |
r कारिका सुगम होने के सबब उस पर श्रीमद्जी ने कुछ विवेचन विवरण मध्यम स्याद्वादरहस्य में नहीं किया है। मगर श्रीहरिभद्रजी ने स्वयं ही स्याद्वादकल्पलता एवं नवरहस्य आदि ग्रंथों में इस कारिका की व्याख्या की है। अन्यत्र भी इस कारिका का अर्थतः विवरण उपलब्ध है। इन सब विवरणों का संकलन मैंने जपलता में किया है। प्रत्येक दोपकारी होते हुए भी संमीलित होने पर गुड और गुण्ठ दोषकारक नहीं रहते हैं किन्तु बल-पुष्टि आदि के हेतु बन जाते हैं दोषापहारपरक इस दृशन्त के बल से इस कारिका में स्वाद्वाद की निर्दोषता का प्रतिपादन किया गया है (पृ. ४१२
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सप्तम कारिका का मध्यम स्याद्वादरहस्यविवरण अत्यंत महत्वपूर्ण है 'अयं विरुद्धं नेकाऽसप्रमाणप्रसिद्धितः ।" इस पूर्वार्द्ध का अन्दय किस तरह लगाया जा सकता है ? इसका जो नस्यपदावलीगर्भित सूक्ष्म विवेचन महोपाध्यायजी ने किया है उसमें उनके व्याकरण, तत्त्वचिन्तामणिशब्दखण्ड नञ्वाद आदि शास्त्रों का गहरा ज्ञान प्रतिबिंबित हो रहा है । गदाधरकृत व्युत्पत्तिवाद के अभ्यासी के लिये यह विषय इतना जटिल नहीं बनेगा, जितना केवल तर्कसङ्ग्रह - मुक्तावली के अध्येताओं को होगा यह हमारी राय है । बाद में एकत्र सत्व और असत्व, एकल्व अनेकत्व आदि विरुद्ध प्रतीयमान धर्मयुगल किस तरह समाविष्ट होते हैं ? इसका नयवाद से निरूपण किया गया है । सत्त्व की व्याख्या करते करते श्रीमद् उपाध्यायजी ने न्यायसम्मत जाति की आलोचना कर के उतासामान्य और निर्मवसामान्य की निर्दोषता का प्रतिपादन किया गया है। ऐसे देखा जाए तो उतासामान्य एवं तिर्यकृसामान्य का सविस्तर समर्थन स्पाद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में भी उपलम्भ है मगर उस पर जो आक्षेप किया जा सकता है, उसे बता कर नव्यन्याय की परिभाषा के आलंबन से उसको दूर करने की श्रीमद्जी की जो शैली है, उसमें उनकी अभिनयउन्मेषशाली प्रतिमा का दर्शन होता है । 'समकालीन मित्रद्रव्यों का अनुगत धर्म जैनन्याय की परिभाषा के अनुसार तिक्सामान्यपद से प्रतिपाय है और पूर्वापरकालीन विभिन्नपरिणामशाली द्रव्य ही तासामान्य है'- यह प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार सूत्र में बताया गया है । मगर इसको यथावत् मान्यता दी जाय तत्र तो चिरस्थायी गुण एवं पर्याय में ऊतासामान्यपद की और तिर्यक्सामान्यपद की प्रवृत्ति नामुमकिन बन जायेगी, क्योंकि सूत्र में द्रव्यपदार्थ को केन्द्रस्थान में रख कर ही तासामान्य और निकृसामान्य का स्वरूप बताया गया है
इस समस्या को हल करते हुए रहस्यकार ने यह सूत्ररहस्य बताया कि द्रव्यपद धर्मिपरक है । इसका मतलब यह है कि पुनपरकालसाधारण धर्मा ही तासामान्य है भीरु एककालीन विभिन्न वर्गीओों का अनुगत अनतिप्रसक्त धर्म ही
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मध्यमस्मद्वादरहस्ये खण्डः २
द्वियंकृसामान्य है । स्वयं द्रव्य न होते हुए भी द्रव्य की भाँति गुण पर्याय धर्मी तो हो सकते ही हैं। चिरकालस्थायी मनुष्यपयांच भी बाल युवा वृद्ध आदि परिणाम धर्म का आधार होने से धर्मी तो चिना किसी हिचकिचाहट के कहा जा सकता है । अतएव उसमें कतासामान्यपद प्रतिपाद्यता भी निराबाध है । एवं एककालीन अनेक वेन गुण श्वेतत्व धर्म का आश्रय होने से धर्मी तो है ही अतएव उसमें रहा हुआ शुरुतत्व तिर्यक् सामान्यशब्द से अभिलाप्यई । इस गंभीर तत्व के परिवेषणार्थं श्रीमद्जी ने केवल इतना ही कहा कि 'सूत्रस्थ पद पfर्मपरक है। यही महोपाध्यायजी की विशेषता है कि जितना अर्धप्रतिपादन शब्द से करते हैं उससे अधिक अर्थ शब्द में ही निहित रखते हैं।
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सूक्ष्म एवं स्पष्ट रूप से यह विवेचन करने की क्षमता जो नयन्याय की पारिभाषिक पदावली में वह प्राचीन परिभाषा में नहीं है । अतएव श्रीमद्जी के साहित्य से लाभान्वित होने के लिये नवीन न्याय का अध्ययन अपरिहार्य है । नव्यन्यायदर्शन की परिभाषा को अपना कर भर स्वसिद्धांतों का सन्तुलन रख कर सपरिष्कार निर्दोषप्रतिपादन का बहुत कठिन है, मगर श्रीमद्जी इसमें सफल रहे हैं ।
बाद में प्रवचनसार ग्रन्थ का हवाला देकर दिगम्बरमतानुसार स्वरूप अस्तित्व का प्रतिपादन कर के उस पर अपनी स्वतंत्र मीमांसा का भी श्रीमद्जी ने दर्शन कराया है ( पृष्ठ ४८४) । आगे चल कर (पृ. ४८५) नैयायिकसम्मत सादृश्यपदार्थ का निरूपण एवं निराकरण कर के जनमतानुसार सङ्ग्रह नय के अवलम्बन से सादृश्यपदार्थ को प्रकाशित किया है। न्यायवैशेषिकदर्शन अभिमत विशेषपदार्थ का तो श्रीमद्जी ने कचुंबर निकाला है ( पृष्ठ-५०५ ) ।
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अन्यत्र
इस सप्तम श्लोक का महत्वपूर्ण वाहस्थल है (४-५२४) अभिलाप्यत्वपदार्थपरीक्षण, जो इस तरह सूक्ष्मरूप से न्य मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। यह वादस्थल वृहत्कल्प भाष्य के वचनों की सूक्ष्म मीमांसा से भरा हुआ है। शब्द की प्रमाण नहीं मानने वाले बीद्धों का निराकरण श्रीमद्जी ने शब्दाद्वैतवादी की युक्ति से किया है, उससे यह जानकारी सुज्ञ जनों को मिल सकती है कि 'स्याद्वाद को केन्द्र में रख कर किस तरह परदर्शन को भी मान्यता दी जाय ?' -> केवली की देशना शब्दात्मक नहीं है किन्तु ध्वनिस्वरूप है, जो शब्दात्मना परिणत हो कर श्रोताओं का विषय बनती है; क्योंकि शब्द का कारण है इच्छा, जो रागात्मक होने से केवली में नहीं हो सकती । बिना कारण के, केवली शब्दों का प्रयोग कैसे कर सकते हैं? यदि ऐसा न माना जाय और केवली को वक्ता माना जाय तब तो उनमें पीता का ही विच्छेद हो जायेगा यह दिगम्बरमत है जिसका खण्डन महोपाध्यायजी ने इस तरह किया है कि वर्णमात्र के प्रति प्रयत्न कारण है और प्रयत्न का कारण इच्छा है फिर भी वीतराग केवली शब्द प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि केवली में मोहाभिव्यक्त चैतन्यविशेषात्मक इच्छा न होने पर भी मोहानभिव्यक्त चेतन्यविशेषात्मक इच्छा तो निराबाध है। इच्छामात्र अभिष्वात्मक ही होती है यह कोई नियम नहीं है। निरुपाधिकपरदुः प्रहाणेच्छा करुणात्मक है, न कि रागात्मक विस्तार से इस वय का निरूपण अध्यात्ममतपरीक्षा, स्याद्वादकल्पलता, तत्त्वार्थनव्यटीका आदि में श्रीमद्जी ने ही किया है ।
आगे चल कर सप्तम कारिका के उत्तरार्द्ध की विभिन्न व्याख्याओं का आविर्भाव किया गया है। बाद में सामान्य विशेष में विरोध के परिहारार्थं मयूरपंख आदि मेचक पदार्थों का दृष्टान्त बता कर सप्तम लोक का विवरण समाप्त किया ६ (पृष्ठ-५४५) । अएम कारिका में विज्ञान को साकार एवं निराकार, एकाकार और अनेकारात्मक मानने वाले बीज मनीषी भी किस तरह अनेकान्तवाद की नींव पर खड़ें हैं ? यह बता कर अनेकान्तवाद की सर्वदर्शन में व्यापकता का समर्थन किया गया है। वीतरागस्तोत्र के अष्टमप्रकाश की ४-५-६-७ कारिका के (म) स्याद्भादरहस्यनामक महोपाध्यायकृत विवरणग्रन्थ के विषयों का यहाँ जो निर्देश किया गया है वह संक्षिप्त विवेचन हुआ । उससे ज्ञात उपाध्यायजी की कलम की कुछ कमाल से सुज्ञ वाचकों के दिमाग में 'पूरे ग्रन्थों नव्यन्याय की परिभाषा में इन सभी विषयों का प्रतिपादन श्रीमद् महोपाध्याय ने किस तरह किया है ? यह उत्कण्डा जिज्ञासा जरूर उत्पन्न होगी। यह उत्कण्ठा भर जिज्ञासा ?" निरुत्साह न बने तदर्थ गुरुकृपा से क्षयोपशमानुसार जयलता (संस्कृत टीका) एवं रमणीया ( हिन्दी टीका) को मैंने बनाई हैं। इस ग्रन्थ के अभ्यास के लिये अभ्यासिओं को एक विवेचन की आवश्यकता पहले महसूस होती थी जिसकी पूर्ति करने का मैंने एक नम्र प्रयास किया है । आशा है संस्कृत-हिन्दी टीकाजय के माध्यम से अध्येतागण को उपाध्यायजी के प्रस्तुत ग्रन्थ के पदार्थ वाक्यार्थ- महावाक्यार्थ- पेदम्पर्यार्थ को समझने में सुगमता रहेगी। सभी विषयों के जिज्ञासु विषयानुक्रम से अधिक परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
P
XI
परमाराध्यपाद सिद्धांतमहोदधि वात्सल्यवारिधि सुविशालगच्छाधिपति स्वर्गस्थ भगवान् प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के अनगिनत दिल्याशिष से पूज्यपाद गच्छाधिपति वर्धमानतपोनिधि प्रगुरुवर्य आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी
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XII
मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
म. की महती कृपा से, परमोपकारी कर्मसाहित्यनिष्णात न्यायविशारदपट्टधर सिद्धान्तदिवाकर श्रीमद् विजय जयघोषसूरिजी महाराज की प्रोत्साहक प्रेरणा से, दीक्षागुरुदेव भीमभवोदधित्राता प्रभावक ज्वलंतवैरागी श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. के असीम उपकार से, प्रथमखण्ड के संशोधक पूज्यपाद विद्यागुरुवर्य पंन्यासप्रवर श्री जयसुंदरविजयजी के मंगल मार्गदर्शन से, महोपकारी पूज्यपाद शासनप्रभावक, पद्ममणितीर्णोद्धारक गुरुदेवश्री विश्रकल्याणविजयजी महाराज की अनहद कृपा से, संपूर्ण टीकास्य के संशोधक विद्वद्वरेण्य तपोरत पूज्य मुनिराजश्री पुण्यरत्नविजयजी म. की निःस्वार्थ परोपकाररसिकता से, विद्यागुरुवर्य पूज्य मुनिराजश्री अभयशेखरविजयजी म., श्री अजितशेखरवि. म, एवं श्रद्धेय कल्याणमित्र मुनिराजश्री कल्याणबोधिविजयजी म., मुक्तिबल्लभविजयजी म. युगसुदर विजयजी म. आदि के निव्याज स्नेह से तथा सहवती स सहकारभाव से मध्यमस्याद्वादरहस्य ग्रन्थ की टीकाद्वय की रचना और सम्पादन के द्वारा जो पावन पुण्य का उपार्जन हुआ उससे विश्वकल्याण एवं विश्वमङ्गल हो यही एक मङ्गलकामना ।
मुनि यशोविजय ॐकारसूरि आराधनाभवन, सुरत - २०४५ पोष सुद-१
पर
TULNA
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विषय
पांचवी फारिका का सामान्य अर्थ
| अदर्शनी और जिनेन्द्र से प्रदर्शित वस्तु का नियानस्य
स्वरूप अलग-अलग है
अप्पपदीक्षितवत्प्रतिक्षेपः
प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक धर्म की अपेक्षा
सहधर्मात्मक है स्पाद्वादी नित्यत्वानित्यत्वयोरेकत्र समावेशः
शंका : द्रव्यत्व- पर्यायत्व क्रमशः नित्यत्व और अनित्यत्व का अवच्छेदक नहीं हो सकता स्वस्थ स्वापच्छेदकत्वविचार:
-
| ध्वंसाप्रतियोगितात्मक नित्यत्व का अवच्छेदक द्रव्य हो सकता है
समाधान
शुद्ध धर्म से अबच्छेय विशिष्ट स्प स्याद्वादी अर्धे क्रमाध्यारोपप्रदर्शनम्
वट क्रमिक अर्पणा से कथंचित् नित्यानित्य
इच्छा भी प्रत्यक्षकारण हो सकती है स्याद्वादी प्रत्यक्षविशेषस्वेच्छानियम्यत्यकथनम्
-
विषयमार्गदर्शिका
विषय
घट कथंचित् नित्य और कथंचित् अवक्तव्य है स्याद्वादी
अन्तिम तीन धर्म का समावेश पूर्व धर्म में नहीं हो सकता स्याद्वादी सप्तभङ्ग्यां विचारविशेष:
उपवेवसाइयेयुपायसाम्
नित्यानित्यत्व आदि धर्म जातिविशेषात्मक है
• विशेषणविशेष्यभाव में विनिगमक न होने पर भी परिणाम अभिव ही है
स्वाद्वादी
पृष्ठ
एकदेशमित
सप्तभंगीस्वरूपविचार
२१८
२१८
२१५
२१९
२२०
ܕ ܐ ܕ
२२३
| कथञ्चिवक्तव्यत्वसमर्थनम्
२२४
घट युगपत् अर्पणाइव से कथंचित् अवक्तव्य स्याद्वादी २२४
| शाङ्करभाष्यनिराकरणम्
२२५
उपदेश सहकार से अवतव्यत्व भी शाब्दबोधयोग्य है
स्वाभादी
अवक्तव्यात्वेग परिणाम ही नित्यान का उपकार है
• स्याद्वादी
अष्टभङ्गीप्रसङ्गापाकरणम्
अवक्तव्यत्व की भाँति वक्तव्यत्व स्वतंत्र आँठवा
धर्म नहीं है स्वाद्वादी
वक्तव्यत्वसप्तभङ्गीस्थापनम्
२२१
२२९
२२२ स्याद्वादी २२२
२२२
२२१
२२५
२२५
२२६
२२६
२२७
२२७
२२७
२२८
२२८
२२९
सप्तभङ्गीस्वरूपप्रकाशनम्
सप्तभङ्ग्या न्यूनत्वेऽप्रामाण्यम्
एक भी भंग से शून्य सप्तभंगी प्रमाण नहीं है अर्पणाविशेषस्य सहकारित्वोकि:
संकेत भी शाब्दबोध में सहकारी है।
मुक्तावलिकारमतप्रतिक्षेप:
न्यायभूपणकारप्रभृतिमतखण्डनम्
सप्तभंगी में एवकार और स्पात्कार का प्रयोजन परी तत्वसङ्ग्रहसमालोचना
उत्पादादिसिद्ध्यनुसारेण सप्तभङ्गीभावना
सप्तभंगी अप्रामाणिक है दीर्य पूर्वपक्ष व्यधिकरणधर्मस्याऽपच्छेदकत्वविचारः प्रतियोगितावच्छेदकत्यविचारः
व्यधिकरणधर्माविवि अभाव प्रामाणिक होने से द्वितीयादि भंग प्रामाणिक है स्पाज्ञादी
'घटत्वेन पटो नास्ति' यहाँ पटत्व प्रतियोगितावच्छेदक है - अवान्तर शंका
अभावांचे संसर्गविचार:
तृतीयतपदीपस्थापित धर्म प्रतियोगितावच्छेदक होता ही हे स्वाद्वादी
अवच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधितिसंवादः अभावविशेषणतावच्छेदकत्व और अभावप्रतियोगितावच्छेदकत्व की ज्ञापक सामग्री एक है पूर्वपक्ष विप्रतिपत्तिप्रकाशनम्
-
घटत्वादि घटादिभेदाभावरूप होने से अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना अनावश्यक है स्वाद्वादी प्रतियोगितादरनतिरिक्तत्वविमर्शः
-
XIII
पृष्ठ
२३०
२३१
२३१
२३२
२३२
२३३
२३४
२३४
२२५
२३६
२३६
२३७
२३८
२३८
२३८
२३९
अपच्छेदकत्वांशेऽभ्रमत्वाऽऽशङ्कापराकरणम्
२४२
घटत्वेन पटो नास्ति इस प्रतीति में वैशिष्ट्यांश में अप्रमात्मकत्व और अवच्छेदकत्वांश प्रमात्व की शंका व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता अप्रामाणिक पूर्वपक्षी २४२ व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव ही व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताका भाव है स्याद्वादी
द्वितीय भंग में अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना का गौरव अनिराकार्य पूर्वपक्ष अतिरिक्तप्रतियोगिताविचार:
२३९
२४०
२४०
२४१
२४२
२४३
पादिवृत्ति प्रतियोगिता का अवच्छेदक धर्मविधया घटत्वादि नहीं हो सकता पूर्वपक्षी
२२९
२२९
प्रतियोगितादि प्रतियोगी आदि स्वरूप है शंका
Bold Type जयस्ता के विषय के सूचक है Normal Type रमणीया हिन्दी व्याख्या के शापक है।
२४३
२४४
२४४
२४५
२४५
२४५
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XIV मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
*विषयमार्गदर्शिका*
पृष्ट
२४८
२४० २४९
विषय
पृष्ठ गौरवस्य दोपत्वत्रिमर्शः प्रतियोगिता-प्रतियोगितावच्छेदकत्वादि अतिरिक्त है -पूर्वपक्षी २५६ व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावासिद्धिः | भवदेव के मत का निरूपण व्यधिकरणदीधितिसंवादद्योतनम् भवदेव के मत की समालोचना
२४८ नव्यमतनिराकरणम् निरबच्छिन्न प्रतीति विरुद्ध नहीं हो सकती 'घटलेन पटो नास्ती'तिधीप्रतिबन्धकाचविमर्शः व्यधिकरणधर्मावच्छिनाभावामतिरेकाऽऽशश अतिरिक्तप्रतियोगितादिविचारः
२५२ प्रतियोगिताअधिकरण धर्म में अवच्छेदकत्व की कल्पना में गौरव है . पूर्वपक्षी अस्तित्व-नास्तित्वस्वरूपविचारः | सप्तभंगी प्रामाणिक है उत्तरपक्ष सप्तभङ्गीतरङ्गिणीसंवादः परद्रत्र्यादि चतुष्टय में अवच्छेदकता मुमकिन है-स्याद्वादी २५४ वैशेषिकसूत्रोपस्कार-भाष्यसंबादावेदनम्
२५५ उत्पाद व्यय-धाव्यैश्यात्मक घंटास्तित्व है . दिगम्बर २५५ प्रवचनसारवृत्तिद्वयसंवादप्रकाशनम्
२५६ 'घटी नास्ति' यहाँ घटाभाव अस्तित्व का आश्रय है
- पूर्वपक्ष 'भूतले घटो नास्ती'तिप्रतीतिविचारः द्वितीय भंग के स्वीकार में निराकांक्ष शाब्दबोधानपपत्ति २५७ मुक्तावलीकारमतप्रतिक्षेपः द्वितीय भंग में घट ही विशेष्य है, न कि घटाभाव - उत्तरपक्ष
२५८ व्युत्पत्तिवादसंवादः
२५० परमत में 'घटी नास्ति' इस प्रयोग के प्रामाण्य की आपत्ति सुप्तिहोः नवनश्यनियममीमांसा सङ्गल्यान्वयविचारविशेषः
२६१ सावच्छिन्न नास्तित्व और निरवन्छिन अस्तित्व में विरोध
विषय शुद्धाशुद्धत्वविचारः अनवच्छिन्नेऽवच्छिन्नत्वप्रतीतिसमर्थनम्
२६६ रत्नाकरावतारिकाविरोधपरिहारः प्लान्तिा र परनास्तित्व में अभेद नहीं है २६७ कुटशब्दविचारः अष्टसहस्रीकारमतनिकंदन विद्यानन्द-विमलदासमतकर्तनम् पररूपनास्तित्व काल्पनिक नहीं है . स्याद्वादी जिनेन्द्रवचने प्रामाण्यसप्तभङ्गीविषारः सप्तभंगी की प्रवृत्ति जिनवचन में नहीं हो सकती . एकान्तवादी
२७० एवकारार्थविचारः सप्तभंगी शिववचन में भी अव्याहत . अनेकान्तवादी २७१ भासर्वज्ञप्रतिभाभङ्गः विदोषणसंगत एवकार का अर्थ - पूर्वपक्ष
२७२ विदोषणसंगत एवकार का द्वितीय अर्थ . नैयायिक खण्डशः शक्तिविचारः विशेषणसंगत पत्रकार का अयोगव्यवच्छेद अर्थ नहीं है - नव्यनैयापिक
२७६ नग्यनैयायिक मतानुसार 'घटः सन् एव' वाक्य का अर्थ २५४ 'घटः सत्रेवे'तिवचनविचार:
२७५ 'द्रव्यं सदेव' इस प्रतीति की अनुपपत्ति . आक्षेप २७५ परौदासीन्येन सत्तमात्रबोधनम् प्रतियोगितानवच्छेदकल का अर्थ . नव्यनैयायिक अवच्छेदकत्वनिरुक्तिसंवादः
२७७ शास्त्रचार्तासमुच्चयसंवादः 'प्रमेयं वाच्यं एव' स्थल का निरूपण
२७. विस्तरत एनकारार्थमीमांसा
२७२, आकाङ्क्षानुसारिबोधसमर्थनम् सप्तभड्गी में आधिक्यदोषशंकानिरास वक्तव्यत्वसप्तभङ्गीद्योतनम् वक्तव्यत्वसप्तभंगी के द्वितीय-चतुर्थ भंग में अभेदनिरास २८१ सप्तभङ्गीद्वैविध्यम् सत्त्वसप्तभंगी में वक्तव्यत्व धर्म अतिरिक्त नहीं कालावष्टकविचारः अभेदवृत्तिप्राधान्य -तदुपचारमीमांसा 'सकृदुचरित'...न्यापपरीक्षा सकृदुचरित्त न्याय में दोयोद्भावन सिद्धहेमलयुन्याससंवादः द्वितीय 'सकृत' पद का अर्थ काशिकावृतिसंवादः
०
०
०
Y ०७.
२८५
नहीं है
२६२
अवच्छेदकभेदापेक्षाप्रयोजनम् |एक वाक्य में तात्पर्यभेद से प्रामाण्य अप्रामाण्य
. स्याद्वादी 'तात्पर्यभेदेन योग्यायोग्यत्वसमर्थनम् नत्रान्वय अन्योगितावच्छेदकावच्छिन्न में होता है
- अन्यमत i.दिगविभावने शङ्कराचार्यमतनिराकरणम्
AAAAAAA
२६२
२६३
२८६
२६३ २६४
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* विषयमार्गदर्शिका *
XV
विषय
२८२
नया
३१३
३१५
३१६
पृन अभेदविवक्षा से नानाधर्मावच्छिन्नबोधोपपत्ति एकदोष में पदान्तरस्मरण आवश्यक
२८७ एकशेषस्थले पदान्तरस्मरणागीकारः
२८८ ! 'सकृदचरित...' न्यायनिष्कर्षः 'सकृदुचरित.' न्याय का निष्कर्ष पुष्पदन्तपद से सूर्यचन्द्र का युगपत् बोध संमत अमरकोशवचनसंवादः लयुस्पावादरहस्यसंवादः धर्मनिष्ट एकत्व का निर्वचन शकुन्तलानाटकसंवादः
२९२ | सकृदुचरित...' न्याय अप्रामाणिक . नव्यन यायिक २९.२ 'प्रजयति' वाक्यविचारः दाक्ति-लक्षणा से पुगपद्अनेकार्थबोध मान्य - नयनैयायिक २९.३ | 'गङ्गायां घोष' इतिशाब्दबोधविमर्शः शक्यतावच्छेदक में भी पदाक्ति अबाधित . नव्यनैयायिक २९४ शक्यतावच्छेदकेऽपि शक्तिसमर्थनम्
२०५ ! "सकृदुच्चरित...' न्याय प्रामाणिक है . स्याद्वादी प्रकरणादीनां न शक्तिसहकारिता तात्पर्यग्रह का माक्तिसहकारी मानने में लाघव . स्थाद्वादी२९६ अष्टसहनीकारमतनिकन्दनम् | 'सर्व सांधवाचकाः' प्रवाद का स्याद्वाद में स्वीकार शस्तरवश्यकल्पनीयत्वम् लक्षणा का अवकाश . स्याद्रादी
२९८ स्याद्वादरत्नाकरसंवादः
२९.९ तमोवादातरम्भः प्रदीपादि भी द्रव्यार्थिक नय से नित्य प्रमाणनयतत्त्वालोकालकारसूत्रोपयोगः अन्धकार अभावरूप नहीं है . स्याद्वादी पत्रलक्षणाऽऽविष्कारः उद्धृतरूपव्याप्य उद्भुतस्पर्श की अन्धकार में आपत्ति ३०२ उद्भूतरूप उद्भूतस्पर्श का ब्याप्य नहीं है, . स्पाद्वादी ३०४ प्रभापामुद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्तिभङ्गः उद्भूत नीलरूप भी उद्भूतस्पर्श का व्याप्य नहीं - स्याद्वादी ३.५ नीलत्रसरेणी व्यभिचाराऽऽवेदनम् नील त्रसरणु में व्यभिचारापत्ति के उद्धार का प्रयत्न उद्भूतस्पर्शस्यानुभूतस्पर्शजन्यत्त्वे रिप्रतिपत्तिः त्रसरेणु में उद्भुत स्पर्श नामुमकिन - स्याद्रादी योगसिद्धान्त-तदेकदेशिमतभेदविद्योतनम्
३०८ मुक्तावली-मञ्जूषा-प्रभाकरमतनिराकरणम् महत्त्वविशेष के अभाव से त्रसरेणुस्पर्शप्रत्यक्षविरह अनुपपन्न - स्याद्वादी
विषय एकत्वे जातिविशेपकल्पने साइय॑म् स्याद्वादी मत में सांकर्य - नेपापिफ एकदशीय ३१० विनिगमनाविरहेण सरापाकरणम् नैयायिक मत में चिनिगमकाभाव दोष उत्कटनीलस्योन्कटस्पर्शव्याप्त्यापादनम् वायुचाक्षुषापत्ति का निराकरण - नापिक की ओर से ३१२ आपादितव्यामिप्रत्याख्यानम् विषयस्य तत्तद्व्यक्तित्वेनाऽकारणत्वसमर्थनम्
३१४ व्यक्तिगतरूप से विषय प्रत्यक्ष का कारण नहीं है
• स्याद्वादी त्रुटिस्पर्शाऽस्पार्शनविचारः स्पर्शेन्द्रिय की स्वसंयुक्तत्वात्रवत्समबाप से कारणता
. नैयायिकदेशीय त्वाचयत्त्वस्य विशेषणत्वोपलक्षणत्वकल्पनमयुक्तम् ३१६ त्वाप्रत्यक्ष में समवाय की विशेषणता या उपलक्षणता नामुमकिन . स्याद्वादी विशेषणोपलक्षणस्वरूपमीमांसा
३२७ त्रुटिस्पस्यानुद्भूतत्वसमर्थनम् उपलक्षणविधया त्वाप्रत्यक्ष का सम्बन्धकुक्षि में प्रवेश गौरवग्रस्त - स्याद्वादी व्यासज्पवृत्तिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहविचारः
३१० आश्रयस्पार्शनाभाव गुणादिस्पार्शन में प्रतिबन्धक
. नैयायिकदेशीयमत त्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकताविचारः उद्भुतस्पर्शाभावस्य प्रतिबन्धकता उद्भुतस्पशाभाव ही गुणादिस्पार्शन का प्रतिबन्धक __ . स्याद्वादी
३२१ त्रुटिस्पर्शस्यानुद्भूतत्वम् उद्भूतनीलरूप उद्भूतस्पर्श का व्याप्य नहीं है -स्याद्वादी ३२२ अर्थसमाजसिद्धस्य कार्यतानवच्छेदकता प्राचीनजनाचार्यमतप्रकाशनम् अन्धकार सीतस्पर्शवाला है . प्राचीन जैनाचार्य तमस्युद्भूतस्पर्शस्थापनम् । अन्धकार आलोकाभावारमक नहीं है - स्याद्वादी महादेवभ-नृसिंहशास्त्रिमतसमीक्षणम् योग्यताविशेषापेक्षाऽऽविष्कारः योग्यताविशेष चाक्षुष का कारण - स्याद्वादी अंशांशिनोः कथश्चिनेदसमर्थनम् आलोकसंयोगस्य चाक्षुपजनकत्दासम्भवविमर्शः ३२१ द्रव्यचाक्षुषमात्र का योग्यताविशेष कारण है - स्याद्वादी ३२१. ज्ञप्ती परस्पराश्रयप्रकाशनम्
२९.८
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३२२
३२३ ३२४
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३२७
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XVI मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
* विषयमार्गदर्शिका
विषय
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आलोकादीनां क्षयोपशमविशेषे उपक्षीणत्वम् योग्यताविशेष का निर्वचन आलोकसंयोगकारणतापक्ष में विनिगमनाविरह आलोकसंयोगकारणनायां विनिगमनाविरहः चक्षुःसंयोगकारणतावादिमतप्रकटीकरणाम् | धर्मगौरव की भाँति सम्बन्धगौरव भी दोष है . स्याद्वादी ३३३ सम्बन्धगीरवस्यापि दूषणत्वम् विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षसंयोगकारणता में गौरव
- आत्मनिष्ठप्रत्यासत्तिवादी षडविधकार्यकारणभावद्योतनम् आत्मनिश्प्रत्यासत्ति से आलोकसंयोग में कारणताकल्पना
३५३
३०४
३५६
३३६
३३६
Tr
विषय अभिनवरीत्याऽपसिद्धान्तनिराकरणम् तामसेन्द्रियकल्प-तातातिकदेशीयमत इन्द्रिपान्तराग्रााग्राहकत्व ही भित्रेन्द्रियत्व का व्यवस्थापक ३५१ तामसेन्द्रियसाधनम् अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न तामससंयोग कारण मीमांसाश्लोकवार्तिकसंवादः चांदनी में उल्लूचाक्षुष का स्वीकार तामसेन्द्रियकल्पना अप्रामाणिक - स्वादादी 'पश्यामी'ति विषयतानियामकविचारः तामसेन्द्रियवादिमत में दोषद्वय . स्पाद्वादी तमःस्थघटादिचाक्षुपमञ्जनादिजन्यम् मनुष्यतामसीय प्रत्यक्ष में अन्धकारहेतुता - पूर्वपक्ष अञ्जनादेः चाक्षुषसहकारित्वविचारः अंजनादिसंस्कार से रात में बटादि का चाक्षुष ही होता है . पूर्वपक्ष जारी अंजनादि में चाक्षुषकारणतावच्छेदकवादिमत का निराकरण ३५७ अपरमताऽस्वरसवीजाऽऽवेदनम् तामसेन्द्रिवपक्ष में महागौरव । उत्तरपक्ष द्विविधयोग्यताप्रतिपादनम् .. पट्टाभिराममतद्योतनम्
३६. परमत में भी स्वभाव का आश्रय अनिवार्य -स्यादादी ३६. स्वभावपक्षाश्रयणविमर्शः
३६१ ज्ञान आत्मस्वभाव है . स्यादादी
३६१ आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वसाधनम्
३६२ तामसेन्द्रिपकल्पना में अन्योन्याश्रय दोष का निराकरण तमोद्रव्यत्वपक्षेऽन्योन्याश्रयापाकरणम् आलोकज्ञानाभाव ही अन्धकार है . प्रभाकरमत ३६३ सम्बन्धद्वितयेन चाक्षुषाभावस्याऽन्धकास्त्वविचारः प्रभाकरमतनिकंदन 'आटोकज्ञानाभाववान् अहं' प्रतीति की प्रभाकरमत में अनुपपत्ति प्राभाकरमते तमसभाक्षुपन्वाऽसङ्गतिः 'तमः पश्यामि' इत्यादि प्रतीति की प्रभाकर मत में अनुपपत्ति जात्यन्धानामपि चाक्षुपन्वोपगमः प्रकामाकरूपाभाव ही अन्धकार - प्रगल्भ प्रकाशकरूपाभावतमोवादिप्रगल्भमतखण्डनम् प्रगल्भमतनिराकरण चाक्षुषे स्पर्शस्याऽकारणलाऽऽवेदनम् उद्धृतरूप-स्पर्शीभव में बहिरिन्द्रियजन्य द्रव्यप्रत्यक्ष की कारणता नामुमकिन
३६२
आलोकसंयोगकारणतापक्षे लायवप्रकाशनम् चक्षुसंयोग को आत्मनिष्ठ प्रत्यासत्ति से कारण मानने में गौरव लयुसम्बन्धसम्भवे गुरुसम्बन्धकल्पनाया अन्याय्यत्वम् ३३७ आलोकसंयोगकारणतापक्ष में विनिगमनाविरह . स्याद्वादी ३३५ अभिनवदोषद्वपाऽऽविष्करणम् अन्धकार में द्रव्यत्त्वसिद्धि उलूकादिचाक्षुषेन व्यभिचारदूपणम् आलोकसंयोगकारणतापक्ष में व्यभिचार परमत में स्वाभाविकत्व का निर्वचन दशक
३४० स्वाभाविकत्वनिर्वचनाऽसम्भवः
३४५ आलोकेतरासंस्कृतचाजन्यत्त्व स्वाभाविकत्वस्वरूप नहीं है . स्वादादा
३४१ आलोकसंयोगकारणताविधार: कार्यतावच्छे दकधर्मलाघब से अन्धकार में द्रज्यत्व की सिद्धि . स्याद्रादा विजातीयाऽऽलोककल्पना उल्लू आदि का चाक्षुष आलोकविदोषजन्य - नैयायिकदेशीमत ३४३ अतिप्रसक्तधर्मेण कारणताऽभ्युपगमः
३४५ शशधरमतसमालोचना | उल्लूचाक्षष में विजातीय आलोक की कारणता अप्रमाण - स्याद्वादी
३४६ विजातीयचक्षुमनोयोग चाक्षुपजनक - उच्छृखलमत ३४६ आहुःपदप्रयोजनप्रकाशनम्
३४७ मथुरानाथमतसमीक्षा
३४८ आलोककालीन चाक्षुष को कार्य मानने पर दोषपरम्परा ३५८ विजातीयचक्षुमनोयोगकारणताविचारः अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुष ही विजातीयसंयोग का कार्य है . स्याद्वादी
Ad
Ad
MEEmm
३६८
Page #17
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*विषयमार्गदर्शिका *
XVU
'विषय
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mm or Rm arm Mmm पर .."
३७६
पृष्ठ दीधिनिकारमतखण्डनम् दिनकरभट्ट-रामरुद्रभट्टमतसमीक्षणम् 'प्रगल्भमत में पृथ्वी आदि में सदा अन्धकारव्यवहार की आपत्ति वृन्यनियामकसम्बन्धेनाभावानङ्गीकार;
३७१ स्वाश्रयसंयोग को भेदप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्ध मानने में दोष . स्पाद्वादी सिद्धान्तलक्षणदीधिति-जागदीशीसंवादः
३७२ अन्धकार को अभावात्मक मानने में दोषपरम्परा ३७३ तमसो द्रव्यत्वसमर्थनम् अभावात्मक अन्धकार में तारतम्य की अनुपपत्ति उदयनाचार्यमतसमीक्षणम् कतिपय आलोकविशेष का अभाव तम नहीं हो सकता ३७५ अन्धतमसाऽवनमसस्वरूपमीमांसा अन्यतमसादि की निरवच्छिन्न ही प्रतीति होती है . स्याद्वादी अन्धकार में द्रव्यत्ववाधक का निराकरण अन्धकार को अभावात्मक मानने में दोष 'तमो न नष्टमिति प्रतीतेप्रमात्वापत्तिः | आलोकसंसगांभावसमूह भी अन्धकार नहीं है -स्वाद्वादी ३७९ न्यापसिद्धान्तदीपकार-शशधरमतसमालोचनम्
३८० अन्धकारावयत्र स्पर्शयुक्त ही है . स्पावादी पचिदनन्त्यावयवित्व अन्धकारसमवायिकारणतावच्छेदक नहीं हो सकता - स्याद्वादी मनन्त्यावयवित्वस्य कारणतानवच्छेदकत्वम् जातिविशेष का द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना उचित ३०१ 'नव्यमते इन्द्रियावयवेष्वनुभूतस्पशानभ्युपगमः ३८२ घटत्वादिना द्रव्यप्रतिवन्धकताधांतनम् द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जाति में सांकर्य का निराकरण
३८३ वर्धमान उपाध्याय के मत का निराकरण मुक्तावली-मयूखकारमतयोःसमालोचनम् मनोभिन्नमूतत्व द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक है
. अमुक विद्वानों का मत एकाऽपरपदसूचिताऽस्वरसविभावनम् मूर्तत्व ही त्यसमवायिकारणतावच्छेदक है, . अपरमत ३८६ द्रयारम्भकतावच्छेदक भूतत्वजाति नहीं हो सकती ३८६ तमःसाधारणभूतत्वजातिकल्पनसम्मतिः
३/७ विश्वनाथ-महादेव-नृसिंहप्रभृतिमतप्रकाशनम्
३८.८ गरुधर्म भी शक्यतावच्छेदक हो सकता है . स्याद्वादी ३८८ एकत्वदृत्ति जातिविशेष द्रव्यारम्भकताबच्छेदक -स्वतन्त्रमत ३८०.
विषप
पृष्ट । स्वतन्त्रमत में सांकर्य दोष - अपर बिद्धान जन्यैकत्वलस्वरूपविचारः
३०.१ स्वतन्त्रमत का परिष्कार द्रव्यारम्भकतावदक एकत्वत्वविदोष को अनेक मानने में गौरव सायविचारः नच्यानां स्वतन्त्रमते सम्मतिः . जन्यभावमात्रस्य ससमवायिकारणत्वाऽनियमः स्वतन्त्रमत में लापत्र 'विभाज्यं' पदविचारः अन्धकारवादसंवादः वादिदेवरिवचनातिदेशः तमसो द्रव्यत्वस्थापनम् तमसः पृथिवीत्वापनिनिरासः प्राचीन जैनाचार्य का तमोभावत्वसाधक अनुमान अन्धकार पृथ्वी नहीं है
गुरुरवा हानिक संवादः स्वर्णे पृथिवीवाजीकारः पृथ्वीत्वरूप से नीलकारणता अनावश्यक
. नैयायिक एकदेशीय स्वभावविशेषस्य नीलनियामकत्वम् ज्यवहारविशेष से अन्धकार में आलोकाभावविभिन्नत्व की सिद्धि
४०२ परमत में 'अन्धकारे नान्धकारः' प्रतीति के भ्रमत्व का प्रसंग तर्कबलेनान्धकारस्य भावरूपतासमर्थनम् तमस्त्वस्य जातिवसमर्धनम् आलोकसत्ता आलोकाभावज्ञान की विरोधी है आलोकं रिना वीक्ष्यमाणस्य तमसो द्रव्यत्वम् वर्धमान उपाध्याय का मंतव्य तेजः परमाणु से अन्धकारारम्भस्वीकार . वर्धमानमतनिरास ४०५ कन्दलीकारमतखण्डनम् शिवादित्य-शेपानन्त-पक्षधरमियमतनिरासः रागद्वेषक्षय के बिना सत्यवचन असंभवित भवानीपती मानाभावप्रदर्शनम् ईश्वरखण्डन शरीरजन्यत्वस्योपाधित्त्वविचारः कार्य प्रति कर्तृत्वेन कारणत्वनिश्चपविचारः लाघव तर्क सहकार से ईश्वरसिद्धि . नैयायिक कार्यत्व षदबिध होने से नयायिकमत में लाघवतर्क नामुमकिन
४११
३८५
६
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XVIII मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २
चिपय
कार्यत्वस्वरूपनिर्वचनम्
| वृहत्स्याद्वादरहस्यसंवादः
'यद्विशेषयोः' न्यायस्याप्रामाणिकत्वम् कुम्हारादि में ताद्रूप्य से हेतुता स्थाद्वादि वारीरलायवाऽपेक्षषा सङ्ग्राहरुलाघवस्य न्याय्यलम् | चणुकोपादानप्रत्यक्ष के आश्रवविधा भरसिद्धि | नामुमकिन
पणुकादावुपादानप्रत्यक्षस्याऽकारणता [उपादानप्रत्यक्षकारणतामीमांसा
| उपादानप्रत्यक्षकारणता में लाघव
भिरप्रत्पथ में स्वजन्वप्रपत्नविशेष्यतासम्बन्ध से कारणता
नामुमकिन
जन्मताविशेषप्रकाशनम्
उपादानप्रत्यक्ष कारणता ही असिद्ध स्याद्वादी
S
| महेश्वरप्रत्यवस्थासिद्धता
• सम्मतितर्कवृत्तिमंत्रादः
गुण में साश्रयकत्वव्याप्ति अप्रामाणिक
जीवात्मा में ही नित्वज्ञानाश्रयता मुमकिन स्याद्वादी
खण्डनखण्डखायसंवादः नित्यप्रत्यक्षेत्रीयत्वादेरभावः
जीवात्मा में नित्य प्रत्यक्ष मानने में लाघव
सामान्यलक्षणस्याऽप्रामाणिकत्वम् जीवात्मवृत्ति नित्य प्रत्यक्ष में बाधक का निराकरण नित्यप्रत्यक्षाननुष्यवसायोपपादनम्
नित्यप्रत्यक्षे लौकिकविपयितायाः सत्त्वमसत्त्वं वा ? इन्द्रियसन्निकर्षजन्यतावच्छेदकवित्रिपिता
अन्यमत
प्रत्यक्षनियामक
अस्वरसवीजविभावनम्
गुरुत्वादिअन्यतमभेद ही प्रत्यक्ष का नियामक
सतविशेषनिरूपण
मनविशेष
स्याद्वादध्वान्तमार्तण्डखण्डनम् । नित्य ज्ञानादि नामुमकिन स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञानस्य प्रवर्तकत्वम् विजातीयसंयोग का कारण कुलालादिप्रपत्न कुलादिप्रयत्न घटादि के प्रति अन्यथासिद्ध दण्डकार्यतावच्छेदकस्य खण्डघटादिल्या त्तत्वम् दण्ड भी पतविशेष का ही कारण है स्याद्वादी परद्रव्यस्य निश्वयतोऽकारणत्वम्
वस्तुतः दण्ड घट का कारण नहीं, प्रयोजक है पट में भी कथञ्चित्कपालय साक्षात रहता है द्विकपालघटे कथञ्चित्कालत्वस्वीकारः
-
विषयमार्गदर्शिका
विषय
स्पावादी
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४३ : ४३१
- स्याद्वादी ४३२ स्याद्वादी ४३१
४३२
भारभ्याम्मवादस्य स्वीकर्तव्यत्वम् 'कयमाणे कडे' सिद्धान्त से आरभ्यारम्भबाद विशेषावश्यकभाष्यसंवादः
रामरुद्रमतापाकरणम् दीधितिकारमतनिरास
वादमहार्णवे पटे खण्डवपर्यायाभ्युपगमः
कृतित्वेन कारणता का स्वीकार मुनासिव व्याप्यधर्मसत्ये व्यापकधर्मेण न हेतुता
अभावकर्तृत्वबाध से ईश्वर में जगत्कर्तृत्व नामुमकिन कार्यमात्रस्य कृतिजन्यत्वनियमानङ्गीकारः कार्यकार्यतावच्छेदक नहीं हो सकता
रामरुद्रभद्रमतनिरासः
लोकपतनाभाव से ईश्वरसिद्धि नेपादिक वृहदारण्यकवचनसमीक्षणम्
पृथ्वीलोकादि के पतनाभाव से ईश्वरसिद्धि नामुमकिन स्याद्वादी
स्वभावविशेष ही पतनाभाव में नियामक स्माद्वादी पृथिव्या भूतेरदृष्टजन्यत्वम्
अदृष्टविशेष से दी लोकादिति की उपपति योगसास्वसंवादः
ईश्वर की शरीरी मानने की आपत्ति महेशशरीरविमर्शः
परमाणु ईश्वरवारीर नहीं हो सकते अतिरिक्तेश्वरकल्पने गौरवम्
स्वाद्वादी
समदि अप्रामाणिक विधिविवेकसंवादः
ईश्वर में सर्वज्ञता असिद्ध स्याद्वादी युक्तिनिकलतेरसाधकता
ईश्वरज्ञान को गुणादिविषयक न मानने में लाघव ईशज्ञानस्य गुणादिविषयकत्वमसिद्धम् ईशाऽसिद्धी विशेषावश्यकभाष्य-तत्त्वसहसंवादः
स्पावादी
मीमांसकानामतिमदर्शनम्
न्यायसिद्धान्तम अरीटीका शक्तिवादसंवादः
सर्वसिद्धि में प्रमाण
पर्यः
सर्वज्ञसिद्धिः प्रतिबन्धकसत्त्वेऽदृष्टस्याऽकिञ्चित्करल्वम् अष्टसहस्रीविवरणसंवादः
पपदार्थप्ररूपण योगसूत्रनिराकरणम्
अतीतविषयक प्रत्यक्ष मुमकिन दिगम्बरनयेन सर्वविषयज्ञानसिद्धिः
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* विषयमार्गदर्शिका *
विषय
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४०४
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पृन ज्ञानात्मक ज्ञेयाकार का ज्ञान में स्वीकार
४.७ अनुमानसप्तकेन सर्वज्ञसाधनम् गुशुण्ठीन्यायप्रदर्शनम् गुहशुण्ठीन्यायप्रदान . लोक - ६ स्याद्वादकल्पलता-नयरहस्य-धर्मसग्रहणीवृत्त्यादिसंवादः ४६० स्याखादं प्रत्येकान्तवाद्याक्षेपाः एकान्तवादिकृताक्षेपापाकरण प्रभानन्दसूरिवचन: भनेकान्तवादे भेदाभेदादिविरोधादिनिराकरणम् सातवें लोक की व्याख्या सप्तश्लोकान्वयदिग्दर्शनम् उदयतावच्छंदक और विधेय भिन्न होते हैं एकत्र नित्यानित्यादिप्रनीतेः सार्वजनीनत्वम् एक धर्मी में नित्यत्वाइनित्यत्वोभयप्रतीति प्रामाणिक अनेकान्तवादे विरोधपरिहारप्रकार: | प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थ.. नियम में परिष्कार की आवश्यकता १६६ प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वनियमविचार: दुपपदार्थविचारः सिद्भसाधनदोष का परिहार 'असत्प्रमाणप्रसिद्धत' इत्यस्य नानाच्याख्यानिरूपणम 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' यहां समासविचार
४६५ एकत्राऽवच्छेदक देन नित्यत्वानित्यत्वसमावशः सन्चासत्त्वनिरोधपरिहारः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्वीकारः वस्तु सामान्य विदोपोभयात्मक है
'४७३ अन्योन्याभावगर्भितकारणतायां लाघवम् न्यापनयसम्मतजातेरखण्डोपाधिनाऽन्यथासिद्धता नयायिकसंमत जाति अप्रामाणिक | अभावादिसाधारणजातिस्वीकारीचित्यावेदनम् अखण्डोपाधिना जातेरन्यथासिद्धिः उपाधि कारणतावच्छेदक हो सकती है अनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकवविचारः तिर्यक्सामान्य की भाँति अर्धतासामान्य वास्तविक तिर्यगूलतासामान्यस्थापने परीक्षामुखसंवादः अनुगतत्व का निर्वचन द्रव्य-गुणपर्यायसाधारणोलतासामान्यस्वीकारः दिगम्बरसम्प्रदायानुसार अनुगतव्यवहार की उपनि अमृतचन्द्रव्याख्योपदर्शनम् जयसेनीययाख्योपदर्शनम् मतभेदेन स्वरूपास्तित्व सादृश्यास्तित्वविचार: सादृश्यास्तित्वेनानुगतन्यवहारविचारः अनेक दथ्य में सादग्यास्तित्व से ही अनुगतव्यवहार
विषय योगमते सादृश्यनिरुक्तिः नयायिकमत से सादृश्य की व्याख्या सादृश्यमीमांसायां मम्मट-टाण्डे-रुद्रट-भाजप्रभृतिमतप्रकाशनम् प्राचीनमत में दूषणोद्भावन मुक्तावली -मञ्जूषा-दिनकरीयवृत्यादिसंबादः इवादिशब्द की खंडशः शक्ति - नंयायिक 'पटो न घटसदृशः' इतिधिय इएत्वम् घटभेदविशिष्टघटधर्मलक्षणसादृश्यसमर्थनम् घटे घटसादृश्यप्रसङ्गनिराकरणम् पट में घरभेद की झांका का परिहार तद्धिमत्वमात्रस्य सादृश्यत्वापाकरणम् सादृश्य में विशेष्य अंश आवश्यक पशुत्लादेः परम्परयाऽखण्डत्वोपपादनम् पशुत्व भी परम्परा से अखण्डधर्मरवरूप है. जैनमते सादृश्यनिर्वचनम्
४० उपमानपतधर्मकधर्मवत्त्व ही सादृश्य स्वस्मिन् स्वसादृश्याङ्गीकारः एय में स्वसाट्य सम्मत - स्याद्वादी
४०.५ 'अस्या इवारया' इतिवाक्यसमर्थनम् वधय॑ज्ञान के बिना भी सादृट्पभान मुमकिन -स्याद्वादी ४०.६ भेद इय आदि शब्द का अर्थ नहीं है . स्याद्वादी सादृश्यस्य न भेदगर्भितत्वम्
४५७ सादृदयबुद्धि और अनुगतबुद्धि के लक्षण्य की उपपत्ति सांदृष्ट्य अतिरिक्त पदार्थ है . नव्यनेपाविक सादृश्यव्यञ्जकल्पनागौग्वस्य फलमुखत्वम् 'पटो द्रव्यत्वेन घटसदृशो न गुणत्वेने निवाक्यविचार: सादयविषयकनव्यनवापिकमतनिरास सामान्ये नित्यत्वाऽनेकसमवेत्तत्वाऽसम्भवः जाति में नित्पत्वादि असिद्ध जातेर्यानव्यक्तिवृत्तित्वोपपादनापाकरणे जाति में अनेकसमवेतत्व की उपपत्ति का निराकरण ५.२ वर्धमान उपाध्याय के मत का निरास विशेषपदार्थाऽनुपपत्तिः नैयायिकसंमत विदोषपदार्थ अप्रामाणिक अवान्तरजातीयरूपादिव्यावृत्तिविचारः । विशेषपदार्थ परमाणु में है या उन के गुण में ? नृसिंह-महादेववचननिराकरणम् विशेष स्वत:व्यावृत्त है या उसका आश्रय ? विशेषपदार्थविचारे मञ्जपाकारादिमतप्रकाशनम् विशेषसाधक अनुमान उपाधिग्रस्त - स्याद्वादी
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४८८
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xx मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः :
* विषयमार्गदर्शिका *
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विषय
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विषय | रामरुद्रभट्ट-नृसिंहमतसमालोचना | आकाशादि में विदोष की सिद्धि नामुमकिन - स्याद्वादी ५११ दिनकरीयतरङ्गिणीमतरखण्डनम् द्रव्य ही व्यावृत्तिस्वभाववाला है . स्वाद्वादी । अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व में अविरोध . स्पाद्वादी ५१३ अनभिलाष्य अर्थ भी कधंचित् अभिलाप्य है - स्याद्वादी ५१३ । बृहन्कल्पभाष्यवृत्त्यादिसंवादः अभिलाप्यत्वपदार्थपरीक्षा 'सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः सति तात्पर्ये' इत्यत्र मीमांसा ५१६ | अनभिलाष्यत्वे विकल्पञ्चकासहत्वाशका अभिलाप्यानामपि थुनानिबद्धत्वावेदनम् अभिलाप्यत्वनिर्वचनम् शब्द और अर्थ में कथंचित् भेदाभेद - स्याद्वादी सकेतानुसारेण शब्दार्थतादात्म्यपरिणामः अभिलाप्यत्वे मीमांसा कथंचित् अर्थपरिणत शब्द संकेतज्ञानसहकार से बोषजनक है . स्याद्वादी कंवली श्रुतविषयभूत अर्थ के ही प्रतिपादक है प्रातिस्विकरूपमीमांसा केवलिनि वाग्पोगरूपं श्रुनज्ञानम् कवली में क्षायिक श्रुतज्ञान नामुमकिन
५२३ कवलिनी शेपज्ञानचतुष्कसद्भावमीमांसा
५२५ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककारमतालोचनम् | बिससापरिणाम से केवलिदेशना . दिगंबरमत केवलिना शब्दाऽप्रयोक्तृत्वमाशाम्बरमते दिगम्बरमतनिसकरणम् वीतरागेऽप्पनुजिघृक्षासद्भावोपपादनम्
५२८ शुद्धेच्छाया रागत्वाऽयोगोपपादनम् तत्वार्धशोकवार्तिकवचनखण्डनम् | एक धर्मी में अनेकवर्णसमावेश प्रामाणिक विरुद्धवर्णानामेकत्र सवसमर्धनम्
अवयवगत विविधवर्ण का अवयत्री में भान अप्रामाणिक . स्याद्वादी उपाधिभेदानित्यवानित्यत्वादीनामेकत्र समावेशः स्वादादानुसार चित्रवत्र्यवहार मुमकिन न्यापखण्डखाद्यविरोधपरिहारः
५३३ सातवें श्लोक की अन्य व्याख्या
५३३ परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वं न विरुद्धत्वम्
१३४ स्वरूपासिद्धिनिराकरणम्
५३५ नित्यानित्यत्व जातिविशेषस्वरूप है . स्याद्वादी सांकर्य जातिबाधक नहीं है - स्याद्वादी
५३६ नरत्वसमाविष्टसिंहत्वं = नरसिंहत्वम्
५३७ साइय॑स्य जात्यबाधकलनिरूपणम्
५३८ नरत्याभाउसमानाधिकरण सिंहत्वत विरोधितानबच्छेदक । उत्पादादिसिद्धिसंवादेन सामान्यविशेषाऽविरोधप्रदर्शनम् सामान्य और विशेष परस्पराऽविरुद्र एवं वस्तुदेश है
- स्पाद्वादी सामान्य-विशेषयोः समुद्रोदाहरणेन वस्त्वंशवसमर्थनम् ५४. तत्त्वसङ्ग्रहकारमतसमालोचना सन्तानित्वेन जात्यन्तरत्वख्यापनम् चित्र पट में नीट पीतादिवर्ण परपरानुविद्वस्वभाववाल होते हैं ५४२ अतिरिक्तचित्ररूपानङ्गीकारः
५४३ चित्र रूप सर्वथा अतिरिक्त नहीं है चित्रपदप्रवृत्तिनिमित्तनिरूपणम् रूपविशिएरूपत्व चित्रपप्रवृत्तिनिमित्त है - स्याद्वादी ५४४ विवरणेऽपीनरुक्त्यम्
५४५ आठवीं कारिका की व्याख्या वीतरागस्तोत्रावचूण्ादिसंबादः
५४६ ज्ञानाद्वैतसिद्धि
५४६ ज्ञानाईतप्रतिपादने प्रमाणवार्तिकादिसंवादः
५४७ योगाचार का स्यादाद में प्रवेश स्याद्वादस्याऽनिराकार्यता
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ॐ नमः सिन्दम् । महामहोपाध्याययशोविजयगणिवरविरचितम् ।। मुनियशोविजयकृतजयलताटीका-रमणीयाभिधानन्याख्याभ्यां विभूषितम्
स्याद्वादरहस्यम्
(मध्यम)
(द्वितीयः खण्डः) अधैकान्तवादोपकल्पेितकर्कशतरतर्कतिमिनिकरनिराकरणेन प्रकटीभूतप्रतापं भास्वतमनेकान्तवादमभिनन्दन्ति → 'राता tra'ति ।
यदा तु नित्थाऽनित्यत्वरूपता वस्तुनो भवेत् ।
यथाऽऽरथ भगतत्रैव तदा दोषोऽस्ति कश्वन ॥ का परेऽपि "पृथिव्यादीन्यपि नित्यानि परमाणुरूपाणि, स्थूलानि पुनरनित्यानि" इति ।
-. :=- |* जयलता * =..---
रास्टा दलित समाना हि गौशालके च गौतमे ।
तं प्राधा महावीरं तिरो वितळते ॥ पञ्चमकारिकोपायातमाह --> अथेति । एकान्तवादपिकल्पितेति । एकान्तवादिभिर्विरचितो योऽतितिक्ष्णतर्कलक्षणतमोव्यूहः तदपाकरणेनेत्यर्थः । तदपाकरणपूर्वकमिति यावत् । यदा तु नित्यानित्यत्वरूपता वस्तुनो भवेदिति । यदा हि नित्यत्वसंभिन्ना:नित्यत्वात्मकता वस्तुत्वावच्छिन्ने भवेदित्यर्थः । एतेन 'सर्वधाक्षणिकवादेऽर्थक्रियाकारित्वाद्यसंभवेन पारिशेषाद् वस्तुस्वरूपमेकान्तनित्यत्वे पर्यवस्यती' ति नित्यकान्तबादिवचनं तथा कूटस्थनित्यत्वबादेऽर्थक्रियाकारित्वाद्यसंभवेन पारिशेषन्यायेन वस्तुस्वरूपं ।। | क्षणिकत्वे पर्यवस्यती ति बौद्धवचनं च प्रत्युक्तम्. नित्यानित्यत्वस्वरूपस्याऽपि वस्तुनि जागरितत्वात् ।
शकते नन्विति । परेऽपि = नैयायिकादयो-पि, पृथिव्यादीन्यपि वाग्वन्तानि द्रव्याणि नित्यानि = ध्वंसाऽप्रतियोगीनि | परमाणुरूपाणि, स्थूलानि पृधिन्यादीनि द्यणुकादिरूपाणि, पुनरिति विशेषद्योतनाय, अनित्यानि = ध्वंसप्रतियोगीनि,
.....
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_* रमणीया - इस तरह आय चार श्लोक द्वारा एकांतवाद से कल्पिन अन्यंत कर्कश तकस्वरूप अंधकार के समूह का निरसन करने | से जिसका प्रताप-तेज प्रकट हुआ है ऐसे अनेकान्तवादस्वरूप सूर्य का मूलकार पंचम कारिका में अभिनन्दन करते हैं। कारिका का अर्थ निम्नोक्त है ।
8 पाँचकी कारिका का सामान्य प्रय जिस तरह भगवान जिनेश्वर ने वस्तु के नित्याऽनित्यस्वरूप का निवेदन किया है वेसा माना जाय तब किसी दोप | को अवकाश नहीं है ।।
* प्रदर्शनी और जिनेन्द्र से प्रदर्शित वस्तु का नित्यानित्य स्वरूप. अलग-अलग है ___ ननु प. इति । यहाँ यह शंका हो कि -→ "नयायिक आदि परदर्शनी भी पृथ्वी, जल, तेज आदि को नित्य और ! अनित्य मानते ही हैं, क्योंकि उनका यह सिद्धांत है कि परमाणुस्वरूप पृथ्वी, जल आदि नित्य हैं और वयणुक व्यणुक
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२१९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः .का.५ * अप्पयदीक्षितमतप्रतिक्षेपः
संगिरन्त इति को विवादः ? इत्यत आहः - सथात्धति । भगवान् (9) स्यानित्य, || (२) स्यादनित्यं, (३) स्यान् नित्याऽनित्यं, (8) स्यादवक्तव्यं, (५) स्थानित्यमवक्तव्यं, (६) स्यादनित्यमवक्तव्यं, (७) स्यानित्यं चाऽनित्यञ्चाऽवक्तव्योति प्रकाशयति, न तथा परे स्वप्नेऽपि संविद्रत इति भावः । इदमितानी निरूप्यते - सर्वत्र हि वस्तुनि स्यानित्यत्वादयः सप्त धर्माः प्रत्यक्षं प्रतीयन्ते।
=* ायलता * संगिरन्ते इति को विवादः ? पृधिन्यादीनि द्रव्याणि परैः नित्या नित्यरूपाणि स्वीक्रियन्त एवेति विवादोऽनुत्थानहत एवेत्ति नन्चाशयः । अतः हताः आहुः श्रीमचन्द्रसूरीन्द्रा इति शेषः । स्यानित्यमिति । भजनया व्यसा प्रतियोगीत्यर्थः । स्याद-: नित्यमिति । कञ्चिद् ध्वंसप्रतियोगीत्यर्थः । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । भावना चैतेषां भङ्गानां स्वयमेवानुपदं प्रकरणकृद् वक्ष्यतीति मोत्कण्ठीभव । उपलक्षणात 'स्यात सत्, स्यादसत, स्यात्सदसत. स्यादवक्तव्यं, स्यात्सदवक्तव्यं, स्यादसदवक्तव्यं, स्यात्सदसदवक्तव्यम्; स्यादेकं, स्यादनेकं, स्यादेकानेकं, स्यादवक्तव्यं, स्यादेकमवक्तव्यं, स्यादनकमबक्तव्यं, स्यादेकानेका वक्तव्यमि'' त्यादेहणं ।। स्वयमेव कर्तव्यम् । नेति । व्यवहितसंबन्धः । तथेति । एकस्मिन्नेव वस्तुनि यधा भगवता शबलितनित्यत्वानित्यत्व-सत्त्वासत्त्वकत्वानकत्व-वाच्यत्वाचा यत्वादिस्वरूपम्पदर्शितं तेन प्रकारेण परे = प्रवचनबाह्याः, स्वप्नेऽपि किमत जागरावस्थायां ? नव ! संविद्रते = अनुभवन्ति । परे हि परमाणुरूपेषु पृथिव्यादिषु केवलं नित्यत्वमेवाऽमनन्ति, व्यणुकादिलक्षणेषु च परं ध्वंस - । प्रतियोगित्यमब, न तु कर्बुरितनित्यत्वानित्यत्वादिस्वरूपं कदापि । अतो न तत्र दोषाऽनवकाशः किन्तु भगवदाकलिते शबलेकवस्तुस्वरूपे एवेति न साम्यम् । एवञ्च विप्रतिपत्तिनिराबाधेति न सिद्भसाधनदोषावकाश इति तात्पर्य पर्यालोचनीयम् । :
लिङ्गाद्यर्थव्यतिरिक्तार्थप्रतिपादकं घटादिपदसमभिन्याहृतं स्यात्पदमनेकान्तं द्योतयति = औपसन्दानिक्या शक्त्या बोधयति ।। एतेन 'अरनीति वर्तमानत्वं चोध्यते, स्यादिति कालत्रयाऽनवमर्शिविधेयत्वम् । तयोः परस्परविरुद्धयोः कथमेकस्मिन्नर्थ पर्यवसानं - युगपाध्यल्यम्'' (क.न.प. पू.५६१ - च.सू. २/२/३३) इनि स्यादस्तीत्यस्याग्रामाणिकत्वमाविष्कुर्वन् कल्पतरुपरिमलकार: अप्पयदीक्षितः प्रतिक्षिप्तः, रयात्पदोत्तरघटादिपदग्नतिपाद्यानेकान्तात्मकयटायर्थे विशिष्य शक्तिस्वीकारात । औपसन्दानिकी शकिरेवात्र द्योतनमिति भावः । धर्मिवाचकपदसमभिव्याहृतं स्यात्पदमनेकान्तात्मकत्वद्योतकं धर्मवाचकादरामभिव्याहृतं तु तनत्स्व - परद्रव्यक्षेत्र-कालाद्यवच्छेदकविस्फोरकमित्यादिकं स्वसमयनील्यनुसारेण विभावनीयं सुधीभिः ।।
प्रसङ्गासङ्गत्या सप्तभङ्गीघटकीभूतधर्मान निरूपयति- इदमिति । प्रत्यक्ष प्रतीयन्त इति । उपदेशसहकारेण साक्षात्
आदि स्कूल कार्यात्मक पृथ्वी, जल आदि तत्त्व अनित्य हैं । जैसे जिनेन्द्र भगवंत वस्तु को नित्यानित्य मानते हैं, ठीक वैसे ही उक्त रीति से नैयायिकादि भी पृथ्वी आदि तत्व को निन्य और अनित्य मानते ही हैं। इस परिस्थिति में विवाद = विप्रतिपत्ति कैसे संभव है ! विवाद तब प्रसक्त हो सकता है, जब वादी-प्रतिवादी का मंतव्य परस्पर विपरीत हो । यहाँ नो चादी-जैन पर्ष प्रतिवादी-नैयायिकादि दोनों ही पृथ्वी आदि को नित्यानित्य मानते हैं । अतः विप्रतिपत्ति का उत्धान ही नामुमकिन है" <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अक्षपाद आदि न जैसे नित्यत्वानित्यत्व का पृथ्वी आदि में प्रतिपादन किया है वैसे बीतगग भगवंत ने नहीं किया है। भगवान ने नो यह प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक पदार्थ (१) कथंचित् नित्य है, (२) कथंचित् अनित्य है, (३) कथंचित् नित्यानित्य है, (४) कथंचित् अवक्तव्य है, (५) कथंचित् नित्य और अवक्तव्य है, (६) कथंचित् अनित्य एवं अबक्रव्य है, (७) कथंचित् नित्य, अनित्य एवं अवक्तव्य है । अक्षपाद - कणाद आदि परदर्शनस्थापक मनीपिओं को तो 'प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक धर्म की अपेक्षा सान स्वरूप में विभक्त होता है' . ऐसा ज्ञान स्वप्न में भी नहीं होता है । वे तो परमाणुस्वरूप पृथ्वी, जल आदि को केवल नित्य ही मानते हैं । उनके अभिप्रायानुसार परमाणु में किसी भी अपेक्षा से अनित्यत्व का अवकाश नहीं है। उनके मतानुसार व्यणुक-घट आदि में केवल अनित्यत्व ही होने से कांचिदपि नित्यत्व नामुमकिन है । अतः वीतरागप्रतिपादित वस्तुस्वरूप और परतीथिकप्रकाशित पदार्धस्वरूप में आकाश-पाताल का अंतर है । कहाँ राजा भोज, कहाँ गांगू तेली ? !
ॐ प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक धर्ग की अपेक्षा सप्तधमत्मिक है - स्यादादी *
इन्दमिदा. इति । अब व्याख्याकार श्रीमद्जी भगवान ने जिस तरह वस्तु का प्रकाशन किया है, उस तरह प्रत्येक वस्तु || में सप्त धर्म का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि सब वस्तु में कथंचित् नित्यत्व आदि सात धर्म प्रत्यक्ष ही जाने जाते
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* नित्यत्त्वानित्यत्वपोरेका समावेशः * | तथाहि (9) घटो द्रव्यत्वेन नित्यः (२) पर्यायत्वेन चाऽनित्यः इति संवेद्यते । न च ध्वंसप्रति- |
योगितानवच्छेदकद्रव्यत्ववत्त्व-तदवच्छेदकपर्यायत्ववत्त्वरूये नित्याऽनित्यत्वे कथं द्रव्यत्वपर्यायत्वावच्छेद्ये ? स्वस्य स्वाऽनवच्छेदकत्वादिति वाच्यम्, अत्र ध्वंसप्रतियोगित्व-तदभाव
===: --* शयतता *F-....--- प्रतीतिविषयीभवन्तीति । तदेव दृढीकरणार्थमाह- तथाहीति । द्रव्यत्वेन नित्यः = द्रव्यत्वावच्छिन्नध्वंसीयप्रतियोगित्वाभाववान्, द्रव्यत्वञ्चोपलक्षणं पुद्गलत्वादीनाम् । घटः स्यान्नित्य इति प्रथमभङ्गधर्म दर्शयित्वा 'घटःस्यादनित्य' इति द्वितीयभंगधर्मं दर्शयति - पर्यायत्वेन चाऽनित्य इति । घटत्वादिलक्षणपर्यायवावच्छिन्नध्वंसप्रतियोगितावान घट इत्यर्थः । द्रव्यत्वादिना तदनाश इव घटत्वादिना तन्नाशाऽपि साक्षात् प्रतीयत एव ।
न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनान्वयः । नित्यानित्यत्वे इति । 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं प्रत्येकमभिसम्बध्यत' इतिन्यायात् नित्यत्वम नित्यत्ववेत्यर्थः । कथमिति । अयं भावः ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकीभूतद्रव्यत्वधर्मवत्त्वरूपस्य नित्यत्वस्य द्रव्यत्वावच्छिन्नत्यं ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकीभूतपर्यायवलक्षणघटत्वादिधर्मवत्त्वरूपस्यानित्यत्वस्य च पर्यायत्वावच्छिन्नत्वं न संभवति अवच्छेदकावच्छेद्यभावस्य भद्रव्याप्यत्वात, अभिन्नयोरवच्छंद्यावच्छेदकभावस्य स्वप्ने प्यप्रतीतेः । न हि वृक्ष कपिसंयोगः कपिसंयोगावच्छिन्नो भवति किन्तु कपिसंयोगातिरिक्तशाखाऽवच्छिन्नो भवति । प्रकृते तु द्रन्यत्त्वस्य स्वावद्यध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्वबत्त्वा नतिरिक्तत्वात् पर्यायत्वस्य च स्वावच्छेद्यध्वंसप्रतियोगिताबछेदकपर्यायत्ववत्त्वाभिन्नत्वात् नावच्छेदकता संभवति, अन्यथा कपिसंयोगस्याऽपि स्वावच्छेदकत्वं प्रसज्येतति 'घटो द्रव्यत्वेन नित्यः पर्यायवन धानित्य' इति प्रतीतिर्न प्रामाणिकीति शङ्काकृदाशयः ।
स्याद्वादी तन्निराकरणाय हेतुमाह - अत्रेति । सप्तभङ्गच्यामिति । ध्वंसप्रतियोगित्व-तदभावरूपयोरेवेति । अभेदान्वयश्वाऽस्य | नित्यानित्यत्वयोरित्यत्र व्युत्क्रमेण बोध्यः । एवकारेण ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकावच्छेदकवत्त्वरूपयोरित्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । हैं। देखिये, घट को देख कर 'यह द्रव्यत्व की अपेक्षा नित्य है और पर्यायत्व की अपेक्षा अनित्य है ऐसा बोध होता है। यह तो स्पष्ट ही है कि घट का विनाश घटत्त्व आदि स्वरूप पर्यायत्त्वावच्छेदेन ही होता है, न कि द्रव्यत्वावच्छेदेन । इस विषय का निरूपण तो हम प्रथम लोक की न्याख्या में कर चुके हैं। इसलिए वापस यहाँ उसका निरूपण करना पाठक का अमूल्य समय बरबाद करना समझते हैं । अतः उसका विवेचन यहाँ नहीं किया जाता है । * PL :- द्रव्यरत-पर्यायत्व HA: नित्याव और अनित्यत्व का अपरछेद नहीं हो all *
शंका :- न च इति । आपने जो अभी बताया कि -> 'द्रव्यत्वावच्छेदेन नित्यल्य और पर्यायत्वादच्छेदन अनित्यत्व घट में रहता है, जो प्रत्यक्षतः प्रतीयमान है' <- वह ठीक नहीं है, क्योंकि वह प्रतीति केवल प्रतीति ही है, प्रमीति नहीं। मतलब कि वह प्रतीति भांत है। इसका कारण यह है कि नित्यत्व का अर्थ है श्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्व तथा अनित्यत्व का अर्थ है सप्रतियोगितावच्छेदकधर्मवत्त्व । ध्वंसप्रतियोगिता का अनवच्छेदक द्रव्यत्व ही है एवं ध्वंस की प्रतियोगिता का अवच्छेदक धर्म पर्यायत्व ही है। अतः आप द्रव्यत्वावच्छेदेन नित्यत्व का प्रतिपादन करते हैं, इसका अर्थ यह प्राप्त होता है कि द्रव्यत्वावच्छेदेन ध्वंसप्रतियोगितानवअदकद्रव्यत्यवत्त्व है। अर्थात् द्रव्यत्व ही ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्व का अवच्छेदक है और ध्वंसप्रतियोगितानवच्छंदक द्रव्यत्व ही द्रव्यत्व से अवच्छेद्य है। इसी तरह घट में पर्यायत्वावच्छेदेन अनित्यत्व है - इसका अर्थ यह होता है कि पर्यायवावछेदेन ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकपर्यायत्ववत्ता है। अर्थात् पर्यायव ही ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकीभूत पर्यायत्व का अवच्छेदक है और ध्वसनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक पर्यायत्व ही पर्यायत्व से अवच्छेद्य है। मगर यह कथमपि संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अपने को ही अपना अबच्छेदक मानने की आपत्ति आयेगी। मगर अपने में अपनी अवच्छेदकता नहीं रहती है। अवच्छेद्य-अवच्छेदकभाव भेदनियत होता है । अवजडेदक से अवच्छेय भिन्न होने पर ही वह उसका अवच्छेदक हो सकता है, क्योंकि अवच्छंदक का अर्थ है नियामक और अवच्छेद्य का अर्थ है नियम्य । नियामक से नियम्य अलग ही होता है-यह व्यवहार में भी देखा जाता है । विद्यार्थी शिक्षक से नियम्य होता है। न्याय की परिभाषा में विचार किया जाय तो हम ऐसा कह सकते है कि 'वृक्षे शाखावच्छेदेन कपिसंयोगः' यह प्रतीति होती है, जिसमें शाखा अवच्छेदक और कपिसंयोग अवच्छेद्य है। कपिसंयोग का अवच्छेदक कपिसंयोग नहीं होता है और शाखा से अवच्छेद्य शाखा नहीं होती है। दोनों ही अलग-अलग होते हैं । प्रस्तुत में तादृशद्रच्यत्वस्वरूप नित्यत्व और द्रव्यत्व एक ही है एवं तादृशपर्यायत्वात्मक अनित्यत्व और पर्यायत्व भी परस्पर अभिन्न है । अतः उन दोनों में अवचंद्रदक- अवच्छेद्यभाव नहीं बन पाता । फिर भी उनमें अवच्छेद्य-अवच्छेदकभाव का अवगाहन वह प्रतीति करती है । अतः वह अप्रामाणिक है।
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२२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * स्वस्य स्वावञ्छेदकतविचारः * || रूपयोरेव नित्यानित्ययकारकत्र समादेशाय ज्याद-पचित्वाऽवच्छेद्यत्वाभ्युपगमात् । अस्तु वा विशिष्टस्य स्वस्यापि स्वावच्छेद्यत्वं कथमन्यथा अनन्यथासिन्दनियतपूर्ववर्तिता==
यलता ]:: == एकत्र धर्मिणि समावेशाय = विरोधपरिहारपूर्वकनिवेशकृते, द्रव्यत्व-पर्यायल्यावच्छेद्यत्वाभ्युपगमात् = द्रव्यत्व-पर्यायत्वनिष्ठाबच्छेदकतानिरूपिताबछेद्यतोपगमात् । अयं भावः नित्यलं यदि ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्ववत्त्वरूपभ्युपगम्येत तदा तु भवदुक्तनीत्या व्यत्वावच्छिन्नं तन्न स्यात् परन्तु न तथोपेयते इत्यागदकाभावः । मया तु ध्वंसाप्रतियोगित्वरूपमेव नित्यत्वमुपेयते । तच्च न भवन्मतेऽपि द्रव्यत्वस्वरूपम् । अत: ध्वंसा प्रतियोगित्वरूपस्य नित्यत्वस्य द्रव्यत्वावच्छेद्यत्वे न किमपि दूषणम् एबमनित्यत्वमपि ध्वंसप्रतियोगिवरूपं घटत्वादिलक्षणपर्यायत्वब्यतिरिक्तमेवेति न तस्य पर्यायवावछिन्नत्वे किमपि बाधकम् । ययपि द्रव्यत्वावच्छिन्न-ध्वंसीयप्रतियोगिताया अप्रसिद्धत्वेन ताशप्रतियोगिताकाइभावस्याऽप्यप्रसिद्धरसंभवः तथापि 'इदं द्रव्यमि'त्यादिज्ञानीयविषयतायां द्रव्यत्वावच्छिन्नत्वस्य प्रसिद्धत्वेन ध्वंसनिरूपितप्रतियोगितायां तदभावप्रतिपादने तात्पर्यमिति न कोऽपि | दोषः । अतो द्रव्यत्व-पर्यायत्वयोः तदवच्छेदकत्वं युक्तमेवेति स्याद्वाद्यादायः ।
ननु नित्यत्यानित्यत्वे ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदक-तदवोदकधर्मवन्यरूपे एव न तु ध्वंसा प्रतियोगित्व-तत्प्रतियोगित्वस्वरूपे, क्लृप्तं विहायाऽतिरिक्तप्रतियोगित्वादिरूपतत्कल्पने गौरवादित्याशङ्कायामाह- अस्तु वेति । इञ्चाभ्युपगमवादेन बोध्यम् । विशिष्टस्य = ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकत्वप्रभृतिविशिष्टस्य, स्वस्याऽपि = द्रव्यत्वादेरपि, स्वावच्छेद्यत्वं = शुद्भद्रव्यत्वाद्यवच्छेद्यत्वम्, शुद्धधर्मस्य विशिष्टस्वावच्छेदकत्वादिति शेषः । अयं भावः ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकत्वविशिष्टद्रव्यत्ववत्त्वस्वरूपं नित्यत्वं द्रव्यत्वेनाऽवच्छिद्यते ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकत्वविशिष्टपर्यायत्वबत्त्वरूपमनित्यत्वं च पर्यायत्वेनावच्छिद्यत इति घटादिः द्रव्यत्वेन नित्यः पर्यायवेन चाननित्य इति प्रतीताप्रामाणिकत्वम् । विपने बाधमाह - कथमन्यथेति । स्वस्य विशिष्टस्वानवच्छेदकत्वोपगमे
साप्रतियोगितात्मक जित्यत्त का रखेदक द्रव्यत्व - समाधान 7 समाधान :- अत्र वं. इति । उस्ताद ! हम क्या कहते हैं यह तो पहले सुनी । हम नित्यत्व को ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्ववत्वस्वरूप नहीं मानते हैं, किन्तु वंसाऽप्रतियोगितात्मक मानते हैं। तथा अनित्यत्व भी ध्वंसप्रतियोगितास्वरूप है, न कि ध्वंसप्रनियोगिताचच्छेदकपर्यायत्ववत्तास्वरूप - ऐसा हम मानते हैं । द्रव्यत्व तो ध्वंसा प्रतियोगितास्वरूप यानी ध्वंसनिरूपितप्रतियोमित्वाभावात्मक नहीं है, क्योंकि द्रव्यत्व भावात्मक धर्म है, जब कि तादृशनित्यत्व अभावात्मक है । इसी तरह वंसप्रतियोगितास्वरूप अनित्यत्व भी पर्यायत्व से भित्र है। अतः द्रव्यत्व तादृश नित्यत्व का एवं पर्यायत्व तादृश अनित्यत्व का अवच्छेदक हो सकता है। अतः कोई आपत्ति नहीं है। यद्यपि द्रव्यत्वावच्छिन्न ध्वंसनिरूपित प्रतियोगिता अप्रसिद्ध होने से तादृश प्रतियोगिता के अभाव को नित्यत्व स्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि अप्रसिद्धप्रतियोगिक अभाव अस्वीकार्य है। अतः तादृश नित्यत्व को मान्यता नहीं दी जा सकती तथापि जिस ध्वंसनिरूपित प्रतियोगिता में द्रव्यत्वावन्नित्व का अभाव है तादृश प्रतियोगिता को ही नित्यत्वस्वरूप मानी जा सकती है। आशय यह है कि 'इदं द्रव्य' इत्याकारक ज्ञान से निरूपित विपयत्ता में द्रव्यत्वावच्छिन्नत्व है और उसका अभाव है ध्वसनिरूपित प्रतियोगिता में । द्रव्यत्वावच्छिनत विपयता में प्रसिद्ध होने से उसका अभाव, जो कि वसीयप्रतियोगिता में है, अप्रसिद्धप्रतियोगिक नहीं कहा जा सकता । अतः द्रश्याचारजिन्नत्वाभावविशिष्ट ध्वंसनिरूपित प्रतियोगिता को ही नित्यत्वस्वरूप मानी जा सकती है। अत: द्रव्यत्व नित्यत्व का एवं पर्यायव अनित्यत्व का अवच्छेदक हो सकता है। इस तरह एक धर्मी में ही नित्यत्व और अनित्यत्व का समावेश करने के लिए द्रव्यत्व और पर्यायत्व को उन दोनों का क्रमशः अवच्छेदक माना गया है। विरुद्ध धर्म का एक धर्मी में समावेश करने के लिए अवच्छेदक भेद का अनुसरण आवश्यक है - ऐसा जो नैयायिकादि का सिद्धांत है, उसके अनुसार यहाँ नित्यत्व और अनित्यत्व में क्रमशः द्रव्यत्व और पर्यायत्व से अवच्छंद्यत्व बताया गया है।
शुद्ध धर्म से अवलेहा विशिष्ट स्त् हो सकता है - स्यादादी. अस्त वा. इति । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वसीयप्रतियोगितानवच्छेदकद्रव्यत्वात्मक नित्यत्व का अवच्छेदक | दन्यत्व ही है और श्वसनिरूपितप्रतियोगितावच्छेदकपर्यायत्वस्वरूप अनित्य का अवच्छेदक पर्यायत्व ही है, क्योंकि विशिष्ट स्व (धर्म) का अवच्छेदक शुद्ध धर्म हो सकता है । आशय यह है कि नित्यत्व को उपर्युक्त विशिष्ट द्रव्यचात्मक मानने पर भी शुद्ध द्रव्यत्व उसका अपच्छेदक हो-इसमें कोई बाध नहीं है, क्योंकि विशिष्ट धर्म शुद्ध धर्म से अवच्छेद्य हो सकता है। यह
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* अर्थ क्रमाभ्यारोपप्रदर्शनम् वच्छेदकदंडत्वादिरूपा कारणता दंडत्वाद्यवच्छिन्ना स्यात् ?
(३) क्रमिकविधिनिषेधाऽर्पणासहकारेण स्यान्नित्याऽनित्योऽपि प्रतीयते । न व समुदिताभ्यां नित्यत्वाऽनित्यत्वाभ्यामेवैतन्निर्वाहात् धर्मान्तरकल्पनं किमर्थकं ? इति वाच्यम्, समुदितयोः
* जयलता है
कथं अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववर्त्तितावच्छेदकदण्डत्वादिरूपा
एकादशकारिकावृत्तिवक्ष्यमाणस्वरूपे अनन्यथासिद्धत्वे सति घटादिकार्योत्पादाऽव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन कार्याधिकरण निरूपितवृत्तित्वावच्छेदकीभूतदंडल्वादिलक्षणा कारणता = घटादिनिरू. गितकारणता, दण्डत्त्वाद्यरच्छिन्ना = स्वात्मकदंडत्याद्यवच्छिन्ना स्यात् ? नैव स्यादित्यर्थः । अयं भावः 'दण्डो दण्डवेन | घटकारणं न तु द्रव्यत्वादिना' इत्यादिस्वारसिकानुभवचलेन यथा दण्डत्वे प्रोक्तविशिष्टदण्डत्वात्मककारणत्वावच्छेदकत्वं तादृशकारण| तायां च स्वात्मकदण्डत्वावच्छेयत्वं तथैव 'घटो इल्यत्वेन नित्यः पर्यायत्वेन चाऽनित्य' इति स्वरसवाह्यनुभवबलेन द्रव्यत्वपर्यायत्वयोः प्रोक्तविशिष्टद्रव्यत्वपर्यायत्वस्वरूपनित्यत्वानित्यत्वावच्छेदकत्वमपि निराबाधं, अन्यथाऽधवैशसापत्तेः ।
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वस्तुतस्तु 'विशिष्टं शुद्धान्नातिरिच्यत इति नियमे मानाभावः । प्रागुक्तदिशा विशिष्टस्य शुद्धातिरेकात् तादृशविशिष्टद्रव्यत्यादिस्वरूपनित्यत्वापगमे गौरवादिति निन्दामि च पिवामि चेति न्यायापातः । प्रत्युत ध्वंसाप्रतियोगित्वतत्प्रतियोगित्वरूपनित्यत्वाऽनित्यत्वोपगमें एव लायनं प्रतियोगितायाः सर्वधाऽतिरिक्तत्वाभावादिति दिक् ।
तृतीयधर्मं निर्दिशति क्रमिकविधिनिषेधार्पणासहकारेणेति । क्रमशः आदिष्टान्वयव्यतिरेकयोः साचित्र्येनत्यर्थः । स्यान्नित्यानित्योऽपि कथञ्चित् नित्योऽनित्यश्चाऽपि घट इत्यत्रानुवर्तते । एवमग्रे भतचतुष्केऽपि स स्वयमन्वेतव्यः । क्रमेण यापेक्षा त्यापेक्षया व घटो नित्यश्वानित्यश्चेति प्रतीयत इत्यर्थः । न च तत्र शब्दयोः क्रमव्यापारेऽप्यर्धस्य विशिष्टस्य क्रमा घटितत्वात् क्रमाद्यनतिप्रयोजनमित्यारेकणीयम् शब्दगतस्याऽपि क्रमस्वार्थेऽध्यारोपात् “न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगमादृते । अनुबद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते" (वा.प.कां.१ / का. ) इति नयाश्रयणात् । अस्तु वा क्रमादिति वचनं ज्ञानाकारविशेषोपलक्षकमेवेति दिकू ।
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=
न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । एतन्निर्वाहात् = तृतीयभङ्गोपपत्तेः धर्मान्तरकल्पनं मिलितनित्यत्वात्रनित्यत्वी भयव्यतिरिक्तनित्यानित्यत्वस्वरूपधर्मविशेषकल्पनं, किमर्थकं ? निरर्थकमिति काक्वा ध्वन्यते । प्रथमद्वितीयभङ्गयोविंशकलितनित्यत्वानित्यत्वयोरेव समाहारात् तृतीयभङ्गसंभवे उभयविलक्षणधर्मकल्पनमनतिप्रयोजनम् । यथा वृक्षसमुदाय एवं वनं
तो नैयायिक महाशय को मानना ही पडेगा, क्योंकि विशिष्टदंडस्वस्वरूप कारणता की अवच्छेदकता दंडव में अन्यथा अनुपपन्न होगी । नैयायिकमतानुसार अनन्यथासिद्धनियत पूर्ववर्तितावच्छेदक धर्मस्वरूप कारणता है । जैसे घटकारणता अनन्यथासिद्धघट नियतपूर्ववर्तितावच्छेदक दंडव चक्रत्व आदि धर्मात्मक है । इस कारणता का अवच्छेदक दंडव चक्रत्व आदि धर्म ही | है । घटकारणता तादृशविशिष्ट दंडत्वादिस्वरूप है और उसका अवच्छेदक शुद्ध दंडत्वादि धर्म है । यदि शुद्ध धर्म विशिष्ट स्व का अवच्छेदक है - यह न माना जाय तो विशिष्टखंडत्वादिरूप घटकारणता का अवच्छेदक शुद्ध दंडत्वादि धर्म कैसे बनेगा ? अतः विशिष्ट द्रव्यत्वात्मक नित्यत्व का अवच्छेदक शुद्ध द्रव्यत्व और विशिष्ट पर्यायत्व का अवच्छेदक शुद्ध पर्यायत्व भी निर्विवादरूप से वन सकते हैं। हाँ, शुद्ध धर्म अपना अवच्छेदक या अवच्छेव नहीं बन सकता है। अतः 'घटो द्रव्यत्वेन नित्यः पर्यायत्वेन चानित्यः यह प्रतीति भी प्रामाणिक है यह सिद्ध होता है ।
स्याद्वादी
पर क्रमिक अर्पणा से कथंचित् नित्यानित्य
क्रमिकवि इति । घट में पृथक् पृथक् दो धर्म का निरूपण करने के पश्चात् व्याख्याकार श्रीमद्जी अब तृतीय धर्म का प्रतिपादन करते हैं कि नित्यत्व की विधि और निपेध की क्रमिक अर्पणा (= विवक्षा) के सहकार से 'घट कथंचित् नित्यानित्य है' ऐसा भी प्रत्यक्षतः प्रतीत होता है । तात्पर्य यह है कि द्रव्यत्व की अपेक्षा और पर्यायत्व की अपेक्षा घट क्या है ? ऐसा संशय - जिज्ञासा प्रश्न उपस्थित होने पर 'घट द्रव्यत्व की अपेक्षा नित्य और पर्यायत्व की अपेक्षा अनित्य है' | ऐसा साक्षात्कार होता है । इस प्रतीति के बल से घट में कथंचित् नित्यानित्यत्व धर्म रहता है। यहाँ यह प्रश्न करना कि -> "प्रथम और द्वितीय धर्म (कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व) मिलित होने पर ही 'घटः कथंचित् नित्यानित्यः ' यह प्रतीति उपपत्र हो सकती है, तो फिर उन दोनों धर्मों से अतिरिक्त कथंचित् नित्यानित्यत्व की कल्पना क्यों की जाती है ?" <- ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम और द्वितीय धर्म समुदित (= मिलित) होने पर बिलक्षणरूप से कथंचित् नित्यानित्यत्व
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२२६ मध्यमस्यागः ६६ खण्डः २ . मा. प्रत्यक्षपछानियम्यत्वकथनम् * | तयोः विलक्षणत्वेनैतत्स्थानाऽभिषेचनीयत्वात् । न च प्रत्यक्षे इच्छायाः कथं नियामकत्वमिति | वाच्याम, प्रतीतिबलादेताहशेच्छाविशिष्टबोधं प्रत्येताहशेच्छाया: कारणत्वकल्पनात् ।
=- :-==.. == रायलता * =-.:::-- | न तु तदतिरिकं तधेय नित्यत्वानित्यत्वसमूह एव नित्याऽनित्यत्वं न तु तदतिरिक्तम् । संमीलितवृक्षेष्वेव वनपदप्रयोग इव ' समुदितयोरेव तयोः नित्यानित्यत्वन्यवहारोऽस्तु, न तु तद्व्यतिरिक्ते इति शङ्काशयः ।
प्रकरणकृत्तन्निरासे हेतुमाह - समुदितयोः तयोः = नित्यत्वाऽनित्यत्वयोः, विलक्षणत्वेन = नित्यानित्यात्मकेन रूपेण । एतत्स्थानाभिषेचनीयत्वात् = तृतीयभंगे स्थापनीयत्वात् । अयं स्याद्रादिनः समाधानाशयः यथा समुदितवृक्षाणामेव बनत्वे पि । धनत्य-निबिडत्व- बहलत्व-योजनविस्तीर्णत्वादयो धर्मा बनत्वाचच्छेदेनेवाऽन्वीयन्ते न तु वृक्षत्वावच्छेदेन तथैव समुदितनित्यत्वाडनित्यत्वयोरेच नित्यानित्यत्वोपगमेऽपि क्रमिकोभयार्पणासहकृतप्रत्यक्ष नित्यानित्यत्वावच्छेदनैव जायते न तु तदुभयधर्मावच्छेदनेति । इदश्च भेदोपसर्जनाभेदेनयमवलम्ब्य बोद्भन्यम् । अभेदोएसर्जनभेदनयमते तु नित्यत्वाऽनित्यत्वाभ्यां विलक्षणं नित्या नित्यत्वं तृतीयधर्मलेन प्रतीयते । अन्न एव सप्तम्यां दतीयभंगोपि प्रथमद्वितीयभङ्गाभ्यामतिरिच्यते; प्रथमभङ्गे नित्यत्वस्य प्राधान्यनाइनित्यत्वस्या -प्रधानल्यन स्वात्पदन प्रतिपादनात द्वितीय भङ्ग चाऽनित्यत्वस्य मुख्यत्वन स्यात्पदानित्यत्वस्य गौणत्वेन प्रतिपादनात तृतीय तु क्रमशः प्राधान्यन नित्यत्वानित्यत्वनिरूपणात् । अनुभूयते च 'स्यात् सन् स्यादसंश्च घट' इति शब्दात् 'क्रमार्पितसत्त्वासचो भयधर्मवन्तममं घट जानामि ति, तद्व्यवहारविषयतया सिद्भधर्मप्रत्याख्यानस्याऽन्याय्यत्वात्. क्रमगभियप्राधान्यबोधमत्यतात्पर्वेणा भयपदप्रयोगात, तत्र एकत्र द्वयमिति विषयताशालिनो दर्शितबोधान्तरस्याऽनुभविकत्वात् । एतेन "सदसत्त्वे वस्तुना न धर्मी, असत्वदायामपि वस्त्वनुवृत्यापातात्, न च स्वरूपं सर्वदायप्रसङ्गात्' (अ.सू.२।२१३३ - वे.क.प.पृ.५६२) | इति वेदान्तकल्पतरुकावचनं प्रतिक्षिप्तम, स्वद्रव्यादिभिरिव परदन्यादिभिरपि वस्तुनः सत्त्वे प्रतिनियतवस्तुस्वरूपविलोपप्रसङ्गादिन दिक ।
न्न भवतु घटे स्यान्नित्यानित्यत्वप्रत्यक्षं परन्तु तत् क्रमिक विधिनिषधार्पणासहकारेण न भवितुमर्हति, प्रत्यक्षे हीच्छानिवम्यत्वाचन अर्पणाया विवक्षारूपत्वेनेच्छाविशेषरूपत्वात् । न हीलामृते सन्निकृष्टयटादिप्रत्यक्षं न भवतीति । इच्छायाः प्रत्यक्षसामन्यनन्तर्भूतत्वात् 'क्रमिकविधिनिषेधसहकारेण घटः स्यान्नित्या नित्योऽपि प्रत्यक्षमेव संवेद्यते इति वक्तुं न पार्यते इति शानिरासायाऽह न चेति । अस्य 'वाच्यमि त्यनेनाइन्वयः । प्रत्यक्षे = कथञ्चित्रित्यानित्यत्वप्रकारकसाक्षात्कारे इच्छायाः = विवक्षायाः कथं नियामकत्वं ? नैव नियामकत्वमिति काक्या ध्वनितम् । तदपोहाय स्याद्रादी हेतुमाह - प्रतीतिवलादिति ।। प्रत्यक्षवलादित्यर्थः । प्रत्यक्षमेव सर्वतो चलबत्नमाणम्, तदपजीवकत्वातदितरप्रमाणानामिति न ते तदतिवर्तितमुत्सहन्ते । अतः प्रत्यक्षानुसारेणैव नियमकल्पनाऽहति न तु नियमानुसारण प्रत्यक्षकल्पना, उवजीवकस्योपजीव्या पेक्षया दुर्बलत्वात् । अत एब एतादृशेच्छाविशिष्टबोधं प्रति = नियतस्वाऽन्यवहितोनरत्वेन विधिनिषेधविवक्षाविशिष्टप्रत्यक्ष प्रति एतादृशेत्रायाः = उपदर्शितस्वरूपाया: कारणत्वकल्पनात = हेतत्वोनयनात । अयं भावः घटादिकं दष्टवा 'किमयं नित्यान वा ?' इति शङ्कते. जिज्ञासते
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.....
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के स्थान पर अभिपिक्त होते हैं । विलक्षणरूप से उपस्थित होने से कथंचित् नित्यानित्यत्व भी प्रथम द्वितीय धर्म से अतिरिक्त || है - यह सिद्ध होता है। अतः प्रथम, द्वितीय धर्म से तृतीय धर्म चरितार्थ नहीं होता है ।
इच्छा भी प्रत्यक्षा.कारण - स्यादादी छ न च प्रत्य, इति । यहाँ यह कहना कि ---> "प्रत्यक्षमात्र की सामग्री में इच्छा का समावेश नहीं होने से प्रत्यक्ष प्रमीति को स्वोत्पत्ति में इच्छा की अपेक्षा नहीं होती है । अतः आपने जो यह कहा कि - 'क्रमिक उभय अर्पणा के सहकार से तृतीय धर्म का साक्षात्कार होता है. वह ठीक नहीं है, क्योंकि अर्पणाशब्द का अर्थ है विवक्षा या जिज्ञासा यानी इच्छाविशेष । इच्छात्वावच्छिन्न का प्रत्यक्षसामग्री में निवेश न होने से तृतीय धर्म के साक्षात्कार के लिए तादृश अर्पणा की अपेक्षा ही नहीं है । इस परिस्थिति में तादृश अर्पणा के सहकार में तृतीय धर्म के प्रत्यक्षोदय की कल्पना भी नहीं की जा सकती, . बोलने की नो बात ही क्या ?" <- भी नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि प्रतीति बलवान है । प्रतीति के अनुसार
नियम की कल्पना की जा सकती है, न कि नियम के अनुसार प्रत्यक्ष की कल्पना । तादृश अर्पणा होने पर ही तादृश ' धर्म का बोध होने से स्वाऽव्यवहितोत्तरजायमानत्व संबंध से तादृश इच्छाविशिष्ट प्रत्यक्ष के प्रति तादृश इच्छा को कारण मानना
आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि घट को देख कर 'यह नित्य है या नहीं ?' ऐसा संशय, जिज्ञासा होने पर पुरुप अभियुक्त (आप्त) व्यक्ति से प्रश्न करता है या स्वयं उहाऽपोह- चिंतन-मनन करता है। बाद में आप्त पुरुष के उत्तर से या स्वयं
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* कथञ्चिदवक्तव्यत्वसमर्थनम्
(४) युगपदुभयार्पणासहकारेण स्यादवक्तव्योऽपि न तु सर्वथा, अवक्तव्यपदेनाऽपि
ॐ जयलता है
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| आप्तपुरुषञ्च पर्यनुयुंक्ते । तस्प्रत्युत्तरेण नित्यत्वप्रकारकबधे जातेऽपि किमयं सर्वथा नित्य आहोस्थित कथञ्चित् ?' इति संत | वुभुत्सति पृच्छति चाभियुक्त पुरुषम् । तदुत्तरं तदुत्तरात् स नित्योऽपि अनित्यत्ववानपी' ति जानाति । यस्तु केवल घटादिकं पश्यत्येव न तु संदेग्धि, ज्ञातुमिच्छति वा नित्यत्वादिकं स नेव विमर्शति नित्यत्वादिकं न वाऽनुयुते शिष्टपुरुषमिति न तदवबोधभाग्भवति प्रेक्षमाणोऽपि घटादिकमिताच्छाया अपि नित्यत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षकारणत्वं प्रमीयते । न चैवं सर्वत्र प्रत्यक्षस्येच्छाजन्वतं स्यात् स्वामित्यादिप्रकारकप्रत्यक्षं प्रत्यपीति वाच्यम्, सर्वत्रच्छायाः प्रत्यक्षसामनन्तर्भूतप प्रकृते तादृशेच्छां विना नित्यानित्यत्वप्रकारको धानुदयात् तत्सत्त्वे चरविर्भावात् अन्वयव्यतिरेकप्रत्यक्षमहिम्ना तस्याः तं प्रति कारणत्वं कल्पनामर्हति दृष्टानुसारेणैव कल्पनाया: प्रामाणिकत्वात् । यद्यपि विवक्षा शाब्दबोध एवं प्रयोजिका, न प्रत्यक्ष | नाऽपि जिज्ञासा, चटदिदृक्षयोन्मीलितनयनस्य पुरः स्थितपदप्रत्यक्षानुपपत्तिप्रसङ्गात, तथापि प्रधानगुणमविन तथातच प्रत्यक तत्तदर्भित्वादिनियन्त्रितक्षयोपशमस्याऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां विशिष्य हेतुत्वान्नानुपपत्तिः । तदुक्तं न्यायकणिकायां वाचस्पतिमिश्रेणापि “विशदतरकार्यसिद्धी चाऽप्रतीयमानमपि कारणं कल्पनीयं न पुनरप्रतीयमान कल्पनाभयात् कार्यवैशद्यमपह्नीतुमुचितम् " (न्या.क. ॥ पृ. ८९) इति ।
!
२२४
चतुर्थधर्मं प्रतिपादयति - युगपदुभयार्पणासहकारंण = एकदेव विधिनिषेधो भयविवक्षासाचियेन, स्यादवक्तव्योऽपि = कथञ्चिदवक्तव्यत्वविशिष्टोऽपि यतो द्वयोर्धर्मयोः प्राधान्येन गुणभावेन वा युगपत्प्रतिपादने न किञ्चिद्रचः समर्धम् सर्वत्र स्यात्पदं नियतापेक्षालाभार्थं प्रयुज्यते । तच तिङ्गन्तप्रतिरूपकं निपातरूपं सर्वधात्वनिषेधकमनेकान्तद्योतीति प्रागुक्तमनुसन्धेयम् । स्यादव्यवच्छेद्यं कण्डत आह- न तु सर्वथेति । अवक्तव्यमित्यत्राऽप्यनुवर्तते । तत्र हेतुमाह अवक्तव्यपदेनाऽपि अवक्तविचार-विमर्श से उसे बोध होता है कि 'घट नित्य है, वह भी सर्वथा नहीं, मगर द्रव्यत्व आदि धर्म की अपेक्षा से' | यदि तादृश संशय - जिज्ञासा आदि न हो तो घट में कथंचित् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व, कथंचित् नित्यानित्यत्व आदि धर्म का भान नहीं होता है । अतः तादृश धर्म के साक्षात्कार के प्रति तादृश अर्पणा को कारण मानना आवश्यक है । अतः प्रत्यक्षविशेष की सामग्री में इच्छाविशेष का निवेश करना आवश्यक है
यह फलित होता है । स्याद्वादी
घट युगपत् अर्पणादय से कथंचित् अवक्तव्य
युगपदु इति । इस तरह युगपत् विधिनिषेध की अर्पणा होने पर 'घट कथंचित् अवक्तव्य है' ऐसा साक्षात्कारोय होने से घट में कथंचित् अवक्तव्यत्व धर्म भी रहता है । आशय यह है कि विधि-निषेध की क्रमिक कल्पना होने पर कथंचित् नित्यानित्यत्व का प्रतिपादन या प्रत्यक्ष हो सकता है, मगर विधि-निषेध की एक ही काल में कल्पना होने पर अर्थात् द्रव्यत्वपर्यायत्व भय की अपेक्षा घट क्या है ? ऐसी जिज्ञासा या प्रश्न होने पर कोई एक ऐसा शुद्ध शब्द (= असामासिक शब्द ) नहीं मिलता है, जिससे एक ही काल में प्रधानतया नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म का प्रतिपादन हो सके । अतः युगपत् उभय अर्पणा होने पर यही कहना पड़ेगा कि घट उभय (द्रव्यत्व- पर्यायत्व) की अपेक्षा एक ही काल में घट अवक्तव्य हैअनिर्वचनीय है किसी शब्द से प्रधानतया युगपद् नित्यत्व और अनित्यत्व वाच्य नहीं हो सकते । अतः तादृश प्रश्न के प्रत्युत्तर में 'घट अवक्तव्य है' यही कहा जा सकता है । 'पी' कहा जा सकता है, 'पु' कहा जा सकता है। मगर एक ही काल में दोनों को 'पी' इस रूप में बोला नहीं जा सकता। यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि युगपत् उभय अर्पणा होने पर घट सर्वथा अवक्तव्य ( वाणी का अविषय) नहीं है किन्तु कथंचित् ही अवक्तव्य है । यदि घट को सर्वधा अवक्तव्य माना जाय तब तो इसका मतलब यह हुआ है कि युगपद् उभयार्पणा होने पर घट किसी भी शब्द का विषय (= वाच्य) नहीं है । ऐसा होने पर तो घट अवक्तव्य शब्द से भी अवक्तव्य हो जायेगा । अर्थात् घट अवक्तव्य शब्द का भी विषय (= वाच्य) नहीं बन सकेगा । तब अवक्तव्यपदजन्य प्रतीति का विषय घट कैसे हो सकेगा ? अतः अवक्तव्य शब्द का भी घट में प्रयोग न होने की आपत्ति आयेगी । मगर अवक्तव्य शब्द का प्रयोग तो युगपत् उभय अर्पणा होने पर घट में होता है । अतः यही मानना उचित है कि घट सर्वथा अवक्तव्य नहीं है, किन्तु कथंचित ही अवक्तव्य है । अर्थात् समकालीन विधि-निषेध की कल्पना होने पर घट अवक्तव्य शब्द से वक्तव्य (= वाच्य = प्रतिपाद्य ) है और अवक्तव्य शब्द से अतिरिक्त शब्द से अवक्तव्य (= अप्रतिपाय ) है ।
९. दृदयतां चतुर्थपृष्ठे 1
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२२. मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का.५ * ब्रह्मसूत्र-शाकरभाष्यनिराकरणम् *
अवक्तव्यत्वाऽऽपत्तेः । न ताऽवक्तव्यत्वं शब्दाऽबोध्यत्वरूपं कथं योग्यमिति वाच्यम, . । उपदेशसहकारेण पारागादिवत्तद्ग्रहात् । 'नित्यत्वस्याऽत्र क उपकार: ?' इति चेत् ? अवक्तव्यत्वेन परिणतिरित्येव गृहाण ।
= ===* जयलता *:-== व्यत्राऽऽपत्तेरिति । अप्रतिपाद्यत्वापत्तेरित्यर्थः । ननु युगपदुभयार्पणायां वस्तु किं सर्वधाऽवक्तव्यं यदुत कथञ्चित् ? इति विमलविकल्पयुगलमुपतिष्ठते । आद्ये तु अवक्तव्यपदेनाऽपि वस्तुनोऽवाच्यता पनिः, सर्वपदैरप्रतिपाद्यत्वात्तस्याऽस्मिन् पक्ष । नाऽपि द्वितीयो मझुलः, अबक्तव्यत्वस्य पदजन्यप्रतीतिनिरूपितविषयताशून्यत्वरूपत्वेनोऽवक्तव्यपदेन वस्तुनो वक्तव्यत्वोपगमे उन्मत्तत्वप्रसङ्गात, पदप्रवृत्तिनिमित्नशून्ये पदप्रयोगादित्याशयवन्तं संदेहं निराकर्तृमाह- न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेना:न्दयः । कथं योग्य ? नवाऽवक्तव्यापदेनाऽपि प्रतिपादयितुमर्हति, विरोधादिति टाकाकृदाशयः । तद्व्यपोहायाह-उपदेशसहकारेण = संकेतसहकारण, अवक्तव्यपदात् पद्मरागादिवत् = पद्मरागत्वग्रभूतिप्रकारकावबोधवत, तद्ग्रहात् = अवक्तव्यत्वबोधात् । अयं भावः प्राश्चा मते यथा पद्मरागेन्द्रनीलरिध-रविकान्त-चन्द्रकान्तादिमणिमाणिक्यादि परावर्ति पश्यन्नपि न गोपालादिः जनः पद्मरागत्वादियं तत्र ज्ञातुं क्षमः किन्तु विज्ञजनोपदेशसाचिव्येनैव स तत् साक्षात्करोति तथा युगपदेव प्राधान्येन नित्यत्वाऽनित्यत्वयोः कथयितुमशक्यत्वेऽपि वृद्धपुरुषो वक्तव्यशब्दसंकेतद्वारा तयतिपादनं करोत्येव श्रोतुरपि च गृहीत शक्तिकस्य तदनन्तरं तज्ज्ञानं भवत्येव ।
नव्यनैयायिकास्तु 'भिन्नप्रमाणयोरेकज्ञाना जनकत्वेन न परस्परसहकारित्वमिति पद्मरागत्व प्रत्यक्ष रूपविशेषग्रहणमेव हेतुः ‘रूपादिविशेषवान् मणिः पद्मराग' इत्युपदेशस्तु 'गोसदृशा गवय' इत्यतिदेशवास्यवत् पद्मरागपदवाच्यत्वोपमितावेवोपयुज्यते इत्याहुः । तदसत् रूपविशेष - पद्मगत्वयोर्ग्रहस्य तुल्यसामग्रीकत्वात, शिक्षातः पूर्व रूपविशेषग्रह.पि पद्मरागत्वाऽग्रहात्, स्वविशेष्यसमवंतत्वसम्बन्धेन तस्य पद्मरागत्प्रत्यक्षहेतुल्ये सदृशपद्मरागद्वयस्थले तदविशेष्यसन्निकर्मेणाऽपि पद्मरागत्वप्रत्यक्षापत्तेः | उनोपदेशस्य तत्रानुफ्योंगे च पद्मरागतदन्यसंशयनिवृत्त्यर्थं तदाश्रयणस्य 'उपदेशात पद्मरागं साक्षात्करोमि न तूपमिनोमी'त्युत्तर- । कालीनानुभ्यवसाकारानुपपत्तेथेति दिक् ।
अत एव नोन्मत्तप्रलापप्रसङ्गोऽपि सावकाशः, अवतन्यशब्दातिरिक्तपदा प्रतिपाद्यत्वे सत्यवक्तव्यपदप्रतिपाद्यत्वस्यैव स्यादवक्तव्य पदप्रवृत्तिनिमित्तत्वात, तस्य वस्तुनि विद्यमानत्वात, श्रोतुरपि तस्यैव बोधान्नोपहासात पदवम् । एवं शब्दद्वारा सप्तभङ्गीज्ञस्य प्रदर्शिताऽवक्तव्यत्वप्रकारकप्रत्यक्षोत्पादकत्वान्ना वक्तव्यत्वं प्रतिपादयितुं बोद्धं वा योग्यमिति सिद्धमेतावता । एतेन "अवक्तव्यश्चेन्नोच्येरन् । उच्यन्ते चाऽवक्तव्यश्चेति बिप्रतिषिद्धम् । उच्यमानाश्च तथैवाइवधार्यन्ते नावधार्यन्त इति च' (ब्र.सू. २२।३३ शां. भा.) इति ब्रह्मसूत्र-शाङ्करभाष्यवचनं प्रतिपिद्धम्, ब्रह्मणो निर्वचनीयत्वेदण्यस्यान्नुयोगस्य समानत्वाच्च ।
परः पर्यनुयुत्ते - नित्यत्वस्य = प्रागच्याणितस्वरूपस्य । इञ्चोपलक्षणमनित्यत्वस्य । अत्र = चतुर्थ भङ्गनिरूपित
___ * उपदेशसहकार से अपातयत्त भी शाब्दबोधयोग्य - स्यावादी *
न चाध, इनि । यहाँ यह समस्या मुँह फड़े खड़ी है कि -> "अवक्तव्यत्व शब्द का अर्थ है शब्द से अवोध्यत्व यानी शब्दजन्य प्रतीति से निरूपित विपयता की योग्यता का अभाव ही अवक्तव्यत्वशब्दार्थ है । जिसमें शब्दजन्य प्रतीति की विषयता ही नहीं है, वह शब्द से कैसे बनाया जा सकता है ! वह शाब्दी प्रतीति के योग्य कैसे हो सकता है। जैसे इन्द्रियजन्य प्रतीति की विषयता के अयोग्य ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान कराने में इन्द्रिय असमर्थ है वैसे ही शब्दजन्य प्रतीति से निरूपित विषयता के अयोग्य ऐसे अवक्तव्य अर्थ का बोध कराने में शब्द भी असमर्थ ही रहेगा। अतः समकालिक विधिनिषेध अर्पणा होने पर घर में अवक्तव्यशब्द का प्रयोग भी अयोग्य ही ठहरेगा" <- मगर इस समस्या का समाधान भी सरल है। जैसे पद्मरागादि मणि को हम देखने हैं फिर भी हमें यह ज्ञान नहीं होता है कि 'यह पद्मराग मणि है' । मगर जौहरी के उपदेशरूप सहकारी कारण से पद्मरागत्वाकारक बोध का उदय हमें हो सकता है। वैसे ही सप्तभंगी के ।। ज्ञाता एवं उपदेशक के उपदेशात्मक सहकारी कारण से अवक्तव्यत्वप्रकारक ज्ञान भी हमें हो सकता है । अतएव एक काल में विधि-निषेध उभय जिज्ञासा होने पर अवक्तव्य शब्द का घट में प्रयोग करना भी सुसंगत है . यह सिद्ध होता है ।
E अवमतव्यत्तेत परिणाम हो नित्यत्व 21 उपकार - स्यादादी = नित्य, इति । यहाँ एक और उल्झन उपस्थित होती है कि -> "घट में अबक्तब्यत्व धर्म मानने पर नित्यत्व का
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* अष्टभङ्गीप्रसङ्गापाकरणम्
वक्तव्यत्वेन परिणतिस्तु नित्यत्वादिविशेष एव विश्राम्यतीति न तदतिरेकावकाशः । वक्तव्यत्वेन बोधस्तु नित्यत्वविध्यादिकल्पनातों नित्यत्वादिनैव बोधानोदेति ।
२२६
ॐ जयलता *--
=
'विशेष्यताऽक्रान्ते घंटे के उपकारः ? नित्यत्वाऽनित्यत्त्वयोः युगपदुभयविवक्षायामवक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यत्वेऽपि तत्र तयोः कः उपकारः ? इति प्रश्नार्थः । प्रकरणकृत प्रत्युत्तरयति अवक्तव्यत्वेन रूपेण परिणतिरित्येव त्वं गृहाण जानीहि । युगपदभयविवक्षायां सत्यां नित्यत्वाऽनित्यत्वधर्मौ स्वयमवक्तव्यत्वीभवन्ती घटमवक्तव्यत्वेन परिणामयति । अयमेव तदुपकारः । अत एवाऽवक्तव्यत्वमपि स्वतन्त्रपरिणामो न नित्यत्वादिग्रहणेन गृह्यत इति भावः !
-
=
नन्येवं सति वक्तव्यत्वमप्यवक्तव्यत्ववदतिरिच्येत घटस्य वक्तव्यत्वेनापि परिणामात् । ततो घटेऽष्टमधर्मप्रसङ्गो दुर्निवार इत्याशङ्कायामाह वक्तव्यत्वेन परिणतिः घटपरिणतिः । तुर्विशेषद्योतनार्थः । तदेवोपदर्शयति नित्यत्वादिविशेषे एव विश्राम्यतीति । एवकारफलमाह- इति हेतोः न तदतिरेकावकाशः = तस्य वक्तव्यत्वस्य नित्यत्वादिविशेषेभ्यो व्यतिरिक्तत्वसंभवः । अयं भावः वक्तव्यत्वेन रूपेण घटपरिणतिः स्यान्नित्यत्वादिविशेष परिणतिस्वरूपवेति नित्यत्वविधिनिषेधादिकल्पनायां 'नाष्टमधर्मावकाशो, नित्यत्वादिग्रहणेनैव तद्ग्रहात्, नित्यत्वादिधर्मविशेषः वक्तव्यत्वेन यस्य परिणामितत्वादेव 'घटः स्यान्नित्यः स्पादनित्य' इत्यादिकधनसंभवात् । अत एव स्यानित्यत्वादिधर्माणामपि स्याद्वक्तव्यत्वाभेदोऽपि सिद्धूयति ।
ननु वक्तव्यत्वपरिणामस्य स्यान्नित्यत्वादिधर्मविशेषभ्योऽनतिरिक्तत्वे यथा पटः द्रव्यत्वेन नित्य' इति बोधो जायते तथैव 'घटो द्रव्यत्वेन वक्तव्य' इत्यपि प्रतीयेतेत्याशङ्का निराकर्तुमाह- वक्तव्यत्वेन बोधस्त्विति । अन्वयश्चाऽस्य 'नोदेती' त्यत्र । अन 1 हेतुमाह नित्यत्वविध्यादिकल्पनातः = क्रमिकाऽक्रभिकनित्यत्वविधिनिषेधो भयविवक्षातः नित्यत्वादिनैव स्पान्नित्यत्वादिप्रकारेणैव, बोधात् = घटविशेष्यकबोधोदयात् । अयं भावः यादृशी अर्पणा तादृशी प्रतीतिः वस्तुन्युपजायते । अतो नित्यत्वयहाँ क्या उपकार हो सकता है ? क्योंकि नित्यत्व धर्म को प्रधान बना कर यहाँ प्ररूपणा की जा रही है । अतः नित्यत्व धर्म का उपकार होना जरूरी है" <- । इसका समाधान यह है कि नित्यत्व धर्म का अवक्तव्यरूप से घटपरिणाम होना ही नित्यत्व धर्म का उपकार है । युगपत् उभय अर्पणा होने पर नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म घट को अवक्तव्यतया परिणत करते हैं और स्वयं अवक्तव्यत्यात्मक बनते हैं । इससे यह फलित होता है कि अवक्तव्यत्व धर्म भी स्वतंत्ररूप से घट में रहता है, जो नित्यत्वादि के ग्रहण से गृहीत नहीं होता है । अतः घट में अवक्तव्यत्व धर्म को भी मानना जरूरी हो जाता है।
ॐ अवक्तव्यत्व की भाँति वक्तव्यत्व स्वतंत्र आँठवा धर्म नहीं - स्यादादी
वक्त इति । यहाँ यह शंका करना कि "जैसे घट में अवक्तव्यत्व धर्म स्वतंत्र है, ठीक वैसे ही वक्तव्यत्व भी एक स्वतंत्र धर्म होगा, जिसके फलस्वरूप में घट में सात धर्म नहीं किन्तु आठ धर्म का अंगीकार मान्य करना होगा " <- नामुनासिव है । इसका कारण यह है कि वक्तव्यत्वरूप से घटपरिणति नित्यत्वादिविशेष धर्म में ही विश्रान्त हो जाती हैं। मतलब कि नित्यत्वादि धर्म घट को वक्तव्यरूप से परिणत करते हैं, मगर वह वक्तव्यत्व धर्म 'स्यात् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व' आदि धर्म में ही पर्यवसित होता है । इसलिए तो 'घटः स्यान्नित्यः स्यात् अनित्यः' इत्याकारक प्रतीति एवं व्यपदेश मुमकिन है । अतः स्यात् नित्यत्व आदि धर्म से अतिरिक्तरूप से वक्तव्यत्वं धर्म का अवकाश नहीं है । कथंचित् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व आदि धर्म वक्तव्यत्वस्वरूप ही है । इसलिए 'कथंचित् नित्यत्व' आदि रूप से वक्तव्यत्व धर्म का भी कथन हो जाता है । अतः स्यानित्यत्वादि धर्म से अतिरिक्त वक्तव्यत्व धर्म की सिद्धि नहीं हो सकती है, जिसके
| परिणाम में अष्टम धर्म की एवं अष्टभंगी की आपत्ति हो सके । यहाँ यह शंका करना कि "घट में कथंचित् नित्यत्व आदि धर्म है वही वक्तव्यत्व धर्म है ऐसा मानने पर आपत्ति यह आयेगी कि घट का जैसे कथंचित् नित्यत्वरूप से ज्ञान | होता है, ठीक वैसे ही वक्तव्यत्वरूप से भी मान होना चाहिए, क्योंकि वक्तव्यत्व स्यानित्यत्वादिस्वरूप ही है" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि नित्यत्वविधान की विवक्षा होने पर स्यानित्यत्वप्रकारक बोध का ही उदय होता हैं, नित्यत्वनिषेध की जिज्ञासा होने पर स्यादनित्यत्वप्रकारक ज्ञान का ही जन्म होता है । जिज्ञासा के अनुसार ही बोधोदय होता है । अतएव वक्तव्यत्वेन यदज्ञान का तादृश अर्पणा के सहकार से जन्म नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि 'स्यानित्यः ' पद से घट का कथन होने से ही घट में वक्तव्यत्वप्रकारक जिज्ञासा का उदय नहीं होता है । विशेष धर्म का ज्ञान होने पर सामान्य धर्म की शंका नहीं होती है । 'यह ब्राह्मण है' ऐसा ज्ञान होने पर 'यह मनुष्य है या नहीं ? ऐसी शंका किसीको भी होती नहीं है | अतः वक्तव्यत्वप्रकारक ज्ञान उदय न होना ठीक ही है ।
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२२७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * वक्तव्यत्वसप्तभङ्गीस्थापनम् *
(१) क्रमाऽक्रमाभ्यां विध्युभयकल्पनासहकारेण स्यामित्य: स्यादवक्तव्यः । (६) ताभ्यां निषेधोभयकल्पनासहकारेण स्यादनित्य: स्यादवक्तव्यश्च । (9) ताभ्यामुभयकल्पनासहकारेण स्यानित्यः स्यादनित्यः स्यादवक्तव्य धेति। आऽपि समुदायाऽवलम्बिनी शक्षा प्राग्वनिरसनीया।
* गयलता * विध्यर्पणातः स्यान्नित्यत्वप्रकारको बोधो जायते, नित्यत्वनिषेधकल्पनासहकारात् स्यादनित्यत्वप्रकारकोऽवबोध उत्पद्यते । अतो वक्तव्यत्वप्रकारको बोधोऽवक्तव्यत्वप्रकारकज्ञानवस्रोदेति । न च वक्तव्यत्वविधिकल्पनासहकारात्तादृशाप्रत्ययप्रसङ्गो दुर्निवार इति वाच्यम्, स्यानित्यत्वादेर्वक्तव्यत्वव्याप्यत्वात् स्यानित्यत्वादिप्रकारकबोधादेव वक्तव्यत्वप्रकारकजिज्ञासोपरमात् । न.चैवमपि कथश्चिन्नित्यत्वग्रकारकबोधोदयात् प्राक् वक्तव्यत्वविधिकल्पनासहकारात् वक्तव्यत्वप्रकारकबोधों दुर्निवार इति वक्तव्यम् , इष्टत्वात् । न चाऽष्टमधर्मप्रसङ्गः; स्यान्नित्यत्वाद्यनतिरिक्तत्वात वक्तव्यत्वस्य । तदुक्तमष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे -> 'वक्तव्यत्वस्य कथंतागर्भत्वेन विशिष्य विश्रान्तत्वात, शब्दानुगममात्रस्याऽप्रयोजकत्वात्. सत्त्वादिना वक्तव्यत्वस्य सत्त्वादिसमनियतत्वेन निराकान्तया भङ्गान्तरानारम्भकत्वात् अन्यथाऽसद्भिन्नत्यादिनापि भङ्गान्तरापत्तेः <- (अ.स. चि.पृ. १८७) प्रकरणकृन्दिरबति ।
अस्तु वा वक्तव्यत्वं नाम कश्चनातिरिक्तधर्मस्तधापि वक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वाभ्यां विधिनिषेधकल्पनाविषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्गचन्तरमेव प्राप्नोतीति न सत्चासत्त्वादिसप्तविधधर्मन्याधात इति ध्येयम् ।
पश्चमधर्ममाह - क्रमाक्रमाभ्यामिति । बिध्यादौ यथाक्रममन्वयः । विध्युभयकल्पनासहकारेणेति । नित्यत्वविधिनित्यत्वविधिनिषेधोभयार्पणासाचिव्येनेति । स्यानित्यः स्यादवक्तव्य इति । प्रतीयत इति शेषः । द्रव्यत्वापणा- द्रव्यत्वपर्यायत्वोभयार्पणासाहाय्यन घटे कधश्चिनित्यत्व-कथञ्चिवक्तव्यत्वप्रकारकं विज्ञानमुत्पद्यते इति भावः ।
पठधर्ममुपदिशति- ताभ्यां = क्रमाक्रमाभ्यां, निषेधोभयकल्पनासहकारेण = नित्यत्वनिषेध-विधिनिषेधोभयभजनासमवधानेन, स्यादनित्यः स्यादवक्तव्यश्च । संवेद्यत इति शेषः । पर्यायत्त्वविवक्षा-द्रव्यत्यपर्यायवाभयविवक्षासंपातन घट स्यादनित्यत्व - स्यादवक्तव्यत्वप्रकारकं प्रत्यक्ष जायत इत्यभिप्रायः ।
सप्तमधर्मं निर्दिशति- ताभ्यां + क्रमाक्रमाभ्यां, उभयकल्पनासहकारेण = नित्यत्वविधि-नित्यत्वनिषेध-नित्यत्वविधिनिषेधोभयकल्पनासन्निधानेन, स्यानित्यः स्यादनित्यः स्यादवक्तव्यथेति । साक्षानियत इति शेषः । द्रव्यत्वापेक्षया पर्याय - त्वापेक्षया द्रव्यल्वपर्यायत्वोभयापेक्षया च घटः कीदशः' इति मीमांसायां सत्यां स्यानित्यत्वाऽनित्यत्वाऽवक्तव्यत्वरितयप्रकारको 'शोधो जायते. तादृशमीमांसा हितक्षयोपशमजन्यबोधविषयत्वात् तादृशधर्मस्येति भावः ।।
अत्रापि = चरमधर्मत्रिकेऽपि, समुदायाऽवलम्बिनी - 'पूर्वोकधर्मचतुष्कसमूहनिमित्तिका, शङ्का प्रागन्निरसनीयेति । अयं भावः अत्र स्यादियं शङ्का यदुत स्यानित्यत्वाप्रवक्तव्यन्वधर्मस्य प्रथमचतुर्थधर्मसमुदायेनैवोपपत्तौ किमर्थक पञ्चमधर्मकल्पनम् ?
Eucpचित् नित्य और कथंचित् अतरातत्य - स्यादादी 5 क्रमाक्र, इति । इस तरह क्रमशः विधि और युगपत् विधिनिषेध उभय की अर्पणा होने पर 'घट कथंचित् नित्य और ! कथंचित् अवक्तव्य है' ऐसी प्रतीति होती है। घट में द्रव्यल की अपेक्षा नित्यत्व और द्रव्यत्व-पर्यायत्वोभय की अपेक्षा अवक्तव्यन्व धर्म रहता है। यह पाँचवा धर्म है। इस तरह क्रमशः निषेध कल्पना और युगपत् उभयकल्पना के सहकार से 'घटः स्यादनित्यः स्यादवक्तव्यः' ऐसा प्रत्यक्ष होता है। अर्थात् पर्यायत्व की अपेक्षा और द्रव्यत्व-पर्यायत्वोभय की अपेक्षा घट में कथंचित् अनित्यत्व और कथंचित् अवक्तव्यत्व धर्म रहता है । यह हा धर्म है। इस तरह क्रमशः विधि की और निपेय की कल्पना तथा युगपत् उभय की अर्पणा होने पर 'घटः स्यानित्यः स्यादनित्यः स्यादवकन्यच ऐसा साक्षात्कार होता है। मतलब कि द्रव्यत्व की अपेक्षा, पर्यायत्व की अपेक्षा और द्रव्यत्व-पर्यायवोभय की अपेक्षा घट में कथंचित् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व और कथंचित अवक्तव्यत्व धर्म रहता है । यह ७ वा धर्म है ।
अन्तिम तीज धर्म का समावेश पूर्व धर्म में नहीं हो सकता - स्यादादी ___अत्रापि, इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "पाँचवें धर्म का निर्वाह तो प्रथम और चतुर्थ धर्म के समुदाय से ही हो जायेगा । इस तरह छट्ठे धर्म की उपपत्ति तो मिलित द्वितीय और चतुर्थ भंग से ही हो सकेगी। तथा सप्तम धर्म का
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* सप्तभड़ायां विचारविशेष: * न च विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहादाधिक्यमाशालीराम, तथाप्येतत्कृतपरिणत्यनतिरेकात् ।
-* जयलता * एवं स्यादनित्यत्वाऽवक्तव्यत्वधर्मस्यापि द्वितीयचतुर्थधर्मकलापेनव निर्वाहसंभवात् षष्ठधर्मकल्पनमपि अनतिप्रयोजनमेव । अत एवातिरिक्तसप्तमधर्मकल्पनाऽपि निष्प्रयोजना, तृतीयचतुर्थाभ्यां समुदितधर्माभ्यामेव तत्प्रतीत्युपपत्तेरिति । इयञ्च शंका निरस्तव प्रागुक्त| रीत्या । तथाहि - समुदितयोः प्रथमचतुर्धधर्मयोः द्वितीयचतुर्थधर्मयोः तृतीयचतुर्धधर्मयोश्च यधाक्रमं पञ्चमषष्ठसप्तमधर्मेभ्यो विलक्षणत्वेन प्रतीतेः प्रकृतधर्मकल्पनाया आवश्यकत्वात् । यद् यतो विलक्षणत्वेन प्रतीयते तत्ततोऽतिरिच्यते यथा घटात्यट: । तथा चैते, तस्मात् तथेति सप्तधर्मकल्पना युक्तवेति सिद्धम् । नयमतभेदेन विशेषस्तु प्रागुपदर्शितप्रकारेण स्वयमुनेय इत्यलं चसुर्या
न चेति । अस्य 'वाच्यमि'त्यनेनाइन्वयः । विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहात् = एकतरपक्षपानियुक्तिशून्यत्वात, आधिक्यं = सप्तधर्मातिरेक इति । अयं शङ्कादभिप्रायः तृतीयधर्मे यत्ताबदक्तं 'क्रमिकविधिनिषेधार्पणासहकारेण घटः स्यात्रित्यत्त्वविशिष्टाऽनित्यत्ववान्' तत्र मयाऽप्येवं वक्तुं शक्यते यदुत क्रमिकनिषेधविध्यर्पणासाचिव्येन घटः स्यादनित्यत्वविशिष्टनित्यत्वाश्रयः । न चात्र विनिगमकमस्ति किश्चित्, बिनिगमनाविरहेण कथञ्चिनित्यत्वविशिष्टानित्यत्वधर्म इव स्यादनित्यत्वविशिष्टनित्यत्वमप्यवश्यम युभेयं स्वाद्रादिभिः भवन्ति । एवमेव क्रमाक्रमाभ्यां विध्युभयकल्पनासहकारेण घटे स्यान्नित्यत्वविशिष्टा वक्तव्यत्ववत् ।। | अक्रमक्रमाभ्यामुभयविध्यर्पणासंपातेन स्यादवक्तव्यत्वविशिष्टनित्यत्वमप्युपेयम् । तथा क्रमाक्रमान्यां निषेधोभयकल्पनासहकारेण
शष्टावक्तव्यत्वधर्मकल्पनावत अक्रमक्रमाभ्यामभयनिषेधभजनासमवधानेन घटे स्यादवक्तव्यत्वविशिष्टानित्यत्वधर्माभ्युपगमस्याऽपि न्याय्यत्वात् । एवमेव ताभ्यामुभयसहकारेण स्यानित्यत्वाऽनित्यत्वविशिष्टावक्तव्यत्वधर्मकल्पनेव स्यादनित्यत्वनित्यत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वधर्मस्य स्यादवक्तव्यत्वनित्यत्वविशिष्टानित्दत्वस्य स्यादवक्तव्यत्वाऽनित्यत्वविशिष्टनित्यत्वस्य स्यानित्यत्वातवक्तव्यत्वविशिष्टा नित्यत्वस्य स्यादनित्यत्वाऽवक्तव्यत्वोभयविशिष्टनित्यत्वस्याप्यभ्युपगमप्रसङ्गात् । ततश्च नित्यत्वमधिकृत्य त्रयोददाधर्मकल्पना पातेन त्रयोदशभङ्गीप्रसङ्गात् ।
स्याद्वादी तत्समाधानमाह- तथापीति । तद्विशेषणविशेष्यभावे विनिममनादिरहे पीति । एतत्कृतपरिणत्यनतिरेकात् = । तादृशार्पणाप्रयुक्तपरिणामाभिन्नत्वात्, अधिकषधर्माणामिति दोषः । अयं समाधानाभिप्राय: तादृशधर्मचतुष्के विशेषणविशेष्यभादविनिगमनाचिरहेऽपि न विलक्षणविशेष्यभावापन्ना धर्माः तदतिरिक्ताः, बाचकभेदेऽपि वायपरिणामाग्वैचित्र्यात । यथा भूतले संयुक्तवटपटसत्त्वदशायां 'घटविशिष्टपटः पटविशिष्टघटो या भूतलनिरूपितवृत्तितावान् ?' इत्यत्र विनिगमकाभावेऽपि तत्परिणामा| भेदः तथैव प्रकृते तथाविधविनिगमकाभावेऽपि तत्परिणामा नातिरिच्यन्ते, यधाक्षयोपदाम तथाविधविशेषणविशेष्यभावावगाहिबोधस्येष्टत्वात् वाच्याभेदेऽपि वाचकमंदस्य व्यवहारनयमतप्रसिद्धत्वात् । समर्थन तृतीय और चतुर्थ धर्म के समूह से ही संभव है । अतः प्रथम चार धर्म से अतिरिक्त अंतिम तीन धर्म की घट में कल्पना नहीं करनी चाहिए" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि संमिलित प्रथम और चतुर्थ धर्म विलक्षणरूप से पाँचचे धर्म में स्थापित होते हैं। द्वितीय और चतुर्थ धर्म का समूह विशेषरूप से छठे धर्म के रूप में प्रतीत || होते हैं। नृतीय और चतुर्थ धर्म का समुदाय भिन्नरूप से ७ वें धर्म के स्वरूप में सिद्ध होता है। पूर्व चार धर्म उसीरूप से चरम नीन धर्म के स्थान में ज्ञात नहीं होते हैं। पूर्वोत्तर धर्मों में अविलक्षण प्रतीति न होने से उत्तर तीन धर्म पूर्व धर्मों से स्वतंत्र हैं . यह सिद्ध होता है।
* विशेषण-विशेष्यमाप में विजिगमका होने पर भी परिणाम अभिन्न - स्यादायी *
न च विदी. इति । यहाँ यह दहशत हो कि -> "अन्तिम तीन भंग में विशेफ्ण-विशेष्यभाव में विनिगमनाविरह होने से गौरव दोष प्रसक्त होगा । मतलब कि पाँचवा धर्म कथंचित् नित्यत्वविशिष्ट अवक्तव्यत्व माना जाय या कथंचित् अवक्तव्यन्वविशिष्ट नित्यत्व माना जाय ? - इस विषय में दोनों पक्ष में से एक पक्ष में भी बलवान् युक्ति न होने से दोनों का स्वीकार करना पड़ेगा। इसी तरह छठ्ठा धर्म कथंचित् अनित्यत्वविशिष्ट अबक्तव्यत्व माना जाय या कथंचित् अवक्तव्यत्त्वविशिष्ट अनित्यत्व माना जाय ? यहाँ एक भी पक्ष में बलवान युक्ति न होने से दोनों का स्वीकार करना होगा। इस तरह सांतवे धर्म में भी यही विनिगमनाविरह होने से अनेक धर्मों का स्वीकार करना होगा । जिसके फलस्वरूप में केवल सात धर्म । नहीं किन्तु सात से भी ज्यादा धर्म की आपत्ति नित्यत्व को केन्द्र में रखने पर उपस्थित होगी । अतः केवल सात धर्म का ही प्रतिपादन करना असंगत है" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि विशेषण-विशेप्यभाव में विनिगमनाविरह होने पर भी नाश अर्पणाकृत परिणामवितोप में भेद नहीं होता है। जैसे भूतल में घट और पट संपुक्त होने पर भूतल
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२२९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * उपधेयसाङ्मयेऽप्युपा पसाय॑म् * | 'नित्यानित्यत्वादयो जात्यन्तररूपा अखण्डा' इत्याध्याहुः । अत एवाऽमून धर्मानवलम्ब्य तत्र तत्रोक्ता समभङ्गी सङ्घतिमइति । ___ अथ केयं सप्तभंगीति चेत् ? एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः
= =* जयलता * अत्रैवाइन्यमतमाह- नित्यानित्यत्वादयो जात्यन्तररूपा इति । आदिशब्देन सदसत्त्वादेहाणम् । अन्येषामयमभिप्रायः तृतीयपश्वमादिधर्माणां न सखण्डोपाथित्वं येन विशेषणविशेष्यभावे त्रिनिगमनाविरहप्राङ्गः किन्तु जातित्वमेव । जातित्वावच्छिन्नस्या खण्डत्वादेव = नगदहा विनिमाविरापर. । भेगाभेन्चर निगाऽनित्यत्वादयोऽपि जात्यन्तररूपा एबोपगन्तुमर्हन्ति ।
इदन्तु ध्येयम् - सर्वथा जात्यन्तरत्वमपि न युज्यते, तदंशनिबन्धनविशेषप्रतिपनेरभावप्रसङ्गात् । न चासावस्ति, सदसदु|| भयात्मके वस्तुनि स्वरूपादिभिः सत्त्वस्य पररूपादिभिरसत्त्वस्य च तदंशस्य विदोषप्रतिपत्तिनिबन्धनस्य सुनयप्रतातिनिश्चितस्य प्रसिद्धेः, दधिग उर्जातकादिद्रव्याद्भवेशनके तदंशदध्यादिविदोषप्रतिपत्तिवत । न चै जात्यन्तरमेवोभयात्मकमिति वाच्यम, सर्वधो भयरूपत्वे जात्यन्तररातिपत्नरयोगात, पानकवदेव । ततः काञ्चज्जात्यन्तरत्वमुपेयमिति सूचनार्धं 'आहु' रित्युक्तम् । न च तथापि शब्द-समभिरूदेवम्भूतनयमते न विशेषण-विशेष्यभावभेदेऽष्टमादिभङ्गासङ्गो दुर्निवार इत्यारेकणीयम्, तन्मते आद्यभङ्गद्वयस्पैचोपगमात् । सुस्पष्टश्चैतत् तत्त्वं चादमहार्णवे । न चैवमपि अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्याऽष्टमोऽपि विकल्पः किमिति नाङ्गीक्रियत इति शङ्नीयम्, तत्परिकल्पननिमित्तविरहात्, सावयवात्मकस्य निरवयवात्मकस्य चाऽन्योन्यनिमित्तकस्य जिज्ञासायां चतथादि-प्रथमादिविकल्पानामेव प्रवृत्तेः । तथाहि - क्रमेण धर्मद्वयं गुणप्रधानभावन प्रतिपादने प्रथमद्वितीयभङ्गी, क्रमेण प्राधान्येनाऽभिधित्सायां प्रथम-द्वितीयसंयोगनिष्पन्नः तृतीयः, युगपत् प्राधान्येन विवक्षायां चतुर्थः, एकं विभज्या परश्चा-विभज्याम्णायां प्रधम - चतुनिष्पन्नः पञ्चमः, द्वितीय-चतुर्धसमुपजातः षष्ठो वा, द्रो देशी विभज्य चतुर्धञ्चाऽविभज्य प्रतिपिपादयिषायां प्रथम-द्वितीय-चतुर्थसंयोगोत्पन्नः सप्तमो भङ्ग एव प्रवर्तते । तृतीयादिदेशापादाने पि द्वित्र्यादीनामेकविभाजकोपरागपर्यवसानान्न सप्तमाद्यतिक्रमः, एककरदण्डसंयोगे करद्वयदण्डसंयोगे वा दण्डित्वाविशेषात् । तथाप्यनेकान्त उद्भूतद्वित्वादिविवक्षया स्यादव विशेष' इति चेत् ? तर्हि स्यादेव भङ्गावान्तर भेदाऽपि । अत एव द्वादशारनयचक्रादी श्रीमल्लवादिसूरिप्रभृतिभिः कोटिशो भङ्गा अभिहिता । न चैवं सप्तभङ्गल्याचात इति वाच्यम्, विभाजको पाध्यनतिक्रमात, उपधेयसापें 5प्यपाध्यसायांत्र विभागव्याघात इति तात्पर्यणाह- अत एवेति ।
___ मध्यस्थः शङ्कते - अथेति । का = कीदृशी इयं सप्तभङ्गी ? अत्र प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रमेवोपदर्शयति में घटविशिष्ट पट को माना जाय या पटविशिष्ट घट को माना जाय ? इसमें कोई विनिगमक न होने से भूतल में दोनों को माने जाते हैं फिर भी तथाविध परिणाम में, जो घटादि में रहता है, कोई भेद नहीं होता है । इसी तरह यहाँ घट
वेशिष्ट अवक्तव्यत्व माना जाय या कथंचित अवक्तव्यत्वविशिष्ट नित्यत्व माग जाय ? इस विवाद का कोई समाधान न होने पर भी घट में रहा हुआ वह परिणाम तो एक ही है। अतः आप उसे कथंचित् नित्यत्वविशिष्ट अवक्तव्यत्व कहो या कथंचित् अवक्तव्यत्त्वविशिष्ट नित्यत्व कहो, केवल शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं । अतः नित्यत्व को केन्द्र बनाने पर सात धर्म से अधिक धर्म का अवकाश नहीं है।
ॐ नित्यानित्याप आदि धर्म नातिविशेषात्मक - एकदेशीमत 3e नित्या, इति । व्याख्याकार श्रीमदजी उपर्युक्त विशेपणविशेप्यभावविषयक विनिगमनाविरह दोप का निवारण अन्य विद्वानों के मुख से कराते हैं। अन्य विद्वान मनीपिओं का यह कथन है कि -> 'नित्यानित्यत्व सखंडोपाधिस्वरूप नहीं है, किन्तु जातिविशेषात्मक ही है। जाति सदा के लिए अखंद होती है, सखंड नहीं । अतः कथंचित् नित्यत्वविशिष्टावक्तव्यत्व या कथंचित् अवक्तव्यत्वविशिष्ट नित्यल . ऐसा विशेषणविशेष्यभावविषयक विनिगमनाविरह नहीं है। <-। यह अन्य विद्वानों का कथन है । प्रत्येक वस्तु में उपर्युक्त रीति से जो सात धर्म सिद्ध होते हैं, इनका अवलंबन कर के ही अनेक स्थान में बताई हुई सप्तभंगी की संगति होती है । नित्यत्व को केन्द्र में रखने पर सात धर्म ही संभव है, न तो न्यून और न तो अधिक। इसलिए अन्यत्र भी सप्तभंगी का ही प्रतिपादन किया गया है त्रिभंगी या अभंगी आदि का नहीं ।
सप्तभंगीतश्पपविचार यहाँ यह प्रश्न हो कि -> 'यह सप्तभंगी क्या है ?' जिसके विषय में आप यह लंबा-चौड़ा निरूपण करते हैं ?
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* सप्तमङ्गीस्वरूपप्रकारानम् * | समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कित: सप्तधा वाक्प्रयोग: सप्तभङ्गीति सूत्रम् |
* जयलता एकत्रेति । प्रकृते 'एकत्र बस्तुनी' त्यत्र सप्तम्यर्थो विशेष्यत्वम् । “एकैकधर्मपर्यनुयोगवशादि' त्यत्र पञ्चम्यर्थः प्रयोज्यत्वम् । 'अविरोधेने' ति तृतीयार्थो वैशिष्ट्यरूपमवच्छिन्नत्वम् । “विधिनिषेधयो रित्यत्र सप्तम्यर्थः विषयत्वं, अन्वयश्च तस्य कल्पनापदार्थे । । 'कल्पनये' त्यत्र तृतीयार्थः प्रयोज्यत्वम् । 'म ति सप्तनिधः । मंग्लागा. पर्यापिसा बन्नारचयबोधे साकाङ्क्षत्वात् प्रकृते एक| वस्तुविषयककैकधर्मगोचरप्रश्नप्रयुक्ताविरुद्धव्यस्तसमस्तविधिनिषेधविषयककल्पनाप्रयुक्त-स्यात्पदलाञ्छितसप्तविधत्वपर्याप्तिमवचनप्रयोगः सप्तभङ्गीति श्रीवादिदेवसूरिसूत्रशब्दार्थः ।
___ अन श्रीरत्नप्रभाचार्यकृतव्याख्यालेश एवम् -> "एकत्र जीवादी वस्तुन्यककसत्त्वादिधर्मविषयप्रश्नवशादविरोधेन प्रत्यक्षादि- .. बाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छन्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारः वचनविन्यासः सप्तभङ्गी विज्ञेया । भज्यन्ते भिद्यन्तेऽर्थाः यस्ते भङ्गाः = वचनप्रकाराः । ततः सप्तभङ्गाः समाहृताः सप्तभङ्गीति कथ्यते । नानावस्त्वाश्रयविधिनिषेधकल्पनया शतभङ्गीप्रसङ्गनिवर्तनार्धमेकत्र वस्तुनीत्युपन्यस्तम् । एकत्राऽपि जीवादी वस्तुनि विधायमान-निषिध्यमानानन्तधर्मपालोचनयाऽनन्तभङ्गीप्रसक्तिव्यावर्तनाथमकैकधर्मपर्यनुयोगवशादित्युपात्तम् । अनन्तेष्वपि हि धर्मेषु प्रतिधर्मं पर्यनुयोगस्य सप्तधैव प्रवर्तमानत्वात् तत्प्रतिवचनस्याऽपि सप्तविधत्वमेवोपपन्नमित्येककस्मिन् धर्मे एककेच सप्तभङ्गी साधीयसी । एवञ्चाउनन्तधर्मापेक्षया सप्तमङ्गीनामानन्त्यं यदायाति तदभिमतमेव । एतच्चाञ्ग्रे सूत्रत एव निर्णेष्यते । प्रत्यक्षादिविरुद्धसदायेकान्तविधिप्रतिषेधकल्पनयाऽपि प्रवृत्तस्य वचनप्रयोगस्य सप्तभङ्गीत्वाऽनुषङ्गभङ्गार्थमविरोधेनेत्युक्तम्" <- (प्र.न.त.. ४/१५ रत्ना.अव.)
'प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी'ति दिगम्बरीयलक्षणम् ।
प्रकरणकारो न्यायविशारदस्तु अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे -> "एकत्र वस्तुनि सत्त्वाऽसत्त्वादिसप्तधर्मप्रकारकशाब्दबोधजनकता. पर्याप्त्यधिकरणं वाक्यं सप्तभङ्गीति लक्षणतात्पर्यम् । विरोधस्फूर्ती वाक्यस्याऽबोधकत्देनैव ‘अविरोधेने' त्यस्य गतार्थत्वात् । प्रश्नस्य च क्वाचित्कल्वाच्छिष्यजिज्ञासयेव क्वचिद् गुरोर्जिज्ञापयिषयैव सप्तभङ्गीप्रयोगसङ्गतेः 'प्रश्नवशादित्यस्याऽपि लक्षणे प्रवेशात् । नानावस्तुनि सत्त्वाऽसत्त्वादिचोधकवाक्येऽतिप्रसङ्गवारणाय 'एकत्र वस्तुनी' ति । एकत्र रूपरसादिधर्मसप्तकबोधकेऽतिप्रसङ्गवारणाय 'सत्त्वाऽसत्त्वादी'ति । खण्डवाक्ये तद्वारणाय पर्याप्तिः । प्रमाणसप्तभङ्गीवनयसप्तभङ्गचा अपि लक्ष्यत्वान्न तवाडतिव्याप्तिः । प्रमाणनयसप्तभङ्गयोः पृथक् पृथक् लक्ष्यत्वे तु सकलादेशत्व-विकलादेशत्वे विशेषणे देये । एकत्र बस्तुन्येकपर्यायनिरूपितविधिनिषेधकल्पनामूलसप्तधर्मप्रकारकोद्देश्यशाब्दबोधजनकतापर्याप्त्यधिकरणं वाक्यं सप्तभङ्गी, धर्मिणो देशसर्वभेदेनैकद्विबहुवचनान्ततया चरमपदोन्नीत्या बहुभेदसम्भवेऽपि फलीभूतबोथे सप्तधर्मप्रकारकोद्देश्यताया अक्षतत्वान्नाऽव्याप्तिरित्यपि केचित्'' <- (अ.स.वि.परि. १।श्लो. १४/पृ.१८६) इति विवृतवान् । ___ सप्तभङ्गीतरङ्गिणीकार आशाम्बरो चिमलदासस्तु "प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सति, एकवस्तुविशेष्यकाऽविरुद्धविधिप्रति
<- तो इसका समाधान देने के लिए व्याख्याकार श्रीमद्जी प्रमाणनयतत्त्वालाकालंकार शास्त्र के सूत्र को बताते हैं । इस सूत्र का अर्थ यह है कि - एक ही वस्तु में एक-एक धर्मसंबंधी प्रश्न के सबस, प्रत्यक्षादि प्रमाण का विरोध न हो इस तरह, पृथक् या स्वतंत्र विधि-निषेध की कल्पना से स्यात् पद से युक्त सात प्रकार के बचनप्रयोग के समूह को सप्तभंगी कहते हैं । पाठकों की सुगमता के लिए यहाँ एक ही स्थल पर सात भंग का संक्षेप से निरूपण किया जाता है। (१) घट में कथंचित् = द्रव्यत्व की अपेक्षा नित्यत्व है, (२) कथंचित् = पर्यायत्व की अपेक्षा अनित्यत्व है, (३) क्रमशः द्रव्यत्त्व-पर्यायत्व की अपेक्षा स्यानित्यत्वाऽनित्यत्व है, (४) एक की काल में द्रव्यत्व-पर्यायत्व की अपेक्षा से विचार करने पर घट में 'स्यात्अबक्तव्यत्व धर्म रहना है (५) द्रव्यत्व की अपेक्षा और द्रव्यत्व-पर्यायत्वोभय की अपेक्षा घट में स्याद् नित्यत्व और स्याद् अवक्तव्यत्व धर्म रहता है, (६) पर्यापत्व की अपेक्षा और द्रव्यत्व-पर्यायत्वोभय की अपेक्षा घट में स्याद् अनित्यत्व और स्यात् अवक्तव्यत्व धर्म रहता है (७) क्रमशः पृथक पृथक् द्रव्यत्व और पर्यायत्व नथा युगपत् द्रव्यत्व-पर्यायत्वोभय की अपेक्षा घट में स्याद् नित्यत्व, स्यात् अनित्यत्व और स्याद् अवक्तव्यत्व धर्म रहता है । जिसे इन . धर्मों के विपय में संशय होता है कि - घट सर्वथा नित्य ही होगा ? या अनित्य भी इत्यादि, उस पुरुष को घट में रहे हुए इन ७ धर्मों को जानने की इच्छा उत्पत्र होती है । यह तो स्वाभाविक ही है कि जिस पुरुष को जिन धर्मों की जिज्ञासा होती है वह या तो स्वयं विचारविमर्श कर के
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२३१ मध्यमरपाद्वादरहस्ये ग्यण्डः २ - का.- * सप्तभाया न्यूनत्वे प्रामाण्यम् ** [प्र.न.त.परि.४/सू.१४] । यः खलु प्रागुपदर्शितान् वस्तुनः सप्तधर्मानवलम्ब्य संशेते, जिज्ञासते, ।।
पर्यनुयुइते च तं प्रतीयं फलवती, प्रश्नस्य तुल्योत्तरनिवर्त्यत्वात् । अत एवैकेनाऽपि भड्रेन | न्यूना सतीयं न प्रमाणम्, समलिया हि-Miss जिज्ञासाजन्यानां सप्तानां प्रश्नानामनिवर्तनात् ।
=: =====* जय = षेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वम्'' (स.भ.त.प्र.३) इति सप्तभङ्गीलक्षणं दर्शितवान् ।
___ विधिनिषेधार्पणया प्रतिपयीयं वस्तुनि सप्तव मङ्गाः' इति नियमः प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव सम्भवात, तेषामपि सप्तत्वं सप्तबिधजिज्ञासानियमान. तासामपि च सप्तविधत्वं सप्तधव तत्सन्देहसमुत्सदात, तस्याऽपि सप्तप्रकारकत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्ययोपपत्तेरिति न स्वाश्रय-परस्पराश्रय-चक्रकादिदोषपतिलत्वमित्याशयेनाऽऽह-यः खलु प्रागुपदर्शितान् वस्तुनः सप्तधर्मानवलम्ब्य संशेत इति । तं प्रतीय सप्तभङ्गी फलवती, न त्वसंशितजिज्ञासिनपर्यनुजवन्तं पुरुष प्रत्यपि, हेतुमाह- प्रश्नस्य = पर्यनुयोगस्य, तुल्योनरनिवर्त्यत्वात् = समानप्रकारकप्रत्युत्तरणव निवृनः, अन्यथा 'आम्रान पृष्टः कोविदारागचष्टे भवानि' ति न्यायापात: स्यात् । वस्तुतो न शङ्कादिकं भङ्गप्रयोजकं न तु क्वचिदपि भङ्गे विषयावच्छेदकं, स्वद्रव्यादीनामय तत्त्वस्याऽभियुक्तमतत्वात् ।
अत एव = प्रश्नस्य समानप्रकारकोत्तरनिवर्तनीयत्वादेव, एकेनाऽपि भनेन = सप्तबिधान्यतम भङ्गेन न्यूना सती इयं । । सप्तभङ्गी न प्रमाणम् । हेतुमाह . सप्तेति । अयं भावः सप्त विधसंशयजिज्ञासानिवर्तकशाब्दबोधजनकतापर्याप्तिमद् वाक्यमेव विवक्षित धर्मविषयका पूर्ण बोधकृत । अत एव सप्तमङ्गयात्मकं प्रमाणमित्युन्यते । सप्तविधभङ्गाऽन्यतमभङ्गविकलतायां सत्यां सप्त: विधानपाद्यधर्मविषयकसंशयाना तजन्यसप्तजिज्ञासानां तानसप्तप्रश्नानां च 'एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ती' ति न्यायेन निवर्तने न स्यात् । तादृशसंशयायनिवर्तकत्वं कुतः तत्प्रामाण्यम : इदमे वा भिनत्य नयोपदेशे “सप्तभङ्गयात्मकं वाक्यं प्रमाण पूर्ण. बोधकृत् । स्यातादादपरोल्लेरिय वचो यचैकधर्मगम् ॥ (नयो.लो.६) इति प्रकरणकृद्धिक्तम् । अत्र च विषये साम्प्रदायिकमतभेदतन्निराकरणं तदर्धिभिः तद्वृत्तितोऽवसेयम् ।
कृतं सोपयोगित्वात् सप्तभङ्गीविषयाणि प्रमाणनयतस्वालोकालङ्कारसूत्राणि प्रदश्यन्ते । तथाहि - तद्यथा स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रधमो भङ्गः (प्र.न.त. ४/१५) स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः ।१६।
अपनी जिज्ञासा को शांत करता है, या तो उस विषय के ज्ञाता पुरुष को प्रश्न करता है कि . 'यह वस्तु ऐसी है या नहीं ? इत्यादि । इसी तरह प्रस्तुत उपर्युक्त ७ धर्मों का जिज्ञासु पुरुष भी सप्तभंगी के ज्ञाता को प्रश्न करता है कि . 'घट नित्य है या अनित्य भी ?' इत्यादि । इस तरह प्रश्न करने वाले पुरुष के प्रति सप्तभंगी का ज्ञाता पुरुप सप्तभंगी का प्रयोग कर के उसकी जिज्ञासा का शमन करता है, क्योंकि समानविषयक प्रत्युत्तर से ही प्रश्न का समाधान होना है। जिसे कभी भी 'यट नित्य है या अनित्य ? ऐसी शंका ही नहीं हुई है, उसे उस विषय में जिज्ञासा भी नहीं होती है, तब वह इन सात धर्म के विषय में प्रश्न भी कैसे करेगा ? तथा प्रश्न न करने वाले पुरुष के प्रति सप्तभंगी का ज्ञाता पुरुप सप्तभंगी का प्रयोग क्यों करेगा ? बिना पूछे बोलने वाला मूर्ख समझा जाता है। अतएव उन सात धर्मों के विपय में शंका और जिज्ञासा होने के बाद प्रश करने वाले पुरुष के प्रति ही यह सप्तभंगी सफल है। जिसे स्वप्न में भी इन सात धर्म के विषय में संशयजिज्ञासा नहीं हुई है, वह इन विषय में प्रश्न भी नहीं करता है । अतएव उसके प्रति यह सप्तभंगी सफल नहीं है। कभी गुरुदेव भी वस्तुगत सात धर्मों का बोध कराने के लिये सप्तभंगी बताते हैं - यह ख्याल में रहे ।
६ एक भी भंग से सून्य सप्तभंगी प्रमाण नहीं है अन एव, इति । प्रश्न का समाधान प्रश्न जिस विषय में होता है, उस विषय में प्रत्युत्तर देने से होता है, न कि अन्य विषय में प्रत्युत्तर से । इसलिए जिसे वस्तु के उपर्युक्त सात धर्म के विषय में संशय-जिज्ञासा है और सात धर्म के विषय में आप्त पुरुष को प्रश्न करता है उसके प्रति यदि भाप्त पुरुष एक भी भंग से न्यून सात भंगो का प्रयोग करेगा तब वह सप्तभंगी प्रमाण नहीं हो सकती । प्रमाण से तो संशय जन्य जिज्ञासा का शमन होता है। सात धर्म विषयक प्रश्न करने पर छ या पाँच धर्मसंबंधी जवाब देने पर पुच्छक की पृच्छा का समाधान कैसे होगा ? जिस प्रत्युत्तर से अपने सात प्रश्नों की निवृत्ति न हो, उसे प्रमाण कहना कैसे मुनासिब होगा ? अतः यह सिद्ध होता है कि संपूर्ण सप्तभंगी का
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भ
* अर्पणाविशेषस्य महकारित्वोक्तिः *
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यथा च सामान्यतः शब्दः सर्ववाचकोऽपि संकेतविशेषं सहकृत्याऽन्वयं बोधयति तथेयमपि अर्पणाविशेषसहकृत्वरी सतीति ।
* जयलवध s
| स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः | १७| स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद् विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः || १८ | स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः | १९| स्यान्नास्त्यंव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः | २० | स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादतव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया | युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तम इति । २१२ विधिप्रधान एव ध्वनिरिति न साधु | २२| निषेधस्य तस्मादप्रतिपत्तिप्रसक्तेः |२३| अप्राधान्येनैव ध्वनिस्तमभिधत्त इत्यप्यसारम् | २४| क्वचित्कदाचित्कथञ्चित्प्राधान्येनाञ्प्रतिपन्नस्य तस्वाऽप्रावान्यनुपपत्तेः | २५ | निषेधप्रधान एव शब्द इत्यपि प्रागुक्तन्यायादपास्तम् | २६ | क्रमादुभयप्रधान एवायमित्यपि न साधीयः | २७| अस्य विधिनिषेधान्यतरप्रधानत्वाऽनुभवस्याऽप्यबाध्यमानत्वात् |२८| युगपद्विधिनिषेधात्मनोऽर्थस्याऽवाचक एवाऽसाविति च न चतुरस्रन् |२९| तस्तशब्देनका १० विश्वात्मनोऽर्थस्य बाचकः सन्नुभयात्मनी युगपदवाचक एवं स इत्येकान्ताऽपि | न कान्तः ॥३१ । निषेधात्मनः सह् द्वयात्मनश्चाऽर्थस्य वाचकत्वाऽवाचकत्वाभ्यामपि शब्दस्य प्रतीयमानत्वात् निषेधात्मनस्य वाचकः सन्नुभयात्मनो युगपदवाचक एवाऽयमित्यप्यवधारणं न रमणीयम् । ३३ । इतरथाऽपि संवेदनात् ३४ क्रमाक्रमान्यामु| भयस्वभावस्य भावस्य वाचकश्चाऽवाचकश्च ध्वनिनन्यिथेत्यपि मिध्या १३५ । विधिमात्रादिप्रधानतयाऽपि तस्य प्रसिद्धेः | ३६ | एकत्र वस्तुनि विधीयमान- निषिध्यमानाऽनन्तधर्माऽभ्युपगमेनाऽनन्तभङ्गीप्रसङ्गादसङ्गतैव सप्तभङ्गीति न चेतसि निधेयम् ॥३७॥ विधिनिषेध| प्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामेव सम्भवात् |३८| प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव | सम्भवात् । ३९३ तेषामपि सप्तत्वं सप्तविधतज्जिज्ञासानियमात् |४०| तस्या अपि सप्तविधत्वं सप्तचैव तत्सन्देहसमुत्पादात् ॥ ४६ ॥ तस्याऽपि सप्तप्रकारकत्वनियमः स्वगोवरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोपपत्तेः ॥ ४२ ॥ इति । प्रायशो व्याख्यात्तत्वात् सुगमत्वाच्च हतानि विव्रियन्ते ।
नतु ख्याद्वादे सर्वेषामनन्तधर्मात्मकत्वेन कुतः विशेषधर्मबोधः तदितरधर्मविनिमॅणि सतभायाऽपि भविष्यति । न हि मधुविषसंपृक्तमनं विषं परित्यज्य समधु शक्यं शिल्पिवरेणाऽपि भोक्तुमित्याशङ्कायामाह यथा चेति । सामान्यतः शब्दः एकोऽपि शब्दः सर्ववाचकोऽपि सर्वार्थवाचकोऽपि विशेषतः संकेतविशेषं सहकृत्य संकेतविशेषसाचिव्येन, अन्वयं बोधयति = सङ्केतितार्थविशेषविषयकान्वयबोधं जनयति । तथा इयं सप्तभङ्गी अपि अर्पणाविशेषसहकृत्वरी सती विवक्षाविशेष साहाय्या सती उपसर्जनानुपसर्जनभावेन क्रमाक्रमाभ्यां प्रातिस्विकधर्मगोचरबोधं जनयतीति शेषः । अयं भावः 'सर्वे | शब्दाः सर्वार्धवाचकाः सति तात्पर्ये' इतिप्रवादेनकस्याऽपि शब्दस्य सर्वार्धिवाचकत्वं निसबाधं तथापि प्रतिनियतसंकेतसामर्थ्यात् | प्रतिनियतार्थबोधं जनयति यथा गुर्जरादी चोरशब्दस्य तस्करे द्रविडादौ पुनरोदने प्रतिनियतसङ्केतवशात्प्रतीतिरुपजायते तथेयमपि सप्तभङ्गी एकेनाऽपि भङ्गेन स्यात्पदमहिम्नाऽशेषधर्मं प्रतिपादने समर्थाऽपि भजनाविशेषसहकारेण गौण मुख्यभावेन क्रमिकाक्रमिकविवक्षितधर्मोपरागेण वस्तु बोधयति ।
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प्रयोग करने पर ही वह प्रमाणभूत है, न कि अल्प भंगवाली का ।
संकेत भी शाब्दबोध में सहकारी है
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यथा च इति । यहाँ यह शंका हो कि 'स्यात्पदगर्भित सप्तभंगी से अनंतधर्मात्मक वस्तु के प्रतिनियत धर्म का बोध कैसे होगा ?" तो इसका समाधान यह है कि जैसे एक ही शब्द सर्वार्थ का वाचक होने पर भी जिस व्यक्ति ने जिस अर्थ में संकेत का ग्रहण किया है उस व्यक्ति के प्रति वह शब्द तादृश संकेतित अर्थ का ही बोधक होता है ठीक वैसे ही यह सप्तभंगी विवक्षाविशेष के सहकार से विवक्षा के अनुसार ही आपेक्षिक धर्म का बोध कराती है । यहाँ यह कहना कि "सप्तभंगी तो शब्दविशेष के समूहात्मक है । अतः सप्तभंगी के श्रवण से तो श्रोता को शाब्दबोध होता है । शाब्दबोध में तो शक्तिनियामक होती है, न कि इच्छा । यहाँ तो आपने विवक्षा के सहकार से आपेक्षिक धर्म का बोध होने का कहा है । मगर विवक्षा- अर्पणा भी इच्छाविशेषस्वरूप ही है । इच्छामात्र शाब्दबोध में नियामक नहीं होती है, तो इच्छाविशेषरूप अर्पणा भी कैसे शाब्दबोध में नियामक होगी " - भी ठीक नहीं है । इसका कारण यह है
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२२३३ मध्यमस्यागादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * रत्नाकरावतारिकासंवादः * शाब्दे इच्छाया अनियामकत्वं तु दुर्बलयुक्तिकम् ।
सप्तमीविनिर्मुक्तशब्दमात्रस्याऽबोधकत्वं तु न वाच्यम्, 'विधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधान' इत्यनेनार्पणाविशेषस्थल एव तदनुवर्तनाभिधानात् ।
--- = = * जयलता --- ननु सप्तभङ्गी च शब्दविशेषसमूहात्मिका, शब्दश्च व्याकरणको शादिदर्शितसङ्केतानुसारेणेवाऽर्थ बोधयति. न तु यथाकथञ्चित्रिच्छानुसारेण, शाब्दबोधस्य शब्दानुल्लिखितार्धानवगाहित्वादित्याशङ्कायामाह- शाब्द इति । शब्दजन्यबोधे । इच्छायाः = शब्दानुपस्थापिताबुभोधयिषायाः, अनियामकत्वं = अकारणत्वम्, इति कस्यचित् परस्य वचनं तु दुर्बलयुक्तिकम् । अयं भावः शब्दे द्विविधार्थप्रतिपादनशक्तिः स्वाभाविकी संकेतरूपा च । स्वाभाविकं सहज सामर्थ्य योग्यता परपर्याय, ज्ञानस्य ज्ञेयज्ञापनदाक्तिवन । सङ्केतश्च 'इदमस्य वाच्यमिदञ्चाऽस्य वाचकमित्येवंरूपः वाच्यवाचकयोर्विनियोगः । स यस्य पुरुषादेरस्ति । तं प्रत्येक शब्दस्याऽधंबोधकत्वम् ।
सङ्केते क्वचिद् व्याकरणको दशादिकं नियामकं क्वचिच्च बकुरिच्छाऽपि. कथमन्यथा कोकणादिदेशे पिचादिपदात्ययःप्रभृत्यर्थबोध: स्यात् ? न च स भ्रमात्मक इति वाच्यम्, अस्वलत्प्रतीतेः । न च तत्र शक्त्यभावा-देवाऽबोधकत्वमिति शङ्कनीयम्, तत्रापि शक्तेः महता प्रबन्धेनाऽस्माभिः 'मोक्षरत्नायां अपभ्रंशशब्दशास्त्यनङ्गीकर्तृमतचर्वणपूर्वक व्यवस्थापितत्वात् ।
वस्तुतस्तु प्रकृते स्यात्पदस्य प्रयोगादेव न कश्चिद्दोषः । तदादिपदवत् स्याछब्दस्य स्वातन्त्र्येण बुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिन्नेऽपि शक्तिः, तद्बोधकताया वैचित्र्यादिति किं नश्चिन्त्रम् ? अस्माकं स्याद्वादिनां नित्यानित्यायनेकान्तक्रोडीकरणं विना व्यवहारमात्रस्याऽयोगाच्छब्दत्वावच्छेदेन नित्याऽनित्याद्यनेकान्तात्मक एव शक्तिग्रहात् आद्यन्युत्पत्त्यनुरोधेन जीवादिपदस्यापि नित्यानित्याद्यनेकान्तात्मकजीवाद्यर्थ एव शक्तिर्गृह्यते इत्यानुभाविका शक्तिः । तथाऽनुभवजननेऽनेकान्तवाचकस्यादादिपदापेक्षणात् केवलजीवादिपदाजीवाद्यर्थोपस्थितिमात्रम, अनेकान्तात्मकजीवाद्यानुभवस्तु स्यात्पदसंयोगादिति सर्वं चतुरस्रम् ।
नन्येवं सप्तभङ्गीबाह्यशब्दानामर्थबोधजनकत्वं न स्यादित्याशङ्कायामाह - सप्तभङ्गी विनिर्मुक्तशब्दमात्रस्य = सप्तभङ्गीबहिर्भूतशब्दत्वावच्छिन्नस्य, अबोधकत्त्वं = शाब्दबोधाऽजनकत्वं, तु न बाच्यम् । हेतुमाह - विधीति । संपूर्ण सूत्रं त्वेवम् । "सर्वत्राऽयं ध्वनिर्विधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः सप्तभङ्गीमनुगच्छति'' (प्र.न.त.परि.४/सू.१३)
यद्यपि रत्नाकरावतारिकायां तद्विवरणश्चैवम् -> इह यथैवान्तर्बहिर्वा भावराशिः स्वरूपमाबिभर्ति तथैव तं शब्देन प्रकाशयतां प्रयोक्तृणां प्रावीण्यमुपजायते । तं च तथाभूतं सप्तमङ्गीसमनुगत एव शब्दः प्रतिपादयितुं पटीयानित्याहुः विधीति । सदसन्नित्यानित्यादिसकलैकान्त-पक्षविलक्षणानेकान्तात्मके वस्तुनि विधिनिषेधविकल्पाभ्यां प्रवर्तमानः शब्दः सप्तभङ्गीमङ्गीकुर्वाण एव प्रवर्तत इति भावः <- (रत्ना. अव.५/१३) इति तथापि विधिप्रतिषेधाभ्यामिति विशेषणोपादानेन ताभ्यां विनिर्मुक्तस्य शब्दस्य सामान्यतः स्वार्थबोधकत्वमव्याहतमेव । सुस्पष्टश्च सप्तभङ्गीबाह्यशब्दानां वाचकत्वं "अर्थप्रकाशकत्वमस्य स्वाभाविकं प्रदीपवद् यथार्थायधार्थत्वे पुनः पुरुषगुणदोषावनुसरतः" (प्र.न.त. ४/१२) इति प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रे तद्व्याख्यायाञ्च । ततो युक्तमुक्त अर्पणाविशेपस्थल एव तदनुवर्तनाभिधानादिति ।
कि सामान्यतः इच्छा शाब्दबोध के प्रति कारण न होने पर भी यहाँ अन्वय-व्यतिरेक से उसमें शाब्दबोधकारणता का प्रत्यक्ष से अनुभव होने की वजह इसका अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष सबसे बलवान् प्रमाण है। अतः प्रत्यक्ष के अनुसार । ही नियम की कल्पना करनी चाहिए । जहाँ भी प्रत्यक्ष का विरोध आदि उपस्थित हो वहाँ नियम में भी संकोच करना आवश्यक होता है । यह तो सब विद्वान् पुरुषों को मान्य है। अतः सप्तभंगी स्थल के अनुरोध से अर्पणारूप इच्छाविशेष में शाब्दबोध की कारणता का स्वीकार करना ठीक ही है। मगर इसका अर्थ यह तो नहीं है कि . 'सप्तभंगी से अतिरिक्त शब्दमात्र (सब शब्द) अर्थ का बोधक नहीं होगा',. क्योंकि प्रमाणनयतवालोकालंकार के चतुर्थ परिच्छेद के १३ वें सूत्र में कहा गया है कि - 'सर्वत्र शन्द विधि-प्रतिषेध के द्वारा स्वार्थ (अपने अर्थ) को कहता हुआ सप्तभंगी में प्रवृत्त होता है। इस सूत्र में ऐसा नहीं कहा है कि शब्द अपने अर्थ का बोध कराता हुआ सप्तभंगी में प्रवृत्त होता है, मगर 'विधि-प्रतिषेध के द्वारा ऐसा कहा है। इससे सिद्ध होता है कि अर्पणाविशेषस्थल में ही शान्दवोध के प्रति इच्छा के अनुसरण का विधान १. देखिये दिश्यदर्शनट्रस्ट प्रकाशित भाषारहस्यप्रकरण - पृ.८८
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* न्यायभूषणकारप्रभृतिमतखण्डनम् * अत्र च स्यान्नित्यत्वादिषु सप्तषु भईषु एवकारोऽवधारणार्थोऽन्यथाऽनुक्तसमत्वाऽऽपातात् । स्यात्यदं तु तत्तदवच्छेदकरूपपरिचायकम, तदपरिचये सांकर्यादिशङ्काऽनिवृत्तेः ।
==* जयलता - नन्वत्र प्रत्येक भङ्ग एवकारोपादानं किमर्थं ? साहित्य जीवः' इत्यादिक यास्वित्वाकायामाह- अत्र चेति । सप्तमनेषु चेति । स्यान्नित्यत्वादिषु सप्तसु भङ्गेषु एवकारः अवधारणार्थः = अनभिमतधर्मव्यावृत्तिपूर्व आपेक्षिकधर्मविनिश्चयार्थः । विपक्षे बाधमाह-अन्यथेति । सप्तसु भङ्गेष्वेवपदा प्रयोगे तु, अनुक्तसमत्वापातात् = अनभिहिततुल्यतैव तादृशवाक्यानां प्रसज्येत, प्रतिनियतस्वार्थानभिधानात् । तदुक्तं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके "वाक्येऽवधारणं तावत् अनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्य| थाऽनुक्तसमत्वात् तस्य कुत्रचित्' ॥ (त.श्लो.बा.१।६१५३) इति ।
ननु तथापि 'जीवो नित्य एवेत्यादिकमेवाऽस्तु, किमर्थं स्यात्पदोपादानमित्याशङ्कायामाह- स्यात्पदं त्विति । ‘स्यान्नित्यत्वा| दिषु सप्तसु भङ्गेश्वित्यबाऽप्यनुषज्यते । तत्तदवचंद्रदकरूपपरिचायकमिति । नित्यत्वाद्यवच्छेदकीभूतद्रव्यत्वादिपरिचयजनकम् । | परिचेयस्थितिश्च न परिचायकस्थित्यधीनति व्यवहारे क्वचित्तदप्रयोगेऽपि न क्षतिः, सामर्थ्यात् तत्प्रतीतेः । तदुक्तं तत्वार्थश्लोकवार्तिके सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञः सर्वत्राऽर्थात्प्रतीयते । यधैवकारोऽयोगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः ।। (त.श्लो.वा. श६५६) इति । तत्तद
परिचये का क्षतिरित्याशायामाह- तदपरिचये प्रतिनियतस्त्रावच्छेदकधर्मानवबोधे, सांकर्यादिशाऽनिवृत्तेः । | संकर-व्यतिकरादिसंशया निवृत्निप्रसङ्गात् । अयं भावः 'नित्य एव जीव' इत्याद्युक्ते जीवस्य मनुष्यत्व-चैत्रत्वादिरूपेणाऽपि | नित्यत्वं प्रसज्येत । ततश्च प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः प्रत्यक्षादिविरोध-संकरादिकं च प्रसज्येताम् । ततः स्यात्पदं प्रयुञ्जते सर्वत्र | प्रामाणिकाः । ततः ‘कथञ्चित् = द्रव्यत्व-जीवत्वादिनैव जीवो नित्यः न तु मनुष्यत्वादिनाऽपि' इत्येवं असंकीर्णाऽबाधित - प्रतिनियतस्वरूपप्रतीतिर्भवेत् ।
एतेन ''यदि खलु भवन्तः खरोष्ट्रसूकरादिकं जिनमिव कदाचिदुपासते, पाषाणपुरीषादिकञ्च गुडदधितक्रादिवद् भक्षयन्ति | तदा न स्यादेकान्तसिद्धिः । को हि जिनस्याऽतिदायो यः खरोष्ट्रादौ नास्त्येव ? को वा खरोष्ट्रादेर्निकृष्टभावो यो नास्त्येव | जिने यतः खरोष्ट्रादिपरिहारेण स एवोपास्यते ? तथा पाषाणपुरीषादीनां को दोषो यो गुडादिषु नास्त्येव, गुडादीनां वा | कोऽतिशयो यः पाषाणादिषु नास्त्येव, यतः पाषाणादिपरिहारेण गुडादीन्येव भक्ष्यन्ते ? अधाऽस्त्येव कश्चिदत्रैवातिशयो यदशादत्रैव प्रवृत्तिरिति न तर्हि सर्वबाऽनेकान्तः'' (न्या. भू.पृ.५५७) इति न्यायभूपणकारप्रलापः परास्तः, जिनोऽपि स्वकेवलज्ञानजिननामकर्मोदयाऽपेक्षया जिनः, न त छाद्मस्थिकज्ञानाद्यपेक्षयापि, अन्यथा सर्वजीवानां जिनत्वप्रसङ्गो जिनस्य वा छद्मस्थत्वप्रसङ्गः संपनीपोत । एवं पाषाणपरीषादीनामपि स्वरूपापेक्षायव पाषाणादिरूपता न तु गडादिपररूपाउपेक्षया । ततो न भोजनार्थिनां | मनुष्याणां पाषागादी प्रवृत्तिप्रसङ्गः । न चैवमेकान्तवादप्रवेशः, सम्यगेकान्ताऽविनामावित्वादनेकान्तस्येत्यसकृदुक्तत्वात् ।
अत एव 'निरङ्कुश ह्यनेकान्तत्व सर्ववस्तुषु प्रतिज्ञानानस्य निर्धारणस्यापि वस्तुत्वाऽविशेषात, 'स्यादस्ति, स्यानास्ती'त्यादिविकल्पोपनिपातादनिर्धारणतात्मकतैव स्यात् । एवं निर्धारयितुः निधारणफलस्य च स्यातपक्षेऽस्तिता स्याच पक्षे नास्तितेति । | एवं सति कथं प्रमाणभूतः संस्तीधकरः प्रमाण-प्रमेय-प्रमातृ-प्रमितिष्वनिर्धारितासूपदेष्टुं शक्नुयात् ? कथं वा तदभिप्रायानुसारिणः
किया जाता है, न कि सामान्यरूप से । सप्तभंगी से रहित लौकिक-व्यावहारिक शब्द से जन्य बोध के प्रति इच्छा की कारणता का स्वीकार नहीं करने में तादृश शन्द में अर्थबोधजनकता के अभाव का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित नहीं होगा।
* सप्तभंगी में एवकार और स्यात्कार का प्रयोजन * अत्र च, इति । सप्तभंगी के प्रत्येक भंग में जो 'एव' शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह अवधारण के लिए किया | जाता है। जैसे कि - 'जीवः स्यात् नित्य एव' इत्यादि में यदि एक्कार का प्रयोग न किया जाय तो जीव में विवक्षित धर्म = द्रव्यत्व की अपेक्षा से नित्यत्व का बोध होने पर द्रव्यत्व की अपेक्षा से ही अनित्यत्व के अभाव का भान नहीं होगा । अत एव इन भंगों में प्रत्येक में एक्कार का प्रयोग किया जाता है, जिससे अनभिमत अर्थ का निषेध होता है। उसका प्रयोग न करने पर तो वस्तु के अनभिमत स्वरूप का निराकरण न होने से वस्तु का प्रतिनियतस्वरूप से अभिधान नहीं होगा । फलतः वस्तु अभिहित = कथित होने पर भी अनभिहित = अकथित के तुल्य हो जायेगी। अतः प्रत्येक भंग में एक्कार का प्रयोग वस्तु के अनभिमत स्वरूप के निराकरणपूर्वक अभिमतवस्तुस्वरूप के निर्णय के लिए आवश्यक
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२३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का..
* पयः तत्त्वसङ्ग्रहसमालोचना *
=* गयलाता न । तदुपदिष्टेऽर्थे निर्धारितरूपे प्रवर्तेरन् ? ऐकान्तिकफलत्वनिर्धारणे हि सति तत्साधनानुष्ठानाय सर्वो लोको नाकुलः प्रवर्तते, !! नान्यथा । अतश्चा निर्धारितार्थं शास्त्रं प्रणयन् मन्तोन्मत्तवदनुपादेयवचनः स्यात्' (ब्र.सू.२२२३३-शं.भा.) इति ब्रह्मसूत्र
शाङ्करभाष्यवचनमपि प्रत्युक्तम्, वस्तुस्वरूपान्यथानुएपच्या स्वपरपर्यायात्मकत्वेन सर्वस्य सर्वात्मकत्वाऽभ्युपगमात् 'अनेकान्तस्या'पि स्यात्कारलांछनेकान्तगर्भस्य अनेकान्तस्वभावत्वात' (सं.त.३।५।२७।६३८.) इति वादमहार्णववचनात | "नासदासीनो सदासीत्तदानीं" (ऋ.मं.सू.१० रात्र-१२१) हति अरवेटवननस्य, 'मचाऽसच्चाऽह्मर्जुन ! (भ.गी.१९१९)
इति भगवद्गीतावचनस्य, 'न बद्धोऽस्मि न मुक्तोऽस्मि' (महोप.६/६८) इति महोपनिषद्वचनस्य, 'नान्तःप्रज्ञो न बहिःप्रज्ञो नोभयतः प्रज्ञो न प्रज्ञानघनो न प्रज्ञो नाऽप्रज्ञः' (सु. ३५ पू ) इति सुवालोपनिषद्वयनस्य, नैव चिन्त्यं न चाऽचिन्त्यं । अचिन्त्यं चिन्त्यमेव च' (अ.बि.उप.६) इति ब्रह्मबिन्दूपनिपद्वचनस्य, 'मुक्तिहीनोऽस्मि मुक्तोऽस्मि, मोक्षहीनो स्म्यहं सदा' (म.उप. ३।२२) इति मैत्रेय्युपनिषद्धचनस्य विरोधपरिहारे भगवतोऽनेकान्तवादस्यैव शरणीकरणीयत्वादिति निन्दामि च पिञ्चामि चेति न्यायापातः ।
यच शान्तरक्षितेन तत्त्वसङ्ग्रहे "तनाऽप्यविकृतं द्रव्यं पर्यायदि सङ्गतम् । ने विशेषोऽस्ति तस्येति परिणामि न तद्भवेत् ।। स्वभावाऽभेद एकत्वं तस्मिन् सति च भिन्नता । कश्चिदपि दुःसाधा पर्यायात्मस्वरूपवत् ।। अगोणे चैवमेकत्वे द्रव्यपर्याययोः स्थिते । व्यावृत्तिमद् भवेद् द्रव्यं पर्यायाणां स्वरूपवत् ।। यदि वा तेऽपि पर्यायाः सर्वेऽप्यनुगतात्मकाः । द्रव्यवत् प्राप्नुवन्त्येषां द्रव्येणैकात्मका स्थितेः ।। ततो नाऽवस्थित किञ्चिद् द्रव्यमात्मादि विद्यते । पर्यायाऽन्यतिरिक्तत्वात् पर्यायाणां स्वरूपवत् ॥ न चोदयव्ययाक्रान्ताः पर्याया अपि केचन । द्रव्यादन्यतिरिक्तत्वान्नद्रव्यनियतात्मवत् ।। ततो निरन्चयो ध्वंसः स्थिरं वा सर्वमिष्यताम् । एकात्मनि तु नैव स्तो व्यावृत्त्यनुगमाविमौ ।। न चोपलभ्यरूपस्य पर्यायानुगतात्मनः । द्रव्यस्य प्रतिभासोऽस्तेि तन्नास्तेि गगनाब्जवत् ।। विविधार्थक्रियायोग्यास्तुल्यादिज्ञानहेतवः । तथाविधार्थसंतशब्दप्रत्ययगोचराः ।।
उदयव्ययधर्माणः पर्याया एव केवलाः । संवेद्यन्ते ततः स्पष्ट नैरात्म्यं चातिनिर्मलम् ।। (त.सं.श्लो.३१२ तथा ३९६ तः ३२४ पर्यन्ताः श्लोकाः)
इत्युक्तं तत्र हि मया "स्यादविकारि हि द्रयं पर्यायैश्च सङ्गतम । अत एव विशेषो स्ति, परिणाम्यप्यतो हि तत् ।।१।। स्वभावाऽभेद एकत्वं तस्मिन् सति च भिन्नता । चित्रज्ञाने यधा दृष्टा तद्वदिह प्रतीयताम् ॥२।।
है। इसी तरह सप्तभंगी के प्रत्येक भंग में 'स्यात् कार का प्रयोग किया जाना है, वह वस्तु के प्रतिनियत स्वरूप के अवच्छेदक = नियामक धर्म का परिचय = ज्ञान कराने के लिए किया जाता है। यदि प्रतिनियत अवच्छेदक धर्म का ज्ञान श्रोता को न हो तब सांकर्यादि दोप का निराकरण नहीं हो सकता । देखिए, 'जीवः नित्य एव' इस तरह स्यात्कारशून्य प्रथम भंग का प्रयोग किया जाय तब श्रोता को इस वाक्य को सुन कर द्रव्यत्व की भौंति पर्यायत्व की अपेक्षा भी जीव में नित्यत्व का बोध होगा एवं 'जीवः अनित्य एव' इस तरह स्यान्काररहित द्वितीय भंग का प्रयोग किया जाय तब श्रोता को इस वाक्य से पर्यायत्व की भाँति द्रव्यत्व की अपेक्षा भी जीव में अनित्यत्व धर्म का बोध होगा। इस परिस्थिति में वस्तु का स्वरूप परस्पर संकीर्ण हो जायेगा । एवं एक ही धर्म की अपेक्षा या निरपेक्षतया नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म का जीव में समावेश का बोध होने से विरोध दोप भी प्रसक्त होगा। ऐसे ही अनेक व्यतिकर, वैयधिकरण्य, संशय आदि भी दोष प्रसक्त होगे, यदि प्रतिनियत अवच्छेदक धर्म का सप्तभंगी से श्रोता को ज्ञान न हो । अतः इन दोपों को दूर करने के लिए प्रत्येक भंग में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग आवश्यक है । स्यात् पद का प्रयोग करने पर 'जीवः स्यात् नित्यः एवं इस भंग से 'द्रव्यत्व की अपेक्षा जीव में नित्यत्व ही है' ऐसा बोध होगा एवं 'स्यात् जीवः अनित्य एवं' इस वाक्य से 'जीव में पर्यायत्व की अपेक्षा अनित्यत्व ही है। ऐसा बोध होगा । परस्पर असंकीर्ण धर्म का बोध होने से अब संकर-विरोध आदि
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* उत्पादादिसिद्धयनुसारेण सप्तभागीभावना *
। अतः
=-* जयतता *कथञ्चिञ्चैवमेकत्वे, द्रव्यपर्याययोः स्थिते । व्यावृत्तिमत कथं द्रव्यं पर्यायाणां स्वरूपवत् ॥३॥ अत्तो हि तेऽपि पर्यायाः सर्वेऽननुगतात्मकाः । द्रव्यं ह्यनुगतं तत्र भेदाभेदस्थितिः ततः ||४|| अत एव नित्यं तत्र द्रव्यमात्मादि विद्यते । पर्यायव्यतिरिक्तत्वात्, तद्विगमेऽप्यनाशतः ||५|| प्रत्यक्षतः प्रमीयेते कुम्भहारोदयव्ययी । सुवर्णाद् व्यतिरिक्तत्वात, सुवर्णञ्चानुवृत्तिमत् ।।६।। ततो निरन्चयो ध्वंस: स्थिरं वा नास्ति किञ्चन । पर्यायद्रव्ययोः स्तो हि व्यावृत्त्यनुगमाविमौ ॥७॥ न चोपलभ्यरूपस्य पर्यायानुगतात्मनः । आत्मन उगलम्भो नास्ति तनोऽस्ति प्रतिपन्नवत् ।।८।। विविधार्थक्रियायोग्यास्तुल्यादिज्ञानहेतवः । तथाविधार्थसङ्केतशब्दप्रत्ययगोचराः ।।२।। उदयव्ययधर्माणः पर्याया एव केवलाः । न वेद्यन्ते परन्त द्रव्यमध्यभेदभेदतः ॥१५॥ तस्मानार्हति नैरात्म्यं प्रत्यभिज्ञादिचाधतः । तस्मादङ्गीकुरु द्रव्यपर्यायौ पारमार्थिको ॥११॥ इत्येवं प्रतिविधीयते ।
यत्तु भासर्वज्ञेन “यदि भावानामुभयात्मकत्वं स्यात्, तदा स्वरूपेणैव घटश्चाऽघटश्च स्यात् । पररूपेणाऽघटत्वे हि गोणं । तदऽघटत्वं बटुमाणक्कादेरग्नेित्यसिं हत्वादिवत् । अतो गौणं तदुभयात्मकं वस्तु, मुख्यतस्तु स्वरूपेणैव यदात्मकं यत्तदात्मकमेव तत्" (न्या. भू.पृ.५५९) इत्युक्तं, तन्न मनोरमम्, न हि स्वरूपाऽपेक्षयाऽपितुः दशरथस्य रामापेक्षयाऽपि पितृत्वं गौणमेव, न तु मुख्यमिति वक्तुं शक्यते, अन्यथा सापेश्वधर्माणामुच्छेदः काल्पनिकत्वं वा प्रसज्येत । न परद्रव्याद्यपेक्षमाऽघटत्वमपि स्वद्रव्याद्यपेक्षया घटत्ववन्मुख्यमित्युपगन्तव्यम् । न ह्ययं नियमो यदुत स्वरूपेणैव मुख्यधर्मः पररूपेण तु गौण एवेति. अन्यथा पररूपेणैव मख्यधर्मः स्वरूपेण त गौण एवेति वदतो मखस्याऽपि पिधातमशक्यत्वादिति दिक।
इदं त्वच - स्यात्पदात एकान्तबद्रिावलक्षणबद्धविशषविषयतावच्छदकत्वेनव अनन्तधर्मघटितसप्तभङ्गीबोधेऽपि प्रातिस्विकरूपेण तद्वोधनार्थं विशेषप्रयोगोऽवश्यमाश्रयणीयः । यथा वृक्ष इत्युक्ते वृक्षत्वेन प्लक्षचोधेऽपि प्लक्षत्वेन तद्बोधार्थ विदोषप्रयोग
आश्रीपत इति । इदमेवाऽभिप्रेत्योक्तम् - "स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्याऽवबोधने । शब्दान्तरप्रयोगोत्र विशेषप्रतिपत्तये ॥" | स्याच्छब्दस्य द्योतकत्वे तु न्यायप्राप्त एवाऽस्त्यादिशब्दप्रयोगः इत्यादिकं स्वसमयानुसारेण विभावनीयम् ।
सम्मतितर्कवत्यादौ त ततीय-चतर्थभङ्गयोः विपर्ययोऽपि दश्यते । श्रीचन्द्रसरिभिः उत्पादादिसिद्धिस्वोपजवन्ती सप्त || भलीभावना -> "तत्र यदा द्रव्यस्य प्राधान्यविवक्षा क्रियते तदा 'स्यादस्तीति कथ्यते, विवक्षितपर्यायरूपतया कार्यस्याऽभावेऽपि द्रव्यरूपतया सच्चात । यदा पर्यायाणां प्राधान्यविवक्षा क्रियते तदा 'स्यान्नास्ती'ति कथ्यते, द्रव्यरूपतया कार्यस्य सत्त्वेऽपि तद्विधपर्यायाऽपेक्षया असत्त्वात् । यदा त युगपदभयप्राधान्यविवक्षा क्रियते तदा 'स्यादवक्तव्यमिति व्यपदिश्यते । तथाहि - | तत्सदिति वक्तुं न शक्यते, द्रव्यरूपतया सत्त्वेऽपि पर्यायरूपतया सत्त्वात् । 'असदित्यपि वक्तुं न शक्यते, पर्यायरूपतया सत्त्वेऽपि द्रव्यरूपतया सत्त्वात् । ततः तस्य सच्छब्देनाइसच्छब्देन वा युगपत्प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् अवक्तव्यम् । यदा परनिरपेक्षं इन्यरूपतया सत्त्वं पर्यायरूपतया चाऽसत्त्वं स्वात्मनिमग्नमेव विवक्ष्यते तदोभयावयवापेक्षया 'स्यादस्ति स्यान्नास्ति चेति व्यपदेशः प्रवर्तते, भेदमबलम्ब्योभयशब्दसमावेशेन तस्य प्रतिपादयितुं शक्यत्वात् । द्रव्याकारार्पणद्वारेण सत्त्वेनोक्ताऽवक्तव्यस्वरूप| निरूपणेन चोपदेशे ‘स्यादस्ति च नास्ति चाऽवक्तव्यञ्चेति सप्तभङ्गी" <- (उत्पा.सि.का.९ वृ.) इत्यादिरूपेण कार्यसत्त्वासत्त्व|| विधिप्रतिषेधकल्पनाद्वारेण प्रदर्शिता ।।
प्राचां प्रलपितं लीलया निराकृत्य साम्प्रतम् । नव्यानां जटिलां वार्च पराणेतुं समुद्यतः ।।१।।
अथ 'स्यादस्ति एव घटः' इत्यादी अस्तिशब्दवाच्यादर्धादभिन्नस्वभावो घदशब्दवाच्योऽर्थस्स्यात् आहोस्वित् भिन्नस्व| भावः ? इति द्विपक्षी राक्षसी प्रत्यक्षीबोभवीति । आये तु घटशब्दार्थो-स्तिशब्दार्थश्चक एवेति सामानाधिकरण्य-विशेषणविशेष्यभावादिकं | न स्यात् । 'घटः कलश' इत्यादिसामानाधिकरण्याद्यभाववत्, तदन्यतरपदाऽप्रयोगप्रसङ्गश्च दुर्निवारः । किञ्च सत्त्वाऽपराऽभिधान| स्याऽस्तित्वस्य सर्वद्रव्यपर्यायच्यापितया तदभिन्नस्वभावस्य घटस्य तथात्वं प्राप्तमिति समग्रविश्वस्य घटत्वप्रसङ्गः । द्वितीये त्वाह
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दोष का अवकाश नहीं है। अतः सप्तभंगी के प्रत्येक भंग में एवकार और स्यातपद का निवेश उचित एवं आवश्यक है, निरर्थक नहीं।
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२३७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * व्यधिकरणधर्मस्याऽवच्छेदकत्वविचार: *
बनु 'स्थादस्तेि स्यानास्ती'त्यादिसप्तभयां घटत्वादिना घटास्तित्वं कथं विधीयतां ? अस्तित्वत्वेनैव तदविधानसम्भवात् । पटत्वादिना वा पदाऽस्तित्वं कथं प्रतिषिध्यता ? व्यधिकरणधर्मावच्छिमाऽभावस्याऽप्रामाणिकत्वात् ।
-----------------..-:-:--....... .--._* जयलता * नन्विति । अयं दीर्घः पूर्वपक्षः तृतीयचेत्पन्दपर्यन्तं बोध्यः, तदनु 'मैवमित्यनेनोत्तरपक्षप्रारम्भ इत्यवधेयम् । स्यादस्ति = स्यादस्त्येव घटः, स्यान्नास्ति = 'स्यानास्त्येव बटः' इत्यादिसप्तभङ्गयां घटत्वादिना धर्मेण घटास्तित्वं = घटप्रतियोगिकास्तित्वं, कथं विधीयतां ? नैवेत्यर्थः काकुन्यायेन व्यज्यते । तर्हि केन धर्मेण तदस्तित्वविधानं सम्भवेदित्याशङ्कायामाह - अस्तित्वत्वेनैव = घटप्रतियोगिकास्तित्वनिष्ठास्तित्वत्वधर्मेणैव, तद्विधानसम्भवात् = घटास्तित्वविधानस्य शक्यत्वात् । एक्कारेण घटत्वादिव्यवच्छेदः कृतः । अयमत्र नन्वभिप्रायः घटास्तित्वं तु घटाद्भिन्नमिति द्वितीयपक्षकक्षीकरणे घटत्वधर्मो विधीयमानाऽस्तित्वस्य प्रतियोगिनि घटे वर्तेत, न त घटास्तित्वे । विधेयवृत्तिधर्मेणैव विधानं सम्भवति न त विधेयावृत्तिधर्मेणाऽपि, अन्यथा पटत्वेनाऽपि घटास्तित्वं विधीयेत । न चैवं भवति । ततः पटत्ववत् घंटत्वस्याऽपि विधीयमानाःस्तित्वावृत्तित्वेन न घटत्वेन तद्विधानं शक्यं किन्तु बटास्तित्वत्वनव, तस्य विपत्तित्वात् ।
पटत्वादिना धर्मेण वा घटास्तित्वं = बटप्रतियोगिकसत्त्वं, कथं प्रतिपिध्यता ? नैवेत्यर्थः । हेतुमाह - ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाऽभावस्य - प्रतियोग्यवृत्तिधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकाऽत्यन्ताभावस्य, अप्रामाणिकत्वात् = प्रमाणबाधितत्वात् ।
अयं नन्वभिप्रायः प्रतियोग्यवृत्तिश्च धर्मो न प्रतियोगितावच्छेदको भवति । अतः तदविच्छिन्ना प्रतियोगिताऽप्यप्रसिद्धा भवति । | अत एव तन्निरूपकोऽत्यन्ताभावोऽपि वन्ध्यास्तनन्धयवदप्रसिद्धो भवति । अत एव ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नात्यन्ताभावस्या प्रामाणिकत्वं गीयते । न च प्रतियोगितायाः स्वाश्रयाऽवृत्तिधर्मानवन्छिन्ने किं मानमिति वक्तव्यम्, 'प्रतियोगिता स्वाश्रयाऽवृत्तिधर्मा. नवच्छिन्ना, प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टवैशिष्ट्याऽवगाहिबुद्धित्वावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यतापच्छेदकप्रकारतावच्छेदकानुयोगितानिरूपितत्त्वादि'त्यनुमानमेव तत्र मानमिति गृहाण । ततश्च प्रकृतेऽत्यन्ताभावप्रतियोगिनि बटास्तित्वे पटत्वादेरवृत्तित्वेनाऽत्यन्ताभावनिरूपितप्रतियोगितावच्छेदकत्वं न सम्भवति । अत एव तदवच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकात्यन्ताभावप्रतिपादनपरः द्वितीयभङ्गो प्रामाणिकः । सिद्धे चैवं प्रथमद्वितीयभङ्गयोरप्रामाणिकत्वे तत्संयोगनिष्पन्नाः शेषभङ्गा अपि काल्पनिका एव । ततः नेयं . सप्तभङ्गी प्रमाणमिति फलितम् ।
सामंगी अप्रामाणिक है - दीर्यपूर्तपक्ष र पूर्वपक्षी :- नन. इति । सप्तभंगी का आपने जो निरूपण किया है, वह ठीक नहीं है। वह इस तरह - 'घटः स्यादस्ति' यह सप्तभंगी का प्रथम भंग है, जिससे आप यह विधान करते हैं कि - घटत्वेन घटास्तित्व है। अतः यहाँ घटास्तित्व धर्म विधेय बनता है और घटत्व विधेयतावदक । मगर यह असंगत है, क्योंकि विधेयतावच्छेदक धर्म विधेयनिष्ट ही बनता है । घट और अस्तित्व परस्पर अभिन्न तो नहीं है। अतः घट में रहता हुआ घटत्व धर्म घटास्तित्वरूप विधेय में नहीं रह सकता है । अतएव घटत्वरूप से घटास्तित्व का विधान भी नामुमकिन है। घटास्तित्वरूप विधेय में तो घटास्तित्वत्व नाम
अतः विधेयवत्ति घटास्तित्वत्वरूप धर्म से ही बटास्तित्व का विधान मुमकिन है। अतः घटत्वेन घटास्तित्व का विधान करने वाला प्रथम भंग असंगत है। इसी तरह सप्तभंगी का द्वितीय भंग भी नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि 'घटः स्यानास्ति' इस द्वितीय भंग का अर्थ आपको यह अभिमत है कि - 'पटत्वेन घटास्तित्वं नास्ति' अर्थात् 'पटत्व धर्म से घटास्तित्व का निषेध द्वितीय भंग से किया जाता है। यहाँ निषेध्य है घटास्तित्व, जो अभाव का प्रतियोगी है और प्रतियोगितावच्छेदक है पटत्व । पटत्व पट में रहता है, न कि घटास्तित्वरूप प्रतियोगी में । प्रतियोगितावच्छेदक धर्म तो वही हो सकता है, जो प्रतियोगी में रहता हो । अर्थात् प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्म प्रतियोगिताअवच्छेदक नहीं बन सकता है। अतएच प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता भी अप्रसिद्ध है। अतएव प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिता का निरूपक अत्यन्ताभार भी अप्रामाणिक कहा जाता है। अप्रसिद्ध धर्म का निरूपक कोई भी नहीं बन सकता है। अतएव प्रस्तुत में पटत्वरूप धर्म से घटास्तित्वाभाव का प्रतिपादन करना भी अप्रामाणिक है। इस तरह द्वितीय भंग भी असंगत है। प्रथम और द्वितीय भंग अप्रामाणिक होने से उन दोनों से घटित (= उन दोनों के संयोग से निप्पन) शेष भंग भी अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं। अत: संपूर्ण सप्तभंगी अप्रामाणिक = काल्पनिक है- यह निर्विवादरूप से सिद्ध होता है ।
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२३८
*प्रतियोगितावच्छेदकत्वविचार:* (Zाज च ' पटो माहो' धादिप्रतीतिरंद तत्र मानम्, (A) न चान्चयितावच्छेदकावच्छिमप्रतियोगिताकत्वस्यैव व्युत्पत्तिलभ्यत्वात् कधमत्र घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वलाभ: ?
= == =* जयलता *= स्याद्वादिनः शङ्का (Z) न चैत्यनेन प्रदर्शयति । अन्वयश्चाऽस्य द्वितीयवाच्यमिति पदेन सह । 'घटत्त्वेन पटो नास्ती' - त्याप्रितीतिरेव तत्र = प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावस्य प्रामाणिकत्वे, मानं = प्रमाणम् । अयं स्यावादिन आशयः, घटत्वेनेत्यत्र तृतीयार्थोऽवच्छिन्नत्वम्, अन्वयश्च तस्य नास्तिपदार्थात्यन्ताभावनिरूपितप्रतियोगितायाम् । तस्याश्चाऽन्वयः पटे । अतः घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगितावान् घट इति तत्प्रतीत्याकारः । ततश्च घटत्वावच्छिन्नपटनिष्ठप्रतियोगि- . ताकस्याऽत्यन्ताभावस्य सिद्भिः निराबाधा । अत एव द्वितीयभङ्गस्य प्रामाणिकत्वमव्याहतमिति ।
परकीयशङ्का (A) न चेति अनेन दर्शयति । अन्वयश्चाऽस्य प्रधमवाच्यपदेन साकम् । अन्वयितेति । अयमवान्तरशङ्काकृदाशयः 'भूतले पटो नास्ती'त्यत्र 'भूतलवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगी पट' इत्येवं बोधो जायते । तत्र अन्वेयं प्रतियोगित्वम्, अन्वयी पटः अन्वयितावच्छेदकं च पटत्वम् । अत्र प्रतियोगित्वमन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नमेव भवति न त्वन्वयितातिरिक्तधर्मावच्छिन्नम् । अतः तादशोऽत्यन्ताभावोऽप्यन्वयितादनछेदकावचिन्नप्रतियोगित्वस्य निरूपको भवति । तेन तत्र भूतलवृत्त्यत्यन्ताभावे पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वभानं भवति । अतः नचलेऽन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नायाः प्रतियोगिताया निस इति व्युत्पत्तिः । प्रस्तुते प्रतियोगितान्वयितावच्छेदकञ्च पटत्वं न तु घदत्वं, यतः प्रतियोगिता पटेऽन्वीयते न तु घटे । अन्वयि - | तावच्छेदकधर्मश्चान्वयिवृत्तिर्भबति । अतः प्रतियोगितान्वयितावच्छेदकीभूतघटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताया एव निरूपकत्वमभावे सम्भवति । घटत्वास्छिन्नप्रतियोगिताकल् तु न कुतोऽपि लभ्यते । अतः तेन सम्बन्धेन पटत्वस्यैवात्यन्ताभावे भानं संभवति, | न तु घटत्वस्य । स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंसर्गे गाभाववृत्तिधर्मस्यैव प्रतियोगिताबच्छेदकत्वात् 'घटत्वेन पटो नास्ती त्यत्र पटत्वस्यैव प्रतियोगितावच्छेदकत्वम्, न तु घटत्वस्य । अतो न स्याद्वादिभिः 'घटत्वेन पटो नास्ती'ति प्रतीतिबलेन व्यधिकरणथर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावः साधयितुं शक्यते । कथं अत्र = 'घटत्वेन पटो नास्ती' ति प्रतीतिविषयीभूतात्यन्ताभावे घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वलाभः ? व्युत्पत्त्यनतिक्रमेण शन्दस्य शाब्दबोधजनकत्वनियमात् दतिव्युत्पत्तिमहिम्ना न प्रतियोग्यसमानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभाव: सिध्यतीति ।
* व्यधिकरणयविच्छिन्न अभाव प्रामाणिक होने से द्वितीयादि भंग प्रामाणिक - स्यादादी **
स्याद्वावादी :- न न घटत्वेन, इति । उस्ताद ! आपने यह क्या कह दिया कि प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्म प्रतियोगितावच्छेदक नहीं होता है ? देखिये, 'घटल्वेन पटो नास्ति' यह प्रतीति ही प्रतियोगिताच्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव की साधक है । इसका कारण यह है कि दर्शित प्रतीति में पट प्रतियोगी है और प्रतियोगितावच्छेदक है घटत्व । उपर्युक्त अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता है पट में और प्रतियोगितावच्छेदक है घट में । अतः प्रतियोगिता और प्रतियोगितावच्छेदक परस्पर व्यधिकरण (= एक अधिकरण में अवृत्ति) हैं । प्रतियोगिता स्वावच्छेदक से अवच्छिन्न होती है और अमाव उस प्रतियोगिता का निरूपक होता है-यह तो निर्विवाद सिद्ध है । अतः यहाँ घटत्वरूप व्यधिकरण धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का, जो कि पटवृत्ति है, निरूपक अत्यन्ताभाव सिद्ध होता है। अतः आपने जो कहा है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपक अभाव अप्रामाणिक है - वह वचन ही अप्रामाणिक सिद्ध होता है । अतएव सप्तभंगी का द्वितीय भंग प्रामाणिक सिद्ध होता है ।
घटत्वेज पटो जास्ति' यहाँ पटत्व प्रतियोगितापरोक - अवान्तर भंका शंका:- न चान्न, इति । जनाब ! आपने जो कहा कि -> 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति से घटत्वाच्छिन्न पटनिष्ठ प्रतियोगिता का निरूपक अत्यन्ताभाव सिद्ध होता है - वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है शान्दरोध में यह एक नियम है कि - अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व ही अभावांश में संसर्ग होता है। जैसे कि 'पटो नास्ति' यहाँ अभाव का प्रतियोगी पट है । पट में प्रतियोगिता रहती है। अतः प्रतियोगिता अन्वेय और पट अन्वयी बनता है। पट में रहने वाला धर्म अन्वयितावच्छेदक बनता है । पट में उसी प्रतियोगिता का अन्वय = सम्बन्ध हो सकता है जो अन्वयितावच्छेदकीभूत पटल से अवच्छिन्न = नियन्त्रित है, न कि अन्वयितानवच्छेदक दंडत्वादि से अवच्छिन्न । अतः पटवावच्छिन्नप्रतियोगिता का फ्ट में अन्चय होता है । वह अन्चयितावच्छेदकीभूत पटत्त्व ही प्रतियोगितावच्छेदक बनता है, जो स्वावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्व संसर्ग से अभाव में रहता है, क्योंकि अवयितारच्छेदकीमत पटत्व से अवच्छिन्न प्रतियोगिता
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२३९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * अभावांशे संसर्गविचारः * । इति (A) वाच्यम्, तृतीयान्तपदस्थले एव तल्लिवितधर्मावच्छिमप्रतियोगिताकत्वस्यैव संसर्ग- | त्वात्, अन्यथा 'घटत्वेन कम्बुग्रीवादिमानास्तीति प्रतीतेण्यप्रामाण्यापतेरिति वाच्याम्, (Z)
== = = = ==* गयलता *F= = = = ___ स्याद्वादी अवान्तरशङ्काकर्तुराशयस्याऽश्रद्धेयत्वमाविष्करोति- तृतीयान्तपदस्थले एवेति । एवकारेण प्रथमान्तस्थलव्यवच्छेदः कृतः । तदुल्लिखितधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वस्यैव = तृतीयान्तपदोल्लिखितधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वस्यैव संसर्गत्वात् = तृतीयान्तपदोल्लिखितधर्मसम्बन्धत्वादिति । अयं स्याद्वादिनोऽभिप्रायः, 'फ्टो नास्ती'त्यत्र तृतीयान्तपदोपस्थापितधर्मस्य. विरहात् तत्राऽन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वसंसर्गेण पटत्वस्यात्यन्ताभावे भानं युक्तिमत्, परन्तु तृतीयांतपदसमभिन्याहारस्थले तु तृतीयान्तपदोपस्थापितधर्मावच्छिन्नाभावीयप्रतियोगिताकत्वस्यैव संसर्गत्वम् । अतः घटत्वेन पटो नास्ती' त्यत्र तृतीयान्तपदेनोपस्थापितस्य घटत्वस्य स्वावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वसंसर्गेणाभावांशे भान युक्तिसहमेव ।
विपक्षबाधमुपदर्शयति - अन्यथेति । तृतीयान्तपदोपसन्दानस्थले तृतीयान्तपदवाच्यधर्मावच्छिन्नाभावीयप्रतियोगिताकत्वं बिहायान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्यैवाऽभावांदो संसर्गत्वोपगमे इत्यर्धः । 'घटत्वेन कम्युग्रीवादिमानास्तीति प्रतीतेरप्यप्रामाण्यापत्तेरिति । दर्शितप्रतीतौ कम्बुग्रीवादिमान प्रतियोगी । अतः प्रतियोगिता कम्बुग्रीवादिमति अन्वीयते । अतः अन्वयितावच्छेदकं कम्युग्रीवादिमत्त्वं भवति, अन्वयिवृत्तिधर्मस्यैवाऽन्वयितावच्छेदकत्वनियमात् । अतः अन्वयितावच्छेदकीभूत - कम्बुग्रीवादिमत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्यसम्बन्धनात्यन्ता भावे कम्युग्रोबादिमत्त्वस्यवं भानं सम्भवति, न तु घटत्वस्य । अतः 'घटत्वेन कम्बुग्रीवादिमान् नास्ती'त्यत्र घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं न कुतोऽपि लभ्येतेति तदप्रामाण्यापत्त्याऽजां निष्काशयतः क्रमेलकापातन्यायागमः प्रसक्तः । ततोऽकामेनाऽपि तृतीयान्तपदोपस्थाप्यधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेनाऽभावांशे तृतीयान्तका निरूपक अत्यन्ताभाव है। इसी तरह प्रस्तुत में भी 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति में, प्रतियोगिता पट में रहने से उसका अन्वयितावच्छेदक पटत्व बनेगा। अतः तादृश अत्यन्ताभाव में भी प्रतियोगितान्वयितावच्छेदकीभूत पटत्व से अवच्छित्र प्रतियोगिता का निरूपकत्व रहेगा । अतः पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व ही अभाव में प्रतियोगितावच्छेदक का संसर्ग बनेगा। मगर घटत्व तो उक्त संसर्ग से अत्यन्ताभाव में नहीं रह सकता है। अतएव घटत्व नादश अत्यन्ताभावीय प्रतियोगिता का अरच्छेदक भी नहीं बन सकता है। हाँ, घटत्वावच्छित्रप्रतियोगिताकत्व अभाव में तब रह सकता, यदि यदत्व प्रतियोगिताऽ. चयितावच्छेदक बनता । मगर प्रतियोगी पट में घटत्व नहीं रहने से वह प्रतियोगितान्नयितावच्छेदक नहीं बन सकता । अत एव घटत्व तादृशाभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक भी नहीं बन सकता है । जो स्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्व संबन्ध से अभाव में रहता है, वही तादृश अभावीय प्रतियोगिता का अवच्छेदक होता है - यह नियम प्रसिद्ध होने की वजह 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक भी पटत्व ही है, जो प्रतियोगिता का समानाधिकरण है । इसलिए आपने प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्न अत्यन्ताभाव को सिद्ध करने का प्रयास किया है - वह ठीक नहीं है। अतएव सप्तभंगी का द्वितीय भंग भी अप्रामाणिक सिद्ध होता है। एवं समुची सप्तभंगी ही अप्रामाणिक सिद्ध होती है।
तृतीयांतपोपस्थापित धर्म प्रतियोगितावच्छेदक होता ही है - स्यादादी । स्याद्वादी :- तृतीयांत, इति । हजुर ! आपने 'घटो नास्ति' इस स्थल में पटत्व को अभावनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक कहा वह तो ठीक है। मगर जहाँ तृतीयांत पद का प्रयोग होता है, वहाँ तो तृतीयांत पद से उल्लिखित धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व ही अभाव में संसर्ग बनता है . यह भी एक शाब्दबोधस्थलीय व्युत्पत्तिविशेष है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति में तृतीयांत पद से उपस्थापित घटत्व से अरभिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व तादृश अभाव में मानना आवश्यक है। जैसे 'घटत्वेन घटो नास्ति' यहाँ तृतीयांत पद का समभिन्याहार होने की वजह तृतीयांत पद से उपस्थित घटत्व से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व अभाव में है और वही घटत्व को अभाव में रहने के लिए संसर्ग का भी कार्य करता है, ठीक वैसे ही 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस स्थल में भी तृतीयांत पद का सनिधान होने के सरल तृतीयांत पद से उपस्थित घटत्व से अवभिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व पटाभाव में सिद्ध होता है । अतएव स्वावञ्छित्रप्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से घटत्व पटप्रतियोगिक अभाव में रहता है. यह भी सिद्ध होता है। तब घटत्व को पटनिष्ठ प्रतियोगिता का अवच्छेदक निर्विवादरूप से माना जा सकता है । यदि तृतीयांन पद का सानिध्य होने पर भी तृतीयांतपदोपस्थापित धर्म को अभाबीयप्रतियोगिता का अवच्छेदक न मान कर प्रतियोगितान्वयितावच्छेदक को ही प्रतियोगिताअवच्छेदक माना जाय, तर तो 'घटत्वेन कम्बग्रीवादिमान् नास्ति' यह प्रतीति भी अप्रामाणिक बन जायेगी । इसका कारण
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* अवच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधितिसंवादः
तद्धर्मस्य विशेषणतावच्छेदकतया भासकसामग्रयां एव प्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकत्वात्, पटादौ घटत्वादिभानस्य आवश्यकत्वात् तस्य च प्रमारूपस्याऽसम्भवात् भ्रमस्य च
ॐ जयलता
पदोपस्थापितधर्मान्योऽङ्गीकार्यः । ततः घटत्वेन पटो नास्ती' त्यादी व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावसिद्धिः | नित्हा । अनेन गुरुधर्मस्यापि प्रतियोगितावच्छेदकत्वं प्रामाणिकमिति ध्वनितम्, 'घटत्वेन घटो नास्ती' त्यत्र यथा घटत्वेऽभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वभानमभावे च स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन बटत्वमानं प्रामाणिकं तथैव 'कम्बुग्रीवादि| मत्त्वेन घटो नास्तीत्यत्र कम्बुग्रीवादिमत्त्वेऽत्यन्ताभावप्रतियोगिता वच्छेदकत्व मानस्यात्यन्ताभावे च स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंसर्गेण कम्बुग्रीवादिमत्त्वभानस्यापि प्रामाणिकत्वात् । इदमेवाभिप्रेत्य अवच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधिती "गौरवप्रतिसन्धानदशाया'मपि 'कम्बुग्रीवादिमान्नास्तीति प्रतीतिचलाद गुरुरपि धर्मोऽवच्छेदकः प्रतियोगितायाः " (अव.नि. दी. पू. १२५ ) इत्युक्तम् । ततश्च द्वितीयभङ्गोऽपि प्रामाणिक एवेति फलितमिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ।
ननुवादी मौलपूर्वपक्षी प्रकृतस्याद्वाद्याशयं प्रत्याचष्टे तद्धर्मस्येति । तृतीयांत पदोपस्थापितधर्मस्येति । विशेषणतावच्छेदकतया अभावीयविशेषणतावच्छेदकविधया भासकसामग्रयाः = ज्ञापकसामग्रचाः एव प्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकत्वात् अभावीयविशेषणतावच्छेदकनिष्ठस्य अभावनिरूपित प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य उपलम्भकत्वात् 'घटत्वेन पटो नास्तीत्यादी घटत्वादेः पटादिप्रतियोगिका भावीयप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभ्युपगमे पटादौ घटत्वादिभानस्य = पटस्य स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरू| पितानुयोगितासम्बन्धेन अभाववृत्तित्वेनाऽभावविशेषणीभूत - पटादिनिरूपितवृत्तित्वविशिष्टघटत्वादिज्ञानस्य, आवश्यकत्वात्. अभाबीयविशेषणतावच्छेदकत्वेनाऽज्ञातस्य तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वासम्भवात् । परन्तु तस्य पटादिवृत्तितया घटत्वादिभानस्य, च प्रभारूपस्य = तद्वति तत्प्रकारकत्वविशिष्टस्य असम्भवात् घटत्वादेः पटाद्यवृत्तित्वात् । अस्तु तर्हि भ्रमात्मकमेव तद्वानमित्याशङ्कायामाह् - भ्रमस्य च वस्त्वसाधकत्वात् = वैज्ञानिकसम्बन्धेन घटत्वादिविशिष्टपटादिविषयकज्ञानस्य घटत्वादौ
1=
२४०
| यह है कि उक्त अभाव का प्रतियोगी है कम्बुग्रीवादिमान् । अतः प्रतियोगिता उसमें रहेगी। अतः प्रतियोगिता का अन्वयितावच्छेदक बनेगा कम्बुग्रीवादिमत्त्व । तादृश अन्वयितावच्छेदकीभूत कम्बुग्रीवादिमत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से घटत्व तो तादृश अत्यन्ताभाव में नहीं रह सकता है । अतः तादृश प्रतियोगिता का अवच्छेदक घटत्व नहीं बनेगा, किन्तु कम्बुग्रीवादिमत्त्व होगा मगर कम्बुग्रीवादिमत्त्व गुरुभूत होने से प्रतियोगितावच्छेदक नहीं होता है - यह तो आपका मूल सिद्धांत है । अतः फलतः तादृश प्रसिद्ध प्रतीति को भी अप्रामाणिक माननी पड़ेगी, जो आप नैयायिक महाशय को इष्ट नहीं है । अतः उपर्युक्त प्रतीति के प्रामाण्य का निर्वाह करने के लिए तृत्तीयतपदसमभिव्याहार स्थल में तृतीयांतपदवाच्य धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व अभाव में मानना आवश्यक है । तब तो घटत्वेन पटो नास्ति' यह प्रतीति भी उपदर्शित पद्धति से प्रामाणिक होगी, जिसके फलरूप में प्रतियोगिताव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव की सिद्धि हो जायेगी । इस परिस्थिति में सप्तभंगी के द्वितीय भंग का प्रामाण्य भी अबाधित रहेगा।
* प्रभावविशेषणतावच्छेदकत्व और अभावप्रतियोगितावच्छेदकत्व की ज्ञापक सामग्री एक पूर्वपक्ष
पूर्वपक्षी :- तद्धर्मस्य इति । स्याद्वादी महाशय ! आपने उपर्युक्त रीति से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को सिद्ध करने का प्रयास किया है, वह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि प्रतियोगिताव्यधिकरण धर्म में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व का भान नहीं होता है । यह एक अकाट्य नियम है कि जिस सामग्री से जिस धर्म में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व का भान होता है उसी सामग्री से उसी धर्म में अभावीयप्रतियोगितावच्छेदकत्व का भान होता है । यह नियम इस तरह स्पष्ट हो जायेगा । देखिये, 'घटो नास्ति' इस प्रतीति में घट है प्रतियोगी और अभाव है अनुयोगी अतः घट में प्रतियोगिता और अभाव में अनुयोगिता रहती है । प्रतियोगिता और अनुयोगिता परस्पर सापेक्ष होने से एक-दूसरे से निरूपित बनती है । अनुयोगी विशेष्य बनता है और प्रतियोगी विशेषण । अतः पट स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपितानुयोगितासंबंध से अभाव में रहता है । तादृश संबंध से घटविशिष्ट अभाव बनता है । विशेषण में रहने वाला धर्म विशेषणतावच्छेदक कहा जाता है । अतः यहाँ विशेष्यभूत अभाव के विशेषणरूप घट में रहने वाला घटत्व अभावविशेषणतावच्छेदक कहा जाता है । घटप्रतियोगि काभावनिरूपितप्रतियोगिता का अवच्छेदक होता है । अतः घटत्व धर्म में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व की भासक सामग्री ही घटत्वरूप धर्म में अभावप्रतियोगितावच्छेदकत्व की भासक = ज्ञापक होती है। अब 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि
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* विप्रतिपत्तिप्रकाशनम् *
२४१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ वस्त्वसाधकत्वाद, घटत्वादेः घटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वात्, घटत्वादेः पटादिप्रतियोगि
* गयलता है
। पटादिप्रतियोगिका भावीय प्रतियोगितावच्छेदकत्वसाधनेऽप्रत्यलत्वात् । किं घटत्वादेः नैव कस्याश्चित्प्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वमित्याशङ्कायामाह - घटत्वादेः घटाद्यभावविशेषणी भूतघटादिनिष्ठतया घटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वात्, एकत्र विशेषणतया - न्वितस्याऽन्यत्र विशेषणत्वायोगात् घटादिविशेषणीभूतस्य घटत्वादेः पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वाऽसिद्धेरिति । अयं मूलपूर्वपश्चिणोऽभिप्रायः प्रतियोग्यवृत्तिर्धर्मः प्रतियोगितावच्छेदको भवितुं नार्हति किन्तु अभावविशेषणीभूतप्रतियोगिविशेषणीभूतधर्म एवात्यन्ताभावीयप्रतियोगितावच्छेदको भवितुमर्हति विद्यमानं सदूष्यावर्त्तकं विशेषण विशेषणवृत्ति च विशेषणतावच्छेदकं भवतीत्यत्र न काऽपि विप्रतिपत्तिः किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकं प्रतियोगिवृत्त्येव न वा ? इति विप्रतिपत्तिस्त्र । विधिकोटि: ननुवादिनः निषेधकोटिश्च स्याद्धादिनः । किन्तु विधिकोटिरेवाऽङ्गीकर्तुमर्हति यतः अभावविशेषणतावच्छेदकत्वाभावप्रतियोगितावच्छेदके समानवित्तिवेद्ये एकसामगीग्राये । यथा 'घटो नास्तीत्यत्र स्ववृत्तिप्रतियोगितानिरूपितानुयोगितासम्बन्धेनाऽभावविशेषणीभूतघटविशेषणतया ज्ञातस्य घटत्वस्यैव तदभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वम् यतः समकालमेव घटत्ववृत्तितया अभावस्य विशेषणतावच्छेदकत्व - प्रतियोगितावच्छेदकत्वे ज्ञायेते । यत्र चाभावविशेषणतावच्छेदकत्वं न ज्ञायते तत्राऽभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वमपि नावबुध्यते । 'घटत्वेन पटो नास्तीत्यादौ यदि घटत्वादेः पदादिप्रतियोगिकाभावीय प्रतियोगितावच्छेदकत्वमभिमतं तर्हि अभाव| विशेषणी भूतपटादिवृत्तित्वेन तद्भानमावश्यकम् । भवत्येवेति चेत् ? तर्हि अत्र विमलविकल्पयुगली समवतेतीयते तद्भानं प्रमात्मकं यदुत भ्रमात्मकं भवति ? नाऽऽयः क्षोदक्षमः घटत्वादेः घटादिवृत्तित्वेन पटादिवृत्तित्वेन तत्प्रमाया असम्भवात् । नाऽपि द्वितीयः मतिमतां रतिप्रीतिदायी, तदभाववति तत्प्रकारकत्वविशिष्टरूपस्य भ्रमस्य वस्तुसिद्धिकृतेऽसमर्थत्वात्, अन्यथा त्रैलोक्यमदरिद्रतामविकलामञ्चैत । इदमेवाभिप्रेत्य व्यधिकरणदीधिती "विशेषणतावच्छेदकविशिष्टज्ञानस्य विशिष्टवैशिष्ट्यप्रत्ययहेतुत्वात्, अभावप्रत्ययो हि घटत्वादिविशिष्टस्य घटादेः प्रतियोगित्वमवगाहमानो विशेषणस्यापि घटत्वादेः तदवच्छेदकत्वमवगाहते, न स्वातन्त्र्येण 'घटी नास्तीत्येव प्रतीतेः । तदिहाऽभावप्रत्ययो यदि व्यधिकरणेन धर्मेण विशिष्टं प्रतियोगिनं नावगाहते नावगाहते एव तदा तस्यापि प्रतियोगितावच्छेदकत्वम् । अथाऽवगाहते तर्हि भ्रम एव न हि ततोऽर्धसिद्धिरिति भवि: " <- (व्य. दी. पृ. २७६ ) इत्युक्तम् ।
+
वस्तुतस्तु घटत्वादेः घटादिवृत्तित्वेन घटादिवृत्ति प्रतियोगितावच्छेदकत्वमेव । घटत्वादेः घटादिप्रतियोगिकात्यन्ताभावविशेषणतावच्छेदकत्वादेव पदादिप्रतियोगिकात्यन्ताभावीय प्रतियोगितानवच्छेदकत्वमेव । अतो न 'घटत्वेन पटो नास्ती' त्यादौ पटाद्मभावप्रतियोगिता स्वव्यधिकरणी भूतघटत्वादिधर्मावच्छिन्ना संभवति । अतः प्रतियोगिताव्यधिकरण धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावस्याप्रामाणिकत्वमेवेति सिद्धम् । अत एव द्वितीयभङ्गस्याऽप्यप्रामाण्यं न केनाऽपि दूरीकर्तुं शाशक्यते । इत्थमेव सकलाप सप्तभङ्गी अप्रामाणिकीति सिध्यति ।
स्थल में यदि घटत्व को ही पटप्रतियोगि काभावनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक माना जाय तो उपर्युक्त नियम के अनुसार घटत्वादि का पटादिप्रतियोगिक अभाव के विशेषणता अवच्छेदकविधया भान मानना आवश्यक है। अर्थात् अभाव के विशेषणीभूत पटादि में घटत्वादि धर्म का भान मानना आवश्यक है, क्योंकि घटत्वादि धर्म में पटादिप्रतियोगिक अभाव के प्रतियोगितावच्छेदकत्व के भान की सामग्री और पटादिप्रतियोगिक अभाव के विशेषणतावच्छेदकत्व के ज्ञान की सामग्री एक ही है । दोनों की सामग्री एक ही होने की वजह घटत्वादि में अभावविशेषणतावच्छेदकत्व के ज्ञान के लिए अतिरिक्त कारण की अपेक्षा तो है ही नहीं । मगर घटत्वादि में पटादिप्रतियोगिकाभावविशेषणतावच्छेदकत्व का ज्ञान प्रमात्मक होना तो नामुमकिन है, क्योंकि | अभाव के विशेषणीभूत पटादि में घटत्वादि नहीं रहता है। विशेषण में न रहने वाला धर्म विशेषणतावच्छेदक कैसे बन सकता है ? अतः घटत्वादि का अभावविशेषणीभूत पटादि के विशेषणरूप से भान प्रमात्मक नहीं हो सकता । हाँ, भ्रमात्मक तादृश बोध हो सकता है कि 'घटत्वादि अभावविशेषणीभूत पटादि में रहता है' । मगर भ्रम तो वस्तुसाधक नहीं होता है । अतः तादृश भ्रमात्मक बोध से घटत्वादि में पटादिप्रतियोगिकाभाव का विशेषणतावच्छेदकत्व या प्रतियोगितावच्छेदकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । घटत्वादि तो घटादि में रहते हैं । अतः घटादिप्रतियोगिक अभाव के विशेषणतावच्छेदक बनने के सबब घटत्वादि घटादिप्रतियोगिकाभाव के प्रतियोगितावच्छेदक बन सकते हैं। मगर पटादिप्रतियोगिक अभाव का प्रतियोगितावच्छेदकत्व तो घटत्वादि में नामुमकिन ही है, क्योंकि पटादिअभाव का विशेषणतावच्छेदक घटत्वादि नहीं बन सकता है यह प्रतिपादन हम ऊपर कर चुके हैं। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि “व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव समानाधिकरण
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* अवच्छंदकत्वांशेऽभ्रमत्वाऽऽवासापराकरणम् * | तावच्छेदकत्वाऽसिन्दः अतिरिक्ताभावकल्पने गौरवाच्च ।
एतेन 'पटादी घटत्वादिवैशिष्ट्यांशभाने भ्रमत्वेऽपि घदत्वादी पदादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वांशे बाधकामावादमत्वमिति निरस्ताम् ।
=- =-* जयलवा *s ननु 'घटत्वेन पटो नास्ती'त्याद्यचाधितप्रतीतिबलेन प्रतियोगित्वसमानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावात् ब्यधिकरण'धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो विलक्षण एवास्तु । तद्भर्मस्य विशेषणतावच्छेदकत्वेन भासकसामग्रचा एवं प्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकत्वनियमस्त समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभानस्थले एव प्रबनते । अत एव न नादानियम्भङ्गो न बा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावस्था प्रामाणिकत्वमिति सोऽमृतिदण्डाभङ्गन्यायागम इत्याशङ्कायामाह- अतिरिक्ताऽभावकल्पने गौरवाचेति । समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाद् ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्याऽतिरिक्तत्वकल्पनायां गौरवाचेत्यर्थः । चकारेण तादृशनियमसंकोचे मानाभावाचेत्युपदर्शितं भवति । यद्धा समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्यैव प्रसिद्धत्वात् अदृष्टपूर्वस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य कल्पनायां गौरचमपि दुर्निवारमित्यर्थः कार्यः । ततो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाऽप्रामाण्यमूलकद्वितीयादिभङ्गाऽप्रामाण्यमेव प्रागुक्तरीत्या प्रथमभङ्गस्याऽप्यप्रामाण्यमिति स्थितमिति ननुवादिनोऽभिप्रायः ।
एतेनेति । तद्धर्मस्य विशेषणतावच्छेदकविधया भासकसामग्रन्या एवं प्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकवनियमेनेति । अन्वयश्चास्य 'निरस्तमि' त्यनेन । 'घटत्वेन पटो नास्ती' त्यादिप्रतीती पटादी घटत्वादिवैशिष्ट्यांशभाने = 'घटत्वादिमान् पटादि' रित्येवं विदिष्टत्वांशे. भ्रमत्वेऽपि = तदभाववति तत्प्रकारकत्वावगाहित्वेऽपि, घटत्वादौ पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वांशे = घटत्वादिः पटादिवृत्तिप्रतियोगिताया अवच्छेदक इत्यो, बाधकाभावात् = बाधकतर्कविरहात्, अभ्रमत्वं = तद्वति तत्प्रकारकत्वाचगाहित्वमिति | 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादिप्रमीतेः बदत्यादिशून्यपटादी घटत्वादिविशिष्टत्वावगाहित्वेन भ्रमत्वमस्तु किन्तु पटादिवृत्तिप्रतियोगिताया घटत्वाद्यवच्छिन्नत्वावगाहिल्वे तु नैव भ्रमत्वं, बाधकाभावात् । अतो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य प्रामाणिकत्वमिति शङ्काशयः । परं पाटचरनिलुण्टिते वेश्मनि यामिकजागरणवृत्तान्तमेतदनुसरतीति ननुबादिनोऽभिप्रायः, यतः घटत्वादेः पटादिवृत्तिप्रतियोगितावच्छेदकत्वोपगमे तत्समनियतत्वेनाऽभावविशेषणीभूतपटादिवृत्तित्वमापतितं धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव से अतिरिक्त होने से उपदर्शित नियम की प्रवृत्ति ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव में नहीं हो सकती, किन्तु समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव में ही" <-क्योंकि समानाधिकरणधर्मावच्छिनप्रतियोगिताक अभाव से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव को अतिरिक्त = भिन्न मानने में गौरव है । अतः ब्यधिकरणधर्माबच्छिनप्रतियोगिताक अभाव अप्रामाणिक है। अतएव द्वितीय भंग आदि भी अप्रामाणिक है । अतः सप्तभंगी को प्रमाण मानने में कोई प्रमाण नहीं है।
घटस्पेन पटो नास्ति - इ.स. प्रतीति में अप्रमात्मकत्व और प्रमात्व की शंका
शंका :- एतन पटा, इति । जनाब ! पटादि में घटत्यादि धर्म का अभाव होने से 'पटादिः घटत्वेन नास्ति' यह ज्ञान पटादि में घटत्यादिवैशिष्ट्यांश में भले ही प्रमात्मक हो मगर 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति, घटत्वादि में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व अंश में तो कोई बाध नहीं होने की वजह, प्रमात्मक मानी जा सकती है । घटत्वादि पटादि में न रहता हो तो क्या हुआ ? पटादि में रहने वाली प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व का घटत्वादि में भान मानने में तो कोई बाधा नहीं है। अतः तादृश अवच्छेदकताऽवगाही अंश में वह प्रतीति प्रमात्मक हो सकती है। तब तो ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक अभाव भी प्रामाणिक हो जायेगा।
त्यधिकरणधविच्छिन्न प्रतियोगिता की कल्पना अप्रामाणिक - पूर्वपक्षी पूर्वपक्षी :- निरस्तम्, इति । उस्ताद ! अब पछताये होत क्या जब चिडियाँ चुग गई खेत ! हमने पूर्व में ही कह दिया है कि धर्म में अभावप्रतियोगितावच्छेदकल और अभावविशेषणतावच्छेदकत्व के ज्ञान की सामग्री एक ही होती ।। है। अत: 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति में पदि घटत्वादि को पटादिअभावीय प्रतियोगिता का अवच्छेदक मानोगे १. दुश्यतां २३७ तमे पुटे
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२४३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.
५ व्यथिकरणधर्मावमिछाभावस्यातिरकित्वरिचारः अथ व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नाभाव एव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव इति न तदतिरेककल्पनाप्रयुक्तगौरवावकाश इति चेत् ? न, तथापि पदादिनिष्ठघटत्वाधवच्छिन्नप्रतियोगि
----------* जयतता - न शक्यते पश्चात्कर्तुं बृहस्पतिनापि, तादृशाऽभावविशेषणीभूतपटादिवृत्तित्वस्य परित्यागे भ्रान्तत्वोपगमे वा घटत्वादेरपि पटादिवृतिप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य त्यागो भ्रान्तत्वं वा प्रसज्येत, अन्यथा अवैशसप्रसङ्गात् । अतो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य प्रामाणिकत्वं विचार्यमाणं विशरास्तामाबिभर्ति । ततो न द्वितीयादिभङ्गस्याऽपि प्रामाण्यं चारुतामञ्चतीति ननुवादिनो मौलपूर्वपक्षिणोऽभिप्रायः ।
शङ्कते-अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । ब्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नाभाव पब ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव इति । अयमाशयः येन सम्बन्धेन प्रतियोगी कुत्रापि न वर्तते स यधिकरणसम्बन्ध उच्यते यथा संयोगसम्बन्धेन वृक्षत्वादिजातेः कुत्राप्यसत्त्वेन संयोगसम्बन्धस्य वृक्षत्वादिन्यधिकरणतया संयोगसम्बन्धावच्छिन्नवृक्षत्वादिनिष्टप्रतियोगितानिरूपकात्यन्ताभावस्य केवलान्वयित्वम् । एवमेव प्रतियोग्यवृत्तिधर्मः प्रतियोगितात्यधिकरण उच्यते यधा घटत्वादिः पटाद्यवृत्तित्वात् पटादिनिष्टप्रतियोगितात्यधिकरणा ज्यपदिश्यते । घटत्वादिना रूपेण पटादेः कुत्राऽप्यसत्त्वेन घटत्वादिधर्मावच्छिन्नपटादिनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकाभावस्यापि केबलान्व यित्वम । समनियतपदार्थयारक्यात संयोगसम्बन्धावच्छिन्नवनात्वादिवत्तिप्रतियोगितानिरूपक-बटत्वादिधर्मावच्छिन्नपटादिवत्तिप्रतियोगितानिरूपकाभाचोरेक्यम । व्यधिकरणसम्बन्धावमिंटन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावस्तुभयमते क्लस एव । तत्स्वरूप एव च मया ज्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः स्वीक्रियते, तत्समनियतत्वात् इति न तदतिरेककल्पनाप्रयुक्तगौरवावकाशः = व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य ज्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावातिरिक्तत्वकल्पनाप्रयोज्यगौरवदोषसंभावनेति न व्यधिकरणधर्मावमिछत्रप्रतियोगिताकाभावस्याऽप्रामाण्यमिति । अत एव न द्वितीयभङ्गस्याज्यप्रामाण्यमित्यथाशयः ।
ननुवादी । अथमतं प्रत्याचष्टे-नेति । तथापि = व्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावस्य समनियतत्वेन प्रतियोगिव्यधिकरणसम्बन्धावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावानतिरिक्तत्वोपगमेऽपि, पटादिनिष्ठघटत्याचवच्छिन्न प्रतियोगितान्तरकल्पने
तब तुल्य न्याय से घटत्वादि को अभाचविशेषणीभूत पटादि में वृत्ति मानना ही होगा। यदि घटत्वादि को पटादिप्रतियोगिक अभावविशेषणतावच्छेदक न माना जाय या अप्रामाणिक माना जाय तब तो तुल्य म्याय से घटत्वादि को पटादिप्रतियोगिकाभावीयप्रतियोगितावच्छेदक भी नहीं माना जा सकता या प्रान्त माना जायेगा । अतः सिद्ध होता है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव अप्रामाणिक है । अतएव द्वितीयादि भंग और उनके समुदायात्मक सप्तभंगी भी अप्रामाणिक है । EA व्यधिकरणसम्बन्धातत्तिा अमाप हो व्यधिकरणधर्मावति भात - स्यादादी इस
स्याद्वादी :- अथ, इति । उस्ताद ! आपने जो "पूर्व में कहा कि -> 'व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव की कल्पना करने में गौरव दोप उपस्थित होता है" <- वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि व्यधिकरणधमांवजिन्नप्रतियोगिताक अभाव आपके अभिमत व्यधिकरणसम्बन्धाचच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अभाव से अतिरिक्त नहीं है। समनियत पदार्थ में ऐक्य होता है - यह न्यायदर्शन का मौलिक सिद्धांत है, जो हमें भी व्यवहारनय से मान्य है। जहाँ जहाँ आपका अभिमत व्यधिकरणसम्वन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव रहता है, वहाँ वहाँ व्यधिकरणधर्मावचिन्नप्रतियोगिताक अभाव भी अवश्य रहता है । समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक वाच्यत्वाभाव और घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक पटाभाव समनियत ही है । अतएव दोनों में अभेद है । अतः अतिरिक्त न्यधिकरणधर्मावजिनप्रतियोगिताक अभाव की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष का अवकाश हमारे पक्ष में नहीं है। अतएव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव भी प्रामाणिक है - यह सिद्ध होता है । जब यह सिद्ध हो गया तर तो सप्तभंगी का द्वितीयादि भंग और उनसे घटित सप्तभंगी भी प्रामाणिक सिद्ध हो जायेगी।
* द्वितीय भंग में अतिरिक्त प्रतियोगिता की करना का गौरव - पूर्वपक्ष
पूर्वपक्षी:- न, त, इति । समनियत अभाव में ऐक्य होने से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिमप्रतियोगिताक अभावस्वरूप मानने पर आपके मत में एक अतिरिक्त अभावस्वरूप धर्मी की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष भले ही अप्रसक्त हो, मगर अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष तो आपके मत्थे पर चढ़ा १. देखिये पृ. २४२
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** अतिरिक्त प्रतियोगिताविचारः **
तान्तरकल्पने गौरवात् । न च घटत्वादिपर्यवसितेन घटादितादात्म्येन पटाद्यभावस्य क्लृप्त
* जयलता -
गौरवात् । 'घटत्वेन पटो नास्तीत्यादिप्रतीतेः प्रामाणिकत्वोपगमे घटत्वादेः स्वव्यधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकत्वं पटादिनिष्ठप्रतियोगितायाश्च स्वव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नत्वं कल्पनीयम् । तच्च नोभयमते क्लृप्तम् । व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वमेवो| भयमते सिद्धम् । अतोऽतिरिक्तधर्मिकल्पनाविरहेऽपि अक्लृप्तधर्मद्वयकल्पनं त्वतिरिच्यत एवेति भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो | व्याधिरिति मीलपूर्वपचाशयः ।
= घटादि
न चेति । अस्य 'वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । घटत्वादिपर्यवसितेन घटत्वादिस्वरूपेण, घटादितादात्म्येन प्रतियोगिक भेदाभावेन, पटाद्यभावस्य = पदादिप्रतियोगि काभावस्य क्लृप्तत्वात् = प्रमाणान्तरसिद्धत्वात्, नोक्तदोषः = न | समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताऽतिरिक्तव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकल्पनाप्रयुक्तगौरवदोष इत्यर्थः । शङ्काकृतोऽयमाशयो। यदुत समनियतपदार्थयोरक्यात घटत्वं घटभेदाभावरूपमेव । भेदाभावस्याऽभेदपदार्थस्य तादात्म्यरूपत्वात् घटत्वं घटतादात्म्यात्मकमेव | 'घटो न पट' इत्यादिप्रतीतिरुभयमतसिद्धा । अत्र च घटादितादात्म्यावच्छिन्नप्रतियोगिता एवं पादौ भासत इत्यायुभयप्रतिपन्नम् । उपदर्शितरीत्या घटादितादात्म्यस्य घटत्वादिरूपत्वात् स्टादिनिष्ठा प्रतियोगिता यथा घटादितादात्म्येनाऽवच्छिद्यते तथैव घटत्वादिनाऽप्यवच्छिद्यते । अतः पदादिनिष्ठप्रतियोगितायाः स्वव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नत्वमुभयमतसिद्धमेव । अतो नातिरिक्तप्रतियोगिता'कल्पनाप्रयुक्तगीरवदोषगंधलेशोऽपि । अत एव व्यधिकरणधर्माविच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्य प्रामाणिकत्वमपि सिद्धिसौधमधिरोहति । एवमेव द्वितीयादिभङ्गप्रामाण्यमपि निराबाधमिति स्याद्रादिनोऽभिप्रायः ।
=
२४४
ही दिया जायेगा । इसका कारण यह है कि 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति में पटादि प्रतियोगी है और घटत्वादि प्रतियोगितावच्छेदक है । प्रतियोगिता स्वाश्रयवृत्ति धर्म से अवच्छिन्न होती है यह तो 'घटत्वेन घटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति से उभय मत में सिद्ध हैं। मगर प्रतियोगिता स्वाश्रय में अवृत्ति धर्म से भी अवच्छिन्न होती है यह हमने न तो कभी सुना है, न तो पड़ा । मगर अभाव के प्रतियोगी पटादि में रहने वाली प्रतियोगिता को स्वाश्रयावृत्ति (= स्वव्यधिकरण ) ऐसे घटत्वादि धर्म से अवच्छिन मानने के लिए तैयार हैं, जो 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति के प्रामाण्य का आपके द्वारा स्वीकार होने से स्पष्ट हो जाता है । पदादि में रही हुई प्रतियोगिता को स्वव्यधिकरण घटत्वादि धर्म से अवच्छिन | मानने पर स्वसमानाधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता से अतिरिक्त स्वव्यधिकरणधर्मावच्छिन प्रतियोगिता की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष आपके मन में प्रसक्त होता है, जिसका निवारण आप नहीं कर सकते हैं। इस दोष का निवारण करने के लिए तो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव का ही त्याग करना होगा जिसके फलस्वरूप में द्वितीयादि भंग और तद्गर्भित सप्तभंगी भी अप्रामाणिक हो जायेगी ।
* घटत्वादि धादिभेदाभावरूप होने से अतिरिक्त प्रतियोगिता अनावश्यक
स्याद्वादी
स्याद्वादी : न च घटत्वादि इति । जनाब ! आपने जो कहा कि "पटत्वेन घटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को प्रामाणिक मानने पर अतिरिक्त अभाव की कल्पना न करने पर भी अतिरिक्त प्रतियोगिता की तो कल्पना करनी पड़ेगी" - यह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि 'घटः पदभिन्नः' इत्यादि प्रतीति में पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता में घटादितादात्म्यावच्छिन्नत्व तो आप को भी मान्य है । अब देखिये, | घटतादात्म्य का अर्थ है घटाभेद यानी घटभेदाभाव । यह घटभेदाभाव घटत्व का समनियत है, क्योंकि जहाँ जहाँ घटत्व रहता है, वहाँ वहाँ घटभेदाभाव रहता है और जहाँ जहाँ घटभेदाभाव रहता है, वहाँ वहाँ घटत्व रहता है । समनियत होने की वजह घटत्व और घटभेदाभाव एक है । एक होने की वजह पदादिनिष्ठ प्रतियोगिता जैसे घटादिभेदाभाव = घटादितादात्म्य से अवच्छिन्न है, ठीक वैसे ही घटत्वादि से भी अवच्छिन्न होगी । अतः पटादिनिष्ट प्रतियोगिता में स्वव्यधिकरणीभूत घटत्वादि से अवच्छिनत्व तो आपको भी मान्य करना होगा । तब भला ! यूँही आँखे मूँद कर क्या बोलते हो कि 'व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को प्रामाणिक मानने पर अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोप | उपस्थित होगा' <- १ अतः उपर्युक्त पद्धति से पदादिनिष्ठ प्रतियोगिता घटत्वादि धर्म से अवच्छिन्न होती है। से सिद्ध होने से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव भी प्रामाणिक है । अतएव द्वितीयादि भंग और उनसे गर्भित सप्तभंगी भी प्रामाणिक है - यह सिद्ध होता है । हाथ कंगन को आरसी क्या ?
- यह उभयमत
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२४५ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *प्रतियोगितादेरनतिरिक्तत्वविमर्शः * ! त्वामोक्तदोष इति वायम्, उक्तनीत्या घटत्वादिसम्बन्धावच्छिन्नपदादिनिष्ठप्रतियोगिताकल्प
मेऽपि घटत्वादिधर्मावच्छिन्नतदकल्पनात् । न च ताशप्रतियोगिता-तदवच्छेदकत्वादेः स्वरूपानतिरिक्ततया न तत्कल्पनागौरवमिति वाव्यम, एवं सति गुरुधर्मे कारणतावच्छेदकत्वादेण्या
=-:.--. ... .. . जयलता ननुवादी तं प्रत्याचष्टे - उक्तनीत्येति । 'समयत्येन घटादितादात्म्य -घटत्वादेरेक्यमि तिप्रदर्शितदिशेति । घटत्वादिसम्बन्धावच्छिन्नपटादिनिष्ठप्रतियोगिताकल्पनेऽपि = 'घटो न पट:' इत्यादी पदादिनिष्ठप्रतियोगिताया घटादितादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नत्वेन घटत्वाद्यवच्छिन्नत्वसम्मवेपि घटत्वादः सम्बन्धविजययाऽयनछेदकल्यं न तु धर्मविधया, भेदीयप्रतियोगितायाः संसर्गावच्छिन्नत्वनियमात् । अत एव घटत्वादिधर्मावच्छिन्न-तदकल्पनात् = घटत्वादिधर्मावच्छिन्नपटादिनिष्ठप्रतियोगित्वाऽकल्पनात्, धर्मविधया घटत्वादेः स्वानाश्रयपटादिनिष्ठभेदीयप्रतियोगिताया अनवच्छेदकत्वान । ततः 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादिप्रतीती घटत्वादिधर्मे पटादि वृत्तिप्रतियोगितानिरूपित्तावच्छेदकत्ववत्त्वस्याऽक्लप्सत्वेन व्यधिकरणधर्मावछिन्नप्रतियोगिताकामावस्याप्रामाणिकत्वात न द्वितीयादिभङ्गप्रामाण्यम् । अतः प्रमाणावष्टम्भविकलैव सप्तभङ्गीति गौलपूर्वपक्षिण: तात्पर्यम् ।
न चेति । अन्चयश्चाऽस्य वायमित्यनेन सह । तादृशप्रतियोगिता-तदवच्छेदकत्वादेः = व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितातादृशप्रतियोगिताइच्छेदकत्वादेः, स्वरूपानतिरिक्ततया = प्रतियोगि-प्रतियोगितावच्छेदकरूपतया, न कल्पनागीरवं = अतिरिक्तत्वकल्पनाप्रयुक्तगौरवम् । आदिशब्देन कारणता-विषयता:धिकरणता-तत्त्व-तदवच्छेदकत्वादेर्ग्रहणम् । अयं भावः यदि प्रतियोगिता प्रतियोगिव्यतिरिक्ता कल्प्येत प्रतियोगितावच्छेदकत्वञ्च प्रतियोगितावच्छेदकातिरिक्तं कल्प्येत तदा तु समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितातो ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगित्वस्व विलक्षणत्वेन तत्कल्पनायां गौरवं स्यादेव । एवमेव समानाधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकाद् व्यधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकस्य विलक्षणत्वेन तत्राऽन्यतिरिक्तावच्छेदकत्वकल्पना प्रसज्येत । न चैवम्, यतः प्रतियोगिता प्रतियोगिस्वरूपेव प्रतियोगितावच्छेदकल्पञ्च प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूपमेवेत्यङ्गीकारात् । तयोः तत्स्वरूपत्वे तु नैब कल्पनागौरवम, तस्वरूपाणां क्लृप्तत्वात् । अत एव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रामाण्योपगमे न तत्कल्पनागौरवमपि । । अतः द्वितीयादिभङ्गानां तदर्भितसप्तभङ्ग्याश्च प्रामाण्यमक्षतमेवति स्याद्रादिन आशयः ।
ननुवादी मौलपूर्वपक्षी तन्निराकुरुते - एवं सतीति । प्रतियोगिता-तदवच्छेदकत्वादेः प्रतियोगि-प्रतियोगितावच्छेदकाद्यनतिरिक्तत्वाभ्युपगमे सतीत्यर्थः । गुरुधर्मे = लघुधर्मसमनियतगुरुधर्म, कारणतावच्छेदकत्वादेरिति । आदिशब्देनाधिकरण.
= प.दित्ति प्रतियोगिता का अपरोपका धविधया घटत्वादि नहीं हो सकता - पूर्वपक्षी =
पूर्वपक्षी :- उक्तनीत्या. इति । उस्ताद ! आपने घटत्त्व और घटतादात्म्य में समनयत्य के बल पर अभेद सिद्ध करने का प्रयत्न किया वह ठीक है । मगर भेदनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक संबंध होता है । अतः 'घटः पटभेदवान्' इत्यादि प्रतीति में पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता का अवच्छेदक जैसे घटादितादात्म्य संबंध बन सकता है वैसे उससे अभिन्न घटत्वादि भी बन सकता है, मगर वह सम्बन्धविधया अवच्छेदक हो सकता है, धर्मविधया नहीं । अतः पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता में हम संबंधविधया घटत्वादि से अवच्छिन्नत्व की कल्पना करते हैं, न कि धर्मविधया घटत्वादि से अवच्छिन्नत्व (= नियंत्रितत्व) की। अतः उक्त उदाहरण के बल से 'घटत्वेन पटो नास्ति' इत्यादि स्थल में आप घटत्वादिधर्मावच्छेिन पटादिनिष्ठ प्रतियोगिता की कल्पना नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह उभय मत से सिद्ध नहीं है। अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक अभाव अप्रामाणिक ही है। अतएव तन्मूलक द्वितीयादि भंग एवं सप्तभंगी भी अप्रामाणिक ही है -यह सिद्ध होता है।
क प्रतियोगितादि प्रतियोगी आदि स्वरूप है - शंका स्याद्वादी :- न च ताद. इति । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता एवं ताइश प्रतियोगिता के व्यधिकरण धर्म में रही हुई अवच्छेदकता स्वरूप से अतिरिक्त नहीं होती है । मतलब कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता प्रतियोगिस्वरूप ही है, उससे भिन्न नहीं है । एवं प्रतियोगितान्यधिकरण धर्म में रही हुई प्रतियोगितावच्छेदकता तादृश व्यधिकरण धर्मस्वरूप ही है, उससे अतिरिक्त नहीं । प्रतियोगितावच्छेदक और प्रतियोगी का स्वरूप नो उभयमत से सिद्ध ही है । अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव के स्वीकार में न तो अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना से प्रयुक्त गौरव है और न तो अतिरिक्त प्रतियोगितावच्छेदकता की कल्पना से प्रयोज्य गौरख दोष है। अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को
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* गोवाल तोपतविमर्शः * | पत्तेः शास्त्रे गौरवपदार्थस्य दुःप्रचारत्वापत्तेः ।।
=* गयलता तावच्छेदकत्वादेः परिग्रहः । अपि आपत्तेः । अयं भावः पदि प्रतियोगिता प्रतियोगिस्वरूपा प्रतियोगितावच्छेदकत्वं च प्रति| योगितावच्छेदकस्वरूपमित्यङ्गीक्रियते तदा कारणतावच्छेदकत्वमपि कारणतावछेदकरूपं स्यात् । एवं च सति घटरूपकारणतावच्छेदकत्वं यथा घटत्वे स्यात् तद्वदेव कम्बुग्रीवादिमत्त्वेऽपि स्यात्, घटत्ववत् कम्बुग्रीवादिमत्त्वस्वरूपस्याऽपि क्लृप्तत्वात् । अस्त्वव का क्षतिरित्याशङ्कायामाह - शास्त्रे गीरवपदार्थस्य दुःप्रचारत्वापत्तेरिति । सर्वत्रैव शक्यत एवं वक्तुं यद्ताऽधिकरणता- | वच्छेदकत्वाविषयतावच्छेदकत्वादेः स्वरूपाभिन्नत्वमेव । तत्स्वरूपाणां क्लृप्तत्वादेव गुरोरपि तत्त्वोक्ती न किञ्चिद्राधकमिति गौरवपदार्ध एवं विलीयेत ।
यद्यपि गौरवज्ञानमात्रं नाऽवच्छेदकत्वधीप्रतिबन्धकं, विशिष्टसत्तात्वस्य द्रव्यत्वत्वाऽपेक्षया गुरुत्वग्रहेऽपि 'विशिष्टसत्ता नास्तीति प्रतीत्या तदवच्छेदकत्वग्रहस्य प्रान्यैरपि स्वीकृतत्वात । न च तद्भर्मसमानाधिकरणधर्मधर्मिकः तदपेक्षया लघुत्वग्रहः तद्धर्मस्याऽवच्छेदकत्वधीप्रतिबन्धकः, नीलधूमत्वसमानाधिकरणधूमत्वं तदपेक्षया लघुत्वग्रहेऽपि 'नीलधूमो नास्तीति प्रतीत्या नीलधूमत्वस्याऽवच्छेदकत्वावगाहनस्य सर्वसम्मतत्त्वात् । नापि तद्भर्मसमनियत्तधर्मधर्मिक एव तद्धर्मापेक्षया लघुत्वग्रहः तद्भर्मस्या:वच्छेदकत्वधीप्रतिबन्धकः; घटज्ञानत्वाऽपेक्षया लघुनोऽपि ज्ञानत्वस्य घटज्ञानत्वसमनियतत्वविरहाद् गुरुगोऽपि घटज्ञानत्वंस्य संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटज्ञानाभावस्य प्रतियोगिताबच्छेदकत्वापत्तेः । तथापि अबच्छेदकत्वसम्बन्धेन प्रतियोगितादिप्रकारकबुद्धा तादात्म्येन गुरुधर्मः प्रतिबन्धक इति न कदाचिदपि संसर्गमर्यादवा गुरौ अवच्छेदकत्वग्रहः ।
ननु गुरुत्वस्य किञ्चित्सापेक्षतया कम्बुग्रीवादिमत्त्वादेरपि प्रमेयकम्बुग्रीवादिमत्त्वाऽपेक्षया लघुत्वेन तस्य प्रतिबन्धकत्वानुपपत्तिरिति चेत् ? मैचम्, विशेष्यतासम्बन्धेन स्वावन्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसंसर्गाचच्छिन्त्रकम्बुग्रीवादिमत्त्वनिष्ठप्रकारताशालिग्रह प्रति विशेष्यतासम्बन्धेन स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धावच्छिन्ना कम्बुग्रीवादिमत्त्वापेक्षया लघुधर्मनिष्ठा प्रकारता तच्छालिज्ञानं प्रतिबन्धकमित्यत्र तातार्यमित्यन्यत्र विस्तरः ।
किञ्च, प्रतियोगितायाः स्वरूपानतिरिक्तत्वो पगमे सा कि अभावस्वरूपा प्रतियोगिस्वरूपा देति ? पक्षोभयी समवतिष्ठते । आद्ये 'घटोऽभावप्रतियोगी'त्यस्य 'घटो भाववानि'त्यर्थः स्यात् । द्वितीय व 'घटो घटवानि'त्याकारः प्रसज्येतेति प्रतियोगिता:प्रामाणिक मानना आवश्यक है, जिसके फलरूप में द्वितीयादि भंग और उनसे निष्पन्न सप्तभंगी भी प्रामाणिक सिद्ध हो जायेगी। ।
ॐ प्रतियोगिता-प्रतियोगितावच्छेदकातादि अतिरिक्त है - पूर्वपक्षी पूर्वपक्षी :- एवं सति. इति । जी हजरत ! आपकी यह बात कि ->'प्रतियोगिता प्रतियोगिस्वरूप है और प्रतियोगिताबच्छेदकत्वादि प्रतियोगितावच्छेदकादिस्वरूप है' - असंगत है। इसका कारण यह है कि आपकी इस मान्यता के अनुसार कारणतावच्छेदकता भी कारणतावच्छेदक स्वरूप मानी जा सकती है । तब तो घटवृत्ति वर्ण-गंध-रसादि के कारणतावच्छेदकधर्म से पटत्व की भाँति कम्बुग्रीवादिमत्त का भी स्वीकार किया जा सकेगा । घटत्व की अपेक्षा गुरुधर्मभूत कम्बुग्रीवादिमत्व में कारणतावच्छेदकता के अंगीकार करने में कोई वाधा उपस्थित नहीं होगी, क्योंकि कारणतावच्छेदकना तो आपके मतानुसार कारणतावच्छेदकस्वरूप ही है । घट में घटत्व और कम्युग्रीवादिमत्त्व दोनों ही रहते हैं एवं दोनों का अपनी निजी स्वरूप भी विद्यमान है ही, उसकी कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है। जो विद्यमान है, उसकी कल्पना करने की क्या आवश्यकता ? इस तरह तो गुरु धर्म अधिकरणतावच्छेदक, विषयतावदक, कार्यतावच्छेदक आदि भी बन जायेगा । तब तो न्यायशास्त्र में गौरव पदार्थ का दोषरूप से प्रचार ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि उपर्युक्त पद्धति के अनुसार सर्वत्र गौरव दोष का परिहार हो सकता है । मगर ऐसा नहीं है । गुरुभूत धर्म में कारणतावच्छेदकता आदि का स्वीकार तर्कशास्त्र को मान्य नहीं है। अतः कारणतावच्छेदकता आदि को भी अतिरिक्त मानना आवश्यक है। जब यह सिद्ध हुआ तब तो प्रतियोगितासमानाधिकरण धर्म में रही हुई प्रतियोगितावच्छेदकता की अपेक्षा प्रतियोगिताब्यधिकरण धर्म में रही हुई प्रतियोगितावच्छेदकता को अतिरिक्त माननी पड़ेगी। एनं समानाधिकरणधर्मावच्छिन प्रतियोगिता की अपेक्षा व्यधिकरणधर्मावच्छिन प्रतियोगिता को भी अतिरिक्त माननी पड़ेगी। तब तो न्यधिकरणधर्मावच्छिनप्रतियोगिताक अभाव का स्वीकार करने में अतिरिक्त प्रतियोगिता एवं अतिरिक्त प्रतियोगितावच्छेदकत्व की कल्पना से प्रयुक्त गौरख अपरिहार्य बन जायेगा । इस गीरव दोष के कारण हम व्यधिकरणधर्मापच्छित्रप्रतियोगिताक अभाच को अप्रामाणिक कहते हैं। तब तो द्वितीयादि भंग एवं उनसे घटित सप्तभंगी भी अप्रामाणिक
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IF
=
=
२५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ६ - का. * व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावासिद्धिः *
या -> 'घटत्वेन पटो नास्तीति प्रतीते: घटत्वसम्बन्धावच्छिमपटनिष्ठप्रतियोगिताकाभा-|| । वावगाहित्वेनैवोपपत्तेर्न तया व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावसिन्दिः, अन्यथा घटत्वाद्यवच्छिन्न|| घटादिनिष्ठप्रतियोगिताकाऽभावत्वेन घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुताकल्पने (? घटत्वाधवच्छिन्न
= = = = = = = * गयलता * = = = प्यतिरिक्तव कल्पनाया । एवमेव विषयता-विषयितादिकमप्यतिरिक्कमेवेत्यभ्युपगन्तब्यम् ।
यविति । अन्चयश्चास्य भवदेवाभिमतमि'त्यत्र । भवदेवः तत्त्वचिन्तामणिव्याख्याकारः प्रकृतेऽभिमतः । 'घटत्वेन । पटो नास्तीति प्रतीतेरिति । इदमपलक्षणं पटत्वेन घटो नास्तीत्यादिप्रतीतेः । घटत्वसम्बन्धावच्छिन्न-पटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावावगाहित्वेनैवेति घटतादात्म्यलक्षणघटत्वसंसर्गेगाध्वन्छिन्ना या पटवृत्तिप्रतियोगिता तन्निरूपकात्यन्ताभावविषयत्वेनवेति एबकारेण धर्मविधया घटत्वेनावच्छिन्नावाः पटवृत्तिप्रतियोगितावा निरुपकस्याभावस्य व्यवच्छेदः कृतः । उपपत्तेः = संगतेः न तया = दर्शितप्रतीत्या व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावसिद्धिः = अतिरिक्तव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्नाभावसिद्धिः । । || विपक्षबाधमाह . अन्यथेति | व्यधिकरणसम्बन्धावछिन्नप्रतियोगिताकाभावसमनियतस्य व्यधिकरणधारच्छिन्नप्रतियोगित
स्या:तिरिक्तवो पगमे इति । घटत्वाद्यवच्छिन्नेति । अयं भवदेवाचायः यदि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावस्य ब्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावातिरिक्तत्वमङ्गीक्रियते तदा घटत्वावच्छिन्नवत्ताबन्दि प्रति घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावस्य प्रतिबन्धकलं न स्यात, घटत्वावच्छिन्नपटनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकाभाववत्यपि घटत्वविशिष्टप्रकारकबुद्धेजायमानत्वात् किन्तु घटत्वावच्छिन्नघटनिष्ठप्रतियोगिताकाऽभावस्यैव तत्त्वं स्यात् । ततो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावस्याऽतिरिक्तत्वकल्पने तादृशप्रतियोगितायां प्रतियोगितावच्छेदकसामानाधिकरण्यनिवेशावश्यकत्वेन गौरवापातः । न च नवाऽपि संयोगेन घटवति समबायेन घटाभावयुद्धेर्जायमानत्वात्तुल्यगौरवमिति वाच्यम्, स्वप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन स्वप्रतियोगिमत्ताबुद्धिं प्रत्येवाऽभावस्य
ही बन जायेगी।
भवदेव के मत का जि५पण यत्नु, इति । यहाँ पूर्वपक्षी (ननुवादी) प्रासंगिक रूप से नवचिंतामणि के उपर टीका की रचना करने वाले भवंदव ' नाम के नव्य नैयायिक के मत का खंडन करने के लिए सर्व प्रथम उसके मत का निरूपण कर रहे हैं । भवदेव का मत यह है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव की सिद्धि 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति के दल से नहीं हो सकती है, क्योंकि वह प्रतीति - "प्रटतादात्म्यस्वरूप घटत्वसम्बन्ध से अवच्छिन पटवृत्ति प्रतियोगिता के निरूपक अभाव को ही विषय करती है" - ऐसा स्वीकार करने पर भी उपपत्र हो सकती है, तब घटत्वधर्मारचिन्न पटवृत्ति प्रतियोगिता के निरूपक || अभाव को उस प्रतीति का विषय मानने की क्लिष्ट कल्पना क्यों की जाय ? मतलब कि 'घटत्वेन पटो ना
के विषयभूत अभाव से निरूपित प्रतियोगिता धर्मविधया घटत्व से अवच्छिन्न नहीं है किन्तु सम्बन्धविधया घटत्व से अवच्छिन्न ।। है । अतः उक्त प्रतीति के बल से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता और उसके निरूपक अभाव की सिद्धि नहीं हो सकती
है। उपर्युक्त प्रतीति प्रतियोगिता के आश्रय में अविद्यमान घटत्व धर्म को स्वव्यधिकरण प्रतियोगिता का अवच्छेदक बना || कर धर्मरूप से घटत्व से अवच्छिन्न प्रतियोगिता के निरूपक अत्यन्ताभाव को अपना विषय बनाती है . ऐसा मानने पर
गोरख भी उपस्थित होता है । वह गौरव दोष इस तरह प्रसक्त होता है। देखिए, घटवत्ता बुद्धि की प्रतिवन्धक घटाभावबुद्धि होती है । घटत्वावच्छिन्नवत्ता बुद्धि की प्रतिबन्धकता घटत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावबुद्धि में होती है - यह सर्वजनविदित है। मगर व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावबुद्धि को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावविषयक न मानी जाय, नव घट-त्यापन्निवत्ता द्धि की प्रतिबन्धक घटत्वावच्छिमप्रतियोगिताकाभाव की बुद्धि नहीं हो सकेगी। इसका कारण यह है कि घटत्वरूप से पटाभाव भूतल में, जो घटविशिष्ट है, रहने की रजह घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव भूतल में रहता ही है । उसकी बुद्धि होने पर भी 'घटवत् भूतलं' ऐसी घटत्वावच्छिन्नवत्त्वाऽवयाहि बुद्धि उत्पन्न होती है। भूतल में घटत्वेन पटाभाव रहने पर भी घट रह सकता है। अतः घटत्वावच्छिन्नघटवृत्तिप्रतियोगिनानिरूपक अभाव की बुद्धि को ही घटत्वावच्छिन्नवत्ताबुद्धि का प्रतिबन्धक मानना होगा। मतलब कि घटत्व से अवच्छिन्न जो प्रतियोगिता है वह घट में वृनि हो, तभी तादृश प्रतियोगिता के निरूपक अभाव का ज्ञान घटप्रकारक बुद्धि का प्रतिबन्धक हो सकता है - ऐसा मानना होगा, जिसकी वजह अभावीय प्रतियोगिता में प्रतियोगितावच्छेदकीभूत घटत्व के आश्रय घट से निरूपित वृत्तित्व का विशेषणविधया प्रवेश करने का गौरव
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* व्यधिकरणदीधितिमंचादयाननम् * वत्ताबुध्दि प्रति प्रतिबन्धकताकल्पने) गौरवादिति भवदेवाभिमतं - तच्चित्या ।
घटत्वविशिष्टपटवत्ताधमप्रतिबन्धिकाया: तस्या घटत्वविशिष्टपटाभावाऽवगाहित्वस्य बाधकसहनेणाऽपि पराकर्तुमशक्यत्वात् । न खलु सहोणाऽपि बाधकै: 'इदं रजतमिति प्रतीते: रत्वावलम्बनत्वं व्यवस्थायितुं शक्यते । तदिदमभिप्रेत्योक्तं दीधितिका 'यदि पुनरानुभविको लोकानां स्वरसवाही 'घटत्वेन पटो नास्ती'त्यादिप्रत्ययो न तदा
.==- जयलता प्रतिबन्धकताथा उनयमनासदत्वात्, तब तु प्रतिबन्धकीभूताभावनिरूपितप्रतियोगितायाः स्वावच्छेदकधाश्रयनित्वना क्लृप्तन विशेषणीयत्यागौरवमव्याहतमिति व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्यैव पटत्वेन घटो नास्ती' ति बुद्धिविषयत्वमहतीति ।
यद्यपि प्रतिबन्धकतावच्छेदकगौरवे सति प्रतिबन्धकतावच्छेदकावच्छिन्नाभावरूपस्य प्रतिबन्धकाभावस्य प्रतिबध्यनिष्ठ कार्यतानिरूपकस्य गुरुतरशरीरकत्वेऽपि कारणताकुक्षौ तदप्रवेशात्कारणताशरीरे गौरवानापातेन प्रतिबन्धकतावच्छेदकगारवस्य न दोषत्वमिति वक्तुं युज्यते तथापि तस्य स्पष्टत्वात्तदुपेक्ष्य प्रकारान्तरेण प्रदर्शितभवदेवमतनिराकरणकृते आह - घटत्वेति । अयमाशयः कस्यचित् भूतले घटत्वविशिष्टरूपेण पटवत्ताप्रकारको भ्रमः सञ्जातः तस्य प्रतिबन्धिका तु घटत्वविशिष्टपटाभावप्रकारकभूतलविशेष्यकप्रतीतिरव सम्भवति, विशिष्टतद्वत्ताबुद्धिं प्रति विशिष्टतदभावत्ताबुद्धेरेव प्रतिबन्धकत्वात् । यदि चोपदर्शितभ्रमप्रतिबन्धकप्रतीतेर्घटत्वावच्छिन्नपटवृत्निप्रतियोगिताकप्रकारकत्वं न स्यात् तर्हि तद्विरोधित्वमेव न स्यात्कुतः तत्प्रतिबन्धकदम ? तस्याः प्रतीते; घटत्यविशिष्टपदाभावाऽवगाहित्वस्य = घटत्वावच्छिन्नपटवृत्तिप्रतियोगिताकाभावगोचरत्वस्य बाधकसहस्रेणापि पराकर्तुं = निराकर्तुं अशक्यत्वात्, अन्यथा प्रतिबध्यप्रतिबन्धकमावस्यैवाऽनुपपत्तेः । तदेव दृढयति - न खल्विति । अन्वयश्चास्य ‘शक्यत' इत्यत्र । रङ्गत्वावलम्बनत्वं = रङ्गत्वप्रकारकत्वं व्यवस्थापयितुं = प्रमाणयितुं शक्यते, 'इदं रजतमि' ति व्यवसायज्ञानोत्तरं जायमानेन 'इदं रजततया जानामि' 'रजततयंदं मया ज्ञातमि त्याद्यनुव्यवसायनैव पूर्वोत्पन्नव्यवसायज्ञानस्य रजतत्वप्रकारकत्वसिद्धः, अनुव्यवसायस्यैव व्यवसायस्वरूपनिर्णायकत्वात, स्वरसबाहिप्रत्यक्षस्य सर्वतो बलवत्त्वात् । तस्य रङ्गत्वप्रकारकत्वावगाहनेऽनुव्यवसायस्य भ्रान्तत्वमापद्येत । तदुक्तं भवानन्देन तत्त्वचिन्तामणिदीधितिप्रकाशे विशेषच्याप्ती "अतत्प्रकारके तत्यकारकत्वस्याऽनुव्यवसायेन विषयीकरणेऽनुव्यवसायस्य तटाकारकत्वांशे भ्रान्तत्वापत्तेः 'इदं रजतमि तिप्रतीतेः रजतत्वप्रकारकत्वस्याऽनुव्यवसायेन विषयीकरणात्" (त.चिं.दी.प्र.वि.व्या.प्रक.पृ. ४६५) इति ।।
तदिदमभिप्रेत्येति । 'सार्वजनीनानुभवस्यैव बलवत्त्वमि'त्यनुविचिन्त्येति । उक्तं दीधितिकृता रघुनाथशिरोमणिना व्यधिकरणप्रकरणदीधिताविति शेषः । यदि पुनरिति । स्वरसपाही = अस्खलितः स्वारसिकः । 'घटत्वेन पटो नास्ती'त्यादिप्रत्यय इति । आदिपदेन 'घटत्वन व्यं नास्ति', 'द्रव्यत्वेन घटो नास्ती त्याद्यनुभवस्य परिवहः । तुल्ययुक्त्या तवृत्तिधर्मण तस्येव विशेषरूपेण सामान्यस्य सामान्यरूपेण च विशेषस्या भावे बाधकाभावादिति ध्येयम् । तादृशाभावनिवारणं = स्वसमनियतान्यधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावापाकरणम् । तेन विशेषरूपेण सामान्यस्य सामान्यरूपेण य विशेपस्याभावः सङ्गहीतः
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उपस्थित होता है। इस गौरव दोप के सरख 'पदत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति को घटख = पटभेदाभाव = घटतादात्म्यात्मक सम्बन्ध से अवच्छिन्न = नियन्त्रित प्रतियोगिता के निरूपक अभावविषयक माननी जरूरी है।
र अतदेत के मत की समालोचना पूर्वपक्षी :- बटव. इनि । उपर्युक्त भवदेव का सिद्धांत ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि जर किसी पुरुप को भ्रम हो जाता है कि 'भूतल में घटत्वविशिष्ट पट है' नब उस भ्रम की प्रतिवन्धक बुद्धि बड़ी हो सकती है जो भूतल में घटत्वविशिष्टपटाभाववत्ता का अवगाहन करती हो। तद्वत्ताबुद्धि के प्रति तदभाववत्ताबुद्धि प्रतिवन्धक होती है, न कि अतद्वत्ताबुद्धि । प्रस्तुत में भ्रम घटत्वविशिष्टपटवत्ताविपयक है । अतः उसकी प्रतिबन्धक बुद्धि घटत्त्वविशिष्टपटाभाववत्ताऽवगाही ही होनी चाहिए। ऐसा मानने पर ही दोनों में विरोध का संपादन होने से प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव उपपन्न हो सकता है। असमानविषयक ज्ञान में विरोध न होने से प्रतिवध्य-प्रतिवन्धकभाव नहीं हो सकता है। दंडवत्ताबुद्धि का प्रतिबन्धक रक्तदंडाभाववत्ता अवगाही ज्ञान नहीं हो सकता है। अत: यदि प्रस्तुत में घटत्वविशिष्टपटाभावविषयक बुद्धि का स्वीकार न किया जाय तब तो घटत्वविशिष्टपटबत्ता अचगाही भ्रम की कोई भी बुद्धि प्रतिवन्धक नहीं बनेगी। ऐसा होने पर फलतः उस भ्रम का उच्छेद नहीं हो सकेगा। मगर यह तो भवदेव को भी अभिमत नहीं है । अत: उस बुद्धि के प्रतिबन्धकरूप में घटत्त्वविशिष्टपटाभाषभावविपयक बुद्धि
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२४५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का.५ * नव्यमतनिगकरणम् ** 'ताहशा(ऽभावनिवारणं गीर्वाणगुरूणामपि शक्यमिति मन्तव्यम्) ।
न घटत्वेनाऽनाहार्यपटवत्तानिश्चये कथमेताहशधीरिति वाच्यम्, अवच्छेदकोदासीनाया: तस्या अविरोधात् ।
* गयलवा * | इति जगदीशव्याख्यालेशः ।
यत्तु नव्यैः दीधितिकृता 'यदि तदा' इति पदाभ्यां तादृशप्रतीतरानुभविकत्वे विवादं सूचयता व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभारस्या-पारमरर्थिकत्वं ध्वनितमि''त्युच्यते, तदसत्, शताः तर्कवाकशास्त्रप्रयोगानन्तरमपि विपक्षबाधकविरहात् तादृशव्याप्तिशथिल्यविमर्श बिना तादृशपदव्यप्रयोगा:सम्भवात् । अत एच 'गीर्याणगुरूणामपी ति प्रयोगः तेन कृत इति दृढमवधेयम् ।
भवदेवमतनिराकरणं विस्तरत: अष्टसहस्रीतात्पर्यविबरणादावनुसन्धेयम् ।।
ननु बटत्वविशिष्टपटवत्ताबुद्भिर्यदाऽकृत्रिमस्वरूपा जाता तदा तु घटत्वविशिष्टाभाववत्ताबुद्धिर्नैव सम्भवति । अतः सा:कृत्रिमरूपा अनाहार्यबुद्धिः कथं केन प्रतिबध्या स्यादिति शंका निराकर्तुमुपन्यस्यति - न चेति । घटत्वनाऽनाहार्यपटवत्तानिश्रये = घटत्वविशिष्टपटप्रकारके कृत्रिमनिश्चये सति, कथं एतादृशधीः = घटत्वविशिष्टपटाभावप्रकारकबुद्भिः ? ततः नेवातिरिक्तन्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावसिद्धिरिति व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावरूप एव स स्वीकर्तुं योग्य इति शङ्कातातर्यम् ।
मौलपूर्वपक्षी तन्निराचष्टे - अवच्छेदकोदासीनाया = अवच्छेदकत्वानवगाहिन्याः तस्याः घटत्वविशिष्टपटाभावप्रकारक निश्चयरूपायाः बुद्धेः अविरोधात् = अप्रतिबध्यत्वात्, समानायच्छेदकावगाहितद्वना-तदभाचवत्ताडुयोरेव प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावसम्भवात अवच्छेदकतानवाहिनस्तस्य प्रतिबध्यताकोटिनिष्क्रान्तत्वान्न प्रतिबन्धः इति भावः 'घटत्वेन पटो नास्ती'त्यत्र
का स्वीकार करना ही होगा । ऐसा मानने पर तो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव की सिद्धि अनायास हो जायेगी, क्योंकि उक्त बुद्धि में घटत्व का भान धर्मविधया ही होता है, न कि संसर्गविधया । अतः हजार बाधक उपस्थित होने पर भी घटत्वविशिष्टपटवत्ता अवगाही भ्रम की प्रतिरन्धक बुद्धि में घटत्वविशिष्टपटाभाववत्ता अवगाहित्व का निराकरण नहीं हो सकता
है। चाकचिक्यादि दोष की वजह रंग = कलाई धातु में 'इदं रजतं ऐसी भ्रमात्मक बुद्धि में हजार बाधक उपस्थित होने ... पर भी रंगत्वप्रकारकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है । इसका कारण यही है कि 'इदं रजत' इत्याकारक व्यवसाय ज्ञान
की उत्पत्ति के अनन्तर होने वाले अनुव्यवसाय ज्ञान 'इदं रजततया जानामि अर्थात् 'मैं इसे रजतरूप से = चाँदी के रूप से जानता हूँ' इत्याग्राकारक होता है, जिससे फलित होता है कि तादृश अनुव्यवसाय के पूर्व उत्पन्न 'यह चाँदी है' इत्याकारक व्यवसाय ज्ञान रजतत्वप्रकारक है, न कि रंगत्वप्रकारक । अनुभव ही सर से बड़ा प्रमाण है । इसलिए तो तत्त्वचिंतामणि ग्रंथ की दीधिति नाम की टीका के रचयिता रघुनाथशिरोमणि ने ज्यधिकरणप्रकरण में कहा है कि - "यदि 'घटत्वेन पटो नास्ति ऐसा अनुभव लोगों का स्वारसिक = अस्खलित स्वारसिक हो तब तो तादृश बुद्धि का निवारण करना देवों के गुरु बृहस्पति के लिए भी अशक्य है, दूसरों की तो बात क्या ?"
* जिरवछिन्। प्रतीति विरुध्द नहीं हो सकती न च घट. इनि । यहाँ यह शंका हो कि -> "घटत्वेन पटवना की अनाहार्य = अकृत्रिम बुद्धि उत्पन्न होने पर घटत्वेन पटाभाववत्ता की बुद्धि कैसे हो सकेगी? क्योंकि घटत्वविशिष्ट पटवत्ता की अनाहार्य = अकृत्रिम बुद्धि घटत्वविशिष्टपटाभावप्रकारक बुद्धि की विरोधी होती है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि घटलेन पटवत्ता अवगाही अनाहार्य = अकृत्रिम बुद्धि सावच्छिन्न बुद्धि की ही विरोधी होती है, निरवछिन्न बुद्धि की नहीं । घटत्वेन पटवत्ता के अनाहार्य = अकृत्रिम निश्चय के उत्तर काल में जो घटत्वेन पटाभाववत्ता की बुद्धि होती है, वह अवच्छेदकता अवगाही नहीं है, किन्तु अवच्छेदकता अनवगाही है । अतः पूर्वोत्पत्र बुद्धि उसकी विरोधी नहीं हो सकती । अतएव उसकी उत्पत्ति में पूर्वोत्पत्र घटत्वेन पटवत्ता का अनाहार्य
५. मूलादो तादादादानन्तरगनन्धपात् शेषा पडितः नचिनिगकिण पधिकरणदीथितितो पोजिना ।। २. "बन्नु पररूपावन्छिनाभावी व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिलाभाचनब गतार्थ इति भवदेवमतम, तत् गताधमेव, पिनिगमकाभावात प्रतीतिशरणप्रथमकल्पनाषा
उभयत्र ताल्यात, भूतले घटत्वन पटो नास्ति न तु घट' इत्यस्याःग्यतापना, बद्रवत्यपि घटत्वसम्बन्धन तदभावाक्षरित्यधिक लतायाम' (अ.स.वि. पृ.२१५) इति अष्टसहानात्पर्यविवरण प्रकरणकृतीक्तमिति पयम् ।
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* 'घटत्वेन पटो नास्तीतिधीप्रतिबन्धकत्वविमर्शः * 'तदोदासीन्यमेव कमिति चेत् ? तृतीयांतपदोल्लिखितधर्मेऽवच्छेदकत्वस्य गौरवेण बाधात्, | तृतीयांतपदस्थलेऽन्वयितावच्छेदकावच्छेिप्रतियोगिताकत्वस्य च व्युत्पत्यलभ्यत्वात् । गौरवाऽप्रतिसन्धानदशायां घटत्वांशेऽवच्छेदकत्वाऽनुदासीनामपि च 'घटत्वेन पटो नास्तीति धियं घटत्वेन घटवत्ताधीन विरुणन्दि, तस्या घटत्वावच्छिन्नाऽभावधिय एव विरोधित्वात् ।
* जयलता * . . .... ---- तृतीयायाः सत्त्वे कथं नाऽवच्छेदकत्वाबगाहित्वं तस्याः ? इति शङ्कते-तदीदासीन्यं = अवच्छेदकल्वानवगाहित्वं एच कथं = कस्माद्धेतोः । तस्याऽपि निश्ववख्याऽवच्छेदकताबगाहित्वमेवाईतीति प्रश्नाशयः । मौलपूर्वपक्षी समाधत्ते - तृतीयान्तपदोल्लिखितधर्मेऽवच्छेदकत्वस्य कल्पनाया गौरबेण = अप्रामाणिकगौरवेण बाधात् = प्रतिबध्यत्वात् । 'तहि प्रागुपदर्शितदिशा अन्याय
कावन्छिन्न प्रतियोगिताकल्यस्यब व्यत्पतिलभ्यत्वात 'घटत्वेन पटो नास्ती'त्यन्न पटलावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वलाभेन वृद्धिमिच्छतो मूलहानिरायातेत्याशङ्कायां ननुबादी मौलपूर्वपक्षी आह-तृतीयान्तपदस्थले = तृतीयान्तपदसमभिन्याहारस्थले अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्य = प्रतियोगितान्चयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वस्याऽभावांश व्युत्पत्त्यलभ्यत्वात्, अन्यथा 'घटत्वेन कम्बुग्रीवादिमानास्तीति प्रतीतेप्रामाणिकल्वप्रसङ्गात् ।
ननु 'घटत्वेन पटो नास्ती'त्याकारकं अवच्छेदकत्वानवगाहि ज्ञानं घटत्वेन पटवतानाहार्यनिश्चयो न प्रतिबध्नाती कुतो:यसितमित्याशङ्कायां ननुवादी मौलपूर्वपक्षी आह- गौरवाऽप्रतिसन्धानदशायामिति । गौरवज्ञानस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वग्रहविरोधितया तज्ज्ञानदशायां तादृशप्रतीतिर्न सम्भवति । गौरवज्ञानमात्रमप्रयोजकम्, अघ्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितस्यैव विरोधिज्ञानस्य सर्वत्र प्रतिबन्धकत्वात् । अनामाण्वज्ञानानास्कन्दितगौरवज्ञानविरहलामाय 'गौरवाज्ञानदझायामित्यनुक्त्वा 'गौरवाप्रतिसन्धानदशायामि' युक्तम् । घटत्यांशेऽवच्छेदकत्वानुदासीनामपि = 'पटनिष्ठप्रतियोगितानिरूपितस्यादन्छेदकत्यस्य घटत्वे वगाहिनीं । | इयं बुद्धिः भ्रमात्मिका समवसे या अपिशब्देन तदनवगाहिधीसमुच्चयः कृतः । 'घटत्वेन पटो नास्तीति धियं घटत्वेन घटवत्ताधीः = घटत्वविशिष्ट पदप्रकारकबुद्भिः, न विरुणद्धि = प्रतिबध्नाति । कस्माद्भतोः ? इत्याशङ्कायामाह- तस्याः = घटत्वविशिष्टयटनकारकधियः, घटत्वावच्छिन्नाभावधियः = चटत्वविशिष्टघटप्रतियोगिकाभावधियः घटल्बारछिन्न-घटनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकाभावबुद्धेरिति यावत् । एक्कारेण घटत्वावच्छिन्न-पटनिष्टप्रतियोगिताकाभावप्रतीतेर्व्यवच्छेदः कृतः । विरोधित्वात्,
:-..-:-.-.. -:-... - - -- निश्चय प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । अतएव उत्तरकाल में उसकी उत्पत्ति होने में कोई बाध नहीं है। यहाँ यह प्रश्न हो कि -- "तादृश उत्तर काल में उत्पत्र बुद्धि अवच्छेदकता अनवगाही कैसे होगी ? क्योंकि 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस बुद्धि में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। जहाँ तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है, उस स्थल में अवच्छेदकता अवगाही बुद्धि होनी है" - तो यह ठीक नहीं है 1 इसका कारण यह है कि तृतीयांत पद से उपस्थापित पदार्थ में अवच्छेदकत्व की कल्पना करने में गौरव है । गौरव दोष ही तृतीया विभक्ति बाले पद के वायार्थ में अचञ्छेदकत्व का बाधक है । यहाँ यह शंका करना कि → “यदि 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस बुद्धि में घटत्व में अवच्छेदकत्व धर्म की कल्पना न की जाय तब तो पटत्व धर्म में अवच्छेदकल की कल्पना करने का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित होगा, क्योंकि प्रतियोगिता स्वान्वयितारच्छेदक धर्म से अवच्छिन्न होती है और तादृश प्रतियोगिना का निरूपकत्व जिस अभाव में रहता है उस अभाव में अन्वयितावच्छेदका. वच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व संबंध से रहने वाला धर्म ही प्रतियोगिता का अवच्छेदक होता है। अतः प्रस्तुत में स्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्व संबंध से अभाव में रहने वाले पटत्व धर्म में अवच्छेदकत्व धर्म की कल्पना करनी होगी जिसके फलस्वरूप में व्यथिकरणथर्मावच्छिन्न - प्रतियोगिताक अभाव की सिद्धि नहीं होगी" ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व संबंध का लाभ तृतीयांत पद के समभिन्याहार के अभाव में ही होता है - यह व्युत्पत्ति है । तृतीया विभक्त्यंत पद के समभिन्याहार स्थल में अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व का लाभ शाब्दबोधस्थलीय नियम से प्राप्त नहीं होता है। अतः प्रतियोगितावयितांचच्छेदकीभूत पटत्व में अवच्छेदकत्व की कल्पना का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित नहीं होगा । यहाँ यह शंका करना कि । -> "अवच्छेदकताअवगाही बुद्धि अवच्छेदकताअनवगाही बुद्धि की विरोधी नहीं है- यह किसी स्थल में देखा गया है ? जिसके बल पर आप उपर्युक्त प्रतिपादन कर रहे हैं" - ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि गौरव का प्रतिसन्धान न होने पर घटत्व अंश में अवच्छेदकत्व की अवगाही 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस बुद्धि की भी 'घटत्वेन घटोऽस्ति' यह पूर्वोत्पत्र बुद्धि प्रतिबन्धक नहीं होती है। इसका कारण यह है कि 'घटत्वेन घटोऽस्ति' ऐसी घटत्वविशिष्ट घटवत्ता अवगाही बुद्धि में घटत्वविशिष्ट घटप्रतियोगिक अभावविपयक बुद्धि का प्रतिबन्धकल है। अनः घटत्वविशिष्ट घटवत्ता का निश्रय केवल घटल्वविशिष्ट
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२५१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का.५ * व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावानतिरेकाऽऽशाका *
अथ व्यधिकरणसम्बन्धावछिमप्रतियोगिताकाभाव एव व्यधिकरणधर्मावच्छिाग्रतियोगि- | ताक इति न तदतिरेककल्पनागौरवम् । न च तथापि घटत्वादेः पदादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वमासकसामग्या घटत्व-पटत्वादिज्ञानस्य नानाविधतदविरोधज्ञानस्य च सहकारित्वकल्पने महद्दोरवमिति वाच्याम, घटत्वादेः पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वधमोपपतये
= == = गयलता *..= = तयोरेव समानाकारकत्वेन प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावसम्भवात् । अयमाशयः घटत्वविशिष्टघटनकारकबुद्धः घटत्वविशिष्टयटाभावप्रकारकबुद्धिविरोधित्वेन तत्प्रतिबन्धकत्वमेव सम्भवति न तु घटत्वविशिष्टपटाभावप्रकारकभ्रमप्रतिबन्धकत्वम् । न च घटत्वविशिष्टप्रकारकचुद्धेः घटत्वविशिष्टप्रतियोगिका भावप्रकारकबुद्धिप्रतिबन्धकत्वमेवोचितम्, न तु घटत्वविशिष्टघटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावबुद्धिप्रतिबन्धकत्वम, प्रतिबध्यतावच्छेदकगौरवादिति वाच्यम, तर्हि घटत्वविशिष्टाभावप्रमावस्यैव लाघवान् प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वमस्तु । तावतैव घटत्वावच्छिन्नपटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावबुद्धेः भ्रमत्वेन प्रतिबध्यताकोटिबहिर्भावसम्भवात् । न । तथापि ज्ञानत्वापेक्षया प्रमावनिवेदो गौरवमव्याहतमेव प्रमात्वस्य तद्वति तत्प्रकारकत्वरूपत्वादिति वाच्यम्, अत एच 'गौरवाऽप्रतिसन्धानदशायामि'त्युक्तत्वात् । इत्यश्चाऽवच्छेदकत्वाबगाहिनः व्यधिकरणधमांवच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावज्ञानस्याऽपि तद्भवच्छिन्नप्रकारकप्रमाग्रतिबध्य ऽवच्छेदकत्वानबगाहिनोभावप्रत्ययस्य तत्प्रतिबध्यत्वम् ? ततः घटत्वेन पटवत्ताऽनाहार्य निश्चय सत्यपि अवच्छेदकत्वानबगाहिनः 'घटत्वेन पटो नास्तीति प्रत्ययस्य सतरामप्रतिबध्यत्वमिति स्थितम । अत एव तुतीयान्तपदोपस्धाप्यधर्मवच्छेदकत्वस्य, कल्पनमपि नातिप्रयोजनम् । अवच्छिन्नत्वञ्चाऽत्र वैशिष्ट्यरूपं सामानाधिकरण्यरूपं वा छोध्यमिति दिक् ।
कश्चिच्छकते - अथेति । अन्वयश्चाऽस्य 'चेदि त्यनेन सह बोध्यः । ब्यधिकरणसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकाभाव एवेति । तत्समनियतत्वादिति शेषः । न तदतिरेककल्पनागौरवम् = व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावातिरिक्त. व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावकल्पनाप्रयुक्तगौरवमित्यर्थः । मध्यस्थस्य शङ्कां निरसितुमुपदर्शयति- न चेति । तथापि = अतिरिक्ताभावलक्षणर्मिकल्पनाप्रयुक्तगौरकविरह-पि, घटत्वादेः पटादिनिष्टप्रतियोगितावच्छेदकत्वभासकसामग्र्याः = घटत्वादिनिष्ठस्य पटादिनिष्टप्रतियोगितानिरूपिताबच्छेदकत्वस्य ज्ञापकसामग्र्याः, घटत्व-पटत्वादिज्ञानस्य घटत्वादि-पटत्वादिविषयकज्ञानस्य नानाविधतद्विरोधज्ञानस्य च प्रतियोगित्वस्य बिरोधित्वलक्षणत्वात् सहकारित्वकल्पने महगौरवमिति । अयमाशयः व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभाव-व्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभादक्यकल्पनेऽपि पटादिनिष्ठप्रतियोगिताया अबच्छेदकत्वेन घटत्वादिभानमावश्यकम् । अतः तद्भानार्थमतिरिक्तसामग्री कल्पनीया, घटत्वादेरभावविशेषणतानवच्छेदकत्वेन पटादिप्रतियोगिकाभावविशेषगताच्छेदकत्वभासकसामग्रयाः घटत्वादिनिष्ठप्रतियोगिताऽवच्छेदकत्वभासकत्वाः योगात् । तदर्थं प्रतियोगितावच्छेदकीभूतबटादिविशेषणतावन्छेदकीभूतपटत्वादिगोचरज्ञानस्य सहकारित्वं कल्पनीयम् । तादृशाभार्यायप्रतियोगिताया व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नत्वेन घटत्वादि-पटत्वादिविषयकविरोधित्वज्ञानस्याऽपि सहकारित्वं कल्पनीयम् । एवञ्चातिगौरवं प्रसज्येतेति ।
अथवादी तात्याचष्टे-घटत्वादेरिति । अयमाशयः घटत्वादेः पटाद्यभावविशेषणतानवच्छेदकत्वेन प्रतियोगितावच्छेदकत्वभानं
घटप्रतियोगिक अभाव का विरोधी है, न कि घटव अंश में अवच्छंदकत्व की अवगाही 'घटत्येन पटो नास्ति' ऐसी बुद्धि का भी, क्योंकि यह बुद्धि अभाव के प्रतियोगी पट में घटत्ववैशिष्ट्य (= घटत्वावच्छिन्नत्व) का अवगाहन करने पर भी घट में अवगाहन नहीं करती है। इसी तरह प्रस्तुत में घटत्वविशिष्टपटवत्ता का अनाहार्य निश्रय घटत्वविशिष्टपटाभावविपयक बुद्धि, जो घटत्व अंश में अवच्छेदकता अनवगाही है, विरोधी नहीं हो सकती है। अतएव यह माना जा सकता है कि घटत्वविशिष्ट पटवत्ता का अनाहार्य निश्रय 'घटत्वेन पटो नास्ति' ऐसी अवच्छेदकता अनवगाही बुद्धि का प्रतिवन्धक नहीं होता है । अतः उत्तर काल में तादृश बुद्धि की उत्पत्ति का अंगीकार करने में कोई क्षति नहीं है-यह सिद्ध होता है।
शंका :- अथ न्य, इति । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव वस्तुतः व्यधिकरणसम्बन्धारच्छिन्नप्रतियोगिताक अभावस्वरूप ही है । अतः गौरव दोष का अवकाश नहीं है। यहाँ यह नहीं कहना कि → "ब्यधिकरणधर्मावच्छित्रप्रतियोगिताक अभाष को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव से अभिन्न मानने पर अतिरिक्त अभाव की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष का अवकाश न होने पर भी आपके पक्ष में महागौरख दोष उपस्थित होता है, जिसका निवारण आप नहीं कर सकते
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* अतिरिक्तप्रतियोगितादिविचार:* तत्कल्पनाया आवश्यकत्वादिति चेत् ? न, तथापि घटत्वादौ पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पने गौरवात ! जन तर स्वमशम्बनधारमतत्कल्पने गौरवधीन विरोधिनी, | एवं सति गुरुणि कारणतावच्छेदकत्वादेरप्यापत्तेः शास्त्रे गौरवपदार्थप्रचारशैथिल्यापातादिति
- . * जयलाता *= प्रमात्मकं न सम्भवति किन्तु भ्रमात्मकमेव । अतः तादृशभ्रमोपपत्तये दर्शितसहकारित्वादिकल्पनाया आवश्यकत्वमेव । न च । गौरवम्. प्रथममतिरिक्ताभावाऽकल्पनलाघवनयेन प्रवृत्नी 'पश्चादुपस्थितस्य तरयाऽदोषत्वात् ।
ननुवादी मौलपूर्वपक्षी अथमतं प्रत्याचष्टे - नेति । तथापि = तादृशभ्रमोपपत्तये तत्कल्पनाया आवश्यकत्वेऽपि, घटत्वादी प्रतियोगिताम्यधिकरणधर्म पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पने गौरवात् । अन्यत्र समानाधिकरणधर्मे एव प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य दृष्टत्वात प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मे स्वानाश्रयवृत्तिप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पनाया अदृष्टचरत्वात् नत्कल्पने | गौरवमव्याहतमवेत्यर्थः ।
नन्ववच्छेदकत्वमवच्छंदकस्वरूपविशेषरूपमेव न तु तदतिरिक्तम्, तदतिरिक्तत्वकल्पने गौरवात्, तत्स्वरूपस्य च क्लृप्तत्वादेव न्यधिकरणधर्मेऽवच्छेदकत्वकल्पनायां न गौरवमिति शङ्का निरसितुमुपदर्शयति - न चेति । तत्र = प्रतियोगितात्यधिकरणधर्मे, स्वरूपसम्बन्धरूपतत्कल्पने = स्वरूपविशेषरूपस्य स्वयधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्थ कल्पने, गौरवधीः = अतिरिक्तावच्छेदकत्वबुद्धिः, न विरोधिनी = न प्रतिबन्धिका | मौलपूर्वपक्षी ननुवादी दर्शितशङ्कानिरासे हेतुं दर्शयति- एवं सतीति ।
अवच्छेदकत्वस्य स्वरूपसम्बन्धरूपत्वकल्पने, गुरुणि = गुरुधमें, कारणतावच्छेदकत्वादेः आदिशब्देन प्रतिबध्यतावच्छेद" कल्वकार्यतावच्छेदकत्वादेः परिग्रहः अपि किमुत प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्येत्यपिशब्दार्थः, आपत्तेः । ततः किमित्याह - गुरो| रम्यवच्छेदकत्यापाते शास्त्रे गौरवपदार्थप्रचारशैथिल्यापातादिति । ततोऽवच्छेदकत्वमतिरिक्तमेवाभ्युपगन्तव्यम् । ततः व्यधिकरण
हैं । महागौरव दोप का प्रतिपादन इस तरह किया जा सकता है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभाव का स्वीकार | करने पर प्रतियोगितान्यधिकरणीभूत घटत्वादि धर्म में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व की भासक सामग्री की कल्पना करनी पड़ेगी । एवं घटत्व-पटत्वादि धर्म के ज्ञान में सहकारित्व की कल्पना करनी होगी। इसी तरह घटत्वादि व्यधिकरणप्रतियोगिता का अवच्छेदक होने की वजह घटत्वादि और प्रतियोगितान्वयितावच्छेदक पटत्वादि में और विरोध ज्ञान में सहकारिकारणत्व की कल्पना करनी पड़ेगी" - इसका कारण यह है कि ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताक अभाव से अभिन्न सिद्ध होता है तब तो घटत्वादि में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व की भ्रमात्मक | बुद्धि के उपपादन के लिए वह कल्पना आवश्यक होने से गौरवरूप नहीं है।
* प्रतियोगितात्यधिpeण घf में अवरोएकत्ल की कल्पना में गौरव - पूर्वपक्षी *
पूर्वपक्षी :- न तथा, इति । जनाब ! आपकी यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि तादृश सहकारित्व की कल्पना आवश्यक होने पर भी आपके मत में प्रतियोगिता के व्यधिकरण घटत्यादि धर्म में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व की कल्पना करने का गौरव तो अपरिहार्य ही है। प्रतियोगितासमानाधिकरण धर्म में ही प्रतियोगितावच्छेदकता होती है. यह तो सर्वजनप्रसिद्ध है । मगर आप के मत में प्रतियोगिताब्यधिकरण धर्म में प्रतियोगितावच्छेदकत्व की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोप प्राप्त होता है । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि --> "प्रतियोगितावच्छेदकत्व तो प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूप ही होता है। पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अचच्छेदकीभूत घटत्यादि का स्वरूप तो क्लृप्त = प्रमाणसिद्ध है, कल्पनीय नहीं है। घटत्वादि में रही हुई पटादिवृत्ति प्रतियोगिता की अवच्छेदकता भी घटत्वादि के स्वरूपसम्बंधात्मक ही है, अतिरिक्त नहीं। अतः प्रतियोगिताऽनाश्रयवृत्ति धर्म में अवच्छेदकत्व की कल्पना करने में कोई गौरव नहीं है" - इसका कारण यह है कि अवच्छेदकत्व को अवच्छेदकस्वरूपविशेपात्मक ही माना जाय तब तो कारणतावच्छेदकता कारणतावच्छेदकस्वरूप हो जायेगी, कार्यतारच्छेदकता कार्यतावच्छेदकस्वरूप हो जायेगी। ऐसा होने पर नो गुरुभूत धर्म में भी कारणतावच्छेदकत्व की आपनि आयेगी । जैसे कि घटगंधादि का कारणतावच्छेदक घटत्व की भाँति कम्बुग्रीवादिमत्त्व भी हो सकेगा, क्योंकि कम्युग्रीवादिमत्त्व में कल्पनीय घटगंधादिकारणतावच्छेदकत्व कम्मुग्रीवादिमत्वस्वरूप ही है। घटत्व की भाँति कम्बुग्रीवादिमत्त्व को कारणता का अवच्छेदक मानने में कोई गौरव नहीं होगा, क्योंकि कारणतावच्छेदकता कारणतावच्छेदकस्वरूपसंबंधात्मक ही है और कम्युग्रीवादिमत्त्व यट में विद्यमान है = सिद्ध है = क्लुप्त है, कल्पनीय नहीं। ऐसा होने पर तो शास्त्र में गौरवपदार्थ का जो दोपरूप से प्रचार है . वह शिथिल हो जायेगा। मगर ऐसा नहीं है। अतः प्रति
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२५३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ५ * अस्तित्व नास्तित्वस्वरूपविचारः *
चेत्' ?
मैवम्, यतो न ात्र घटत्वेन घटस्येव घटत्वेन घटास्तित्वस्य विधिः, न वा घटत्वेन घटस्येव पटत्वादिना घटास्तित्वस्य प्रतिषेधः । किन्तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयपरद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेन मूलाग्रावच्छेदेन वृक्षे संयोगतदभावाविव घटेऽस्तित्वविधिनिषेधो । * जयलता. * --
धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावकल्पने अक्लृप्तावच्छेदकत्वगौरवमव्याहृतमेवेति द्वितीयादिभङ्गानां तद्गर्भितसप्तभङ्ख्या वाऽप्रामाणिकत्वमेवेति मौलपूर्वपक्षिणोऽभिप्रायः ।
अधुना स्याद्रादिन उत्तरपक्षः प्रारभ्यते मैवमिति । अनभ्युपगतोपालम्भदानान ननुवाद्युक्तं सम्यगिति भावः । तदेव प्रकटयति - यत इति । यत्तु ननुवादिना “घटत्वादिना घटास्तित्वं कथं विधीयतां ? अस्तित्वेनैव तद्विधानसम्भवादित्युक्तं तत्राह न हीति । अस्य विधिरित्यनेनान्वयः । घटत्वेन घटस्येवेति । अन्ययोदाहरणमिदम् । दार्द्धान्तिकमाह घटत्वेन घटास्तित्वस्य विधिरिति । घटत्वेन यथा घटस्य विधानं भवति तथाऽस्माभिः प्रथमभङ्गे घटत्वेन वदास्तित्वं न विधीयत इत्यनुकोपालम्भदानेन प्रतिवादी निगृहीतः इति भावः । यच्च ननुवादिना पटत्वादिना वा पातक प्रतिष्यितां ? व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्याऽप्रामाणिकत्वात् (दृश्यतां २३७ नमे पृष्ठे ) इत्युक्तं तन्निरासकृतं स्याद्वादी प्राह न वेति । अस्य प्रतिषेध इत्यनेनाऽन्वयः । घटत्वेन घटस्येवेति । अन्वयदृष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकमाह- पटत्वादिना घटस्तित्वस्य प्रतिषेध इति । यथा त्वेन घटस्य प्रतिषेधः क्रियतं तथाऽस्माभिः द्वितीयभङ्गे पटत्वादिना प्रतियोगिताव्यधिकरणधर्मेण घटास्तित्वस्य निषेधो न क्रियते । अतोऽनुक्तोपालम्मदानेनाऽपरत्राऽपि ननुवादी निगृहीत इति प्रदर्शितम् । तर्हि केन रूपेण कस्य प्रथमे भङ्गे विधिः केन रूपेण करप द्वितीये भने निषेधश्व स्याद्वादिभिः क्रियत इति पराशङ्कायामाह किन्त्विति । निषेधपूर्वमभ्युपगमसूचकोऽयं निपातः । स्वद्रव्यादिचतुष्टय-परद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेन = स्वद्रव्य क्षेत्र काल - भावस्वरूपचतुष्टयावच्छेदेन परद्रव्य-क्षेत्रकाल-भावस्वरूपचतुष्टयावच्छेदेन इत्यर्थः । यथाक्रममग्रे अस्तित्वविधिनिषेधयोरन्ययो बोध्यः । दाष्टन्तिकप्रतीतिदाव्यार्थं दृष्टान्तं विद्योतयति मूलाग्रावच्छेदेन वृक्षे संयोगतदभावाविवेति । यथा वृक्षे मूलावच्छेदेन कपिसंयोगस्य विधिः अग्रभावावच्छेदेन च कपिसंयोगस्य निषेधो भवतः इति दृष्टान्तार्थ: । घटेऽस्तित्वविधिनिषेधाविति । घंटे स्वद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेन अस्तित्वस्य विधिः परद्रव्यादिचतुष्टयेन चाऽस्तित्वस्य निषेध इत्यपि संभवति । तथाहि घंटे स्वद्रव्यपार्थिवत्वाऽवच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधिः योगितावच्छेदकता, कारणतावच्छेदकता, कार्यतावच्छेदकता आदि को प्रतियोगितावच्छेदकादि से अतिरिक्त मानना आवश्यक है । ऐसा सिद्ध होने से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव के अंगीकार पक्ष में उपर्युक्त रीति से गौरव अनिवार्य हो जायेगा । अतः व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव का अंगीकार करना अप्रामाणिक है । अतः सप्तभंगी के द्वितीय भंग में अप्रामाण्य वज्रलेप हो जायेगा । प्रथम भंग का अप्रामाण्य तो पूर्व में बता दिया ही है। फलतः इन दोनों के संमिलन से निप्पन्न सप्तभंगी भी अप्रामाणिक हो जायेगी। अतः सप्तभंगी में प्रामाण्य की जो घोषणा स्याद्वादी ने की है वह ठीक नहीं है ।
उत्तरपक्ष क
स्याद्वादी मैवम् इति | आपने सप्तभंगी के अप्रामाण्य का जो उपालंभ दिया है - वह ठीक नहीं है, क्योंकि आपने जैसा कहा है वैसा हम मानते ही नहीं है । जैसे घट का घटत्वरूप से विधान होता है वैसे हम घटत्व धर्म की अपेक्षा घटास्तित्व का विधान नहीं करते हैं। अतः आपने जो पूर्व में कहा था कि > "घटत्वरूप से घटास्तित्व का विधान शक्य नहीं है, घटास्तित्वत्वरूप से ही घटास्तित्व का विधान हो सकता है" - वह निराकृत हो जाता है । जैसे त्वरूप से घट का निषेध होता है वैसे पदत्वरूप से हम घटास्तित्व का निषेध नहीं करते हैं । अतएव पूर्वपक्षी ने जो कहा था कि "पटत्वादि धर्म से पटास्तित्व का निषेध नहीं हो सकता है, क्योंकि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव अप्रामाणिक होता है" <- वह भी परास्त हो जाता है । जो हम मानते नहीं है, उसका उपालम्भ देना नामुनासिव है । अत्र सप्तभंगी के प्रथम, द्वितीय भंग में हम क्या मानते हैं, उसे कान खोल कर सुनिये | 'घटः स्यादस्ति एव' इस प्रथम भंग में स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावस्वरूप चतुष्टयअवच्छेदेन घट में अस्तित्व का विधान होता है एवं 'घटः स्यात् नास्त्येव' इस द्वितीय भंग में पर द्रव्य-क्षेत्र - काल भावस्वरूप चतुष्टयअवच्छेदेन घट में अस्तित्व का निषेध होता है ऐसा हम मानते
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9. २३७ तमपृतः प्रारम्भः ननुशदिदीपूर्वपक्षः समाप्तः ।
का सप्तभंगी प्रामाणिक है
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* सप्तभङ्गीतरङ्गिणीसंवादः * 'अवच्छेद्याधिकरणसम्बन्दमेवावच्छेदकमिति परद्रव्यादेः नास्तित्वावच्छेदकत्वं कथमनु- ।
=== == * जयलता - SE" - | परद्रव्यभूतजलाधवच्छेदेनाऽस्तित्वस्य निषेधः, स्वक्षेत्रपाटलिपुत्रत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधिः परक्षेत्रभूतकान्यकुब्नत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य प्रतिषेधः, स्वकालरीशिरत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधानं परकालवासन्तिकत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य प्रतिषेधः, स्वभावरक्तत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधिः परभावक्ष्यामत्वायवच्छेदन चाऽस्तित्वस्य निषेधः इत्येवं विचार्यमाणं आद्यभङ्गद्वयं चास्तामश्चत्येव । एवमेव तदर्भितसप्तभङ्गयपि पुमायकोटिमाम्लपत्रोध । - दाएं स्थागोमारो यदेनमन्धो न पश्यति ।
विमलदासेनाऽपि सप्तभङ्गीतरङ्गिण्यां -> "स्यादस्त्येव घटः, 'स्यान्नास्त्येव घटः' इत्यस्य स्वरूपाद्यवच्छिन्नास्तित्वाश्रयो । घटः पररूपाचवच्छिन्ननास्तित्वाश्रयो घट इति च बोधः'' - (स.न.त.पृ.३८) इत्येवं प्रतिपादितम् । युक्तश्चैतत् यदि घटे स्वद्रज्यादिचतुष्कावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधानमिव परद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽपि तद्विधानं स्यात्, घटो वैश्वरूप्यमादधीत । यदि परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन घटेऽस्तित्वस्य प्रतिषेध इब स्वद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽपि तन्निषेधः स्यात् बटो बन्ध्यास्तन्धयतामइनुवीत । न चैवम्, अतः बटे स्वद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदनाऽस्तित्वस्य विधानं परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन तत्प्रतिषेधश्वोपगन्तुमर्हत एवेति स्वसमयोक्तादिशा सम्यगवसेयम् ।
___ ननु अवच्छेदकत्वं स्वावच्छेद्याश्रयसम्बद्धे एवं भवितुमर्हति यथा स्वाबन्छेद्यपिसंयोगाधिकरणीभूतवृक्षसम्बद्भमूले कपिसंयोगावच्छेदकत्वं कपिसंयोगे च तदवच्छेद्यत्वम् । अतो घटबृत्तिनास्तित्वस्याऽवच्छेदकत्वं परद्रव्यादिचतुष्के न संभवि, तस्य स्वावच्छेगनास्तित्वाधिकरणीभूतघटा सम्बद्भत्वात् । ततः कथं घटे परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन नास्तित्वप्रतिपादनं घटाकोटि- | | माटीकेतेत्याशयेन पर प्रत्यवतियते - अवच्छेयाधिकरणसम्बद्धमेवेति । एवकारेणापच्छिन्नाश्रयासम्बन | परमते मुले वृक्षाश्रितत्वविरहात सम्बद्धपदोपादानम । अवच्छेदकामिति नियमादिति शेषः । यथा 'इह पर्वते नितम्बे हताशन' | । इति बोधे 'नितम्बावच्छिन्नपर्वतनिरूपितवृत्तितावान हताशन' इत्याकारके नितम्बस्य वह्निनिष्ठलितावच्छेदकत्वम, अवच्छेद्यीभूताया । वह्निनिष्ठाया पर्वतनिरूपितवृत्तिताया अधिकरणीभूतपर्वतसम्बद्भत्यात् । अतः परद्रव्यादेः घटापेक्षया परद्रव्यक्षेत्रकालादेः नास्तित्वावच्छेदकत्वं = वटवृनिनास्तित्वस्याऽवच्छेदकत्वं, कथं अनुपप्लवं ? नैव सङ्गतमित्यर्थः, अवच्छेद्यावच्छेदकयोवैयधिकरण्यादिति पराकूतम् । हैं । इसकी उपपत्ति ठीक उसी तरह हो सकती है, जैसे वृक्ष में मूलावच्छेदेन कपिसंयोग का विधान और अग्रभागावच्छेदेन कपिसंयोग का निपेध । जब वृक्ष के मूलभाग में बंदर बैठता है तब कपिसंयोग का अवच्छेदक मूलभाग होता है और अधिकरण वृक्ष । उस अवस्था में वृक्ष के अग्नभाग में कपिसंयोग नहीं होता है । अतः कपिसंयोगाभाव का अवच्छेदक अग्रभाग होता है और अधिकरण वृक्ष । अवच्छेदकभेद से एक ही वृक्ष में कपिसंयोग का विधान और निषेध हो सकता है। इसी तरह घट भी स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा सत् होता है, न कि परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से भी । परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा घट असत् होता है। अतः यट में भी स्वद्रव्यादिवतुष्टय अवच्छेदेन अस्तित्व का विधान और परद्रव्यादिचतुष्टय अवच्छेदेन अस्तित्व का निषेध हो सकता है । अवच्छेदकभेद से एक ही द्रव्य में अस्तित्व का विधान और निषेध होने में कोई राधा नहीं हो सकती है . यह तो हम अभी ही वृक्ष में अवच्छेदकभेद से कपिसंयोग के विधान और निषेध के दृष्टांत से प्रतिपादन कर चुके हैं। अतः सप्तभंगी का प्रथम और द्वितीय भंग भी प्रामाणिक ही है। एवं प्रथम और द्वितीय भंग के संयोग से निप्पन्न सप्तभंगी में अप्रामाण्य की घोषणा करना सिर्फ अज्ञान का ही सूचक है। अतः पूर्वपक्षी की उपर्युक्त रामकहानी नितांत अप्रामाणिक एवं उन्मत्त प्रलाप की भाँति अनुपादेय ही है . यह सिद्ध होता है ।
E परदव्यादि चतुष्टय में अवच्छेदकता मुमकिन - स्यादादी र अच्छद्या. इति । यहाँ इस शंका का उदभावन करना कि ->"अवच्छेदक वही हो सकता है जो स्वावच्छेय के अधिकरण से संबद्ध हो । जैसे वृक्ष में कपिसंयोग की अवच्छेदक शाखा हो सकती है, क्योंकि शाखा अपने से अवच्छेद्य - नियंत्रित कपिसंयोग के अधिकरणीभूत वृक्ष से संबद्ध होती है। अतएव प्रस्तुत में द्वितीय भंग में घटवृत्ति नास्तित्व के अवच्छेदकविधया परद्रयादिचतुष्टय का स्वीकार नहीं हो सकता है, क्योंकि परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावस्वरूप चतुष्टय स्वावच्छेद्य नास्तित्व के अधिकरणीभूत घट से असंबद्ध है । घट को स्वद्रव्यादि चतुष्टय के साथ सम्बन्ध होता है। परद्रव्यादि चतुष्टय के साथ नहीं । अत: घट के परद्रव्यादि चतुष्क में पटनिष्ठ नास्तित्व का अवच्छेदकत्व कैसे संगत होगा ?" ठीक नहीं है। इसका कारण
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२५५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ . का.५ * वैशेपिकसूत्रोपस्कार-भाष्यसंबादानेदनम् * पप्लवमिति हो। १ तागनियमे मानाभावादित्येव बूमः । उत्पादव्ययधोव्यक्यरूपं घटास्तित्वं स्वद्रव्यादिचतुष्टयनिर्वृतं, तदमावस्तु परद्रव्यादि-
=-=* जयलता है प्रकरणकृतः तत्प्रत्याचक्षते - तादृनियमे = स्वाश्रयसम्बंधिन एवं स्वावच्छेदकत्वमिति नियमे, मानाभावात् विपक्षबाधकतर्कविरहात । अवच्छेद्यावच्छेदकयोरसामानाधिकरण्ये को दोषः ? इत्यत्र नैव किञ्चिदपि परेण वक्तुं शक्यते ।।
वस्तुतस्तु यथा गौरवप्रतिसन्धानदशायामपि 'कम्बुग्रीवादिमानास्ती'त्यादिप्रत्ययबलात् प्रकारतावच्छेदकवद् गुरुरपि धर्मः प्रतियोगितावच्छेदकः । अत एव तथाविधयत्किञ्चिद्व्यक्तिसत्त्वे तादृशप्रतीतेरनुदयः तत्सामान्यशून्य एव च तदुदयः । तथा घटत्वादी घटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पने गौरवप्रतिसन्धानदशायामपि 'घटल्वेन पटो नास्ती' त्यादिस्वारसिकप्रतीत्युदय- . महिम्नाऽवच्छेद्याधिकरणाइसम्बद्रोऽपि धर्मो त्यधिकरणप्रतियोगिताया अवच्छेदक इत्युपगमे बाधकाभावात् ।
सार्वजनीनप्रीतिस्वारस्यादेवाऽवच्छेदकावच्छेद्ययाळधिकरणत्वेऽपि न क्षतिः । प्रत्यक्षानुसारेणैव नियमकल्पनात् । न हि प्रत्यक्षातिक्रमण नियमस्य प्रवृत्तिः, प्रत्यक्षस्य सर्वप्रमाणेभ्यो बलवत्त्वात्, नियमस्य तदुपजीवकत्वात्, उपजीवकस्योपजीव्यप्रतिक्षेपाश्योगात् । अत एव सामान्यतोऽभावस्य प्रतियोगित्यधिकरणत्वे क्लृप्तेऽपि संयोगाद्यभावे तधात्वा प्रतीतेः तादृनियमस्य सार्वत्रिकत्वं त्यज्यते परेण । तद्वदेवाविच्छेदकाबन्द्रद्ययोः रामानाधिकरण्ये क्लृप्तेऽपि 'घटत्वेन पटो नास्ती' त्यादिस्वारसिकप्रतीतिबलात तयोः सामानाधिकरण्यनियमस्य सार्वत्रिकत्वं त्याज्यमेव. अन्यथा घटत्वेनाःपि पटास्तित्वविधानप्रसङ्गस्य बृहस्पतिना प्यनिराकार्यत्वापातात् ।
न चैनं परस्याऽपसिद्धान्तोऽपि प्रसज्यते. तत्सिद्धान्तानुसारित्वादेतत्कल्पनायाः । तदुक्तं शङ्करमिश्रेण 'सच्चाऽसत्' (वै.सू.अ.५. आ.१, सू.४) इति वैशेषिकसूत्रोपस्कारे -> "भवति हि असन्नश्वो गवात्मना, असन गौरश्वात्मना, असन् पटो घटात्मना'' «- (वै.सू.उप. पृ.३१३) । तदीयभाप्येऽपि -> 'अश्वात्मना सन्नप्यश्वो न गवात्मनास्ती' - (वै.सू.भा. पृ.३१५) त्युक्तम् । अनेन पटादिनिष्ठघटत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगितान्तरकल्पने गौरवादित्यपि प्रत्युक्तम् ।। ____ अत एव घटे परद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदन नास्तित्वस्थ प्रतिपादनमपि सङ्गतिमङ्गति ।
यच श्रीरामप्रपन्नाचार्येण जागदीशीच्यधिकरणदीपिकायां प्रतियोगिता स्वाश्रयाऽवृनिधर्मानच्छिन्ना प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टयशिष्ट्यावगाहिबुद्धित्वावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यतावच्छेदकप्रकारतावच्छेदकानुयोगितानिरूपितत्वात्' (जा.व्य.दी.पृ.९७) ! इत्युक्तं, तन्न चार, अप्रयोजकत्वात् ।
स्वमतेनाऽऽद्यभङ्गद्वयं व्यवस्थापय श्वेताम्बरचूडामणिः प्रकरणकारी दिगम्बरमतेनाऽध्यभङ्गद्विकमुपदर्शयति- उत्पादच्ययधोव्यैक्यरूपं = संभव-विलय-स्थित्यभेदात्मकं घटास्तित्वं स्वद्रव्यादिचतुष्टयनिर्वृतं = स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावनिष्पन्न, तदभावस्तु
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यह है कि . स्वाचच्छेद्य के अधिकरण से संबद्ध ही अवच्छेदक हो सकता है - यह नियम ही अप्रामाणिक होने से मान्य नहीं हो सकता है - ऐसा हम स्याद्वादी कहते हैं। तादृश नियम के विपरीत में ऐसा कहा जाय कि -> अवच्छेदक से अचच्छेद्य का जो अधिकरण है, उससे अवच्छेदक असंबद्ध हो तो क्या क्षति है ? -नो इसके प्रत्युत्तररूप में पूर्वपक्षी की ओर से कुछ भी कथन नहीं किया जा सकता । विपक्षनाधक तर्क के विरह से यह नियम उपादेय नहीं है। अतः पटनिष्ठ नास्तित्व का अवच्छेदक परगन्यादि चतुक भी हो सकता है । अनुभव भी इस बात का पोषक है कि घट मिट्टीरूप से सत् है, जलादिरूए से नहीं । अत: परद्रव्यादि चतुप्कारदेन घट में नास्तित्व का प्रतिपादन करने में कोई बाधा नहीं है । अतः द्वितीय भंग भी प्रामाणिक ही है - यह सिद्ध होता है । एवं तद्गर्भित सप्तभंगी भी प्रामाणिक ही है - यह सिद्ध होता है।'
*उत्पाद-व्यय-पौत्यैक्यात्मक घटास्तित्व - दिगम्बर का अभिप्राय* उत्पाद. इति । व्याख्याकार श्रीमदजी श्वेतांबर आम्नाय के अनुसार सप्तभंगी के प्रथम और द्वितीय भंग का प्रतिपादन करने के बाद दिगम्बर आम्नाय के अनुसार प्रथम और द्वितीय भंग का निरूपण करते हैं। दिगम्बर मनीषियों का यह कथन है कि - 'घटः स्यादस्ति एव' इस भंग = वाक्य में जिस घटास्तित्व का प्रतिपादन किया गया है वह उत्पादव्ययध्रौव्य से अभिन्न होता है एवं स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से निप्पन्न होता है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ में प्रतिक्षण नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती है, पूर्व-पूर्व पर्याय की निवृत्ति होती है और मुल द्रव्यरूप से बस्तु स्थिर रहती है। उत्पाद, व्यय और
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* प्रवचनसारनियसंवादप्रकाशनम् * चतुष्टयनित इति तदर्थ इत्यप्याहुः । मनु 'पटत्वेन घटो नास्ती'त्यत्र अस्तित्वाऽभाववान् घट' इति न धीर्येन पटत्वस्य
= = * जयलता *-..= घटास्तित्वाभावश्च परद्रव्यादिचतुष्टयनिर्वतः = परद्रव्यक्षेत्रकालभावसात इति तदर्थः = 'स्याद् घटोऽस्त्येव, स्याद् घो। नास्त्येवेति भङ्गद्वयार्थः, इत्यपि आहः आशाम्बरा इति शेषः । तदक्तं प्रवचनसारतत्त्वप्रदीपिकायां अ हि द्रव्येण या क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात पृथगनुपलभ्यमानः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कुण्डलाङ्गदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिध्पत्तियुक्तः कुण्डलाङ्गदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैः यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः । तथाहि द्रव्येण वा क्षेत्रण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्यनियुक्तः उत्पादव्ययध्रौव्यैः यदस्तित्त्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कुण्डलाङ्गादपीतताद्युत्यादव्ययश्रीव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तकरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तः कुण्डलाउजन्दपीतताद्युत्यादव्ययध्रीव्यः निष्पादितनिष्पत्तियक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैः निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः तथा दयण वा क्षेत्रण वा कालेन वा भावेन बोत्याव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तरुत्पादव्ययध्रौव्यनिष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तनिष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः" (प्र.सा.त.दी. २/४पृ. ११६) इति । जयसेनेनाऽपि "स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन कटकपर्यायोत्पाद-कणपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतसुवर्णत्वलक्षणध्रीव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य सम्बन्धि यदस्तित्व स एव कटकपयायोत्पाद-कङ्कणपर्यायव्यय-सुवर्णत्वलक्षणध्रौव्याणां सद्भावः" (प्र.सा.२/४ ता.व.पृ.११६) इति प्रवचनसारतात्पर्यवृत्तायुक्तम् ।
समन्तभद्रस्वामिनाऽपि आप्तमीमांसायां 'सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न || ज्यवतिष्ठते ॥ (आ.मी. १५) इत्यादिनाऽस्तित्वस्य स्वद्रव्यादिचतुष्टयनिमित्तकत्वं प्रतिपादितम् ।
स्वमते स्वद्रव्यादिचतुष्टयं घटे स्तित्वावच्छेदकं परद्रन्यादिचतुष्टयं च नास्तित्वावच्छेदकम् । आशापटमते तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयं घटवृत्त्यस्तित्वस्य जनक परद्रव्यादिचतुष्टयं च घटवृत्तिनास्तित्वस्य जनकम् । आहुरित्यनेन स्वकीयाइस्वरसप्रदर्शनं कृतम् । तदीजं त्विदम् - स्वपरद्रव्यादिचतुष्टययोः घटास्तित्वनास्तित्वयोः जनकत्वोपगमे स्वपरद्रव्यादिचतुष्कयोरनन्यथासिद्भत्वे सति कार्याऽव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धेन कार्याधिकरणवृत्त्यत्यन्ताभावाप्रतियोगितरूपस्य कारणत्वस्य कल्पना कर्तव्या स्यात तदपेक्षया नियामकत्वरूपस्यावच्छेदकत्वस्य कल्पनैव लघीयसी । न हि 'इदानीमत्र घटोऽस्ति' इत्यत्र लोका अपि कालदेशयोघंटास्तित्वस्य जनकत्वं प्रतियन्ति किन्तु तदवच्छेदकत्वमेव । न च तयोरवच्छेदकत्वाविशेषेऽपि तदाधारतया तज्जनकत्वमिति बाच्यम्, आधारत्वस्याऽऽधेयस्थितिनियामकत्वरूपत्वं न तु तस्थितिजनकत्वरूपत्वम, अन्यथा परमतप्रवेशप्रसङ्गादिति दिक् ।
द्वितीयभने कश्चित् शङ्कते नन्विति । अस्य 'चेदित्यनेनाइन्वयः । 'पटत्वेन घटो नास्तीति अत्र द्वितीयभने 'अस्ति| त्वाऽभाववान् घटः' = घटोऽस्तित्वाभावाऽऽधार' इति न धीः, जायत इति शेषः । ततः किमित्याह- येन तद्धीबलेन पटत्वस्य श्रीब्य तीनों अविनाभावी हैं। इनके बिना किसी पदार्थ की सत्ता नामुमकिन है । अतः अस्तित्व भी उत्पाद-व्यय-धीच्य से अभिन्न होता है। घटास्तित्व भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से अभिन्न ही है । मगर यह अस्तित्व स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से निप्पन्न होता है । घट की सत्ता मिट्टीद्रव्य, अपने विरक्षित क्षेत्र, अपने विवक्षित काल एवं अपने विवक्षित रक्तवादिस्वरूप भाव से उत्पन्न होती है । इसके विपरीत 'घटः स्यानास्ति एव' इस द्वितीय भंग में यट के नास्तित्व का प्रतिपादन किया जाता है। यह नास्तित्व अस्तित्व का प्रतिपेध है। अर्थात् घटास्तित्व का अभाव घटनास्तित्व है। यह नास्तित्व भी पर न्य, क्षेत्र, काल और भाव से उत्पन्न होता है। घर में जलादि पर द्रव्य, अपने क्षेत्र से विपरीत क्षेत्र, स्वकाल से भित्र काल एवं रक्तवादि स्वभाव से विपरीत श्यामत्यादिरूप परभाव से नास्तित्व उत्पन्न होता है। इस तरह स्वद्रव्यादि चतुष्क से घटास्तित्व और परद्रव्यादि-चतुष्क से नास्तित्व घट में उत्पन्न होता है। यह दिगम्बर विद्वानों का मत प्रवचनसार की टीकाएँ आदि में विस्तृतरूप से बताया गया है । विशेष जिज्ञासु उन ग्रंथो का अवलोकन कर के अपनी जिज्ञासा का शमन कर सकते हैं।
'घटो नास्ति' यहाँ घटाभाव. अस्तित्व का आश्रय - पूर्वपक्ष पूर्वपक्ष :- ननु पट.. इति । सप्तभंगी के 'पटत्वेन घटो नास्ति' इस द्वितीय भंग में आपने (स्याद्वादी ने) पटत्व का
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२५७ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का.. * 'भूतले घटो नास्तीति प्रतीतिविचारः * | तदवच्छेदकत्वं कल्प्येत, किन्तु 'पटत्वेन घटाभावोऽस्तित्वाऽऽश्रय' इति, अन्यथा 'भूतले || घदो नास्ती'त्यत्राऽपि 'भूतलास्तित्वाऽभाववान घट' इत्येव बोध: स्यात, तथा च 'क्व ?'५ इत्यधिकरणाऽकाङ्क्षा केन पूर्यतामिति चेत् ?
= = =* जयलता l तदवच्छेदकत्वं = नास्तिवावच्छेदकत्वं कल्प्येत । तर्हि तत्र कीदृशी बुद्धिर्जायते ? इत्याशङ्कायामाह - किन्विति । 'पटत्त्वेन घटाऽभावोऽस्तित्वाश्रय इति बुद्धि; जायत इति शेषः । घटे नास्तित्वं पटत्वावच्छेदेन न प्रतीयते परं पटत्वावच्छिन्नघटवृतिप्रतियोगिताकाभावेऽस्तित्वं ज्ञायत इत्यर्थः । अतो घटबृनिनास्तित्वावच्छेदकविधया पटत्वस्य प्रतिपादनं न कल्पनामहंतीति भावः ।
विपक्षबाधमाह - अन्यथेति । 'पटत्वेन घटो नास्ती'त्यत्र पटत्वेन घटाभावोऽस्तित्वाश्रय इति बोधं तिरस्कृत्य 'घटो नास्तित्वाश्रय' इति बोधस्याऽभ्युपगमे इत्यर्थः । आपादकं दर्शयित्या साम्प्रतमापाद्यमाह- 'भूतले घटो नास्ती'त्यत्रापति । वाक्य इति शेषः । भूतले घटाऽसत्त्वदायामिति स्वयमेव गम्यते । 'भूतलाऽस्तित्वाभाववान् घटः' = भूतलावच्छिन्नाऽस्ति। त्याऽभावाश्रयो घटः इत्येव बोधः = शाब्दबोध: स्यात् । एवकारेण भूतलनिरूपितवृत्तित्वाभाववान् घटः' इत्यस्य व्यवच्छेदः || कृतः । यतः ‘अग्रे वृक्षो न कपिसंयोगी' त्यत्र 'अग्रावच्छिन्नकपिसं योगाभाववान् वृक्षः' इति शाब्दबोधो जायते तथा 'भूतले घटो नास्ति' इति प्रकृतेऽपि भूतलावच्छिन्नास्तित्वाभावाश्रयो घट' इत्येव शाब्दबोधो जायते न तु 'पर्वते धूमध्वज' इत्यत्र 'पर्वतनिरूपितवृत्तित्वाश्रयो धूमध्वज' इतिवत् 'भूतलनिरूपितवृत्तित्वाभाववान घट' इत्येवं शाब्दबोधः स्यादिति भावः । 'ततः किं नश्छिन्नं ।' इत्याशङ्कायामाह- तथा चेति । 'क्व ?' इत्यधिकरणाकांक्षा = 'कुत्र भूतलावच्छिन्नवृत्तित्वाभाववान् घटः ?' ।। इत्याकारिका श्रोतः तादशघटाधिकरणविषयिणी शाब्दी आकासमा, केन शब्देन, पूर्यतां = निवर्तताम् ? वस्तुतः योगिकोऽत्यन्ताभावो भूतलाधिकरणक' इति बुभोधयिषयन बक्ता 'भुनले घटो नास्ती नि वाक्यं प्रयुक्ते । परं त्वन्मते दर्शितरीत्या श्रोतुः भूतलेऽस्तित्वाभावस्या वच्छेदकत्वमेव भासते, न त्वधिकरणत्वमिति तदधिकरणाकालाया अनुपशान्तत्वेन तादृशवाक्याच्छ्रोतुर्निराकाङ्क्षप्रतिपत्तिर्न स्यादिति 'भूतले पटत्वेन घटो नास्ती'त्यादिरूपेणैव सर्वदा प्रयोगः स्यान्न तु 'भूतले घटो नास्ती'त्यादिरूपः । न चैतद् दृष्टमिष्टं वा । अतः ‘पटत्वेन घटो नास्ती'त्यत्र पटत्वावच्छिन्नघटवृत्तिप्रतियोगिताकाभावोऽस्तित्वाश्रय' इत्येव बोधोऽङ्गीकर्तव्यो न तु पटत्यावच्छेदेनाऽस्तित्वाऽभाववान् घट इत्याकारक इति नन्वभिप्रायः । घटबृत्ति अस्तित्वाभाव के अवच्छेदकरूप में निर्देश किया है। मगर यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'पटत्वेन घटो नास्ति' इस वाक्य से यदि 'घटः अस्तित्वाभाववान ऐसा यटविशेष्यक अस्तित्वाभावप्रकारक शाब्दबोध हो, तभी पटत्व घटनिष्ठ नास्तित्व का अवच्छेदक हो सकता है। मगर तादृश वाक्य से उपर्युक्त शाब्दवोध नहीं होता है। उक्त बाक्य से जो शाब्द बोध होता है उसका आकार है- 'पटत्वेन घटाभावः अस्तित्वाश्रयः' अर्थात् पटत्त्वावभिन्न प्रतियोगिता का निरूपक घटाभाव अस्तित्व = विद्यमानत्व का अधिकरण है। मतलब कि पटत्व पटवृत्ति नास्तित्व का अवच्छेदक न हो कर विद्यमान ऐसे घटाभाव से निरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक है। अतः सप्तभंगी के द्वितीय भंग के द्वारा घट में पटत्वावच्छेदेन नास्तित्व धर्म का प्रतिपादन करना असंगत है।
द्वितीय भंग में जिसकांक्ष शाब्दबोधानुपपति - पूर्वपक्ष चालु अन्यथा. इति । यदि 'पटत्वेन घटो नास्ति' इस वाक्य से जन्य शान्द बोध को घटाभावविशेप्यक-अस्तित्वप्रकारक न मान कर नास्तित्वप्रकारताक-घटविशेप्यताक माना जाय तब तो 'भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य से निराकांक्ष शाब्द बोध का उदय न हो सकेगा। इसका कारण यह है कि आपके (= स्याद्वादी के) मतानुसार उक्त वाक्य से शान्दचोध घटाभावविशेष्यक न हो कर घटविशेप्यक होगा अर्थात् 'भूतरास्तित्वाभाववान् घटः' = 'भूतलावच्छेदेन पट अस्तित्वरहित है' ऐसा शान्द दोध !' होने की वजह 'भूतलास्तित्वशुन्य घट कहाँ है? ऐसी तादृशघट-अधिकरणताविपयिणी शाब्दी आकांक्षा शांत नहीं होती है। : घट में तादृश अस्तित्वाभाव का भान होने पर 'तादृश घट कहाँ रहता है ?' इस विषय का ज्ञान नहीं हो सकता है ।
अधिकरणता अवगाही आकांक्षा की पूर्ति न होने की वजह श्रोता को उक्त वाक्य से निराकांक्ष शान्द बोध नहीं हो सकता है। भूतल का तो यटाधिकरणविधया ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि तब भूतल में घट नहीं होता है और उपयुक्त प्रतीति में भूतल तो घटवृत्ति नास्तित्व का अवच्छेदक है। अतः सप्तभंगी के द्वितीय भंग से जन्य शाब्दरोध को घटविशेष्यक और नास्तित्वप्रकारक न मान कर अस्तित्वप्रकारक और घटाभावविशेष्यक ही मानना युक्तिसंगत है ।
- दितीय भंग में घर हो विशेष्य है, न कि घटाभाव - उत्तरपक्ष ७ | १, ख, प्रती कृत्यधिक.' इत्वाद्धः पाठः ।
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*मुक्तावलीकारमतप्रतिक्षेपः* | 'भूतले घटो नास्ती'त्यत्र 'भूतलावच्छिन्नकालसम्बन्धाश्रयत्वाभाववान घट' इत्येव बोधात्, अन्यथा घढवत्यपि भूतले 'घटो नास्तीतिधियः प्रामाण्याऽऽपत्तेः ।।
== = =* जयलता * =-....-= प्रकरणकृत्तन्निराकरोति -नेति । विपक्षबाधमुन्मूलयति - 'भूतले घटो नास्ती' त्यत्र वाक्ये, सप्तम्यर्थों जन्यत्वम्, अन्वयश्चास्य बोधे । 'भूतलावच्छिन्नकालसम्बन्धाश्रयत्वाभाववान् घट' इत्येव बोधादिति 1 एक्कारेण भूतलास्तित्वाभाववान् घट' इत्याकारकबोधस्य व्यवच्छेदः कृतः । विपक्षबाधमुपदर्शयति- अन्यथेति । तत्र तादृशशाब्दबोधानुपगम इत्यर्थः । अयं समाधानग्रन्धाशयः महानसादी घटसत्त्वे घटशून्यभूतलदशायां घटे महानसाद्यवच्छेदेन कालसंसर्गाश्रयत्वस्य सत्त्वेऽपि भूतलावच्छेदेन कालसंबन्धाधिकरणत्वं नास्तीति 'भूतले घटो नास्तीति वाक्यात् 'भूतलावच्छिन्नकालसम्बन्धाश्रयत्वाभाववान घट' इत्याकारक एव शाब्दबोध उदेतीति स्वीकर्तुं युज्यते. न तु 'घटत्वेन घटाभावो भूतलनिरूपितवृत्तित्वाश्रय' इत्याकारकः । न च शब्दाsबोधितकालसामान्यस्य प्रकारांशे भानमप्रामाणिकमिति वाच्यम्, कालपदस्याऽस्तिपदसमभिव्याहारबलेन वर्तमानकालपरत्वात्, अस्तिपदादेव वर्तमानकालसंसर्गाश्रयत्वरूपस्य वर्तमानकालीनत्वस्योपस्थिते प्रामाणिकगौरवमपि । न च तथापि 'भूतले न घट' इत्यत्र का गतिः ? इति वक्तव्यम्, 'यवान्यक्रियापदं न श्रूयते तवास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते' (न्या.संग्र.प्र.६५) इति वैयाकरणन्यायेन अस्तिपदाऽध्याहारात्, अन्यथाऽऽख्यातपददिरहेग वाक्यात्वानापत्तिः स्यात् । यदि च परेण 'भूतले घटो नास्ती' त्यत्र 'घटाभावो भूतलनिष्ठाधिकरणतानिरूपिताधेयतावान' इति शाब्दबोध उपेयते, तदा परमतेऽत्यन्ताभावस्य नित्यत्वेन भूतले घटसत्वदशायामपि 'भूतले घटो नास्तीति प्रमीत्यापत्तिः स्यात् । न च कालविशेषविशिष्टाधिकरणस्यात्भावसम्बन्धत्वो-: एगमेऽपि घटवति भूतले घटात्यन्ताभावबुद्ध्यापत्तिः निराकर्तुं शक्या, परमते विशिष्टस्य शुद्धानतिरिक्तत्वात् कालस्य नित्यत्वेन - कत्वेन च विशेषाभावाच्च । अत एव विशिष्टातिरिक्तवादिसार्वभीममतानुज्ञायामपि न निस्तारः, अतिरिक्ताभावमङ्गीकृत्य कालविशेषविशिष्टाधिकरणस्य तत्संसर्गत्वकल्पनापेक्षया घटे भूतलावच्छेदेन कालसंसगानाश्रयत्वकल्पनाया एव युक्तत्वाच । एतेन 'घटकालस्य सम्बन्धाघटकत्वात् अत्यन्ताभावस्य नित्यत्वेऽपि घटकाले न घटात्यन्ताभावबुद्धिः' (मुक्ता.पृ.१६३) इति विश्वनाथपञ्चाननभट्टवचनमपि प्रत्याख्यातम् ।
किञ्च भूतले घटो नास्ती'त्यत्र 'भूतलवृत्तिर्यटा भावे इत्येव शाब्दबोध उपयते तदा तस्य 'भूतले घटोऽस्तीतिवाक्यजन्यबोधेन साकं विरोधो नोएपद्येत, ग्राह्याभात्रा नवगाहित्वात् । न हि समानप्रकारका भावाऽनवगाहिज्ञानविरोधः कदापि सम्भवति, अन्यथा भूतले घटसत्त्वे ‘पटो नास्ती'त्यादेरपि विरोधप्रसङ्गात् । अतो 'भूतले घटोऽस्ती' तिवाक्यजो घटविशेष्यकभूतलवृत्तित्वप्रकारकबोधो 'भूतले घटो नास्तीतिवचनजन्यो भूतलवृत्तित्वप्रकारकघटनिष्ठप्रतियोगिताप्रकारका भावविशेष्यकधियं नव विरुन्ध्यात् । तथा च भूतले घटसत्त्वदशायामपि “भुतले घटो नास्ती'तिज्ञानस्य प्रामाण्यं वज्रलेपायितं स्यात् ।
किञ्च 'प्रतियोग्यभावान्चयो तुल्ययोगक्षमा' विति नियमेन 'चंबा न पचती' त्यादी चैत्रे आश्रयतासम्बन्धेन पाकानुकूलकृत्यभावान्वयवत् 'भूतले नास्ति घट' इत्यत्रापि त्वदुक्तरीत्यैव घटविशेष्यकः झाब्दबोधः सिध्यति, अन्यथा सुबन्तविशेष्यताकशाब्दबोधनियमोऽपि विशीर्येत । एतेन 'भूतले न घट' इत्यादी नञोऽभाववल्लाक्षणिकतया भाववता सममनुयोगिनोऽभेदान्वयबोध | एवापयत इति तत्र 'घटाभाववदभिन्न भूतलमि' त्येव बोध उपजायत इति प्रत्युक्तम्, तथा सति 'भूतले यट' इत्यादिवाक्यजन्यबोधे 'भूतले न घट' इत्यादिवाक्यजबीधस्याऽविरोधित्वापनेः सर्वत्रा भाववत एव नार्थतया मुख्याधपरस्य नजओ दुर्लभत्वापत्नेश्च । अनेन तादृालक्षणाया बन्ध्यास्तनन्धयप्रियतमात्वमुपदर्शितम् । न हि मुख्यार्थांभाचे सति शक्यसम्बन्धरूपा लक्षणा सम्भवति ।
उत्तरपक्ष :- न भूत, इति । जनाब ! सप्तभंगी के द्वितीय भंग से घटाभाव में अस्तित्व का विधान न मान कर घट में नास्तित्व का विधान मानने पर आपने जो आपत्ति बताई कि -> 'तर "भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य से अधिकरणतावगाही आकांक्षा का शमन न होने से निराकांक्ष शान्दवाथ अनुपपन्न हो जायेगा' - वह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि 'भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य से जिस शाब्दबोध का उदय होता है उसका आकार हम यह मानते हैं कि . 'भूतलावच्छिन्न कालसंबंधाश्रयताशून्यः घटः । इसका विश्लेपण हिन्दी भाषा में न्याय की परिभाषा के अनुसार यह होगा कि अन्यत्र = पर्वत आदि में घट विद्यमान होने से वह पर्वतादि अवच्छेदेन कालसंबंध का आश्रय है, मगर भूतलावच्छेदेन वर्तमान काल के संबंध का अनाश्रय = आश्रयताऽभाववाला है। मतलब कि उक्त प्रतीति का विशेप्य घट ही है, न कि घटाभाव । यहाँ यह शंका करना कि > "आप भले ही 'भूतले घटो नास्ति' इस प्रतीति को घटविशेप्यक मानो मगर
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२५५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का.५ * व्युत्पत्तिवादसंवादः * 'अत एव सपतिडोचनैक्यनियमोऽपि सङ्गच्छते, अन्यथा 'घटौं नास्ती'त्यस्याप्यापत्ते:,
* जयलता * इत्यमेव 'निपातातिरिक्तप्रातिपदिकार्थयोः भेदेन सानादन्यवबोधस्याव्युत्पन्नत्वनियमऽपि निपातातिरिक्तत्वविशेषणस्यावश्यकत्वमुपपद्यते । तदुक्तं व्युत्पत्तिवादे गदाधरेण -> "भूतले न घट' इत्यादी घटायभावे भूतलाद्यन्वितसप्तम्यांधेयत्वस्येव तात्पर्यवशाद् घटादी सप्तम्यन्तार्थभूतलादिवृत्तित्वाभावस्याऽन्वयबोधोऽप्यनुभवसिद्धः, अन्यथा तादृशवाक्यजन्यस्या ग्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितबोधस्य 'भूतले घटः' इत्यादिवाक्यजन्यघटादिविशेष्यकभूतलाद्याधेयत्वप्रकारकबोधविरोधितायाः सर्वानुभवसिद्धाया अनुपपत्तेः । नञ्पदं विना यत्र धर्मिणि यस्य विशेषणतया भानं यादृशसमभिव्याहाराद् भवति तादृशसमभिव्याहारस्थले नसत्त्वे तत्र धर्मिणि तदभावः प्रतीयत इत्यनुभवापलापप्रसङ्गाच्च । एवञ्च नजर्थाभावेऽनुयोगितया घटायन्चयबोधोपपत्तये निपातातिरिक्तत्वविदोषणमावश्यकम्" - (व्यु.वा.प्र.प.का.प्र.११९) इति ।
स्वोक्तमेव दृढयति - अत एचेति । 'घटो नास्ती'त्यत्राःस्तित्वा भावप्रकारक-घटविशेष्यकशाब्दबाधोपगमादेवेति । सुप्तिोः = प्रातिपदिकविभक्ति धातुविभक्त्योः , वचनैक्यनियमोऽपि - समानवचनकत्वव्युत्पत्तिरपि, अपिशब्देन घटवति । भूतले जायमानाया 'घटो नास्तीति धियो प्रामाण्यं समुचीयते, सङ्गच्छते = उपपद्यते । विपक्षबाधमुपदर्शयति- अन्यथेति । 'घटो नास्तीत्यत्र अस्तित्वाश्रयो घटाभाव' इति शाब्दबोधाभ्युपगमे इति । 'घटी
---:-:::::-::...::-- मानने न मानने से दर्शनशास्त्र में पदार्थ की - तत्व की सिद्धि नहीं होती है, अन्यथा विनिगमनाबिरह से उक्त प्रतीति को घटाभावविशेप्यक भी मानी जा सकती है" - अनुचित है। इसका कारण यह है कि यदि 'भूतले घटो नास्ति' इस प्रतीति को घटाभावविशेप्यक मानी जाय तब तो भूतल में घट होने पर भी 'भूतले घटो नास्ति' यह प्रतीति प्रामाणिक हो जायेगी। देखिये, भूमितल में घट होने पर आपके मतानुसार जो प्रतीति होती है उसका आकार है . 'भूतलवृत्तितावान् घटा' । अर्थात् बुद्धि भूतलनिरूपित-वृत्तिताप्रकारक-घटविशेप्यक है । तथा 'भूतले घटो नास्ति' इस बुद्धि का आपके मतानुसार - भूतलनिरूपितवृत्तिताप्रकारक घटाभावविशेष्यक - यह आकार है । उपर्युक्त दोनों ज्ञानाकार में परस्पर विरोध नहीं है । विरोध नब होता, यदि दोनों में विवोप्य एक होता और तद्वत्ता और तदभाववत्ता का अवगाहन होता । मगर 'भूतले घटः' इस बुद्धि में विशेप्य है घट और 'भूतले घटो नास्ति' इस बुद्धि का विशेप्य है घटाभाव (पूर्वपक्षमतानुसार) तथा दोनों में प्रकार भूतलनिरूपितवृत्तिता होने से ग्राह्याऽभावाऽवगाहिता नहीं है। अतः उक्त दो ज्ञानों में परस्पर विरोध नहीं होता । तामिलनाडु की खान में ग्रेफाइट होता है और राजस्थान की खान में ग्रेफाइट नहीं होता है - इन वाक्यों में कोई भी विरोध का अवगाहन नहीं मानते हैं। परस्परविरुद्ध न होने की वजह पूर्व की भूतलनिरूपितवृनितानिएप्रकारतानिरूपितघटनिष्ठविशेप्यतानिरूपक बुद्धि से उत्तरकालीन भूतलनिरूपितवृत्तितानिष्ठप्रकारतानिरूपितघटाभाववृत्तिविशेप्यताप्रकारक बुद्धि का बाध नहीं होगा । अतएव भूमितल में घट विद्यमान होने पर भी 'भूतले घटो नास्ति' ऐसी घटाभावविशेप्यक प्रतीति भ्रमात्मक प्रतीति न हो कर प्रमात्मक प्रतीति (= प्रमीति) बन जायेगी, जो आप को या किसीको भी इष्ट नहीं है । इस आपत्ति का निराकरण करना हो तो एक ही उपाय है। वह यह कि 'भूतले घटो नास्ति' इस बुद्धि को घटाभावविशेप्यक न मान कर घटविशेप्यक मानी जाय । तब तो 'पटत्वन घटो नास्ति' यहाँ भी घटाभाव में अस्तित्व का विधान न हो कर घट में नास्तित्व का विधान होगा, जिसके फलस्वरूप 'घट में पटत्वावच्छेदेन नास्तित्व है' (= पटत्वेन घटोऽस्तित्वाभाववान)- यह द्वितीय भंग भी प्रामाणिक सिद्ध होगा। अतः पटत्व को घटवृत्ति नास्तित्व का अवच्छेदक मानना ही युक्त है, न कि घटाभावनिरूपित प्रतियोगिता का ।
परमत में 'धटो नास्ति' इस प्रयोग के प्रामाण्य की आपति* अत एब गु, इति । 'घटो नास्ति' यहाँ जायमान शाब्द बोध को अस्तित्वाभावप्रकारक एवं घटविशेष्यक मानने से ही सुन्विभक्ति और तितिभक्ति में ऐक्य = समानरचनकत्व के नियम की उपपत्ति हो सकती है। नामोत्तर विभक्ति को सुन्विभक्ति कहते हैं जैसे 'घटः' में घटपदोत्तर सु विभक्ति बगैरह । धातूतर विभक्ति को 'तिविभक्ति' कहते हैं जैसे कि ! 'अस्ति' में अस् धातु के उत्तर में 'तिपू' प्रत्यय है वह तिङ्ग विभक्ति । 'रामो चलति' में रामपदोत्तर सु विभक्ति एकवचन है एवं चलू घातु उत्तर तिप् विभक्ति भी एकवचन है। दोनों में समान वचन होने से वह प्रयोग सम्यक् कहा जाता है। 'रामो चलत:' यह प्रयोग अप्रामाणिक है, क्योंकि सुविभक्ति एकवचनवाली है और तिविभक्ति द्विवचनवाली है। समान वचन न होने की वजह वह प्रयोग अप्रामाणिक माना जाता है। यदि 'घटो नास्ति' इस वाक्य से जन्य शान्द बोध को घटाभावविशेष्यक माना जाय, तब तो 'घटो नास्ति' यह प्रयोग भी प्रामाणिक हो जायेगा, क्योंकि भावनाविशेप्यभूत घटद्वयप्रति
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* सुप्तिडोः वचनस्यनियममीमांसा * भावनाविशेष्याम्य घटल्यादितियोमिकाशातम्याऽप्यैक्यात् ।
* जयलता * नास्ती' त्यस्य वाक्यप्रयोगस्य अपि आपत्तेः - प्रामाण्यापत्तेः । अत्रैव हेतुमाह भावनाविशेष्यस्य = आख्यातार्थभावनाविशेष्यभूतस्य, घटद्वयादिप्रतियोगिकाभावस्य = द्वित्वावच्छिन्नघटप्रतियोगिकाभावस्य अपि ऐक्यात् = एकत्वसंख्याविशिष्टत्वात् । अयं भावः 'भावनान्वयिनी संख्या' इति नियमात आख्यातार्थभावनाया यत्रान्वयी भवति तद्विशेष्यकसंख्यान्वयबोध एवाख्यातेन जन्यते । तथा च 'वर्तमाने लट् (अष्टा. ३/२/१२३) इति पाणिनिसूत्रात् प्रकृते वर्तमानत्वरूपाया लडाख्यातार्थभावनाया यदि द्वित्वसंख्याविशिष्टघटप्रतियोगिकात्यन्ताभावेऽन्वय: स्वीक्रियेत तदा 'घटी अस्ती'ति वाक्यप्रयोगः प्रामाणिक एवं स्यात्, आरख्यातार्धेकत्वसंख्याया घटद्रयप्रतियोगिकाभावेइन्वयस्याऽबाधितत्वात्, अमावस्यैकत्वात् । न च आख्यातार्धेकत्वसंख्यान्वयस्य घटद्वये बाधितत्वान्नायं प्रयोगः प्रामाणिक इति वक्तव्यम्, भावनाया अविशेष्ये घनदयादा संख्यान्चयबोधस्याऽव्युत्पन्नत्वात् । ततः सुप्तिङोः समानवचनकत्वनियमान्यधानुपपत्त्या अपि 'घटो नास्ती' त्यादौ 'वर्तमानकालसंबन्धाश्रयत्वाभाववान् घट' इत्यादिरूप एलाइन्वयचोधोऽभ्युपगन्तव्यः परेणाऽकामेनाऽपि ।
वस्तुतस्तु 'चैत्रो मैत्रश्च गच्छतः' इत्याद्यबाधितप्रयोगदर्शनात क्रियापदस्य विशेष्यवाचकपदसमानवचनकत्वनियमो नास्त्येव । न च तत्र सुबेकवचनस्यैव द्वित्वादी लक्षणाऽस्त्विति वक्तव्यम्, आनुशासनिकातिरिक्तार्थे सुन्विभक्तेलक्षणाया अनङ्गीकारादिति पूर्वमेवोक्तत्वात्, अन्यथा 'चैत्रो मैत्रश्च गच्छत' इत्यादाविव च्छन्दसि लक्षणयैव स्वादिना द्वित्वादिबोधनसम्भवाद् औ-जसादिरूपादेशिस्मृतिद्वारा द्वित्वादिबोधनिहाय छन्दसि ‘सुपां सुलुक्' इत्यादिसूत्रेण औ-जसादिस्थाने स्वाद्यादेशस्य वैयर्थ्यात्, चैत्रादिपदोत्तरैकवचनस्य द्वित्वादिलाक्षणिकत्वोपगमे तदप्रकृत्यधमनादिसाधारणद्वित्यादिबोधस्य 'प्रत्ययानां स्वप्रकृत्यान्वित-स्वार्थबोधकत्वमिति व्युत्पत्तिविरोधेनाऽनुपपत्तेश्च । आख्यातार्थसंख्यान्वयनोधे च समानविद्रोश्यकतदर्थभावनान्वयबुद्धिसामग्री अपेक्षिता, भावनाया बाधादिग्रहकाले तात्पर्यादिग्रहशून्यकाले चोक्तस्थले द्वित्वान्वयाऽचोधात् भावनाप्रकारकशाब्दबोधसामग्र्याः संख्यान्वयबुद्धित्वाच्छिन्नं प्रति स्वातन्त्र्येण हेतता । अत एव 'घटः तिष्ठत्त' इत्यादयः प्रयोगाः कधं न प्रामाणिकाः स्युः ? इति नारेकणीयम्, आख्यातोपस्थापितद्वित्वादिकमुभयादिरूपान्वयितावच्छेदकाबछिन्ने एवान्वेतीति व्युत्पत्तेः । अत एव घटद्वयप्रतियोगिकाभावस्याख्यातार्थभावनाविशेष्यत्योपगमे 'घटी नास्तीति प्रयोगस्य प्रामाणिकत्दप्रसङ्गोऽपि परमते वज्रलेपायितः । एवमेव 'घटी न स्त' इत्यादेर-प्रामाण्यप्रसङ्गोऽपि दुर्निवारः, भावनाविशेष्याभावे आरख्यातार्थंद्रित्वसंख्याया बाधात् । एकवचनान्तक्रियापदस्पैकत्वसंख्याविशिष्टविशेश्यवाचकपदप्रयोगे साधुत्वात् । अत एव 'घटी अस्ती' त्यादयो न प्रयोगाः ।
योगिकाभाव भी एक - एकत्वसंख्याविशिष्ट ही है । आशय यह है कि लट्, लोद, लिट्, लङ् आदि दश लकार पाणिनि ने बताये हैं, जिन्हें आख्यात कहते हैं। आख्यातार्थ भावना, संख्या आदि हैं। आख्यातार्थ भावना का जहाँ अन्वय होता है वहीं आख्याता संख्या का अन्दय होता है - यह सान्दिको (वैयाकरणों) का नियम है। जैसे 'रामो गच्छति' में आख्यातार्थ वर्तमानत्वरूप भावना का अन्वय राम में होने की वजह आख्यातार्थ एकत्व संख्या का अन्वय भी राम में ही होता है । मतलब कि आख्यातार्थ भावना के विशेष्य में संख्या का अन्वय होता है। यदि भावना के विशेष्य में आख्यातार्य संख्या का अन्वय बाधित हो तब वह वाक्य अप्रमाण कहा जाता है और अबाधित हो नर वह प्रमाण - सत्य कहा जाता है। अब प्रकृत में देखिये, 'घटो नास्ति' इस वाक्य से जन्य बाथ में घर के स्थान में घटाभाव को भावना का विशेष्य माना जाय तब 'घटौ नास्ति' यह वाम्य भी प्रामाणिक हो जायेगा, क्योंकि आख्यातार्थ भावना के विशेप्यभूत द्वित्वविशिघटप्रतियोगिक अभाव में आख्यातार्थ एकल संख्या अबाधित है । एक घट का, दो घट का या हजारों घट का जो अभाव है वह एक ही है, अलग-अलग नहीं । अतः दो घट का अन्यन्ताभाव भी एक ही है, दो नहीं । अतः 'घटी नास्ति' यह प्रयोग प्रामाणिक हो जायेगा । मगर वह प्रामाणिक नहीं है । 'घटौ न स्त:' यह प्रयोग ही प्रामाणिक है । मगर वह प्रामाणिक वचन आपके मतानुसार अप्रामाणिक हो जायेगा, क्योंकि भावना विशेष्यभूत घटद्वयप्रतियोगिकाभाव एक होने से उस में आख्यातार्थ द्वित्व संख्या का अन्वय बाधित है। यह तो उल्टी सृष्टि हो गई। अतः आपको यह मानना ही उचित है कि 'घटो नास्ति' इत्यादि स्थल में प्रतियोगिविशेप्यक शाब्दबोध का ही अंगीकार किया जाय । तब 'घटरी नास्ति' यह प्रयोग प्रामाणिक बनने की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि भावना का विशेप्य घटद्वय हैं, जिनमें आख्यातार्थ एकत्व संख्या का अन्वय बाधित है । अतः 'पटत्वेन घटो नास्ति' इस स्थल में भी पटत्वावच्छेदेन घट में ही नास्तित्व का अन्वय करना उचित है, न कि घटाभाव में अस्तित्व का अन्वय । अतएव वहाँ पटत्व में घटाभावीयप्रतियोगिता की अवच्छेदकता नहीं है किन्तु घटवृतिनास्तित्व की
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२६१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये एण्डः २ - का.५ * सङ्ख्यान्वयविचारविशेषः *
इयाँस्तु विशेषो यत् अस्तित्वनास्तित्वोभयसमावेशाय घटेऽवच्छेदकभेदापेक्षा, केवलभूतलास्तित्वाभाववति तु नापाततः सेति ।
==--.. .---* गयला *] अत्रेदमबधेयम् - 'घटी न स्त' इत्यत्र न द्वित्वसामान्यं तत्प्रतियोगिताबच्छेदकं, यत्किश्चिद्रयवति ‘घटौ न स्त' इति । प्रत्ययात् । नाऽपि द्वित्वविशेषस्तधा, तत्तद्वित्वानामननुगमात् तत्तत्कालीन-तत्तत्पुरुषीयापेक्षाबुद्भया जन्यानां व्यडम्यानां वा द्वित्वविशेषाणामानन्त्यात् । न च तत्तद्वित्वत्वेनाऽवच्छेदकत्वे नाननगम इति वाच्यम्, तनद्वित्वत्वेनाऽनुपस्थितेः । नापि घटत्वं तथा एकपटवत्यपि 'घटी न स्त' इति प्रतीतेः । किन्तु द्वित्वं पर्याप्तिसम्बन्धेन घटत्वञ्च द्वित्वाश्रयांशे विशेषणत्वेनाऽवच्छेदकम् । तादृशधर्मितावच्छेदकत्वञ्चाऽन्यूनवृत्तित्वेन बोध्यम्, तेन एकघटवत्यपि पटमादाय द्वित्ववघटसत्वेऽपि 'वटी न स्त' इतिप्रतीतिर्नानुपपन्ना । एवं 'घटपटौ न स्त' इत्यत्र न घटत्वं पटतं वा केवलं प्रतियोगितावच्छेदकम्, एकैकपटपटवत्यपि तथाप्रत्ययात् । नापे घटपटवृत्तिद्वित्वं तथा, द्वित्वस्य घटपटवृत्तित्वानुपस्थितावपि तथाप्नत्ययोदयात् । नापि घटत्वं द्वित्वञ्च तथा, घटवत्यपि तधाप्रतीतेः । नापि पटत्वं द्वित्त्वञ्च तथा, पटवत्यपि तादृशबोधात् । किन्तु द्वित्वं तद्धर्मितावच्छेदकं घटत्वं पटवञ्च तथा । न च त्रयाणामवच्छेदकत्वे केवलघटादिमति तादृशप्रतीतिर्न स्यादित्याशनीयम्, प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य व्यासज्यवृत्तित्वोपगमे क्षतिबिरहात् । प्रतियोगिताबछेदकावच्छिन्नञ्च घटपटोभयम् । एतेन तादृशसमुदायस्य विरुद्धघटत्वपटत्वरूपधर्मद्वयघटिततया तदवच्छिन्नाऽप्रसिद्धिरिति प्रत्याख्यातम्, घटत्वपटत्वयोविरुद्धत्वेऽपि द्वित्वधर्मिविशेषणतया तयोस्तत्र पर्याप्तिसत्त्वेन द्वित्वधर्मिणः घटत्वपटत्वावच्छिन्नत्यादित्येवमन्यत्रापि यथानभवं स्वयमहनीयम ।
यत्तु भूतले घटो नास्ती'त्यत्राऽपि 'भूतलास्तित्वाभाववान् घट' इत्येव बोधः स्यात् तथा च 'क्व ?' इत्यधिकरणाकाका केन पूर्यतामिति (दृश्यतां २५.७) इत्युक्तम् तन्मन्दम् . यथा 'शास्खायां वृक्षः कपिसंयोगी'त्यत्र शाखावच्छेदन वृक्ष कपिसंयोगः प्रतीयते तथैव 'भूतले घटो नास्ती'त्यत्र भूतलावच्छेदेन घटेस्तित्वाभाव एव प्रतीयते । अत एव घटस्य प्रथमान्तत्वात्कथमधिकरणत्वेन भानं ? इत्याशङ्कापि परिहृता शाब्दबोधे विशेष्यतया भासमानस्य विशेषणाधिकरणतान्याप्यत्वात् । न च तथापि घटाधिकरणताकाका कथं पूरणीया ? इति वाच्यम्, वृक्षाधिकरणताकाङ्क्षायामपि प्रकृतपर्यनुयोगस्य तुल्यत्वात् ।
अथ 'शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी'त्यत्र वृक्षस्य नाउधेयत्वेन निर्देशः, 'भूतले घटो नास्ती'त्यत्र तु घटस्यैवाधेयत्वेन निर्देशः इति ‘भूतलास्तित्वाभाववान घटः क्व ?' इत्यधिकरणाका साया उत्थेितावा अनुपशमनात्र किाशाब्दबोधानुपरनिरिति रेत् ? अत्रोच्यते किमिदं स्वतन्त्रसाधनमाहोस्चित प्रसङ्गापादनं ? इति बिकल्पयामलं समुज्जृम्भते । नायः ‘पटत्वेन घटो नास्ती'त्पत्र 'पटत्वेन घटाभावोऽस्तित्वाश्रय' इति पूर्वमुक्त्वा साम्प्रतं 'भूतले घटो नास्ती'त्यत्र घटस्याऽऽधेयत्वोपगमेऽपसिद्धान्तप्रसङ्गात् । नापि दैतीयिकः, मन्मते साम्प्रतकालस्यैव तादृशघटाधिकरणत्यसम्भवात्, 'इदानी भूतले घटो नास्ती' तिप्रतीते: सर्वानुभवसिद्धाया तादृशघटाधिकरणत्वाकाङ्कोपशामकत्वात्, देशे कालस्येव काले देशस्थायवनछेदकत्वस्या पलापानहत्वादिति दिक् ।
एतावता स्थितमेतत् - 'बटो नास्ती' त्यादी प्रतियोगिविडोश्यक एव शाब्दबोधः । ततः ‘पटल्वेन घटो नास्ती'त्यत्र पटत्त्वे न घटाभावीयप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वं किन्तु घटनिनास्तित्वस्यैवेति । अत एव परद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेन घटादी अस्तित्वनिषेधप्रतिपादकस्य द्वितीयभङ्गस्य प्रामाण्यमन्याहतमेवेति । एतेन प्रतियोग्यवृत्तिधर्मस्याऽनवच्छेदकत्वनियमे मानाभावोऽपि प्रदर्शित इत्यादिकं दिव्यदृशा निरीक्षणीयं स्वयमेव ।
अत्रैव विशेषमुपदर्शयति प्रकरणकृत - इयां स्त्विति । घटेऽवच्छेदकभेदाऽपेक्षेति । अस्तित्वनास्तित्वयोः परस्परविरुद्धत्वन घटे नदुभयसमावेशस्य भिन्नावदेनेव सम्भवात । केवलभूतलास्तित्वाभाववति भूतलावच्छिनकालसम्बन्धाश्रयत्वविरहवति धर्मिणि तु न आपाततः = विचारमृते सा = अवच्छेदकभेदापेक्षा; अस्तित्व-नास्तित्वो भयसमावेशायेत्यवानुवर्तते । धर्मिता
अवच्छेदकता है। इसलिए सप्तभंगी के द्वितीय भंग का हमने (स्याद्वादी ने) जो निर्वचन किया है, वही मुनासिब है- यह तर्क से भी उपदर्शित पद्धति के अनुसार सिद्ध होता है ।
* सातच्छिन्न नास्तित्व और निच्छिता अस्तित्व में विरोध नहीं है * इयांस्तु. इनि । यहाँ प्रकरणकार श्रीमद्जी एक धर्मी में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म के समावेश में अवच्छेदक भेद की अपेक्षा कब होती है ? इस विषय का निरूपण करते हैं । घट में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म का समावेश करना
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*अवच्छेदकभेदापेक्षाप्रयोजनम् * 'घटवत्यपि भूतले क्वचिन्दटे भूतलास्तित्वाभावात् 'भूतले घटो नास्तीति वाक्यं योग्य | स्यादिति चेत् ? स्यादेव, घटत्वसामानाधिकरण्येन भूतलास्तित्वाऽभावाद, घटत्वावच्छेदेन
=...= = * जयलता : क्छेदकविधया सावच्छिन्नविरुद्धधर्मस्य भानादिति हेतुर्गम्यने । अयं भावः ‘पर्वती बहिमान वयभावांश्च' इति ज्ञानमवच्छेदकभेदकृते नोदेतुमर्हति किन्तु 'नितम्बावच्छेदेन बयभाववान् पर्वतो बहिमान्' इति ज्ञानं भवितुमर्हति । न हि नितम्बावच्छिन्नवहयभाववत्ताज्ञानं स्वप्रकारविशिष्टे वह्निमनाज्ञानं विरुणद्धि, ग्राह्याभाचाऽनवगाहित्वात् । एवं प्रकृते 'घटोऽस्ति नास्ति चे'ति ज्ञानमवच्छेदकमेदज्ञानमपेक्षते किन्तु 'भूतलावच्छिन्नास्तित्वाभाववान् घटोऽस्ती ति ज्ञानमवच्छेदकभेदज्ञानं नापेक्षते सावच्छिन्ननास्तित्वज्ञानस्य समानधर्मिकाऽस्तित्वज्ञानाऽविरोधित्वात् । ततश्च धर्मितावच्छेदकीभूतसावच्छिन्ननास्तित्व-विधेयात्मकाऽस्तित्वोभयसमावेशोऽवच्छेदकभेदमतेऽपि एकत्र सिद्धयनि ।
ननु यथैकत्र सावच्छिन्ननास्तित्ववत्ताज्ञानमवच्छेदकभेदं बिनाऽपि निरवच्छिन्नास्तित्वधियं न विरुणद्धि तथैका सावच्छिन्ना:स्तित्वबोधोऽपि निरवच्छिन्ननास्तित्वबुद्धिं न विरुन्ध्यात्, तुल्यत्वात, अन्यथा पक्षपातमात्रात् । एवञ्चोपगमे भूतले घटसत्त्वदशायामपि भूतले घटो नास्ति' इति वाक्यं प्रमाणं स्यादित्याशयेन कश्चिच्छङ्कते - घटवत्यपि भूतल इति । 'भूतले घटवति सत्यपी' ति विपरिणतान्वयः कार्यः । स्वचिघटे = कस्मिंश्चिद् घटे, घटविशेषे इति यावत् । भूतलास्तित्वाऽभावात् = भूतलावच्छेदेन नास्तित्वसद्भावात्. 'भूतले घटो नास्तीति बाक्यं योग्यं = प्रमाणं स्यात् । उपलक्षणात् भूतले घटाऽसत्त्वदशायां 'भूतले घटो नास्तीति वाक्यमपि प्रमाणं प्रसज्येत भूतलविशेषावच्छेदेन बटेऽस्तित्वसद्भावादिति स्वतो ज्ञेयम् ।
___'इष्टं मिष्टं वैद्योपदिष्टश्चेति न्यायेन समाधत्ते - स्यादेवेति । तादृशं वाक्यं प्रमाणं स्यादेवेति । हेतुमाह - घटत्वसामानाधिकरण्येन = घटत्ववति कस्मिंश्चिद् घटे धर्मिणि, भूतलास्तित्वाऽभावात् = निषेध्यभूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वस्य विरहान् । भूतलस्थघटे भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वसत्त्वेऽपि पर्वतीयादिघटे तद्विरहेण तदा 'भूतले घटो नास्तीति वाक्यं प्रमाणमेव, अबाधिता:बच्छेदकसामानाधिकरण्याऽवगाप्रितीतिजननात् । अत्राऽनेकान्तं दर्शयति- घटत्वाऽवजनेदेन तु = यायति घटत्वविशिष्टे तु,
हो तब भिन्न भित्र अवलोक धर्म का ज्ञान जरूरी है। यहाँ घट धर्मी है और अस्तित्व-नास्तित्व धर्म हैं। अतः घटात्मक एक धर्मी में उपर्युक्त विरुद्ध धर्म के समावेश के लिए भिन्न अवच्छेदक की अपेक्षा ठीक उसी तरह संगत हो सकती है, जैसे एक वृक्षरूप धर्मी में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव के समावेशार्थ शाखा और मूलस्वरूप भिन अवच्छेदक की अपेक्षा । मगर केवल भूतलाऽस्तित्वरहित पदार्थ में अस्तित्व-नास्तित्वोभय समावेश के लिए भिन्न अवच्छेदक की अपेक्षा नहीं होती है। आशय यह है कि वृक्ष में कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव का समावेश अवच्छेदक में भिन्नता की अपेक्षा रखता है मगर | मूलाबच्छिन्नकपिसंयोगाभावविशिष्ट वृक्ष में कपिसंयोग के समावेशार्थ मूल से भिन्न अवच्छेदक की अपेक्षा नहीं होती है, क्योंकि सावचित्रधर्मविशेषप्रतियोगिक अभाव कभी भी निरवञ्चिनतद्धर्मवृत्तिता का विरोधी नहीं होता है। इसी तरह घट में अस्तित्वनास्तित्वोभय धर्म के समावेश में अवच्छेदकभेद की अपेक्षा होने पर भी भूतलारच्छिन्नाऽस्तित्वशुन्य घद में अस्तित्व धर्म का अन्वय करने में कोई विरोध उपस्थित नहीं होता है। अतएव अवच्छेदकभेद की अपेक्षा के बिना भी भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावविशिष्ट घट में अस्तित्व सामान्य का समावेश हो सकता है । घट भूतल में भले ही न हो, मगर पर्वत-तालाब, वृक्ष आदि पर तो हो सकता है । अतः घट में अस्तित्व और भूतलावच्छिन्ननास्तित्व उभय का समावेश भिन्न भिन्न अवच्छेदक के ज्ञान के रिना भी हो सकता है। न्याय की परिभाषा में यह भी कहा जा सकता है कि - अवच्छेदकभेद की अपेक्षा तर उपस्थित होती है, जब दो या अनेक धर्म का एक धर्मी में समावेश करने पर विरोध उपस्थित हो। प्रस्तुत में भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वाभावप्रकारकघटविशेष्यक ज्ञान सिर्फ भूतलाऽवचिोमाऽस्तित्वप्रकारक-घटविशेप्यक ज्ञान का विरोधी हो सकता है, न कि अस्तित्वप्रकारकघटविशेप्यक ज्ञान का, क्योंकि उन दोनों के बीच समान आकार नहीं है। ग्राह्याऽभावाऽवगाही होने पर ही ज्ञान में विरोध हो सकता है। भूतलाऽवच्छिन्नास्तित्वाभावविशिष्ट घट में निस्वच्छिन्न अस्तित्व का समावेश करने में विरोध ही अनुपस्थित है। अतएव सामान्यतः घट में भूतलावच्छिनाऽस्तित्वाभाव और अस्तित्व, इन दोनों धर्म का समावेश भिन्न भिन्न अवच्छेदक की अपेक्षा के बिना भी हो सकता है।
- एक पाक्य का तात्पर्यभेद से प्रामाण्य-अप्रामाण्य - स्यादादी ** घरवत्यपि, इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "जैसे निरवच्छिन्नाऽस्तित्व का सावच्छिन नास्तित्व विरोधी नहीं है वैसे निरवच्छिन्ननास्तित्व का सावच्छिन्न अस्तित्व भी विरोधी नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों के ज्ञान में ग्राह्याऽभावाऽनवगाहित्व
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२६३ मध्यमस्याद्वादरवर खण्ड: ५ का ५ *तात्पर्यभेदन योग्यायोग्यत्वसमर्थनम्
तु तदभावाभैवगिति तात्पर्यभेदेन तस्य योग्यायोग्यत्वे ।
अनुयोगितावच्छेदकावच्छेदेनैव नञर्थाऽभावान्वयस्य व्युत्पत्तिशिदत्वादयोग्यमेव तदिति
पुनरूये ।
* गयलवा
तदभावात् भूतावच्छिन्नाऽस्तित्वाभावाभावात्, नैचं = न प्रामाण्यं इति = अस्माद्धेतोः, 'इतिशब्दः स्मृतो हेती प्रकारादिसमाप्तिषु (हला. ५/८८७) इति हलायुधकोशवचनात् तात्पर्यभेदेन तस्य वाक्यस्य योग्यायोग्यत्वे । अवच्छेदकसामानाधिकरण्यता 'भूतले बटो नास्तीति वाक्यस्य प्रामाण्यं अवच्छेदकाऽवच्छेदेन लुभोधयिषायां त्वप्रामाण्यमित्यर्थः । यथा वाय्वादी रूपविरहेऽपि 'द्वन्यं रूपवदिति वाक्यस्य तात्पर्यभेदन प्रामाण्याप्रामाण्ये तथा भूतले घटसत्त्वेऽपि भूतले दो नास्तीति वाक्यस्य तात्पर्यभेदेन तत्त्वं । अत एव भूतले घटाऽसत्त्वदशायां 'भूतले घटोऽस्तीति वाक्यं योग्यं स्यादित्युक्तावपि न क्षतिः, अवच्छेदकसमानाधिकरणाऽवच्छेदकावच्छिन्नप्रतीतिजननतात्पर्यप्रयुक्ततद्योग्यायोग्यत्वयोरनिराकार्यत्वात् । वस्तुतस्तु सर्वत्रैवाऽस्तित्वादेः सावच्छिन्नत्वमेव भेदनयाऽवतारे । अत एव 'आपातत' इत्युक्तम्, निरवच्छिन्नसत्त्वादेः क्वचिदपि कदापि अप्रतीतेः । एतेन पराभिमता निरवच्छिन्ना महासत्तापि प्रत्युक्ता ।
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स्वमतमुक्त्वा साम्प्रतमत्राऽन्येषां मतमाविष्करोति- अनुयोगितावच्छेदकावच्छेदेनैव धर्मितावच्छेदकावच्छेदेनैव, एव| कारेणाऽनुयोगितावच्छेदकसामानाधिकरण्यव्यवच्छेदः कृतः । नञर्थाऽभावान्वयस्य - नञर्थोऽत्यन्ताभावसम्बन्धस्य, व्युत्पत्तिसिद्धत्वात् प्रकृतं भाववदमन्योन्याऽभावपरतया न संभवति, 'बटो न रक्तघटः' इत्यादी नञर्थभेदान्ययस्य घटत्त्वावच्छेदेन बाधात् । | नाऽपि तत् संसर्गाभावपरतया सम्भवति प्रागभावाऽवगाहिप्रतीती बाधात, ध्वंसे चाऽसम्भवात् । अतोऽत्यन्ताभावपरतया तद्व्याख्यातम् । तादृशव्युत्पत्तिमहिम्ना अयोग्यमेव = अप्रमाणमेव भूतले घटसत्त्वदशायां तत् = 'भूतले घटो नास्तीति वाक्यम्, नञर्थात्यन्ताभावाऽनुयोगिताऽच्छेदकीभूतघटत्वावच्छेदेन भूतलास्तित्वाभावस्य बाधात् भूतलस्थघंटे भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वाभाव
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समानप्रकारकाऽभावाऽनुल्लेखित्व समान है । मगर ऐसा मानने पर तो भूतल में घट होने पर भी 'भूतले घटो नास्ति' 'भूमितल में घट नहीं है' यह वाक्य योग्य प्रामाणिक हो जायेगा । इसका कारण यह है कि विवक्षित घट में भूतलास्तित्व होने पर भी अन्य पर्वतादिवर्ती घट में तो भूतलवृत्तिता न होने से भूतलावच्छिनाऽस्तित्वाऽभाव का अन्वय हो सकता है, दोनों में विरोध नहीं है' - तो यह नामुनासिव है, क्योंकि यह तो हमें इष्ट है । घटत्वसामानाधिकरण्य से भूतलाबच्छिन्ननास्तित्व का सद्भाब होने से भूतल घटवाला होने पर भी तादृश वाक्य योग्य हो सकता है । भूमितल में एक दो या दस-बारह घट हो सकते हैं मगर 'भूतल घटवाला है' इसका मतलब यह नहीं है कि सारे जहाँ के घट इस भूमितल पर आ गये हैं । भूतल से भिन्न पर्वत आदि में भी घट हो सकते हैं, जिससे पर्वतादि से अवच्छिन्न अस्तित्व (= कालसंबन्धाश्रयत्व ) होता है. न कि भूतलावच्छिन्नास्तित्व । तादृश घट में भूतलास्तित्व का अभाव होने से 'भूतले घटो नास्ति' यह वाक्य योग्य है। भले ही भूतल में दो-चार घट पड़े हों, मगर घटत्व के आश्रय यत् किंचित् घट में तो भूतलास्तित्वाऽभाव है ही । हाँ, यदि भूमितल में घट होने पर 'घटत्वावच्छेदेन भूतलास्तित्व नहीं है' अर्थात् 'घटमात्र में सभी घट में भूतलावच्छ्रिाऽस्तित्व नहीं है' इस तात्पर्य से बक्ता 'भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य का प्रयोग करे तब तो वह वाक्य अयोग्य अप्रामाणिक ही होगा, क्योंकि भूतलस्थ घट में भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभाव बाधित है। इस तरह भूतल में घट होने पर 'भूतले घटो नास्ति' यह वाक्य घटत्वसामानाधिकरण्य से ( यत् किञ्चित् घट में ) भूतलास्तित्वाभावप्रतिपादन के तात्पर्य से योग्य है और घटत्वावच्छेदेन ( सब घट में) भूतलास्तित्वाभावप्रतिपादन के तात्पर्य से अयोग्य है। यह सिद्ध होता है ।
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नजर्थान्वय अनुयोगितावच्छेदकावच्छिन्न में होता है
अन्यमत [D]
अनुपा इति । व्याख्याकार यहाँ अन्य मनीषिओं के मत का प्रतिपादन करते हैं। उन मनीषिओं का कहना है कि - 'न के अर्थ अत्यंताभाव का अन्वय अनुयोगितावच्छेदकावच्छेदेन होता है यानी धर्मितावच्छेदकावच्छिन्न सकल में होता है, यह एक व्युत्पति शाब्दबोधस्थलीय नियम सिद्ध प्रमाणप्रसिद्ध है । जैसे 'शंख में श्याम वर्ण नहीं होता है' 'राजे श्यामत्रण नास्ति' यहाँ अनुयोगी धर्मी है श्याम रूप, अनुयोगितावच्छेदक है श्यामरूपत्व | अतः उक्त नियम के अनुसार यहाँ शब्दाञ्वच्छिनाऽस्तित्वाऽभाव का श्यामरूपत्वाऽवच्छेदेन = सकल श्याम रूप में अन्वय होगा । वह अबाधित है, क्योंकि सभी शंख श्वेतरूपविशिष्ट होने से श्याम रूप में शंखाsस्तित्वाभाव रहता है । अतएव वह वाक्य योग्य प्रमाण है । मगर अब भूमितल के ऊपर घट रहता है, तब 'भूतले घटो नास्ति' यह वाक्य तो अयोग्य ही है, क्योंकि यहाँ अनुयोगी
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* दिगर्थविभावने शङ्कराचार्यमतनिराकरणम् * । एतन्मते कपिसंयोगवति वृक्षे 'वृक्षे कपिसंयोमो नास्तीति न प्रमाणं, कपिसंयोगत्वावच्छेदेन वृक्षास्तित्वाऽभावाऽभावात् । 'मूले वृक्षे कपिसंयोगो नास्तीतितु प्रमाणमेव, कपिसंयोगत्वावच्छेदेनैव मूलाच्छिन्नवृक्षावच्छिन्नकालसम्बन्धाऽभावात् । 'घटः स्यादस्तित्ववान् स्यादस्तित्वाऽभाववानिति बोधान्तरादप्यस्तित्व-नास्तित्वयोः समावेशसिद्धिरिति कि ।
== = ====* जयलता. * विरहात् । एतेनेकत्र सादच्छिन्नास्तित्वधर्मज्ञानस्य निरवच्छिन्ननास्तित्वधीविरोधित्वमावेदितम् ।।
प्रकरणकार आह एतन्मते = प्रकृतेऽन्यमते, कपिसंयोगवति वृक्षे सति 'वृक्षे कपिसंयोगो नास्तीति वाक्यं न प्रमाणं | = प्रमाजनक, हेतुमाह-कपिसंयोगत्वावच्छेदेन = नर्थाभावधर्मितावच्छेदकीभूतकपिसंयोगत्वावच्छिन्ने, वृक्षास्तित्वाभावाभावात् = वृक्षावच्छिन्नसाम्प्रतकाल-संसर्गाश्रयत्वाऽभावविरहात, पर्वतादिवृत्तिकपिसंयोगे वृक्षावच्छिन्नास्तित्वाः नाबसवपि अनिकपिसंयोगे तद्विरहात् । तर्हि किम्भूतं तत्प्रमाणमित्याशङ्कायामाह प्रकरणकृत् - 'मूले वृक्षे कपिसंयोगो नास्ती' ति तु प्रमाणमेवेति । शाखावच्छेदेनैव वृक्षे कपिसंयोगसत्त्वदशायामिति गम्यते । तत्प्रमाणत्वे हेतुमाह-कपिसंयोगत्वावच्छेदेनैवेति । यकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थः । मूलावच्छिन्नवृक्षावच्छिन्नकालसम्बन्धाभावात् = मूलावच्छिन्नो यो वृक्षः = वृक्षविदोपः तदवच्छिन्न यः कालः वर्तमानका संसर्ग अपाचनिरहर का । विशेष्यतावच्छेदकावच्छेदेनाऽन्धया बाधागदृशं वाक्यं योग्यमिति भावः । एवं च पुरावर्तिनि भूतले घटसत्त्वदशायां 'भूतले घटो नास्ती'ति वाक्यं न प्रमाणम, 'अन्यत्र भूतले घटो नास्ती'ति प्रमाणमिति भावनीयम ।
नन्वेवं नर्धात्यन्ताभावस्य धर्मितावच्छेदकाबच्छेदेनेवाऽन्वयाङ्गीकर्तृमतेऽस्तित्वनास्तित्वोभयधर्मनिवेशः कथं युक्तः स्यात् ? अनुयोगितावच्छेदकावन्छंदनाऽनुयोगितावच्छेदकसामानाधिकरण्येन वाऽस्तित्वबोधेनुयोगितावदकावच्छेदन नाम्कि-।- वयबोधस्याऽसम्भवादित्याशङ्कायामाह- 'घटः स्यादस्तित्ववान् स्यादस्तित्वाभाववानिति बोधान्तरादपीति । यतः २. द्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽस्तित्वान् परद्रन्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽस्तित्वाऽभाववानि त्याकारकज्ञानविशेषादपीति । अस्तित्व-नास्नित्त्वयोः परस्परविरुद्धधर्मयोः एकत्र धर्मिणि समावेशसिद्भिः। स्वद्रव्यादिचतुष्टया वच्छिन्नाऽस्तित्ववनि घटेऽन्वयितावच्छेदकीभूत घटत्वाःबच्छेदेन नञर्थपरद्रव्यादिचतुष्टयावचिन्नाऽस्तित्वाऽभावान्वयस्याऽबाधात् । अपिशब्देन 'स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेन घटोऽस्ती' - त्यस्य 'परद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेन घटो नास्ती' त्यस्याऽपि ग्रहणम् । एतेन 'एकस्मिन धर्मिणि सत्त्वाउसच्चयोविरुद्धयोधर्मयोरसम्भवात् सत्त्वे चैकस्मिन्धर्मेऽसत्त्वस्य धर्मान्तरस्याऽसम्भवादसत्त्वे चवं सत्त्वस्याऽसम्भवादसङ्गतमिदमाहत मतं' (.सू.२/ |२/३३ शां,भा.) इति ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यवचनं प्रत्याख्यातम् घटत्वाद्यवच्छेदेन वटादावकस्मिन् धर्मिणि स्वद्रव्यादिलक्षण
है घट और अनुयोगितावछेदक है घटत्व, मगर घटत्याऽवच्छेदेन भूतलास्तित्वाऽभाव रहता नहीं है । जहाँ जहाँ घटत्व रहता | है, वहाँ वहाँ भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभाव नहीं है । घटत्व तो भूतलस्थ घट में भी रहता है, मगर भूतलारितन्याभाव वहां रहता नहीं है। प्रस्तुत में नञ् (न पद) का समभिव्याहार होने के सवत्र अनुयोगितावच्छेदकावच्छेदेन नबर्ध अभाव का अन्वय साकाक्ष है। मगर उपर्युक्त प्रकार से वह बाधित है। अतएव यह प्रयोग अयोग्य ही है ।
पतन्मने. इति । इस तरह प्रकरणकार अन्य मत का उल्लेख करके उसके मतानुसार अपना वक्तव्य प्रकट करते हैं कि '- प्रस्तुत विद्वानों के मतानुसार जब पेड़ की शाखा में बंदर का संयोग होता है तब 'वृक्षे कपिसंयोगो नास्ति' यह वचन अयोग्य है, क्योंकि अनुयोगितावच्छेदकीभूत कपिसंयोगत्वाऽवच्छेदेन वृक्षावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभाव बाधित है। जहाँ जहाँ कपिसंयोगत्व रहता है, वहाँ वहाँ वृक्षाऽवच्छिन्नाऽस्तित्व नहीं रहता है । कपिसंयोगत्व नो वृक्षीयशाखारथ कपिसंयोग में भी रहना है, मगर उसमें वृक्षाऽवच्छिन्नास्तित्वाऽभाव नहीं रहता है, क्योंकि वह अनुयोगी वृक्षवृत्ति होने की वजह श्वाऽवच्छिन्नवर्तमानकालसंसर्गाश्रयत्वविशिष्ट है। मगर 'मूले वृक्षे कपिसंयोगो नास्ति' यह वाक्य तो योग्य ही है। वह इस तरह उक्त वाक्य में प्रथमारिभक्त्यन्त पद है 'कपिसंयोगः' । अतः बंदरसंयोग अनुयोगी = धर्मी है, क्योंकि प्रधमाविभक्तिविशिष्ट पद का अर्थ वाक्यजन्य शान्दबोध में अनुयोगी - धर्मी = विद्रोप्य होता है । अतः अनुयोगितावच्छेदक होया कपिसंयोगत्व । नन का सनिधान होने की वजह प्रकृत में अनुयोगितावच्छेदकाऽवच्छेदेन ही अभाव का अन्चय हो सकता है। अतः कपिसंयोगत्वाऽवच्छेदेन ही मूलावच्छिन्न वृक्ष से अवच्छिन्न वर्तमान काल के सम्बन्ध के आश्रयत्वरूप मुलावचित्रवृक्षास्तित्व के अभाव का अन्वय हो सकेगा और वह अगचित ही है । अतएव वह वाक्य प्रमाण है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो कि > 'अनुयोगिताअवछेदकाचच्छेदेन ही अभाव का अन्चय अङ्गीकार किया जाय तो एक धमी में अस्तित्व नास्तित्वोभय धर्म का समावेश कैसे हो सकेगा ? क्योंकि अस्तित्व नास्तित्व का विरोध करेगा' - तो इसका प्रत्युत्तर यह है कि 'घटः स्यादस्तित्ववान् स्यादस्तित्वाऽभाववान्'
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२६५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: का. ५
* शुद्धाशुद्धत्वविचारः *
स्यादेतत् जीवादिद्रव्याणां स्वद्न्यान्तराऽभावात्स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन कथमस्तित्वं सम्भवतु ? 'तेषामपि स्वाश्रयप्रदेशानां जागरुकत्वान्न स्वद्रव्यादिचतुष्ट्यहानिरिति चेत् ? तथापि परमाणुकालयोः का गतिः ? परमाणोः स्वद्रव्यान्तराऽभावात् कालस्य च स्वकालान्त* गयलता ॐ
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हिरण्यमयत्व - नागरत्व- वासन्तिकत्व-वदत्वाद्यवच्छिन्नाऽस्तित्वस्य परद्रव्यादिरूपजलमयत्व - ग्राम्यत्व-ग्रैष्मिकत्व पटत्वाद्यवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावस्य च सर्वैरेव प्रतीयमानत्वेनाऽपहोतुमनर्हत्यात् । एतेन जातं रव्याप्यवृत्तित्वविरहात् स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्नं सत्त्वं परद्रव्याद्यवच्छिन्नञ्चाऽसत्त्वं कथं सङ्गतिमङ्गेत ? इति परास्तम्, 'मार्त्तत्वादिना घटः सन् न तु तन्तुजनितत्वादिना', 'इदानीं घटः सन् न तु प्राकू' इत्याद्यनुभवबलेन सत्त्वस्य सापेक्षत्वात् । बुद्धिविशेषकृतापेक्षयाऽपि आदेशापराऽभिधानया सापेक्षमेव तत् सर्वैः प्रतीयते यथा 'अयमेकः अयञ्चक' इति कल्पनाकृताऽपेक्षया द्वित्वादीति । एवञ्चाsसत्त्वस्यापि सापेक्षत्वे बाधकाभावादित्यादि सूचनार्थं 'दिगि' त्युक्तम् ।
ननु जीवादिद्रव्याणां षण्णामपि किं स्वद्रव्यं ? यतः सत्त्वं व्यवतिष्ठेत द्रव्यान्तरस्याऽसम्भवादिति स्वद्रव्यादिचतुष्ट्यपर द्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेनाऽस्तित्वविधिनिषेधाविति नाऽभ्युपगन्तुमर्हतीत्याशयेन कश्चिच्छङ्कते स्यादेतदिति । स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन कथमस्तित्वं सम्भवतु ? स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वं नैव सम्भवेदित्याक्षेपाशयः । मध्यस्थः कश्चित्समाधत्तेतेषामपीति । जीवादिद्द्रव्याणां षण्णामपीति । स्वाश्रयप्रदेशानां = जीवादिद्रव्याश्रयभूतनिरवयवाऽवयवानां, जागरूकत्वात् = विद्यमानत्वात् न स्वद्रव्यादिचतुष्टयहानिः जीवत्वाद्यवच्छेदेन स्वाश्रयप्रदेशलक्षणद्रव्य शरीराद्यवच्छिनाऽकाशप्रदेशात्मक क्षेत्रस्वकाल-जीवत्वादिरूपस्वभावावच्छिन्नाऽस्तित्वस्याऽबाधात् । मौलशङ्काकारोऽन्यत्राऽनुपपत्तिमुपदर्शयति तथापीति । जीवधर्माधर्माकाश- पुद्गलस्कन्धद्रव्यंषु स्वाश्रयप्रदेशाद्यवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽन्वयाऽबाधात् स्वद्रव्यादिचतुष्केन तत्राऽस्तित्वसम्भवेऽपि | परमाणुकालयोः का गतिः ? पुद्गलस्कंश्रेषु तदेशस्य तद्देशे च प्रदेशानामस्तित्वाऽवच्छेदकत्वसम्भवात् 'पुद्गलं' विहाय परमाणुपादानम् । तयोः स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽसम्भवे पूर्वपक्षी हेतुमाह परमाणोः निरंशत्वेन स्वद्रव्यान्तराऽभावात् स्ववृत्त्यस्तित्वाऽवच्छेदकस्वाश्रयद्रव्यान्तराभावात् कालस्य च समयरूपत्वेन स्वकालान्तराभावात् न तत्र स्वद्रव्यादिचतुष्टयेनाऽस्तित्वं सम्भवति । रूपत्वाऽसि तदवच्छिन्नभेदाऽप्रसिद्धया परत्वस्यायप्रसिद्धिः । ततश्च सर्वत्र स्वद्रव्यादिचतुष्क- परद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेनाsस्तित्वविधिनिषेधकृतान्तभङ्गेन सप्तभङ्गी भज्यत इति शङ्काग्रन्थाशयः ।
शुद्धं द्रव्यं स्वं सत्त्वाऽवच्छेदकम्, अशुद्धच परं असत्त्वाऽवच्छेदकम् । अशुद्धशुद्धत्वे च भेदाभेदप्रधानव्यवहारनिश्चयनयसाक्षिकाबरचण्डोपाधिविशेषा, प्रतिभासविशेषादपि तत्सिद्धेः, तत्तेदन्तादौ दर्शनादिति नानुपपत्तिरित्याद्याशयेन प्रकरणकारः इस अतिरिक्त बोध से भी अस्तित्व नास्तित्व का एक धर्मी में समावेश हो सकता है। आशय यह है कि घट स्वद्रव्यादिचतुष्टया - बच्छेदेन सत् और परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन असत् होता है | अतः घटत्वाऽवच्छेदेन स्वद्रव्यादिचतुम्कावच्छिन्नाऽस्तित्व एवं परद्रव्यादि चतुष्कावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभाव का घट में समावेश निर्विवाद सिद्ध हो सकता है | अतः धर्मितावच्छेदकावच्छेदेन ही अभावान्वयबोध को मान्यता देने वाले विद्वान मनीषिओं के मतानुसार भी एक धर्म में अस्तित्व और नास्तित्व का समावेश मान्य करने में कोई बाध नहीं है । अतएव सप्तभंगी भी प्रामाणिक सिद्ध होती है ।
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पूर्वपक्ष स्यादे. इति । जनाब ! आपने स्वद्रव्यादिचतुष्टय अवच्छेदेन अस्तित्व और परद्रव्यादिचतुम्कावच्छिन नास्तित्व का प्रतिपादन किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि जीवादि छ द्रव्यों में अतिरिक्त स्वद्रव्य नहीं है, जो अस्तित्व का अवच्छेदक बन सके। जैसे पट का स्वद्रव्य तंतु है वैसे जीवादि द्रव्य में अतिरिक्त द्रव्य नहीं है । जब कि अस्तित्व का अवच्छेदक स्वद्रव्यांतर ही नहीं है, तब स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन अस्तित्व जीवादि द्रव्प में कैसे मुमकिन होगा ? घटक अप्रसिद्ध होने पर उससे घटित भी अप्रसिद्ध हो जाता है । यहाँ यह शंका करना कि "जीव लोकाकाशप्रदेशप्रमाण प्रदेशवाला है, जो जीव के आश्रय है। जैसे पट का आश्रय तन्तु होने से तंतु पटवृत्ति अस्तित्व का अवच्छेदक होता है ठीक वैसे जीवद्रव्य का आश्रय जीवप्रदेश होने से के जीवनिष्ठ अस्तित्व के अवच्छेदक बन सकते हैं। इसी तरह धर्मास्तिकाय, अथर्मास्तिकाय आदि में भी समझा जा सकता है । इस तरह जीवादि द्रव्यवृत्ति अस्तित्व के अवच्छेदकस्वरूप जीवादिआश्रय प्रदेश का सद्भाव होने से स्वद्रव्यादिचतुष्टय से अवच्छिन्न अस्तित्व की जीवादि द्रव्य में हानि नहीं होती है" ← ठीक नहीं है, क्योंकि जीव, धर्मास्तिकाय आदि अन्य सप्रदेश (प्रदेशवाले) होने की वजह स्वाश्रयप्रदेशादि से अवच्छिन्न अस्तित्ववाले संभव होने पर भी परमाणु और काल में स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्न अस्तित्व नामुमकिन है । इसका कारण यह है कि परमाणु द्रव्य निरंश है । अतएव उसका अतिरिक्त स्वाश्रय द्रव्य नहीं है, जो स्वाश्रित अस्तित्व का अवच्छेदक बन सके। इसी तरह काल द्रव्य
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* अनवच्छिन्नेऽवच्छिनत्वप्रतीतिसमर्थनम् * राऽभावादिति - 1 मैवम् तत्र शुन्दस्य स्वस्यैव स्वाऽस्तित्वावच्छेदकत्वात् तनिर्वर्तकत्वाच्च । 'अन्यत्राऽपि' स्वेनैव तथा भूयता' इति चेत् ? न, व्यवहाराऽतिक्रमे निराशत्वापातात् ।
--":..=* जयलता *-...समाधत्ते-मैवमिति । तत्र = परमाण्वादिस्थले तभिर्वर्तकत्वाच्च = स्वाऽस्तित्वजनकत्वाचेति बिपरिणामेनाऽन्ययः कार्यः । शुद्ध स्वद्रव्यं स्वावच्छिन्नकालसंसर्गाश्रयत्वस्याऽवच्छेदकं जनकञ्चेत्यर्थः । न च तथापि शुद्रव्यत्वावच्छिन्नधर्मिताकस्थले का गतिः ? तव्यतिरेकेणाऽन्यद्रव्याद्यभावादिति शाइनीयम्, तत्रापि स्वद्रव्यपरद्रव्यशब्दाभ्यां व्यापकत्वाऽव्यापकत्वोपलक्षणात् तदवच्छिन्नाडस्तित्वनास्तित्वादिघटितायाः सप्तभङ्गचा अनुपपत्तिविरहात् ।
अथ परमावादी शुद्धं स्वद्रव्यमपेक्ष्य सत्त्वस्य तत्प्रतिपक्षसद्भावमपेक्ष्याऽसत्त्वस्य च प्रतिष्ठापगमे अन्यत्राऽपि तथाप्रसङ्गात्, अन्यथाऽर्धजरतीयप्रसङ्गादित्याशयेन कश्चिच्छङ्कते. अन्यत्राऽपीति । घटादिस्थलेऽपि स्वेनेव द्रव्येण, तथा = स्वास्तित्वोपपादन भयतां, एक्कारेण द्रव्यान्तरादिव्यवच्छेदः कतः । स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे - नेति । व्यवहारातिक्रमे = प्रसिद्व्यवहारोब्लञ्चने, व्यवहारश्चोपलक्षणं प्रतीतेरपि, तस्य तन्मूलत्वात् । अयं भावः प्रकृते वस्तुप्रतीतिव्यवहारावेवोपक्रान्तौ प्ररूपयितुं । वस्तुनो हि यथैवाऽबाधिता प्रतीतिस्तथैव तद्व्यवहारः तत्स्वरूपञ्च, अन्यथा नानानिरङ्कुशविप्रतिपत्तीनां निवारयितुमसक्यत्वात् । ततः परमावादी शुद्धद्रव्यस्यैव स्वाऽस्तित्वाऽवच्छेदकत्वेऽपि प्रतीतिव्यवहारबलेनाऽन्यत्र न द्रव्यान्तरादेरस्तित्वाऽवच्छेदकत्वबाधः । एतेन स्वरूपादौ स्वरूपाद्यन्तराऽभावात्कथं सत्त्व, सद्भावे वा कथं नाऽनवस्था ? इति पर्यनुयोगः परास्तः, अनर्पितदृष्ट्या अनवच्छिन्नेऽप्यर्पितदृष्टयाऽवच्छिन्नत्वप्रतीते: सार्वजनीनत्वात्, केनचिन्नयेन स्वरूपादेः स्वरूपतोऽवच्छेदकत्वं निर्णायैवाः स्तित्वादिप्रवृत्तेरनवस्थाया अभावात्, अन्यथा शाखावच्छेदेन वृक्षे कपिसंयोगप्रत्ययोऽपि दुरुपपादः स्यात्, सम्पूर्णा परमाण्वाश्यवच्छिन्ना वा झारखाऽनवच्छेदिकेति ग्रहे शाखात्वाऽवच्छेदेनाऽवच्छेदकत्वग्रहाउसम्भवात्, प्रतिनियताऽवयवाऽवच्छिन्नदाखात्वेन तदवच्छेदकत्वस्य च दुर्गमत्वादिति दिक् ।
नन् लाघवेन स्वरूपसत्त्वस्यैव पररूपाऽसत्त्वत्वम,स्वरूपाऽस्तित्वसमन्यापकत्वात्पररूपनास्तित्वस्य । स्वपररूपादिसत्त्वा | सत्त्वयोर्भेदाभावात् अतिरिक्त- प्रथमद्वितीयभङ्गौ न युक्ती, तदन्यतरेण गतार्थत्वात् । तदघटने च मिलितप्रथमद्वितीयभङ्ग
भी निरंश समयस्वरूप होने से उसका कोई अन्य स्वकाल स्वाश्रय नहीं है, जो कालाश्रित अस्तित्व का अवच्छेदक हो सके । इस तरह स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्न अस्तित्व परमाणु और काल में असंभव है, क्योंकि अस्तित्वाऽवच्छेदकसमूह के घटक अप्रसिद्ध है। अतः सर्वत्र स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्नास्तित्व का आपने जो विधान किया था, वह असंगत है ।।
उत्तरपक्ष :- मेवं. इति । हजूर ! आपकी यह बात ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि परमाणुवृत्ति अस्तित्व का अवच्छेदक शुद्ध परमाणु ही हो सकता है । एवं निरंश कालनिष्ठ अस्तित्व (सत्त्व) का अवच्छेदक शुद्ध कालस्वरूप स्वद्रव्य होता है । तथा परमाणु एवं काल में स्ववृत्ति अस्तित्व की जनकता है । इस तरह शुद्ध स्वद्रव्य में अस्तित्वावच्छेदकता मुमकिन होने से 'सर्वत्र अस्तित्व का अवच्छेदक स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव है' यह वचन संगत ही है । यहाँ यह शंका करना कि → “यदि शुद्ध परमाणु और कालात्मक स्वद्रव्य में स्ववृत्ति अस्तित्व की अवच्छेदकता हो सकती है, तब तो सर्वत्र शुद्ध स्वद्रव्य ही स्ववृत्ति अस्तित्व का अवच्छेदक हो जायेगा । तब तो पटवृत्ति अस्तित्व का अपच्छेदक भी पर ही बनेगा, म कि तंतु" <-ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि जैसा व्यवहार प्रसिद्ध हो उसके अनुसार कल्पना की जाती है। व्यवहार का अतिक्रमण कर के कोई कल्पना की जाय तब भारी गड़बड़-अव्यवस्था हो जायेगी । वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा सामान्यतः सभी को ज्ञान उत्पन्न होता है। जैसा ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके अनुसार व्यवहार होता है। अतः प्रसिद्ध व्यवहार का अपलाप कर के कोई कल्पना नहीं की जा सकती। पटवृत्ति अस्तित्व के अवच्छेदकरूप से पटाश्रय तंतुस्वरूप स्वद्रव्य प्रसिद्ध है । पदत्वावच्छेदेन अस्तित्व है, वह पटावच्छिन्न नहीं है, किन्तु तन्तुअवच्छिन है . यह व्यवहार होता है। अतः वहाँ अपने को ही अपने में रहे हए अस्तित्वादि धर्म का अवच्छेदक नहीं माना जा सकता । परमाणु और समयलक्षण काल अतीन्द्रिय है । अतएव उसके अस्तित्व का अवच्छेदक कौन है ? यह आम जनता से अज्ञात है। अतएव सामान्य तौर पर परमाणु और काल में रहे हुए अस्तित्व के अवच्छेदक का व्यवहार भी नहीं होता है । इसलिए यहाँ शुद्ध स्वद्रव्य-स्वकाल में अस्तित्व के अवच्छेदकत्व की कल्पना करने में किसी प्रसिद्ध व्यवहार का अतिक्रमण नहीं है। अतएव यह कल्पना मान्य की जा सकती है। मगर घट, पद आदि के अस्तित्व के अवच्छेदकविधया घट, पद आदि की कल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि पैसा करने पर प्रसिद्ध व्यवहार का अतिक्रमण = उल्लंघन = अपलाप हो जाता है ।
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२६७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * रत्नाकरावतारिकाविरोधपरिहारः *
___ 'स्वरूपाऽस्तित्वेनैव पररूपेण नास्तित्वातीतिनिर्वाहात्कथमनयोर्भेद' इति चेत् ? स्वेतरवत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वाऽप्रमीयमाणत्वखपविरुदधर्माऽध्यासात। 'अस्तित्वं प्र
- - --ॐ जयलवा * सम्पादितसत्ताकतृतीयभङ्गाऽभावात्कुतस्सप्तभङ्गी स्वावकाशं लभेतेत्याशयेन कश्चिच्छङ्कते - स्वरूपास्तित्वेनैवेति । एवकारेण पररूपनास्तित्वव्यवच्छेदः कृतः । पररूपेण नास्तित्वप्रतीतिनिर्वाहात् = पररूपाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावप्रत्ययोपपत्तेः, कथमनयोभेदः १ घटभेदाभाव-घटत्वयोरिब प्रकृते स्वरूपाऽस्तित्व-पररूपनास्तित्वयोर्नेव वैलक्षण्यं स्यादित्यर्थः । प्रकरणकृत्समाधत्ते. स्वेतरवृत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वाऽप्रमीयमाणत्वरूपविरुद्धधर्माथ्यासादिति । यथाक्रमं पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावे स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्वे चाऽन्वयः कार्यः । अयमाशयः 'घटो घटत्वेनाऽस्ति पटत्वेन च नास्ती'त्यत्र बटत्वाऽवच्छिन्नाऽस्तित्व केवलं घट एवं वर्तते न तु घटेतरकुटादौ, पटत्वाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाभावस्तु घटेऽपि वर्तते यटेतरकुटादावपि । एतेन स्वरूपाऽवछिन्नाऽस्तित्व पररूपावच्छिन्ननास्तित्वयोः समनियतत्वं प्रत्याख्यातम, घटत्वलक्षागस्वरूपावलिन्नास्तित्वं घटेतरकटादौ न प्रमीयते || पटत्वाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावस्तु घटभिन्नकुटादावपि प्रमीयते । अनेन स्वरूपास्तित्व-पररूपनास्तित्वयोरैक्यं प्रत्युक्तम्, अस्तित्वाऽवच्छेदकाऽवच्छिन्नभित्रवृत्तित्वविधया स्वरूपाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वेऽप्रमीयमाणत्वस्य पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावे च प्रमीयमाणत्वस्य सद्भावात्, प्रमाविषयत्व-तदविषयत्वलक्षणविरूद्धधर्माध्यासस्य स्वाश्रयभेदकत्वात्। ततः स्वातन्त्र्येण प्रथम-द्वितीयभङ्गावपि | पटेते एव । अनेन सप्तभङ्गया अनाविलत्वमुपदर्शितम् ।
ननु रत्नाकरावतारिकायां 'अस्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्येनाऽविनाभावि' (रत्ना, ४/१६) इत्याधुक्तम् । भवद्भिस्तु नास्तित्वस्याऽस्तित्वाऽव्याप्तत्वमुपदर्शितमिति कथं न विरोध: ? इति मुग्धाशङ्कायामाह- 'अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽबिनाभाव्येक
* स्वास्तित्व और परजास्तित्व में अभेद नहीं है स्वरूपा, इति । यहाँ यह संशय हो कि -> "स्वरूपाऽवच्छिन्न अस्तित्व और पररूपावच्छित्र अस्तित्वाऽभाव को भिन्न भिन्न मानने की जरूरत क्या है ? जहाँ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावाचबिाऽस्तित्व रहता है, वहाँ परदन्य-क्षेत्र-काला-भावावच्छिन्नाईस्तित्वाऽभाव रहता ही है । पररूपावच्छिन्न नास्तित्व को छोड कर स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व कहीं भी नहीं रहता है । अतः 'घटः परत्वेन नास्ति' इस प्रतीति की उपपत्ति घटत्वाऽवच्छित्र अस्तित्व से ही हो सकती है। स्वरूप से ही वस्तुमात्र का अस्तित्व है । इसका मतलब यही है कि पररूप से वस्तु का नास्तित्व है। अतः पररूपावच्छिन नास्तित्व प्रकारक प्रतीनि का समर्थन स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व से अतिरिक्त पररूपावच्छिन नास्तित्व से न मान कर स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व से अभिन्न | ऐसे पररूपावच्छिन्न नास्तित्व से मानना उचित है । अतः सप्तभंगी के द्वितीय भंग की प्रथम भंग से ही उपपत्ति हो जायेगी। अतः प्रथम भंग से अतिरिक्त द्वितीय भंग की कल्पना चिनजरूरी है" <-- तो यह असंगत है। इसका कारण यह है कि स्वास्तित्व और परनास्तित्व में विरुद्ध धर्म की आश्रयता है। वह इस तरह . 'घटः घटत्वनाऽस्ति पटत्वेन च नास्ति' इस वाक्य से घटत्वाऽवच्छिन्न अस्तित्व का और पटत्वावच्छेदेन नास्तित्व का घट में बोध होता है। मगर घटत्वावच्छिन्नाऽस्तित्व केवल घट में ही है, न कि पर्वत, वृक्ष आदि में भी । जव कि पटत्वावच्छिन्न नास्तित्व घट में भी है और पर्वत, वृक्ष आदि में भी है, क्योंकि पर्वतादि का अस्तित्व पटत्त्वाऽवच्छेदेन (=जहाँ पटत्व रहता है यहाँ) नहीं है। इस तरह घटत्वादिस्वरूपावच्छिन अस्तित्व घरेतर (परद्रव्य) वृसित्वरूप से प्रमा ज्ञान का विषय नहीं होने की वजह स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्व में स्वेतरवृत्तित्वविधया अप्रमीयमाणत्व (=प्रमाविषयत्वाभाव) धर्म रहता है और पटत्वादिपररूपाइवच्छिन्न नास्तित्व घटेतरवृत्तिन्वरूप से प्रमा ज्ञान का विषय होने के सबब पररूपावच्छिन्ननास्तित्व में स्वेतरवृत्तित्वविधया प्रमीयमाणच (वर्तमानकालीन प्रमाविषयत्व धर्म रहता है। स्वरूपास्तित्व और पररूपनास्तित्व में उपदर्शित पद्धति (प्रक्रिया) के अनुसार परस्पर विरुद्ध धर्म रहने की वजह चे परस्पर भिन भी सिद्ध होते हैं। यदि स्वरूपाशस्तित्व से पररूपनास्तित्व सर्वथा अभिन्न होता, तब तो पररूपनास्तित्व की भौति स्वरूपास्तित्व में भी स्वेतरवृत्तित्व विधया प्रमीयमाणत्व धर्म ही रहता या तो स्वरूपास्तित्व की भाँति पररूपनास्तित्व में भी स्वेतरवृत्तित्वरूप से अप्रमीयमाणत्व धर्म ही रहता । मगर वैसा नहीं है, यह हम अभी ही पड़ चुके हैं - जान चुका है। इसलिए इन दोनों को अलग-अलग मानना आवश्यक हो जाता है । यदि आप ऐसा कहें कि → “अस्तित्व तो एक धर्मी में प्रतिषेध्य (= नास्तित्व) से अविनाभावी है अर्थात् स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्व तो पररूमानच्छिमनास्तित्व का व्याप्य है"
- तो इससे केवल यह सिद्ध होगा कि जहाँ जहाँ स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व है, वहाँ वहाँ पररूपाऽवच्छिन्न नास्तित्व अवश्य | रहता है और जहाँ जहाँ पररूपावच्छिन नास्तित्व नहीं रहता है, वहाँ वहाँ स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व नहीं रहता है। मतलब
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* कुटशब्दविचारः * विनाभाव्येकधार्मिणी'त्यादिना स्वाऽस्तित्वस्य प्रतिषेध्याऽविनाशावित्वोक्तावपि प्रतिषेध्यस्य | स्वास्तित्वविनाशावित्वस्य यौक्तिकत्वात्, पटत्वादिना नास्तित्वस्य घटेतरकुटादिवृत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वं तु निराबाधम् । ___ 'स्वपररूपादिचतुष्टयभेदात्तद्वेद' इति असहसीकारवचनं तु विचारणीयम्, अवच्छेद्यभेदादवच्छेदकभेदः अवच्छेदकभेदाच्चाऽवच्छेद्यभेद इत्यन्योन्याश्रयात् ।
==-* जयलता. * === धर्मिणी'त्यादिनेति । ‘स्वरूपावच्छिन्नकालसंसर्गाश्रयत्वं पररूपाश्वच्छिन्नकालसम्बन्धाश्रयत्वाभावच्याप्यमभिन्नाधिकरणे इति सिद्धं' इति वचनेन । स्वाऽस्तित्वस्य = स्वरूपावच्छिन्नास्तित्वस्थ्य, प्रतिपेध्याऽबिनाभावित्वोक्तावपि = पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वा भावा:भावाश्रयत्वाऽवच्छिन्ननिरूपित्तवृत्तित्वाऽभाववत्त्वप्रतिपादनेऽपि, प्रतिषेध्यस्य = पररूपाऽवच्छिन्ननास्तित्वरूपस्य, स्वाऽस्तित्व| विनाभावित्वस्य = स्वरूपावच्छिन्नास्तित्वाऽव्याप्यत्वस्य. योनिकत्वात् - युक्तिसिद्धत्वात् । तदेव दर्शयति- पटत्वादिनेति । । घटेतरकुटादिवृत्तित्वेनेति । यद्यपि कुटतीति कुट इतिव्युत्पत्त्या कुटशब्दार्थों घटः सम्भवति तथापि इतरपदसमभिव्याहारीत् कुट्यतेऽस्मिन्निति कुट इति व्युत्पत्त्या गृह इत्यों बोध्यः, यद्वा कोशविशेषात् कुटशब्देन पर्वत-लौहमुद्गर-वृक्ष-प्राकारादयोर्धा ज्ञेयाः । धूमस्य बहिव्याप्यत्वेऽपि बयव्यापकत्ववत् स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्वस्य पररूपाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावत्र्याप्यत्वेऽपि | तदन्यापकत्वमुपपद्यत इति भावः । शेषार्थश्चाऽनुपदमेव भावित इति न पुनः प्रतन्यते ।
गान बिरयापिणा "यिनुरायो - 'स्वपरचतुष्टयभेदात्तद्भेदः' इति । स्वद्रव्यपरद्रव्यादि-चतुष्कलक्षणाsवच्छेदकभेदात अस्तित्वनास्तित्वयोर्भेद इत्यर्थः । साम्प्रतन्तु अष्टसहस्यां 'स्वपररूपादिचतुष्टया पेक्षया स्वरूपभेदात्सत्त्वाऽसत्त्वयोरेकवस्तुनि भेदोषपत्तेः' (अ.स. परि-१ श्लो.१५, पृ. १५.३ A) इत्येवं पाठो लभ्यत इति ध्येयम् । अयं अष्टसहस्रीकारस्य विद्यानन्दस्याऽभिप्रायः सर्वं स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन सत् परद्रव्यादिचतुष्टयेन चाऽसत् । वस्तुनि सत्त्वासत्त्वयोरवच्छेदकभेदात् भेदः | सिध्यति, कपिरंयोग-तदभावयोः स्वाऽवच्छेदकीभूतशाखामूलभेदाझेद इवेति । विचारणीयमित्यनेन स्वाऽस्वरसः प्रदर्शितः | प्रकरणकृता । विचारचीजमेवाऽऽह- अबच्छेयभेदात् = सत्त्वाइसत्त्वभेदात्, अवच्छेदकभेदः = स्वपरद्रव्यादिभेदः, सिध्यतीति
शेषः । अवच्छेदकभेदात् = स्वपरद्रत्र्यादिचतुष्टयलक्षणाचच्छेदकभेदात् च अवच्छेद्यभेदः = स्वास्तित्व- परनास्तित्वविभेदः, | सिध्यतीति गम्यते । ततः किमित्याह. इति = एतस्मादेतोः, अन्योन्याश्रयात् । अत्र परस्पराश्रयो नोत्पत्ती, नाऽपि स्थिती
कि स्वरूपास्तित्व पररूपनास्तित्व को छोड़ कर कहीं भी रहता नहीं है। मगर पररूपनास्तित्व का स्वरूपास्तित्व विनाभाक्त्वि | तो पुक्तिसंगत ही है अर्थात् पररूपनास्तित्व स्वरूपास्तित्व को छोड़ कर भी अन्यत्र रह सकता है। यह तो हम उपर देख ही चुके हैं कि पररूपनास्तित्व घटेतर पर्वत, वृक्ष आदि में भी रहता ही है । अतः पररूपावच्छिन्नास्तित्वाऽभाव में घटेतर कुट (= पर्वतादि) आदि वृत्तित्वविधया प्रमीयमाणत्व निराबाध ही है, जब कि घटेतरवृत्तित्वरूप से प्रमीयमाणत्व स्वरूपावच्छिन्न | अस्तित्व में नहीं रहता है । तात्पर्य यह है कि जैसे 'धूम अग्नि का व्याप्य है' ऐसा प्रतिपादन करने पर भी 'धूम अग्नि का व्यापक नहीं है', 'अग्नि हो वहाँ धूम अवश्य हो ऐसा नहीं है' यह कहा जा सकता है, जिसके फलस्वरूप धूम और अग्नि में भेद सिद्ध हो सकता है। ठीक वैसे ही स्वरूपास्तित्व पररूपनास्तित्व का व्याप्य है। ऐसा प्रतिपादन करने पर भी "स्वरूपास्तित्व पररूपनास्तित्व का व्यापक नहीं है" अर्थात् . 'पररूपनास्तित्व जहाँ रहे वहाँ स्वरूपास्तित्व अवश्य हो ऐसा नहीं है' . यह कहा जा सकता है, जिसका निरूपण अभी ही हमने किया है । इसके फलस्वरूप स्वरूपास्तित्व और पररूपनास्तित्व में भेद सिद्ध हो जायेगा, जिसकी वजह प्रथम भंग से अतिरिक्त द्वितीय भंग की आवश्यकता सिद्ध हो जायेगी। अतः तत् नत् प्रामाणिक भंगों के समूह से निर्मित सप्तभंगी भी प्रामाणिक सिद्ध होती है, इसमें लेश भी संदेह नहीं है।
अष्टसहसीकारमतजिन्दन स्वपर. इति । यहाँ प्रकरणकार श्रीमद्जी अष्टसहनीकार दिगम्बर विद्यानन्द के मत को निराकरणार्थ बताते हैं । अष्टसहनीकर्ता का यह कथन है कि -> "स्वाऽस्तित्व और परनास्तित्व के भेद की सिद्धि उनके अवच्छेदक के भेद से होती है। आशय यह है कि स्वास्तित्व और परनास्तित्व यदि एक = अभित्र हो, तब तो परनास्तित्व की भांति स्वास्तित्व का भी अवच्छेदक परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव होना चाहिए या स्वस्तित्व की भाँति परनास्तित्व का भी स्वद्रव्यादिचतुष्टय अवच्छेदक बनना चाहिए।
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२६९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * विद्यानन्द-विमलदासमतकर्तनम्
'स्वाऽस्तित्वेनैव पररूपेण नास्तित्वप्रतीतिनिर्वाहानास्तित्वमलीकमि'ति तु पापीयांसः,
* जयलता
| किन्तु ज्ञप्तौ ज्ञेयः । तल्लक्षणञ्च - 'स्वग्रहसापेक्षग्रहसापेक्षग्रहकत्वमि' त्यामनन्ति मनीषिणः । प्रकृतेऽयं भावः, अबच्छेदकभेदो | हि अवच्छेद्यविरोधे सत्यपेक्ष्यते । अवच्छेद्यविरोधश्वाऽवच्छेद्याऽभेदे सति नैव सम्भवति, स्वस्य स्वाऽविरोधित्वात् । अवच्छेद्यभेदे सिद्धे सत्येव क्वचित् अवच्छेद्यविरोधः सम्भवति । सिद्धे चाऽवच्छेद्यविरोधेऽवच्छेदकभेदो मृग्यते । ततोऽवच्छेदकभेदसिद्ध्यर्थं परम्परयाऽवच्छेद्यभेदज्ञानमावश्यकम् । किन्तु विद्यानन्दमते तु अवच्छेद्यभेदसिद्धिरवच्छेदकभेदसिद्ध्यधीना, तेन अवच्छेदकभेदेन सत्त्वासत्त्वभेदसाधनात् । ततोऽवच्छेद्यभेदग्रहसापेक्षोऽवच्छेदकग्रहः तत्सापेक्षश्वाऽवच्छेद्यबोध इति ज्ञप्तावितरेतराश्रयदोषाचैव सत्त्वासत्त्वलक्षणाऽवच्छेद्यमेदः सिध्येत् । एतेन स्वरूपाद्यवच्छिन्नं सन्तं पररूपाद्यवच्छिन्नमसत्त्वमित्यवच्छेदकभेदात्तयोर्भेदसिद्धेः ( स.न.त. पृ. ११) इति सप्तभङ्गीनयतरङ्गिणीकारस्य विद्यानन्दानुगामिनो दिगम्बरस्य विमलदासस्य वचनं प्रतिक्षिप्तम् । न चैवं स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षयेव परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षयाऽपि सत्त्वप्रसङ्गः, तदपेक्षयेव स्वरूपाद्यपेक्षयाऽपि वाऽसत्त्वप्रसङ्ग इति शङ्कनीयम्, विरुद्धधर्माध्यासप्रदर्शनेन तदभेदप्रच्यवप्रदर्शनतः, तदनवकाशात् ।
अन्ये तु वदन्ति स्वद्रव्यादिचतुष्टयावच्छिन्नास्तित्वमेव परद्रव्यादिचतुष्कावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावप्रकारकप्रतीतिविषयः । अतो न तगोचरतया पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावसिद्धिरित्यनुमन्यन्ते । तन्मतम पहस्तयितुमुपक्रमते स्वाऽस्तित्वेनैवेति । एवकारेण पररूपनास्तित्वं व्यवच्छिन्नम् । पररूपेण नास्तित्वप्रतीतिनिर्वाहात् पररूपावच्छिन्नास्तित्वाभावप्रकारकज्ञानोपपत्तेः, |नास्तित्वं = परद्रव्यादिचतुष्कावच्छिन्नास्तित्वाऽभावात्मकं, अलीकं काल्पनिकं, इति वदन्तः तु पापीयांसः = कदाग्रह
=P
मगर ऐसा नहीं है । स्वास्तित्व का अवच्छेदक केवल स्वद्रव्यादि चतुष्क है और परनास्तित्व का अवच्छेदक केवल परद्रव्यादि चतुष्टय है । अवच्छेदक में भेद होने की वजह अच्छेय अस्तित्व और नास्तित्व में भी भेद सिद्ध होता है । अतः प्रथम और द्वितीय भंग भी स्वतंत्र है, एक-दूसरे से चरितार्थ नहीं होते हैं" मगर महोपाध्यायजी महाराज कहते हैं कि विद्यानंद का यह वचन विचारणीय है । मतलब कि वह मीमांसा - परीक्षा करने योग्य है, क्योंकि वैसा प्रतिपादन कर के प्रथमद्वितीय भंग में स्वातन्त्र्य की सिद्धि करने पर ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रय दोप प्रसक्त होता है । A के ज्ञान के लिए B के ज्ञान की अपेक्षा हो और B का ज्ञान A विषयक ज्ञान से सापेक्ष हो, यह ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रय कहा जाता है। प्रस्तुत में अस्तित्व और नास्तित्व में विरोध सिद्ध होने पर ही एक धर्मी में उन दोनों के समावेश के लिए भिन्न भिन्न अवच्छेदक की अपेक्षा सिद्ध हो सकती है। यदि अस्तित्व और नास्तित्व अभिन हो, तब तो उन दोनों में विराध ही नहीं हो सकता । भला 1 अपना विरोध स्वयं कौन करेगा ? अतः अवच्छेदकभेद के लिए अपेक्षित अवच्छेयविरोध अपनी सिद्धि के लिए कमसे कम अवच्छेद्यभेद की अपेक्षा रखता है । अर्थात् अवच्छेदक (= स्वपरद्रव्यादि चतुष्क) में भेद की सिद्धि परंपरा से स्वाऽवच्छेय सत्त्व और असत्त्व के भेद पर अवलम्बित है । कम से कम जब तक सत्त्व और असत्व में भेद की सिद्धि न हो, तब तक उनके अवच्छेदक में भेद की सिद्धि नहीं हो सकती। मगर विद्यानन्द के मतानुसार अवच्छेय में भेद की सिद्धि अवच्छेदक के भेद की सिद्धि पर अवलम्बित है, क्योंकि पृथक् पृथक् अवच्छेदक होने की बजह ही सत्त्व और असत्त्व में वैलक्षण्य होता
=
.
यह उसका कथन है । अतः पृथक् पृथक् अवच्छेय (सत्त्व और असत्त्व) सिद्ध होने पर अवच्छेदक में वैजात्य की सिद्धि होगी और अवच्छेदक ( स्व पर द्रव्यादि चतुष्टय) में पार्थक्य की सिद्धि होने पर उनसे अवच्छेद्य सत्त्व असत्त्व अलगअलग सिद्ध होगे । फलतः भेदसिद्धि न तो अवच्छेय में होगी, न अवच्छेदक में । ऐसा होने पर परवाड़ी का जो आक्षेप था कि > 'प्रथम भंग से ही द्वितीय भंग चरितार्थ हो जाने की वजह दो अलग अलग भंग बताने की क्या जरूरत है ?' - उसका समाधान न हो सकेगा । इसके समाधान के लिए हमने ( प्रकरणकार ने ) जो पूर्व में बिरुद्धधर्माध्यास से सत्य और असत्त्व में भेद की सिद्धि की थी, वही उचित है ।
पररूपनातित्व काल्पनिक नहीं है - स्थादादी
स्वा. इति । यहाँ "स्वास्तित्व से ही पररूपनास्तित्व का निर्वाह समर्थन हो जाने से परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावावच्छिन्नाऽस्तित्वाभाव काल्पनिक ही है, वास्तविक नहीं । मतलब स्वद्रव्यादिचतुम्काऽवच्छिन्नाऽस्तित्व ही प्रामाणिक है, न कि परद्रव्यादिचतुम्कावच्छिन नास्तित्व" <- ऐसा कथन करने वाले लोग अत्यंत पापी (= कदाग्रहदोपग्रस्त अन्तःकरण वाले) हैं, क्योंकि एक की प्रामाणिकता से अन्य में अप्रामाणिकता सिद्ध करने पर तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि 'स्वद्रव्यादिचतुष्टया - वच्छिन्न अस्तित्व विषयक प्रतीति की उपपत्ति परद्रव्यादिचतुम्कावच्छिना नास्तित्व से ही हो जाने के सबब स्वद्रव्यादिचतुष्कावच्छिन्न
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* जिनेन्द्रवचने प्रामाण्यसमभङ्गीविचारः * | ते पुन: 'अस्ती'तिप्रतीतेनास्तित्वेनैव निहिं कथमस्तित्वं गच्छन्ति हस्तावलम्बदायिन: ?
सङ्गीता सप्तभणी यदि निखिलजगन्न्यस्तवस्तुव्यवस्था, मूर्य फूलंका : कतु तहभियं तत्प्रमाणव्यवस्था ।
येन स्यादप्रमाणं भुवनगुरुवच: सर्वथा न प्रमाणं, तस्मादेकान्तवादो हित इति गदति स्पष्टमेकान्तवादी ॥१॥
=-=* जयलता * लक्षणनिकृष्टावद्यग्रस्तान्तःकरणाः । तदभिनिविष्टत्वमेव काकुन्यायेनाविष्करोति- ते इति । 'अस्ती' तिप्रतीतेः = स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्वप्रकारकधियः, विषयविधया नास्तित्वेनैव निर्वाहे सम्भवे कथं अस्तित्वे गच्छन्ति हस्तावलम्बदायिनः ? स्वरूपावच्छिन्नास्तित्वहस्तालम्बनग्रहीतारो न न्यायसभायां सुष्ठ भ्राजन्त इत्यर्थः । स्वरूपास्तित्वेन पररूपनास्तित्वापलापे पररूपनास्ति त्वेन स्वरूपास्तित्वनिराकरणमपि न दुष्करम् । न चैवम्, इति स्वास्तित्ववत् पररूपावच्छिन्ननास्तित्वमपि प्रामाणिकमित्यभ्युपेयम् । कथमन्यथा हेतोः नैरूप्यं पञ्चरूपत्वं वा परस्याऽपि सम्भवेत् ? सपक्षास्तित्वेनैव विपक्षनास्तित्वप्रतीतेर्निवाहसम्भवात्, बिपक्षनास्तित्वविरहे तत्सत्त्वप्रसङ्गाच्चेति दिक् ।
पद्येन परमतमपसारयितुमुपन्यस्यति- सङ्गीतेति । सप्तभङ्गी यदि निखिलजगन्न्यस्तवस्तुव्यवस्था = सम्पूर्णविश्वस्य न्यस्ता = निहिता वस्तुव्यवस्था यस्यां सा, इति संगीता, तदा इयं तत्प्रमाणव्यवस्था = सप्तभङ्गीप्रमाणव्यवस्था, कूलंकषायाः = जलभृतनद्याः मूलं तटं कपतु । सप्तभङ्गया अखिलप्रमेयव्यवस्थापकत्वे प्रमाणव्यवस्था विप्लवेतेत्यर्थः । हेतुमाह- येन कारणेन भुवनगुरुवचः = जिनेन्द्रवचनं अप्रमाणं अपि स्यात् = भवेत् यद्वा स्यादप्रमाणं = कथञ्चिदप्रमाणं, यतः सा न सर्वथा प्रमाणं, भगवद्भारत्या; सर्वथा प्रमाणत्वे सप्तभङ्गीभङ्गप्रसतात, 'तदपि स्यात्प्रमाणं स्यादप्रमाणमित्युपगमे च प्रामाण्यव्यवस्थापन दुर्घटं स्यात्, अनवधारणात् । ततः किमित्याह - तस्मात् = प्रामाण्यव्यवस्थान्यथानुपपत्तेः, एकान्तवाद एब हित इति स्पष्टं एकान्तवादी सदसि गदति = जल्पति ।
अयमत्र एकान्तवादिनोऽभिप्रायः 'जिनेन्द्रबचनं स्यात्प्रमाणं स्यादप्रमाणमि' त्यङ्गीकारे साङ्कर्यादिदोषाऽनिराकरणेन निष्कम्पप्रवृत्त्यादिकं नोपपद्येत, 'अर्हद्वचः प्रमाणमेवे'त्यङ्गीकारे च तत्र मानत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका योगव्यवच्छेदापातेनैकान्तवादप्रवेशप्रसङ्गात् । एवकारमर्यादाऽत्रैवं ज्ञेया, विशेष्यसङ्गतैवकारस्याऽन्ययोगव्यवच्छेदोऽर्थः यथा 'पार्थ एव धनुर्धर' इत्यादौ एवकारार्थस्याऽन्ययोगव्यवच्छेदस्यैकदेवोऽन्यत्वे प्रतियोगितासम्बन्धेन पार्थान्वयः, पार्थान्यनिरूपितबत्तित्वाभावान्वयो विशेषणेकदेशे धनुर्धरत्वे तादृशधनुर्धरत्ववदन्वयोऽभेदसम्बन्धेन पार्थपदार्थे । ततः पार्थान्या वृत्तिधनुर्धरत्वाश्रयाऽभिन्नः पार्थ इति बोधो जायते । विशेषणसङ्गतैवकारार्थोऽयोगव्यवच्छेदः, यथा 'शङ्खः पाण्डुर एवे' त्यादौ । अयोगस्य सम्बन्धाभावरूपस्यैकदेशे सम्बन्धे विशेषणैकदेशस्य पाण्डुरत्वस्याऽन्चयः, अयोगव्यवच्छेदस्य च स्वरूपसम्बन्धेन विशेष्यपदार्थे शोऽन्यः । ततः पाण्डुरत्वसम्बन्धाऽभावप्रतियोगिका
अस्तित्व काल्पनिक = असत् है ।' यदि अस्तित्व से नास्तित्वगोचर प्रतीति का समर्थन करके नास्तित्व को अन्यथासिद्ध - असत् माना जाय तो तुल्य न्याय से नास्तित्व से अस्तित्वविपयक ज्ञान की उपपत्ति हो जाने से अस्तित्व भी झूठा - काल्पनिक माना जा सकता है । तो फिर चे स्वरूपास्तित्व को अपनी मान्यतारूप हस्त का आलम्बन क्यों बनाते हैं ? मतलब कि नास्तित्व से अस्तित्व का अपलाप नहीं होता है, वैसे अस्तित्व से नास्तित्व का निराकरण नहीं किया जा सकता। स्वरूपसत्त्व और पररूपाऽसत्त्व दोनों प्रामाणिक हैं।
सप्तभंगी जिनवचन में प्रवृत्त नहीं हो सकती - एकान्तवादी एकान्तवादी :- संगीता. इति । जी हजूर । आपने जिस सप्तभंगी का बयान किया है वह यदि संपूर्ण विश्व की वस्तुओं की व्यवस्थापक होगी यानी 'प्रत्येक वस्तु में वह सप्तभंगी प्रवर्त्तमान है। ऐसा माना जाय तब तो यह सप्तभंगी की प्रमाणज्यवस्था नदी के, जिसके दोनों किनारे पे पानी उभर रहा है, मूल तट में जाकर गिरेगी । अर्थात् प्रमाणव्यवस्था ही अव्यवस्थित बन जायेगी। इसका कारण यह है कि 'जिनेन्द्र का वचन प्रमाण है या नहीं ?' इस प्रश्न के जवाब में या तो जिनवचन में प्रामाण्यधर्मविषयक सप्तभंगी में यही स्याद्वादी की ओर से कहा जा सकता है कि - जिनवचन कयंचित् प्रमाण है, कथञ्चित् अप्रमाण है, कथञ्चित् प्रमाणाऽप्रमाणोभय है इत्यादि । मतलब कि तीर्थकरवचन को भी सर्वथा प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिनवचन में अपेक्षा से अप्रामाण्य भी है . यह सप्तरंगी से जाना गया है। तब तो जिनपचन
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२७१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५
* एवकारार्थविचारः स बूमः प्रभाणं भवति भववच: किं सदप्यप्रमाणं, येन प्रामाण्यमुद्रा परपरिचयत: संकरोत्कीर्णकुक्षिः ।
==.. जयलता भाववान् शङ्घ' इत्यर्धबोध उपजायते । क्रियासङ्गतैवकारार्थश्चाऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदः यथा 'सरोज नीलं भवत्येवे'त्यादी अत्यन्तायोगव्यवच्छेदैकदेशेऽत्यन्तायोगे नीलकर्तृकभवनक्रियाऽन्वयो भवति तथा सरोजत्वव्यापकस्वरूपसम्बन्धेन नीलकर्तृकोत्पत्तिप्रति - योगिकाभावान्चयः सरोजपदार्थे भवति । ततः सरोज नीलकर्तृकोत्पन्यभावप्रतियोगिकाभाववदिति शाब्दबोधः समपजायत इति प्राश्चो नैयायिकाः ।
नव्यास्तु एवकारस्य द्वयमेवार्थः अयोगन्यवच्छेदोऽन्ययोगव्यवच्छेदश्व, न त्वत्यन्तायोगव्यवच्छेदः, गौरवादिति यद्वा । अन्ययोगव्यवच्छेद एव वा तदर्थं इति वदन्ति ।
इतरे तु - एवकारस्याऽत्यन्ताभावोऽन्योन्याभावश्चार्थ इत्याहुः ।
सप्तभङ्गायाः सार्वत्रिकत्याऽन्यनुज्ञायामेवकारो निरर्थकः प्रसज्येत सार्थकत्वे वा एकान्तमतानुप्रवेश इति द्विपक्षी राक्षसी प्रत्यक्षीबोभनीतीति एकान्तवादिमतमेव विश्वकल्याणकरमिति परस्याशयः ||१||
साम्प्रतं प्रकरणकृत समाधत्ते - अत्र ब्रूमः इति । भववचः = भवानीपतिवचनं, किं प्रमाणं एवेति भवति ? 'शिववचनं प्रमाणमेव' इति भवितुं नार्हति । कस्माद्धेतो: ? इत्याशङ्कायामाह- अप्रमाणमपि सद् = भवनार्हम् । कथं ? इत्याकाणायामाह येनेति । परपरिचयतः = त्र्यधिकरणधर्मावच्छिन्ननतियोगितासंसर्गतः प्रामाण्यमुद्रा सङ्करोत्कीर्णकुक्षिः = अप्रामाण्यसायव्यामिश्रितगर्मा । अयं भावः 'उमापतिवचनं प्रमाणमेवे त्यत्र विशेषणसङ्गतैयकारसमभिव्याहारात् प्रमाणत्वाऽयोगव्यवच्छेदः नव्यमतेन प्रमाणान्ययोगव्यवच्छदावा भवतु, तथापि 'महशवचसि प्रत्यक्षत्वेन न मानत्वम्', 'त्रिलोचनवचनं प्रत्यक्षत्वेन न प्रमाणं' इति प्रतीत्या विशेषरूपेण सामान्याभावस्य प्रत्यक्षत्वनिष्ठतादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नावच्छेदकतानिरूपित-प्रमाणत्वनिष्ठप्रतियोगिताकाऽभावरूपस्य विशेषरूपेण सामान्यभेदस्य प्रत्यक्षत्वनिष्ठावछेदकतानिरूपितप्रमाणसामान्यनिष्ठ-तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावरूपस्य वा सिद्धी न सर्वथा तव्यवच्छेदः शक्यः ।
___कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्य प्रामाणिकत्वान् प्रमाणत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य घटाभावस्य परमेवरवचसि सत्त्वात्कथं तद्व्यवच्छेदः । न च प्रमाणत्वावच्छिन्नम्रमाणनिष्ठप्रतियोगिताकस्य सामान्यरूपेण विशेषाऽभावसत्त्वे वा ताशतत्सामान्यनिष्ठप्रतियोगिताकस्याऽभावस्य व्यवच्छेद्यत्वान्न दोष इति वाच्यम, प्रमाणत्वेन प्रमाण-घटोभयाऽभावस्य तधात्वात् । न च प्रमाणभाननिष्ठानियोगितोपादानान्नदोष इति वक्तव्यम, तथापि 'शङ्करवचोघटौ न मानम्' इति प्रतीतेः शङ्कर.
योघटोभयत्वायच्छेदेन तादृशप्रमाणत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावस्य सत्त्वेन तद्व्यवच्छेदाइयोगात्, त्रिपुरारिवचनत्वावछिन्नाधिकरणताकस्य च तादृशाम्भावस्य सिद्धयसिद्धिपराहतत्वेन व्यवच्छेतुमशक्यत्वात् । ततः प्रामाण्याप्रामाण्ययोगिरीशवचनेऽपि सत्त्वमुपगन्तव्यमायुष्मतेति साङ्कर्यम् । तदनुपगमे चेश्वरवचसि प्रत्यक्षानुमानादिवृत्तिप्रामाण्याशतेन परकीयधर्मसत्त्वलक्षणं सायमिति तन्न गीर्वाणगुरुणापि निवारयितुं शक्यम् । ___ अत एव "त्वत्तीर्थंकरवचनं किं सत्यं ? आहोस्वेिदसत्यमिति : सत्यमेवेति न युक्तम्, एकान्तवादप्रसङ्गात् । अथाऽत्रापि
से प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि निश्चितप्रामाण्यवाला वचन ही प्रवर्तक हो सकता है । जिनवचन में अपेक्षा से अप्रामाण्य का ज्ञान प्रामाण्य निश्रय का विरोधी है । अतः जिनवचन से प्रवृत्ति आदि की उपपत्ति के लिए भी जैन को जिनवचन में सर्वधा प्रामाण्य मानना उचित है । अतएव सप्तभंगी स्यादाद अप्रामाणिक सिद्ध हो जायेगा । इसलिए सर्वत्र एकान्तवाद ही उचित है ।
* सगी शिववचन में भी अव्याहत - अनेकान्तवादी अनेकान्तवादी :- अत्र बू. इति । अरे ओ, एकान्तवादी ! जरा हमारा भी जवाब सुनियेगा । आपने अरिहंतवचन || के विषय में जो आक्षेप किया है वह शिववचन में भी समान है। 'क्या आपके शंकर का वचन प्रमाण ही है ?' इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में यह तो नहीं कहा जा सकता कि . शंकर भगवान का वचन प्रमाण ही है', क्योंकि वह अप्रमाण भी है। इसका कारण यह है कि परपरिचय से यानी अन्यवृत्ति धर्म की अपेक्षा वह प्रमाण नहीं है 1 शिववचन में आगमत्वरूप धर्म से प्रमाणत्व होने पर भी प्रत्यक्षत्व, अनुमानत्व, घटत्व आदि स्वाऽवृत्ति ब्यधिकरण धर्म की अपेक्षा प्रामाण्य नहीं है।
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* भासर्वज्ञप्रतिभाभङ्गः * एकान्तः कान्त एवेत्यपि यदि मनुषे किं तवाऽम्बा तदेयं, ब्राह्मण्यं भोः । तपस्विन् । प्रथयति नियतं शुददारानुरूपम् ॥॥ " विशेषणसङ्गर्तवकारस्य विशेष्यनिष्ठव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्वं,
=* जयलवा * = सप्तभङ्गीष्टा-स्यात् सत्यम्, स्यादसत्यम, स्यादुभयम्, स्यादवक्तव्यमित्यादिका; तदा प्रमाणाऽप्रमाणव्यवस्थानुपपत्तिः'' (न्या.भू. पृ.५६०) इति भासर्वज्ञवचनमपि प्रत्याख्यातम्, स्वविषयाऽपेक्षयाऽर्हद्वचसि सत्यत्वस्य स्वाऽगोचरापेक्षया चाऽसत्यत्वस्योपगमेऽपि स्वविषयेऽबाधित-बाधितवचस्त्वयोः व्यवहारसत्यत्वा सत्यत्वनियामकत्वेन प्रमाणाऽप्रमाणव्यवस्थानिर्वाहात् अनेकान्ते सम्यगेकान्ताविनाभाबित्वस्य बहुश उक्तत्वात् ।
पद्यपूर्वार्धबलादेव 'एकान्तवादो हित' (पश्यतां २७२ तमे पृष्ठे) इति पूर्वोक्तं जर्जरीकृतं तथापि तत्र विशेषत आह प्रकरणकृत् - 'एकान्तः कान्त एवे'त्यपीति । यदि त्वं एकान्तः = एकान्तवाद एव कान्तः मनोहारी इत्यपि मनुषे ।
कामं चेत् ? तदा भोः ! तपस्विन : तव एकान्तवादिन इयं एकान्तवादरुचिलक्षणा अम्बा = जननी नियतं
रूपं ब्राह्मण्यं प्रथयति = प्रकटयति, शम्भुवचस्येव प्रामाण्यैकान्तविरहात् । 'घर: सन्नेवे त्यत्राऽपि सत्लैकान्तो न कान्तः, घटे कृत्स्नसत्त्वप्रसङ्गेन परसत्त्वस्य दुर्निवारत्वात् । न चैवम् । अतः पराउसत्त्वमपि तत्रोपगन्तुमर्हति । ततः स्थितमिदमनेकान्तस्य सर्वच्यापितत्वमिति समाधानग्रन्धाशयः ।
पूर्वपक्षयति नव्यनैयायिकः अधेति । द्वितीयचेत्पदपर्यन्तं पूर्वपक्षो बोध्योऽत्र । विशेषणसंगतैक्कारस्य = विशेषणवाचकपदाऽव्यवहितोत्तरैवपदस्य, विशेष्यनिएव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं = विशेष्यार्थवृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभावनिरू
मतलब की प्रत्यक्षत्वादि धर्म की अपेक्षा महेश वचन में अप्रामाण्य भी है। प्रत्यक्षत्वादि धर्म की अपेक्षा शिववचन में प्रामाण्य मानने पर वह वचन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि स्वरूप बन जायेगा । अतः अप्रामाण्य के संकर = मिश्रण से एकान्तप्रामाण्य की कुक्षि उत्कीर्ण-दुषित हो जाती है। अतः शिववचन में भी स्यान् प्रामाण्य, स्यात् अप्रामाण्य, कथचिन्प्रामाण्य-अप्रामाण्य आदि का स्वीकार नैयायिक आदि एकान्तवादिओं को भी करना पड़ेगा । इस तरह सप्तभंगी की प्रवृत्ति सर्वत्र अव्याहत है। : एकान्तबादी ने जो कहा था कि --> 'एकान्तवाद ही हितकर है' - इसका निराकरण प्रकरणकार श्लोक के पश्चार्द्ध से। करते हैं। है तपस्वी श्रोत्रिय ब्राह्मण ! क्या तुम 'एकान्त द्दी कान्त = रम्य है। यह मानते हो ? यदि वैसी मान्यता का स्वीकार करोगे तब इस मान्यतारूपी तुम्हारी मां जिस ब्राह्मणत्व को प्रकट करेगी वह अवश्य शूद्रपत्नी के अनुरूप = समान | होगा, न कि ब्राह्मणस्त्री के समान । इसका कारण यह है कि शिववचन में भी प्रामाण्य का एकान्त नहीं है । “घटः सन् एव' = 'घट सत् ही है यहाँ भी एकान्ततः घट में सकल सत्त्व प्रतीत नहीं होता है, अन्यथा पटत्वादि पररूप से भी घट सत् बन जायेगा । अतः एकान्तवाद व्यापक नहीं है, मगर अनेकान्तवाद ही सर्वव्यापक है । अतएव वही हितकर है।
* विशेषणसंगत एषकार का अर्थ - पूर्वपदा * 'नव्यनैयायिक :- अथ विशे. इति । 'घटः सत् एव यहाँ आपने (स्याद्वादी ने) जो अनेकान्तोद्भावन किया है वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि उक्त वाक्य में विशेष्य है घटपद और विशेषणवाचक है सत्पद । सत्पदस्वरूप विदोपणवाचक पद से समभिव्याहृत है 'एच' पद । विशेषणसंगत एक्कार का अर्थ है अन्ययोगव्यवच्छेद जिसको नल्य न्याय की परिभाषा में इस तरह कहा जा सकता है. विशेप्यनिष्ठव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाप्रतियोगित्त्व । जैसे 'एटः सन् एच' यहाँ विशेप्यपदार्थ घट में रहा हुआ व्याप्यवृत्नि अभाव है गुणत्वाभाव, कर्मवाभाव आदि । उनका प्रतियोगी है गुणत्व, कर्मत्व आदि । अतः तादृश अभाव का प्रतियोगित्व गुणत्व आदि में रहेगा । मगर घट विद्यमान होने की वजह उसमें अस्तित्व का अभाव नहीं रहता है । अतः घटवृत्ति व्याप्पवृत्ति अभाव का अप्रतियोगी बनेगा अस्तित्व = सत्व । अतः सत्त्व में घटवृत्ति व्याप्यवृत्तिअभाव का
| रहेगा । यहाँ शाब्दबोध का आकार होगा-घट स्वनि च्याप्यवृत्ति अत्यन्ताभाव के अप्रतियोगी सत्त्ववाला है।
शंका :- यदि विशेषणसमभिव्याहत एवकार का अर्थ विशेष्यार्थनिष्ठ व्याप्यवृनि अत्यन्ताभाव का अप्रतियोगित्व माना जायेगा, तब तो 'वृक्षः संयोगी एच' इत्यादि स्थल में एक्कारार्थ अप्रसिद्ध बन जायेगा । इसका कारण यह है कि यहाँ 'वृक्षः' पद विशेष्यवाचक है और विशेषणवाचक 'संयोगी' पद से एक्कार संगत है। वृक्षात्मक विशेप्य पदार्थ में जो व्याप्यवृत्ति १. यह दीर्घ पूर्वपक्ष २७७ पृष्ठ पर समाप्त होता है।
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२७३ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * विशेषणसङ्गतै क्कारार्थविचारः ** विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं का, तेल वृक्ष संयोग्य माऽग्रसिदिः ।। अयोगव्यवच्छेदस्तु नार्थः, 'प्रमेयमभिधेयमेवे'त्यत्रवाऽभावात् ।
== =* जयलता हैपितप्रतियोगित्वाभावः, अर्थ इत्यत्राऽनुषज्यते । तथाहि - 'शङ्खः पाण्डुर एव' इत्यत्र विशेष्यलक्षणशकवृत्तिः व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिको योऽत्यन्ताभावः स न तावत् पाण्डुरत्वाभावः किन्तु श्यामत्वाद्यभावः तत्प्रतियोगित्वं श्यामरूपादौ, तदभावश्च पाण्डरत्वे वर्तत इति ‘शलः स्ववृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकाभावनिरूपितप्रतियोगित्वा-भावविशिष्टपाण्डुरत्ववान्' इत्युक्तस्थले बोधः ।
नन्वेवं सति 'वृक्षः संयोगी एवे'त्यत्र तादृौवकाराऽसङ्गतिः स्यात् व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकाभावीयप्रतियोगितायाः संयोगानुयोगिकत्वा प्रसिद्धया संयोगे वृक्षवृत्तिच्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकाऽत्यन्ताभावनिरूपितप्रतियोगितानिषेधाऽयोगादित्याशङ्कायामाहविशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं वाऽर्थ इति । विशेष्यपदार्थवृत्तिः यो भेदः तदीयप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वविरहो वा तदर्ध इति । यथा 'शङ्खः पाण्डुर पवे' त्यत्र शवृत्तिः यो भेदः स न पाण्डुरप्रतियोगिकः किन्तु घटादिप्रतियोगिकः तदीयप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वं घटत्वादी तदभावश्च पाण्डुरत्ये इति 'शङ्खः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वशून्यपाण्डुरत्ववान्' इत्युक्तस्थले शाब्दबोधः । तत्फलमाह- तेनेति । विशेषणवाचकपदोत्तरैबकारस्य द्वितीयार्थोपगमेनेति । 'वृक्षः संयोगी एवे'त्यत्र स्थले नाऽप्रसिद्धिः तादर्शवकारार्थस्येति शेषः । तथाहि वृक्षवृत्तिों भेदः स न तावत् संयोगिप्रतियोगिकः किन्तु घटादिप्रतियोगिकः तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वं घटत्वादौ तदभावश्च घटवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्ववति संयोगे वर्तत इति तत्र 'वृक्षः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकसंयोगवानि'त्याकारको बोधो जायत इति नाऽप्रसिद्धिः ।
ननु विशेषणसंगतैवकारस्याऽर्थोऽयोगन्यवच्छेद एवास्तु सम्बन्धाभावाऽभावात्मकः, 'शङ्खः पाण्डुर एवे त्यादौ 'शङ्गः पाण्डुरत्वसम्बन्धाभावप्रतियोगिकाऽभाववानि' त्याद्याकारकबोधस्यैवानुभवसिद्धत्वादिति प्राचीनन्यायमतं दूषयितुमुपक्रमते नव्यःअयोगन्यवच्छेदस्तु नार्थः इति । 'विशेषणसङ्गतैवकारस्ये त्यत्राऽप्यनुषज्यते । हेतुमाह- 'प्रमेयमभिधेयमेवे त्यत्रैवाऽभावादिति । ।
अभाव है उसका प्रतियोगित्व घट, पट आदि में रहता है, क्योंकि घटाभाव, पटाभाव आदि वृक्ष में विद्यमान हैं। संयोग अव्याप्यवृत्ति है, क्योंकि संयोग के आश्रय में अन्य भाग में उसका अभाव भी रहता है । वृक्ष में जो संयोगाभाव रहता है वह अव्याप्यवृत्ति है, क्योंकि वह संपूर्ण वृक्ष में नहीं रहता है। शाखा में संयोग होने की वजह मूलादि अवच्छेदेन ही यानी मूलादि अमुक भाग में ही संयोगाभाव रहता है । संयोग अन्याप्यवृत्ति होने की वजह उसमें कभी भी व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभावप्रतियोगित्व रहता ही नहीं है । जो धर्म जहाँ कभी भी न रहता हो उसका बहाँ निषेध नहीं हो सकता, क्योंकि प्रसक्त का ही निषेध हो सकता है, अप्रसक्त का नहीं । एवकार का प्रयोग प्रसक्त का व्यवच्छेद करने के लिए ही | होता है। संयोग में व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभावप्रतियोगित्व ही प्रसक्त नहीं है तो वृक्षवृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभाव प्रतियोगित्व कैसे प्रसक्त होगा ? जब कि वह कभी भी संयोग में प्रसक्त = संभव = प्रसिद्ध ही नहीं है तो उसका व्यवच्छेद भी कैसे होगा ? अतः संयोगात्मक विशेषण में तादृशा प्रतियोगित्व अप्रसिद्ध हो जायेगा। फलतः विशेष्यवृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगि कात्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्व को विशेषणसंगत एवकार का अर्थ नहीं माना जा सकता।
* विशेषणसंगत एवकार का दितीय अर्थ - नैयायिक समाधान :- विशेष्यनिष्ठभे. इति । विशेषणसंगत एवकार अर्थ विशेप्यनिष्ठ भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व मानने से उपदर्शित अप्रसिद्धि दोष का निराकरण हो सकता है । वह इस तरह . 'वृक्षः संयोगी एव' पहाँ वृक्ष विडोप्य है। उसमें जो जो भेद रहते हैं, उनका अवच्छेदक संयोग नहीं है, किन्तु घट, पट आदि हैं। 'वृक्षः घटवान् न, पटवान् २' इत्यादि प्रतीति होती है, एवं वृक्ष में घटवद्भेद, पटबद्भेद आदि रहते हैं। मगर न तो 'वृक्षः न संयोगी' ऐसी प्रतीति होती है और न तो वृक्ष में संयोगिभेद रहता है। अतः वृक्षवृत्तिभेदप्रतियोगिता की अनवच्छेदकता संयोग में अबाधित है। यत् किभितभेदप्रतियोगि-. तावच्छेदकता संयोग में है, क्योंकि 'गुणो न संयोगी' इत्यादि प्रतीति से गुणवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकता संयोग में प्रसिद्ध है। अतः संयोग में वृक्षवृत्ति प्रतियोगिताअवच्छेदकता का निषेध हो सकता है । इस तरह विशेषणसमभिन्याहृत एवकार का अर्थ विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाव मानने से 'वृक्षः संयोगी एव' इत्यादि स्थल में अप्रसिद्धि नहीं है । अतः विशेषणसंगत एवकार का वही अर्थ उचित है ।
विशेषणसंगत एवकार का अयोगव्यवच्छेद अर्थ नहीं है - जव्य नैयायिक अयो, इति । प्राचीन नैयायिक आदि 'विशेषणसंगत एवकार का अर्थ अयोगव्यवच्छेद है। ऐसा मानते हैं। उसका
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* खण्डशः शक्तिविचार: * || तत्र च खण्डश: शक्तिलक्षणा वेत्यन्यदेतत् ।
- * जयलता * अभावपदार्थोऽत्राऽसम्भवो बोध्यः, अयोगव्यवच्छेदस्येति गम्यते । न चाऽत्र सम्बन्धाभावलक्षणाऽयोगैकदेशसम्बन्धेऽन्वितस्याऽभिधेयपदार्थकदेशस्याऽभिोगलाण प्रतिगोणिस्तरावधेनः भरेच त्, लडाऽपि स्वप्रतियोगितयाऽभावान्तरेऽन्वयात्, 'प्रमेयं स्वरूपसम्बन्धेन अभिधेयत्वसम्बन्धाभावाभावयदि ति बोध उपगन्तुं शक्यः; अभिधेयत्वस्याऽभिधाविषयत्वरूपस्य केवलान्वयित्वेन तदभावाऽप्रसिद्धेः, असतोऽनिषेधात् । न च तत्र विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगिज्ञानावच्छेदकत्वस्य तत्त्वेऽपि अन्यत्र अयोगव्यवच्छेदस्यैव तत्त्वमिति वक्तव्यम्, शक्तिद्वयकल्पने गौरवात् । ततश्च लाघवेनाऽपि सर्वत्र विशेषणसमभिव्याहृतैवकारस्य विशेष्यनिष्ठभेदप्रति|योगितावच्छेदकत्वाभाव ण्वार्थः। 'घटो नीलघटो न भवति. द्रव्यं न घट' इत्यादिवत 'प्रमेयं न द्रव्यं' इति प्रतीत्या प्रमेयवृत्ति भेदनिरूपितप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वं द्रव्यत्वादौ तदभावश्वाऽभिधेयत्वे इति प्रमेयनिष्ठभेदीयप्रतियोगितावच्छेदकत्वशून्याऽभिधेयत्ववदि'त्युक्तस्थले बोध इत्यङ्गीकारान दोषः ।
ननु अभिधेयत्वे भेदीयप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य सत्त्वे प्रमेयवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वनिषेधो घटामश्चेत्, प्रसक्तस्यैव प्रतिषेधात् । न चैवं प्रकृते सम्भवः; अभिधेयत्वस्य केवलान्वयित्वेनाऽभिधेयभिन्नस्याऽप्रसिद्धेः । ततो न दर्शितार्थे विशेषणसङ्गतैवकारशक्तिः, अन्यथा 'वृक्षः संयोगी एवे' त्यत्र विशेष्यदृत्तिव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्वसम्भवेन विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वकल्पानुसरणवैयर्थ्यप्रसङ्ग इत्याशङ्कायामाह- तत्र च खण्डशः शक्तिरिति । 'पटो न घटाभिधेय' इति प्रतीत्या अभिधेयत्वे भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य प्रसिद्धेः प्रमेयत्वावच्छिन्नवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वव्यवच्छेदस्य युक्तत्वादिति तत्तद्विशेषणसङ्गतैबकारस्य तत्तद्विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वे व्यवच्छेदे च शक्तिरिति खण्डशः शक्तिकल्पने दोषाभावात् । अत एव द्वितीयकल्पानुसरणमपि सङ्गच्छते; संयोगेऽखण्डस्य वृक्षवृत्तिव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्वस्य सत्त्वेऽपि खण्डशः तदसम्भवात्. तादृशप्रतियोगित्वस्य तत्रा प्रसिद्धत्वेन तनिषेधाऽयोगादित्युक्तत्वात् ।
नन्वेवं शक्तिद्वयकल्पने गौरवमच्याहतमिति निन्दामि च पिबामि चेति न्यायापात इत्याशङ्कायामाह- लक्षणा चेति । व्यवच्छेदे एवं शक्तिः, समभिव्याहारादिबलोपस्थिते विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगिताबच्छेदकत्वे लक्षणेत्यर्थः । न चैवं लक्ष्य- शक्ययोः एवकारार्थयोः परस्परमनन्बयप्रसङ्ग इत्यारेकणीयम्, 'एवपदप्रयोज्यलक्ष्यार्थनिष्ठविषयतानिरूपितशक्यार्थनिष्ठविषयतासम्बन्धेन शाब्दबोधं | प्रति एवपदनिष्ठशक्तिज्ञानजन्योपस्थितिः बिशेष्यतासम्बन्धेन कारणमिति कार्यकारणभारलब्धात्मलाभायाः 'एवपदप्रयोज्यलक्ष्यार्थनिष्ठविषयतानिरूपितशक्याविषयता एवपदप्रयोज्या भवती तिव्युत्पत्तर्महिम्ना तयोः परस्परमन्वयात् । अत एव घटपदस्य नीले लक्षणामङ्गीकृत्य 'नीलो घटो न शक्ल' इति तात्पर्येण 'घटो न शक्लः' इत्यस्याऽनापत्तेः ।।
निराकरण करने के लिए नव्य नैयायिक कहते हैं कि - विशेषणसंगत एवकार का अर्थ अयोगव्यवच्छेद तो नहीं हो सकता, क्योंकि 'प्रमेयं अभिधेयं एवं' इत्यादि स्थल में अयोगव्यवच्छेद अर्थ अप्रसिद्ध है। वह इस तरह समझा जा सकता है। 'प्रमेयं अभिधेयं एवं' यहाँ विशेप्य है प्रमेयपदार्थ और विशेषण है अभिधेयपदार्थ । अयोगव्यवच्छेद के घटकीभूत अयोग का मतलब है सम्बन्धाभाव और व्यवच्छेद का मतलब है अभाव या निषेध । अयोग के एकदेवा सम्बन्ध में अभिधेयत्व का, जो अभिधेयशन्दार्थ का एक देश है, अन्वय करने पर 'अभिधेयं एवं' का अर्थ होगा अभिधेयत्वसंसर्गाभाव का अभाव । उसकर स्वरूपसम्बन्ध से प्रमेयपदार्थ में अन्वय होने से उक्त वाक्य का अर्थ होता है 'प्रमेयं अभिधेयत्वसंसर्गाभावभाववत् अर्थात् प्रमेयपदार्थ में अभिधेयत्व का सम्बन्धाभाव नहीं है । मगर यह नहीं माना जा सकता, क्योंकि सभी चीज-वस्तु अभिधेय यानी अभिधा = शब्द का विषय होने की बजह कोई भी चीज अभिधेयत्व = अभिधाविषयत्व के संसर्ग से शून्य नहीं है। मतलब कि अभिधेयत्वसंसर्गाभाव कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है। निपेय उसीका हो सकता है जो वस्तु अन्यत्र विद्यमान हो, सत् हो, प्रसिद्ध हो । अभिधेयत्वसंसर्गाभाव सर्वथा अप्रसिद्ध होने से उसका निषेध नहीं हो सकता, क्योंकि अप्रसिद्धप्रतियोगिक निषेध नहीं होता है। अतः 'प्रमेयपदार्थ अभिधेयत्वसंसर्गाभावाऽभाववान है' यह अर्थ असंगत है। इस असंगति की बजद्द विशेषणसंगत एवकार का अर्थ अयोगव्यवच्छेद नहीं माना जा सकता । प्रदर्शित अर्थ में एवकार की खंडशः = पृथक् शक्ति मानी जाय या लक्षणा ? इस विषय में हमारा कोई आग्रह नहीं है।
* जयनैयायिक मतानुसार 'घटः सत् एवं' वाक्य का अर्थ *
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२७५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * 'घटः सनेवे'तिवचनविचारः *
तथा च 'घटः सन्नेवे'त्यत्र स्ववृत्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिसत्त्ववान् स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकसत्त्ववान् वा घट' इति बोधः, न तु सर्वसत्त्ववानिति । तथा च क्व सांकर्यम् ? एकान्तवादे परौदासीन्येन सत्त्वमात्रबोधनात् ।
ॐ जयलता
ส
एतावत्पर्यन्तकथनफलमाह- तथा चेति । 'विशेषणसङ्गतैवकारस्य स्वविशेष्यनिष्ठत्र्याण्यवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्वं स्वविशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं बाऽर्थ' इति समर्धनप्रकारेण चेति । 'घटः सन्नेवे' त्यत्र स्थले स्ववृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिसत्त्ववानिति । 'घट इति बोध' इत्यनुकुष्यते । स्वपदेन घटो बोध्यः, 'विशेषण कुक्षिप्रविष्टस्वपदस्य विशेष्यपरत्वमिति सर्वसम्मतत्त्वात् । तथा च घटवृत्तिः योऽत्यन्ताभावः तदप्रतियोगि यत् सत्त्वं तदाश्रयो घट इत्यर्थः । बटवृत्तिरत्यन्ताभावः घटादि प्रतियोगिको न तु सत्त्वप्रतियोगिक इति तस्य तदप्रतियोगित्वमन्याहतम् । विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वस्य तदर्थत्वकल्पे आह- स्ववृत्तिभेदप्रतियोगिता नवच्छेदकसत्त्ववान्वेति । घटवृत्तिर्यः तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिकाऽभावः पटादिभेदलक्षणः तत्रिरूपित प्रतियोगिताऽवच्छेदकत्वस्य पटत्वादिवृत्तेः अभाववत् सत्त्वं, 'घटो न सन्' इत्यप्रतीतेः । तादृशसत्त्ववान् घटः इति वा बोध उक्तस्थले उपजायत इति । व्यवच्छेदमाह - न तु सर्वसत्त्वत्वानिति । अनेन घटस्य पदादिरूपताप्रसङ्गोऽि प्रत्युक्तः । तथा च क्व सांकर्यं ? इति । तादृदावाक्यजन्यबोधस्य घटेतरवृत्तिसत्त्वाऽनवगाहितया घटे परवृत्तिधर्मवत्त्वरूपं सत्त्वविरोध्यसत्त्वसमावेशरूपं वा साङ्कर्यमनवकाशमित्यर्थः । तदेवाssa - एकान्तवादे उक्तवाक्यात परौदासीन्येन = परकीयधर्मविषयकास्तित्वनास्तित्वविचारनैरपेक्ष्येण सत्त्वमात्रबोधनात् घंटे केवलं सत्त्वबोधजननात् । तत एकान्तवाद एवं विश्वकल्याणकरः न त्वेनकान्तवादः साङ्कर्यादिदोषानतिवृत्तेरिति नव्यनैयायिकस्याऽभिप्रायः ।
तथा च इति । विशेषणसंगत एवकार का उपदर्शित अर्थ मानने की वजह 'घटः सन् एव ' 'घट सत् ही है' इस वाक्य में विशेषणवाचक सन् पद से संगत एवकार का अर्थ होगा घटवृत्ति व्याप्यवृत्ति अत्यन्ताभाव का अप्रतियोगित्व या घटवृत्ति भेद की प्रतियोगिता का अनवच्छेदकत्व । उसका अन्वय सत्पदार्थ के एकदेश सत्त्व में होगा । अतः उक्त वाक्य से (१) घटः स्ववृत्तिव्याप्य वृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिसत्ववान्' ऐसा शाब्दबोध श्रोता को होगा । घट में जो व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिक अभाव रहते हैं वे घट, पट, मठ आदि प्रतियोगिक हैं, मगर सत्त्वप्रतियोगिक नहीं हैं। अतः सत्त्व तादृश अभाव का अप्रतियोगी है, जो कि घट में रहता है । इसलिए 'घट अपने में रहे हुए व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिक अत्यन्ताभाव के अप्रतियोगि सत्त्वराला है' ऐसा शाब्द बोध का आकार हिन्दी भाषा में बताया जा सकता है । यदि विशेषणसंगत एवकार के द्वितीय अर्थ का स्वीकार किया जाय तब उक्त वाक्य से श्रोता को शाब्दबोध होगा कि 'घटः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकसत्त्ववान्' यहाँ एवकार का अर्थ होगा, घटनिष्ठ भेद की प्रतियोगिता का अनवच्छेदकत्व (= अवच्छेदकत्वाऽभाव ) । उसका अन्वय स्वरूप संबंध से सत्त्व में होगा और उसका अन्वय विशेष्यभूत घटपदार्थ में होगा । अतः उक्त वाक्य से जन्य शाब्दबोध का आकार
'पट अपने में रहने वाले भेद की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक सत्त्व वाला है ' यह होगा । घट में जो भेद रहते हैं, | वे पटआदिप्रतियोगिक हैं । मगर सत्प्रतियोगिक नहीं हैं । 'घटो न सन्' ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अतः घटवृत्ति तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न अभाव की प्रतियोगिता के अबच्छेदक पटत्त्व आदि धर्म होंगे, न कि सत्व । तादृश सत्त्व का आश्रय घट है। मतलब कि घट में जो सत्त्व प्रतीयमान होता है, वह सर्व सत्त्व (= सत्ता) नहीं है, मगर सावच्छिन है, घटवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वावच्छिन्न है । इसलिए सांकर्य दोप का यहाँ अवकाश ही नहीं है । सांकर्य दोष तब प्रसक्त होता यदि घट में सत्त्व के साथ साथ असत्त्व का भी मान उक्त वाक्य से होता । मगर यहाँ तक के विवरण से हम यह देख चुके हैं कि उक्त वाक्य से घट में सावच्छिन्न (= विशिष्ट ) सत्त्व का ही केवल बोध होता है, न कि यत् किञ्चित् असत्त्व का भी, क्योंकि एकान्तवाद में, जो हमारा प्राणप्रिय है, व्यधिकरण धर्म की उदासीनता निरपेक्षता से सत्त्व मात्र का ही बोध होता है। मतलब कि व्यधिकरण धर्म की अपेक्षा पद आदि पदार्थ में कौनसा धर्म रहता है ? इस विषय में उदासीन हो कर एकान्तवाद यह प्रतिपादन करता है कि. - उक्त वाक्य से विशेष्य घट में केवल सत्ता का ही बोध होता है, जो सत्ता घटनिष्ठाभावाप्रतियोगी या घटनिष्ठभेदप्रतियोगिता नवच्छेदक होती है । उक्त रीति से सांकर्यादि दोप को अवकाश नहीं होने के सबब एकान्तवाद ही हितकर विश्वकल्याणकर है । अनेकान्तवाद के स्वीकार में तो सांकर्यादि दोष की वजह प्रमाणव्यवस्था ही विलीन हो जाती है । अतएव वह त्याज्य है - यह हम नव्यनैयायिक मनीषियों का तात्पर्य है ।
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* 'द्रव्यं सदेव' इस प्रतीति की अनुपपत्ति - आक्षेप
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* परौदासीन्येन सत्त्वमात्रबोधनम् * लत्तेवं द्रव्यं सदेव'तिधी: कथं ? सत्तानतिरिक्ताया गुणत्वविशिष्ठसताया द्रव्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वादिति चेत् ? न, विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणत्वस्य विवक्षितस्य तत्र सत्वादिति चेत् ?
== ==* जयलवा * नन्यमते कश्चिच्छङ्कते . नन्वेवमिति । विशेषणसमभिज्याहतैवकारस्य विशेष्यवृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानवच्छेदकत्वार्थोपगमे इति । 'द्रव्यं सदेवे'तिधीः कथम् ? हेतुमाह- सत्तानतिरिक्तायाः = शुद्धसत्तानतिरेकिण्याः, गुणत्वविशिष्टसत्तायाः
करण्येन गुणत्वजातिविशिष्टसत्तायाः, द्रव्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वात = विशेष्यभत निरूपकतानिरूपितप्रतियोगितानिरूपितावच्छेदकतावत्त्वात् । अयमाशयः उक्तस्थले द्रव्यं विशेष्यं सत्त्वञ्च विशेषणम । द्रव्ये या सत्ता वर्तते सा न गुणत्वसमानाधिकरणत्वविशिष्टा किन्तु द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यविशिष्टा | अतः द्रव्ये सामानाधिकरण्येन गुणत्वविशिष्टसत्तावप्रतियोगिको भेदो वर्तते । तत्प्रतियोगितावच्छेदिका गुणत्वविशिष्टसत्ता । सा च शुद्धसत्तानतिरिक्ता, 'विशिष्टं शुद्धान्नातिरिच्यत' इति न्यायात् । अतो द्रव्यवृत्तिभेदस्य गुणत्वविशिष्टसत्ताधिकरणप्रतियोगिकस्य प्रतियोगितावच्छेदकता गुणत्वविशिष्टसत्तावत् शुद्धसत्तायामपि वर्तते । अतो द्रव्यविशेषणीभूतसत्तायां द्रव्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वाऽभावो नास्ति । ततः 'द्रव्यं स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्दकससाबाद ति बोधः प्रकृत भवितुं नाईतीति विशेषणसङ्गतैवकारस्य विशेष्यवृत्तिभेदप्रति - योगितानवच्छेदकत्वाऽर्थकत्वं न चारुतामश्चति ।
___ नम्यनैयायिकस्तां प्रत्याचष्टे-नेति । विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणत्वस्य = विशेष्यार्थवृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानिरूपिताया अवच्छेदकताया या पर्याप्तिः तन्निरूपितं यदधिकरणत्वं तदभावस्य, चिवक्षितस्य = विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वपदेन वक्तुमभिप्रेतस्य, तत्र = शुद्धसत्तायां, सत्वात् = विद्यमानत्वादिति । अयं नव्याशयः प्रतियोगितानवच्छेदकत्वपदेनाऽत्र प्रतियोगितावच्छेदकत्वाऽभावो न विवक्षितः किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यधिकरणत्वाभावः । सच न सत्तायां वर्तते । तथाहि - 'द्रव्यं न सामानाधिकरण्येन गुणत्वविशिष्टसत्तावत' इति प्रतीत्या यो भेदो द्रव्ये ज्ञायते
शंका :- नन्वेवं, इति । जनाब ! यदि एक्कार का अर्थ अयोगव्यवच्छेद न माना जाय और विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व ही माना जाय तब तो 'द्रव्यं सत् एवं' यह प्रतीति आपके मत में अनुपपन्न बन जायेगी। इसका कारण यह है कि वन्य में शुद्ध सत्ता रहती है मगर गुणत्वविशिष्ट सत्ता नहीं रहती है । गुणत्वविशिष्ट सत्ता का मतलब है गुणत्वजातिसमानाधिकरण सत्ता = सामानाधिकरण्य संबंध से गुणत्वविशिष्ट सत्ता = जिसके अधिकरण में गुणत्व जाति रहती हो वैसी सत्ता । गुणत्वविशिष्ट सत्ता का आश्रय गुण है, न कि द्रव्यादि । अतः 'द्रव्यं न गुणत्वरिशिष्टसत्ताबद्' यह प्रतीति एवं व्यवहार | होने में कोई बाध नहीं है । द्रन्यवृत्ति गुणत्वविशिष्टसत्तावद्भिनत्व का प्रतियोगितावच्छेदक है गुणत्वविशिष्टसत्ता । मगर न्यायनयमतानुसार गुणत्व-विशिष्ट सत्ता तो शुद्ध सत्ता से अतिरिक्त नहीं है। अतः द्रव्यवृत्ति गुणत्व-विशिष्टसत्ताश्रयभेद से निरूपित प्रतियोगिता की अवच्छेदकता जैसे गुणत्वविशिष्ट सत्ता में रहती है, ठीक वैसे ही शुद्ध सत्ता में भी रहती है, जो कि द्रव्य में भी रहती है। इन्यवृत्तिसत्ता में स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व न होने से इन्यनिष्ठभेद-प्रतियोगितानवच्छेदकसत्ताश्रय ट्रव्य नहीं होगा । अतः 'द्रव्यं सदेव' यह बोध अनुपपन्न हो जायेगा ।
प्रतियोगितानवच्छेदकत्व का अर्थ - जयनैयायिक समाधान :- न, विशि. इति । उस्ताद ! आपकी यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व एक्कारार्थ है - यह कहने का मतलब आप जानते नहीं है। हमारा मतलब यह है कि प्रतियोगितानवच्छेदकत्व प्रतियोगिता। वच्छेदकत्वाभावस्वरूप नहीं है किन्तु प्रतियोगितानिरूपित अपच्छेदकता की पर्याप्ति से निरूपित अधिकरणत्व का अभाव है।
अतः विशेषणसंगत एवकार का अर्थ होगा विशेष्यनिष्ठ भेद से निरूपित प्रतियोगिता की अवदकता से निरूपित पर्याप्ति | के अधिकरणव का अभाव, जो विशेषण में रहना चाहिए । प्रस्तुत में 'द्रव्यं सदेव' यहाँ विशेप्यात्मक द्रव्य में जो भेद रहता है वह सामानाधिकरण्यसंबन्ध से गुणत्वविशिष्टसत्तावत्प्रतियोगिक है। विशेष्यवृत्ति भेद का प्रतियोगितावच्छेदक मुणत्ववैशिष्ट्य
और सत्ता है । अतः प्रतियोगितावच्छेदकता तादृश प्रत्येक धर्म में रहती है। मगर विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकता की पर्याप्ति प्रत्येक धर्म में नहीं रहती है, किन्तु मिलित उभय धर्म में ही रहती है, क्योंकि 'तादशप्रतियोगितावच्छेदकता प्रत्येक धर्म में ही रहती है, क्योंकि 'तादृशप्रतियोगिताचच्छेदकता प्रत्येक धर्म में पर्याप्त नहीं है किन्तु उभय में ही पर्याप्त है। ऐसा
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२७७ मध्यमस्याद्वादरहस्पे खण्डः २ - का.५ * अवच्छेदकत्वनिरुक्तिसंवादः
मैवम्, 'घट: सम्मेवे'त्यत्र 'घट: सन्म त्वसमिति एव हि स्वारसिको बोधः । तथा च | प्रत्यक्षतः प्रतीयमानमपि पररूपेणाऽसत्त्वं घटे प्रतिक्षिपत: फलत: पररूपेणाऽपि सत्वाऽभ्यु
* जयलता तन्निरूपितप्रतियोगितावच्छेदकत्वं न वैशिष्ट्यम्, यत्किञ्चिद्वैशिष्टयवति द्रव्ये 'द्रव्यं न गुणत्वविशिष्टमि' ति प्रत्ययात् 1 न वा सत्ता, तब सत्तायाः समवेतत्वेऽपि 'द्रव्यं न गुणत्वविशिष्टसत्तावदिति प्रतीत्युदयात् । नाऽपि वैशिष्ट्यसत्तोभयम्, द्रव्यत्वविशिष्टसत्तावत्यपि तथा प्रत्ययात । किन्त गणत्ववैशिष्ट्यं सत्त्वञ्च । प्रतियोगितानिरूपितावच्छेदकत्वञ्चाऽत्र पर्याप्तिसम्बन्धेन बोध्यम् । द्रव्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्तिनिरूपिताधिकरणत्वं गुणत्वविशिष्ट सत्तायामेव वर्तते । तदभावस्तु शुद्धसत्तायां वर्त्तते । सा च द्रव्ये वर्तते । अत: 'द्रव्यं स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणसत्त्ववदि'त्यन्वयबोधोपगमे बाधकाभावात् । ततो विशेष्यनिष्ठभेदवृत्तिभेदत्वावच्छिन्ननिरूपकतानिरूपित प्रतियोगितानिरूपितावच्छेदकतानिरूपितपर्याप्तिनिरूपिताधिकरणत्वप्रतियोगिकात्यन्ताभावस्य विशेषणसमभिव्याहृतवकारांधत्वोपगमे न कश्विद्दोष इत्येकान्तवाद एक सार्वजनीन इति नव्यनैयायिकाशयः ।
अत्रेदमवधेयम् - विशेषणसंगतेवकारार्थघटकीभूता पर्याप्ति: अनित्यत्वे सति व्याप्यवृत्तित्वे च सति स्वरूपसम्बन्धभिन्नसंसर्गरूपा । शिरोमणिनये त स्वरूपसम्बन्धविशेषात्मिका सा । तदक्तं अचच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधितो "पर्याप्तिश्च 'अयमेको घट इमौ द्वौ' इत्यादिप्रतीतिसाक्षिकः स्वरूपसम्बन्धविशेषः" इति । नानासमवायवादिमते तु तत्तत्समवाय एव तसत्पर्याप्तिन त्वतिरिक्तपदार्थः स्वरूपं वेति ।
साम्प्रतं स्याद्वादी नव्यनैयायिकमतं प्रतिक्षिपति - मेचमिति । 'घटः सन्नेवे त्यत्र स्थले 'घटः सन् न तु असन्' इत्येच हि स्वारसिकः स्वरसबाही सार्वलौकिक: बोधः समुपजायते इति शेषः । 'घटः स्ववृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानिरूपितावच्छेदकल्यपर्याप्तिनिरूपिताधिकरणताप्रतियोगिकाभावाश्रयसत्त्ववान' इति बोधस्तु स्वप्नेऽपि नोदेतीति तद्व्यवच्छेद एवकारेण कृतः । अयं भावः विशेषणसंगतैवकारस्य अयोगो व्यवच्छेदश्वार्थः । विशेषणार्थस्य चैवकारोपस्थितेऽन्यपदार्थेऽन्वयः । ततश्वोक्तस्थले 'घटः सन, न सदन्य 'इत्येव बोधः । तदर्थश्च 'घटः पटत्वावच्छिन्नसत्त्ववान, न त घटत्वावच्छिन्नसत्त्वाऽभाववानि'त्येव । एवञ्च घटवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकीभूताऽत्यन्ताभावप्रतियोगिसत्त्वस्य घटत्वावच्छिन्नत्वप्रतीतो सत्यां पटत्वाधनवछिन्नत्वमपि प्रत्यक्षतः प्रतीयत एव । उक्तस्थले 'बटः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यधिकरणत्वाभावाश्रयसत्त्ववानि ति बोधोपगमे तूपदर्शितरीत्या घटे प्रत्यक्षप्रतीतमपि पटत्वाद्यवच्छिन्नासत्त्वं घटवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकीभूत-व्यधिकरणधर्मानवच्छिन्नसत्त्वसमानवित्तिवेद्यमपनुतं स्यात् । तेन च पटत्वादिपररूपावच्छिन्नं सत्त्वं, घटेऽभ्युपगतं स्यात् । ततः परकीयसत्त्वसमावेशलक्षणं साकर्य दुर्निवारमित्याशयेनाऽऽह , तथा चेति । उक्तरीत्या चेति । प्रत्यक्षतः = प्रत्यक्षमाश्रित्य, प्रतीयमानमपि पररूपेणाऽसत्त्वं - व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाइसत्त्वं, घटे प्रतिक्षिपतः = अपलपत: नव्यनैयायिकस्य, फलतः = अर्थतः, पररूपेणाऽपि सत्त्वा
सार्वलौकिक अनुभव है। दो पन्नास रूपये की प्रत्येक नोट (Money) में सौ रूपये पर्याप्त = समाविष्ट नहीं होते किन्तु मिलित उभय में ही । अतः द्रव्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्ति की अधिकरणता गुणत्ववैशिष्ट्य और सत्ता उभय में रहती | है, न कि केवल सत्ता में । शुद्ध सत्ता में, जो कि द्रव्यवृत्ति है, तो तादृश अधिकरणल का अभाव ही रहता है । अतः 'द्रव्यं स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकतापर्याप्त्यनधिकरणसत्तावत्' यह अर्थ संगत हो जाता है । अतः विशेषणसंगतैवकारार्थस्वरूप विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व का विशेप्यनिष्ठभेदनिरूपितप्रतियोगितानिरूपितपर्याप्तिनिरूपिताधिकरणत्वप्रतियोगिकाऽभावरूप से स्वीकार करने पर कोई दोष नहीं है। इस तरह एकान्तवाद में सांकर्य आदि दोष का संभव नहीं है, क्योंकि तादृशसत्ता
ही घट. द्रव्य आदि में भान होता है . यह एकान्तवाद का सिद्धान्त-अभिप्राय है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि अनेकान्तवाद हेय है और एकान्तवाद उपादेय है . यह नव्य नैयायिक मनीषियों का स्यादादी के प्रति आक्षेप है।
स्याद्वादी :- मैवम्, इति । जनाब ! आपकी यह बात ठीक नहीं है । 'घटः सन् एव' इस वाक्य से श्रोता को 'घट सत् है, न कि असत्' ऐसा ही स्वारसिक बोध होता है । उक्त बोध के उत्तर अंश से घट में परकीय सत्त्व का निषेध फलित होता है। घर में घटत्वरूप से सत्त्व और पटत्वादिरूप से असत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से निश्चित होता है। मगर व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नसत्त्वाऽभाव का घट में निषेध किया जाय तब तो अर्थतः त्यधिकरणधर्मावच्छिन्न सत्त्व का स्वीकार हो जायेगा । तब तो घट में स्वरूप की भाँति पररूप से सत्त्व प्रसक्त होने से घट का स्वरूप संकीर्ण बन जायेगा । सभी
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* शास्त्रवार्तासमुच्चयसंवादः
पगमापातात् सांकर्यशंकाशंकु संकुलचेतस्कता दुर्निवारा चिरमायुष्मतः । अथ एवं 'प्रमेयं वाच्यमेवे'त्यत्र का गतिः ? इति चेत्, 'किं तत्राऽवाच्यता न प्रतिषिध्यते ?"
'अप्रसिद्धा सा कथं प्रतिषिध्यतामिति चेत् ?" तर्हि तत्र योग्यताऽभावादेवकारोऽबोधक एवास्तु । * गयलता * -
भ्युपगमापातात् = परधर्मावच्छिन्नसत्त्वोपगमप्रसङ्गात्, द्वी नञौ प्रकृतमर्थं गमयत इति न्यायेन, सांकर्यशङ्काशङ्कुसङ्कुलचेतस्कता = स्वकीयपरकीयधर्म समावेशव्यतिकीर्णस्वरूपलक्षणसङ्करसंशयात्राकुलमनस्कता, दुर्निवारा सुरगुरुणाऽपि चिरं आयुष्मतः भवत इति । स्वसत्त्वविरोधि न पराऽसत्त्वमिति तत्स्यादेव, अन्यथा तदभावनियतं परसत्त्वमेव स्यात् । एतेन पराऽसत्त्वस्य काल्पनिकत्वमपि परास्तम् । तदुक्तं शास्त्रवार्तासमुचये श्रीहरिभद्रसूरिपुरन्दरेण > 'परिकल्पितमेतच्चेन्त्रन्वित्थं तत्त्वतो न तत् । तत्तः क इह दोषश्चेन्ननु तद्भावसङ्गतिः ।। (शा.स. स्त. ७ श्रो०२३) इति ।
नव्यनैयायिकः शङ्कते अथेति । एवमिति । 'घटः सन्नेवे' त्यत्र 'घटः सन् न तु असन्' इत्यवबोधाङ्गीकारे इति । 'प्रमेयं वाच्यमेवे 'त्यत्र का गतिः ? 'प्रमेयं वाच्यं, न त्ववाच्यमित्यस्योपगन्तुमनत्वात् वाच्यत्वस्य केवलान्वयित्वेन भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् वाच्यभेदस्याऽप्रसिद्धेः तदाश्रयस्यालीकत्वेन निषेधाऽयोगात् ।
स्याद्वादी नव्यमाक्षिपति काकुन्यायेन किमिति । तत्र 'प्रमेयं वाच्यमेवे 'त्यत्र, अवाच्यता वाग्विषयत्वाऽभावलक्षणा. न प्रतिषिध्यते ? 'प्रमेयं वाच्यमेवे' त्यत्राऽवाच्यता प्रतिषिध्यते न वा ? इति प्रक्षोभयी समुपतिष्ठते । तत्र नाद्योऽनवद्यः, तुल्यन्यायेन तदाश्रयस्याऽपि प्रतिषेध्यत्वसिद्धेः । नाऽपि द्वितीयः तद्धेतोरप्रदर्शनादिति स्याद्वाद्याशङ्कायां नव्योऽपि काक्वा आह- 'अप्रसिद्धेति । सा = अवाच्यता, कथं प्रतिषिध्यतां ? वाच्यतायाः केवलान्वयित्वेन तदभावलक्षणाया अवाच्यताया अप्रसिद्धत्वात् तस्या निषेधाऽयोगादिति नव्याशयः ।
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२७८
यदि चाऽवाच्यताया अप्रसिद्धत्वेन तन्निषेधो न भवितुमर्हति तर्हि अवाच्यस्याऽप्रसिद्धत्वेन तन्निषेधोऽपि न भवितुमर्हतीत्याशयेन स्याद्वाद्याह तर्हति । तत्र = 'प्रमेयं वाच्यमेवे 'ति स्थळे, योग्यताऽभावात् = अवाच्यत्वाऽप्रसिद्धिमूलकतदाश्रयाज्यसिद्धि| प्रयोज्यप्रतिषेधाऽप्रतियोगित्वलक्षणायोग्यत्वहेतोः, एवकारः विशेषणसङ्गतः, अबोधकः साधुत्वार्थ एव अस्तु । एतेन 'प्रमेयं वाच्यमेवे 'त्यत्र का गति: ? इति निरस्तम् |
ननु 'प्रमेयं वाच्यमेवे 'त्यत्र प्रमेयं स्ववृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानवच्छेदकवाच्यत्ववदि' ति बोधः स्वरसवाहीति वाच्य पदसंगतैवकारस्य प्रमेयनिष्ठ भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वार्थकत्वं सिद्धमिति तत्रैवकारस्य न निरर्थकत्वमुपगन्तुमर्हतीति नव्यारूप से घट में सत्व होने से घट का विशेषस्वरूप अनिश्चित रहेगा। संकर दोष की वजह आपका चित्त चिरकाल तक चंचल ही रहेगा ।
'प्रमेयं वाच्यं एव' स्थल का निरूपण
अथैवं इति । यहाँ नव्यनैयायिक की ओर से यह शंका की जा सकती है कि
“घटः सन् एवं इस वाक्य से 'घटः सन् न तु असन्' ऐसा शाब्दबोध माना जाय तो 'प्रमेयं वाच्यमेव' इस स्थल में एवपद का अर्थ संगत नहीं हो सकेगा । इसका कारण यह है कि वाच्यत्व केवलान्वयिधर्म होने से वाच्यत्व का अनाश्रय अवाच्य पदार्थ कोई है ही नहीं, जिसका निषेध हो सके। जो पदार्थ प्रसिद्ध होता है उसीका निषेध हो सकता है, अप्रसिद्ध का नहीं । अतः 'प्रमेयं वाच्यं न तु अवाच्यं' ऐसा शाब्दबोध 'प्रमेयं वाच्यमेव' इस वाक्य से नहीं हो सकता" - इस संबंध में स्याद्वादी की ओर से नव्य नैयायिक को प्रश्न किया जा सकता है कि - 'प्रमेयं वाच्यमेव' इस वाक्य से प्रमेय में क्या अवाच्यत्व का निषेध नहीं किया जाता है ? यदि नैयायिक का यह जवाब हो कि 'अवाच्यता तो अप्रसिद्ध
है ? क्योंकि असत् का निषेध नहीं हो सकता' - तो स्याद्वादी की ओर से
असत् है । उसका निषेध कैसे हो सकता यह भी कहा जा सकता है कि अवाच्यत्व 'प्रमेयं वाच्यमेव' यहाँ 'प्रमेयं वाच्यं' ऐसा
में प्रसिद्धत्वस्वरूप योग्यता न होने से वाक्यपदसंगत एवकार अवरोधक है । अतः
ही बोध होता है, न कि 'प्रमेयं वाच्यं न तु अवाच्यं' इत्याकारक । यदि नैयायिक की ओर से ऐसा कहा जाय कि
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२७९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * विस्तरत एवकारार्थमीमांसा *
'प्रमेयवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वबोधः स्वारसिकश्चेत् ?" तदाऽस्तु तत्र तस्य लक्षजैव । शक्तिस्तु लाघवादयोगे (? दन्यस्मिन्) व्यवच्छेदे च खण्डश एवेति युक्तमुत्पश्यामः । अस्तित्वं यत्पादो न तदिह कलशे, यद्घटे तत्तु बाढम् । रूपं तस्यैत कुम्भे न भवति हि यथेत्यत्र नो नो विवादः ।
* जयलता
स्माद्वाग्राह प्रमेयेति । तदा = तर्हि, तत्र प्रमेयनिष्ठ भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वविशिष्ट वाच्यत्वप्रकारकशाब्दबोधाङ्गीकारे इति यावत् । तत्र = प्रमेयवृत्तिभेदीय प्रतियोगितानवच्छेदकत्वे, तस्य = वाच्यपदसङ्गतैवकारस्य, लक्षणैवेति । ननु लक्षणाया जघन्यद्वृत्तित्वात् तत्र शक्तिरेव युक्तेत्याशङ्कायां स्याद्वाद्याह शक्तिस्त्विति । विशेषणसंगतैवकारशक्तिस्त्विति । लाघवात् अयोगे व्यवच्छेदे च खण्डश एवेति । विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वे विशेषणसंगतैवकारस्य शक्तत्वापगमापेक्षया खण्डशः संबन्धाभावलक्षणे ज् योगेऽभावरूपे व्यवच्छेदे चैव शक्तत्वाङ्गीकारी लाघवायुक्त इत्यर्थ: 1
नन्वत्र 'अन्यस्मिन्' इत्येव पाठः युक्तः, 'घटः स त्वसन्नि' तिबोधस्य 'घटः सन्नेवे 'ति वाक्यात् प्रकरणकारेणोपगमात् । 'न त्यसन्नि’त्यस्य सद्भिन्नभेदवानित्येव स्वारसिकबोधाभ्युपगमात् । अयोगे व्यवच्छेदे च खण्डशः शक्त्यङ्गीकारे तु तत्र 'घट सत्त्वसंसर्गाभावाभाववान्' इति यद्वा 'घटः सत्त्वाभाववभेदवान्' इत्येव बोधः स्यात् । तथा चानुभवविरोधः । न हि 'न पर्वतोऽसंयोगी' त्यत्र 'पर्वतः संयोगाभाववद्भिन्नः' इति बोध उदेति किन्तु 'पर्वतः संयोगिभिन्नभेदवानि' त्येव । 'घटः सन्नेवे 'त्यत्र अन्य व्यवच्छेदश्चैवकारार्थ इत्युपगमे तु समभिव्याहृतप्रातिपदिकार्थस्यैवकारोपस्थितेऽन्यपदार्थेऽन्वयात् 'घटः सन् न सदन्य' इति बोध उपपद्येतेति । किञ्चैवं विशेषणविशेष्यक्रियात्रितयसङ्गतैवकारदाक्तिरप्यनुगता स्यात्, 'शङ्खः पाण्डुर बेति ‘शङ्खः पाण्डुरः न पाण्डुरान्प:', 'पार्थं एव धनुर्धर' इति अत्र 'पार्थो धनुर्धरः पार्थान्यो न धनुर्धरः', 'सरोजं नीलं भवत्येवे' त्यत्र 'सरोजं नीलकर्तृकोत्पत्तिमद् नीलकर्तृकोत्पत्तिमदन्यद् न' इत्युपपत्तेः । अयोगे व्यवच्छेदे च विशेष्यसमभिव्याहृतै वकारशक्तिर्न संभवति । न चात्र पार्थो धनुर्धरः पार्थत्व सम्बन्धाभाववान् न धनुर्धर इति बोध उपगन्तुमहर्तीति वक्तव्यम्, अननुभवात्, गौरवाच्चेति अन्यो व्यवच्छेदचैवकारार्थ इति चेत् १ न, 'घटः सन्न त्वसनि 'त्यत्र 'घटः घटत्वावच्छिन्नसत्त्ववान् न तु घटत्वा वच्छिन्नसत्त्वाभाववानित्येव बोधोपगमात् इत्थमेवाग्रिमग्रन्थसङ्गतेः । अन्यपदार्थे तच्छक्त्यभ्युपगमे तु 'प्रमेयं वाच्यमेवे 'त्यत्र 'लक्षणाप्रतिपादनानुपपत्तिरित्यादिकं विभावनीयमवहितमानसैः ।
प्रस्तुतमीमांसाफलितं पद्येन प्रकरणकृदाह अस्तित्वमिति । तदूव्याख्यालेशस्त्वेवम् - इह = जगति यत् अस्तित्वं = सत्त्वं पदादी धर्मिणि वर्तते, तत् पटादिनिष्ठाऽस्तित्वं कलशे घटेन अस्ति । यत् अस्तित्वं घटे वर्तते तत् अस्तित्वं निःशङ्कं कलशपदवाच्येऽस्त्येव । एतत्कथं सङ्गच्छेत ? इत्याशङ्कायामाह यथा हि तस्य पटादेः रूपं = तु नीलादि स्वरूपं वा पटत्वादिकं कुम्भे नैव भवति । यथा 'घंटे पटादिरूपं न भवति तथा पटादिसत्त्वमपि । यथा घटे घटरूपमेव भवति तथा त्वमेव । यथा 'घंटे पटादिरूपं नास्तीत्यत्र नः - अस्माकं विवादः विप्रतिपत्तिर्नास्ति, तथैव भवतामपि
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-> “प्रमेयं वाच्यमंत्र इस वाक्य से 'प्रमेयं स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकवाच्यत्ववत्' इत्याकारक बोध होता है। यह सर्वजनविदित होने से वाच्यपदसंगत एवकार का अर्थ प्रमेयवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व है, जो कि वाच्यत्व में रहता है । एवकारार्थ का वाच्यत्व में और वाच्यत्व का प्रमेयात्मक विशेष्यार्थ में अन्वय होने से उपर्युक्त बोध सम्पन्न हो सकता है" - तो स्याद्वादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि “यदि 'प्रमेयं वाच्यमेन' इस वाक्य से एबकार से यदि प्रमेयवृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानवच्छेदकता का वाच्यत्व में स्वरसवाही बोध होता हो, तब उस अर्थ में वाच्यपदसंगत एवकार की लक्षणा ही माननी चाहिए, न कि शक्ति, क्योंकि तादृश गुरुभूत अर्थ में शक्ति मानने पर गौरव दोष प्रसक्त होता है । एवकार की शक्ति तो लाघवसहकार से अयोग और व्यवच्छेद = अभाव में खण्डशः ही माननी चाहिए । यह हमें (महोपाध्यायजी को) युक्तिसंगत लगता है।
इस विचारविमर्श से यह फलित होता है कि 'घटः सन् एव' इस वाक्य से या तो प्रत्यक्ष से पट आदि पदार्थ में जो अस्तित्व = सत्ता है, वह कलश (= घट) में नहीं रहता है, मगर घट में जो अस्तित्व है वह तो घटपदवाच्य अर्थ में हैं ही इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। यह उसी तरह संगत होता है जैसे पट का ही रूप (अथवा स्वरूप पटत्वादि) घट में नहीं होता है, मगर पद का रूप ( अथवा स्वरूप घटत्वादि) तो घट में होता ही है । इस विषय में हमारा कोई विवाद नहीं है । भावाभावैकस्वभाववाली वस्तु के स्वीकार को छोड़ने वाले हे नैयायिक ! आपका यह वचन कि 'एकान्तवाद
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* आकाङ्क्षानुसारिवोधसमर्थनम्
भावाभावैकभावाऽभ्युपगमविमुचो नो वचो युज्यतेऽदों । यस्मादस्माकमेतद्व्दयमिह मिलितं सप्तधा धर्मशालि ॥19॥
ननु तथापि 'नास्ती'त्यत्राऽस्तित्वाभावस्येव 'नास्ती 'तिपदवाच्यत्वादिधर्मस्यापि घटादौ सम्भवाद् भङ्गानां सप्तसीमातिक्रम इति चेत् ? न, 'नास्ती 'त्यनेन प्रतिषेधकल्पनाऽवतीर्णप्रश्नोन्मग्नस्याऽस्तित्वाऽभावस्यैव आकाङ्क्षितत्वात् ।
* जयलता है
'घटे पटाद्यसत्त्वं नास्तीत्यत्र विप्रतिपत्तिर्भवितुं नार्हतीति भावः । तदेव पञ्चपश्चार्द्धनाऽऽह भावाभावेकभावाभ्युपगमविमुचः अस्तित्वनास्तित्वस्वभावशालिवस्तूपगमप्रतिक्षेपिणो भवतो नैयायिकादेः अदो वचः = 'एकान्तवाद एवं सार्वजनीन' इति वचनं नो युज्यते = नैव युज्यत इत्यर्थः, 'सर्वं वाक्य सावधारणमिति न्यायात् । हेतुमाह यस्मात् कारणात् एतद्द्वयं = भावाभावोभयं इह वस्तुनि मिलितं = कर्बुरितं सत् सप्तधा धर्मशालि भवति अस्माकं नये । यथा चैतत्तत्वं तत्तु प्रज्ञापितमेव पूर्वम् । प्रयोग एवम् पदास्तित्वं घटावृत्ति घटेतरवृत्तित्वात्, पटरूपवत् । न च द्रव्यत्वेन व्यभिचार उद्भावनीयः, एकमात्रवृत्तित्वे सतीति हेतोर्विशेषणात् । यदि च विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरह उद्भाव्यते परेण तदा 'पटनिष्ठास्तित्वं पटेतरवृत्ति पटमात्रवृत्तिप्रतियोगिकत्वात्, पटीयरूपाभाववदि' ति वक्तव्यम् ।
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परः शङ्कते - नन्विति । तथापीति । अस्तित्वनास्तित्वयोरेकत्र समावेशेऽपि । 'नास्ती'त्यत्र = 'घटः स्यान्नास्ती' त्यादौ, अस्तित्वाभावस्येव 'नास्ती' तिपदवाच्यत्वादिधर्मस्यापि = 'नास्ती' तिपदनिष्ठवाचकतानिरूपितवाग्विषयत्वस्यापि घटादी धर्मिणि सम्भवाद् भङ्गानां सप्तसीमातिक्रमः इति । 'नास्ति' पदेन घटादावस्तित्वाभावस्येव तत्पदवाच्यत्वस्याऽपि भानसम्भवात् तस्य तत्र सत्त्वाचाऽष्टमभङ्गप्रसङ्गेन सप्तभङ्ग्यतिलङ्घनं दुर्निवारमिति शाशयः । प्रकरणकृत्तत्प्रत्याचष्टे नेति । 'घटः स्यान्नास्ती'। त्यत्र 'नास्ती' त्यनेन पदेन प्रतिषेधकल्पनावतीर्णप्रश्नोन्मनस्य = घटेऽस्तित्वधर्मनिषेधस्य कल्पनया विवक्षया अवतीर्णेन लब्धात्मलाभेन प्रश्नेन पर्यनुयोगेन उन्मनस्य जिज्ञासितस्य अस्तित्वाभावस्यैव आकाङ्क्षितत्वात् तस्यैव बोधों जायते न तु 'नास्ति' पदवाच्यत्वस्य । यथा 'घटो नीलो न वा ?' इति जिज्ञासायां 'घटोsनील' इति कथितं श्रोतुः घंटे नीलभेदस्यैव बोध उपजायते न त्वनीलपदवाच्यत्यस्याऽपि तस्यानाकाङ्क्षितत्वात् । तथा 'घटः सर्वधाऽस्ति न वा ? इति बुभुत्सायां सत्यां 'घटः स्यान्नास्ती' त्युक्ते घटे कथञ्चिदस्तित्वाभावस्यैव भानं भवति न तु 'नास्ति' पदप्रतिपाद्यत्वस्यापि 'आकाङ्क्षितमेवाऽभिधीयतेऽवबुध्यते चे 'ति न्यायात् । ततोऽष्टमभङ्गानापातेन सप्तभयनतिक्रमात् 'सप्तधा धर्मशालि' इति सुष्ठुक्तमिति समाधानादायः । अथाऽवक्तव्यत्वं यदि धर्मान्तरं तर्हि वक्तव्यत्वमपि धर्मान्तरं स्यात् । तथा चाऽष्टमस्य वक्तव्यत्वधर्मस्य सद्भावेन तेन सहाष्टभङ्गी स्यान्न तु सप्तमङ्गीति चेत् ? न सामान्येन वक्तव्यत्वस्याऽतिरिक्तस्याऽभावात् । सत्त्वादिरूपेण तु वक्तव्यत्वं | प्रथमादिभङ्गान्तर्भूतम् । अस्तु वा वक्तव्यत्वं नाम कश्चनाऽतिरिक्तधर्मः तथापि बक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वाभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पना
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ही हितकर है' युक्त नहीं होता है, क्योंकि भाव और अभाव अर्थात् सत्त्व और असत्व दोनों एक ही पदार्थ में संमिलित होते हैं । अस्तित्व और नास्तित्व से व्याप्त पदार्थमात्र सात प्रकार के धर्म से संपन्न - समृद्ध होता है । यह हमारे मत से पूर्वोक्त और उपर्युक्त युक्ति से सिद्ध होता है। इस बात को प्रकरणकार ने पय के द्वारा बताई है ।
* सप्तभङ्गी में आधिक्यदोषशंकानिरास
ननु त इति । यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि "घटः स्यात् नास्ति इस द्वितीय भंग में जैसे 'नास्ति' पद से अस्तित्वाभाव धर्म का घट में बोध होता है, ठीक वैसे ही 'नास्ति' पदवाच्यत्व धर्म का भी भान होगा, क्योंकि घट में 'नास्ति' ऐसा जो शब्द है उसकी वाच्यता रहती है। इस तरह द्वितीय भंग से घट में अस्तित्वाभाव एवं नास्तिपदनिरूपितवाच्यता, इन दो धर्म का बोध होने की वजह सप्तभंगी के स्थान में अष्टभंगी प्रतिष्ठित हो जायेगी" - मगर यह शंका अयोग्य होने का कारण यह है कि 'घटः स्यात् नास्ति एव' इस द्वितीय भंग का उत्थापक जो प्रश्न है उसका आकार 'क्या घट सर्वथा असत् है या नहीं ?" यह है, जो कि घर में अस्तित्व के निषेध की कल्पना = विवक्षा से उपस्थित होता है। इस प्रश्न से घट में अस्तित्वाभाव धर्म का ही आक्षेप होता है, क्योंकि यह आकांक्षित = जिज्ञासित है । शाब्द व्यवहार में यह देखा जाता है कि जैसी जिज्ञासा होती हैं उसके अनुरूप ही प्रश्न किया जाता है। अभियुक्त पुरुष भी प्रश्न के अनुरूप ही उत्तर देता है और उससे श्रोता को जिज्ञासित धर्म का ही बोध होता है, न कि अन्य धर्म का । अतः प्रस्तुत में अस्तित्वाभाव
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२८१ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्ड २ का. ५ ** वक्तव्यत्वसप्तभङ्गीयोतनम् *
अत एव वक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्म्यां द्वितीय- चतुर्थभङ्गयोनभिदः, प्रतिषेधकल्पनासाचिव्येन द्वितीयभङ्गेन वक्तव्यत्वाभावस्यैव बोधनात् ।
* जयलता
विषयाभ्यां सत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्ग्यन्तरमेव प्राप्नोतीति न सप्तभयतिक्रम इति पूर्वमेवोक्तत्वात् । न चैवं न्यूनताबुभुक्षितराधासी तव्यत्करून मगला विधारयितुं शक्या तत्रभवद्भिः भवद्भिः, द्वितीयचतुर्थभङ्गयोरव| तव्यत्वाविशेषेण भेदाभावादिति वक्तव्यम्, निषेधकल्पनया द्वितीयभङ्गेन वक्तव्यत्वाभावस्यैवाऽऽकाङ्क्षितत्वेन बोधादित्याशयेन |प्रकरणकृदाह अत एवेति । प्रत्युत्तरजन्यबोधस्य बुभुत्सितविषयकत्वादेवेति । वक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्यां - वक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्यां, द्वितीयचतुर्थभङ्गयोः 'घटः स्यादवक्तव्य' इत्येवंरूपयोः नाऽभेद: नानतिरेक: प्रसज्येत । हेतुमाह प्रतिषेधकल्पनासाचिव्येन निषेधविवक्षासहायेन, द्वितीयभङ्गेन वक्तव्यत्वाऽभावस्यैव बोधनात्, न तु तदतिरिक्ताऽवक्तव्यत्त्वस्य । 'किं घटः सर्ववा वक्तव्यः ?' इति पर्यनुयोगे सति घटः पटादिपदेन न वक्तव्य' इति निषेधकल्पनया 'घटः स्याद'वक्तव्योऽपीत्युक्ते श्रोतुर्धटे स्याद्वक्तव्यत्वप्रतियोगिका भावोऽस्तीति बोधो जायते, न तु 'घटः तदतिरिक्ताऽवक्तव्यत्वधर्मवान्' | इत्येवम् । यदा तु 'घटः कुम्भपदपटपदो भयापेक्षया किं वक्तव्यः ?' इति पर्यनुयुज्यते तदा 'घटः स्यादवक्तव्य:' इति प्रत्युत्तरेण 'घटः कुम्भपदपदो भयापेक्षयाऽवक्तव्यत्वधर्मशाली' ति बोधः जायते । अतोऽत्र द्वितीयचतुर्थयोर्नाऽवैलक्षण्यम् । एतेनाऽबक्तव्यत्वं वक्तव्यत्वाभावरूपमेवेति प्रत्युक्तम्, चतुर्थभङ्गे तस्यातिरिक्तत्वसाधनात् ।
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एतेन वक्तव्यत्वसप्तभंग्यां तृतीयपञ्चमयोरभेदः प्रत्येकं षष्ठसप्तभवो : पौनरुक्त्यञ्च प्रत्युक्तम् । स्यात्पदार्थोल्लेखेन वक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्याः स्वरूपञ्चैवम्, (१) घट: घटपदापेक्षया वक्तव्य एवं ( २ ) घटः पटपदापेक्षया अवक्तव्य एव, (३) घटः घटपदापेक्षया वक्तव्यः पटपदापेक्षयाऽवक्तव्यश्च, (४) घट: घटपदपटपदोभयापेक्षया अवक्तव्य एव, (५) घट घटपदापेक्षया वक्तव्यो घटपदपदपदभयापेक्षया अवक्तव्यश्व, (६) घट: पटपदापेक्षया अवक्तव्यः घटपदपटपदी भयापेक्षया अवक्तव्यश्च ( ७ ) घटः घटपदापेक्षमा वक्तव्यः पटपदापेक्षया अवक्तव्य: घटपदष्टपदो भयापेक्षया अवक्तव्यश्चेति ।
ननु वक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्यां न्यूनत्वाभावेऽपि 'घटः स्यात्सन्नित्यादिरूपायां सप्तभङ्ग्यामष्टमभङ्गप्रसङ्गो
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धर्म की जिज्ञासा से प्रयुक्त प्रश्न के 'घटः स्यात् नास्ति एव' ऐसे प्रत्युत्तर से श्रोता को जिज्ञासित ऐसे अस्तित्वाभाव का ही भान होता है, न कि नास्तिपदनिरूपित वाच्यता का । इस तरह आठवें धर्म का भान नहीं होने की वजह 'घटः स्यात् अस्ति एव स्यात् नास्ति एव' इत्यादि सप्तभंगी अपने स्थान से च्युत नहीं है, अष्टभंगी की प्रतिष्ठा भी नहीं होगी ।
** वक्तव्यत्वसप्तभंगी के द्वितीय - चतुर्थ भंग में अभेदनिरास
अत एव ब, इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब 'घट वक्तव्य है या नहीं ?" इत्यादि सात जिज्ञासा से जो वक्तव्यत्वसप्तभंगी प्रवृत्त होती है, उसका आकार ( १ ) घटः स्यात् (= घटपदापेक्षया) चक्तव्य एवं (२) घटः स्यात् (पटादिपदापेक्षया) अवक्तव्य एवं (३) घटः स्यात् (= घटपदापेक्षया) वक्तव्यः स्यात् ( = पटादिपदापेक्षया) अवक्तव्यश्च, (४) घटः स्यात् (= घटपदपटपदोभयापेक्षया) अवक्तव्य एवं इत्यादिस्वरूप होगा । यहाँ जो द्वितीय और चतुर्थ भंग प्रदर्शित किये गये हैं वे अवक्तव्यत्वधर्मविषयक हैं । समानविषयक होने के नाते वे दोनों अभिन्न हो जायेगे । समानधर्मविषयक होने पर भी यदि उक्त भंगों में ऐक्य का अंगीकार न किया जाय तब तो अनंतभंगी भी हो सकती है। इसलिए दर्शित वक्तव्यत्वसप्तभंगी में द्वितीय और चतुर्थ भंग में अभेद मानना आवश्यक है । ऐसा होने पर तो षटूभंगी हो जायेगी । अतः सर्वत्र सप्तभंगी की व्यापकता का जो स्याद्वादी का सिद्धान्त है वह धराशायी हो जायेगा" - मगर यह शंका भी उचित नहीं है । इसका कारण यह है कि द्वितीय अंग से वक्तव्यत्वाभाव का और चतुर्थ भंग से अवक्तव्यत्व धर्म का उक्त सप्तभंगी बोध होता है। आशय यह है कि पटादि पद की अपेक्षा घट वक्तव्य नहीं है ऐसी निषेधमुखी अर्पणा विवक्षा से प्रवृत्त होने वाले उक्त द्वितीय अंग से घट में पटादिपद की अपेक्षा वक्तव्यत्व धर्म के अभाव का ही बोध होता है । जब कि चतुर्थ भंग में, जो युगपत् विधि-निषेध की कल्पना के सहकार से प्रयुक्त होता है, अवक्तव्यत्व नाम के धर्म का, जो कि वक्तव्यत्वाभाव से अतिरिक्त है, बोध होता है । इस तरह वक्तव्यत्वसप्तभंगी के द्वितीय भंग में अभावात्मक धर्म का और चतुर्थ भंग में terren धर्म का बोध होता है । इसलिए उनमें ऐक्य नहीं है। अतएव षड्गी का अवकाश नहीं है और सप्तभंगी की सार्वत्रिकता का भंग भी प्रसक्त नहीं है ।
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* समभङ्गीद्वैविध्यम् * अत एव च प्रकृतसप्तभङ्ग्म्यां वक्तव्यत्वमपि नाधिकं, सप्तकल्पनावतीर्णप्रश्नानुन्मज्जनादिति ध्येयम् ।
सा चेयं सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च । तत्र "प्रमाणप्रतिपन्नाऽनन्त
जयलता
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दुर्वार एवं अवक्तव्यत्ववत् वक्तव्यत्वस्यापि बोधसम्भवादित्याशङ्कां दूरीकर्तुमाह अत एवेति प्रत्युत्तरजाऽवबोधस्य बुभुत्सितगोचरत्वादेवेति । प्रकृतसप्तभङ्ग्यां = 'घटः स्यात् सन्नेव, स्यादसन्नेवेत्यादिरूपायां वक्तव्यत्वमपि नाधिकं = नाष्टमभङ्गविषयत्वापन्नम् । हेतुमाह सप्तकल्पनावतीर्णप्रश्नानुन्मज्जनादिति । अयं भाव: 'घट: सर्वथा सत्र बा ?' इत्यादिरू॒गयां जिज्ञासायां सत्यां वक्तव्याणि सतो घटस्य बुभुत्सितेन सत्त्वादिरूपेणैव भानं भवति न तु वक्तव्यत्वेन रूपेण, यथा 'रामो राजपुत्री न बा ?' इति प्रश्ने सति 'रामो राजपुत्र' इत्युत्तरेण मनुष्यस्यापि सतो रामस्य राजपुत्रत्वेन भानं भवति; न तु मनुष्यत्वेन रूपेण तस्य प्रश्नेनाऽबुभुत्सितत्त्वात् । अत एव राजपुत्रत्वस्य मनुष्यत्वव्याप्यत्वेऽपि दर्शितोत्तरेण मनुष्यत्वस्य न शाब्दबोधगोचरत्वम् । अनुमानेन तु तज्ज्ञानं भवत्यपि । तद्वदेव प्रकृतसप्तभङ्ग्यां सप्तधर्मप्रकारकबुभुत्सालब्ध| जन्मपर्यनुयोगेन वक्तव्यत्वस्याऽनाक्षेपात् प्रत्युत्तरेण न तच्छाब्दबोधो भवितुमर्हति । अतो नाऽष्टमभङ्गप्रसङ्गः । सप्तभङ्गीद्वैविध्यप्रतिपादनार्थमुपक्रमते - सा चेयमिति । प्राग्व्यावर्णितस्वरूपा चेयं सप्तभङ्गीति । सकलादेशस्वभावा - सकलादेशलक्षणा, विकलादेशस्वभावा विकलादेशलक्षणा चेति । सकलादेशमुपदर्शयितुं प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रमाह प्रमाणेति । रत्नाकरावतारिकायां तद्वयाख्या चैवम् - "कालादिभिरष्टाभिः कृत्वा यदभेदवृत्ते धर्मधर्मिणोरपृथग्भावस्य प्राधान्यं तस्मात् । कालादिभिः भिन्नात्मनामपि धर्मधर्मिणामभेदाध्यारोपाद्वा समकालमभिधायकं वाक्यं सकलादेश: प्रमाणवाक्यमित्यर्थः । अयमर्थः यौगपद्येनाऽशेषधर्मात्मकं वस्तु कालादिभिरभेदवृत्त्या अभेदोपचारेण वा प्रतिपादयति सकलादेशः, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचाराद् भेदप्राधान्याद्वाऽभिधत्ते तस्य नयायत्तत्वात् । कः पुनः क्रमः ? किं वा यौगपद्यम् १ यदाऽस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिः भेदविवक्षा, तदैकस्य शब्दस्याऽनेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते, तदैकेनाऽपि शब्देनैकधर्म प्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापत्रस्याऽनेकादशेषरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवात् यौगपद्यम् । के पुनः कालादय: १ ( १ ) काल:, (२) आत्मरूपं, (३) अर्थ: (४) सम्बन्ध:, (५) उपकार:, (६) गुणिदेश: (७) संसर्गः, (८) शब्द इत्यष्टौ । तत्र स्याज्जीवादिवस्त्वस्त्येवेत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा वस्तुन्येकत्रेति तेषां कालेनाऽभेदवृत्तिः १ यंदेव चाऽस्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपम्, तदेव चान्याऽनन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणाऽभेदवृत्तिः २। य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाऽभेदवृत्ति: ३ | य एव चाविष्वग्भावः कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तिः
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* सच्वसप्रभंगी में वक्तव्यत्व धर्म अतिरिक्त नहीं
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अत एव च इति । यहाँ यह शंका हो कि
“घटः स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादस्ति नास्ति च स्यादवक्तव्यः इत्यादिरूप से जो सप्तभंगी प्रवृत्त होती है उसमें चतुर्थ भंग में जैसे अवक्तव्यत्व धर्म का प्रवेश होता है, ठीक वैसे ही उसके प्रतिपक्ष वक्तव्यत्व धर्म का भी सप्तभंगी में समावेश एवं उसका ज्ञान भी होना चाहिए । वैसा होने पर अष्टभंगी की पुन: आपत्ति होगी" - तो यह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि सप्तभंगी के प्रयोजक सात प्रश्न हैं, जो सात प्रकार की शंका एवं जिज्ञासा से प्रयोज्य हैं, उनसे वक्तव्यत्व धर्म का आक्षेप नहीं होता है, क्योंकि वह शंका, जिज्ञासा और प्रश्न का विषय नहीं है । जिस विषय में शंका, जिज्ञासा, प्रश्न होते नहीं हैं, उसका प्रत्युत्तर एवं ज्ञान नहीं हो सकता । पृच्छक को सत्त्वादि धर्म की शंकादि है, न कि वक्तव्यत्व की । अतः वक्तव्यत्व धर्म का सत्त्वसप्तभंगी में समावेश हो सकता नहीं है । इसलिए आठवें धर्म या अष्टभंगी की आपत्ति नहीं है । इस तरह सप्तभंगी की सार्वत्रिकता अव्याहत है यह सिद्ध होता है । * सप्तभंगी के दो भेद
सा चेयं इति । उपर्युक्त सप्तभंगी के दो भेद है सकलादेश सप्तभंगी और बिकलादेश सप्तभंगी । इनमें सकलादेश सप्तभंगी उस वचन को कहते हैं, जो वचन प्रमाणसिद्ध अनन्तधर्मात्मक वस्तु का कालादि के द्वारा अभेदवृत्ति प्राधान्य से या अभेदोपचार से एक ही काल में प्रतिपादक होता है । आशय यह है कि प्रमाण द्वारा यह निश्चित चुका है कि | वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता ही उसकी समग्रता है, जो वस्तु में एक ही काल में विद्यमान रहती
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२८३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५
** कालायष्टकविचारः
धर्मात्मकवस्तुन: कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेश:" (प्र.न.त. ४/४४) तदन्यो विकलादेश: /
* जयलता
४ । य एव चोपकारोऽस्तित्वे स्वाऽनुरक्तत्वकरणम् स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारणाभेदवृत्तिः ५ । य एवं गुणिनः सम्बन्धी देश: क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवाऽन्यगुणानामिति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः ६ । य एव चैकवस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्ग : स एवा शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः । ननु प्रागुक्तसम्बन्धादस्य कः प्रतिविशेष: ? उच्यते, अभेदप्राधान्येन भेदगुणभावेन च प्रागुक्तः सम्बन्धः, भेदप्राधान्येनाऽभेद्गुणभावन चैषः संसर्ग इति ७ । य एवाऽस्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषानन्तधर्मात्मकस्याऽपीति शब्देनाऽभेदवृत्तिः ८ । पर्यायार्थिकगुणभावे द्रव्यार्थिकप्राधान्यादुपपद्यते । द्रव्याकिगुणभावेन पर्यायार्धिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः सम्भवति, समकालमेकन नानागुणानामसम्भवात् सम्भवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसङ्गात् १। नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मरूपस्य च भिन्नत्वात् आत्मरूपाभेदे तेषां भेदस्य विरोधात् २ स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात, अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् ३ । सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनात्, नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाघटनात् ४ । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात्, अनेकैरुपकारिभिः क्रियमास्योपकारस्यैकस्य विरोधात् ५ । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात्, तदभेदे भिन्नार्धगुणानामपि गुणिदेशाऽभेदप्रसङ्गात् ६ । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात् तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् ७ | शब्दस्य च प्रतिविषयं नानात्वात् सर्वगुणानामे कशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तरवैफल्यापत्तेः ८ तत्त्वत्तोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसम्भवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेताभ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं वाक्यं रा रान्तादेशः प्रसइति स्थितम्" कालात्मरूपसम्बन्धाः संसर्गोपक्रिये तथा । गुणिदेशार्थशब्दाचेत्यष्टी कालादयः स्मृताः ॥ ( रत्ना अब ४-४४) |
केचन तु 'अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वाऽविदशेषेऽपि प्रथम द्वितीय चतुर्थभङ्गाः निरवयवप्रतिपत्तिद्वारा सकलादेशाः, | शेषास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारा विकलादेशा' इति व्याचक्षते । श्रीवादिदेवसूर्यादिमते तु 'इयं सप्तभंगी प्रतिभङ्ग सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा चे (प्र.न. ४ / ४३ ) ति ध्येयम् ।
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तदन्यो विकलादेश इति । सकलादेशान्यो विकलादेशः । तथाहि नयप्रतिपन्नवस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद्वा क्रमेण यदभिधायकं वचः तत् विकलादेश इत्यर्थः ।
है। वस्तु की समग्रता का प्रतिपादन करने वाला वचन ही सकलादेश कहा जाता है । यह प्रतिपादन कभी कालादि के द्वारा उपपन्न अभेदवृत्ति की प्रधानता से होता है और कभी अभेदोपचार अभेद में लक्षणा से होता है । अभेदवृत्ति की प्रधानता का अर्थ यह है कि द्रव्यार्थिकनयानुसार काल आदि के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु के अनन्त धर्मों में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु के अनन्त धर्मों में अभेदबुद्धि द्वारा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से सत् आदि पद से होने वाले शाब्दबोध का विघटन होना । इन्यार्थिक नय द्वारा सत्आदि पदों का सत्ता आदि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में शक्तिज्ञान होता है। अतः सत् आदि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होना चाहिए । मगर पर्यायार्थिक नय द्वारा वस्तु के विभिन्न पर्यायों की उपस्थिति होने पर एक वस्तु में विभिन्न धर्मो की अभिन्नता बाधित होने से सत् आदि पदों | से घटित वाक्य का अर्थबोध दुर्घट हो जाता है । ऐसी स्थिति में जब काल आदि की दृष्टि से प्रतिपाद्य वस्तु के धर्मों में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु में अभिन्नरूप से गृहीत अनन्त धर्मों के अभेद का ज्ञान होता है तब उससे उक्त रीति से पर्यायार्थिकनयप्रयुक्त वाक्यार्थं बाध का अवरोध होने से सत् आदि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का रोध सम्पन्न होता है । इस प्रकार होने वाला वस्तु की समग्रता का बोध ही अभेद वृत्ति की प्रधानता से अनन्त धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादनस्वरूप सकलादेश है । अभेदोपचार का अर्थ है अभेद से अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सत् आदि पद की लक्षणा | काल आदि पदार्थ की, जिनकी दृष्टि से वस्तुधर्मो में अभेद का ज्ञान होता है, संख्या आठ है । जैसे १ काल, २ आत्मरूप, ३ अर्थ, ४ सम्बन्ध, ५ उपकार, ६ गुणिदेश, ७ संसर्ग और ८ शब्द । जिस काल में किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म रहता है, उस काल में नास्तित्वादि अनन्त धर्म भी होते हैं। ये सभी धर्म एक काल में होने से काल की दृष्टि से अभिन्न होते हैं । वस्तु के अनन्त धर्मों की यह अभिन्नता कालमूलक अभेदवृत्ति है । इस तरह आत्मरूप आदि दृष्टि से भी ज्ञातव्य है 1 प्रस्तुत मूल ग्रन्थ में उसका विशेषतः उल्लेख न होने से यहाँ विस्तार से निरूपण नहीं किया जाता है ।
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* अभेदवृत्तिप्राधान्य तदुपचारमीमांसा *
२८४ | नित्यत्वादीनां कालादिभिरभेदविवक्षायां हि एकेनाऽपि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेनाऽनेक| धर्मरूपस्य तदात्मकतायनस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद् यौमपद्यम् ।
= = = = = ==* जयलता - --
समकालमनन्तधर्मप्रतिपादनासंभवात्सूत्रे 'योगपद्येने ति बक्तुं नाहतीत्याशङ्कायामाह - नित्यत्वादीनामिति । आदिशब्देन | सत्त्ववाच्यत्वादे हणम् । कालादिभिरिति । आदिपदेन आत्मरूपार्थ-सम्बन्धोपकार-गुणिदेश संसर्ग-शब्दानां ग्रहणम् । अभेदविवक्षायां = तादात्म्यार्पणायां सत्या, हि एकेनापि शब्देन सदादिरूपेण, एकधर्मप्रत्यायनमुखेन = सत्त्वाद्येकधर्मबोधनपरेण, अनेकधर्मरूपस्य = प्रमाणसिद्धानन्तधर्मस्वभावस्य तदात्मकतापत्रस्य = अनेकधर्मात्मकतामापन्नस्य सत: वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवात् योगपद्यमिति । धर्मिमुखेन धय॑भित्रधर्माणामपि समकालं प्रतिपादनं सम्भवति । एतेनैकत्र युगपदनेकधर्मप्रतिपादनसम्भवे चतुर्थभङ्गो बिलीयेतेति प्रत्युक्तम्, धर्मिरूपेण तत्प्रतिपादनसम्भवेऽपि प्रातिस्विकरूपेण युगपत् तदसम्भवेन, अवक्तव्यत्वस्य न्याय्यत्वात् ।
अत्राऽभेदवृत्तिप्राधान्यतदुपचारी इत्थं बोद्धव्यौ । द्रव्यार्थिकनयेन सदादिपदस्य सत्ताद्यभिन्नानन्तधर्मात्मके वस्तुनि शक्ति| वर्तते । अतः सदादिपदघटितवाक्येन अनन्तधर्मात्मकवस्तुगोचरशाब्दबोधेन भाव्यम् । परन्तु पर्यायार्थिकनयेनाऽस्तित्व-नास्तित्वादिभेदोपस्थापिते सदादिपदघटितवाक्यजन्यबोधो दुर्घटः, तद्विषयबाधात् । तदा कालाद्यष्टकापेक्षयास्तित्वनास्तित्वादीनामभेदग्रह सति वस्तुन्यभिन्नत्वेन गृहीतानामनन्तानामस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणां भेदाभावग्रहेण पर्यायादिवागृहीतचाधप्रतिरोधो भवति । स एका भेदवृत्तिप्राधान्यपदार्थः । ततोऽनन्त वात्मकवस्त्वपयोधः सुबटः । अभेदोपचारश्चाक्तार्थे लक्षणा । पर्यायार्थिकनयेनातद्ज्यावृत्तिलक्षणसनादावेव सदादिपदशक्तिः । तन्मतेऽन्यपर्यायेभ्यः सत्तादिपर्यायाणां भिन्नत्वात् सत्त्वाऽभिन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुबोधो न भवितुमर्हति । सत्तादिमात्रे सदादिपदशक्तिग्रहे सत्त्वाभिन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुबभोधयिशन्यथानुपपत्त्या तत्र सदादिपदलक्षणा भवति । अयमेवाऽभेदोपचारपदार्थः । तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां → 'अभेदवृत्तिप्राधान्यं = द्रव्यार्थिकनयगृहीतसत्त्वाद्यनन्तधर्मात्मकवस्तुशक्तिकस्य सदादिपदस्य कालाद्यभेदविशेषप्रतिसन्धानेन पर्यायार्थिकनयपर्यालोचनप्रादुर्भवच्छश्यार्थबाधप्रतिरोधः । अभेदोपचारश्च पर्यायार्थिकनयगृहीतान्यापोहपर्यवसित्तसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्यानुपपन्या सदादिपदस्योक्तार्थे लक्षणा' - (स्था.क.ल.७/२३ -पृ.१७३) इति ।
उक्तरीत्या कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वाऽनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकं वचः सकलादेश इति भण्यते ।। तथाहि - 'स्यादस्त्येव बटः' इत्यत्र हि यादृशकालावच्छेदेन घटात्मके धर्मिणि अस्तित्वं वर्तते, तत्कालावच्छेदेन शेषानन्तधर्मा अपि घटे वर्तन्ते इति तेषामेककालावच्छिौकाधिकरगतात्यावच्छिन्ननिरूपकतानिरूपितवृत्तित्वं कालेनाइभेदवृत्तित्वम् । यदेवाऽ- || स्तित्वस्य घटगुणत्वं स्वरूपं तदेवानन्ताशेषगुणानामपि स्वरूपमिति घटगुणत्वत्वावच्छिन्नाधेयत्तानिरूपिताधिकरणतावत्त्वमात्मरूपेणाभेदवृत्तित्वम् २ । य एव घटद्रव्यलक्षणोऽर्थोऽस्तित्वस्याऽऽधार: स एवान्यधर्माणामयाधार इति एकाधिकरणनिरूपिताधेय| तारत्त्वमर्थेना भेदवृत्तित्वम् ३ | य पवाऽविष्यम्भावः तादात्म्यलक्षणोऽस्तित्वस्य सम्बन्धः स एवानन्तधर्माणामपीति एकसम्बन्ध
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जिज्ञासु वाचक यहाँ जयलता टीका पर अपनी निगाह डाल सकते हैं ।
नित्य, इति । वस्तु में रहे हुए नित्यत्वादि अनन्त थर्मों की कालादि की दृष्टि से अभेदविवक्षा हो तर एक ही काल में एक शब्द से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है। जैसे 'नित्य आत्मा' इस वाक्य में नित्य शन्द यपि नित्यत्वलक्षण एक धर्म का ही बोधक है। मगर जिस काल में आत्मा में नित्यत्व धर्म रहता है, उसी कालावच्छेदेन अनित्यत्व, अस्तित्व, नास्तित्व, वाच्यत्व, अवाच्यत्व आदि अनन्त धर्म रहते हैं । ये सभी धर्म एककालावच्छेदेन आत्मवृत्ति होने के सबब परस्पर अभिन्न होते हैं । कालमूलक अभेदवृत्ति की वजह 'नित्य आत्मा' इस वाक्य से एक ही काल में नित्यत्वादि अनन्तधर्मात्मक | आत्मा का प्रतिपादन हो सकता है । जिस तरह एक ही काल में आत्मा की समग्रता का प्रतिपादन सकलादेश करता है,
उसी तरह एक काल में सब बस्तु की समग्रता का निरूपण सकलादेश के द्वारा मुमकिन है । मगर जब पर्यायार्थिक नय के पुरस्कार से आत्मवृत्ति नित्यत्व, अनित्यत्व, अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों में भेद की विवक्षा की जाती है, तब 'नित्य | आत्मा' इस वाक्य से एक काल में नित्यत्त्व, अनित्यत्व आदि आत्मधर्मों का भान नहीं हो सकता । किन्तु केवल नित्यत्व || धर्म का ही भान हो सकता है, क्योंकि 'सकृत् उच्चरितः शन्दः सकृदेव अर्थ गमयति' यह न्याय है । इस न्याय का अर्थ | यह है कि एक बार बोला गया शब्द सिर्फ एक बार ही अर्थ का बोधक होता है । एक शब्द में अनेक धर्म का बोध |! कराने की शक्ति एक काल में नहीं होती है जैसे 'घटोऽय' इस वाक्य में रहे हुए घटशब्द से पुरोवर्ती पदार्थ में घटत्व -
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-.31
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२८५ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः २ - का.५ * 'सकृदुचरित.....' न्यायपरीक्षा * || भेदविवक्षायां तु 'सकृदुच्चरित'इत्यादिन्यायाद् एकशब्दस्याऽनेकार्थानां युगपदबोध- । कत्वात्क्रम: । अथ 'सकृदुच्चरिते'त्यादिन्यायस्य प्रामाणिकत्वे एकशिष्टघटादिपदस्यानेकपदादिबोधक
* जयलवा *- =-=-...-..--. निरूपितप्रतियोगितामत्वं सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तित्वम् ४। य एव चोपकारोऽस्तित्वेन वस्तुनः स्वप्रकारकप्रतीतिविषयत्वलक्षणः स एबान्येषामित्युपकारेणा भेदवृत्तित्वम् ५ । कश्चित्तु ‘य एव चोपकारोऽस्तित्वस्य स्वानुरक्तत्वकरणम् तच्च स्ववैशिष्ट्यसम्पादनमेब तदपि स्वप्रकारकर्मिविशेष्यकज्ञानजनकत्वपर्यवसन्नम् । अस्तित्वस्य स्वानुरक्तत्वकरणं हि अस्तित्वप्रकारकघटविशेष्यकज्ञानजनकत्वम् । तादृशोपकार एव नास्तित्वादिमिर शेषधर्मः क्रियत इत्येककार्यजनकल्वमुपकारेणाऽभेदवृत्तिः' इत्याह । एकदेशावच्छिन्नवृत्तित्वं हि गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तित्वम् । घटनिष्ठास्तित्वनास्तित्वादिसकलधर्माणां भिन्नदेशनिरूपितवृत्तिताविरहात् स्वाश्रयेनाऽभेद| वृत्तित्वं निराबाधम् । न हि घटेऽग्रावच्छेदेनाऽस्तित्वं पृष्ठावच्छेदेन नास्तित्वं वर्तते ६ । पृथग्भावप्रधानाऽऽधाराधेयभावलक्षणसंसर्गनिष्ठनिरूपकतानिरूपितप्रतियोगितामत्त्वं हि संसर्गेगाऽभेदबृत्तित्वं घनिष्ठाऽस्तित्वनास्तित्वादीनाम् ७ । अस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो नास्तित्वादिधर्मात्मकत्वेन अस्तिशब्दनिष्ठवाचकतानिरूपितवान्यतामत्त्वस्याऽस्तित्वनास्तित्वादिधर्मेषु सद्भावो हि शब्देनाभेदवृत्तित्वमुच्यते । पर्यायाधिकनयावतारे तूक्तरीत्याऽभेदे उपचारः = लक्षणा क्रियते सर्वथा भेदस्य तन्मते बाधितत्वात् एवं द्वितीयादिष्वपि भङ्गेषु भावनीयम् ।।
विकलादेशस्तु क्रमेण भेदाप्राधान्येन भेदोपचारेण वा सुनयकान्तात्मकं घटादिकं प्रतिपादयति, विकलादेशस्य नयरूपत्वात् । भेदप्राधान्यं नाम पर्यायाधिकनयगृहीतान्यापीहपर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य सदादिपदस्य विरुद्धधर्माध्यासादिना भेदविदोषप्रतिसन्धानाद् द्रव्यार्थिकनयपालोचनप्रादुर्भवच्छद्यार्थबाधप्रतिरोधः । भेदोपचारश्च द्रव्यार्थिकनयगृहीतसत्त्वाद्यभिन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुदशक्तिकस्य सदादिपदस्य तात्पर्यांनुपपत्त्या प्रदर्शितार्थे लक्षणात्मकः दोध्यः । प्रकृते क्रमपदप्रवेशप्रयोजनमाह - भेदविवक्षायामिति । विरुद्रधर्माभ्यासादिप्रयुक्तास्तित्वनास्तित्वादिधर्मभेदार्पणायां, तुर्विशेषणार्थः, 'सकृदुचरित' इत्यादिन्यायात् = 'सकृदुचरितः शब्दः सकृदेवार्धं गमयती तिन्यायात, एकशब्दस्य 'अस्ती' त्यादिलक्षणस्य, अनेकार्थार्थानां = नास्तित्वाद्यशेषधर्माणां, युगपत् = समकालं, अबोधकत्वात् = बोधजननशक्तिविरहात्, क्रमः बिकलादेशलक्षणे नियेशित इति शेषः ।
मुग्धः शङ्कते - अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । 'सकृदुचरिते' त्यादिन्यायस्य प्रामाणिकत्वे = एकस्य शब्दस्य ! युगपदेकार्धबोधकत्वमेव न त्वनेकार्थबोधकत्वमित्यर्थकस्य प्रकृतन्यायस्य प्रमाणमूलकत्वोपगमे, एकशिघटादिपदस्य = एकशेषसमासत्वमापन्नस्य 'घटौ', 'घटाः' इत्याकारकघटपदस्य, अनेकघटादिबोधकत्वं न स्यादिति । युगपदनेकार्थबोधजनने एकशब्दस्य शक्तिविरहात् । ननु एकशेषस्थले द्वाभ्यामेब घटशब्दाभ्यां घटद्रयस्य बहुभिरेव घटशब्दैर्बहूनां घटानामभिधानानैकहाल्दस्य समकालमनेकार्थबोधकत्वम् । लुप्ताऽवशिष्टशब्दयोः साम्यात् घटात्मकार्थस्य समानत्वा पैकल्लोपचारात्तत्रैकशब्दप्रयोगो
धर्म का ही बोध होता है, न कि मृत्त्व, पृथ्वीत्व, द्रव्यत्व, सत्त्व, प्रमेयत्व आदि अनन्त धर्मों का 1 उन धर्मों का बोध कराने के लिए 'माझेऽयं' 'पृथ्वी इयं', 'द्रव्यं इदं' इत्यादि राक्य का प्रयोग आवश्यक है। इससे यह फलित होता है कि एक वान्द एक काल में विभिन्न धर्मों का बोध नहीं कराता है। यह इस न्याय का तात्पर्य है। पर्यायार्थिक नय की प्रधानता होने पर आत्मा आदि में रहे हुए नित्यत्व, अनित्यत्व, अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्म विभिन्न होते हैं। अतः एक शब्द से एक ही काल में उन सभी का प्रतिपादन नहीं हो सकता है, किन्तु क्रमशः ही हो सकता है । अतः विकलादेश सप्तभंगी भेदप्राधान्य से या भेदापचार से क्रमशः वस्तु के अनन्त धर्मों का प्रतिपादन करती है।
सकृपारित न्याय में दोषोद्भावज क्ष :- अथ सः इति । यदि 'सकदचरितः शब्दः सकदेवाय गमयति' इस न्याय को प्रामाणिक माना जाय तर तो एकशेपसमासगर्मित घट आदि पद से अनेक पटादि अर्थ का बोध नहीं होगा । मतलब यह है कि 'घटी', 'घटाः' यह प्रयोग एकशेप समासात्मक है, जिससे दो घट का और बहुत घर का क्रमशः बोध होता है । मगर एक पद एक काल में एक ही अर्थ का बोध कराने में समर्थ होता है - ऐसा मानने पर 'घटौ' पद से दो घट का बोध नहीं होगा किन्तु एक घट का ही बोध होगा । व्यवहार में देखा जाता है कि 'घटी' पद से एक ही काल में घट का रोध होता है और
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* सिद्धहेमलघुन्याससंवादः *
. २८६ त्वं न स्यात्, न स्याग्च करमादांध घदपलाद घट-घटत्वधारपि स्वारसिको बोध इति चेत् ? | ज, अग्रिमसकृत्पदस्यैकधर्मावच्छिन्नार्थकत्वात् । ‘एवं सति भेदविवक्षायामप्येकेन शब्द
---- :-: :==* जयलता * पपत्तिः, 'यः शिष्यते स लुप्यमानार्थाभिधायी' ति ( ) वचनात् । अत एव शब्दानां द्रव्याभिधायकत्वपक्षे एकशेषारम्भोऽ
युपपद्यते । तदुक्तं सिद्धहेमलघुन्यासे मूलकारैः -> "एकेन शब्देनाऽनेकस्य द्रव्यस्याऽभिधानं नोपपद्यत इत्यनेकस्याऽर्थस्य | प्रतिपादनेऽनेकशब्दानां वाचकानां प्रयोगः प्राप्नोतीति द्रव्यपदार्थदर्शने एकशेषारम्भ'' « (सि.ह.ल.न्या. ३/१/११८ .
प्र.५०९) इति स्याद्वादिना समाहितं स्यात्तदा दोषान्तरमाह - न स्याचेति कस्मादपि घटपदात घटघटत्वयोरपि स्वारसिको | बोधः इति । शब्दानां केवलजात्यभिधायकत्वपक्षे केवलद्रव्यवाचकत्वमते वा प्रस्तुतदोषापादनं न सम्भवति किन्तुभयशक्तत्वदर्शने । एवेति ध्येयम् ।
स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे - नेति । अग्रिमसकृत्पदस्य = 'सकृदुचरितः शब्दः सकृदेवार्थं गमयती'त्यत्र द्वितीयसकृत्पदस्य, एकधर्मावच्छिनार्थकत्वादिति । ततः एक पदमेकधावच्छिन्नमवार्थ बोधयती'त्येतन्न्यायार्थः इति प्राप्तम् । ततः 'घट' इत्यत्र घटत्वावच्छिन्नगोचरबोधो नानुपपन्नः । एवं 'घटा' वित्यत्र द्रित्वं द्विचनार्थः, प्रत्ययार्थस्य प्रकृत्यर्थेऽन्चयात् "द्वित्वविशिष्टी घाविति बोधः । 'घटा' इत्यत्र बहुवचनार्थों बहुत्वमिति 'बहुत्वविशिष्टा घटा' इति बोधः ।
वस्तुत 'एकपदस्य प्रधानतयाग्नेकधर्मावच्छिन्नबोधकत्वं युगपन्नास्ती'त्येब प्रकृतन्यायार्थः । एतेन सुप्तिङन्तं पदं (पा. १/४/१४) इति पाणिनिसूत्रात् 'घटा' इति बहुवचनान्तप्रकृतिनैकेन पदेन बहुत्व-घटत्वरूपानेकधर्मावच्छिन्नस्य बोधाद् एकपदस्य युगपदेकधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वनियमभड़ग इति पराकृतम्, प्रधानभावेन घटत्वावच्छिन्नस्य गणभावेन च बहत्व. संख्यायाः प्रतीतेः, घटपदेन घटत्वावच्छिन्नद्रव्यं बोधयित्वैव संख्यादिबोधनात् । तदुक्तं 'स्वार्थमभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यमाह समवेतम् ।
समवेतस्य तु वचने लिङ्गं संख्यां विभक्तियुक्तस्सन् ।। ( ) इति ।
ननु एकस्य पदस्य वाक्यस्य वा प्रधानभावेनाऽनेकधर्मावच्छिन्नवस्तुबोधकत्वानगीकारे प्रधानभावेनाऽशेषधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रमाणवाक्यं न घटाकोटिमाटीकेत । न च कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा सकलस्य वस्तुनः प्रतिपादनस्य प्राग विवेचितत्वादिति वक्तव्यम्, एकधर्मावच्छिन्नविषयकबोधजनकेनेकेन पदेन वाक्येन वाऽभेदविवक्षायां नानाधर्मावच्छिन्नगोचरधीजनने तु भेदविवक्षायामपि तथात्वनसङ्गादित्याशयेन परः शकते - एवं सतीति । स्याद्वादी तत्रिरस्यति . नेति ।
| 'घटा:' पद से अनेक घट का एक काल में बोध होता है। मगर उपर्युक्त न्याय को मान्य करने पर वह नहीं हो सकेगा। दुसरी बात यह है कि 'घटः' इस पद से घटस्य से विशिष्ट घट का बोध होता है वह भी उपर्युक्त न्याय के सबर नहीं हो सकेगा । “घटः' पद से पा तो केवल घटत्व का या तो केवल घर का बोध हो सकेगा, क्योंकि एक पद से एक अर्थ का बोध हो सकता है। मगर दोनों का बोध नहीं हो सकेगा।
-दितीय 'सकृव' पद का अर्थ उत्तरपक्ष :. न, अ, इति । सकृदुचरित न्याय में जो आगे दुसरा सकृत् पद है, उसका अर्थ केवल 'एक अर्थ | ऐसा नहीं है, किन्तु 'एक धर्म से अवच्छिन्न' यह है । मतलब कि एक पद एक काल में एकधर्मावञ्चिन्न वस्तु का रोध कराता है . यह उक्त न्याय का अर्थ है। यह अर्थ मान्य करने पर उपर्युक्त दोष का अवकाश नहीं है । वह इस तरह - 'घटी' इस एकशेष समास से द्वित्वावच्छिन्न घट अर्थ का बोध होता है, वह द्वित्वस्वरूप एक धर्म से अवच्छिन्न अर्थ को ही अपना विषय बनाता है, न कि अनेक धर्म से अवच्छिन अर्थ को। तथा 'घटाः' इस एकशेषसमासगर्मित पद से बहुत्वधर्मावच्छिन्न पट का बोध होता है, वह बहुत्त्वात्मक एक धर्म से अवच्छिन्न घट को अपना विषय बनाता है। एवं 'घटः' पद से घटत्त्वावच्छिन्न अर्थ का बोध होता है, जो घटवलक्षण एक धर्म से भवच्छिन्न वस्तु को अपना विषय बनाता है। उपर्युक्त प्रत्येक पद एक एक धर्म से अवच्छिन्न अर्थ को ही बोध करा सकते हैं, न कि अनेक धर्म से अवच्छिन अर्थ का - यह उपर्युक्त न्याय का तात्पर्य है, जो उपर्युक्त बोथ की उत्पत्ति में बाधक नहीं है। अत: उक्त न्याय को मान्यता प्रदान करने पर एक भी दोष की संभावना नहीं है।
अभेदतितक्षा से नानाधविच्छिन्नबोधोपपत्ति
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२८७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ६ . का.५
* काशिकावनिमंवादः* || नैकर्मप्रत्यायनमुखेन वस्तुतोऽनेकधर्मात्मकस्यैव धर्मिणो बोधाद योमपद्यं निराबाधमिति | || शेत् ? तर, अभेदविवक्षायामेवैकपदेन नानाधर्मावच्छिमधर्मिबोधसम्भवे योगपद्यप्रवृत्तेः । । एकशेषस्थले तु वस्तुत: पदान्तरस्मरणमेव कल्यं, अन्यथा घटपदात् समवाय-कालिकविशेषणताभ्यां पटत्वावच्छिन्नयो: युगपदबोधप्रसक्तिभिया एकधर्मावच्छिमत्वस्य बोध्यतावच्छेदकतावच्छेदकैकसम्बन्धावच्छिन्नत्वगर्भतावश्यकतया विषयितासमवायाभ्यां गुणत्व
====== === जयलता * = = = = = = अभेदविवक्षायामेवेति । द्रव्यार्थिका देनास्तित्वनास्तित्वादिधागामभदाणायां सत्यामेव, एवकारेण भेदकल्पनाव्यवच्छेदः कृतः । एकपदेन = एकथर्मावच्छिन्नार्धवाचकेन नानाधर्मावच्छिन्नधर्मियोधसम्भवे = अनन्तधर्मावच्छिन्नविशेष्यकधीसम्भवे, || योगपद्यप्रवृत्तेः । अयं समाधानाशयः, द्रव्यार्थिकनयावतारे घटादिवत्तीनामस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणामभेदग्रहात सत्त्वाऽभिन्नानन्त
वस्तुज्ञानं युगपद् भवितुमर्हति । द्रव्यार्धादेशेन वस्तुनः सत्त्वाद्यभिन्नाऽसत्त्वाद्यनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि पर्यायाधिकनय - पुरस्कारऽस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणां विभिन्नत्वेन स्वाश्रयभेदकत्वात् सदादिपदेन शक्त्या युगपन्न नानाधर्मावच्छिन्नधर्मिबोधः | सम्भवति, तन्नये विरुद्धनानाधर्मावच्छिन्नस्यैकस्य धर्मिणः एवाऽसत्त्वात् । ततश्च कालादिभिरभेदविवक्षायामेव स्वाभिन्ना:- || नन्तधर्मात्मकत्वसंसर्गेण स्वाश्रयविशेष्यकैकधर्मप्रकारकबोधतात्पर्यकत्वं पदे वाक्ये चानविरुद्धमिति स्थितम ।
एकशेषस्थले तु वस्तुत इति । व्यवहितान्वयात् वस्तुतस्त्वेकशेषस्थल इति । पदान्तरस्मरणमेर = लुप्तपदस्मरणमेव, कल्प्यम् । प्रत्यर्थं शब्दनिवेशात, तस्यैवैकशेषचीजत्वात् । तदुक्तं काशिकायां -> 'प्रत्यर्थं शब्दनिवेदशान्नैकेना नेकस्याऽभिधानम् । तत्रानेकार्थाभिधानेन्नेकशब्दत्वं प्राप्तं तस्मादेकोषः' - (पा.का.पृ.३९) । ततश्च 'घटा बित्यत्र लुप्तघटपदस्मरणमहिम्ना । प्रत्येकपदेन घटत्वावच्छिन्नस्यैकैकघटस्य बोधो जायत इति फलितम् । विपक्षबाधमाह . अन्यथेति । एकशेषस्थले लुप्तपदस्मरणनियमाउनुपगमे इत्यर्थः । अन्धयश्चाऽस्य 'उभयप्रतीतिर्न प्रादुर्भवेदि'त्यत्र बोध्यः । घटपदात् = घटत्वावच्छिन्नवाचकात्, समवाय-कालिकविशेषणताभ्यां संसर्गाभ्यां, घटत्वावच्छिन्नयोः = घटत्वविशिष्टयोः घट-पटाद्योः, युगपत् = समकालं बोधप्रसक्तिभिया = ज्ञानोत्पादप्रसङ्गभयेन, एकधर्मावच्छिन्नत्वस्य एकपदजन्यबोधविषयनिष्ठस्य, बोध्यतावच्छेदकतावच्छेदकैक
सम्बन्धावच्छिन्नत्वगर्भतावश्यकतया = शक्यतावच्छेदकीभूतधर्मनिष्ठावच्छेदकताया अबच्छेदकीभूतेनैकसंसर्गेणाऽवच्छिन्नत्वं यत् || तेन घटितत्वस्य क्लुप्तत्वेन, विषयिता-समवायाभ्यां, गुणत्ववद्वोधकैकशिष्टनदादिपदात् = विषयितया गुणत्यवतः समवायेन - - - - - - - -
- - ___वं सः इति. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "कालादि अष्टक के द्वारा सत्त्व, असत्त्व आदि धर्मों में अभेद की विवक्षा हो या भेद की विवक्षा हो, मगर प्रमाण से वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक सिद्ध है । अतएव सत्त्व, असत्त्व आदि धर्मों में भेदविवक्षा होने पर भी वस्तुतः अनन्त धर्मात्मक धर्मी का ही बोध होगा । अतः एक धर्म के बोधक एक पद से एक ही काल में अनेक धर्म से अवच्छिन्न धर्मी का बोध तो निराबाथ ही होगा" - मगर यह शंका इसलिए निराकृत हो जाती है कि कालादि अष्टक की अपेक्षा संपादित सत्त्वासत्त्व आदि धर्म में अभेदविवक्षा होने पर ही एक पद | से नानाधर्मावच्छिन्न धर्मी का बोध हो सकता है इसलिए 'या तो सर्वत्र अविशेषरूप से नानाधर्मावच्छिन्न धर्मी का युगपत् || i/ चोध होगा या तो कहीं भी नहीं होगा' इस समस्या को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्न रीति से अनेक धर्म में |! अभेदविक्षा होने पर नानाधर्मावच्छिन्न धर्मी का एक पद से एक ही काल में बोध हो सकता है ।
एक शेष में पदान्तटस्मरण आवश्यक छ एकशेष. इति । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि 'घटी, घटाः' इत्यादि एकशेपसमासगर्भित पद को सुन कर श्रोता को पूर्व में लुप्त घट आदि पद का स्मरण अवश्य होता है और बाद में दो या अनेक घट का बोध होता है । 'यह मानना क्यों जरूरी है ?' ऐसी शंका यहाँ हो सकती है। मगर इसका समाधान सुनने से पहले यह बात समझना आवश्यक है । कि 'सकृदुचरित...' न्याय का संपूर्ण अर्थ क्या है ? यदि उक्त न्याय का अर्थ यह समझा जाय कि -> "एक पद एक || काल में एक धर्म से अवच्छित्र अर्थ का ही बोथक होता है - यह एक अटल नियम है;" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि 'घटी' इस पद से श्रोता को जैसे समवाय सम्बन्ध से घटत्वविशिष्ट घटद्वय का बोध होता है, ठीक वैसे ही समवाय सम्बन्ध से और कालिकविशेपणना सम्बन्ध से घटत्वविशिष्ट धर्मी का बोध होने लगेगा, क्योंकि वह एकधर्मावच्छिन्नार्थविषयक है। मगर ऐसा शाब्द बोध होता नहीं है। अतः इसका वारण करना आवश्यक है । तदर्थ एकधर्मावच्छिन्न
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* एकशपस्थल पदान्तरस्मरणागीकारः * वबोधकैकशिष्टतदादिपदादुभयप्रतीतिर्न प्रादुर्भावत् ।
* गयलता * गुणत्ववत: बोधकात् एकशेषसमासगर्भितात् 'तो' इत्यादिपदात्, उभयप्रतीतिः = गुणद्वयावबोधो न प्रादुर्भवेदिति । अयमभिप्राय: 'सकृदुचरिते'त्यादिन्यायस्य 'एक पदमेकधर्मावच्छिन्नमर्थ बोधयती' त्यर्धकत्वे 'घटी स्त' इति वाक्यात समवायेन वटत्वावच्छिन्नस्य घटस्य कालिकविशेषणतासम्बन्धेन घटत्वावच्छिन्नस्य जन्यस्य सत: पटादेश्च युगपद् बोधः प्रामाणिक: स्यात्, तस्यैकधर्मावच्छिन्नार्धगोचरत्वात् । न च कालिकेन घटत्वं पटादौ कुतः सम्भवेदिति वक्तव्यम्, जन्यमानस्य कालोपाधित्वेन घटत्वविशिष्टत्वात् । न च पटादेः कालोपाधित्वेऽपि घटत्वस्य नित्यत्वेनाऽतधात्वान कालिकसम्बन्धप्रतियोगित्वं स्यादिति स्वाज्ञानं प्रकटनीयम्, कालिकेन वृत्ताबनुयोगिन एव जन्यत्वस्य नियामकत्वान्न तु प्रतियोगिनोऽपि । ततः तादृदाप्रतीतिप्रामाण्यं
एकं पदं एकसम्बन्धावच्छिन्ना या एकधर्मनिष्ठा प्रकारता तदाश्रयविशेष्यं युगपद बोधयितं समर्थमित्येवेतन्यायार्थ इत्यवश्यमपगन्तव्यमायुष्मताडकामेनाऽपि । न चैवं गौरवम्, प्रमाणप्रवृत्तिसमये सिद्यसिद्धिपराहतत्वेन फलमुखस्य तस्याग्दोषत्वात् । स चैक सम्बन्धः शक्यतावच्छंदकतावच्छेदकसम्बन्धो ज्ञेयः । घटपदशक्यतावच्छेदकीभूतघटत्वनिष्ठावच्छेदकताया अबच्छेदक एकसंसर्गश्च समवायः घटत्वस्य समवायेन घटे वर्तमानत्वात् यदा कालिकविशेषणता, न तूभयम् । ततो 'बटी' पदात समवाय-कालिकविशेषणताभ्यां न घटत्वविशिष्टबोधप्रसड़गः, तस्य सम्बन्धदयारच्छिन्नाकारतावगाहित्यात । एतेन विषपितासंयोगाभ्यां घटत्वावच्छिन्नबोधोऽपि परास्तः, एवं स्थिते एकशेषस्थले पदान्तरस्मरणाऽनभ्युपगमे विघयितासम्बन्धेन गुणत्ववतो ज्ञानादेः समवायेन गुणत्ववतो गन्धादे: बोधनार्थं 'ती' पदप्रयोगे कृतेऽपि युगपत् प्रकारिताद्यन्यतर-विषयितासम्बन्धावच्छिन्नगुणत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावत: समवायावच्छिन्नगुणत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यताबत्तश्च शाब्दबोधो न स्यात्, इष्टतादृशबोधनिष्ठविशेष्यितात्वावच्छिन्ननिरूपकतानिरूपितविशेष्यतानिरूपकप्रकारतयोरेकधर्मावच्छिन्नत्वेऽप्येकसंसर्गानबच्छिन्नत्वात् । तादृशबोधनिर्वाहकृते एकशेषस्थले पदान्तरस्मरणमुपगन्तव्यमेव । तदा 'तो' इत्यादिपदात् लुप्ततदादिपदस्मरणे सति विषयितया गुणत्ववतः समवायेन गुणत्ववतश्च बोधकाभ्यामुपस्थिततदादिपदाभ्यामुभयबोधोऽपि निर्वहेत् ।
प्रकरणकार एतादृशजटिलमीमांसाविधुरीभूतबुद्धे : शिष्यस्योपकाराय 'सकृदुचरिते'त्यादिन्यायस्य फलितार्थमाविष्करोति -
प्रकारता को एकसम्बन्धाच्छिन्नत्व विशेषण से विशिष्ट मानी जाय, यह जरूरी है। मतलब कि एक पद से एकसम्बन्धावच्छिन
और एकधर्मावच्छिन ऐसी प्रकारता से निरूपित विशेष्यता का अवगाही शाद बोध होता है - ऐसा उक्त न्याय का अर्थ मानना पड़ेगा। एकथर्मावच्छिन्न प्रकारता का अवच्छेदक सम्बन्ध वही हो सकेगा, जो शक्यता(बोध्यता) अवच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध होगा। शक्यतावच्छेदक धर्म जिस सम्बन्ध से शपयार्थ (वाच्यार्थ) में रहता है, वह शक्यतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध कहा जाता है। जैसे 'घटी' पद का शक्यार्थ है दो घट और शक्यतावच्छेदक है घटत्व । शक्यतावच्छेदकीभूत घटत्व धर्म (जाति) स्वाश्रय घट में समवाय सम्बन्ध से वृत्ति होने की वजह घटपदशक्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध समवाय होगा । अतः घटपद एक काल में समवायसम्बन्धावच्छिन्न घटत्वनिष्ट प्रकारता के निरूपक शान्दरोध को ही उत्पत्र करेगा, न कि समवाय और कालिकविशेपणता सम्बन्ध से अवजिन्न प्रकारता के निरूपक शाब्दबोध को। इस तरह एकधर्मावच्छिन्नत्व को शक्यतावच्छेदकताबच्छेदकैकसम्बन्धावच्छिन्नत्व से घटित मानना आवश्यक है। जब यह उक्त रीति से सिद्ध होता है, तब एकशेषस्थल में पदान्तरस्मरण का अंगीकार न करने पर एक आपत्ति मुंह फाड़े खड़ी है। इसका बयान इस तरह किया जा सकता है । सुनिये, गुणत्व जाति समवाय संबंध से गन्ध, रस आदि २४ गुणों में रहती है और विषयितासम्बन्ध से 'अयं गुणत्ववान्' इत्याकारक ज्ञान आदि गुण में रहती है। उक्त दो सम्बन्ध से गुणवविशिष्ट दोनों का बोध कराने के तात्पर्य से जब 'ती' शन्द का, जो एकशेष समासगर्भित तत्पदस्वरूप है, प्रयोग करेगा तब उभय का शाब्दबोध श्रोता को नहीं हो सकेगा, क्योंकि उक्त दोष की विशेष्यता से निरूपित प्रकारता एक संबन्ध से अवच्छित्र नहीं है, किन्तु समवाय और विषयितारूप दो सम्बन्ध से अवच्छित्र है। एकशेष समास गर्भित 'ती' पद समवाय संबन्ध से गुणत्वविशिष्ट और विषयितासंबन्ध से गुणत्वविशिष्ट उभय का बोध तभी करा सकता है, जब लुप्त पदान्तर का स्मरण माना जाय । लुप्तपदान्तरविषयक स्मरण होने पर दो तत् पद उपस्थित । होते हैं, जिससे समवायसंबंधावच्छिन्नगुणत्वनिष्टप्रकारतानिरूपितविशेष्यताआश्रय का एवं विपयितासम्बन्धावच्छिन्नगुणत्वनिष्टप्रकारतानिरूपितविशेप्यताविशिष्ट का युगपत् बोध उपपन्न हो सकता है। अतः एकशेषस्थल में पदान्तर का स्मरण आवश्यक है - यह निर्विवाद सिद्ध होता है।
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२८५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * 'सकृदुचरित.....' न्यायनिष्कर्षः
एकपदस्यैकस्मिन् काले एकसम्बन्धावचिनैक धर्मप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिबोधोपधायकत्वमिति तु निष्कर्ष:, तेन नैकपदस्य वस्तुतो नानाधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वेऽपि क्षतिः । एकोच्चारणान्तर्भावेन शक्तिमत्पदारिक्तस्थले चायं नियम:, तेन न पुष्पदन्तपदादे* गयलता है
एकपदस्येति । एतेन पृथगुचरितनानापदानां व्यवच्छेदः कृतः । एकस्मिन् काले इति । अनेन विभिन्नकालव्यवच्छेदः कृतः । एकसम्बन्धावच्छिन्नेकधर्मप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिबोधोपधायकत्वं = एकसंसर्गेणाऽवच्छिन्ना या एकधर्मनिष्ठा प्रकारता तनिष्ठनिरूपकतानिरूपिताया विशेष्यताया अवगाही गृहीतशक्तिकपुरुषनिष्ठो यः शाब्दबोधः तदुत्पत्तिव्याप्यत्वम् । व्याप्यता।।बच्छेदकसम्बन्धश्च स्वाऽव्यवहितोत्तरजायमानत्वम् । यथा 'घट' इति पदोश्वारानन्तरोत्तरक्षणे घटपदशक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूतसमवायसम्बन्धावच्छिन्नया घटत्वलक्षणैकधर्मनिष्ठया प्रकारतया निरूपिताया: तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नाया विशेष्यताया अवगाहिनः शाब्दबोधस्थावश्यं जायमानत्वेन घटपदस्य स्वाऽव्यवहितीत्तरजायमानत्वसंसर्गेण तादृशशाब्दबोधोदयव्याप्यत्वम् । तत्फलमाहतेनेति । 'सकुदुच्चरिते' त्यादिन्यायस्योक्तार्धकत्वेनेति । न क्षतिरित्यन्वयः । एकपदस्य - पटादिलक्षणस्य वस्तुतः युगपत् नानाधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वेऽपि = अनेकधर्मविशिष्टविषयकबोधजननेऽपीति । अयमभिप्रायः वस्तुगतिमनुरुध्य सर्वस्य वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वमेवेति स्याद्वादिदर्शने एकस्मादपि घटपदान्नानाधर्मावच्छिन्नवस्त्ववबोधो जायते तथापि न प्रकृतन्यायभङ्गप्रसङ्गः, घटपदजन्यशाब्दबोधविशेष्यस्याऽनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि तन्निष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारताया घटत्वस्वरूपैकधर्मनिष्ठाया अनेकसंसगांवच्छिन्नत्वविरहात् । वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि एकस्मात् घटादिपदात् प्रातिस्विकरूपेणैव तद्बोधो, न तु नानाविधरूपेणेति भावः । एतेन शङ्कादिदोषा अपि परिहता भवन्ति ।
ननु पुष्पदन्तादाद् युगपत् सूर्यत्वचन्द्रत्वाभ्यामुभयोबंधन प्रकृतन्यायोऽसार्वत्रिक इत्याशङ्कायामपवादमाहएकीचारणान्तर्भावेन शक्तिमत्पदातिरिक्तस्थले चाऽयं दर्शितो नियमः बोध्यः । अयं भावः पदं द्विविधं समस्तमसमस्तं च । तत्र समस्तपदे एको चारान्तर्भाविनैव शक्तिः यथा 'रामलक्ष्मणौ' इति सहोच्चारे सत्येव रामलक्ष्मणोभये तच्छक्तिः । न 'हि 'राम' इति पृथगुचारे सति तदुभये शक्तिर्भवति । असमस्तपदे तु स्वातन्त्र्येणैव शक्तिः, न तु सहोचारणान्तर्भावेन । दर्शितनियम एको चारणान्तर्भाविन शक्तिमति पदे नास्ति । ततस्तत्रैकदैकसम्बन्धावच्छिन्नैकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिचोप्रादुर्भवेऽपि नायं नियमो भग्नः, तादृशनियममर्यादाबहिर्भूतत्वात्तस्येत्याशयेनाऽऽह तेनेति । दर्शितनियमस्यैकोक्त्य
'सकृदुष्परित..' न्याय का निष्कर्ष
एकपदस्यै. इनि । यहाँ तक के विचारविमर्श से ' सकृदन्तरितं पदं सकृद्देवाऽर्थं गमयति' न्याय का ऐदम्पर्य यह फलित होता है कि एक पद एक काल में एकसंसर्गाविच्छिन जो एक धर्मनिष्ठ प्रकारता, उससे निरूपित विशेष्यता के अवगाही शाब्दबोध का उपधायक = जनक है । एक पद में तादृशशाब्दबोधोपधायकत्व का अर्थ है एक पद स्वाऽव्यवहितोत्तरजायमानत्व संबन्ध से तादृशशाब्दबोधोत्पत्ति का व्याप्य है। मतलब कि एक पद के उच्चारण के अव्यवहित उत्तर क्षण में अवश्य तादृश शाब्दबोध का जन्म होता है । 'सकृदुचरित' न्याय का यह गूढार्थ होने की वजह यहाँ यह कहा जाय कि वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक होने से एक पद से जिस वस्तु का बोध होगा वह भी अनन्त धर्मात्मक ही होगी । अतः एक पद से भी अनन्तधर्मावच्छिन्न अर्थ का ही बोध होगा । इसलिए एक पद से अनेकधर्मावच्छिन्न धर्मों का बोध हो सकता है - तो भी कोई दोष नहीं है । इसका कारण यह है कि एक पद से एक धर्म के पुरस्कार से ही अनेकधर्मावच्छिन्न धर्म का बोध होता है, न कि अनेक धर्म के पुरस्कार से । अनंतधर्मावच्छिन घट का ही घटपद से शाब्दबोध होता है, मगर वह घटत्वरूप धर्म से ही होता है, न कि द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व, सत्त्व आदि धर्म से घटपद से घट का घटत्वेन ही बोध होता है, न कि सत्त्व, पृथ्वीत्व, द्रव्यत्व आदि रूप से यह सर्वजनसिद्ध है । इसलिए ' सकृदुचरित' न्याय का जो निष्कर्ष बताया गया है कि एक पद से एक काल में एकसम्बन्धावच्छिन एकधर्मनिष्ठ प्रकारता से निरूपित विशेष्यता के अवगाही शाब्द बोध का उदय होता है - वह संगत ही है । तादृश विशेष्यता का आश्रय नानाधर्मावच्छिन्न (= अनेकधर्मात्मक) हो, इसके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । उस न्याय से तादृश विशेष्यता का आश्रय एक धर्म से ही विशिष्ट हो ऐसा नियमन नहीं किया जाता है । ॐ पुष्पदन्तपद से सूर्यचन्द्र का युगपत् बोध संमत
एकी. इति । यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि 'सकृदुचरित...' न्याय से जिस नियम का विधान किया गया है, वह
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* अमरकोशवचनसंवादः * ककाले सूर्यचन्द्रत्वाभ्यां सूर्यचन्द्रमसयोर्बोधेऽपि क्षतिरिति टोयम् । धर्मे एकत्वकसकेत
* गयला * न्तर्भावप्रयुक्तशक्तिमत्पदजन्यशाब्दबोधाऽनियामकत्वेनेति । न क्षतिरित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । पुष्पदन्तपदात् = 'पुष्पदन्ती' इति पदात्, एककाले = युगपत, सूर्यचन्द्रत्वाभ्यां = सूर्यत्वचन्द्रत्वाभ्यां, सूर्यचन्द्रमसयोः बोधेऽपि न क्षतिः । अयं भाव: 'पुष्पदन्तौ पुष्पबन्तावेकोक्त्या शशिभास्करौ' इति कोशवचनात् एको चारणान्तविन गृहीतनानाथशक्तिकपुष्पदन्तादिपदस्य व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् हि चन्द्रसूर्ययोरेकैव शक्तिः शक्यतावच्छेदकत्वं तु चन्द्रत्वसूर्यत्वयोर्व्यासज्यवृत्ति । 'पुष्पदन्तादिपदं चन्द्रे सूर्य च शक्तमि त्याकारकः शस्तिग्रहः । तत्कार्यतावच्छेदकञ्च चन्द्रत्वप्रकारकत्वे सति सूर्यत्वप्रकारकस्मृतित्वं, तादृशशाब्दत्वञ्च । अत्र शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूतपर्याप्तिसम्बन्धावच्छिन्नचन्द्रत्वसूर्यत्वोभयनिष्ठप्रकारतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नचन्द्रसूर्योभयनिष्ठविशेष्यताबगाहिशाब्दबोधो न त्वेकधर्मावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशाली । 'एकयोक्त्या' इति कोशस्वारस्यात् सहोचारणान्तविनेकैव शक्तिः सिद्धेति न प्रदर्शितनियमाक्रान्तत्वं तादृशबोधस्येति भावः ।।
स्यादेतत् - यथा हि 'चन्द्रसूर्यो पुष्पदन्तपदजन्यैकबोधविषयौ भवतामि' त्याकारिकैव शक्तिः, 'एकयोक्त्या पुष्पदन्ती दिवाकरनिशाकरौ' (अ.को.कां.१/लो.१०) इत्यमरकोशबचनात, लाघवाच । अत एव न चन्द्रसूर्य पर्यायता, नानार्थे गणनं वा । शक्तितदबच्छेदकतयोासज्यवृत्तितया च चन्द्रत्वेन चन्द्रः शक्यः सूर्यत्वेन च सूर्य' इत्यादिर्न धीः किन्तु चन्द्रत्वेनं सूर्यत्वेन च चन्द्रसूर्यो वाक्यावित्येव । तथैवोभयपदस्याऽपि प्रकृते झबलवस्तुन्येकैच शक्तिः, शक्यतावच्छेदकल्यं तु सत्त्वासत्त्वयोर्व्यासज्य. बृत्ति' इति किं न स्यात् ? एवञ्चोभयपदेन युगपदुभयप्राधान्यबोधसम्भवादवक्तव्यत्वभङ्गोऽनुत्थानोपहतः इति । मैवम् पुष्प. दन्तपदबदभयपदस्या साधारणत्वाऽभावात, बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वादस्त्यादिधर्मयावच्छिन्नरोधकत्वे च प्राधान्येनोभयाकारबोधासिद्धेः । किञ्च, व्यासज्यबृत्तिशक्यतावच्छेदकताकस्य पदस्य द्विवचनान्तस्यैव साधुत्वेन न पुष्पदन्तपदबदुभयपदस्यात्र बोधकत्वमित्यादिसूचनार्थ 'ध्येयमि'त्युक्तम् ।
ननु एको चारणान्तर्भावेन शक्तिमत्पदान्यस्यैकपदस्य शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकैकसम्बन्धावच्छिन्नैकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावगाहिशाब्दबोधोपधायकत्वमिति नियमघटकीभूतधर्मनिष्ठैकत्वं किस्वरूपमित्याशङ्कायामाह-धर्मे एकत्त्वञ्चेति । सप्तम्यर्थी
एकोच्चारण अन्तर्भाव से जिस पद में वाक्ति रहती है, उससे अन्यपद रिपयक है । ऐसा कहने का कारण यह है कि 'पुप्पदन्ती' यह समस्त (= समासगर्भित) पद एक ही काल में चन्द्रत्व और सूर्यत्व उभय धर्म से चन्द्र-सूर्योभय का बोधक होता है। तादृश शाब्दबोध से निरूपित विशेष्यता चाँद-सूरज में रहती है और उससे निरूपित प्रकारता चन्द्रव और सूर्यत्व जाति में रहती है । अतएव तादृश शान्द बोध की विशेप्यता चन्द्रत्व-सूर्यत्वस्वरूप दो धर्म से निरूपित होती है, न कि एक धर्म से । यदि 'सकृदचरित....' न्याय को सार्वत्रिक माना जाय तो प्रस्तुत चाँद-सूरज उभपविशेप्यक शान्द बोध की उपपति नहीं हो सकती, क्योंकि वह एकधर्मनिष्प्रकारता से निरूपित विशेष्यता का अवगाहन नहीं करता है। यह शान्द चोध प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक है । अतः इसको अप्रमाण कहना ठीक नहीं है। इसलिए तादृश नियम में संकोच करना आवश्यक है, जिससे यह शाब्दबोध उस नियम की मर्यादा से बहित हो जाय । प्रदर्शित न्याय से फलित नियम में संकोच करने के पहले यह समझना जरूरी हो जाता है कि पुष्पदन्त पद में अर्थबोधक शक्ति कैसी रहती है ? पुष्पशब्द के पृथक् उचारण से या दन्तशब्द के पृथक् उचारण से चाँद-सूरज दोनों का बोध नहीं होता है किन्तु 'पुष्पदन्तौ ऐसा एक - अखंड उच्चारण करने पर ही उभय का बोध होता है । मतलर कि 'पुप्पदन्ती' पद एकोच्चारण के अन्तर्भाव से चाँद-सूरज उभय की बोधक शक्ति वाला है । अतः पुष्पदन्तपदजन्य शाब्दबोध को उक्त नियम का अविषय बनाने के लिए यह कहा जा सकता है कि 'सकृदुश्चरित...' न्याय का फलितार्थरूप नियम एकोक्ति के अन्तर्भाव से शक्तिमत् पद से अन्य पद को अपना विषय बनाता है। ऐसा कहने से पुप्पदन्तपद तादृश निपम की मर्यादा से बहिर्भूत बन जाता है और उससे अन्य घटपद, पटपद आदि में उपर्युक्त नियम प्रवृत्त होता है। अतः घटपट आदि पद ऐसे हैं जो एक काल में एकसम्बन्यावच्छिन ऐसी एकधर्मनिष्ट प्रकारता से निरूपित विशेप्यता के अवगाही शान्द बोध का जनक है । यह 'सकदश्चरित.....' न्याय का निष्कर्ष है ।
धर्मनिष्ठ एफत्त का निर्वचज धर्म. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूत एक सम्बन्ध से अवभिन्न एकधर्मनिष्ठप्रकारता से निरूपित विशेप्यता का अवगाही शाब्द बोध एक काल में एक पद से होता है - ऐसा आपने कहा है। मगर | यह नामुमकिन है । इसका कारण यह है कि एकथर्मनिष्ट प्रकारता का अर्थ प्राप्त होता है एकत्त्वसंख्या विशिष्ट ऐसे धर्म में
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२५१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५
विषयतावच्छेदकत्वादिकम् ।
* लघुस्याद्वादरहस्यसंवादः
* जयलता
वृत्तित्वमिति धर्मवृत्त्येकमित्यर्थः । एकसङ्केतविषयतावच्छेदकत्वादिकमिति । एकसङ्केतनिरूपितविषयताया अवच्छेदकत्वादिकम् । यथा 'कम्बुग्रीवादिमान घटपदवाच्य' इत्याकारकस्य एकसङ्केतस्य विषयः कम्बुग्रीवादिमान् तद्वृत्तेरेकसङ्केतविषयताया अवच्छेदकं लाघवात् घटत्वम् । तादृशविषयतावच्छेदकत्वच घटत्वे निराबाधम् । एतेन घटपदजन्यशाब्दबोधीयविशेष्यतानिरूपितप्रकारतायाः वाक्यतावच्छेदकतावच्छेदकी भूतसमवायावच्छिन्नत्वेऽपि एकधर्मनिष्ठत्वं बाधितम् घटत्वस्य जातित्वेन गुणत्वाबच्छिन्नप्रतियोगिताका भाववत्त्वादेकत्वसंख्यात्मकगुणविशिष्टत्वविरहादिति परास्तम्, एकधर्मस्यैकत्वसंख्याविशिष्टधर्मत्वाऽविवक्षणात्, । तादृशविशेष्यतानिरूपकप्रकारताश्रयीभूते घटत्वलक्षणे धर्मे एकसङ्केतविषयताऽवच्छेदकत्वलक्षणैकत्वविशिष्टत्वस्याऽबाधातु ।
ननु एकपदजन्यशाब्दबोधीयविशेष्यतानिरूपितप्रकारतायाः शक्यतावच्छेदकीभूतैकसम्बन्धावच्छिन्नत्वं कथं स्यात् ? समवायादी एकत्वादिसंख्यालक्षणगुणबाधात् । न चैकसङ्केतविषयतावच्छेदकत्वरूपमेकत्वं तत्र सम्भवत्येवेति वाच्यम्, एवं सति घटपदात् समवायकालिक विशेषणताभ्यां घटत्वावच्छिन्नयोर्युगपद्बोधप्रसङ्गात्, 'समवाय कालिकविशेषणतादयः सम्बन्धपदवाच्याः' इत्याकारकैकसङ्केतविषयतावच्छेदकत्वलक्षणैकत्वस्य समवायकालिकविशेषणतासंसर्गयोरबाधात् । न च तत्र स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन || द्रव्यगतमेकत्वमेव भासत इत्यारेकणीयम् 'घट' इत्यादिपदजन्यशाब्दबोधानुपपत्तिप्रसङ्गात् सभवाये तादृशसम्बन्धेन द्वित्वादेः || परिसमाप्ततया तादृशशाब्दबोधीय प्रकारताया द्वित्वविशिष्टसमवायावच्छिन्नत्वादिति चेत् ? मेवम्, अपेक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वलक्षण|| स्यैकत्वस्य तत्राञ्चाधितत्वात् । इदञ्च सम्बन्ध इव धर्मेऽपि बोध्यम् । अत एव आदिशब्दसाफल्यमप्युपपद्यते । एतेन एक|| सङ्केतविषयतावच्छेदकत्वघटकी भूतसङ्केतस्येच्छाविशेषरूपत्वेनैकत्वविशिष्टत्वबाधेन न तादृशमेकत्वं प्रकारताश्रयीभूतधर्म सम्भवतीति प्रत्युक्तम्, अपेक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वलक्षणैकत्वस्य तत्राऽप्याधितत्वात् । ततश्च एकोच्चारणान्तर्भाविप्रयुक्तशक्तिमत्पदव्यतिरिक्तil कपदस्य एकस्मिन् काले अपेक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वरूपैकत्वविशिष्टस्वशक्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नदर्शितकत्वविशिष्टधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावगाहिशाब्दबोधव्याप्यत्वं स्वाऽव्यवहितोत्तरजायमानत्वसम्बन्धेनेति प्रकृतन्यायनिष्कर्ष इति
|| तात्पर्यभू ।
लघुस्याद्वादरहस्ये तु प्रकृते > "धर्मे एकत्वञ्च यावद्बोध्यवृत्तित्वादिकम् । यत्तु - || वृत्तिमत्त्वं तद्बोध्यत्वम् तेन न पशुत्वादेर्नानात्वेऽपि दोष इति न्यायनयानुयायिनः तन्न सर्वस्य सर्वपदशक्यत्वात्” र. पू. १३) इत्युक्तमिति ध्येयम् ।
B
स्वाश्रयबोध्यतावच्छेदकत्वसम्बन्धेनैक
- (ल.स्या.
रही हुई प्रकारता | देखिये, 'घट:' इस पद से समवायावच्छिन्न घटत्वनिष्ठ प्रकारता से निरूपित विशेष्यता का अवगाहन करने वाला शाब्दबोध उत्पन्न होता है । मगर तादृशशाब्दबोधीयविशेप्यतानिरूपक प्रकारता का आश्रय घटत्व एकत्व संख्या से विशिष्ट नहीं है, क्योंकि घटत्व जाति है और जाति में गुणमात्र का अभाव होता है । संख्या नैयायिकमतानुसार गुणविशेष है । अतः घटत्व जाति एकत्वसंख्यात्मक गुण से विशिष्ट नहीं है। तो फिर समायावच्छिन्न प्रकारता एक धर्म (= एकत्वसंख्याविशिष्ट धर्म) में कैसे रहेगी ? फलतः वह शाब्द बोध अनुपपन्न रह जायेगा" - मगर इसका समाधान यह है कि धर्मनिष्ट एकत्व है वह यहाँ संख्यात्मक अभिमत नहीं है किन्तु एक संकेत की विषयता के अवच्छेदकत्वस्वरूप अभीष्ट है, जो घटत्व में अबाधित है । वह इस तरह 'घटपदवाच्यः कम्बुग्रीवादिमान्' इत्याकारक एक संकेत का विषय है कम्बुग्रीवादिविशिष्ट । उसमें रही हुई विषयता का अवच्छेदक लाघव सहकार से घटत्व है । जहाँ जहाँ घटत्व रहता है वहाँ वहाँ तादृश एक संकेत की विषयता अवश्य रहती है। इस तरह अन्यूनानतिरिक्तवृत्ति होने की वजह घटत्व तादृश एक संकेत की विपयता का अवच्छेदक हो सकता है | अतः तादृश एकसंकतीयविषयतानिरूपित अवच्छेदकत्वस्वरूप विवक्षित एकत्व प्रकारताश्रयीभूत धर्म में अधि || | है | अतः विवक्षित एकत्व से विशिष्ट घटत्वादिस्वरूप धर्म में रही हुई प्रकारता से, जो समवायसम्बन्धावच्छिन्न है, निरूपित विशेष्यता का अवगाही शाब्द बोध घटपद से हो सकता है। इस विषय में किसी विवाद को अवकाश नहीं है । यहाँ तक के विचारविमर्श से ' सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेवार्थं गमयति इस न्याय का अर्थ यह फलित होता है कि एक पद एक काल में स्वशक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूत एक सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रकारता से, जो एकसंकेतविषयता अच्छेदकत्वस्वरूप एकत्वविशिष्ट || धर्म में रहती है, निरूपित विशेष्यताशाली शाब्द बोध का जनक होता है ।
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* शकुन्तलानाटकसंवादः * । अत्र नव्या: -> नलु किमर्थमयं नियम: ? न तावतानार्थकपदालानार्थानां युगपदबोधनिर्वाहाय, नानार्थकपदस्य प्रकरणादिना शक्तिर्यत्र नियम्यते तस्यैव बोधनियमेन तसिवाहात, अन्यथा भोजनवेलायां सैन्धवपदाल्लवणमेव प्रतीयते, न त्वश्व इति नियमो न स्यात् ।
= =जयलता - नव्यनैयाकिकमतमुपदर्शयितुमाह- अत्रेति । 'सकृद्दरिते' त्यादिन्यायप्रामाणिकत्वपरीक्षायां प्रस्तुतायामिति । नन्विति प्रश्ने, तदुक्तं हलायुधकोशे 'ननु प्रश्नेऽवधारणे' (हला, ५/८८४) किमर्थ = कस्मै प्रयोजनाय, अयं प्रदर्शितस्वरूप: | नियमः ? किं नानार्थकपदजन्यनानार्थबोधस्य युगपदुदयनिरासाय यदुत शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थबोधानुत्पादनिर्वाहाय ?
इति विकल्पयुगली समवतिष्ठते । तत्र प्रथमे आह- नेति । अन्वयश्चाऽस्य युगपदबोधनिर्वाहायेत्यत्र । तावदिति प्रथममित्यर्थे || यधा शकुन्तलायां 'आर्ये : इतस्ताबदागम्यता' (श.१) इत्यत्र । नानार्थकपदात् सैन्धवादिपदात्, नानार्थानां अश्वलवणादि रूपाणां, युगपदबोधनिहाय = समकालं ज्ञानानुत्पादोपपत्नये । अत्र हेतुमाह- नानार्थकपदस्येति । प्रकरणादिनेति आदिशन्देन संयोग-वियोग-साहचर्यादीनां ग्रहणम् । तस्यैव = प्रकरणादिनियन्त्रितशक्तिविषयस्यैव, बोधनियमेन = शाब्दबोधोदयव्याप्त्या, तनिर्वाहात् = नानार्थ कैकपदजन्यनानार्थविषयकरसमकालीनशाब्दबोधानुदयोपपत्तेः । विपक्षबाधमाह- अन्यथेति । प्रकरणादिना नानार्थकैकपदाक्तिविषयनियमानभ्युपगमे इति । भोजनवेलायां = भुक्तिप्रकरणे, सैन्धवपदात् लवणावाद्यर्थकात लवणमेव प्रतीयते = शाब्दबोधविषयीभवनि । एबकारफलमाह- न त्वश्व इति । इति = एवंप्रकारकः, नियमो न स्यादिति । अयं नव्याशयः, यदि नानार्थकपदजन्यशाब्दबोधविषयप्रतिनियमस्य प्रकरणादिप्रयुक्तत्वं नोपयते तदा अश्वलवणबोधौपयिकसामग्रयाः अविशिष्टत्वात्सर्वदाऽअलवणबोधस्यात्, एकसामग्रया अपरशाब्दबोधप्रतिबन्धकत्वे तादृशवाक्याच्छाब्दबोध एव न स्यात् । न चैत्र भवति, लवणतात्पर्यग्राहकभोजनप्रकरणे लवणस्यैव बोधात, अश्रतात्पर्यग्राहकप्रयाणप्रकरणे चाऽश्वस्यैव । ततश्च तात्पर्यग्राहकत्वेन क्लप्तानां प्रकरणादीनां क्लसनियतपूर्ववर्तिताकत्वेनाइनन्यथासिद्धत्वमाबकल्पने लायवात्प्रकरणादिभिरेव नानार्थकपदशक्तिप्रतिनिय|| मोऽजीकार्यः । तथा चैकपदस्यैकस्मिन काले शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीमतैकसम्बन्धावच्छिन्नेकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यताकशाब्दबोधोपधायकत्वमिति नियमो नातिप्रयोजनः, तन्निर्वाह्यस्य प्रकरणादिनैव निर्वाहात् । एवं 'घटोऽपसारणीय' इत्यत्र
. 'सकारित...' न्याय प्रामाणिक - नत्यनैयायिक पूर्वपक्ष :- अत्र नव्याः, इति । उपर्युक्त वक्तव्य के खिलाफ नन्य नैयायिकों का यह मन्तव्य है कि 'सकृदुचरित...' यह न्याय अप्रामाणिक है, क्योंकि उसकी कल्पना का कोई चीज ही नहीं है। वह इस तरह - इस न्याय से 'एक पद एक काल में एकधर्मावच्छिन्नार्थबोध का जनक है' इस नियम की कल्पना क्यों की जाती है ? इसके प्रत्युत्तर में यह तो नहीं कहा जा सकता कि . 'अनेक अर्थ के वाचक एक पद से एक काल में अनेकअर्थविषयक शाब्दबोध के अनुदय का निर्वाह-उपपादन करने के लिए उस न्याय का आश्रय लिया जाता है' -, क्योंकि अनेकार्थवाचक पद की शक्ति अनेक अर्थ में कोश आदि से सिद्ध होने पर भी प्रकरण आदि से जिस अर्थ में उसकी शक्ति का नियमन होगा उसीका शाब्द बोध अनेकार्थक पद से होता है - यह नियम है । इसीसे अनेकार्थक एक पद से एक काल में अनेक अर्थ के शाब्दबोध के अनुदय का निर्वाह हो सकता है। यदि अनेकार्थशचक पद की शक्ति का अर्थविशेष में नियंत्रण न माना जाय, तर तो भोजनप्रकरण में सैन्धवपद से लवण = नमक का ही बोध होता है, न कि अश्व का - यह नियम नहीं हो सकेगा। आशय यह है कि सैन्धवशन्द का अर्थ है लवण और अश आदि । जब भोजन का समय = अवसर होता है, तब 'सैन्धर्व आनय' इस वाक्य से थोता को लवण लाने का ही ज्ञान होता है, न कि अश्व को लाने का, क्योंकि भोजनप्रकरण से 'यह सैन्धव पद लवण का बोध कराने की इच्छा से रक्ताने बोला है ऐसा तात्पर्यग्रह श्रोता को होने से वहाँ सैन्धव पद की शक्ति लवण अर्थ में नियन्त्रित होती है। यदि भोजनप्रकरण से सैन्धव पद की शक्ति का लवण में नियमन न हो, तब तो भोजन के अवसर श्रोता लवण के स्थान में अश्व को या दोनों को लायेगा । मगर ऐसा नहीं होता है। भोजन के अवसर 'सैन्धवमानय' इस वाक्य से श्रोता को मालूम हो ही जाता है कि-भोजन में नमक कम होने की वजह थीमान् मुझे नमक लाने की आज्ञा दे रहे हैं । अतः प्रकरण आदि को ही अनेकार्थकपदजन्य शाब्दबोध के विपयविशेष का नियामक मानने से एक काल में नानार्थवाचक एक पद से अनेकार्थगोचर शाब्द रोध के अनुदय का निर्वाह हो सकता है। उसके लिए 'सकृदुचरित...' i: इस न्याय की आवश्यकता नहीं है । मतलब कि निप्प्रयोजन होने के सबब तादृश नियम अप्रामाणिक है।
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२९३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *'प्रजयति' वास्थविचार: * नाऽपि शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थाबोधनिर्वाहाय, 'प्रजयती'त्यत्रैकरमादेव जिधातोः शक्त्या जयस्य लक्षणया प्रकृष्टजयस्य च बोधाभ्युपगमात् । अत एव 'चित्रगुरित्या शक्त्या गोर्लक्षणया स्वामिनश्च बोधो नाऽनुपपम: । 'जामार्थयो देनाऽन्वयः कथमिति चेत् ?
....... ------ -* जयलता * सानिध्यलक्षणसंयोगेन सन्निकष्टघटगोचरो बोधो जायते न त विप्रकटघटविषयकः । 'घटमानय' इत्यत्र दूरस्थत्वलक्षणवियोगेन । चटपटात् दूरस्थघटविषयको बोधो जायते, न तु समीपस्थघटविषयकः । 'घटं पटञ्चानये त्यत्र साहचर्यात् एकदेशवृत्तिघटपटविषयकबोधो जायते । एवञ्च प्रकरणादिभिरेवाऽर्थविशेषबोधनियमसम्भवेन तादृशनियमपरिकल्पनमकिश्चित्करमित्यर्थः ।।
___ द्वितीये आह- नापीति । तत्र हेतुमाह- 'प्रजयती' त्यत्रेति । लक्षणयोपस्थितेन प्रकृष्टजयेन समं शक्त्योपस्थितस्य जयस्याऽभेदान्वयबोधोऽभीष्ट एवाऽस्माकमिति भावः । एवमेव च मुरज्यलक्ष्योभयपरे 'गङ्गायां धोषमत्स्यौ स्त' इत्यादी सकृदुचरितेऽपि गङ्गापदेऽनेकार्थतात्पर्यग्रहेणैकदैव शाब्दबोधाभ्युपगमात्, सामान्यतः उभयतात्पर्यग्रहे प्रथमस्यैव बोधो नान्यस्येति | नियन्तुमशक्यत्वाच नाऽवृत्त्या तनिर्वाह इति सकृदुचरिते' त्यादिन्याये मानाभाव इति नव्याभिप्रायः ।।
अत एवेति । एकस्मादपि पदान् शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थबोधाभ्युपगमादेवेति । 'चित्रगु'रित्यत्र बहुव्रीहिसमासस्थले शक्त्या = समासघटकीभूतगोपदस्य शक्त्या, गोः = सास्नादिमतः, लक्षणया द्वितीयवृत्त्या स्वामिनश्च = स्वामित्वसम्बन्धेन गोमतश्च, बोधः = शाब्दबोधः, नानुपपन्नः । शक्यार्थे गयि चित्राभेदान्वयः लक्ष्यार्थे पुरुषे च गोः स्वनिष्ठस्वत्वनिरूपितस्वामित्वसम्बन्धेनाऽन्य इति शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थान्वयबोधस्याउनुभवप्रसिद्भत्यान्न तनिषेधार्थं 'सकृदुचरिते' त्यादिनियमस्याऽध्वस्यकत्वम् ।
मनु गवि चियाऽभेदान्वयः पुरुषे च गोर्भेदान्यय इति न युज्यते, निपातातिरिक्तनामार्थयोः साक्षाद् भेदान्वयस्याऽव्युत्पन्नत्वादिति चित्रगुरित्यादी शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थन्वयबोधस्य ने प्रामाणिकत्वम्, अन्यथा 'राजा पुरुषः, 'भूतलं घट' इत्यादेरपि प्रसङ्गादित्याशयेन कश्चिच्छते - नामार्थयोः = निपातातिरिक्तप्रातिपदिकायोः, भेदेन = साक्षात् भेदेन, अन्वयः कथम् ? निपातातिरिक्तनामार्धनिष्ठविभक्त्यर्थातिरिक्तभेदसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दबोध प्रति नामपद| निरूपित्तवृत्तिज्ञानजन्योपस्थित विशेष्यतासम्बन्धेन प्रतिबन्धकल्यानैतच्छाब्दबोधो भवितुमर्हतीत्याशयः शङ्काकारस्य ।
RATi-latण से युगपदजेकार्थबोध मान्य - नव्य नैयायिक नापिश. इति । यहाँ यह शंका हो कि >"अनेकार्थवाचक एक पद से एक काल में शक्ति और लक्षणा से अनेकार्थबोध के अनुदय के निर्वाहार्थ 'सकृदुश्चरित...' यह न्याय प्रामाणिक है, अन्यथा शक्ति और लक्षणा के द्वारा एक पद से एक काल में अनेक अर्थ का बोध होने लगेगा" «- तो यह नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि शक्ति और लक्षणा से एक ही काल में अनेक विपय का शाब्द बोध तो हमें अभिमत है । वह इस तरह - 'प्रजयति पद में एक ही जिथातु की शक्ति से जय का और लक्षणा से प्रकृष्ट जय का एक ही काल में बोध होता है . ऐसा हम स्वीकार करते हैं। मतलब कि प्र उपसर्ग का समभिन्याहार होने पर जिधातु के शक्यार्थ जय से अभिन्न प्रकृष्ट जय का, जो जिधातु का लक्ष्यार्थ है, शाब्द बोध होता है । एक ही काल में एक पद के शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ का अन्वयबोध अभिमत होने से ही 'चित्रगु' इत्यादि पद के घटक गोपद के सक्या धेनु और लक्ष्यार्थ स्वामी का एक ही काल में बोध हो सकता है । 'चित्रगु' यह बहुव्रीहिसमास है, जिसका अर्थ है चित्र गाय का स्वामी है। यह बोध तभी उपपन्न होता है जब कि गोपद के शक्यार्थ गो में चित्र का अभेदान्वय एवं चित्र गाय का गोपद के लक्ष्या स्वामी पुरुप में भेदान्वय एक ही काल में माना जाय। अतः एक ही काल में एक ही पद के वाक्यार्थ और लक्ष्यार्थ की पदशक्ति और पदलक्षणा के द्वारा उपस्थिति होनी न्यायसंगत है । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि > "गोपद का शपयार्थ धेनु और लक्ष्यार्थ स्वामी, ये दोनों नामार्थ हैं । यह एक नियम है कि नामार्थ का नामार्थ के साथ भेदान्वय नहीं होता है। अतः धेनु का स्वामित्वसम्बन्ध से, जो कि तादात्म्यसम्बन्ध से भिन्न सम्बन्ध होने से भेदसम्बन्ध है, पुरुप में अन्वय नहीं हो सकता है" - यह अनुचित होने का कारण यह है, कि न्युत्पत्तिविशेष के चल से तादृश अन्वयबोध भी हो सकता है । तात्पर्य यह है कि दो प्रातिपदिकार्थ (= नामार्थ) का साक्षात् भेदसम्बन्ध से अन्वय तब निषिद्ध होता है, जब दो नामार्थ शक्यार्थ हो । मगर जब एक नामार्थ की पदशक्ति से और अन्य नामार्थ की पदलक्षणा से उपस्थिति होती है, तब उन दोनों में भेदसम्बन्ध से भी अन्वय हो सकता है । इस |
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* 'गङ्गायां घोष' इतिशाब्दबोधविमर्शः *
व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । अत एव 'गङ्गायां घोष' इत्यत्र गङ्गातीरत्वेनोपस्थितिर्निराबाधा वस्तुतो 'यद्धर्मविशिष्टे लक्षणाप्रतिसन्धानं तद्धर्मविशिष्टस्यैवोपस्थिति: शाब्दबोधश्व' इति नियमादेव गङ्गापदाद् मङ्गातीरत्वेनोपस्थितिः ।
२९४
ॐ जयलता
तत्र नव्याः समादधति व्युत्पत्तिवैचित्र्यादिति । स्थलविशेषनियन्त्रितव्युत्पत्तिमहिम्न इत्यर्थः, शक्तिलक्षणाभ्यामुपस्थितयोः प्रातिपदिकार्थयोः साक्षाद् भेदेनाऽन्योऽभ्यदुष्ट इति व्युत्पत्तिविशेषादिति यावत् । 'राजा पुरुषः' इत्यादी तयो: साक्षाद् भेदे - नाऽन्वयस्याऽव्युत्पन्नत्वेऽपि प्रकृते तान्त्रिकाणां स्वारसिकानुभवबलादेव तादृशव्युत्पत्तौ सङ्कोच आवश्यक एवेति न शक्तिलक्ष। णाभ्यामुपस्थितयोः क्वचित् प्रातिपदिकार्थयोः साक्षाद् भेदेनान्वयेऽपि दोष इति भावः । अत एवेति । एकपदशक्तिलक्षणाभ्यां भेदेन युगपदनेकप्रातिपदिकार्थान्चयबोधस्य क्वचिददुष्टत्वादेवेति । 'गङ्गायां घोष' इत्यत्र स्थले गङ्गातीरत्वेन धर्मेण गङ्गातीरस्य उपस्थितिः = स्मृतिः निराबाधा = अदुष्टा । अयं भावः 'गङ्गायां घोष' इत्यत्र गङ्गापदस्य शक्त्योपस्थिताया गङ्गाया लक्षणयोपस्थितेन तीरेण साकं भेदेनाऽन्वयोपगमे एव गङ्गातीरत्वेन गङ्गातीरे घोषान्वयः सम्भवति । 'गङ्गायां घोष' इत्यादी सम्भूयैकार्थबोधकत्वज्ञानानुरोधादेव लक्षणास्वीकारात्, अन्यथा 'गङ्गायां जलं तीरे घोष' इति पदद्वयाध्याहारादेवोपपत्ती लक्षणाया अनतिप्रयोजनत्वापत्तेः । अत एव च 'दण्डी चैत्रो द्रव्यं नीलं घटमानये' त्यादौ चैत्रो न दण्डी, घटो न नील' इत्यादिबाधधीकाले 'चैत्रो द्रव्यं घटमानयेत्यादिशाब्दबोधानुदयः सम्भूयो च्चारितत्वेन गृहीतानामेकं विनाऽन्यस्याऽबोधकत्वात् । ततश्चैकपदशक्यलक्ष्ययोः प्रातिपदिकार्थयोः साक्षाद् भेदेनाऽन्योऽदुष्ट इति फलितम् ।
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नन्वपदार्थगंगातीरत्वादेः शाब्दबोधविषयत्वे घटादेरपि तद्विषयत्वापत्तिरिति चेत् ? न, प्रकृतेऽपदार्थत्वस्य पदजन्यप्रतीत्यविषयत्वरूपत्वस्वीकारेण लक्षणया गङ्गापदजन्यस्मृत्यादी गंगातीरत्वस्यापि विषयत्वेन तस्याऽपदार्थत्वाभावादित्याशयेनाह वस्तुत इति । यद्धर्मविशिष्टे वस्तुनि लक्षणाप्रतिसन्धानं = लक्षणाग्रहः तद्धर्मविशिष्टस्यैव उपस्थितिः = स्मृतिः, शाब्दबोवेति नियमादेव नियमाभ्युपगमादेव, गङ्गापदात् लक्षणया गंगातीरत्वेन गङ्गातीरविषयिणी उपस्थितिः = स्मृति: निराबाधा, तादृशशाब्दबोधश्वेति गम्यम् । एतेन वृत्त्या पदजन्योपस्थित्यविषयस्यापि शाब्दबोधे भानोपगमे घटादिपदात् पटादिविषयकशाब्दबोधप्रसङ्गो दुर्निवार इति प्रत्युक्तम् यद्धर्मविशिष्टविशेष्यकशक्यसम्बन्धग्रहः तद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यकमेव पदार्थस्मरणं शाब्दबोधश्वेति नियमोपगमेनैव घटादिपदात् पटादिविषयक शाब्दबोधानापत्तेः । तद्धर्मविशिष्टे लक्षणाग्रहस्य तेन रूपेणोपस्थिति
=
व्युत्पत्ति के बल से 'चित्रगु' समास के घटक गोपद के शक्यार्थ धेनु का गोपदलक्ष्यार्थ स्वामी में भेदसम्बन्ध से = स्वामित्व सम्बन्ध से अन्वय हो सकता है। एक ही काल में शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ का भेदसम्बन्ध से अन्वय होने से ही तो 'गंगायां घोषः ' यहाँ गंगातीरत्वरूप से गंगातीर की उपस्थिति बिना किसी हिचकिचाहट के हो सकती है। आशय यह है कि 'गंगायां घोष:' इस वाक्य का 'गंगा (= विशिष्ट जलप्रवाह ) में गोशाला है' यह अर्थ पदशक्ति से प्राप्त होता है। मगर यह अर्थ बाधित है, क्योंकि जलप्रवाहस्वरूप गंगानदी के ऊपर गोशाला का होना नामुमकिन है । अतः शक्यार्थ जलप्रवाह के संबंधी तट में गंगापद की लक्षणा से 'गंगातट पर गोशाला' है' यह शाब्दबोध होता है, जो अबाधित एवं तात्पर्यानुसारी है । यहाँ गंगातीर की उपस्थिति इस तरह होती है गंगापद की शक्ति से गंगानदी की और लक्षणा से तीर की उपस्थिति होती है । पश्चात् गंगानदी का अम्बय भेदसम्बन्ध ( संयोगसंसर्ग) से तीर में होता है। इस तरह गंगातीर की स्मृति होती है। मगर दो नामार्थ में साक्षात् भेदान्वय सर्वधा निषिद्ध हो, तब तो गंगातीरत्वेन रूपेण गंगातीर की उपस्थिति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों ही प्रातिपदिकार्थ हैं । अतः तादृश बोध की अनुपपत्ति से शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ में साक्षात् भेदसम्बन्ध से अन्वय मानना भी प्रामाणिक है। - यह सिद्ध होता है । इसलिए 'चित्रगु' इस समास में धेनु का स्वस्वामी पुरुष भेदसम्बन्ध से अन्वय होना भी प्रामाणिक है ।
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* शक्यता अवच्छेदक में भी प्रदशक्ति अबाधित
नव्यनैयायिक
वस्तुता इति । वास्तव में तो नियम यह है कि जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु में लक्षणा का ग्रह ( = प्रतिसन्धान ) होता है, उसी धर्म से विशिष्ट वस्तु का स्मरण एवं शाब्दबोध होता है । इस नियम के अनुसार गंगातीरत्व धर्म से विशिष्ट गंगातीर में गंगापद की लक्षणा का प्रतिसन्धान होने से ही गंगातीरस्वरूप धर्म से तट की उपस्थिति और शाब्दबोध सिद्ध हो सकता है । यहाँ यह शंका हो कि “जैसे जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु में लक्षणाग्रह होता है, उसी धर्म से विशिष्ट
में
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२९५ मध्यमस्यानादरहस्ये खण्डः ६ . का. * शक्यतावच्छेदकेऽपि शक्तिसमर्थनम् *
जधैवं शक्यतावच्छेदकेऽपि शक्तिर्न स्यात्, यदधविशिष्टशक्तिग्रहस्तेन रूपेणोपस्थितिः || । शाब्दबोधश्चेति नियमादेव शक्यतावच्छेदकबोधसम्भवादिति चेत् ? न, शक्यतावच्छेदकेऽपि शक्तरबाधादित्याहुः । अा वतते - प्रकरणादीनामननुगतानां नाऽविशेषबोधे शक्त: सहकारित्वं,
= ==* जयलता * शाब्दबोधौ प्रति हेतुत्वादेव लक्ष्यतावच्छेदके तीरत्वादौ गंगापदशक्यप्रवाहसंयुक्तसमवायरूपलक्षणा न स्वीक्रियते, तीरत्ववृत्नितादृशसमवायस्य प्रयोजनविरहेण ससाणत्वानुपगमादिनि भारः ।
ननु यद्भर्मविशिष्टे लक्षणाप्रतिसन्धानं तद्धर्मविशिष्टस्यैवोपस्थितिः शाब्दबोधश्चेति नियमवत् यद्धर्मविशिष्टे शक्तिग्रहः तद्धर्मविशिष्टस्यैवोपस्थितिः शाब्दबोधश्चेति नियमस्याऽप्यनिराकार्यत्वेन वटत्वादौ शक्यत्वावच्छेदके घटादिपदशक्तिस्वीकारोऽप्रामाणिकः स्यात, घटत्वादेररि घटपदजन्यप्रतीतिविषयत्वात, अवच्छेदकतासम्बन्धेन घटपदनिरूपितशक्तिमत्त्वाच तस्यापि घटादिपदार्थत्वेन तादृशशाब्दबोधविषयत्वसम्भवादित्याशङ्कां निराकर्तुमाह- न चेति । इति चेदित्यनेनास्याऽन्वयः । एवं = वृत्तिज्ञान-स्मरणशाब्दबोधानां समानप्रकारकत्वेन कार्यकारणभावस्वीकारे, शक्यतावच्छेदकेऽपि, अपिशब्देन लक्ष्यतावच्छेदकसमुच्चयः, शक्तिः = पदमुख्यवृत्तिः, न स्यात् = न सम्भवेत् । अत्र हेतुमाह- यद्धर्मविशिष्टशक्तिग्रहः = घटत्वादिलक्षणयद्धर्मावच्छित्रे शक्तिप्रतिसन्धानं, तेन रूपेण = घटत्वादिरूपेण, वटादेः उपस्थितिः = स्मृतिः शान्दबोधवेति नियमादेव घटत्वादिप्रकारकस्मरणशाब्दबोधोदयेन शक्यतावच्छेदकबोधसम्भवात् = घटत्वादिशाब्दबोधाऽवश्यंभावात्, विशेषणज्ञानमृते विशिष्टबोधाऽसम्भवात् ।
नन्यः तन्निराकरोति-नेति । प्रदर्शितशङ्काऽपाकरण हेतुमाह - शक्यतावच्छेदकेऽपि - घटत्वादावपि, शक्तेः = घटादिपदशक्तेः, स्वविषयत्वसम्बन्धेन अबाधात् = अव्याहतत्वादिति, अन्यथा यबृत्तित्वेन वृत्तिग्रहः तद्वृत्तित्वेनोपस्थितिशाब्दबोधी भवत इति नियमस्यापि सुवचत्वाद् घटादाबपि शक्तिर्न स्यात् । किञ्च, शक्यतावच्छेदके शक्त्यस्वीकारे पृथिवीपदात् कदाचिदष्टद्रव्याऽतिरिक्तद्रव्यत्वेन, कदाचित् गन्धवत्त्वेन कदाचित्पृथिवीत्वेन च शाब्दबोध आपद्येत । पृथिवी पृथिवीपदाक्ये तिवत् अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यं गन्धबद्वा पृथिवीपदशक्यमित्याकारकस्य शक्तिज्ञानस्य सम्भवात् तीरं गङ्गातीर वा प्रवाहसंयोगवदिति लक्षणाग्रहेण शक्तिग्रहस्य तुल्ययोगक्षेमत्वात् । तथा च लक्षणया यत्किञ्चिदेकधर्मावच्छिन्नविषयक एव शाब्दबोध इति यथा न नियमस्तथा शक्यार्थविषयकशाब्दबोधेऽपि नियमो न स्यात् । दशक्यतावच्छेदके शक्तिस्वीकारे तु पृथिवीपदात्पृथिवीत्वेनैव शाब्दबोध इति नियम उपपद्यते । पृथिवीपदस्य पृथिवीत्वपृधिव्योरेव शक्ततया शक्त्या शक्यार्थस्यैव शाब्दबोधे भानमिति नियमेन च तदुपपादनसम्भवात् । इत्थमेव 'शाब्दी ह्याकाङ्क्षा शब्देनैव प्रपूर्यते' इत्यस्यापि नियमस्योपपत्तिरिति नव्यनैयायिकाशयः ।।
प्रधमविकल्पमङ्गीकृत्य नव्यमतं पराकर्तुं परिशीलितं पन्धानमाविष्कुर्वन्ति- अत्र वदन्तीति । यत्तावदुक्तं 'नानार्थकपदस्य प्रकरणादिना यत्र शक्तिर्नियम्यते तस्यैव बोधनियमेन नानार्थकपदानानार्थानां युगपदबोधनिर्वाहादि ति (पृ.२९२) तन्निराकुर्वन्तिप्रकरणादीनामिति । अननुगतानामिति । विशेषणमुखेनाऽयं हेतु निर्देशः । नेत्यस्य व्यवहितान्वयः । प्रयोगश्चात्रैवम् - प्रकरणा
वस्तु की उपस्थिति (= स्मरण) और शान्दवोध होता है, इस नियम का प्रदर्शन किया जाता है; ठीक वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि - "जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु में पदाक्ति का ग्रह होता है उसी धर्म से विशिष्ट का पद से स्मरण एवं शान्दबोध होता है, यह नियम है। इसका अंगीकार करने पर तो शक्यतावच्छेदक धर्म में भी पदशक्ति न हो सकेगी, क्योंकि शक्यतावच्छेदकधर्मविशिष्ट में शक्तिग्रह होने से शक्यतावच्छेदक से विशिष्ट का शान्द बोध होगा, जिसके विशेषणरूप से शक्यतावच्छेदक का भी भान अनायास ही हो जायेगा, क्योंकि विशेषण के ज्ञान के बिना विशेप्य का भान नहीं होता है । इस तरह शक्यतावच्छेदक में शक्ति का स्वीकार न करने पर भी उसका भान हो सकता है, तब क्यों उसमें पदशक्ति की कल्पना का गौरव किया जाय ?" -तो इसका समाधान यह है कि पदजन्यप्रतीति का विषय होने की वजह शक्यतावच्छेदक में भी शक्ति अबाधित है। जिस पद से जिस अर्थ का अवश्य भान होता हो, उस अर्थ में उस पद की शक्ति का होना आवश्यक है, अन्यथा शक्ति का नियमन ही दर्घट हो जायेगा । घटपद से घटत्वविशिष्ट का भान होता है। अतः घटत्व और उसके आश्रय यट में घटपद की शक्ति का होना जरूरी है। अतः शक्य की भाँति शक्यतावच्छेदक में भी स्वविपयत्वसंबन्ध से शक्ति अवश्य रहती है . यह सिद्ध होता है। निष्कर्ष :- 'सकुश्चरित...' न्याय अप्रामाणिक है।
* 'मकृदुचरित...' न्याय प्रामाणिक है - स्यादादी * उत्तरपक्ष :- अत्र वद. इति । नव्य नैयायिक के उपदर्शित वक्तव्य की समालोचना करते हुए श्रीमद्जी कहते हैं कि
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र प्रकरणादीनां न शक्तिसहकारिता* तात्पर्यग्राहकत्वेन तदनुगमे त लाघवातात्पर्यग्रहत्वेनैव तत्सहकारित्वकल्पनमुचितमिति एकदोभयतात्पर्यग्रहे एकपदादेकदोभयबोधाऽस्वारस्यनिर्वाहाय 'सकृदुच्चरिते'त्यादिनियमो युक्त
=== * जयलता * दयः प्रतिनियतार्थविषयकशाब्दबोधं प्रति न शक्तिसहकारिणः, अननुगतत्वात् । अनुगतत्वविरहेऽपि तृणारणिमणिन्यायेन तत्सहकारित्वो-पगमे कार्यकारणभावे महगौरवप्रसङ्गात् ।
ननु प्रकरणसंयोगविभागादीनां प्रकरणत्व-संयोगत्व-विभागत्वादिरूपेणाऽननुगतत्वेऽपि तात्पर्यग्राहकत्वेनाऽनुगतत्वसम्भवेन
कन्यभिचारविरहात् नाऽर्थविशेषबोधे शक्तिसहकारित्वाऽसम्भव इति पराऽऽशकायामाह- तात्पर्यग्राहकत्वेनेति । एतत्पदादेतदर्धविषयकः शाब्दबोधो भवत्वित्याद्याकारकप्रयोक्तृ निष्ठेच्छाग्रहजनकत्वेनेति । तउनुगमे = प्रकरणादीनामशेषाणां सङ्ग्रहे । तुः विशेषे, तदुक्तं हलायुधकोशे 'तु स्या देऽवधारणे (हला, ५/८८१) इति । यद्यपि तात्पर्यज्ञानजनकत्वस्य व्यक्तिभेदेन | मिन्नतया इदमपि न सानुगतं तथापि जनकतासम्बन्धन तात्पर्यज्ञानत्वावच्छिन्नवत्त्वं सानुगत प्रसिद्धमित्याहायन तथोक्तमिति ज्ञेयम् । लाघवादिति । तात्पर्यज्ञानजनकत्वरूपगुरुधर्मेण प्रकरणादीनां चहूनां कारणत्वाऽपेक्षया तात्पर्यज्ञानत्वरूपलघुधर्मेण एकस्य कारणत्वे लाघवादित्यर्थः । तात्पर्यग्रहत्वेनैवेति । एवकारेण तात्पर्यज्ञानजनकल्वस्थ, जनकतासम्बन्धेन तात्पर्यज्ञानत्वावच्छिन्नवत्त्वस्य वा व्यवच्छेदः कृतः । तत्सहकारित्वकल्पनं = प्रतिनियतार्थबोधे शक्तेः सहकारित्वमिति कल्पनं उचितम् । इति = उक्तलाघवबलेन शाब्दबोधत्वावच्छिन्नं प्रति तात्पर्यग्रहत्वावच्छिन्नस्य हेतुत्वसिद्धी, एकदा = युगपत्, उभयतात्पर्यग्रहे नानाधर्मावच्छिन्नविषयकतात्पर्यज्ञाने सति, एकपदात् 'श्वेत आदिलक्षणात्, एकदा = समकालं, उभयबोधाऽस्वारस्यनिर्वाहाय 'सकदचरिते'त्यादिनियमो युक्त इति । 'श्वेतो धावती'त्यादावेकदा श्वेतवर्णो धावति. श्वा = कुकर इतो धावती'
- नव्य नैयायिक का उक्त कथन असंगत है। इसका कारण यह है कि नानार्थवाचक एक पद से एक काल में अनेक अर्थ के बोध के अनुदय के निर्वाह के लिए प्रदर्शित न्याय का आश्रयण करना आवश्यक ही है । नव्य नैयायिक मनीषियों ने जो कहा था कि → 'प्रकरणादि से ही नानार्थक पद की शक्ति का अर्थविशेप में नियमन मुमकिन होने से उसके लिए || 'सकृदुश्चरित... न्याय का आलंबन करना नामुनासिर है' - वह युक्त नहीं है, क्योंकि प्रकरण आदि अननुगत होने से अर्थविशेपविषयक शान्द दोष के प्रति पदशक्तिसहकारिकारणता प्रकरणादि में संभवित नहीं है। मतलब यह है कि अनेकार्थक पद की अर्थविशेषनिष्ट शक्ति का नियमन कभी प्रकरण से, तो कभी संयोग से, तो कभी विभाग से, तो कभी आभिमुख्य
आदि से होता है । प्रकरण, संयोग, विभाग, आभिमुख्य आदि में कोई अनुगत धर्म नहीं है, जिसकी अपेक्षा प्रकरणादि में प्रतिनियतार्थविषयक शान्दबोध के प्रति अनेकार्थकपदशक्ति का नियमन हो सकेगा। प्रकरण आदि अननुगत होने से तादृशशक्तिनियमनस्वरूप कार्य में व्यतिरेकव्यभिचार प्रसक्त होता है। अतः तादृशशक्तिनियमनार्थ 'सकदुचरित...' न्याय का आश्रयण संगत ही है।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "नानार्थक पद की अर्थविशेषनिष्ट शक्ति का नियमन प्रकरण, संयोग, विभाग, आभिमुख्य आदि में तात्पर्यग्राहकत्वस्वरूप अनुगत धर्म से मुमकिन होने से तदर्थ 'सकृदचरित...' न्याय का आश्रय करना असंगत है। आशय यह है कि प्रकरण, संयोग, विभाग आदि में प्रकरणत्व, संयोगत्व, विभागत्व आदि धर्म अननुगत होने पर भी तात्पर्यग्रहजनकत्वस्वरूप धर्म अनुगत है, क्योंकि वे सभी वक्ता के अभिप्राय का ज्ञान करा के ही अर्थविशेष में नानार्थक पद की शक्ति का नियमन कराते हैं । 'सैन्धवमानय' इत्यादि स्थल में भोजनप्रकरण 'लवणविषयक शाब्दबोध कराने के अभिप्राय से सैन्धव पद यहाँ प्रयुक्त है ऐसा तात्पर्यग्रह उत्पन्न करता है । 'घटमपनय' यहाँ संयोग ही घटपद की समीपस्थ यट में शक्ति का, 'घटपद से समीपवर्ती घट का श्रोता को शेष हो, इस अभिप्राय से वक्ता ने घटपद का प्रयोग किया है', ऐसा तात्पर्यज्ञान (= बक्ता की इच्छा का ज्ञान) उत्पन्न कर के नियमन करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकरण, संयोग आदि तात्पर्यग्रहजनक हैं। अतः तात्पर्यग्राहकत्वरूप धर्म उन सब में अनुगत है। तात्पर्यग्राहकत्वलक्षण अनुगत धर्म से ही प्रकरणादि नानार्थक पद की शक्ति का अर्थविशेष में नियमन कर के अर्थविशेषविषयक शाब्दबोध के प्रति पदशक्ति के सहकारी हो सकते हैं। अतः तदर्थ 'सकदचरित...' न्याय का अवलंबन लेना निरर्थक है।" --
तात्पर्य ग्रह को सक्तिसहकाटी माजजे में लायत - स्याद्वादी इस ताता. इति । मगर यह शंका ठीक नहीं होने का कारण यह है कि प्रकरण, संयोग, विभाग आदि को तात्पर्यग्राहक मान कर अर्थविशेपविषयक शाब्द बोध के प्रति नानार्थक पद की शक्ति के सहकारी मानने की अपेक्षा लायव सहकार से तात्पर्यज्ञान को ही उसका सहकारी कारण मानना उचित है। प्रकरणादि को तात्पर्यग्राहकत्वेन = तात्पर्यज्ञानजनकत्व धर्म
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२९७ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * अष्टसहस्रीकारमतनिकन्दनम् * | इति । एकपदमेकया वृत्त्या एकमेवाऽर्थ बोधयतीति 'सकृदुच्चरिते'त्याद्यर्थ इति तु न युक्तम्, 'सर्वे सर्वार्थवाचका' इत्यभ्युपगमेनैकया शक्त्याऽप्येकपदस्याऽनेकार्थबोधकत्वात् ।
____* जयलता * । त्युभयतात्पर्यग्रहे सति 'श्वेतवर्णः कुकुर इतो धावती'त्युभयविषयकशाब्दबोधस्य युगपदनुदयनिर्वाह. प्रदर्शितनियमस्याऽऽवश्यकत्वम्, अन्यथा हरिपदादुपस्थितयोः सिंहकृष्णयोराधाराधेयभावसम्बन्धेनाऽन्वयबोधप्रसङ्गादिति । एतेन वेदाऽपौरुषेयकल्पनाऽपि प्रत्युक्ता, तात्पर्यज्ञानस्याऽन्चयव्यतिरेकाभ्यां शाब्दबोधहेतुत्वनिश्चयादिति तात्पर्यम् ।
विद्यानन्दमतमपाकर्तुमुपदर्शयति - एकपदमिति । एकया वृत्त्या = शक्त्या एकमेवार्थं बोधयति = शाब्दबोधविषयीकरोति, इति = एवंप्रकारः, 'सकृदुचरिते त्याद्यर्थः = 'सकृदुचरितं पदं सकृदेवाऽर्थं गमयती ति न्यायाधः, इति मतं तु न युक्तम् । तदुक्तमष्ट सहस्त्रां -> 'शब्दशक्तिस्वाभाव्यात्, सर्वस्य पदल्यैकपदार्थविषयत्वप्रसिद्धेः, सदिति पदस्याऽसदविषयत्वात्, असदिति पदस्य च सदविषयत्वादिति' - (अ.स.पृ.१९७/१)। एतदनुवादरूपेण तद्विवरणे प्रकृतप्रकरणकृद्भिरपि 'एकं पदमेकया वृत्त्या एकमेवार्थं बोधयतीति स्वभावकल्पनादिति' (अ.स.वि.पृ. २०१/१) विवृतम् । एतन्मतायुक्तत्वमाविष्करोति - 'सर्वे सर्वार्थवाचकाः, सति तात्पर्य इति शेपः । इत्यभ्युपगमेन = इतिनियमाऽङ्गीकारेण, एकया एव शक्त्या = पदशक्त्या, अपि एकपदस्य अनेकार्थबोधकत्वात् = नानाविषयविषयकशाब्दबोधजनकत्वात् । 'सति तात्पर्ये सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः' इतिन्यायेन प्रतिशब्दं सर्वार्थनितारनशक्तियोगताना ले। अब एक प्रत्येकः शब्दः सर्वदा एकौन शक्त्या नानार्थबोधजनको न तु भिन्नशक्त्येति सिद्रेः एकं पदं एकया शक्त्या एकमेवाऽर्थं बोधयतीति वक्तुं न पार्यते किन्तु यधासङ्केतमनेकानर्थानपीति भावः ।
से सहकारी कारण मानने पर कारणताअवच्छेदक तात्पर्यज्ञानजनकत्व धर्म होगा । जब कि तात्पर्यज्ञान को ही सहकारी कारण मानने पर तात्पर्यज्ञानत्व कारणताअवच्छेदक धर्म होगा । अतः प्रकरण आदि की अपेक्षा तात्पर्यज्ञान को पदशक्ति का सहकारी मानने में कारणतावच्छेदक धर्म में लाघव है। इस तरह तात्पर्यज्ञान को ही पदशक्ति का सहकारी मानना आवश्यक है, तर एक काल में उभय वस्तुविषयक एक पद का तात्पर्य होने पर एक पद से एक काल में उभयविपयक झाब्द बोध प्रसक्त होता है, जिसका निवारण करने के लिए यानी उसके अप्रामाण्य का निर्वाह करने के लिए 'सकदचरित...' न्याय को मान्यता प्रदान करना आवश्यक है। जैसे, 'वेतो धावति' इस वाक्य के घटक 'श्वेतो' पद 'श्वेतवर्णविशिष्ट का एवं श्वा = कुकुर, इतः = यहाँ से ऐसा उभयविषयक बोध के तात्पर्य से प्रयुक्त है . ऐसा उभयविषयक नात्पर्य का ज्ञान होने पर 'श्वेतवर्णविशिष्ट कुकुकुर (कुत्ता) यहाँ से दौडता है। ऐसे शाब्द बोध की अस्वाभाविकता - अप्रामाण्य के लिए 'सकृदुहरित...' न्याय आवश्यक है, जो 'एक पद एक काल में वाक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूत सम्बन्ध से अवच्छिन एकधर्मनिष्ठ प्रकारता से निरूपित रिशेप्यता के अवगाही शान्द बोध का जनक है' इस नियम का विधान करता है। अब श्वेतत्व और कुकुरत्व, इन दो धर्म से निरूपित विशेष्यता के अवगाही तादृश शाब्द बोध की अप्रामाणिकता सिद्ध हो सकती है । अतः 'सदचरितं पदं सकृदेवाऽर्थ गमयति' यह न्याय प्रामाणिक है . यह निर्विवाद सिद्ध होता है।
'सर्वे सार्थिवाचकाः' प्रवाद का स्यादाद में स्वीकार एकप. इति । अन्य विद्वान् मनीषिओं की यह मान्यता है कि -> 'सकदचरित...' इस न्याय का फलितार्थ यह है कि एक पद एक शक्ति से एक ही अर्थ का बोध करता है, न कि अनेक अर्थ का' - मगर यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि 'सर्वे शब्दाः सर्वार्धवाचकाः सति तात्पर्य' यह न्याय स्थाद्वादमत में स्वीकृत है । मतलब कि प्रत्येक पद सभी अर्थ का बोध कराता है। इससे यह सिद्ध होता है कि एक पद एक शक्ति से भी अनेक अर्थ का बोध करा सकता है। जैसे चौर शब्द से गुजरात में चोरी करने वाले का बोध होना है, मगर उसीसे दक्षिणदेश में (कालविशेप की अपेक्षा) पके चावल का बोध होता है। अभी तामिलनाडु में सोरहाब्द पश्य चावल का बोध कराता है। मालूम होता है कि चीरशब्द का तामिल भाषा में अपभ्रंश होकर सोर शब्द बना हो । हिन्दी भाषा में भी यह प्रसिद्ध है। जैसे 'और आगे बढो', राम
और सीता' इत्यादि स्थल में और शब्द से क्रमशः 'अधिक' एवं 'समुच्चय'. इन दो अर्थ का बोध होता है । एक ही शब्द एक शक्ति से अनेक अर्थ का शान्द बोध कराता है - इस विषय में अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। इसलिए 'एक शब्द एक शक्ति से एक ही अर्थ का बोध कराता है - ऐसा मानना असंगत है । हाँ, एक शक्ति से एक पद एक काल में अनेक अर्थ का बोध नहीं करा सकता है । इसीलिए तो 'सकृदुश्चरित...' न्याय का आश्रय करना जरूरी है।
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* शक्तेरवश्यकल्पनीयत्वम् * न चैवं लक्षणाधुच्छेदः; नियन्त्रितसङ्केताऽसम्भवे तदवकाशात् । न च घटत्व-पटत्वादिना शक्तिकल्पने गौरवम् प्रमेयत्वेनैव तत्कल्पमात, तत्तदधर्मण बोधस्य सङ्केतविशेषनियम्यत्वात् ।
* जयलता - नन्चेकया वृत्त्यैकपदस्याऽनेकार्थबोधकत्ये तु गतं लक्षणया; पदशक्त्या एवाभिमतार्थबोधसिद्धेरिति शङ्कामपनोदयितुमाह- न चेति । एवं = एकया शक्त्याऽप्येकपदस्याऽनेकार्थबोधकत्वसम्भवे । लक्षणाद्यच्छेदः इति | आदिशब्देन व्यञ्जनापरिग्रहः । तदनुच्छेदे हेतुमाह- नियन्त्रितसकेताऽसम्भव = कोशादिनियमितसङ्केतविरहे, तदवकाशात् = लक्षणाद्यात्मलाभसम्भवात् । यथा गङ्गापदस्य जलप्रवाहविशेषे को शादिना सङ्केते कृते ततः तत्तीरे सङ्केताऽसम्भवे गङ्गाधदस्य गङ्गातीरे लक्षणा तात्पर्यानुपपत्त्यादितः सम्भवति ।
नन्वेकपदस्यकया शक्त्या नानार्थबोधकत्वे घटत्ववत् पटत्व -कटत्वादावपि बटपदशक्यतावच्छेदकत्वकल्पनागौरवमतिरिव्ये - तेति शङ्कामपहस्तयितुमाह- न चेति । घटत्व-पटत्वादिना शक्तिकल्पने = घटत्व-पटत्वाद्यवच्छिन्नाया घटपदशक्त्याः कल्पने, गौरवं = शक्यतावच्छेदकत्वगौरवम् । तदपोहे हेतुमाह - प्रमेयत्वेनैवेति । एवकारेण प्रमेयत्वव्याप्यघटत्व-पटत्वादेयवच्छेदः कृतः । तत्कल्पनात् = घटपदशक्तिकल्पनात् । प्रमेयत्वस्यैव प्रत्येकपदशक्यतावच्छेदकत्वे तु घटपदात् घटत्ववत् पटत्वादिनाऽपि शाब्दबोधस्य दुर्निवारत्वम्, प्रमेयत्वत्र्याप्यत्वाऽविशेषादित्याशङ्कायामाह- तत्तद्धर्मेण बोधस्य = प्रातिस्विकधर्मावच्छिन्नप्रकारताकशान्दबोधस्य, सङ्केतविशेषनियम्यत्वात् = तत्तत्सङ्केतनियन्त्रितत्वात् । एतेनेकशब्दस्याइनेकार्थप्रतिपादने शक्तिसद्भावे एकस्मादपि || पदात् समसमयं नानार्थप्रतीतिप्रसक्तेः प्रतिनियते वस्तुनि प्रवृत्तिन प्राप्नोतीति प्रत्याख्यातम, शब्दस्याग्नेकार्धप्रतिपादने नैसर्गिकशक्तिसद्भावेऽपि प्रतिनियतसङ्केतसामर्थ्यात् प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वोपपत्तेः । अनुभूयते हि एकस्यापि पदस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतः सङ्केतः । यधा गूर्जरादौ चौरशब्दस्य तस्कर द्रविडादौ पुनरोदन इति । दृश्यते च सर्वत्र रूपप्रकाशने योग्य - स्याऽपि चक्षुषः प्रत्यासन्नतिमिरवशादसन्निहिते दूरतिमिरसामर्थ्याच्च सन्निहिते रूपे विशिष्टाऽअनादिवशादन्धकारान्तरितेऽपि काचकामलादिदूषणबलाच्च विवक्षितरूपाऽभावेऽपि ज्ञानजनकत्वम् । ततो यथाऽनेकरूपप्रकाशनयोग्यस्यापि चक्षुषो दूरतिमिरादिप्रतिनियतसन्निहितरूपादिविज्ञानजनकत्वं तधाइनेकार्थप्रतिपादनयोग्यस्याऽपि झाब्दस्य प्रतिनियतपदार्थप्रतिपादकत्वं सङ्केतसा
Kाणा का अवकाश - स्याद्धादी न च ल. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "एक ही शब्द में अनेक अर्थ का प्रतिपादन करने वाली शक्ति मानने पर तो लक्षणादि का उन्नछेद ही हो जायेगा । वह इस तरह 'गंगायां घोपः' यहाँ गंगापद में जैसे जलप्रवाहविशेष की प्रतिपादक शक्ति है, ठीक वैसे ही गंगानदीतट की बोधक शक्ति भी रहती है - ऐसा मानने पर तो गंगातट भी गंगापद का शक्यार्थ बन जायेगा । इस तरह गंगापद से गंगातट का बोध गंगापद की शक्ति से ही हो जाता है तब तो लक्षणा का आश्रय करना जरूरी नहीं है । लक्षणा का अवकाश तब हो सकता है जब कि शक्यार्थ का अवलंबन करने पर अन्वय की या तात्पर्य की अनुपपत्ति हो । मगर एक शब्द में सर्वार्थप्रतिपादक शक्ति मानने पर तो लक्षणा के बिना भी वक्ता के अभिमत अर्थ का पदशक्ति से बोध हो सकता है । अतः 'सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः' इस न्याय को मान्यता देने पर तो लक्षणा का उच्छेद ही हो जायेगा" - मगर इसका समाधान यह है कि प्रत्येक पद में सर्वार्थप्रतिपादक शक्ति होने पर भी श्रोता विवक्षित पद में जिस संकेत का ग्रहण करेगा उसी अर्थ का पदशक्ति से बांध होता है। जब विवक्षित शब्द में कोशादि से नियन्त्रित संकेत का असंभव होता है, तब लक्षणा का भी अवकाश है। जैसे 'मंगायां घोपः' यहाँ गंगापद का संकेत, जो कोशादि से नियन्त्रित है, जलप्रवाहतर में असंभव है। अतएव गंगापद की गंगातट में लक्षणा का अवकाश है। यहाँ यह शंका हो कि -> "एक पद की शक्ति सब अर्थ में मानने पर तो शक्यतारच्छेदक धर्म में गौरव होगा । वह इस तरह . घटपट की शक्ति घट, पट आदि अनेक अर्थ में मानने पर शक्यतावच्छेदक घटत्व, पटत्व आदि अनेक धर्म बनेंगे, न कि केवल घटत्व । अतः अनेक धर्म में शक्यतावच्छेदकता की कल्पना का गौरव होमा" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि घटपद की शक्ति सब अर्थ में रहने पर भी घटपदशक्यतावच्छेदकता तो प्रमेयत्वावच्छेदेन ही मानी गई है। प्रमेयत्वावच्छेदेन घटपद की शक्ति मानने पर भी घटपटजन्य शाब्दबोध प्रमेयत्वरूप से अवच्छिन्न प्रकारता का अवगाहन नहीं करता है, किन्तु संचविशेष से नियन्त्रित धर्म विशेष से अवच्छित्र प्रकारता का ही अवगाइन करता है। अतएव प्रवृत्ति आदि की अनुपपत्ति को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि संकेतविशेप की वजह नियतरूप से अर्थ विशेष का
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२९९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * स्याद्वादरत्नाकरसंवादः * | न चैवं शक्तिरन्तर्गडुरिति वाच्यम्, वाच्यवाचकभावप्रतिनियमाय तत्कल्पनमित्याधाकरे स्पष्टत्वात् ।
न च शब्दत्वेनेवाऽस्तु वाचकता प्रमेयत्वेन च वाध्यता, तथापि शब्दादेवाऽर्थबोधोऽर्थात्तु || न (तत्) कुत: ? इति पर्यनुयोगस्य वाच्यवाचकभावप्रतिनियामकशक्त्यनभ्युपगमे दुरुन्दर- |
-. --. ... . * ायलता .. -----..--....चिव्यात्सम्भवत्येव ।
ननु शक्तिरूपस्वाभाविक शब्दसम्बन्ध कल्पयित्वाप प्रातिस्थिकनमंत्रकारकप्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्त्या तव्यञ्जकस्य सङ्केत - स्याऽवश्याऽऽश्रयणीयत्वे तु कृतं सर्वार्थगोचरप्रत्यकशब्दशक्तिकल्पनया, सङ्केतेनैव तदपक्षयात् । तत्परिकल्पने वा न कस्यचित्सङ्केतापेक्षा स्यात्, तन्मात्रेणैव शब्दस्याऽर्थप्रकाशकत्वोपपनेः । न चैवमस्ति; सङ्केतमपास्य विपश्चितोऽपि शब्दादर्थप्रतीतेरनुपपत्तेः । किञ्च क्वचिद्देशविशेष कश्चिच्छब्दो देशान्तरप्रसिद्धमर्थमुत्सृज्य ततोऽर्थान्तरे प्रयुज्यते, यथा कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः कर्कट्यादयः शब्दाश्च देशविशेष योन्यादिवाचकाः । यथेच्छं च शब्दः पुत्रादिषु नियुज्यते । स्वाभाविकसम्बन्धसद्भावे त्वेककार्थनियतत्वमेव सर्वदा वा सर्वार्थवाचकत्वं प्रसज्यतेति शक्तिकल्पनमनतिप्रयोजनमित्याशङ्कामपनोदयितुमुपदर्शयति - न चेति । वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्ययः । एवं = सङ्केतकल्पनायाः अवश्यक्लुप्तत्त्वे, शक्तिः = सर्वार्धगोचरस्वाभाविकशब्दसम्बन्धः अन्तर्गडुः = निरर्थिका, सङ्केत्तेनैवाऽर्थसिद्धेः ।
दर्शितशङ्काया अश्रद्धेयत्वमाबिष्करोति - वाच्यवाचकभावप्रतिनियमायेति । अर्थस्य वाच्यत्वमेव, शब्दस्तु तद्वाचक एवेतिनियमायेति । तत्कल्पनं = स्वाभाविकशक्तिकल्पनम् । आकरे = स्याद्वादरत्नाकरे । तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरे 'सङ्केतबलादेव तत्र तदुपपत्तेरिति, तदसत्, सङ्केतो हि पुरुषाधीनवृत्तिः । न च पुरुषेच्छया वस्तुनियमोऽवकलप्यते, अन्यथा तदिच्छाया अन्याहतप्रसरत्वादर्थोऽपि किमिति वाचको न भवति शब्दश्च वाच्य; ? सुकरमेव हीदं वक्तुमस्य शब्दस्याऽयमों वाचकोऽस्य चाऽर्थस्याऽयं शब्दो वाच्य इति । न चैवमस्ति । किश्चेच्या वस्तुनियमेऽनिच्छतः पुरुषस्य न धूमादपि बढेः प्रतीतिः स्यात्, । इच्छतस्तु जलस्यापि ततः सा स्यात् । तत्र यथा धूमाग्न्योः नैसर्गिक वाऽविनाभावो नाम सम्बन्धः तत्प्रतिपत्तये चोपलम्भादिक निमित्तमाश्रीयते । एवं सांसिद्धिक एव शब्दार्थयोः शक्त्यात्मा सम्बन्धः, तत्यतीतये सङ्केतसमाश्रयणम् । 'शक्त्यभावेऽपि शब्दस्यैव वाचकत्वे योग्यत्वान्न वाच्यवाचकभावनयत्यमिति चेत् ? तर्हि किमिति कलहायसे ? भवताऽपि योग्यत्वशब्देन शक्तेरेव स्वीकारात्' (स्या रत्ना. ४/११) इति ।
परकीयशङ्कामपाकर्तुमुपदर्शयति - न चेति । तां निराकरोति - तथापीति । विभावितार्थमेवेति न पुनः तन्यते । एतद्विस्तरस्तु बुभुत्सुभिः 'स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्द इनि' (प्र.न.त.४/११) इति प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रन्याख्याने स्याद्रादरत्नाकरे रत्नाकरावतारिकायाञ्च ज्ञातव्यः ।
बोध हो सकता है । यहाँ यह शंका भी नहीं करनी चाहिए कि -> "नियत अर्थ में नियन्त्रित संकेतविशेष से अर्थविशेष के बोध की कल्पना करने पर प्रत्येक पद में सर्वार्थविषयक शक्ति की कल्पना निरर्थक बन जायेगी । आशय यह है कि प्रत्येक पद में सर्वार्य विषयक शक्ति मानने पर भी अर्थविशेषविषयक शाब्दबोध की उपपत्ति के लिए संकेतविशेष की कल्पना आवश्यक ही है । तब तो अच्छा यही है कि प्रवृत्ति निवृत्ति आदि व्यवहार के जनक अर्थविशेषविषयक शाब्दबोध के नियामक संकेतविशेष की ही कल्पना की जाय । शक्ति की कल्पना अनावश्यक है।" - यह शंका अनुचित होने का कारण यह है कि शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचकभाव का नियमन शक्ति के बिना अनुपपन है। शब्द में वाचकता है और अर्थ में वाच्यता है . यह तभी संगत हो सकता है, यदि शब्द में अर्थप्रतिपादक स्वाभाविक शक्ति का अंगीकार किया जाय । यह विषय स्याद्वादरत्नाकर ग्रन्थ में स्पष्टरूप से विवेचित है। यद्यपि शक्ति का, जो शब्दनिष्ठ है, अंगीकार किये बिना भी शब्दत्वाचच्छेदेन वाचकता और प्रमेयत्वावच्छेदेन वाच्यता का अंगीकार हो सकता है, तथापि शब्द से ही अर्थबोध क्यों होता है, अर्थ से शाब्द बोथ क्यों नहीं ? इस समस्या का समाधान शन्द में शक्ति की, जो वाच्य चारकभाव की नियामक है, कल्पना के चिना मिलना मुश्किल है। शब्द में अर्थप्रतिपादक स्वाभाविक योग्यता = शक्ति का स्वीकार करने पर ही यह कहा जा सकता है कि वाद ही अर्थरोधक है, क्योंकि उसीमें अर्थप्रतिपादक शक्ति रहती है । अर्थ में तादृश स्वाभाविक योग्यता न होने की वजह उससे अर्थबोध नहीं होता है । सकलादेश में कालादि आठ की अपेक्षा अभेदप्राधान्य का पूर्व में निरूपण
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*तमोबादाऽऽरम्भः * || त्वात् । कालाष्टकस्वरूप श्रीपूज्यलेखादवसेयम् । अधिकताः त्वत्रत्याः मत्कृत सात|| माहीतराणीतोऽवसेयाः ।।
भवतु कदाचिदन्यस्य वस्तुनो नित्यानित्यत्वं, प्रदीपादेस्तु सर्वथाऽनित्यत्वमेवोचितमिति चेत् ? न, प्रदीपादिपुद्गलानामेव तमस्त्वेन परिणमनाद, द्रव्यार्थतया ध्रुवत्वात् । थैवं तमसो द्रव्यत्वं स्यादिति चेत् ? स्थादेव । 'स्थादेव तथापि परमतप्रवेश:, तमस
- -* जयलता* कालाद्यष्टकस्वरूपञ्चेति । अस्माभिः रत्नाकरवचनोल्लेखादत्रोपदर्शितमेव । श्रीपूज्यलेखादिति । नाऽयं साम्प्रतमुपलभ्यते । अधिकतर्काः तु अत्रत्याः सप्तभङ्गीगोचराः मत्कृतसप्तभङ्गीतरङ्गिणीत इति । प्रकृतप्रकरणकृद्विनिर्मितयं प्रकरणमञ्जूषाऽपि साम्प्रतं न दृग्गोचरीभवति, सप्तभङ्गीनयप्रदीपाभिधानः तत्कृतः संक्षिप्तः ग्रन्थस्तूपलभ्यत एव । एतद्विस्तरार्थिभिरधुनाऽष्टसहस्रीविवरण-स्याद्वादकल्पलता-नयोपदेशाऽनेकान्तव्यवस्थादयो निभालनीया निपुणतरम् ।
___ उपनिषदनेकान्तस्योक्तं स पत्तोऽधुना ।
विदुषां भातु कण्ठे तत् सप्तभङ्गीविभूषणम् ॥१॥ तमोद्रव्यत्ववादोपोद्धातसङ्गतिमाविष्करोति- नन्विति । भवत्विति । अभ्युपगमवादेनेदं बोध्यम्, अन्यथा एकान्तवादिभिः | कुवापि नित्या नित्यत्वयोः सम्भिन्नत्वाऽनुपगमात् । प्रदीपादेस्तु, आदिशब्देन शब्दादेर्ग्रहणम् । सर्वथाऽनित्यत्वमेव = नित्यत्वाऽसम्भिन्नाऽनित्यत्वम् । एवकारेण नित्यत्वसमानाधिकरणाऽनित्यत्वव्यवच्छेदः कृतः । साक्षादेव सर्वथातत्क्षयित्वोपलम्भादिति भावः ।
स्यावादी तत्प्रत्याचष्टे- नेति । प्रदीपादिपुद्गलानामेव तमस्त्वेन परिणमनादिति । अत्रैव हेतुमाह- द्रल्यार्थतया ध्रुवत्वादिति । अयं भावः प्रदीपपर्यायाऽऽपन्नाः तैजसा: परमाणवः स्वभावतः तैलक्षयाद् वाताभिघाताद्वा ज्योतिष्पर्याय परित्यज्य तमोरूयं पर्यायान्तरमाश्रयन्तोऽपि नैकान्तेनाऽनित्याः, 'गुगलरूपतयाऽवस्थितत्वात्तेषाम् । सर्वेषां हि भावानां पर्यायाधुनयेनाऽनित्यत्वेऽपि द्रव्यादेशेन नित्यत्वाऽनतिलङ्घनात् । ततः प्रदीपादेरेकान्ताऽनित्यत्वमिति प्रलापमात्रम् । तदुक्तं मूलकारैरपि अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां - ‘आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ।। (अन्य.यो.त्र्य.श्लो.५) इति । एतेन भावात्मको दीप आलोकाभावात्मकान्धकारस्वरूपता प्रतिपद्यत इति प्रत्युक्तम्, दीपस्याऽन्धकारपरिणामस्याऽपि सर्वथाऽभावात्मकत्वविरहात्, भास्वरपरिणामपरित्यागेऽपि द्रव्यत्वाऽपरित्यागात् ।
परः शङ्कते- अधेति । एवं = प्रदीपपुद्गलानामेव तमस्त्वेन परिणामेऽभ्युपगते सति, तमसः द्रव्यत्वं स्यादिति । तत्तत्परिणामानुस्यूतपरिणामित्वस्य द्रव्यत्वव्याप्यत्वादिति भावः । स्थाद्वादीष्टापत्तित्वेन तदङ्गीकरोति स्यादेवेति । तस्य द्रव्यत्वमभिमतमेवेत्यर्थः । स्याद्वादिप्रत्युत्तराकर्णनाऽनन्तरं परः प्रसङ्गापादनेन प्रत्यवतिष्ठते . स्यादेव तथापि परमतप्रवेश इति । तमसः
किया गया है, उन काल आदि आठ का स्वरूप 'श्रीपूज्यलेख से ज्ञातव्य है । सप्तभंगी के चिपय में अधिक तर्क का निरूपण 'सप्तभंगीतरंगिणी ग्रन्थ से ज्ञातव्य है, जो मैंने (प्रकरणकार महोपाध्यायजी महाराज ने बनाया है।
___*प्रदीपादि भी द्रन्यायिक जय से जित्य ** ननु भ. इति । यहाँ यह कहा जाय कि -> "घट, पट आदि वस्तु में प्रागुक्त रीति से नित्यानित्यत्व का स्वीकार किया जाय तो भी इससे सब पदार्थ नित्याऽनित्य सिद्ध नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि दीप, बिजली, शब्द आदि का तो सर्वथा ही नाश होता है। अतः वे एकान्तानित्य माने जाँय यही उचित है, न कि नित्यानित्य" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि दीप का तैलक्षय आदि से सर्वथा नाश नहीं होता है, किन्तु अन्धकाररूप से परिणमन होता है। वस्तुमात्र का सर्वधा नाश नहीं होता है, किन्तु पर्यायविशेपविशिष्टरूप से नाश होता है, द्रव्यात्मना तो वस्तुमात्र में ध्रुवत्व - नित्यत्व अबाधित है। अतः प्रदीप आदि भी न्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्यत्वरूप से नित्य है।
___ यहाँ यह कहा जाय कि -> "प्रदीप आदि का अन्धकाररूप से परिणमन माना जाय तब तो अन्धकार भी द्रव्य बन जायेगा । आशय यह है कि जैसे 'दृध का परिणाम दही है ऐसा कहने पर दही द्रव्यस्वरूप सिद्ध होता है, न कि अभावात्मक १. साम्प्रत काल में ये दोनों ग्रन्थ अनुपलब्ध है । संभव है किसी भाण्डागार में सुरक्षित छी ।
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३०१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का... * प्रमाणनयतत्त्वालोकालझारसूत्रोपयोगः * । उत्पत्ती प्रदीपादेवश्यं विपत्तेस्तस्य प्रदीपादिध्वंसरूपस्याऽभ्युपगमादिति चेत् ? न, | भावाऽभावकरम्बितेकवस्तुनः परैरतभ्युपगमात् ।
तेजसोऽतिनिवृत्तिरूपता, स्वीकृता तमसि या कणाशिना । द्रव्यतां वयममी समीक्षिणस्तर परमवलम्ब्य चक्ष्महे ॥9॥
* गया - प्रदीपपरिणामत्वाऽभ्युपगमेऽपि नैयायिकादिमतप्रवेशः स्यादेवेत्यर्थः । अत्रैव हेतुमाह- तमसः उत्पत्ती प्रदीपादेरवश्यं विपनेरिति । अवश्यमन्धकारोत्पत्तिप्रयोज्यप्रदीपानुपलब्धेरिति । ततः किम् ?' इत्याशङ्कायां परः प्राह- तस्य = अन्धकारस्य, प्रदीपादिध्वंसरूपस्याऽभ्युपगमादिति । स्याद्वादिना त्वयेति शेषः । अयं पराशयः, 'यदुत्पत्तो कार्यस्याऽवश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभावः' (प्र.न,त. ३५७) इति सूत्रेणाऽन्धकारोत्पत्ती निग्रमतो विद्यमानस्य प्रदीपस्य प्रध्वंसाभावः तमः इति सिध्यति । एवं स्याद्वादिसिद्धान्तेनाऽपि तमसो भावरूपता सिद्धयति । तस्याभावात्मकत्वे सिद्धे ध्रुवो नैयायिकादिमतप्रवेशः स्याद्वादिनः; परेणान्धकारय तेजोऽभावरूपताऽङ्गीकारादिति तन्निरासकृते प्रदीपादेरे कान्ताऽनित्यत्वमेव श्रेयः स्याद्वादिनोऽ पीतो व्याघ्र इतस्तटी' ति न्यायादिति ।
स्याद्वादी तत्पत्याचष्टे- नेति । यथा कपालस्य घटध्वसत्वेन रूपेणा भावात्मकत्वेऽपि द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादिना भावात्मकताबाधिता तथैव तमसः प्रदीपध्वंसत्वेन रूपेणाभावात्मकत्वेऽपि द्रव्यवादिना भावात्मकता बाधितवेति तमसोऽपि भावाभावोभयात्मकत्वमच्याहतम् । न चैवं परैः स्वीक्रियते । अत एव नाइन्यमतप्रवेशप्रसङ्ग इत्याशयेनाऽऽह- भावाऽभावकरम्बितकवस्तुनः = भावान विद्धाभावलक्षणवस्तमात्रस्य, परैः = नैयायिक-कणादादिभिः अनभ्युपगमादिति । ततः प्रदीपादेः द्रव्यात्मना स्थिरत्वोपगमेऽपि न परमतप्रवेश इति सिद्धम् ।
ननु तमसस्तेजोऽभावरूपताङ्गीकारेणैवोपपत्नी द्रव्यान्तरकल्पनाया अनुचितत्वात, गौरवात्, प्रमाणाभावात् । तस्य द्रव्यत्वाऽसिद्धी कुतः तद्व्यापकं नित्यत्वं प्रदीपादेः सिद्भिसाधमध्यास्ते : इति पराशङ्का पञनाऽपहस्तयति- तेजस इति । तद्व्याख्यालेशस्त्वेवम् - कणाशिना = कणादेन वैशेषिकदर्शनप्रणेत्रा तमसि = अन्धकारे या तेजसः द्रव्यस्य अतिनिवृत्तिरूपता = संसर्गाभावात्मकता स्वीकृता तत्र -- तमसि द्रव्यतां = द्रव्यान्तरत्वं समीक्षिणः अमी वयं = स्याद्वादिनः पत्रं
वैसे ही 'प्रदीप का परिणाम अन्धकार है' ऐसे कहने-मानने पर अन्धकार भी द्रव्यात्मक हो जायेगा । अतः अन्धकाररूप से दीप का परिणमन मानना युक्तिसह नहीं है।" - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्याद्वादियों ने अन्धकार को तेजाऽभावात्मक नहीं माना है, किन्तु द्रव्यात्मक भावस्वरूप माना है। अतः अन्धकार में द्रव्यत्व का आपादन वस्तुतः अनिष्ट आपत्तिरूप नहीं है, किन्तु इष्टापत्तिस्वरूप ही है। यहाँ यह कहा जाय कि → “अन्धकार को द्रव्यस्वरूप मानने पर भी नैयायिक आदि मनीषियों के मत में स्याद्वादी का प्रवेश हो जायेगा । इसका कारण यह है कि पूर्व में (प्रधम कारिका की व्याख्या के प्रारंभिक ध्वंसस्वरूपविचार के अवसर पर) स्याद्वादी की ओर से यह कहा गया था कि - "जिसकी उत्पत्ति से 'जिसकी अवश्य अनुपलब्धि प्रयोज्य हो वह उसका श्वंस है, जैसे कपाल की उत्पत्ति से घट की अवश्य अनुपलब्धि प्रयोज्य होने से कपालोत्पाद ही घटध्वंस है। : वैसे यहाँ अन्धकार की उत्पत्ति होने पर प्रदीप का अवश्य विनाश होता है। अर्थात प्रदीप की अनुपलब्धि अन्धकारोत्पाद से प्रयोज्य होती है। अतः अन्धकार प्रदीपवंसस्वरूप ही सिद्ध होगा । जस अभाव का ही एक प्रभेद होने से अन्धकार अभावात्मक सिद्ध होता है" (-तो यह मुनासिब नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्धकार प्रदीपध्वंसत्वरूप से अभावात्मक होने पर भी द्रव्यत्वरूप से भारात्मक है । यह ठीक उस तरह संगत हो सकता है, जैसे कि कपाल घटध्वंसत्त्वरूप से अभावात्मक होने पर भी द्रव्यत्व-मृत्त्वरूप से भावात्मक भी है । इस तरह अन्धकार को भावाऽभावोभयात्मक मानने से नैयायिक आदि परवादी के मत में प्रवेश की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि वे वस्तु को भाव-अभाव उभयात्मक नहीं मानते हैं। अतः प्रदीप को भास्वर पर्यायरूप से अनित्य एवं द्रव्यत्वरूप से नित्य मानना ही संगत प्रतीत होता है।
अ अन्धकार भावरूप नहीं है - एतादी तेजसा, इति । यहाँ महामहोपाध्यायजी का कहना है कि कणाद ने जिस अन्धकार को अत्यन्तामावस्वरूप माना है,
१. देखिये, पृ.१४
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* पत्ररक्षणाऽऽविष्कारः * तत्र तमसो द्रव्यत्वे रूपवत्वमेव मानम् । न च तदेवाऽसिब्दम; 'तमो नीलमि'तिप्रतीते: सार्वजनीनत्वात् । न च सा भ्रमः, बाधकाभावात् । न च उद्भूतरूपमुद्भूतस्पशव्याप्यम्,
=... - -* जयलता * .. == = प्रमाणं अवलम्च्य = आश्रित्य चक्ष्महे = तन्महे । पत्रलक्षणं तु 'प्रसिद्धावयवं वाक्यं, स्वेप्टस्याऽर्थस्य साधकम् । साधु गूढपदनायं पत्रमाहुरनाकुलम् ॥' इति परीक्षकाः समामनन्ति । यथा परैः तमसः तेजोऽभावरूपतासाधनार्थ पञ्चावयचिवाक्यमुपदर्यते तथैवाऽस्माभिरपि तस्य द्रव्यत्वसिद्धिकृते पश्चावयविपरार्थानुमानमुपन्यस्यते इति भावः । एतेन प्रमाणाभावान्न तमसो द्रव्यान्तरत्वमिति प्रत्युक्तम् ।
'मानाधीना मेयसिद्धिः न त बचनमावादिति न्यायेन तमोद्रव्यत्वसाधकं प्रमाणमेवाविष्करोति- तत्रेति । रूपवत्त्व मेवेति । तथा च तमो द्रव्यं रूपबत्त्वादित्यनुमानं तमसो द्रव्यत्वे प्रमाणमिति सूचितम् । प्रकृते एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थो , बोध्यः । ततः कर्माद्याश्रयत्वादेरपि तत्त्वे न अतिः । अत्र स्वरूपासिदिनागरगेगिन मुदायति न चेति । तदेव = रूपवत्वमेव, असिद्धं = हेतुतावच्छेदकसम्बन्धन पक्षावृत्ति । तत्रिरासे हेतुमाह- 'तमो नीलमि'ति प्रतीतेरिति । इदाञ्चोपलक्षणं 'तमश्चलती'त्यादिप्रतीतेः । तदुक्तं मीमांसकैरपि - 'तमः खलु चलं नीलं पराऽपरविभागवत् । प्रसिद्धद्रग्यवेधम्यांत् नवभ्यो भेत्तुमर्हति || ( ) इति । न च सा = 'तमो नीलं' इति प्रतीतिः, भ्रमः = तदभावबति तत्प्रकारकत्वाऽवगाहिनी 'नीलं नभ' इतिवत् । अत्र हेतुमाह- बाधकाभावादिति । अयं भावः 'इदं रजतमिति भ्रमानन्तरं 'नेदं रजतमिति वाधनिश्चयादेव पूर्वतनप्रतीतेर्भमत्वं कल्प्यते न तूत्तरकाले बाधनिश्चयाऽभावे, अन्यथा घटादिविषयकप्रतीतीनामपि भ्रमत्वकल्पनाऽऽपत्त्या शून्यवादप्रवेशप्रसङ्गात् । प्रकृते च 'तमो न नीलमिति उत्तरकाले बाधज्ञानाभावान्नैव प्रतीतेन्तत्वम् ।
परकीयबाधाशङ्कामपहस्तयितुमुपदर्शयति - न चेति । बान्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । उद्भूतरूपं उद्भूतस्पर्शव्याप्यमिति । अन्वयश्चाऽस्याऽग्रे- 'तथा च तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभाव एब बाधक' इत्यत्र । अयं नैयायिकाद्याशयः - पृथ्व्यादा उद्भूतरूपस्योद्भुतस्पर्शव्याप्यत्वं निश्चितम् । ततश्च यदि तमो नीलमि'ति प्रतीत्या तमसि उद्भूतरूपमङ्गीक्रियेत तदा तत्र तद्व्यापक उद्भूतस्पर्शोऽपि स्यात । न च तत्रोद्भूतस्पर्शस्पार्शनप्रत्यक्षमनुभूयते । तथा च व्यापकीभूतोद्भूतस्पर्शविरहादेव तत्रो
भूतरूपाभावः सिध्यति । अनुशतरूपश्च नोपगन्तुमर्हति प्रमाणविरहात् । विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावसाधकत्वात्तत्र रूपत्वा। बच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावसिद्भिः । अतः 'तमी नीलाम' ति प्रतीतेः 'नीलं नभ' इतिप्रतीतिबद् भ्रमत्वमेबास्थेयमिति स्थितम् । '
नन्द्भूतरूपं नोद्भूतस्पर्शच्याप्यम्, इन्द्रनीलमणेः तैजसत्वेन तत्ाभायाः स्वभावतः शुभ्रत्वात्, तत्र नीलिमाप्रतीत्युपप - तये इन्द्रनीले उद्भूतस्पर्शशून्यनीलभागानुस्यूत्या आवश्यकत्वात्. तत्रैवोद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्दाव्यभिचारित्वात् । अतः तमस्युद्भूतउसी अन्धकार में द्रव्यत्व का समीक्षण करने वाले हम प्रमाण (= पत्र) का अवलम्बन कर के बोलते हैं । पंचावयवी (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन से घटित) वाक्य पत्र कहा जाता है। मतलब कि अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि हम यूँही नहीं करते हैं, किन्तु प्रमाण के बल से करते हैं । वह प्रमाण प्रस्तुत में अनुमान है । जैसे 'अन्धकार द्रव्यस्वरूप है, क्योंकि वह (नील) रूप का आश्रय है । जो रूप का आश्रय होता है, वह द्रव्यस्वरूप होता है, जैसे घट । अन्धकार में रूपात्मक हेतु की असिद्धि नहीं है, क्योंकि 'तमो नीलं' = 'अन्धकार नील होता है' इस सार्वजनिक प्रतीति से अन्धकार में रूप सिद्ध है । अन्धकार में नीलत्व (= नील रूप) की प्रतीति भ्रमात्मक नहीं है, क्योंकि अन्यविध प्रतीति से उसका बाध नहीं होता है।
* उतरूपव्याप्य उद्भुतपा की अन्धकार में आपत्ति ** न चोद्, इनि । यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि -> "उद्भत रूप उद्धत स्पर्श का न्याय है । अतः अन्धकार में उद्धृत रूप मानने पर उसमें अद्भुत स्पर्श की भी आपत्ति होगी । इसलिये यह आपत्ति ही अन्धकार के नीलरूपवान होने में बाधक है। अतएव 'नीलं तमः' इस प्रतीति को भ्रमात्मक मानना आवश्यक है । इस स्थिति में अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि रूपवत्त्वस्वरूप हेतु स्वरूपाऽसिद्ध है। अतः लायव तर्क के सहकार से अन्धकार को तेजोऽभावस्वरूप मानना उचित है।
इन्द्र, इति । पदि यह कहें कि . 'इन्द्रनील मणि की प्रभा तैजस द्रव्य होने से स्वभावतः शुभ है, किन्तु उसमें नीलिमा की प्रतीति होती है। उसके अनुरोध से उस प्रभा में उद्भूत स्पर्श से शून्य किसी नील द्रव्य की अनुस्यूनि मानना आवश्यक है । उस नील द्रव्य में उद्धृत रूप उद्भुत स्पर्श का व्यभिचारी है, क्योंकि उस द्रव्य के उद्भुत स्पर्श का भान नहीं
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३०३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * उद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वविमर्शः * | इन्द्रनीलप्रभासहचरितनीलभागस्तु स्मर्यमाणारोपेणैव तत्प्रभायां नीलधीनिर्वाहाद गौरवाज कल्यत इति न तत्र व्यभिचारः; कुङ्कुमादिपूरितस्फटिकभाण्डे बहिरासेप्यमाणपीताश्रयेऽपि न व्यभिचारः, तगापि स्मर्यमाणारोपेणैव बहिःपीतधीनिर्वाहात्,
== == =* जयलता *= = रूपसत्त्वेऽपि नोद्भुतस्पर्शापादनसम्भवः, आपादकविरहादिति स्याद्वाद्याशङ्कामपाकर्तुं पर आह- इन्द्रनीलप्रभासहचरितनीलभागस्त्विति । अस्य 'न कल्प्यत' इत्यनेनाऽन्वयः । तदकल्पने हेतुमाह. स्मर्यमाणारोपेणैवेति । दूरस्थनीलद्रव्यसमवेतस्य स्मयमाणस्य नीलरूपस्य आरोपेण । एक्कारेण तत्सहचरितनीलांशव्यवच्छेदः कृतः । तत्प्रभायां = इन्द्रनीलप्रभायां नीलधीनिर्वाहात् = नीलिमाप्रतीत्युपपत्तिसम्भवात् । ततः किमित्याह- गौरवादिति । इन्द्रनीलप्रभायां तत्सहचरितनीलभागाइकल्पनेऽपि गत्यन्तरेण नगनीतिसम्भने सहचरितनी नागपनमा गीग्रग्रस्तत्वादित्यर्थः । इति = इन्द्रनीलमणिप्रभासहचरितनीलभागाऽकल्पनाहेतोः, न तत्र = नीलभागे उद्भूतरूपस्य व्यभिचारः - उद्भुतस्पर्शयभिचारः । ततोऽन्धकारस्योद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शवत्त्वाभावस्य बाधकत्वमनिराकार्यमिति पराशयः ।
नन्वेवमपि नोद्भुतरूपमुद्भूतस्पर्शाभाववदवृत्ति, स्फटिकमाण्डस्य तैजसत्वेन स्वभावतः शुभ्रत्वेऽपि तदन्तःकुङ्कुमादिपूरणदशायां तदहिःपीतिमोपलळ्यन्यथानुपपत्तिभिया तद्बहिःपीतिमाश्रयानुद्भूतस्पर्शवद्भागकल्पनाया अवश्याश्रयणीयत्वे अनुभूतस्पर्शाश्रयतादृशापीतद्रव्ये उद्भूतरूपस्य व्यभिचारित्वात् । न च तादृशपीतद्रव्यस्योद्भूतस्पर्शवत्वादेव न व्यभिचार इत्युद्गीरणीयम्, । तत्स्पर्शाऽस्पार्शनान्यथानुपपत्तेरित्याशङ्कामपाचिकीर्षुः पर आह- कुश्मादिपूरितस्फटिकभाण्डे = केशरादिनिभृतस्फटिकपात्रे, बहिरारोष्यमाणपीताश्रये = बहिर्भागे आरोप्यमाणस्य पीतरूपस्य अधिकरणे, अपि उद्धृतरूपस्य न व्यभिचारः = न उद्भुतस्पर्शव्यभिचारित्वम् । एकान्तवादी अत्र हेतुमाह- तत्रापीति । बहिरारोप्यमाणपीतत्वाधिकरणे, किमुत इन्द्रनीलप्रभासहचरितनीलभागे इत्यपिशब्दार्थः । स्मर्यमाणारोपेणैव = स्मर्यमाणस्य दूरस्थपीतद्रव्यसमवेतोद्भूतरूपस्य आरोपेणैव, बहिःपीतधीनिर्वाहात् = कुङ्कुमादिपूरितस्फटिकमाण्डबहिःपीतरूपवत्ताबुद्धिसम्भवात्, तादृशस्फटिकभाण्डबहिर्भागेऽनुद्भूतरूपाश्रयपीतठव्या कल्पनात्, स्मर्यमाणपीतरूपाश्रपीभूतदूरस्थद्रव्ये तूभूतस्पस्याऽबाधात् नोद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वमित्यन्धकारे अद्भुत पापगमे उद्भूतस्पर्शप्रसङ्गस्तत्र वज्रलेपायित एवेति पराशयः ।
ननु भवतु स्मर्यमाणरूपारोपेणैव स्फटिकभाण्डे पीतरूपबत्ताधीः परं तत्र गन्धोपलम्भः न स्मर्यमाणगन्धारोपेण भवितुमहति । अतो गन्धाश्रयद्रव्यसन्निधानेनाऽवश्यं कुङ्कुमपूरितस्फटिकमाण्डे भवितव्यम् । प्रतीयमानगन्धाश्रयसन्निधानस्य तत्राऽवश्यक्लुप्तत्वे तूपलभ्यमानपीतरूपाश्रयत्वेनाऽपि लाबबात् गन्धाश्रयेणैव भवितव्यम्, सति सम्भवे त्यागानौचित्यात्, गौरवात् । न च तस्य फलमुखत्वेनाऽदोषत्वमिति शङ्कनीयम्, प्रमाणप्रवृनिसमये गब तदुपस्थितेः, लघुगत्यन्तरस्य सत्त्वात्, । अतो
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होना है और उद्भुत नीलरूप का भान होता है। अतएव उद्भुत रूप को उद्भुत स्पर्श का व्याप्य नहीं माना जा सकता' |' - तो यह नामुनासिर है । इसका कारण यह है कि दूरस्थ उद्भतस्पर्शवान् नीलद्रव्य के नील रूप का स्मरण मान कर उसके
आरोप से भी इन्द्रनील की प्रभा में नीलिमा की प्रतीति का निर्वाह किया जा सकता है । अतः प्रभा में उद्भूतस्पर्शशून्य नीलद्रव्य की अनुस्यूति की कल्पना गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है ।
कुङ्क, इति । यहाँ स्याद्वादी यदि यह कहे कि . 'स्फटिक मणि से निर्मित शुक्ल भाण्ड में कुङ्कम भर देने पर भाण्ड के बहिरंग में पीत वर्ण की प्रतीति होती है। उसकी उपपत्ति के लिए भाण्ड के ऊपरी भाग में किसी ऐसे पीत द्रव्य का अस्तित्व मानना आवश्यक है, जिसमें उद्भत स्पर्श न हो और जिसके सानिधान से शुभ भाण्ड के गहर पीतिमा की प्रतीति हो सके । उस पीत द्रव्य में उद्भूत रूप उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी है, क्योंकि उसके स्पर्श का भान नहीं होता है। केवल स्फटिक के स्पर्श का ही ज्ञान होता है। अतः अन्धकार में उत्कट रूप के सबब उत्कट स्पर्श की आपत्ति नहीं दी जा सकती . तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्फटिक भाण्ड कुङ्गम से पूरित होने की दशा में भाण्ड के बाहर जो पीतिमा प्रतीत होती है, उसका निर्वाह भी किसी दूरस्थ उद्भुतस्पर्शयुक्त पीतद्रव्य में समवेत पीत रूप का स्मरण मान कर उसके आरोप द्वारा सम्पन्न हो सकता है। अतः स्फटिक भाण्ड के बाहरी भाग में किसी पीतद्रव्य के सन्निधान की कल्पना अनावश्यक है। अतः उद्भुत रूप में उत्कट स्पर्धा की व्याप्ति (= व्याप्यता) ज्यों की त्यों बनी रहती है, जिसके बल पर अन्धकार में उत्कट नील रूप का अंगीकार करने पर उद्भुत स्पर्श की आपत्ति वज्रलेप होती है।
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* उद्भूतरूपस्पशव्यात्यनङ्गीकारः *
बहिर्गन्धोपलब्धेस्तु वाय्वाकृष्टानुद्भूतरूपभागान्तरेणैवोपपत्ते:, तथा च तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाऽभाव एवं बाधक इति वाच्यम्, तादृशव्याप्तौ मानाभावात्,
३०४
* जयलता है
=
नोद्भूतरूपश्रोत्रियस्य व्यभिचारित्वचाण्डालस्पर्शकलङ्गितत्वं क्षालयितुं शक्यं परैः । अत एवान्धकारे उद्भूतरूपाङ्गीकारेऽपि || | नोद्भूतस्पर्शस्य तत्रावकाश इति सिद्धं तमसो द्रव्यत्वमिति स्याद्वाद्याशङ्कायां पर आह- बहिर्गन्धोपलब्धेस्तु = कुङ्कुमादिपूरितस्फटिक भाण्डबहिर्भागे गन्धोपलम्भस्य तुर्विशेषार्थे । तदेवाह बाय्वाकृष्टानुद्भूतरूपभागान्तरेणैव वायूपनीतानुत्कररूप - || | शालिद्रव्यांशविशेषेणैव, उपपत्तेः । एवकारेण स्फटिकभाण्डवहिर्भागेऽनुद्भूतस्पशश्रियद्रव्यांशव्यवच्छेदः कृतः । अयमेकान्तवादि| नोऽभिप्रायः स्फटिकभाण्डवहिर्भागे यो गन्ध उपलभ्यते तन्निर्वाहार्थं नेदमावश्यकं यदुत स्फटिकमाण्डबहिर्भागाऽवच्छेदेन गन्धाश्रयद्रव्यांशेन भवितव्यम्, तत्र भागान्तर तत्सम्बन्धादिकल्पनागौरवात्, लघुगत्यन्तरस्य सत्त्वात् । तथाहि शक्यत इदं कल्पयितुं यद् वायूपनीतगन्धाश्नयद्रव्यांशेनैवोराधिना तत्र गन्धोपलब्धिः । न चैवं गन्धाश्रयसमवेतरूपोपलब्धिप्रसङ्गस्य दुर्निवारत्वं स्यादिति वक्तव्यम्, तस्यानुद्भूतरूपाश्रयलेनाऽपि तदारणसम्भवात. कल्पनाया दृष्टानुसारितयैव प्रवृत्तेर्व्याय्यत्वात् । अत एव प्रतीयमान| पीतरूपस्याऽऽरोप्यमाणत्वमपि घटाकोटिसटमाटीकते । अनेनोद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वमपि प्रत्युक्तम्, स्फटिकभाण्डस्य पीतरूपाश्रयभागाऽसंवलित्वात्, स्मर्यमाणदूरस्थद्रव्यवृत्तिपीतरूपस्योद्भूतस्पर्शाश्रयवृत्तित्वात् ।
ततः किं ? इत्याशङ्कायामाह तथा चेति । उद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावीयाधिकरणताश्रयनिरूपितवृत्तित्वशून्यत्वादित्यर्थः । तमस उद्भूतरूपवत्त्वे अभ्युपगम्यमाने, उद्भूतस्पर्शाभाव एव बाधक इतिं । उद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वात् तमसि उद्भूतरूपस्य सत्त्वे तद्र्यापक उद्भूतस्पर्शोऽपि तत्र स्यादेव । न च सोऽस्ति, उपलब्धियोग्यत्वं सत्यनुपलभ्यमानत्वात् । ततो व्यापकाभावादेव तत्र व्याप्याभावः सिध्यति । अत एव 'तमो नीलमिति प्रतीतेरपि भ्रान्तत्वं सुवचम् । एवञ्च रूपवत्त्वहेतोः स्वरूपासिद्धिकलङ्गितत्वेन न ततः तमसि द्रव्यत्वसिद्धिरिति तमोऽभाववादिनोऽभिप्रायः । तमोद्रव्यत्वदर्शनी स्याद्वादी दर्शितदीर्घशङ्कामपाकरोति तादृशव्याप्ताविति । उद्भूतरूपनिष्ठायामनुद्भूतस्पर्शा भाववदवृत्ति| स्वलक्षणायां व्याप्ती, मानाभावात् = विपक्षबाधकतर्कविरहात् । 'अस्तु तमस्युद्भूतरूपं माऽस्तूद्भूतस्पर्शः' इत्यत्र बाधकयुक्तिबिरहान्नोपदर्शितव्याप्तिः स्वीकर्तुमर्हति 'मानाधीना मेयसिद्धिरिति वचनात् अन्यथा वह्नेरपि धूमव्याप्यत्वप्रसङ्गात् ।
ननु वह्नेः धूमाभाववदयोगोलकवृत्तित्वेन तद्व्यभिचारित्वादस्तु वह्नेः धूमव्याप्यत्वे मानाभावः परन्तु प्रकृते तुद्भूतरूपस्य नोद्भूतस्पर्शाभाववद्वृत्तित्वं क्वापि दृष्टम् । अतः तादृशव्याप्ती बाधाभाव एव मानं, किं मानान्तरगवेषणगौरवेण ? इति पराशङ्कायां
बहिर्गन्धो इति । यदि स्याद्वादी की ओर से यह कहा जाय कि 'स्फटिक भाण्ड के बाहर पीतिमा के साथ गन्ध की भी उपलब्धि होती है। पीतिमा की प्रतीति का निर्वाह तो दूरस्थ द्रव्य के स्मर्यमाण पीत रूप के आरोप से किया जा सकता है, मगर गन्ध की उपलब्धि तो गन्धवान् द्रव्य के सन्निधान के बिना नहीं हो सकती है । गन्धबुद्धि की अन्यथा अनुपपत्ति से गन्धवान् अन्य सन्निहित मानना आवश्यक है । तो फिर प्रतीयमान पीत रूप भी लाघव से उसीका रूप माना जायेगा, क्योंकि अनारोपित का भान हो सके वहाँ भी आरोप की कल्पना करना गौरवग्रस्त है । अतएव उद्भूत रूप में उत्कट स्पर्श का व्यभिचार अपरिहार्य है, क्योंकि अन्धकार में स्फटिक भाण्ड की भाँति दूरस्थ द्रव्य के स्मर्यमाण रूप का आरोप नहीं किया जा सकता । अतएव अन्धकार में उद्भूत नील रूप होने पर भी उत्कट स्पर्श का आपादन नहीं किया जा सकता है'
तो यह भी अयुक्त है। इसका कारण यह है कि कुंकुमपूरित स्फटिकभाण्ड में गन्ध की उपलब्धि वायु द्वारा आकृष्ट अनुद्भूतरूपवान् द्रव्य के गन्ध से भी सम्भव होने से उक्त रीति से व्यभिचार की शंका अनुचित है । मतलब कि जिस द्रव्य की गन्ध उपलब्ध होती है, वह उत्कट रूप से शून्य होने की वजह, प्रतीयमान रूप को आरोपित मानना आवश्यक है । फलतः उद्भूत रूप में उत्कट स्पर्श की व्याप्ति निर्वाध होने के सबन अन्धकार में उद्भूत स्पर्श की आपत्ति उसके उद्भूतनीलरूपवान् होने में बाधक हो सकती है। अतः 'नीलं तमः " यह प्रतीति भ्रमात्मक सिद्ध हो सकती है । इस तरह अन्धकार में रूपवत्त्व हेतु स्वरूपाऽसिद्ध होने से अन्धकार को द्रव्यान्तरस्वरूप नहीं माना जा सकता, बल्कि उसे आलोकाभावात्मक मानना ही उचित है । इसके फलरूप में नैयायिक आदि मनीषियों का जय और स्याद्वादी का पराजय सिद्ध हो जायेगा" ←--
उद्भूतरूप उद्भूतस्पर्श का व्याप्य नहीं है - स्याद्वादी x
लादृश इति । मगर विचार करने पर यह शक्ति आपत्ति निराधार हो जाती है, क्योंकि उद्भूत रूप में उद्भूत स्पर्श की
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३०५ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * प्रभायामुद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्तिभङ्ग: * प्रभायां व्यभिचाराच्च । न च उदभूतनीलरूपवत्वमेवोद्भुतस्पर्शव्याप्यामः न च धूमे व्यभिचारः, तत्राऽप्युभूत
=* गयलता * = स्याद्रादी हेत्वन्तरं प्रह- प्रभायां व्यभिचाराच्चेति । प्रभाया उद्धृतरूपवत्त्वेऽप्युद्भूतस्पर्शविरहेण हेतोर्व्यभिचारित्वादित्यर्थः । एतेनोद्भूतरूपमुद्भुतस्पर्शव्याप्यं, तस्य उद्भूतस्पर्शाभावबद्वृत्तित्वस्य क्याप्यदृष्टत्वादिति प्रत्युक्तम् । अत एव 'नीलं तम' इत्यादिप्रतीतेन्तत्वमपि प्रत्याख्यातम् । इत्यश्च साधूक्तम् - 'तमसो द्रव्यत्वे रूपवत्त्वमेव मानमि' (दृश्यता ३०२ तमे पृष्ठे) ति । ।
यत्तु -> 'इन्द्रनीलप्रभासहचरितनीलभागस्तु स्मर्यमाणारोपेणैव तटाभायो नीलधीनिर्वाहाद् गौरवान्न कलाप्यते' <(दृश्यतां ३०३ तमे पुटे) इति तदप्यसत्, अनुभवाननुसारित्वात् । न हि तत्र दूरस्थनीलद्रव्यरूपस्मरणाऽऽरोपाऽनुभवोऽस्ति, इन्द्रनीलनभाया दृग्विषयत्वे सत्येवाऽऽबालाङ्गनानां नीलत्वप्रतीतेरुदयात् । एतेन 'कुङ्कुमादिपूरितभाण्डे स्मर्यमाणारोपेणैव बहिःपीतधीनिर्वाहादि' (दृश्यतां ३०३ तमे पृष्ठे) ति प्रत्युक्तम्, मानाभावात् । यदपि -> 'बहिर्गन्धोपलब्धेस्तु वाय्वाकृष्टानुद्भूतरूपभागान्तरणैदोपपत्तेः - (दृश्यतां ३०४ तमे पुटे) इत्युक्तं, तदपि न चारु, गन्धद्रन्यस्य वाय्वाकृष्टत्वानुद्भूतरूपवत्त्वकल्पनायां मानाभावेन गौरवात् । स्थिते चैवमुद्भतरूपस्योद्भुतस्पर्शव्यभिचारित्वे न तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भुतस्पर्शाभावो बाधक इति सिद्भमन्धकारस्य द्रव्यत्वमिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ।
वस्तुतस्तु इन्द्रनीलमण्यादेः पृथ्वीत्वमेव न तु तैजसत्वम्, -> ‘फलिहमणिरयणविदुम' <- (जी.वि.लो.३) इति जीरविचारवचनात् । अत एव न तत्राऽऽरोपितनीलादिभागकल्पनाया आवश्यकत्वमिति ।
ननु प्रभायां व्यभिचारात् मास्तूद्भूतरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वम्, उद्भूतनीलरूपस्य तु तत्त्वमन्बाधितमेव । अतः तमस उद्भुतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वमव्याहतम् । अत एव 'नीलं तम' इति प्रतीतेभ्रान्तत्वमनपायम्, ज्यापकाभावेन व्यायाभावनिश्चयादिति न तमसो द्रव्यत्वमिति नैयायिकाद्यभिप्रायमपाकर्तुं तदाशकां स्याद्वाद्याविष्करोति - न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनाइन्वयः । उद्भतनीलरूपवत्त्वमेवोद्भतस्पर्शव्याप्यमिति । एक्कारेण उद्धृतरूपवस्वं व्यवच्छिन्नम् । प्रयोगश्चात्रवम् - तमो नीलरूपवन, उद्भूतस्पर्शशून्यत्वात्, गुणवत् । अत एव 'नीलं तम' इति प्रीतिः भ्रमात्मिका, तदभावयति तदवगाहित्वात, 'पीतः शङ्ख इति प्रतीतिवत् । न च तस्या नीलत्वांशे भ्रमात्मकत्वेऽपि रूपत्वांशेऽभ्रमत्वात् रूपवत्त्वहतोस्तमसि द्रव्यत्यमबाधितमिति वाच्यम्, नीलरूपस्याऽसत्त्वेन नीलेतररूपस्य चाइसंभवेन यावद्रूपविशेषाभावकूटस्य रूपसामान्याभावसाधकत्वात् । अतस्तमो न द्रव्यमिति स्थितम् ।
ननद्भूतरूपवदुद्भूतनीलरूपमपि नोद्भूतस्पर्शव्याप्यम्, उद्भूतस्पर्शशून्यधूमवृत्तित्वात् । अतो नाऽन्धकारस्य उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वमित्याशङ्कां निराकर्तुं पर आह- न च धूमे व्यभिचार इति । वक्तव्यमिति शेषः । तन्निरासे परः हेतुमुपदर्शयति-तत्रापीति । धूमे पीति । उद्भूतस्पर्शसत्यादिति । धूमस्योद्भूतरूपाश्रयत्वेनोद्भूतनीलरूपस्य नोद्भूतस्पर्शव्यभिव्याप्ति का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्युत उक्त व्याप्ति को विघटित करने वाला प्रभा के उद्भत रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार विद्यमान है । प्रदीप आदि की प्रभा में उद्भूत रूप होने पर भी उद्भुत स्पर्श नहीं होता है । दूरस्थ द्रव्य के स्मर्यमाण रूप के आरोप की कल्पना गौरवग्रस्त एवं अप्रामाणिक होने से स्याज्य है । अतः अन्धकार में उद्भूत रूप की वजह उद्भूत स्पर्श का आपादन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उद्भुत रूप में उद्भुत स्पर्श की आपादकता ही नहीं है । अत एव 'नीलं तमः' यह प्रतीति भ्रमात्मक सिद्ध नहीं की जा सकती। इसलिए रूपबत्त्व देतु से अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि निराबाथ है।
*उत नीलरूप भी 3.तस्पर्श का व्याप्य नहीं है - स्यादादी न' चो, इति । यदि एकान्तवादी की ओर से यह कहा जाय कि > "प्रभा में व्यभिचार होने से यदि उद्भूत रूप i में उद्भूत स्पर्श की न्याप्ति नहीं है, तो मत हो, पर उद्धृत नील रूप में तो उद्भुत स्पर्श की व्याप्ति निर्बाध ही है । अतः
अन्धकार में उद्भुत नील रूप रहने की वजह उद्भुत स्पर्श की आपति तो अपरिहार्य है। इस व्याप्ति में यह शहा की जाय 'कि - 'धूम में उद्धत नील रूप होने पर भी उद्भत स्पर्श की उपलब्धि नहीं होने से उद्भत स्पर्श का अभाव सिद्ध होता है। उद्भूत स्पर्श से शून्य धूम में उद्भूत नील रूप रह जाने से उद्धृत नील रूप उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी सिद्ध होता है, जिससे तादृश व्याप्ति बाधित होती है। अतः अन्धकार में उद्धत नील रूप से उत्कट स्पर्श का आपादन नहीं किया जा सकता' . तो यह व्यर्थ है, क्योंकि चक्षु के साथ धूम का सम्बन्ध होने पर चक्षु से अश्रुपात होने के कारण धूम में उद्भुत स्पर्श
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* नीलत्रसरेणी व्यभिचाराऽऽवेदनम् *
स्पर्शसत्त्वात्, अत एव तत्सम्बन्धाच्चक्षुषि जलनिपात इति वाच्यम्, चक्षुर्धूमसंयोगेनैव जलनिपातजनकत्वात्, उद्भूतस्पर्शस्य धूमेऽसिदेः, नीलत्रसरेणी व्यभिचाराच्च ।
न च पाटितपट सूक्ष्मावयववत्तत्राऽप्युद्भूतस्पर्शवत्त्वानुमानम्; अनुद्भूतरूपस्योद्भूतरूप* जयलता है
चारित्वम् । अत्राऽपि हेतुमाह अत एवेति । धूमस्योद्भूतस्पर्शवत्त्वादेवेति । तत्सम्बन्धात् = धूमसंयोगात्, चक्षुपि जलनिपातः = अश्रुपतनम् । यदि धूम उद्भूतस्पर्शवान् न स्यात्, तदानुनस्पर्शाधिकरणमारांयोगवत् तत्सम्बन्धात् नेत्रजलनिपतनं न स्यात् । न चैवमस्ति । अतो धूमस्योद्भूतस्पर्शवत्त्वमभ्युपेयम् । अतो न धूमे उद्भूतनीलरूपस्योद्भूत स्पर्शव्यभिचारित्वमिति परेषामाशयः ।
३०६
स्याद्वादी तन्निराकरोति - चक्षुर्धूमसंयोगत्वेनैव जलनिपातजनकत्वादिति । जलनिपातनिष्ठकार्यतानिरूपित कारणतायाः चक्षुर्धूमसंयोगत्वावच्छिनत्वादित्यर्थः । एवकारेण चक्षुरुद्भूतस्पशश्रियसंयोगत्वस्य जलनिपातकारणतावच्छेदकत्वं व्यवच्छिन्नम् । अयं स्याद्वादिनोऽभिप्रायः चक्षुर्धूमसंयोगो न चक्षुरुद्भूतस्पर्शचद्रव्यसंयोगत्वेनाश्रुपातजनकः चक्षुरुद्भूतस्यशश्रियद्रव्यान्तरसंयोगत्वावच्छिन्नादपि जलनिपातप्रसङ्गात् । न चैवमस्ति । अतः चक्षुर्धूमसंयोगत्वेनैव तत्त्वमुपगन्तव्यम् । अतो न जलनिपालकारणताबच्छेदकघटकतया धूमे उद्भूतस्पर्शसिद्धिः । अनेन तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भुतस्पर्शाभाव एव बाधक इति प्रत्याख्यातम्, ! धूमे उद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वात् । अन्यत्रापि व्यभिचारमुपदर्शयति स्याद्वादी- नीलत्रसरेणी व्यभिचाराच्चेति । | नीलरूपाश्रये द्वणुकत्रयात्मके पटाद्यवयवे उद्भूतनीरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वाचेत्यर्थः । नीलत्रसरेणावुद्भूतनीलरूपस्य सत्त्वेऽपि उद्भूतस्पर्शविरहात्तस्य तत्र व्यभिचारः । न च तत्रोद्भूतनीलरूपमेव नास्तीति न व्यभिचार इति वक्तव्यम्, तचाक्षुषानुपपत्तिप्रसङ्गात् । अतः तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वमिति भावः |
L
ननु नीलत्रसरेणावप्युद्भूतस्पर्शोऽस्त्येव, अन्यथा तज्जन्यचतुरणुकादम्कुद्भूतस्पर्शानुत्पत्तिप्रसङ्गान्न कदापि नीलद्रव्यस्य स्पार्दानत्वं घटकोटिमश्वेतेति नैयायिकाद्याशङ्कामपाकर्तुं दर्शयति न च पाटितपटसूक्ष्मावयववत्तत्राऽप्युद्भूतस्पर्शवत्त्वानुमानमिति । वाच्य| मिति शेषः । प्रयोगस्त्वेवम् - नीलद्रव्यत्रसरेणुः उद्भूतस्पर्शवान् स्वसमवेतद्रव्यसमवेतोद्भूतस्पर्शजनकत्वात्, पाटितपटसूक्ष्मावयववत् यद्वा नीलत्रसरेणुस्पर्शः उद्भूतः स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवेतोद्भूतस्पर्शाऽसमवायिकारणत्वात् पाटितपटसूक्ष्माऽवयवस्पर्शवत् । हेतुतावच्छेदकं तु उद्भुतस्पर्शासमवायिकारणतात्वमेव । अनुद्भूतस्पर्शस्योद्भूतस्पदाऽसमवायिकारणत्वाऽसम्भवात् चतुरणुकसमये -
का होना अनिवार्य होने से उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार असिद्ध है । इस प्रकार जब उद्भूत नील रूप में उत्कट स्पर्श की व्याप्ति निर्बाध है, तब अन्धकार में यदि उद्भूत नील रूप माना जायगा तो उसमें उद्भूत स्पर्श की भी आपति होगी । अतः उसमें उद्भूत नील रूप नहीं माना जा सकता और नीलेतर रूप उसमें प्रमाण के अभाव से मान्य नहीं हो सकता । इस तरह रूपविशेषाऽभावकूट से अन्धकार में रूपसामान्याभाव की सिद्धि होती है । अब अन्धकार में अन्यत्व की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि द्रव्यत्वव्याप्य रूप का उसमें अभाव रहता है । फलतः अन्धकार में द्रव्यत्व का अनुमान दुर्घट है" तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि चक्षु धूमसंयोग को अनुपात का जनक मान लेने से धूम में उद्भूत स्पर्श मानना आवश्यक नहीं है। मतलब कि चक्षुधूमसंयोगत्वरूप से अनुपात की जनकता लाघव सहकार से मानी जा सकती है, न कि चक्षु उद्भूतरूपविशिष्टसंयोगत्वेन । अतः धूम में उद्भूत स्पर्श की सिद्धि नहीं हो सकती है। अतएव धूम के उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार दुर्निवार है। इसलिए उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की व्याप्ति न होने से उद्भूत नील रूप से उद्भूत स्पर्श की आपत्ति का कोई भय नहीं है । इस तरह कोई बाधक न होने से अन्धकार में उद्धृत नील रूप सिद्ध है और इसलिये रूप से अन्धकार में इव्यत्व का अनुमान करने में कोई बाधा नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि नीली द्रव्य के त्रसरेणु में भी उद्भूत रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार अपरिहार्य है, क्योंकि नील त्रसरेणु में उद्भूत नील रूप होने पर भी उद्भूत स्पर्श उपलब्ध नहीं होता है । अतः उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की व्याप्ति अप्रामाणिक है ।
* नील त्रसरेणु में व्यभिचारापत्ति के उद्वार का प्रयत्न
न च पाटि इति । यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि "किसी पट को फाड़ने पर जो उसके सूक्ष्म अवयत्र निकलते हैं, उनका स्पर्श उद्भूत होता है, क्योंकि यदि वह उद्भूत न होगा तो उससे पट में उद्धृत स्पर्श की उत्पत्ति न होगी और न उसके सम्बन्ध से अश्रुपात होगा । तब पट के उन सूक्ष्म अवयवों के दृष्टान्त से नीली द्रव्य के त्रसरेणु में
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३०७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ उद्भूतस्पर्शस्यानुद्भूतस्पर्शजन्यत्वे विप्रतिपत्तिः *
जनकताया इवाऽनुद्भूतस्पर्शस्याऽपि निमित्तभेदसंसर्गेणोद्भूतस्पर्शजनकतासम्भवात् दृष्टान्ताऽसम्प्रतिपत्ते: /
जन्याऽनुद्भूतरूपं प्रत्यनुद्भूतेतररूपाभावस्य कारणत्वपक्षे तप्ततैलस्थादनुद्भूतरूपाद् वहेः उद्भूतरूपभागान्तराऽऽकर्षेणैवोद्धृतरूपोत्पत्तिस्वीकारात् अत्र दृष्टान्ताऽसम्प्रतिपतिरिति चेत् ? * गयलवा * -
|तोद्भूतस्पर्शाऽसमवायिकारणीभूतस्य नीलवसरेणुस्पर्शस्योद्भूतत्वमेवेति नीलसरेणी नोद्भूतनीरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वमिति तमसो नीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभाव एवं व्यापकाभावत्वेन रूपेण बाधक इत्येकान्तवादिशक्काशयः ।
स्थाद्वादी तन्निराकरणे हेतुमाह अनुद्भूतरूपस्य = त्वन्भते तततैलस्थवयवयवाज्नुद्भूतरूपस्य, उद्भूतरूपजनकतायाः दहनोद्भूतरूपाऽसमवायिकारणतायाः इव अनुद्भूतस्पर्शस्यापि = नीलत्रसरेणुसमवेतानुद्भूतस्पर्शस्यापि निमित्तभेदसंसर्गेण अदृष्टादिनिमित्तविशेषसम्बन्धवशेन उद्भूत्तस्पर्शजनकतासम्भवात् = चतुरणुकसमवेतोद्भूतस्पर्शाऽसमवायिकारणत्वसम्भवात् | दृष्टान्ताऽसम्प्रतिपत्तेः = पाटितपदसूक्ष्मावयवोदाहरणे विप्रतिपत्तेः । प्रयोगस्त्वेवम् - नीलत्रसरेण्वनुद्भूतस्पर्शाऽसमवायिकारणक| स्पर्धाः उद्भूतः अदृष्टादिनिमित्तविशेषसमवहित्वात्, अतितप्ततैलान्तः परतिदहनावयवानुद्भूतरूपाऽसमवायिकारणकरूपविशेषवत् । एतेन यदि तमो द्रव्यं रूपवद्रव्यस्य स्पर्शाऽव्यभिचारात् स्पविद्द्रव्यस्य महतः प्रतिधातधर्म्मत्वात् तमसि सञ्चरतः प्रतिबन्धः | स्यात्, महान्धकारे च भूगोलकस्येव तदवयवभूतानि खण्डाऽवयविद्रव्याणि प्रतीयेरन्निति प्रत्युक्तम्, यथा प्रदीपान्निर्गतैरवयवैरदृष्ट| वशादनुद्भूतस्पर्शमनिचिडावयवमप्रतीयमानखण्डाऽवयविद्रव्यप्रविभागमप्रतिश्रातिप्रभामण्डलमारभ्यते तदेव तमः परमाणुभिरपि तमो
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द्रव्यारम्भसम्भवात् ।
एकदेशीयः परः शङ्कते जन्याऽनुद्भूतरूपमिति । इति चेदिति पर्यन्तः शङ्काग्रन्थः । जन्याऽनुद्भूतरूपं प्रति अनुद्भूतेतररूपाभावस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वपक्षे तप्ततैलस्थात् अनुद्भूतरूपात् = अनुत्कटरूपाश्रयात् वह्नेः अनुद्भूतरूपोत्पत्तिः न सम्भविनी, तस्य उद्भूतरूपाश्रयदहनभागान्तरसंवलितत्वात् उद्भुतरूपस्य प्रतिबन्धकत्वात् । रूपसामान्यसामग्रीसत्त्वात् || अनुद्भूतरूपप्रतिबन्धकसत्त्वाच्च तत्रोद्भूतरूपोत्पत्तिः । एवमप्यनुद्भूतरूपादुद्भूतरूषोत्पादो दुर्निवार इत्यत आह- उद्भूतरूपभागान्तराकर्षणेनैवोद्भूतरूपोत्पत्तिस्वीकारादिति । एवकारेणाऽतितप्ततैलस्थदनाऽवयवस मतानुद्भूतरूपव्यवच्छेदः कृतः । अत्र = उद्भूतस्पर्शस्यानुद्भूतस्पर्शजन्यत्वे दृष्टान्ताऽसम्प्रतिपत्तिः = तप्ततैलस्थदहनानुद्भुतरूपजन्योद्भूतरूपनिदर्शनविप्रतिपत्तिरित्यर्थः ।
भी उद्भूत स्पर्श का अनुमान हो जायेगा। अतः नील द्रव्य के त्रसरेणु में भी उद्धृत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार नहीं हो सकता" < किन्तु यह नामुनासिब होने का कारण यह है कि फादे हुए नील पट के सूक्ष्म अवयव में भी उद्भूत स्पर्श के होने में प्रमाण न होने से सम्प्रतिपन्न स्वीकृत नहीं है । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि - -> "पट के सूक्ष्म अवयवों में उद्भूत स्पर्श न मानने पर पट = अवयवी में उद्भूत स्पर्श ही नहीं हो सकेगा " - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे उद्भूत रूप की उत्पत्ति अनुद्भूत रूप से होती है, ठीक वैसे ही अनुद्भुत स्पर्श से अदृष्ट आदि निमित्तविशेष के सहयोग से उद्भूत स्पर्श की भी उत्पत्ति हो सकती है। पट के सूक्ष्म अवयव के सम्बन्ध से चक्षु से अश्रुपात की उत्पत्ति भी अश्रुनिपात के प्रति चक्षु और फाड़ हुए पद के सूक्ष्मावयत्र के संयोग को कारण मान लेने से सम्पन्न हो सकती है । अतः पट के सूक्ष्म अवयवों में उद्भूत स्पर्श की कल्पना अप्रामाणिक एवं गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है। इस प्रकार उद्भूत रूप पट के सूक्ष्म अवयवों में भी उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी सिद्ध होता है ।
अथवा 'न च पाटित..' से 'दृष्टान्ताऽसम्प्रतिपत्ते:' पर्यन्त ग्रन्थ की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि पट के सूक्ष्म अवयवों का दृष्टान्त नीलद्रव्य के असरेणु में उद्भूत स्पर्श की अनुमिति के अनुकूल दृष्टान्त के रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकता है, क्योंकि अनुद्भूत रूप में उद्भूत रूप की जनकता के समान निमित्तविशेष के सहयोग से अनुद्भूत स्पर्श में उद्भूत स्पर्श की जनकता संभव होने से यह अनुमान कि -> " नील द्रव्य का त्रसरेणु उद्भूतस्पर्शवान है, क्योंकि उद्भूतस्पर्शवान् चतुरणुक आदि का जनक है, जैसे पाटित पट का सूक्ष्म अवयव, अथवा 'नीलद्रव्य के त्रसरेणु का स्पर्श उद्भूत है, क्योंकि वह चतुरशुक में उद्भूत स्पर्श का जनक है, जैसे पाटित पट के सूक्ष्मावयव का स्पर्श" <- निराधार है । रेणु में उद्भुत स्पर्श नामुमकिन स्याद्धादी जन्यानु इति । यदि नैयायिक- वैशेषिक मनीषियों की ओर से यह कहा जा सकता है कि
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" स्यावादी का यह
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* योगसिद्धान्त तदेकदेशिमतभेदविद्योतनम्
न, तथापि त्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गात् ।
ॐ जयलता
एतेन नीलत्रसरेण्वनुद्भूत स्पर्शाऽसमवायिकारणकस्पर्श उद्भूतः अदृष्टादिनिमित्तविशेषसमवहितत्वात् अतितप्ततैलान्तः पातिदहनाऽ| वयवाऽनुद्भूतरूपाऽसमवायिकारणरूपविशेषवदिति पराकृतम् । इत्थञ्चोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वेन तमसि प्रकटस्पर्शाभाव एवोद्भूतनीलरूपवत्त्वे बाधक इति न तमसो द्रव्यत्वसिद्धिरिति नैयायिकैकदेशीयाशयः ।
३०८
इदन्त्वत्राऽवधेयम् - न्यायसिद्धान्तनये नियतारम्भवादस्वीकारात् समवायेन कार्यसमवेतगुणं प्रति कारणसमवेतसदृशगुणस्य स्वसमवायिसमवायसम्बन्धलक्षणया कारणैकार्थं प्रत्यासत्त्याऽसमवायिकारणत्वम्, यथा घटनीलरूपं प्रति कपालनीलरूपस्य । अत | एव तन्मते जन्यसमवेतोद्भूतगुणं प्रति स्वसमवायिसमवायेनोद्भूतगुणस्यैव कारणत्वम् जन्यसमवेतानुद्भूतगुणं प्रति स्वनुद्भूतगुणस्य । | न्यायैकदेशिनये तुद्भूतगुणं प्रत्युद्भूतगुणस्यैव स्वसमवायिसमवायसंसर्गेण कारणत्वेऽपि जन्याऽनुद्भूतगुणं प्रति नानुद्भूतगुणस्य | कारणत्वं किन्न्बुद्भूता कारणत्वम् । एवमेव जन्याऽनुद्भूतस्पर्शं प्रति स्वाश्रयसमवायेनोद्भूतस्पर्शाऽभावस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वम् । तथा जन्यानुद्भूतरूपं प्रत्युद्भूतरूपाभावस्य कारणत्वम् । न चोद्भूतरूपाभावस्यैवाऽनुद्भूतरूपत्वं लाघवादिति वाच्यम्, नीरूपे आत्मादावुद्भूतरूपाऽभावस्य सत्त्वेऽप्यनुद्भूतरूपविरहेण तयोरसमनैयत्यात् । घटं प्रति तन्तुभिन्नस्य कपालस्य कारणत्वे यथा तन्तोरकारणत्वं तथैव जन्याऽनुद्भूतरूपं प्रत्यनुद्भूतरूपभिन्नस्योद्भूतरूपाऽभावस्य कारणत्वेऽनुद्भूतरूपस्याऽन्यथासिद्धत्वमिति । न च विनिगमका भावेनानुद्भूतेतररूपाभाववत् अनुद्भूतरूपस्याऽपि जन्याऽनुद्भूतरूपं प्रति कारणत्वमनिराकार्यमिति वाच्यम् अनुद्भूतरूपं प्रति प्रतिबन्धकाऽभावविधया अनुद्भूतेतररूपाभावकारणताया उभयमतसिद्धत्वात्, अनुद्भूतरूपकारणताया उभयमता सिद्धत्वेनाऽक्लृप्तत्वात् । उद्भूतरूपाभावस्यैवाऽनुद्भूतरूपजनकत्वेनाऽनुद्भूतरूपस्योद्भूतरूपजनकत्वदृष्टान्तविप्रतिपत्तेः, ततैले उद्भूतरूपाश्रयज्वालालक्षणाऽनलस्य तप्ततैलस्थाऽनुद्भूतरूपाश्रयबह्वचवयवैरुद्भूतरूपविशिष्टदहनाऽवयवसहकारिभिर्जन्यत्वेऽपि यथा घटरूपाऽसमवायिकारणत्वं कपालस्थस्य रूपस्यैव न तु गन्धादेः तथैव प्रकृते ज्वालोद्भूतरूपाऽसमवायिकारणत्वमुद्भूतरूपस्यैव न त्वनुद्भूतरूपस्येति फक्किकार्थः ।
स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे नेति । तथापि उद्भूतस्पर्शस्य कदाप्यनुद्भूतस्पर्शजन्यत्वानुपगमेऽपि, त्रसरेणोः नीलचतुरगुकसमवायिकारणीभूतत्रसरेणोः उद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गात् = तादृशनीलत्रसरेणुसमवेतोद्भूतस्पर्शविषयक
8
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कथन युक्त नहीं है कि 'अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति होती है, वैसे अनुद्भुत स्पर्श से उद्भूत स्पर्श की उत्पत्ति हो सकती है' इसका कारण यह है कि अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति ही हमें अस्वीकार्य है । वास्तविकता तो यह है कि जन्य अनुद्भूत रूप के प्रति अनुद्भूतेतर (= उद्भूत) रूप का अभाव कारण है, जो अनुद्भूतरूपस्वरूप नहीं है। जैसे नील रूप के प्रति नीलेतररूपाभाव प्रतिबन्धकाभावविधया कारण है, ठीक वैसे ही अनुद्भूत रूप के प्रति अनुद्भूते तररूपाभाव प्रतिबन्धकाभावविधया कारण होता है । अत्यन्त गरम तेल आदि में जो अग्नि रहती है, वह अनुद्भूतरूपविशिष्ट होती है; मगर उस गरम तेल आदि में भीतर उद्भूतरूपवाले अनलावयव रहते हैं । उद्भूतरूप अनुद्भूत रूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक होने की वजह अतितप्त तेल में अनुद्भूतरूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । वहाँ रूप सामान्य की सामग्री उपस्थित है और अनुद्भूत रूप का प्रतिबन्धक भी विद्यमान है। अतः पारिशेष न्याय से उत्कटरूपवाले सूक्ष्म दहनावयव से अतितप्त तेल में ज्वाला के रूप में उत्कट रूपविशिष्ट अग्नि की उत्पत्ति हो सकती है । अतः अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति का दृष्टांत हमें मान्य नहीं है । तप्त तेल में अनुद्भुत रूप वाले दहनावयव होने पर भी ज्वालास्वरूप अग्नि के उद्भूत रूप की उत्पत्ति अन्य दहनावयत्र के उत्कट रूप से ही होती है । प्रदर्शित दृष्टांत असंगत होने से उस पर अवलंबित दार्शन्तिक भी असंगत ही है । अतः अनुद्भूत स्पर्श से उद्भूत स्पर्श की उत्पत्ति की कल्पना अप्रामाणिक है । अतः आप स्याद्वादी ने जो कहा था कि पाटित पट के सूक्ष्म अवयव ( त्रसरेणु) में उद्भूत रूप न होने पर भी तत्स्थित अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति हो सकती है। यह ठीक नहीं है । उद्भूत रूप से ही उद्भूत रूप की उत्पत्ति मुमकिन होने से चतुरणुक आदि में उत्कट रूप के जनक त्रसरेणु के स्पर्श को उत्कट मानना आवश्यक है । इस स्थिति में तो नीलद्रव्य के त्रसरेणु में उत्कट नील रूप उत्कट स्पर्श का व्यभिचारी नहीं होगा, क्योंकि दोनों ही उसमें रहते हैं । अतः उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की व्याप्ति अबाधित है । अतएव अन्धकार में उद्धृत नील रूप की सत्ता को मान्यता प्रदान करने पर उसमें उद्भूत स्पर्श की आपत्ति अपरिहार्य ही बनी रहती है"
-
न. तथापि, इति । मगर विचार करने पर नैयायिकादि की ओर से किया गया यह आपादन निराधार है । इसका कारण यह है कि त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श होने पर उसके स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । त्रसरेणु तीन द्व्यणुक से निर्मित
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३३०९ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * मुक्तावली-मञ्जूषा-प्रभाकारमतनिराकरणम् * || 'द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकीभूतप्रकर्षवन्महत्त्वाऽभावाभायं दोष' इति । चेत् ? न, तादृशप्रकर्षस्यैकत्वेऽपि कल्पयितुं शक्यत्वेन विनिगमनाविरहात् ।
----..-..........= =* जयलता * स्पार्शनप्रत्यक्षोदयाऽऽपत्तेः । तस्योद्भुतत्वेन योग्यत्वादयश्यमुपलब्धिः स्यात् । न चैवमस्ति । प्रमाणाऽविषयस्याऽप्यभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् । इत्यञ्च नीलबसरेणुस्पर्शाऽस्पार्शनाऽन्यधानुपपत्त्या तत्रोद्भूतरपश्भिावसिद्धेः पारिदोषन्यायात् अनुभूतस्पर्शपरिकल्पनम् । त्रसरेणुस्पर्शस्याऽनुभूतत्वेऽपि तज्जन्यचतुरणुकस्पर्शस्योद्भूतत्वेनोद्भुतस्पर्शस्याऽनुभूतस्पर्शजन्यत्वमव्याहतम् । अनेन -> 'अदृश्यस्य दृश्याऽनुपादानत्वात्, अन्यथा चक्षुरुष्मादिसन्ततः कदाचित् दृश्यत्वप्रसङ्गात्' - (मुक्ता.३७ पृ.२४५) इति मुक्तावलीकारवचनं प्रतिक्षिप्तम्, तेजोलेझ्यादिलब्धिमतः चक्षुरुष्मादिसन्ततेर्दृश्यत्वाऽभ्युपगमेनेष्टापत्तेः नव्यनैयायिकैरपि चक्षुरादिध्वनुद्भूतस्पर्शानभ्युपगमाच । एतेन 'तैलान्तर्गतरदृश्यदनावयवेरेव स्थूलदहनोत्पत्तिस्वीकार स्थूलदहमेऽप्यनुद्भूतरूपापत्त्या तत्प्रत्यक्षरय दुरुपपादत्वाऽऽपातादि' (मु.म.पृ.२८६)ति मुक्तावलीमञ्जूषाकारवचनमपि निराकृतम् । एवञ्च नीलत्रसरेणाबुद्भूतनीलरूपरलोभूतपय गारान्ह तो
भूतस्पर्शाभावः बाधक इति समाधानाशयः । ननु नीलसरेणोरुभूतस्पवित्वेऽपि स्पार्शनकारणीभूतमहत्त्वविशेषविरहान्न तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्ग इत्याशयेन गौतमीयादिः शङ्कने - द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकताऽवच्छेदकीभूतप्रकर्षचन्महत्त्वाऽभावात् = द्रन्यान्यत्वे सति यो द्रव्यसमवेतः तद्गोचरस्पार्शनप्रत्यक्षस्य कारणतावच्छेदकीभूतो यः प्रकर्षः तद्विशिष्टमहत्त्वस्य नीलत्रसरेणी विरहात्, नाऽयं = न बसरेणुसमवेतस्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गलक्षणः दोपः । अयं भावः त्रसरेणुस्पर्शः द्रव्यान्यो द्रव्यसमवेतश्च । द्रन्यान्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतस्पार्शनप्रत्यक्षं प्रति महत्त्वस्य कारणत्वम् । न च महत्त्वस्य त्रसरेणुसमवेत्तत्वन तत्पर्शस्पार्शनं दुर्निवारम्, तदुक्तं मुक्तावलीप्रभाकृता 'त्रसरेणुमहत्त्वस्य नित्यत्वस्वीकारादि' (मु.प्र.पृ.२०४) ति वक्तव्यम्, महत्त्वस्य तब समवेतत्वेः पि द्रव्याऽन्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणताचच्छेदकीभूतप्रकर्षशून्यत्वेन तत्स्पर्शस्पार्शना नापत्तेः । अत एवोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वा बाधेन तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे तत्स्पार्शनं स्याद्वादिनये दुर्निवारम् । न चैवं भवति । अतो 'नीलं तम' इति प्रतीतेन्तित्वाद् रूपवत्त्वस्य स्वरूपाऽसिद्भिग्रस्तत्वम् । अतो न तमसो द्रव्यत्वं सङ्गतिमङ्गतीति नैयायिकाद्यभिप्रायः ।
स्याद्बादी तन्निराकरोति- नेति । तादृशप्रकर्पस्य = द्रव्याऽन्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकीभूतप्रकर्षस्य, एकत्वेऽपि = एकत्वसंख्यायामपि कल्पयितुं शक्यत्वेन विनिगमनाविरहात् । तादृशप्रकर्षः किं महत्त्वे यदुत एकत्वे ?
होता है, जिसका हमें स्पर्श हो सकता है । अतः यदि उसमें अद्भुत स्पर्श होगा, तब तो उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष अवश्य होगा, क्योंकि उद्भुत स्पर्श स्पर्शनेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय होता है। मगर सरेणु के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष तो नैयायिक आदि को भी अमान्य है एवं अनुभवविरुद्ध है । अतः त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श नहीं माना जा सकता । अतः नीलद्रव्य के त्रसरेणु के उद्भुत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार दुर्निवार है । इसलिए उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की न्याप्ति न होने से उद्धृत नील रूप से उद्भुत स्पर्श की आपत्ति का कोई भय नहीं है। अत: बाधक न होने से अन्धकार में नील . रूप सिद्ध होता है और इसलिये रूप से अन्धकार में व्यत्व की अनुमिति करने में कोई बाधा नहीं है । अतः अन्धकार द्रव्यात्मक सिद्ध होता है, न कि आलोकान्यन्ताभावस्वरूप ।
महत्त्वविशेष के अभाव से प्रसरेणुस्पर्शप्रत्यक्षविरह अनुपपन्य - स्यादादी ट्रव्यान्य. इति । यदि नैयायिक आदि मनीषियों की ओर से यह कहा जाय कि --> "त्रसरेणु | उद्भूत स्पर्श होने पर भी विजातीय महत्व न होने की वजह त्रसरेणु के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है । आशय यह है कि जो द्रव्य से भिन्न होता है एवं द्रव्य में समवेत होता है, उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष होने में महत्त्वविशेष कारण होता है और कारणतावच्छेदक धर्म प्रकर्ष होता है । त्रसरेणु में महत्त्व होने पर भी तादृश प्रकर्पविशिष्ट महत्त्व न होने की वजह त्रसरेणुसमवेत्तस्पर्शविषयक स्पार्शन की आपत्ति नहीं दी जा सकती । कारणतावच्छेदकधर्मविशिष्ट कारण के न रहने पर कार्य का आपादन नहीं किया जा सकता । इस तरह नील त्रसरेणु का स्पर्श उद्भूत होने पर भी सरेणुस्पर्शप्रत्यक्ष का आपादन अयुक्त होने से उत्कट नील रूप उद्भुत स्पर्श का अव्यभिचारी सिद्ध होता है । अतएव अन्धकार में उद्धत नील रूप मानने पर उद्भूतस्पर्शाऽभाव बाधक बनेगा। इसलिए अन्धकार को द्रव्य नहीं माना जा सकता" - तो यह नैयायिककथन नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि नाइश कारणताअवच्छेदक धर्म के आश्रय के रूप में महत्त्व का अंगीकार किया जाय या एकत्व संख्या का ?
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*पकत्वे जातिविशेषकल्पने सायम् * अथ एकत्वे तादृशजातिकल्पने स्वतन्त्रमतसिन्दद्रव्यचाक्षुषजनकताऽवच्छेदकी तैकत्वनिष्ठजात्या सार्यमेव विनिगमकमिति चेत् ?
---------------* जयलता * इत्यत्रकतरपक्षपातियुक्तिविरहात् न विजातीयमहत्त्वस्य अद्रव्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणत्वं सिद्धयति, येन तद्विरहेण नीलत्रसरेणुस्परिपार्शनमुपपग्रेतेति लाबबात् नीलनसरेणुस्पर्शस्याऽनुद्भूतत्वमेव कल्पनीयम् । एवञ्चोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शज्याप्त्यसिद्धेर्न तमस उद्भूतनीलरूपबत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभाव बाधकः । अत एव 'नीलं तम' इति प्रतीतेभ्रंमत्वमप्यपाकृतम् । ततश्च रूपवत्त्वाद्धेतोः तमसो द्रव्यत्वं निरपायमेवेति स्याद्वाद्याशयः ।।
एकान्तवादी शङ्कत्ते - अथेति । 'चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । एकत्वे तादृशजातिकल्पने = एकत्ववृत्ति-द्रव्याऽन्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतरपार्शनजनकतावच्छेदकाजात्यङ्गीकारे, स्वतन्त्रमतसिद्ध-द्रव्यचाक्षुषजनकताऽवच्छेदकीभूतैकत्वनिष्ठजात्या = नैयायिकैकदेशिमतप्रसिद्धद्रव्यविषयकचाक्षुषप्रत्यक्षकारणतावच्छेदकीभूतघटादिस्थैकत्ववृत्तिजात्या, समं सार्यमेव द्रव्याऽन्यद्रव्यसमवेत - स्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्याः महत्त्ववृत्नित्वे विनिगमकमिति । अयं अथाशयः स्वतन्त्रमते द्रव्यचाक्षुषकारणताक्छेदकजातिः द्रव्यगतैकत्वे वर्तते यथा प्रभावसरेण्वादिगोचरचाक्षुषप्रत्यक्षनिष्ठजन्यतानिरूपिताया जनकतारा अवच्छेदकीभूता जातिः प्रभा-बसरेण्वादिनिष्ठैकत्वे वर्तते । न च तत्र द्रव्येतर-द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शनप्रत्यक्षनिष्ठकार्यतानिरूपितायाः कारणताया अवच्छेदिका प्रकृष्टत्वजातिः वर्तते; प्रभा-त्रसरेण्वादिसमवेतस्पर्दोऽनित्यप्रत्यक्षगोचरत्वविरहात् । वायु-निदाघोमादिनिष्ठकत्वे द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनप्रत्यक्षनिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूता प्रकृष्टत्वजातिः वर्तते न तु द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकीभूता जातिः, वाय-निदाघोष्मादिस्पर्शस्य प्रत्यक्षविषयत्वेऽपि बाबादेः चाक्षषाऽविषयत्वात् । परस्परत्यधिकरणीभूते ताददाजाती घटादिनिष्ठकत्वे समानाधिकरणे; घटस्य चाक्षुषगोचरत्वात् तत्स्पर्शस्य च स्पार्शनविषयत्वात् । अद्रव्य-द्रव्यसमवेतगोचरस्पार्शनकारणतावच्छेदकीभूतात्यजात्या रकत्वसंसामिाजीकारे द्रध्वचाक्षुषकारणतावच्छेदकजात्या एकत्ववृत्त्या सह सायस्य सुरगुरुणाऽपि निवारयितुमदास्यत्वेन तादृशप्रकृष्टत्वजात्या महत्त्ववृत्तित्वमेवोपगन्तुमर्हति । तथा च न सङ्करकलुषिततालेशोऽपि, द्रव्यगोचरचाक्षुषप्रत्यक्षकारणतावच्छेदक़जात्या एकत्वनिष्ठत्वेन, अद्रव्य-द्रव्यसमवेतगुण-जाति-कर्म-विशेषविषयकरपार्शनप्रत्यक्षनिष्ठइस समस्या का कोई समाधान नहीं है। कारणतावच्छेदक धर्म का आश्रय ही जब अनिश्चित है, तब कारण कैसे निश्रित हो सकेगा ? और कारण अनिश्रित होने पर 'विजातीय महत्व का अभाव होने से नील त्रसरेणु के उद्भत स्पर्श का प्रत्यक्ष नहीं होता है' यह कैसे कहा जा सकता है ? मतलब कि . 'गुणस्पार्शन प्रत्यक्ष में विजातीय महत्त्व कारण है, उसरेणु में उसका अभाव होने से उसके स्पा का पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है' - इसके स्थान में विनिगमनाविरह के सरर यह भी कहा जा सकता है कि- 'स्पार्शन प्रत्यक्ष में विजातीय एकत्व कारण है, उनका अभाव होने से त्रसरेणु के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतः इन कल्पनाओं की अपेक्षा यही मानना उचित है कि त्रसरेणु का स्पर्श अनुभूत होता है और उस अनुशत स्पर्श से भी निमित्त विशेष के सहयोग से चतुरणुक आदि में उद्भत स्पर्श की उत्पत्ति होती है। अतः उद्भूत नील रूप त्रसरेणु में उद्भुत स्पर्श का व्यभिचारी सिद्ध होता है। अतएव उद्भुतस्पर्माऽभाव भी उद्भूतनीलरूपाऽभाव का व्याप्य (या साधक) नहीं हो सकता । इसलिए अन्धकार में 'नीलं तमः' इस प्रतीति से उद्भूत नील रूप का अंगीकार करने में कोई दोष नहीं है। इसलिए 'रूपवत्त्व' हेतु अन्धकार में व्यत्व का साधक हो सकता है । अतः अन्धकार को द्रव्यात्मक मानना ही सुसंगत है।
१५ स्यादादी मत में Hinर्य - जैयायिक एकदेशीय ५५ नैयायिकदेशीय :- अथै, इति । द्रव्येतर ऐसे द्रव्यसमवेत की स्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकर्पजाति को एकत्ववृत्ति मानने पर सांकर्य दोप प्रसक्त होने से उसे महत्वगत मानना ही उचित है । वह सांकर्य दोप इस तरह समझा जा सकता है । हमारे (= नैयायिक एकदेशीय के) मत से वायु के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है । द्रव्यान्य द्रव्यसमवेत के स्पार्शन प्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदक प्रकृष्टत्व (= प्रकर्ष) जाति को एकत्वसंख्यावृत्ति मानने पर वायुनिष्ठ एकत्व में तादृश जाति रहेगी । मगर वायु का चाक्षुष प्रत्यक्ष न होने से वहाँ (= वायुगत एकत्वसंख्या में) द्रव्यचाक्षुषजनकता बच्छेदक जाति नहीं रहती है। पाटितपटसूक्ष्म अवयव का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने से पादितपटसश्माऽवयवगत एकल में चाक्षुष प्रत्यक्ष की कारणताअवच्छेदक जाति रहती है, मगर पाटित पट के सूक्ष्म अवयव के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष न होने से द्रव्यान्य ऐसे द्रव्यसमवेत के स्पार्शन प्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदक जाति पाटितपटसूक्ष्माऽवयवगत एकत्व में नहीं रहती है। इस तरह द्रन्याऽन्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारण.
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३११ मध्यमस्वावादरहस्ये खण्डः २ - का.. *विनिगमनाविरहेण सकरापाकरणम् * । शापि सा जातिमहत्वे कलप्यताम्, इयं त्वेकत्वे इत्यौव विनिगमकमन्वेषणीयम् ।
= --- --- --- = * जयलता. * === कार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदका भूतप्रकृष्टत्वजात्याश्च महत्त्वांनष्ठत्वेन ब्यधिकरणत्वात् । इत्यञ्च नीलत्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वेऽपि तादृशप्रकृष्टत्वविशिष्टमहत्त्वविरहान्न तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गः । अत एवोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शज्याप्यत्वमव्याहतम् । ततश्च सुषूक्तं 'तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाऽभाव एव बाधक' इति (दृश्यतां ३०४ तमे पुटे) स्थितम् ।
अत्र स्याद्वादी प्राह- तथापीति । द्रन्येतर-द्रव्यसमवेतगोचररपार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वोपगमे नैयायिकैकदेशिमतानुसारेणेकत्ववृत्त्या द्रव्यचाक्षषकारणतावच्छेदकीभतजात्या समं तत्साङ्कर्यस्य बाधकत्वे | गोचरचाक्षुषनिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूता, जातिः महत्त्वे = महत्त्ववृत्तिः कल्यतां = स्वीक्रियता, इयं = द्रव्येतरद्रव्य-समवेतगुभादिगोचरस्पार्शनकारणतावच्छेदकीभूता प्रकृष्टत्वजातिः, तुः विशेषार्थे । तदेवाऽऽह. एकत्वे = एकत्ववृत्तिः इत्यत्रैव विनिगमकं = नियामकं अन्वेषणीयं = मार्गणीयम् । यथा नैयायिकैकदेशीयमतानुसारेणकत्वसंख्यावृत्त्या द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकजात्या समं साकर्षस्य निराकरणकृते नैयायिकसिद्धान्तिना द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतगुणादिस्पार्शनकारणताचच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या महत्त्ववृत्तित्वमुपकल्प्यते तथैव स्याद्वादिनाऽपि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पानिकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वाऽङ्गीकारे सायपरिहारकृते द्रव्यगोचरचाक्षुषसाक्षात्कारनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूतायाःजात्या महत्त्ववृत्तित्वं कल्पयितुं ना शक्यम् । एतेन द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकजातिरेकत्वे एव न तु महत्त्वे, द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातिश्च महत्त्वे व न त्वेकत्वे इति प्रत्युक्तम्, द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकजातिः महत्त्वे एब न त्वेकत्वे, द्रल्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकर्षजातिश्चैकत्ववृत्तिरेव न तु महत्त्ववृत्तिरित्यस्याऽपि विनिगमकाभावेन सुवचत्वात् । न चैवमपि सङ्करोऽपरिहार्य इति वक्तव्यम्, तयोः व्यधिकरणत्वात् । अत एव नीलत्रसरेणारुद्भुतस्पर्शवत्त्वेऽपि द्रव्याइन्य-द्रव्यसमवेतस्पानिकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातिविशिष्टमहत्त्वशून्यत्वान्न तत्पशेविषयकस्पानिप्रसङ्ग इत्यपि प्रत्युक्तम्, नीलबसरेणुसमवेतैकत्वस्य द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारगनाश्रयत्वसम्भवात् । न च तस्य तत्कारणत्वेऽपि द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेत
तावच्छेदक जाति एवं अन्यचाक्षुषजनकताअवच्छेदक जाति व्यधिकरण है, भिन्न भिन्न एकत्वसंख्या में रहती है । परस्पर असमानाधिकरण ये दो जाति घटगत एकत्वसंख्या में रहती है, क्योंकि घट का चाक्षुष प्रत्यक्ष भी होता है एवं घट के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष भी होता है। यही सांकर्य है, क्योंकि असमानाधिकरण जाति का एक धमी (= घटगत एकत्व संख्या) में समावेश होता है । इस सांकर्य दोप का निराकरण तब ही हो सकता है, यदि द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्यार्शनजनकतावदक प्रकृष्टत्व जाति को महत्त्वगत मानी जाय, न कि एकत्वगत । ऐसा होने पर सांकर्य दोष की संभावना नहीं है। इसका कारण यह है कि (नैयायिक एकदेशीव मतानुसार) द्रव्यविषयकचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति द्रव्यगत एकत्वसंख्या में रहती है और द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक जानि द्रव्यगत महत्त्व में रहती है। मतलब कि घटचाक्षुषजनकतावनोदक जाति घटगत एकत्व संख्या में रहती है और घटसमवेतस्पर्शविषयकस्पार्शनकारणतावच्छेदक जाति घटगत महत्त्व में रहती है। दोनों व्यधिकरण ही हैं, समानाधिकरण (= एकाधिकरणत्ति) नहीं है। इस तरह द्रव्याऽन्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक जाति को महत्त्ववृत्ति मानने में सांकर्य दोष अप्रसक्त है, जब कि एकत्ववृत्ति मानने में सांकर्य दोष प्रसक्त है । अतः तादृश प्रकृष्टत्व जाति की एकत्वगत मान्यता का सांकर्य ही विनिगमक (= बाधक) है, एवं महत्त्वगत मान्यता में सांकर्याऽभाव ही पिनिगमक (= साधक) है । उद्भूतस्पर्शाश्रय नीलवसरेणु में तादृश प्रकर्प (= प्रकृष्टत्व) जाति नहीं होने से नीलासरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का आपादन नहीं किया जा सकता । अतः उद्भुतनीलरूपाश्रय त्रसरेणु में भी उद्भत नीलरूप उद्भुत स्पर्श का व्यभिचारी नहीं है । अतः अन्धकार में उद्भूत नील रूप मानने में उद्भूतस्पर्शाऽभाव (= ब्यापकाऽभाव) ही गधक है। च्यापकाभाव से व्याप्याऽभाव की सिद्धि होती है। निष्कर्ष :- अन्धकार द्रव्य नहीं है ।
जैयायिक मत में विनिगमकाभाव दोष अनेकान्तवादी :- तथापि, इति । उस्ताद ! आपकी इस रामकहानी का मूलाधार है, द्रव्यविषयक चाक्षुषकारणतावच्छेदक जाति को एकत्वगत मानना । मगर द्रव्यविषयकचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति को महत्त्वगत एवं द्रव्याऽन्य द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणता. वच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति को एकत्ववृत्ति क्यों न मानी जाय ? इस विषय का चिनिगमक = निर्णायक कौन होगा ? पही अभी तक खोज का विषय है। मतलब यह है कि घटगत एकत्व में द्रव्यविषयकचाक्षुषकारणतावच्छेदकजाति के साथ द्रव्याऽन्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणताअवच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति के सांकर्य का निवारण करने के लिए जैसे स्वतंत्र (= नैयायिक एकदेशीय)
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* पुन उत्कटनीलस्योत्कटस्पर्शव्याप्त्यापादनम् *
अथ द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदके कत्वनिष्ठजातिव्याप्यैव द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकजातिरभ्युपेयताम्,
३१२
* जयलता है
स्पार्शनकारणतावच्छेदकीभूतप्रकृष्टत्वजातिशून्यत्वान्न नीलत्रसरेणुस्पर्शस्पार्शनप्रसङ्ग इत्यारेकणीयम्, नीलत्रसरेणुसमवेतैकत्वे घटादिसमवेतैकत्ववैजात्यकल्पने मानाभावात् । द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पाइनिकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वविशिष्टकत्वस्य घटना. सम्भवे बाधकाभावात् नीलत्रसरे गोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्शनस्य वज्रलेपायमानत्वात् । न चैवमस्ति एतेन नीलत्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्यांना भाव एवं बाधक इति प्रदर्शितम् । अत एवोद्भूतनील-रूपस्योद्धृतस्पन्य यत्यमपि निराकृतम् । अतो न तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वम् । अत एव तमसो द्रव्यत्वं रूपवन्याद्धेतारव्याहतमिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ।
एकान्तबादी पुनः प्रत्यवतिष्ठत
अथेति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकै कत्वनिष्ठजातिव्याप्यैव = नैयायिकैकदेशिमतसिद्धा या द्रव्यविषयकचाक्षुषनिष्ठ जन्यतानिरूपिताया जनकताया अवच्छंदकीभूता एकत्वसंख्या निष्ठा | जातिः तदभावाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वशून्या एव, एवकारेण व्यापकव्यवच्छेदः कृतः । इव्याऽन्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनजनक - तावच्छेदकजातिः प्रकृष्टत्वविशेषलक्षणा अभ्युपेयतामिति । अयं पराशयः द्रव्यचाक्षुषं कार्यं तन्निष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूता जाति: एकत्वे वर्तते । षकाराचलत्रसंरंगी वर्तमानत्वात् विषयतासम्बन्धेन नीलनसरेणुचाक्षुषमपि तत्र जायत एव । परं स्याद्रादिना यदुक्तं द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वसम्भवे बाधकाभावात् नीलवसरेणुस्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गो दुर्निवार इति तन सम्यक्, नीलत्रसरेणु
-
.....
मत के अनुसार दन्यचाक्षुषकारणता अवच्छेदकजाति को एकत्वगत एवं द्रन्याऽन्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणता अवच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति को महत्त्वगत मानी जाती है, वैसे सांकर्य दोष का निराकरण करने के लिए द्रव्यगोचरचाक्षुषकारणता अवच्छेदक जाति को महत्त्वगत एवं द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेत स्पार्शनकारणता अवच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति को एकत्वसंख्यागत मानी जा सकती है, क्योंकि इन दोनों पक्ष में न तो कोई प्रमाण साधक है और न तो बाधक । अर्थात् घटद्रव्यविषयक चाक्षुष की कारणतावच्छेदक जाति घटगत महत्त्व में रहती है एवं घटसमवेतस्पर्शविषयक स्पार्शन की कारणतावच्छेदक प्रकर्ष जाति घटगत एकत्व में रहती है ऐसा मानने से सांकर्य दोष निराकृत हो जाता है । अतः द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकर्ष जाति को एकगत मानने में सांकर्य दोष की संभावना नहीं रहती है । जैसी एकत्वसंख्या घट में रहती है, तादृश ही एकत्वसंख्या पादित नील पट के त्रसरेणु में भी रहती है; न कि विजातीय। अतः जैसे घटगत एकत्वसंख्या द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेतविषयक : स्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकर्ष जाति का आश्रय है, ठीक वैसे ही नील त्रसरेणु में समवेत एकत्व संख्या भी तादृश प्रकर्ष का आश्रय बनेगी । अतएव घट के स्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की भाँति नीलत्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन की आपत्ति वज्रलेपायमान बनी रही है । मतलब की नीलत्रसरेणु में उद्भूत नील रूप का व्यापक उद्भूत स्पर्श एवं अद्रव्यस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकर्ष जाति दोनों रहने से नीलत्रसरेणुस्पर्श का स्पार्शन अवश्य होना चाहिए । मगर तादृश स्पार्शन नहीं होता है । इसलिए विषयविधया कारणीभूत उद्धृत स्पर्श का नील त्रसरेणु में अभाव मानना ही उचित है । ऐसा होने पर तो उत्कट नील रूप उत्कट | स्पर्श का व्यभिचारी हो जायेगा, क्योंकि उत्कट स्पर्श से शून्य त्रसरेणु में भी उत्कट नील रूप रहता है । उद्भूत नील रूप में उत्कट स्पर्श की व्याप्ति न होने की वजह अन्धकार में उद्भूत नील रूप के स्वीकार में उत्कटस्पर्शाभाव बाधक नहीं हो सकता है, क्योंकि उत्कट स्पर्श तो उत्कट नील रूप का व्यापक ही नहीं है । अव्यापक के अभाव से व्याप्याऽभाव की सिद्धि नहीं की जा सकती । अतएव 'नीलं तमः ' यह प्रतीति भी प्रमितिस्वरूप सिद्ध होती है । इसलिए रूपवत्त्व हेतु के द्वारा अन्धकार में द्रव्यत्वसिद्धि निर्वाध है । निष्कर्ष :- अन्धकार द्रव्यात्मक है ।
ॐ वायुचाक्षुषापति का निराकरण
नैयायिक की ओर से
एकान्तवादी :- अथ इति । जनाब ! हम यह मान लेते हैं कि द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति एकत्वसंख्या में रहती है । इससे आपके वचन का हम स्वायत करते हैं । मगर साथ ही हम यह भी मानते हैं कि अन्यान्य- द्रव्यसमवेतविपयकस्पार्शनजनकतावच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति द्रन्यचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति की, जो एकत्वसंख्या में रहती है, व्याप्य है और द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति उसकी व्यापक है । इसलिए त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि त्रसरेणुवृत्ति एकत्व संख्या में द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदक जाति होने पर भी द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत
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३१३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * आपादितव्याप्तिप्रत्याख्यानम् * || वायोरचाक्षुषत्वं तु विषयविधया वायोश्चाक्षुषाऽहेतुत्वादिति चेत् ? तर्हि एवमेव त्रुटिस्पर्शाऽ- |
= = =* जयला == == | समवेतकत्चे द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकीभूतजातिसत्त्वेऽपि द्रव्यान्य-द्रज़्यसमवेतविषयकस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातेरसत्त्वात्, तस्याः तद्व्याप्यत्वात् । न हि व्यापकसत्त्वेन व्याप्यप्रसञ्जनमर्हति, अन्यथाऽयोगोलके धूमापादनमपि सम्यक् स्यात् । इत्यञ्च | स्याद्वादिवचनानुसारेण द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वोपगमेऽपि उद्भूतस्पर्शाश्रयनीलi| सरेणुसमवेतस्पर्शस्पार्शनं नापाद्यतामर्हति, नीलत्रसरेणी द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वविशिष्टैकत्वलक्षणस्याऽऽपादकस्य विरहात् । ततश्चोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शच्याप्यत्वमबाधितमेवेति तात्पर्यम् ।
ननु द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या द्रव्यगोचरचाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्ववृत्तिजातिव्याप्यत्वमङ्गीकार नाईति, वायोः चाक्षुषत्वप्रसङ्गात्, नैयायिककदेशीयस्य तब मते वायुस्पर्शस्पार्शनस्य सिद्भत्वेन द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातेयुसमवेतैकत्वनिष्ठत्वात तद्व्यापकीभूतद्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमस्याऽऽवश्यक| त्वात् । न हि व्याप्यसत्त्वे व्यापकाभावः कल्पनामर्हति । न च वायुचाक्षुषं भवति । अत एव द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत्तस्यार्शनकारणतावच्छेदकीभूतप्रकृष्टत्वजात्या द्रव्यचाक्षुषसाक्षात्कारकारणतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिव्याप्यत्वमपि न युक्तमिति शङ्कायां पर आह. वायोरचाक्षुषत्वमिति । वायुगोचरचाक्षुषाभाव इति । विषयविधया + विषयत्वेन रूपेण, बायोः चाक्षुषाऽहेतुत्वादिति । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यविषयकचाक्षुषं प्रति तादात्म्येन विषयविधया पृथ्वी-जल-तेजसामेव हेतुत्वेन वायोः द्रव्यविषयक| चाक्षुषजनकतावच्छेदकजातिविशिष्टकलाश्रयत्वेऽपि विषयविधया तादात्म्यनचाक्षषाऽकारणत्वान्न तत्र (= व चाक्षुषप्रत्यक्षं जायते । अतो वायोरचाक्षुषत्वेऽपि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टजातेः द्रव्यचाक्षुषजनकत्वाबच्छेदकैकत्वसमवेतजातिव्याप्यत्वाऽङ्गीकारे बाधक नास्तीति नैयायिककदेशीयस्य वायुस्पर्शस्पार्शनवादिनोऽभिप्रायः ।
स्याद्वाद्याह- तहीति | विषयविधया वायोश्चाक्षुषा हेतुत्वाभ्युपगमेन द्रव्यविषयकचाक्षुषजनकतावच्छेदकीभूतजातिविशिष्टकत्वयत्त्वेऽपि विषयतासम्बन्धेन वायौ द्रव्यचाक्षुषानुत्पादोपपादने इति । एवमेव = द्रव्याइन्य-द्रन्यसमवेतस्पार्शनकारणताबच्छेदकीभूतप्रकृष्टत्वजातिविशिष्टैकत्वस्य सामानाधिकरण्येन नीलत्रसरेणुसमवेतस्पर्शनिष्ठत्वेऽपि विषयविधया तादात्म्येन नीलबस
स्पार्शनजनकत्ताअपडेदक प्रकृष्टत्व जाति का हम स्वीकार नहीं करते है । यह कोई नियम नहीं है कि जहाँ व्यापक हो, वहाँ व्याप्य भी अवश्य हो । नियम तो ऐसा है कि जहाँ व्याप्य हो, वहाँ व्यापक अवश्य हो । प्रस्तुत में द्रव्यचाक्षुषजनकताबच्छेदक जाति व्यापक है, न कि व्याप्य । अतः नीलत्रसरेणुनिष्ठ एकत्व में द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति रहने पर द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतविषयकस्पार्शनजनकतावच्छेदक जाति का आपादन नहीं किया जा सकता । इसलिए नील त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श को मानने पर भी उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति का अवकाश नहीं है । अतः उद्धृत नील रूप का व्यापक उद्भूत स्पर्श है - ऐसा मानने में कोई दोप नहीं है।
वाया. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "द्रव्यचाक्षुषजनकताअवच्छेदक जाति को द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकताअब। छेदक जाति की व्यापक मानी जाय, तब तो वायु का भी चाक्षुष प्रत्यक्ष होने लगेगा । इसका कारण यह है कि आपके
मत के अनुसार वायु का स्पर्श स्पार्शन प्रत्यक्ष का विपय बनता है। इसलिए वायुगत एकत्व में आप द्रव्यान्य-द्रव्यस्पार्शनजनकतावच्छेदक प्रकृयत्व जाति को मानते हैं। व्याप्य के अधिकरण में व्यापक का होना अनिवार्य है। इसलिए वायुगत एकत्व में तादृश प्रकृष्टत्व जाति की व्यापक द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति भी सिद्ध हो जायेगी । जहाँ जहाँ व्याप्य होता है वहाँ यहाँ व्यापक होता ही है, यह सभी को मान्य है। द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति होने पर तो वायु का चाक्षुप प्रत्यक्ष होना आवश्यक है" - तो यह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि वायु द्रव्यचाक्षुप का कारण ही नहीं है। आशय यह है कि विषयतासम्बन्ध से द्रव्यप्रत्यक्ष के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से द्रव्य विषयविधया कारण होता है। जैसे घटविषयक प्रत्यक्ष विपयतासम्बन्ध से घर में रहता है और तादात्म्य सम्बन्ध से घर भी यहाँ रहता है, जो विषयविधया स्वविषयक प्रत्यक्ष का कारण है। सामान्यतः यह कार्य-कारणभाव माना गया है। मगर बायु का कभी भी चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है । इसलिए विषयतासम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुप के प्रति विषयविश्या तादात्म्य सम्बन्ध से वायु को कारण नहीं माना जा सकता । पृथ्वी, जल और तेजस द्रव्य को ही द्रव्यचाक्षुप के प्रति विषयविधया कारण माना गया है। इसलिए वायुगत एकत्व में द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति होने पर भी वायुविषयक चाक्षुष प्रत्यक्ष की विषयता सम्बन्ध से वायु में उत्पत्ति होने की कोई संभावना नहीं है।
अनेकान्तवादी :- नहि. इति । उस्ताद ! आप द्रव्यान्य-द्रच्यसमवेतविषयकस्पार्शनजनकताअवच्छेदक जाति को द्रव्यचाक्षुष
% 3D
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* विषयस्य तत्तदूव्यक्तित्वंनाऽकारणत्वसमर्थनम् *
स्पार्शनस्याप्युपपत्तेः द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकै कत्वनिष्ठ जाते र्द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकजातिव्याप्यत्वे विनिगमकाभाव:, विषयस्य तत्तद्व्यक्तित्वे कारणतायां मानाभावश्च ।
३१४
* जयलता है
रेणुनिष्ठस्पर्शस्य स्पार्शना हेतुत्वाऽभ्युपगमेनैव त्रुटिस्पर्शाऽस्पार्शनस्याप्युपपत्तेः = विषयतासम्बन्धेन नीलत्रसरेणुस्पर्शे स्पार्शनप्रत्यक्षानुत्पादस्यापि सम्भवात् । त्रसरेणुसमवेतस्पर्शाऽस्पार्शनिकृते चैवं द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातेद्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्ववृत्तिजातिव्याप्यत्वाऽभ्युपगमोऽपि नातिप्रयोजनः, द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्ट'त्वजातेर्द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिव्यापकत्वाऽभ्युपगमेऽपि क्षतिविरहादित्याशयेन स्याद्वाद्याह- द्रव्यचाक्षुषजनकताचच्छेदकत्वनिष्ठजातेः द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनजनकतावच्छेदकजातिव्याप्यत्वे विनिगमकाभाव इति । द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातेः द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतजनकतावच्छेदकजातिव्यापकत्वमेव, न तु तद्व्याप्यत्वमित्यत्राऽनुकूलतर्कविरह् इत्यर्थः ।
नन्वस्तु द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकजातेः द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेतस्थार्शनजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिव्याप्यत्वं किं नश्छिन्नं ? नीलत्रसरेणुसमवेतैकत्वे द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकजातिव्यापकद्रव्यान्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातेः सत्त्वेऽपि विषयविधया तादात्म्येन वायोश्चाक्षुषा हेतुत्ववत् नीलसरेणुसमवेतस्पर्शस्याऽपि तथैव स्पार्शनाऽहेतुत्वादिति नैयायिकैकदेशीयशङ्कायां स्याद्वाग्राह विषयस्येति । विषयस्य स्वविषयकप्रत्यक्षे विषयत्वनैव कारणत्वं न तु तत्तद्व्यक्तित्वेन, गौरवात् प्रमाणाभावात् । यथा विषयतासंबन्धेन प्रत्यक्षं प्रति तादात्म्येन विषयः कारणमिति सामान्यकारणकार्य भावबलेन विषयतासम्बन्धेन नीलवसरेणुस्पर्शस्पार्शनं प्रति तादात्म्येन तत्स्पर्शकारणताया अनपह्नवनीयत्वात् स्वसाक्षात्कारं प्रति घटस्येव । यद्वा स्वविषयप्रतियोगिकसमवायेन द्रव्यसमवेतसाक्षात्कारं प्रति तादात्म्येन द्रव्यस्य कारणत्वमते घटनीलरूपस्पर्श-घटत्वादिसाक्षात्कारं प्रति तादात्म्येन घटस्येव नीलत्रसरेणुस्पर्शस्पार्शनं प्रति नीलत्रसरेणी: कारणत्वस्याऽबाधितत्वात् । न च तादृशः सामान्यकार्यकारणभाव एवाऽसम्मतः, तत्तत्कार्यकारणभावस्यैवाऽभ्युपगमात् स्वप्रतियोगिकसमवायेन घटस्पर्शस्पार्शनं प्रति तादात्म्येन घटस्य कारणवोपगमेऽपि नीलत्रुदिस्पर्शस्पार्शनं प्रति तादात्म्येन त्रसरेणोः कारणत्वस्याऽनङ्गीकारात्, आपादकविरहेण नीलत्रुटिस्पर्शजनकतावच्छेदकजाति की व्याप्य मान कर भी विपयविधया वायु को द्रव्यचाक्षुष का अहेतु मान कर वायुचाक्षुप का निराकरण करते हैं, तब तो अन्यचाक्षुपजनकता अवच्छेदक जाति को द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनजनकता अवच्छेदक जाति की व्याप्य मानने पर भी त्रसरेणु'स्पर्श या त्रसरेणु को विषयविधया द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शन का अकारण मान कर त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रसंग का निराकरण किया जा सकता है। मतलब यह है कि त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन के अभाव की उपपत्ति करने के लिए नैयायिक मनीपियों की ओर से जो कहा गया था कि 'द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदक जाति द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति की व्याप्य ही है, न कि व्यापक' वह संगत नहीं है, क्योंकि द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतजनकतावच्छेदक जाति को व्यापक एवं द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति को व्याप्य मानने पर भी असरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष के अभाव की उपपत्ति ठीक उसी तरह की जा सकती है जैसे वायु के चाक्षुष के अभाव की उपपत्ति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह तो नहीं कहा जा सकता है कि 'द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदक जाति व्याप्य ही है और द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति उसकी व्यापक है'; क्योंकि नैयायिक के इस कथन में कोई युक्ति नहीं होने से यह भी कहा जा सकता है कि 'द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनजनकतावच्छेदक जाति व्यापक ही है और द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति व्याप्य ही है'।
व्यक्तिगतरूप से विषय प्रत्यक्ष का कारण नहीं है - स्याद्वादी
विष इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "चलो मान लिया, द्रव्यान्य द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदक जाति, जो एकत्वसंख्यागत है, व्यापक ही है और द्रव्यत्राक्षुपजनकतावच्छेदक जाति उसकी व्याप्य ही है । मगर फिर भी नीलत्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन की आपत्ति नहीं दी जा सकती। इसका कारण यह है कि नीलत्रसरेणुगत एकत्व में द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति होने की वजह उसकी व्यापक प्रन्यान्य- द्रव्यसमवेतस्यार्शनजनकतावच्छेदक जाति होने पर भी चाक्षुष प्रत्यक्ष के प्रति वायु की भाँति, स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति त्रसरेणु अकारण है, ऐसा कहा जा सकता है" <- तो यह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि कोई भी विषय प्रत्यक्ष के प्रति तत् तत् व्यक्तित्वरूप से कारण नहीं है, किन्तु विषयत्वरूप से ही कारण है। वैयक्तिक रूप से विषय को प्रत्यक्षकारण मानने पर कारणता अवच्छेदक धर्म अनेक
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३१५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * त्रुटिस्पाऽस्यार्शनविचार: *
यत्त -> महत्त्वोद्धतस्पर्शयो: कारणत्वाऽकल्पनलाघवात् त्वसंयुक्तत्वाचवत्समवायत्वेन द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनं प्रति प्रत्यासत्तित्वान्न त्रुटिस्पर्शस्पानिमिति -
--....------ ------- - -- -- ...-* जयलता * =-- - स्पार्शनस्या नापाद्यत्वादिति वक्तव्यम्, तत्तद्व्यक्तित्वेन प्रत्यक्षकारणतोपगमेऽनन्तकार्यकारणभावकल्पनागौरवात् । न च तस्य फलमुखत्वेनाइदोषत्वमिति वाच्यम्, प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वमेव तादृशगौरबस्योपस्थितेः तादृशकार्यकारणभावबाहुल्यकल्पने मानाभावात्. सामान्यकार्यकारणभावकल्पने लाघवात् । ततश्चोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वा पगमे द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदिकाया एकत्ववृत्तिजातेः द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातिव्याप्यत्वे बाधकाभावेन नालासरेणुस्पर्शस्पार्शनस्य सुरगुरुणाऽप्यपाकर्तुमशक्यत्वात् । न च तत्स्पार्शनं भवति । अत एव नीलयुटः उद्भूतस्पर्शा:भावस्यायस्यमुपगन्तव्यत्वे उत्कटनीलरूपस्य नोद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वं, येन तमस उद्भूतनीलरूपवत्वं उत्कटस्पशाभावस्य बाधकत्वं स्यात् । अनेन 'नीलं नमः' इति प्रतीते प्रामाणिकत्वमावेदितम् । ततः सुष्टूक्तं 'तमसो द्रव्यत्वे रूपबत्त्वमेव मानमि' (दृश्यतां ३०२ तमे पुटें) ति स्यावादिनो भिप्रायः ।
अथ यस्य द्रव्यस्य स्पार्शनं भवति तत्रैव समवेतस्य स्पर्शस्य स्पार्शनं भवति, यथा “घर्ट स्पृशामी' तिप्रतीत्या स्पार्शनविषयीभूतघदे समवेतस्य स्पर्शस्य स्पार्शनम् । इत्थश्च स्वनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतासम्बन्धेन स्पार्शनविशिष्टे समवेतस्य : पर्शस्य पानविषयत्वसिद्धेः त्वगिन्द्रियं न स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्धेन स्पार्शनकारणं किन्तु विषयतया स्वसंयुक्तरपार्शनविशिष्टानुयोगिकसमवायसंसर्गेणैव । युक्तश्चैतत् महत्त्वोद्भूतस्पर्शयोः स्पर्शप्रत्यक्षकारणत्वा कल्पनेन लाघवात. दर्शितप्रत्यासत्त्या एवाऽतिप्रसङ्गभञ्जकत्वादित्यभिप्रायकं नैयायिकदेशीयान्तरमतमावेदयति निराकर्तुं प्रकरणकार: → यत्त्विति । 'तत्रे' त्यनेना:स्याऽन्वयः । त्वक्संयुक्तत्वाचवत्समवायत्वेनेति । त्वाचप्रत्यक्षनिरूपितविषयतासंसर्गेण त्यक्संयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिक. समवायत्वेन, अनेन 'त्वकसंयक्तसमवायत्वेने त्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । द्रव्यान्य-द्रल्यसमवेतस्पार्शनं = द्रव्यान्यत्वे सति यो | द्रव्यसमो माशादिः नहोचरं सानिमजन्याशालार प्रति प्रत्यासत्तित्वात् = समवायस्य संसर्गत्वोपगमात् न त्रुटिस्पर्शस्पार्शनं = द्रव्यान्यत्वे सति त्रसरेणुसमवेतो यः स्पर्शः तद्विषयकरपार्शनप्रत्यक्षापतिः । त्रसंरणुसमवेतस्पर्शप्रतियोगिकसमवायस्य स्पर्शनेन्द्रियसंयुक्तसमवायत्वेऽपि त्रसरेणी: स्पार्शनाविषयत्वात् त्वगिन्द्रियसंयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिकत्वविरहेण
प्रसक्त बनने से कार्यकारणभाव में गौरव होता है । जैसे घटप्रत्यक्ष के प्रति घट में घटत्वेन कारणता, पटप्रत्यक्ष के प्रति पट में पटत्वेन कारणता इत्यादि का अंगीकार कर्तव्य बनने से कार्यकारणभाव में बाहुल्य आता है। जब कि विषयत्वरूप से विषय को प्रत्यक्षकारण मानने पर, चाहे घटप्रत्यक्ष हो या पटविषयक प्रत्यक्ष हो, घट या पट में विषयत्वरूप से ही प्रत्यक्षकारणता का अङ्गीकार होता है। जिसके फलस्वरूप कार्य-कारणभाव में गौरव की प्रसक्ति नहीं रहती है। इसलिए गौरख दोप की | वजह वैयक्तिकरूप से विपय में प्रत्यक्ष की कारणता अप्रामाणिक है। व्यक्तिगतरूप से विषय को प्रत्यक्षकारण मानने में कोई प्रमाण न होने की वजह यह नहीं कहा जा सकता कि "चाक्षुप प्रत्यक्ष के प्रति वायु अकारण है तथा स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति त्रसरेणु या त्रसरेणुस्पर्श अकारण है। अतः त्रसरेणुगत एकत्व में द्रव्यचाक्षुपकारणतावच्छेदक जाति रहने से जैसे नील ब्रसरेणु का चाक्षुप प्रत्यक्ष होता है, ठीक वैसे ही उसकी व्यापक द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक जाति के उसीमें रहने से नीलत्रसरेणुस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होने की आपत्ति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। इसका निराकरण तब ही हो सकता है, यदि उत्कट नील रूप को उत्कट स्पर्श का ब्याप्य न माना जाय। इस परिस्थिति में अन्धकार में रूपवत्ता के प्रति स्पर्शाभाव बाधक नहीं हो सकता । निष्कर्ष अन्धकार द्रव्यात्मक है ।
he eपानेन्द्रिय में संयुक्तरताततत्समदाय से. पाता - नयायिकदेशीय
यन. इति । अन्य नैयायिक भनीपियों त्रसरेणुस्पर्श के अस्पार्शन का निर्वाह करने के लिए इस व्यवस्था का स्वीकार करते हैं कि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्पान के प्रति स्वसंयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टसमवाय सम्बन्ध से स्वगिन्द्रिय कारण है। | इन विद्वानों का आशय यह है कि जिस द्रव्य का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है, उसीमें समवेत स्पादि का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है। जिस द्रव्य में महत्त्व और उद्भुत स्पर्श रहता है, उसी द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है, न कि अन्य द्रव्य का । अतः स्पार्शनप्रत्यक्षमात्र के प्रति महत्त्व और उद्भुत स्पर्श को कारण मानने की आवश्यकता नहीं है। जैसे महत्परिमाण एवं उद्भूतस्पर्श से युक्त होने से घट का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है । महत्परिमाण से शून्य परमाणु का या उद्भुतस्पर्शशून्य प्रभा-आकाशादि का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसलिए महत्त्व और उद्भुतस्पर्श में दन्यविषयक स्पार्शनप्रत्यक्ष की कारणता माननी अनिवार्य है। मगर स्पर्श
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*त्वाचवत्त्वस्य विशेषणत्वोपलक्षणत्वकल्पनमयुक्तम् * ता, आश्रयत्वाचस्य नियमतः पूर्वमभावेन त्वाचवत्त्वस्य विशेषणत्वाऽयोगात, - - - - -- -=-* जयलता * -- -
= =:| त्रुटिसमवेतस्पर्शगोचरस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रत्यासत्तित्वाऽयोगात्, कारणतावच्छेदकसंसर्गेण त्वगिन्द्रियस्य द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत| स्पार्शनकारणस्य त्रुटिस्पर्श-विद्यमानत्वेनाऽऽपादकविरहात् न विषयतासम्बन्धेन त्रुटिस्पर्श स्पार्शनप्रसङ्ग इति नोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शच्याप्यत्वे व्यभिचारी, येन तमस उद्भूतरूपवत्त्वे स्पर्शाभावस्य बाधकत्वं न स्यादिति नैयायिकैकदेशीयान्तराभिप्रायः ।
ननु पर्शनेन्द्रियसंयुक्तानुयोगिकत्वमिव विषयतासम्बन्धेन त्वाचप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिकत्वं किं समवायस्य विशेषणं यदुतोपलक्षणं १ इति कल्पनायुगली मञ्जुलकलमरालविहङ्गमयुगलीय विमलीभावं कलयन्ति कं लयन्ति तीनै प्रगुणयत्येव । गुणज्ञगणचित्ताङ्गणेष्वित्याशयेन प्रकरणकृत्तन्निराकुर्वन्नाह- तनेति । प्रथमकल्पनायामाह- आश्रयत्वाचस्य = द्रव्यान्यत्वे सति ।
यो द्रव्यसमवेतः तदधिकरणविषयकरपार्शनप्रत्यक्षस्य नियमतः पूर्वमभावेन = द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजन्माऽव्यवहित|| पूर्वक्षणाऽन्यापकत्वेन, त्वाचवत्त्वस्य = स्वनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतासंसर्गेण स्पार्शनप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिक त्वाऽयोगात् = द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत्तस्पार्शनजनकतावच्छेदकसंसर्गविशेषणत्वाइसम्भवात, ज्यावृत्तिबुद्धिसमये विशेष्यसम्बद्भस्यैव व्यावर्तकस्य विशेषणत्वोक्तेः । तन्मते वायोरस्पार्शनत्वेऽपि वायुस्पर्शस्पार्शनस्य जायमानत्वात्त्वचो न स्वसंयुक्तत्वाचवत्समवायेन | हेतुत्वं किन्तु स्वसंयुक्तसमवायेनैव । तथा च त्रुटिस्पर्शस्पानिस्य दुर्निवारत्वमित्याशयः ।
- - - - - - के स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति महत्त्व और उद्भुतस्पर्श को कारण मानना अनावश्यक है। फिर भी त्रसरेणु, परमाणु, प्रभा आदि द्रव्य के स्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि उसके निवारणार्थ हम त्वगिन्द्रिय को द्रव्येतरद्रव्यसमवेत स्पादि के स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध से कारण नहीं मानते हैं, किन्तु स्वसंयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टसमवाय सम्बन्ध से कारण मानते हैं । स्वपद से त्वगिन्द्रिय का ग्रहण अभिप्रेत है। उससे संयुक्त त्रसरेणु, परमाणु, प्रभा आदि द्रव्य हैं। उनमें यद्यपि स्पर्श गुण का समवाय रहता है, मगर त्रसरेणु, परमाणु आदि द्रव्य स्पार्शन प्रत्यक्ष (= त्वाच) का अविषय होने से विपयता सम्बन्ध से त्वाचरिशिष्ट नहीं बनते हैं। इसलिए त्रसरेणु, परमाणु आदि के स्पर्श में जो समवाय रहता है, वह स्पर्शनेन्द्रियसंयुक्त-त्वाचविशिष्ट-द्रव्यानुयोगिक नहीं है । अतएव त्वगिन्द्रिय स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से त्रसरेणु, परमाणु आदि के स्पर्श में नहीं रहती है। कार्यतावच्छेदकीभूत विषयतासम्बन्ध से त्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्षात्मक कार्य के अधिकरणविधया अभिमन बसरेणुस्पर्श में कारणतावच्छेदकीभूत स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से स्पर्शनेन्द्रियात्मक कारण नहीं रहने से त्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती। कार्याधिकरणविधया अभिमत पदार्थ में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से सभी कारण के रहने पर ही कार्योत्पत्ति का आपादन किया जा सकता है। क्या तादात्म्य सम्बन्ध से तंतुशुन्य कपाल में पटोत्पत्ति का आपादन किया जा सकता है । यहाँ यह शंका करना कि -> 'स्वसंयुक्तसमवाय की अपेक्षा स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय को द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतगोचर स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानने में गौरव है' -भी नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि स्वसंयुक्त-वाचविशिष्ट-द्रव्यानुयोगिक समवाय को तादृशकारणताअवच्छेदक सम्बन्ध मानने पर महत्व और उद्भूत स्पर्श में द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविपयकस्पार्शनप्रत्यक्ष की कारणता की कल्पना अनावश्यक बन जाने से कारणशरीर में लाघव होता है, कारणतावच्छेदक-धर्मदेह में लायब होता है। निष्कर्ष :- त्रसरेणुस्पर्श के अस्पार्शन का निर्वाह होने से उद्भूत नील रूप में उद्धृत स्पर्श की व्याप्ति अबाधित है। * स्वातप्रत्यक्ष में समवाय की विशेषणता या उपलक्षणता नामुमकिन - स्यादादी *
तन्न. इनि । उपर्युक्त विद्वानों के मत का प्रतिकार करते हुए प्रकरणकार श्रीमद्जी कहते हैं, नैयायिक मनीपियों का यह कथन कि • 'स्पर्शनेन्द्रिय स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्ट समवाय सम्बन्ध से द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण है' - असंगत है। इसका कारण यह है कि त्याच प्रत्यक्ष दर्शित सम्बन्ध का न तो विशेषण हो सकता है और न तो उपलक्षण । व्यावर्तक धर्म या तो विशेषण होता है, या तो उपलक्षण । सामान्यतः विशेष्य की अन्य से ज्यावृत्ति करने के समय जो नियमतः विशेष्य में विद्यमान रहता हो वह विशेषण कहा जा सकता है। जैसे 'दण्डी पुरुषः' यहाँ अदण्डी से विवक्षित पुरुप की ब्यावृत्ति + व्यवच्छेद करने के समय पर दण्ड पुरुष में अवश्य रहने से वह पुरुप का विशेषण होता है। अतः प्रस्तुत में त्याच प्रत्यक्ष को समवाय का विशेपण मानने का मतलब यह होता है कि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पर्शादिविषयक स्पानि प्रत्यक्षात्मक कार्य का जन्म होने की पूर्व क्षण में व्यस्पर्श में स्वसंयुक्त-स्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से = = = = = = = = = = = = =
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३१७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का,५ *विशेपणोपलक्षणस्वरूपमीमांसा * | उपलक्षणत्वे घटाधुत्पत्तिदिवतीयक्षणे स्पादिस्वाशनापत्तेः ।।
== --* गरालता * द्वितीयकल्पनायामाह- उपलक्षणत्व इति । घटाद्युत्पत्तिद्वितीयक्षणे स्पर्शादिस्पार्शनापत्तेरिति । तदानीं घटादिसमवेतस्पर्शादिस्पार्शनप्रसङ्गात्, आदिशब्देन घटत्य-द्रव्यत्वादेर्ग्रहणम् । व्यावृत्तिधीक्षणे विशेष्याऽसम्बद्भस्य व्यावर्तकस्योपलक्षणत्वोक्तेः घटादेर्विषयतासम्बन्धेन यदाकदाचित्त्वाचसम्बद्धत्वात् त्वाचविशिष्टानुयोगिकत्वस्य द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणताबच्छेदकीभूतसम्बन्धोपलक्षणत्वसम्भवेन वटाद्युत्पत्त्यव्यवहितोत्तरगावच्छेटेन घटादिसावेतमालादिम्पार्शतं दनिवारम्, तदानीं त्वचो घटादिसंयुक्तत्वदशायां घटादिस्पर्दो स्वसंयुक्तत्वाचवत्समवायेन त्वगिन्द्रियस्य सत्त्वात् । न च कार्योत्पादाऽव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धेन कार्याधिकरणे विषयत्वेन कारणस्य स्पर्शस्याऽविद्यमानत्वात, उत्पत्तिक्षणावच्छेदेन द्रव्याणां निर्गुणत्वादिति वाच्यम्, विषयस्य कार्यसहभावेन हेतुत्वात् । तस्य विदोषणत्वे उपलक्षणत्वे वा वायोरत्वाचत्वेन तद्वृत्तिस्पर्शत्वाचानुपपत्तिरप्यत्राऽनुसन्धेया ।
इदन्त्ववधेयम् - विशिष्टज्ञानप्रकारीभूतो धर्मा द्विविधो ब्यावर्तकोऽव्यावर्तकश्च । तत्राऽच्यावर्तकः प्रमेयत्वादिलक्षण उपरञ्जक इति गीयते । तत्त्वञ्च व्यावृत्तिबुद्धिजनकतानवच्छेदकवैशिष्ट्यप्रतियोगित्वम् । भवति हि प्रमेयत्वादिवैशिष्ट्यं तथा, व्यतिरेकविशेषणवैशिष्ट्यवद्विशेष्यज्ञानत्वस्यैवाऽतव्यावृत्तिबोधजनकतावच्छेदकत्वात् । अतादृशो ब्यावर्तकः । स च विशेषणोपलक्षणभेदाद द्विविध इति शास्त्रमर्यादा । तत्र व्यावृत्तित्रुद्धिजनकज्ञानप्रकारत्वे सति सद् विडोषणम्, असदुपलक्षणं यथा 'दण्डी पुरुषः' 'कुरुणा क्षेत्रमित्येके । व्यावृत्तिबोधसमये व्यावर्तक सद् विशेषणमसदपलक्षणमित्यपरे । व्यावर्तकत्वे सति क्रियान्वयि विशेषणमन्यदुपलक्षणमितीतरे । व्यावर्तकं साक्षात् सम्बद्धं नीलादि विशेषणं परम्परासम्बद्धं काकाद्युपलक्षणमिति शिवादित्यमिश्राः ।
चिन्तामणिकृतस्तु प्रत्याय्यव्यावृत्त्यधिकरणतावच्छेदकत्ये सति व्यावर्तकं विशेषणं तदन्यव्यावर्त्तकमुपलक्षणं व्यावृत्त्युलेखाउनन्तरमेव विशेषणत्वबुद्धिः । तदाहुराचार्याः 'सदसद्धा समानाधिकरणं व्यवच्छेदकं विशेषणं व्यधिकरणमुपलक्षणमिति । अस्यार्थः, स्वाधिकरणमात्रवृत्तिव्यावृत्तिबोधकत्वं स्वावच्छिन्नाधिकरणताकव्यावृत्तिबोधकल्वं स्वानधिकरणाऽधिकरणकव्यावृत्त्यबोधकत्वे सति व्यावत्तिबोधकत्वं वेति । उपलक्षणन्त स्वानधिकरणेऽपि व्यावत्तिं बोधयति । अथवा वि वच्छेदकं विशेषगं. 'दण्डिनमानये' त्यादी दण्डस्तधा । तदनवच्छेदकमपलक्षणं 'काकेन देवदत्तस्य गहा' इत्यादौ काको न गृहस्य | देवदत्तान्वयप्रतियोगितावच्छेदकः, तद्विरहदशायामपि देवदत्तान्त्रवाइवामात, किन्तु गृहविशेष एच उपलक्षणपरिचितः । अत एकाऽन्वयाऽप्रतियोगित्वेऽपि नोपलक्षणवैयर्थ्यम् । यदा यदन्चिततया ज्ञात एव विशेष्ये तात्पर्यविषयेतराइन्वयधीस्तव्यवच्छे. दकं विशेषणं, अनेवम्भूतं तद्पलक्षणं, उपलक्षणानवच्छिन्नेऽप्युपलक्ष्ये तात्पर्यविषयीभूतान्वयबोधात् । अयमेव कार्यान्वयि विशेषणं तदनन्यप्युपलक्षणमित्यस्याऽर्थः, न तु तात्पर्यविषयीभूतविशेष्याऽन्वयबोधविषयत्वं विशिष्टज्ञानविषयत्वं बा, प्रतियोग्यभावबुद्धिविषय इति मते तदभावात् । यद्वा विशेष्यान्वयिना यस्याऽयश्यमन्वयस्तदवच्छेदकं विशेषणं तदन्यदुपलक्षणमिति तत्रोपलक्ष्यविशेष्यमात्रान्वयात पदव्यावर्त्तकं विशेष्यान्वयिन्यन्चीयते तद्विशेषणं तदन्यदपलक्षणमिति वा । यद्वा तात्पर्यविषयान्वयप्रतियोगी
त्वगिन्द्रिय (= स्पर्शनेन्द्रिय) रहने से तादश स्पर्श के आश्रयीभूत द्रव्य में विषयता सम्बन्ध से स्पार्शन प्रत्यक्ष (= त्वाच) नियमतः रहता है, अर्थात् स्पर्शविषयक स्पार्शनप्रत्यक्षस्वरूप कार्य के जन्म की पूर्व क्षण में स्पर्धा के अधिकरणीभूत द्रव्य का अवश्य स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है तब ही त्रसरेणु-परमाणु आदि में रहनेवाले स्पर्श के समवाय से घटादिस्पर्शसमवाय की व्यावृत्ति करने वाला त्याच प्रत्यक्ष कारणतावच्छेदकीभूत समवायसम्बन्ध का विशेषण बन सकता है । मगर ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि स्पर्श का प्रत्यक्ष होने की पूर्व क्षण में स्पर्शाश्रयीभूत द्रव्य का अवश्य स्पानि प्रत्यक्ष हो ऐसी कोई ईश्वराज्ञा नहीं है 1 नैयायिक-मतानुसार वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष न होने पर भी वायुस्पर्शविषयक स्पार्शन साक्षात्कार होता है। वायुस्पर्शस्पार्शन से वायु का नैयायिक मनीषी अनुमान करते हैं। इसलिए 'वायुस्पर्श का स्पार्शन नहीं होना है' - ऐसा नैयायिक की ओर से नहीं कहा जा सकता । अन्यत्र भी, घटादिस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की अव्यवहित पूर्व क्ष प्रत्यक्ष अवश्य होता है - ऐसा सावलौकिक अनुभव भी नहीं है। इसलिए द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत (स्पर्श)विषयक-स्पार्शनप्रत्यक्षकारणताबच्छेदक-प्रत्यासत्तिस्वरूप समवाय का त्वाचवस्व (= स्पार्शनप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिकन्य) विशेषण नहीं हो सकता है ।
उपलक्षण, इति । एवं त्वाचवत्व को तादृश समवाय का उपलक्षण भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब घटादिजन्माउ| व्यवहितोत्तरक्षणावच्छेदेन घटादिस्पर्शविषयकस्पार्शनप्रत्यक्षोदय की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहती है। आशय यह है कि व्यावृत्तिसमय
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* त्रुटिस्पर्शस्यानुनत्वसमर्थनम् * | कालभेदेनैकस्यामेव सतातामा सम्भव बत्वाचप्रवेशाऽपेक्षया महत्त्वोद्भूतरूपयोरेव प्रत्यासत्तिमध्ये प्रवेशस्य भुटिस्पर्शऽनुभूतत्वकल्पनस्य चोचितत्वात् ।
===* यलता * उद्देश्यान्वयप्रतियोगी वा धर्मो विशेषण्यं तदन्यदुपलक्षणं' (त.चिं.प्र.खं.पृ.८३४) इति वदन्ति ।
विशेषणमुपलक्षणं च ज्ञानविशेषमादाय धर्मिविशेषमादाय च निरूप्यत इति न सर्वत्राऽनुगतमस्ति, किन्तु तत्तद्व्यवहारानुरोधेन । विषयताविशेषरूपं तदुभयलक्षणमवमन्तव्यम् । अवधारणात्यविषयतावद् विशेषणं तदितरच्चोपलक्षणमिति तु स्याद्रादिनः समाकलितसर्वतन्त्ररहस्याः ।
साम्प्रतं प्रकृतं प्रक्रियते - कालभेदेन = भिन्नकालावच्छेदेन एकस्यामेव घटादिलक्षणायां व्यक्ती अनन्तत्वाचानां - अनन्तानां त्वगिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षाणां सम्भवेन तावत्त्वाचप्रवेशाऽपेक्षया = द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकसम्बन्धकुक्षौ अनन्तस्पार्शननिवेशाऽपेक्षया महत्त्वोद्भूतरूपयोरेव प्रत्यासत्तिमध्ये = तादृशकारणतावच्छेदकसम्बन्धशरीरे, प्रवेशस्य उचितत्वादित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । त्वाचोपलक्षणत्वाऽभ्युपगमे विशेष्यसम्बद्धाऽसम्बद्धानां सर्वेषामेव त्याचप्रत्यक्षाणां विनिगमनाविरहेण सम्बन्धदारीरे अवश्यनिवेश्यत्वेनाऽनन्तत्वाचप्रवेशप्रसङ्गः, एकस्मिन्नपि घटादिवस्तुनि काल-देश-पुरुषादिभेदेनाऽनन्तत्वाचानां विषय
। तथा च महद्रोरवमापतितं कथं अपसारणीयम : अतो लाघवात तादशजनकतावच्छेदकसम्बन्धकक्षी। महत्वोद्भूतरूपनिवेशः समीचीनः । एतेन विषयतया द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनं प्रति त्वगिन्द्रियस्य स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिकसमवायेन कारणत्वमिति निरस्तम्, उपलक्षणीभूतानन्तत्वाचघटितसमवायापेक्षया स्वसंयुक्तमहत्त्वोद्भूतरूपवनुयोगिकसमवायस्यैव तधातौचित्यात् । महत्त्वपदेनात्र प्रकृष्टमहत्त्वं बोध्यं, तेन न यशुकस्पार्शनप्रसङ्गः ।
__ अथ त्वाचं विहाय प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतरूपयोः प्रत्याररत्तिघटकत्वेनोपादाने त्रुटिस्पर्शस्पार्शनं दुर्निवारं, त्रुटी प्रकृष्टमहत्त्वाद्भूतरूपयो: सत्त्वेन त्रुटिस्पर्श स्वसंयुक्तमहत्त्वोद्भूतरूपबदनुयोगिकसमवायेन त्वगिन्द्रियस्य सत्त्वादिति नैयायिकाशङ्कायामाह त्रुटिस्पर्शेऽ. नुद्भूतत्वकल्पनस्य चोचितत्वादिति । त्रसरेणुस्पर्शाऽस्पार्शननिर्वाहकृते तदनुत्कटत्वकल्पनोचिता, न तु त्वक्संयुक्तत्वाचबदनु
में विशेष्य से असम्बद्ध रह कर भी जो विशेप्य की अन्य से व्यावृत्ति (= व्यवच्छेद) करता है, वह उपलक्षण कहा जाता है । जैसे काक से उपलक्षित (= परिचित) देवदत्तगृह का, काकानुपस्थिति होने पर भी, अन्य गृह से व्यवच्छेद होने से काक देवदत्तगृह का उपलक्षण बनता है । देवदत्तगृह में सर्वदा या व्यावृति काल में काक का होना अनिवार्य नहीं है । इस तरह त्याचप्रत्यक्षानुयोगिकत्व को समवाय का उपलक्षण मानन का मतलब यह है कि स्पर्शविषयक प्रत्यक्ष की पूर्व क्षण में स्पर्शाश्रय का अवश्य त्वाच प्रत्यक्ष हो यह जरूरी नहीं है। किसी काल में घटादि का स्पानि प्रत्यक्ष होना चाहिए - इतना ही आवश्यक है। घटादि पदार्थ में उत्पत्तिक्षणावच्छेदन गुणमात्र का अभाव होता है। द्रव्योत्पत्ति के अनन्तर क्षण में द्रव्य में गुणोत्पत्ति होती है. यह नैयायिक सिद्धान्त है। इसके अनुसार घटोत्पादद्वितीयक्षणावच्छेदेन घट में उद्भूत स्पर्श गुण की उत्पत्ति होगी। त्वाचवत्त्व समवाय का विशेषण नहीं, बल्केि उपलक्षण होने की वजह द्वितीय क्षण में घटस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होने लगेगा, क्योंकि त्वगिन्द्रिय स्वसंयुक्तत्वाचवदनुयोगिक समवाय सम्बन्ध से तब घटस्पर्श में रहती है। किसी न किसी काल में घट का स्पार्शन प्रत्यक्ष होने वाला है। इसलिए घटस्पर्शप्रतियोगिक समचाय का वाचप्रत्यक्षाश्रय(- घट)अनुयोगिकत्व विशेषण बन सकता है। इस तरह घटोत्पत्ति के द्वितीय क्षण में घटस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होने लगेगा । मगर द्रव्योत्पनि की द्वितीय क्षण में द्रव्य इन्द्रियसंयुक्त होने पर भी द्रव्यसमवेत गुण-कर्म का साक्षात्कार नैयायिकमतानुसार नहीं होता है । इसलिए कारणताअवच्छेदक सम्बन्ध में उपलक्षणविधया भी त्वाचवत्त्व का प्रवेश नहीं हो सकता है । जो न उपलक्षण हो और न तो विशेषण हो वह धर्म व्यावर्तक नहीं बन सकता है। इसलिए स्वसंयुक्तसमवाय सम्बन्ध से ही स्पर्शनेन्द्रिय को ल्यान्यद्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन का कारण मानना संगत प्रतीत होता है।
उपलक्षणविधया त्याचप्रत्यक्षा 1 सम्बन्धकुक्षि में प्रवेश गौरवग्रस्त - स्यादादी *
कारभे. इति । दूसरी बात यह है कि त्याचवत्त्व को द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतषियक स्पार्शन के कारणतारच्छेदक सम्बन्ध का उपलक्षण मानने पर प्रश्र यह उपस्थित होता है कि एक-एक द्रव्य में भिन्न-भिन्न-कालावच्छेदेन एवं एक काल में भी पुरुषभेद से अनन्त स्पार्शन प्रत्यक्ष विषयता सम्बन्ध से रहने से किस स्थान का सम्बन्धशरीर में प्रवेश किया जाय ? चिनिगमक के अभाव से तादृश अनन्त त्वाच प्रत्यक्ष का सम्बन्धशरीर में निवेश करना होगा । यह तो बहत बड़ा गौरव है। इसकी अपेक्षा उचित तो यह है कि सम्बन्ध के अंश में महत्व और उद्भुत स्पर्श का ही निवेश किया जाय ? अनन्त स्वाच प्रत्यक्ष
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३१९ मध्यमस्याहादरहस्ये रमण्डः + - का.'. * व्यासज्यवृत्तिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहविचारः * [ केचित् -> व्यासज्यवृतिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहाय प्रकृष्टमहत्वोद्भुतस्पर्शयोः प्रत्यासत्य----.. :-=- ===- =-===* जयतता * = --- ----- योगिकसमवायस्य तादृशप्रत्यासत्तित्वकल्पना । अनेनोद्भुतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वकल्पनाऽपि प्रत्युक्ता, नीलत्रसरेणी ।। न्यभिचामत् । अत एव तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभाव एव बाधक इत्यपि निराकृतम् । इत्थश्च 'नीलं तम' इति प्रतीते; प्रमात्वेन रूपबत्त्वात्तमसो द्रव्यवसिद्धिरिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ।।
अध द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्यानिं प्रति स्वसंयुक्त-प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शवदनुयोगिकसमबायेन स्पर्शनेन्द्रेियस्य कारणत्वे यटाकाशसंयोग-द्वित्वादिव्यासज्यवृत्तिगुणस्पार्शतप्रसङ्गः । न च तद्भवति । अतो नोक्तप्रत्यासत्तिमध्ये प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शयोनिवेशः समीचीनः । व्यासज्यवृत्तिगुणस्पार्शनवारणाय ज्यासज्यबृत्तिगुणत्वाचं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकत्वमावश्यकम् । तस्य च प्रतिबध्यतावच्छेदकं न व्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचत्वं, गुणादित्वाचं प्रति प्रकृष्टमहत्त्ववदुद्भुतस्पर्शवत्समवायस्यातिरिक्तकारणत्वकल्पनापत्तेः । अपि तु निखिलगुण-कर्मत्वाचसाधारणं द्रव्यान्य-सत्त्वाचत्वमेव तयतिबध्यतावच्छेदकम् । एवञ्च घटायेकैकप्रतियोगिकल्वक्संयोगदशायां न घटपटवृत्तिव्यासज्यवृत्तिसंयोग-द्वित्वयोः स्पार्शनप्रसङ्गः, लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाभावलक्षणप्रतिबन्धकस्य स्वसंयुक्तफ्टसमवेतसंयोगद्वित्वयोः सत्त्वात् । अन्न त्वक्संयोगस्य कार्यताबच्छेदकः सम्बन्धो न विषयत्वमात्रम्, 'चैत्रस्यायं पुत्र' इत्यादिस्वार्शने चैत्राद्यशे व्यभिचारात, किन्तु लौकिकत्वाभिधानो विषयताविशेषः इत्याद्याशयवतां मतं प्रकरणकारः प्रदर्शयति- केचित्त्विति । व्यासज्यवृत्तिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहाय = द्रव्यान्यव्यसमवेतसंयोग द्वित्वादिगोचराऽस्पार्शनोपपत्तये । अस्यानुपदं 'प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शयोः प्रत्यासत्यघटकत्वेने त्यबाऽन्वयः ।
की अपेक्षा इन दोनों का प्रवेश करने में लाघव है। द्रव्य में महत्त्व और उद्भुत रूप अनन्त नहीं होते हैं । नैयायिक की ओर से यहाँ यह शंका की जाय कि --> 'विषयतासम्बन्ध से द्रव्यान्य-द्रव्यसमचेतविषयक त्याच प्रत्यक्ष के प्रति स्वसंयुक्तमहत्त्वोद्भूतस्पर्शाश्रयानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से त्वगिन्द्रिय को कारण मानने पर त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपनि होगी, क्योंकि स्व (स्पर्शनेन्द्रिय) संयुक्त त्रसरेणु में महत्त्व और उद्भूतस्पर्श होने से स्पर्शनेन्द्रिय स्वसंयुक्त महत्त्वोद्भूतस्पर्शाश्रयानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से त्रसरेणुस्पर्श में रहती है तो यह असंगत है, क्योंकि त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष के अभाव की उपपत्ति तो त्रसरेणुस्पर्श को अनुद्भुत मानने पर भी हो सकती है। मतलब कि सरेणु में महत्व होने पर भी उद्भूत स्पर्श नहीं होने से त्रसरेणुस्पर्श में स्वसंयुक्त-महत्त्वोद्भुतस्पश्रियानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से स्पर्शेन्द्रिय नहीं रहती है । कारणताअवशेदक सम्बन्ध से कारण की कार्याधिकरणलेन अभिमत में अनुपस्थिति होने से कार्योत्पत्ति का आपादन नहीं किया जा सकता। इस तरह त्रुटिस्पर्धा के अस्पार्शन की उपपत्ति हो सकती है। मगर इस परिस्थिति में उद्भुत नील रूप उद्भुत स्पर्श का व्यभिचारी हो जायेगा, क्योंकि नील त्रुटि में उद्धृत नीलरूप होने पर भी उद्भूत स्पर्श नहीं रहता है । उद्भूत स्पर्श उद्भुत नील रूप का अव्यापक होने से अन्धकार को नीलरूपवान मानने में उद्भूतस्पर्शाभाव बाधक नहीं हो सकेगा। अतः रूपबत्त्व हेतु से अन्धकार में द्रव्यत्व की सिजि निरापराध है . यहाँ प्रकरणकार का यह तात्पर्य ध्वनित होता है।
* आश्रयस्पार्शजाभाव गुणादिस्पार्शन में प्रतिषन्धक - नैयायिकैकदेशीमत
केचित्त. इति । अन्य नैयायिक विद्वानों की यह राय है कि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति स्पर्शनेन्द्रिय को स्वसंयुक्तप्रकृश्महत्त्वाद्भूतस्पर्शविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से कारण मानने पर घट-पट परस्परसंयुक्त होने की दशा में केवल घट के साध स्पर्शनेन्द्रिय का संयोग होने पर भी घट-पटसंयोग का पार्शन प्रत्यक्ष होने लगेगा, क्योंकि संयोग व्यासज्यवृत्ति गुण होने से घट और पट दोनों में समवाय सम्बन्ध से रहने की बजह स्पर्शनेन्द्रिय स्वसंयुक्त एवं प्रकृष्टमहत्त्व और उद्भूत स्पर्श वाले घट में समवेत घटपटसंयोग गुण में स्वसंयुक्त-प्रकृष्टमहत्त्वदुद्भुतस्पर्शवदनुयोगिक समवाय सम्बन्ध से रहती है। इसलिए विषयतासम्बन्ध से घटपटसंयोम में स्पार्शन प्रत्यक्ष उत्पन्न होना चाहिए, अर्थात् घटपटसंयोगविषयक स्पार्शन साक्षात्कार होना चाहिए। मगर हकीकत यह है कि घट-पटसंयोग का स्पार्शन साक्षात्कार केवल घट के साथ स्पर्शनेन्द्रिय का संयोग होने पर नहीं होता है, किन्तु घट-पटोभय के साथ स्पर्शन इन्द्रिय का संयोग होने पर ही होता है। संयोग, द्वित्व आदि व्यासज्यवृत्ति गुण के एक आश्रय के साथ स्पर्शेन्द्रिय का संयोग होने की अवस्था में उन व्यासज्यवृत्ति (अनेकवृत्ति) गुण के स्पार्शन साक्षात्कार का निवारण कारणतावच्छेदक सम्बन्ध की कुक्षि में प्रकृष्ट महत्त्व और उद्भुत स्पर्श का निवेश करने पर भी नामुमकिन होने से द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतगुणादिगोचरसाक्षात्कारकारणतावच्छेदक सम्बन्ध के शरीर में उन दोनों का निवेश करना अनावश्यक है। इसका निराकरण करने के लिए निम्नोक्त प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करना आवश्यक है । वह इस तरह - द्रन्यान्य
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*त्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकताविचार घटकत्वेन लाघवाद् द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रत्येव लौकिकविषयत्वाच्छेमत्वाचाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकता कल्यते । वायोरस्पार्शनत्वं तु न यौक्तिकमिति न तदवृत्तिस्पर्शस्पार्शनानुपपत्ति: । तथा च प्रसरेणारस्पार्शनत्वान्न तवृतिस्पर्शादिस्पार्शनप्रसङ्ग इति, <--
* ायलता यथा चैतत्तत्त्वं तथा भाक्तिमेवैतदक्तरणिकायामिति न पुनः प्रतन्यते । लाघवादिन्न । द्रव्यान्न्य-द्रव्य भवेनविषयकम्पार्शनकारणताबछेदकप्रत्यासत्ती तयोरप्रयेशप्रयुक्तलाघवादिति । 'तर्हि घटायेंककत्वकसंयांना न पटयाः संयोगस्य द्वित्वादेश्च रमादर्शनं ?' इत्याशङ्कायामाह- द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रत्येवेति । एवकारेण व्यासज्यनिगुणत्वाच त्यावच्छिन्न प्रतीत्यस्व व्यवच्छेदः कृतः, एतन्निषेधहेनस्तु प्रकृतमतापायाते विमावितत्वानोन्यते । लौकिकविषयत्वावन्नित्वाचाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन प्रतिबन्धकतति । तथाहि - 'घट स्पृशामी त्यत्र लौकिकविधयतया त्वाचप्रत्यक्षं घट बर्नत, लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकतदभावश्च पटे वर्तते, तत्समरतस्तु घटसंयोगादिः, तस्य विष्ठत्वात । लांकिकविषयतासंसर्ग त्वाचं स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन घटस्पई-कर्मादौ वर्तते । अतः तद्गोचरं स्पार्शनं जायते, तदभावस्तु घटपटसंयोगादौ पटस्पशादी च वर्तते येन तत्स्पार्शनं घटत्वसंयोगद्शायां नोपजायते । अत एव तत्प्रतिबन्धकत्वं कल्पनामहत्येच । 'तहि वायुस्पर्शस्पार्शनं कथं स्यात ? नागोरगरलेन तादालानाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्त्वसम्बन्धेन वायुस्पर्शे वर्तमानत्वादि'त्याशङ्कायामाहुः - बायोरस्पार्शनत्वं = स्पार्शनप्रत्यक्षाविषयत्वं तु न यौक्तिकमिति | 'वायुं स्पृशामी'त्यबाधितानुभवबलाद् वातस्य लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाश्रयत्वसिद्धया वायस्पर्शे तादात्वाचाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसंसर्गेणाऽवर्तमानत्वात न तदतिस्पर्शस्पार्शनानुपपत्तिः = वायुसमवेतस्पर्शस्पार्शनानुपपत्तिः । दर्शितप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावफलमुपदर्शयन्ति - तथा चेति । विषयतासम्बन्धाच्छिन्न-द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वाच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरूपितस्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धावच्छिन्न-लौकिकविषयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वाचाभावनिष्ठप्रतिबन्धकताऽभ्युपगमप्रकारेण च । त्रसरेणोः अस्पार्शनत्वात् = त्वगिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षाविषयत्वात्, न तवृत्तिस्पर्शादिस्पार्शनप्रसङ्गः त्रसरेणुसमवेतस्पर्श-संयोगादिस्पार्शनापत्तिः, कार्याधिकरणत्वेनाऽभिमते त्रसरेणुस्पर्शे प्रतिबन्धकस्य सत्त्वात्, प्रतिबन्धकाभावस्याऽपि कारणत्वेनाऽऽपादकविरहात्रैव तदापादयितुमर्हत्तीति नोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्व अभिचारः । अत एब 'नीलं तम' इति प्रतीते; भ्रमत्वं तमस उद्भूतनीलरू वच्चे चोद्भूतस्पा भावस्य बाधकत्वं व्यवतिष्ठते । ततश्च तमसो न दव्यत्वसिद्भिः कल्पकोटिभिरपि स्वात्मलाभक्षमेति फक्किकार्थः ।
सत् पदार्थ के स्पार्शन साक्षात्कार के प्रति लौकिकविषयतावच्छिवप्रतियोगिताकस्पार्शनप्रत्यक्षाभाव स्वाश्रयममरेतत्वसम्बन्ध से प्रतिवन्यक है । आशय यह है कि द्रव्य से भिन्न गुण, क्रिया आदि का स्पार्शन प्रत्यक्ष करना हो तर उस गुण, क्रियादि के आश्रय का स्पार्शन प्रत्यक्ष होना आवश्यक है । यदि गुणादि के आश्रय का स्पार्शन प्रत्यक्ष न हो, तो गुणादि का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि आश्रपत्रिपयकस्पार्शनाऽभाव उसमें आश्रित (रहनेवाले) स्पर्शादि गुणादि के स्पार्शन में प्रतिबन्धक है। प्रतिवध्य और प्रतिबन्धक समानाधिकरण यानी एकाधिकरण में रहने वाले हो तभी उन दोनों के बीच प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमात्र हो सकता है। क्या चन्द्रकान्त मणि जलद में होने पर अन्यत्र अग्नि से दाह नहीं होता है ? यहाँ प्रतिबध्य है द्रव्यभिन्नमविषयक घटपटसंयोगविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष, जो कि विषयतासम्बन्ध (कार्यताअवच्छेदक सम्बन्ध) से द्रव्येतर सत् घटपटसंयोगादि में रहता है । अतः प्रतिबन्धकीभूत लोकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनप्रत्यक्षाभाव भी यहाँ रहना चाहिए । वह तब हो सकता है यदि स्वाथयसमवेतवसम्बन्ध को प्रतिबन्धकताअचच्छेदक माना जाय, क्योंकि स्व = स्पार्शनाभाव, उसका स्वरूपसम्बन्ध से आश्रय है पटद्रव्य, (क्योंकि घट-पटसंयुक्त होने की दशा में घट के साथ त्वगिन्द्रियसंयोग होने पर एट द्रव्य का ही स्पार्शन होता है, न कि पट द्रव्य का) और उस पट द्रव्य में समवेत पटस्पर्श, घटपटसंयोग आदि गुण वगैरह । अतः घटपटसंयोग स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकस्पार्शनाभाव (= प्रतिबंधक) का आश्रय एवं विषयतासम्बन्ध से द्रव्यान्यसद्गोचरस्पार्शन के अधिकरणविधया अभिमत होने से केवल घट के साथ त्वगिन्द्रिय का संयोग होने की दशा में घटपटसंयोग आदि व्यासज्यवृत्ति गुण का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा; क्योंकि प्रनिबन्धकाभाव भी कारण है, जो यहाँ अविद्यमान है। इस प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव को मान्य करने पर कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में प्रकृष्ट महत्व और उतस्पर्श का प्रवेश अनावश्यक होने से लाघव भी है।
वायार, इति । मगर यहाँ यह हाड़ा हो कि --> "लौकिक स्पार्शनाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से द्रन्येतर-सदविपयक सार्शन का प्रतिवन्धक मानने पर वायुगतस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष कैसे हो सकेगा ? क्योंकि वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष न होने
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३२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का. ५ * उतस्पर्शाभावस्य प्रतिबन्धकता
तन, लाघवाद, वायोः स्पार्शनत्वस्य साम्प्रदायिकत्वाच्च समवायसम्बन्धावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शाभावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वं ॐ जयलता -
प्रकरणकारः केचित्तुमतं प्रत्याचष्टे तत्रेति । लाघवादिति । लौकिकविषयतावच्छिन्नत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकत्वे उप|| नीतभानप्रयोज्यविषयत्वभिन्नविषयत्वसम्बन्धावच्छिन्न- त्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावत्वस्य || प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वं स्यात् । तदपेक्षया समवायसम्बन्धावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावत्वस्य तत्त्वं लाघवं स्यात् । अतः लौकिकविषयतावच्छिन्नत्वाचाभावापेक्षया समवायावच्छिन्नोद्भूतस्वभावस्य प्रतिबन्धकत्वे लाघवादिति
भावः ।
||
द्रव्यान्यद्
किल्ल, द्रव्याऽन्यद्रव्यवृत्तिगोचरस्पार्शनं प्रति लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचा भावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वेन सम्बन्धन प्रतिबन्धकत्वे वायुपस्पर्शनं न स्यात्, नव्यनैयायिकमते वायो: स्पार्शनत्वेऽपि जरनैयायिकसम्प्रदायें वायुस्पार्शनत्वस्यासिद्धत्वेन वायुस्पर्शे स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकस्य सत्त्वादित्याशयेन प्रकरणकारः हेत्वन्तरं प्राह- बायोरिति । स्पानित्वस्य || ” स्पर्शनिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारप्रयोज्यविषयत्वस्य साम्प्रदायिकत्वाचेति । नन्यनैयायिकसम्प्रदायेऽस्मत्सम्प्रदाये च वायोः स्पार्शनत्वे सिद्धेऽपि प्राचीनैयायिकसम्प्रदाये तदसिद्धत्वेन वायुस्पार्शनत्वस्य नानासम्प्रदायविप्रतिपत्तिकवलितत्त्वाचेत्यर्थः । ततो लौकिकविषयत्वाच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वाचा भावस्य तादृशप्रतिबन्धकत्वस्वीकारे तु प्राचीननैयायिकमतानुरोधेन वायुस्पर्शस्पार्शनं नैवोपपद्येत । विप्रतिपत्तिं विनैव वायुस्पर्शस्पार्शनोपपत्तये अपि लौकिकविषयत्वावच्छिन्नस्पार्शनाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं न युक्तमित्याहसमवायसम्बन्धावच्छ्रित्रोद्भूतस्पर्शाभावस्यैव समवायसम्बन्धावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्यैव । एवकारेण लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्पार्शनाभावस्य व्यवच्छेदः कृतः । द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं = वृत्ति तद्विषयकत्वाचत्वलक्षणप्रतिबध्यतावच्छेदकावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वं कल्पयित्वेति । इत्थच सेवायुक्त स्पर्श में स्व (स्पार्शनाभाव) आश्रय (वायु) समवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनाभाव रहता है । प्रतिबन्धक होने से वायुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष प्रतिबध्य हो जायेगा, अनुत्पन्न ही रहेगा" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है यह बात अप्रामाणिक है । 'शीतं वायुं स्पृशामि इत्यादि अनुभव बर्फीले देश या काल में सुप्रसिद्ध ही है। इसलिए वायुस्पर्श में स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनाभाव नहीं रहता है। वायुस्पर्श में प्रतिबन्धकाभावस्वरूप कारण होने से वायुस्पर्शविषयक स्पार्शन की उत्पत्ति होने में कोई अनुपपत्ति नहीं है । एवं त्रुटिस्पर्श के स्पार्शन की आपत्ति भी नहीं दी जा सकती, क्योंकि त्रुटि (= त्रसरेणु) का स्पार्शन प्रत्यक्ष न होने से वह स्पार्शनाऽभाव का आश्रय बन जाने की वजह स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से लौकिकस्पार्शनसाक्षात्काराभावात्मक प्रतिबन्धक त्रुटिस्पर्श में रहता है । इसलिए नील त्रुटि में उद्भूत स्पर्श होने पर भी त्रुटिस्पर्शस्पार्शन का आपादन नहीं किया जा सकता। उद्भूत नील रूप तो उद्भूत स्पर्श का व्याप्य होने से अन्धकार को उद्धृतनीलरूपवान् मानने में उद्भूतस्पर्शाभाव बाधक हो सकता है । अतएव 'नीलं तमः ' यह प्रतीति भी भ्रम है। इसलिए रूपवत्त्व हेतु से अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि नामुमकिन है । स्वरूपासिद्ध हेतु स्वाभीष्ट साध्य की सिद्धि करने में सदा असमर्थ ही रहता है ।
उद्भूतम्परा भाव ही गुणादिरपार्थन का प्रतिबन्धक स्यादादी
यद् द्रव्ये सत्
-
=
=
तन्त्र इति । उपर्युक्त अन्य नैयायिकमत के प्रतिकारार्थ व्याख्याकार श्रीमद्जी महोपाध्याय महाराजा कहते हैं कि यह मत अनुपादेय है। इसका कारण यह है कि लीकिकविपयतावच्चित्रत्वाचाभाव का मतलब है उपनीतज्ञानाऽप्रयोज्यविषयतावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्काराभाव | इसकी अपेक्षा समवायावच्छिन्नोद्धृतस्पर्शाऽभाव लघु है। अतः समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताक उद्भूतस्पर्शाभाव को ही द्रव्येतरव्यवृत्तिविषयकत्वाचसाक्षात्कार का प्रतिबन्धक मानना उचित है। प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्ध है स्वाश्रयसमवेतत्व | स्वपद से समवायावच्छिन्न उद्भूतस्पर्शाभाव का ग्रहण अभिप्रेत है। उसका आश्रय प्रभा आदि द्रव्य होते हैं, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से उद्भूतस्पर्श प्रभा आदि में नहीं रहने से समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक उद्भूतस्पर्शाभाव का वह आश्रय होता है । उसमें जो गुणादि समवेत है उसमें स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से दर्शित उद्भूतस्पर्शाभाव रहता है, जो द्रव्येतर द्रव्यवृत्तिगुणादिविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक है। अतएव प्रभा आदि द्रव्य के स्पर्श आदि का स्पार्शन साक्षात्कार नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि उक्त लघु प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव का अंगीकार करने पर वायुस्पर्श का स्पार्शन साक्षात्कार भी उपपन्न हो सकता है, क्योंकि वायु में उद्भूत स्पर्श रहता ही है। वायुविषयक स्पार्शन
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* त्रुटिस्पर्शस्यानुद्धृतत्वम्
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कल्पयित्वा त्रुटि स्पर्शेऽनुद्भूतत्वकल्पनस्यैवौचित्यात् । न चाऽवयव्युद्भूतस्पर्शं प्रति अवयवोद्भूतस्पर्शस्यैव हेतुत्वात्कथं चतुरणुकोद्भूतस्पर्शारम्भकस्य त्रुटिस्पर्शस्याऽनुद्भूतत्वमिति वाच्यम्,
मयलता &
घटाकाशसंयोगादिव्यासज्यवृत्तिगुणस्पार्शनप्रसङ्गोऽपि प्रत्युक्तः, घटसंयोगाश्रयाकाशस्य समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकॊद्भूतस्पर्शाभावाश्रयत्वेन तादृशसंयोगादौ स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकस्य सत्त्वात् । न च तथापि घटायेकैकप्रतियोगिकत्वक्संयोगदशायां घटपटसंयोगादिस्पार्शनं दुर्वारमिति वाच्यम्, संयोगाद्याश्रयत्वावच्छेदेन त्वक्संयोगस्य द्रव्यान्य-द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति नियामकत्वाऽभ्युपगमात् । तादृशनियमस्य फलबलकल्प्यत्वान्न गौरवमिति तात्पर्यम् ।
'तथापि त्रुटि स्पर्शस्पानं दुर्निगरं स्यान पुरी करपर्शस्य सत्त्वेन तत्र समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताको द्भूत स्पर्शाभावस्य | प्रतिबन्धकस्य विरहादित्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह- त्रुटिस्पर्शेऽनुद्धृतत्वकल्पनस्यैवौचित्यादिति । तथा च प्रतिबन्धकीभूतस्य | समवायावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शाभावस्य सत्त्वान्न त्वगिन्द्रियसंयुक्तत्रुटिस्पर्शे विषयतासम्बन्धेन द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नोत्पत्तिः । एवञ्च नीलत्रसरेणावुद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वान्न तमस उद्धृतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वं येन 'नीलं तम' इति प्रतीतेः भ्रमत्वं स्यात् । ततश्च रूपवत्त्वस्य स्वरूपासिद्धिकलङ्कपङ्कक्षालितत्वेन तमोद्रव्यत्वसिद्धिरित्याशयः ।
वस्तुतस्तु घटप्रभासंयोगादाँ द्रव्यान्य द्रव्यसत्त्वाचप्रतिबध्यतावच्छेदक- पराभिमत-जातिस्थानीयत्वगऽग्राह्यतास्वभावादेव न स्पार्शनत्वमिति न द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोद्भूतस्पर्श भावस्यैव स्वाश्रयसमवे तत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकी । अत एव समवायानभ्युपगमे स्याद्वादिना कथमेतादृशप्रतिबन्धककल्पना कर्तुं युज्यत इत्युक्तावपि न क्षतिः इति ध्येयम् ।
अथ बसरेणोरनुद्भूतस्पर्शवत्त्वे चतुरणुकस्पर्श उद्भूतत्वं न स्यादिति शङ्कां निराकर्तुमुपक्रमते न चेति । 'बाच्यमि त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । अवयन्युद्भूतस्पर्श प्रति अवयवोद्भूतस्पर्शस्यैव, एवकारेण अदृष्टादिनिमित्तविशेषव्यवच्छेदः कृतः । हेतुत्वात् असमवायिकारणत्वात् । ततश्वावयन्युद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिताऽसमवायिकारणता अवयवोद्भूतस्पर्शत्वनिरूपितेति फलितोऽर्थः । कथं चतुरणुकोद्भूतस्पर्शारम्भकस्य त्रुटिस्पर्शस्यानुद्भूतत्वमिति । 'स्यादिति शेषः । तथाहि चतुर्भिः त्रसरेणुभिरेकश्चतुरक आरभ्यते । तस्य तत्समवेतस्पर्शस्य च स्पार्शनत्वा चतुरशुकस्पर्शस्योद्भूतत्वं निर्विवादसिद्धम् । तदसमवायिकारणत्वं त्रुटिस्पर्श तदेव स्यात् यदि त्रुटिस्पर्श उद्भूतः स्यात्, समवायेन अवयस्युद्भूतस्पर्श प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयवोसाक्षात्कार तो साम्प्रदायिक है । उसके विषय में भिन्न भिन्न सम्प्रदाय में विवाद है कि वह होता है या नहीं ? इसलिए | उसकी ओर दृष्टि केन्द्रित किये बिना भी हमारा प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव संगत हो सकता है । इसलिए उपर्युक्त दो हेतु के कारण हमारा अभिमत प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव समीचीन है। यहाँ यह शंका करना कि "यदि द्रव्यान्य द्रव्यवृत्तिविषयक स्पार्शन साक्षात्कार के प्रति स्वाश्रयसमवेत्तत्वसम्बन्ध से समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिता उद्धृतस्पर्शाभाव को प्रतिबन्धक माना जाय और उसके अभाव को कारण माना जाय तब तो त्रसरेणुविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष होने की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहेगी, क्योंकि त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श रहने की वजह समवायसम्बन्धावच्चिचप्रतियोगिताक उद्भूतस्पर्शाभाव उसमें नहीं रहने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से वह त्रसरेणुवृत्ति गुणादि में भी नहीं रहता है। प्रतिबन्धक न रहने से त्वगिन्द्रियसंयोग जब त्रसरेणु के साथ होगा तब उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष होना अनिवार्य है। मगर सरेणुस्पर्शविपयक स्पार्शन साक्षात्कार होता नहीं है । इसलिए दर्शित प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव अमान्य है" <
=
इस उद्भूतनीलरूप उद्भूतस्पर्श का व्याप्य नहीं है - स्याद्वादी
त्रुटिप इति । भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि जब लाघव तर्कादि के सहकार से सामान्यतः दर्शित प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव निश्रित होने पर उसे अमान्य करना नामुनासिव है। हाँ, सरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन साक्षात्कार की आपत्ति का निराकरण जरूर करना चाहिए। इसका अपाकरण करने के लिए यह माना जा सकता है कि त्रसरेणु का स्पर्श अद्भुत है । त्रसरेणु में स्पर्श के होने पर भी उद्भूत स्पर्श का अभाव, जो गुणादिस्पार्शन प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक है, होने से त्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन साक्षात्कार का उदय नहीं होता है यही कल्पना समुचित है, न कि लौकिक-विपयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनाभाव में तादृक्ष प्रतिबन्धकता की कल्पना । इस तरह नील त्रसरेणु में उद्भूत नीलरूप उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी होने से अन्धकार में नीलरूपवत्ता का बाधक उद्भूतस्पर्शाभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि उद्भूत स्पर्श
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३२३ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का. * अर्थसमाजसिद्धस्य कार्यतानवच्छेदकता * | उद्धतस्पर्शत्वस्याऽर्थसमाजसिब्दत्वेन कार्यतानवच्छेदकत्वादित्यन्यत्र विस्तरः । ।
-- ---* जयलता * मृतस्पर्शस्याऽसमवायिकारणत्वात्, यधा घटोद्भूतस्पर्दा प्रति कपालोद्भूतस्पर्दास्य । ततश्च चतुरणुकोद्भूतस्पर्शान्यथानुपपत्त्या त्रुटिस्पर्शस्योद्भूतत्वं सिध्यतीति नोद्भूतनीलरूपं उद्भूतस्पशव्यभिचारि । इत्थं 'नीलं तम' इति प्रतीत्या भ्रमत्वसिद्धेः रूपान्तरस्य च तत्रा सत्त्वात् विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावसाधकत्वेन न तमसो रूपवत्त्वं. येनं तद्रव्यत्वसिद्धिमनोरथः पूर्यतेति शङ्काग्रन्थाशयः ।
प्रकरणकारस्तां प्रत्यारख्याति - उद्भूतस्पर्शत्वस्येति । 'कार्यतानवच्छेदकत्वादि'त्यत्राऽन्वयोऽस्य । तत्र हेतुमाह - अर्धसमाजसिद्धत्वेनेति । अर्धसमाजसिद्धत्वं नाम सामग्रीद्वयनयोज्यं, अर्थः = सामग्री, समाजः - तत्समुदायः, तसिद्धं -- तत्प्रयोज्यमिति तदर्थात् । यद्धा अर्थानां = कारणान्तराणां समाजः - समदायः. तत्सिद्धं = तत्प्रयोज्यधर्मघटितमिति । भवति च नीलघटत्वं विशेषण-विशेष्यांशप्रयोजकसामग्रीद्रयग्रयोज्यमिति तधा । घटत्वस्यैव कपालादिजन्यतावच्छेदकत्वाद् घटीयनीलरूपत्वस्यैव च कपालनीलजन्यतावच्छेदकत्वानीलघटत्वस्थाऽर्थसमाजसिद्धत्वं प्रतीयत एव । अत एव न तस्य कार्यता. बच्छेदकल्बमभियुक्तानां सम्मतम् । प्रकृते चोद्भूतस्पर्शत्वमपि विशेषण- विशेष्यांशप्रयोजकसामग्रीद्वयप्रयोज्यमिति तथा । अत एव न तस्या:पि अवयवोद्भूतस्पर्शकार्यतावच्छेदकत्वं सण्टङ्ककोटीरतामटाट्यते, अन्यथा नीलघटत्वस्यापि नीलेतरकपालकार्यता- ।। बरछेदकत्वमापद्येत । न च तथापि घटवृत्तिनीलत्व-घटत्वयोः कपालसमवेतनीलरूप-कपालनिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वमिबाबयविस्पर्शोद्भूतत्वत्स्पर्शत्वयोरप्यवयवस्पर्णोद्भूतत्व-रपाकीटावच्छेतमालम्वन करपणे दूरसापाभक-त्रसरेणुस्पर्शोद्भूतत्वकल्पनाया आवश्यकत्वेनोगतनीलरूपस्योद्धतस्पर्शाव्यभिचारित्वात नीलं तमः' इति प्रतीतेः भ्रमलसिया न रूपवत्त्वात्तमसो द्रव्यवसिद्धिरिति वाच्यम, नियतारम्भवादस्य साइल्ययातायां निरस्तत्वात । एतेनाऽवयन्यूद्भतरूपर्श प्रत्यवयवोद्भतस्पर्शस्यक हेतुलमिनि प्रत्युक्तम्, अदृष्टादिनिमिनविशेषादपि अवयविरगर्मोद्भुतत्वसम्भवादिति सद्धपः ।
उद्भूत नील रूप का व्यापक ही नहीं है । अत्र्यापक के अभाव से व्याप्याभाव की सिद्धि नहीं हो सकती है। यहाँ यह शंका हो कि -> "सरेणु के स्पर्श को अनुद्धत मानने पर चतुरणुक (चार त्र्यणुक से निप्पन्न द्रव्य) में उद्भुत स्पर्श असमवायिकारण है । प्रसरेणु चतुरणक का अवयव है । अतः यदि उसमें उद्भुत स्पर्श नहीं होगा तो उसके कार्य चतुरणक में उद्भूत स्पर्श का जन्म नहीं हो सकेगा । कार्य और कारण के धर्म में साजात्य होता है, वैजान्य नहीं 1 यही नैयायिक मनीपियों के
अभीष्ट नियतारम्भवाद का मर्म है। तंतु में नील रूप होने पर पट में क्या शुक्ल रूप जन्म मुमकिन है ? चतुरणुक द्रव्य :' में तो वद्भूत स्पर्श ही होता है, अन्यथा न तो चतुरणुक का स्मार्शन प्रत्यक्ष होगा और न नो चतुरणुकस्पर्श का । मगर
चतुरणुक एवं उसके स्पर्श का स्पार्शन साक्षात्कार होता है । इसलिए चतुरणुक के स्पर्श को उद्धृत मानना अनिवार्य है। वह तभी मुमकिन है यदि चतुरणुक एवं उसके स्पर्श के आरम्भक त्रसरेणु के स्पर्श को उद्धृत माना जाय । इसलिए त्रसरेणुसमवेत स्पर्श को उद्भुत ही मानना उचित है, न कि अनुभूत । इस परिस्थिति में आपसे दर्शित प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करने पर पुनः त्रसरेणुस्पर्श विषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति वज्रलेप हो जायेगी" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवसमवेत उद्भूत स्पर्श का कार्यतावच्छेदक उद्भूत-स्पर्शत्व नहीं है किन्तु स्पर्शत्व ही है, क्योंकि उद्धृतस्पर्शत्व नो अर्थसमाजसिद्ध है । । जब दो पृथक् पृथक् सामग्री से दो पृथक् पृथक कार्य का जन्म होता है तब वह कार्य अर्थसमाजसिद्ध कहा जाता है, जैसे कपालादि से घट का एनं कपालनीलरूप से घरनीलरूप का जन्म होने पर नील घट अर्थसमाज(अनेक सामग्री) से सिद्ध = जन्य बनता है। इस परिस्थिति में नीलघटत्व न तो कपाल का कार्यतावच्छेदक बन सकता है और न तो कपालनीलरूप का। ठीक इसी तरह स्पर्श अपनी सामग्री से उत्पत्र होता है और उसमें उद्भुतता अन्य सामग्री से । अतः उद्भूतस्पर्वा अर्थसमाजसिद्ध कहा जाता है । अतएव उद्धृतरुपर्शत्व भी नीलघटत्व की भाँति अवयवस्पर्श या अवयवस्पर्शउद्भुतता का कार्यतावच्छेदक नहीं हो सकता है । तब 'अवयत्री के उद्भुत स्पर्श का अवयवउद्भुतस्पर्श कारण है यानी अवयवीउद्धृतस्पर्शत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपित कारणता का आश्रय अवयवसमवेत उद्धृतस्पर्श है' यह कैसे कहा जा सकता है ? दूसरी बात यह है कि नियत्तारम्भबाद में कोई प्रमाण न होने से वह भी हमें अमान्य है । इस बात का विस्तार से अन्यत्र निरूपण किया गया है। इसलिए सरेणु के अनुद्भून स्पर्श से भी अदृष्टादि निमित्तविशेष के सान्निध्य से चतुरणुक में उद्धृत स्पर्श का जन्म हो सकता है । इसलिए जसरेणु के स्पर्श को अनुद्भुत मानने में कोई बाध नहीं है। अतः उद्भूत नील रूप को उद्भूत स्पर्श का व्याप्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि नीलीद्रव्य के ब्रसरेणु में उद्भूत नील रूप भी उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी है। इसलिए अन्धकार में रूपबत्त्व हेतु से द्रव्यत्वसिद्धि निरावाध है। अन्धकार में नील रूप रहता ही है ।
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* प्राचीनजैनाचार्यमतप्रकाशनम्
'इदानीं मे शरीरं शीतलीभूतमिति प्रतीत्या तमसः उद्भूतस्पर्शवत्त्वमप्यानुभविकमिति तु वृदाः । तेषामयमाशय:, यथाहि उद्भूतशीतस्पर्शवत एव जलस्य संयोगाद् देहे शैत्यं प्रतीयते तथा तमसोऽप्युद्भूतशीतस्पर्शवत्त्व एव तत्संयोगाच्छरीरे शैत्यप्रतीतिरुपपत्तिमती, तादृशस्यैव तस्य परम्परासम्बन्धेन शैत्यप्रतीतिजनकत्वात् तत्परिणामकत्वादवा ।
ननु तर्हि तमसि तत्प्रतीति: कुतो न भवतीति चेत् ? योग्यतामेवेदं परिपृच्छ । 'नील
जयलवा
=
साम्प्रतं प्राचीन जैनाचार्याणां मतं प्रदर्शयति- 'इदानीमिति । घनतरान्धकारकाले इति । उद्भूतस्पर्शवत्त्वमपीति । अपिशब्देनोद्भूतनीलरूपवत्त्वसमुच्चयः कृतः । आनुभविकं सार्वजनीनानुभवसिद्धम् । वृद्धाः श्रीवादिदेव - रत्नप्रभाादिपूर्वाचार्याः, मीमान्सितवन्त इति शेषः । तेषां श्रुतवृद्धस्याद्रादिपूर्वाचार्याणाम् । तत्संयोगात् = तमः संयोगात् । अनेन शरीरे शैत्यस्य प्रतीयमानत्वात् शीतस्पर्शः शरीरस्यैव न तु तमस इति प्रत्युक्तम्, 'जलसंयोगाच्छरीरे शैत्यप्रतीतेः शीतस्पर्शो देहस्यैव न तु जलस्येत्यस्याऽपि वक्तुं शक्यत्वात् । न चोद्भूतशीतस्पर्शयता एव जलेन स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन शरीरस्पर्शे शीतत्वप्रतीतिर्जन्यत इति वाच्यम्, उद्भूतशीतस्पर्शवितव तमसा स्वसंयुक्तसमवेतत्वसंसर्गेण शरीरस्पर्शे शीतत्वप्रतीतिर्जन्यत इत्यस्यापि सुवचत्वादित्याशयेन प्रकरणकारः प्राह- तादृशस्यैवेति । उद्भूतशीतस्पर्शवत्त एवेति एवकारेणाऽनुद्भूतशीतस्पर्शयतः स्पर्शशून्यस्य वा व्यवच्छेदः कृतः । तस्य = तमसः । परम्परासम्बन्धेनेति । स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन, स्वपदेन तमोग्रहणं, तत्संयुक्तः देहः, तत्समवेत्तचं देहस्पर्शः । तादृशतमश्च स्वसंयुक्तसमवेतत्व संबन्धेन तत्र वर्तत इति तत्र शीतत्वप्रकारकप्रतीतिः विषयतासम्बन्धेनोपजायते इति भावः । इदच परमताभ्युपगमेनोक्तम् । वस्तुतस्तु स्वमते यधोद्भूतरतरूपवज्जपाकुसुमेन स्वसन्निहितस्फटिके रक्तिमापरिणामो जन्यते तथैवोद्भूतशीतस्पर्शबदन्धकारेण स्वसम्बद्धशरीरे शैल्यपरिणाम उत्पाद्यत इत्याशयेनाऽऽह तत्परिणाम - कत्वाद्धेति । शैत्यपरिणामकलाद्धेति । नमो देहातीतत्वेन परिणामयतीति तमस उद्भूतशीतस्पर्शवत्त्वसिद्धिः । न हि नीलोत्पलं स्वसमीपस्थस्फटिकरूपं कदापि रक्तत्वेन परिणामयति । शैत्यधीः,
नैयायिक शङ्कते नन्विति । तति । तमस उद्भूतशीतस्पर्शवत्त्वेऽभ्युपगम्यमाने । तमसि तत्प्रतीतिः
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=
३२४
-अन्धकार शीतस्पर्शवाला है - प्राचीन मैनाचार्य
इदानीं इति । प्रकरणकार महोपाध्यायजी ने यहाँ तक 'उद्धृत नील रूप उद्धृतस्पर्श का अव्याप्य होने से अन्धकार में उद्धृत स्पर्शाभाव से उद्धृतनीलरूपाभाव की सिद्धि नहीं हो सकती है' ऐसा अपनी प्रतिभा से प्रतिपादन कर के अब पूर्व जैनाचार्य के मत को बताते हैं । पूवाचार्यों का यह कथन है कि 'गाढ अन्धकार के समय रात्रि में "अभी मेरा शरीर शीतल हो गया है" ऐसा सभी लोगों का अनुभव है । इस अनुभव से अन्धकार में उद्भूत स्पर्श भी सिद्ध होता है । इसलिए " अन्धकार में उद्भूत स्पर्श न होने से उद्भूत नील रूप भी नहीं रहता है" ऐसा नहीं कहा जा सकता । ऐसा प्रतिपादन करने वाले ज्ञानवृद्ध जैनाचार्यों का अभिप्राय यह है कि जैसे जल में उद्भूत शीत स्पर्श होने पर ही जलसंपर्क से अपने शरीर में शीतलता का भान हो सकता है। ठीक वैसे ही अन्धकार में उद्धृत शीत स्पर्श होने पर ही उसके संयोग से अपने शरीर में सैन्य की प्रतीति हो सकती है । उद्भूत शीतस्पर्शबाले जल से जब शरीर संयुक्त होता है तब शरीर में रहे हुए शीतत्व का ज्ञान होता है । अर्थात् उद्भूतशीतस्पर्शविशिष्ट ही जल स्वसंयुक्त(शरीर ) समवेतत्वसम्बन्ध से शरीरस्पर्श में शीतत्वप्रकारक ज्ञान का जनक होता है। ठीक उसी तरह उद्भूत शीत स्पर्श से विशिष्ट ही अन्धकार स्व (अन्धकार) संयुक्त (शरीर ) समवेतत्वसम्बन्ध से, जो प्रकरणस्थ परम्परासम्बन्धशब्द से बताया गया है, शरीरस्पर्श में शीतत्वविशेपणक प्रतीति का जनक हो सकता है। अग्नि आदि में शील स्पर्श नहीं होने से परम्परासम्बन्ध से भी अग्नि शरीरस्पर्श में शीतत्व की प्रतीति का जनक नहीं होता है । इसी तरह यदि अन्धकार में उद्भूत शीत स्पर्श न हो तो कभी भी वह परम्परासम्बन्ध से शरीरस्पर्श का शीतत्वरूप से भान नहीं करा सकता । मगर तादृश प्रतीति को अन्धकार उत्पन्न करता है । अतएव वह उद्भूत शीतस्पर्शबाला है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे शीतस्पर्श वाला ही जल शरीरस्पर्श का शीतत्वेन परिणमन कर के 'शरीरस्पर्श शीत है' इस प्रतीति का जनक है। ठीक उसी प्रकार उद्भूत शीतस्पर्श वाला ही अन्धकार शरीरस्पर्श का शीतत्वेन परिणमन करा यह भी माना जा सकता है । अन्धकार में यदि उद्भूत शीत स्पर्श न हो कर सकता ? अतः अन्धकार में उद्धृत शीतस्पर्श का स्वीकार आवश्यक है ।' "यदि अन्धकार में उद्भुत शीत स्पर्श है, तो अन्धकार में शील स्पर्श का
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कर शरीरस्पर्श का शीतत्वेन भान कराता है। तब वह शरीरस्पर्श का शीतत्वेन रूपांतर कैसे ननु इति । यहाँ यह प्रश्न हो कि
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३२५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का.५ * तभन्यता पाष्थापना * | रूपवतस्तस्य शीतस्पर्शवत्वं कथं सङ्गच्छते' इति चेत् ? 'शक्तिवैचित्र्यवशादेवेति' बूमः ।।
अथ आलोकाभावेनैव तमोव्यवहारोपपत्तेर्न तस्य द्रव्यत्वकल्पनमिति चेत ? = = = = = = =* गयला E = = कुतः कारणात न भवति ? यथोद्भूतशीतस्पर्शवजलसंयोगाछरीर इब जलेऽमि शैत्यं प्रतीयते तथोद्भुतशीतस्याश्रियाऽन्धकारसन्निकांच्छरीरे इवाऽन्धकार शैत्यं कनो नायरीयते ? इति शङ्काशयः । प्रकरणकत्समाधने- योग्यतामेवेदं परिपच्छेति । || | अन्धकारोद्भुतशीतस्पर्शनिष्ठयोग्यतां विषयविधया शीतत्वप्रकारकरपार्शनधीजनकतावच्छेदकधर्मवत्वस्वरूपां एवेदं त्वं पृच्छ 'कुतस्त्व भगवति ! योग्यते । शरीरविशेष्यक-शीतस्पर्शप्रकारकं स्पार्शनं प्रयोजयसि. नत तमोविशेष्यक-शीतस्पर्श स्वस्पर्शनेन्द्रियनिष्ठयोग्यतां करणविधया स्पानिजनकतावच्छेदकधर्मवत्त्वलक्षणामेवेदं त्वं पर्यनयुश्च यदत - 'अम्चे ! योग्यते : कुतः भक्त्या देहधर्मिक-शैत्यरपार्शनं संपाद्यते न पुनः तमोधर्मिकदशीतस्परिपार्शनं ? अहं न पर्युनुयोज्यः किन्तु योग्यता त्वया पर्यनुयोज्येत्येवकारार्थः । योग्यताबिरहादेव तमोवृत्तित्वेन शीतस्पर्शस्पार्शनं न भवति, योग्यतावैचित्र्यात् । दृष्टं ह्ययस्यात्र| भेदने समस्याऽपि पारदस्याऽलाबुपात्रभेदेऽयोग्यत्यमिति तात्पर्यम् ।
बस्तुतस्तु जले हरितक्यादिना भिव्यज्यमानो रसो यधा परमतेनुभूयते तथैव ममापि तमसि पवनाभिव्यज्यमान; शीतस्पर्मोइनुभूयत एव । एतेन स स्पर्शः पवनगत एव न तु तगोवृनिरिति प्रत्याख्यात्तम, त्यन्मते बाते शीतस्पर्शविरहेणाऽपसिद्धान्तापाताच ।
पर्थनुङ्क्ते पुनर्नयायिकः नीलरूपवतः इति । रमाद्वादिसिद्धान्तानुसारेणेति गम्यते । तस्य = तमसः शीतस्पर्शवत्त्वं कथं सङ्गच्छते ? शीतस्पर्शस्य जलमात्रवृत्तित्वात्तमसो जललं स्यात् । परन्तु तदा तस्य नीलरूपवत्त्वं न स्यात्, नीलरूपस्य शीतस्पर्शशून्यपृथिवीमात्रवृत्तित्वात् । तस्य नीलरूपचन्चे तु पृथ्वीत्वं स्यात् । अत एव न तस्य शीतस्पर्शवत्वं स्यात् नीलरूपस्य शीतस्पर्शाभावव्याप्यत्वादिति । एतेन तमसोऽतिरिक्तदन्यत्वकल्पना-पि प्रत्याख्यातेति प्रश्नार्थः । प्रकरणकृदुत्तरयति- शक्तिवैचित्र्यवशादेवेति । यधा पृीत्वाऽविशेषऽपि मार्तघटादावेच लोहलेख्यत्वं न तु वजे तथैव नीलरूपबत्त्वाऽविशेषेऽपि तमस्ये - वोद्भूतदतिस्पर्शवत्वं न तु नीलास्तरादा, शक्तीनां वैचित्र्यात् । एतेन नीलरूपस्य दीतस्पदभावव्याप्यत्वमपि प्रत्युक्तम्, बाधात, अन्यथा 'वज्रं लोहलेरच्यं पृथ्वीत्याद् घटवदि' त्यस्याऽपि प्रराङ्गादिति । अत एव तमस उतनीलरूपयत्त्वे उद्भुतस्पशाभाव एवं बाधक इत्यपि निरस्तम्, उद्भूतशीतस्पर्शस्य सत्त्वादिति प्राचां जैनाचार्याणामभिप्रायः ।
ननु तमा न द्रव्यान्तरं किन्वालोकाभाव एवेत्याशग्यवतां गैयायिकानां मतं खण्डयितुमुपक्रमते - अथेति । आलोकाभावे| नैवेति । एक्कारेणाऽतिरिक्तद्रव्यज्यवच्छेदः कृतः । तमोव्यवहारोपपतेरिति । 'इदं तम' इति शब्दप्रयोगलक्षणव्यवहारसम्भवात् ।
भान क्यों नहीं होता ? जैसे जलसंयोग से शरीर की भाँति जल में भी शीत स्पर्श का स्पार्शन होता है ठीक वैसे ही
अन्धकारसन्निधान से शरीर की भाँति अन्धकार में भी शीत स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होना चाहिए । मगर वह नहीं होता | है । ऐसा क्यों?" तो यह प्रश्न हमसे मत पूछो, योग्यता को ही पूछो । मतलब यह है कि प्रतिवादी में या उसकी स्पर्शेन्द्रिय में अन्धकारशीतस्पर्शविषयक स्पार्शन की योग्यता - सामर्थ्य होने पर जरूर उसे अन्धकार में भी शरीर की भाँति शीत स्पर्श का भान होता । मगर तादृश योग्यता उसमें न होने से अन्धकारवृत्तित्वेन शीत स्पर्श का भान नहीं होता है किन्तु शरीरवृनित्वेन भान होता है । यहाँ यह शंका करना कि → “अन्धकार में उद्भुत नील रूप का स्वीकार करने पर उसमें शीत स्पर्श कैसे रहेगा ? क्योंकि नील रूप केवल पृथ्वी द्रव्य में रहना है और शीत स्पर्धा केवल जल में रहता है। अतः अन्धकार में नील रूप को मान्य करने पर शीत स्पर्श कैसे रहेगा ?" - भी अनुचित है । इसका कारण यह है कि भिन्न भिन्न द्रव्य में गुणादिजनक शक्ति में विचित्रता होती है। अतः नीलरूपशुन्य जल में केवल शीत स्पर्धा एवं शीनस्पर्शशून्य पृथ्वी में नील रूप होने पर भी अन्धकार व्य में गतिविशेप होने की वजह उद्भुत शीत स्पर्श और नील रूप भी रह सकते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है । अनपद अन्धकार द्रव्य ही है ।
88 अन्धकार आलोकात्मक नहीं है - स्यादादी अथाला. इति । अन्धकार को नैयायिक मनीपी लोग आलोकाभावस्वरूप मानते हैं। उनका यह कथन है कि→ : अन्धकार है" इस प्रतीति का विषय ५ द्रव्य से अतिरिक्त द्रव्य मानने में गौरव है । इसकी अपेक्षा आलोकाभार
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१७
* महादेव नृसिंहशास्त्रिमतसमीक्षणम् *
३२६
'विपरीतमेव किं न रोचये:' ? 'आलोकस्य चाक्षुषजनकसंयोगाश्रयत्वेन नैवमिति चेत् ? ल, चक्षुरप्राप्यकारितावादिनामस्माकं तमः संयुक्तचाक्षुषं प्रति योग्यताविशेषकारणत्वस्यैवेष्ट
* गयलता
व्यवहारश्वोपलक्षणं तादृशज्ञानस्य । यथा घटाभावाभावस्य घटसमनियतत्वेन घटेनैव घटाभावाभावव्यवहारोपपत्तेः घटाभावाभावस्य न बटातिरिक्तत्वं तथैव तमस आलोकाभावसमनियतत्वेन तेनैव तमोव्यवहारोपपत्ती तस्य नालोका भावव्यतिरिक्तत्वं, गौरवादिति नैयायिकाशयः । तदपाकरणाय प्रकरणकृत् प्रतिबन्धा प्राह विपरीतमेव = 'तमोऽभावेनैवाऽऽलोकव्यवहारोपपत्तेर्नालीकस्य इव्यत्वकल्पनमित्येव किं न रोचयेः १ 'घटो नास्तीति प्रतीत्या यथा घटाभावोऽवश्यक्लृप्तः तथा 'तेजो नास्ती' तिधिया | तेजोऽभावो ऽप्यवश्यवलृप्तत्वेनोपपादनीयः येन तमसः तदात्मकत्वं स्यात् । तच्च न सम्भवति, तेजोलक्षणाऽतिरिक्तद्रव्ये माना- ! भावात् तमोद्रव्याऽभावस्यैव तेजस्त्वसम्भवात्, तमो द्रव्याभावेनैबाऽऽलोकव्यवहारोपपत्तेः, तस्याऽलोकसमनियतत्वादित्येव किन्न स्यात् ? इति प्रतिबन्द्याशयः । एतेन 'अन्धकाराभाव एव तेजः किन्न स्यादिति तु न सम्यक्, उष्णस्पर्दा भास्वररूपबुद्धेरनुपपत्तेः' (मु.दि.प्र.९३) इति महादेव भट्टवचनमपि प्रत्याख्यातम्, 'आलोकाभाव एव तमः किन्न स्यादिति तु न सम्यक्, | तमस्युद्भूतशीतस्पर्श-नीलरूप-कर्म-विभागादिबुद्धेरनुपपत्तेः' इत्यस्याऽऽपि जागरूकत्वात् । एतेनोष्णस्पर्शान्यधानुपपत्त्या तेजसोभावरूपत्वमावश्यकमिति ( मु.प्र. पू. १३) नृसिंहशास्त्रिवचनं प्रतिबन्द्याकलितमिति दर्शितम् ।
न
नैयायिकः साम्प्रतमालीकस्य तमोऽभावात्मकत्वे बाधकमाह- आलोकस्येति । चाक्षुपजनकसंयोगाश्रयत्वेन = चक्षुरिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारजनकसंयोगाधिकरणत्वेन नैवं नालोकस्य नमोऽभावात्मकत्वकल्पनं, संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्यमात्रवृत्ति - त्वात्, तदाश्रयस्य द्रव्यत्वौचित्यात् । एकावच्छेदेनाऽऽलोकवति अपरभागावच्छेदेन चक्षुः संयोगाच्चाक्षुषापत्तेर्निराकरणाय चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नालीकसंयोगस्य हेतुत्वाऽभ्युपगमेन तदाश्रयस्याऽऽलोकस्य द्रव्यत्वमावश्यकमिति नैयायिकाभिप्रायः |
I
भो ! नैयायिक ! यदि चक्षुः प्राप्यकारि स्यात्तदा तु चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगत्वेन चाक्षुषहेतुत्वं सम्पनीपद्येत । परं तदेव नास्ति । अतो न तदाश्रयत्वेनालोकस्य द्रव्यत्वमुपपद्येत । अस्तु वा 'तुंष्यतु' इति न्यायेन चक्षुषः प्राप्यकारित्वं तथापि न तादृशालोकसंयोगत्वेन चाक्षुषकारणतावच्छेत्तुमर्हति आलोकसंयोगं विनाऽपि मन्दान्धकारदशायां शुक्लबलाकादिवाक्षुषोपलम्भेन व्यतिरेकव्यभिचारात् । तदनुरोधेन तमः संयुक्तविषयकचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति तमः संयुक्तविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यताविशेषस्य कारणताऽस्माकमभिमतेति न चाक्षुषत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वेनालोकसंयोगकल्पना युक्तिमती, येन तदाश्रयत्वेनाऽऽलोकस्य द्रव्यत्वं सिध्येतेत्याशयेन प्रकरणकारः दर्शितनैयायिकमतं निराकरोति नेति । चक्षुरप्राप्यकारितावादिनामिति । एतद्विशेषणोपादानेन चक्षुः संयोगस्य चाक्षुषकारणताशरीरबहिर्भाचः कृतः । | तमः संयुक्तचाक्षुषं प्रति = तमः संयुक्तद्रव्यविषयकचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति । अनेनाऽऽलोकसंयोगस्य चाक्षुत्रकारणता प्रति
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को उसका विषय मानने में लाघव है, क्योंकि आलोकाभाव उभयमतसिद्ध है, जब कि अन्धकार नामक नवीन द्रव्य वादीप्रतिवादीउभय के मत में सिद्ध नहीं है । जहाँ जहाँ प्रकाशाभाव होता है, वहाँ वहाँ अन्धकार का व्यवहार होता है और जहाँ जहाँ अन्धकार का व्यवहार होता है, वहाँ वहाँ प्रकाशाभाव अवश्य रहता है । समनियत होने की वजह अन्धकारत्वप्रकारक प्रतीति के विशेष्यविधया आलोकाभाव ( = प्रकाशाभाव) का अंगीकार करना ही उचित है, न कि अतिरिक्त द्रव्य काट-1" मगर यह नैयायिकमान्यता ठीक नहीं है । क्योंकि इसके खिलाफ में यह भी कहा जा सकता है कि- " प्रकाश अन्धकाराभावस्वरूप ही है, न कि अतिरिक्त द्रव्य, चूँकि जहाँ जहाँ प्रकाश का व्यवहार होता है, वहाँ वहाँ अन्धकारद्रव्याभाव रहता है और जहाँ जहाँ अन्धकारद्रव्याभाव रहता है, वहाँ वहाँ ही प्रकाश का व्यवहार होता है । इसलिए 'यह प्रकाश है' इस व्यवहार । के विषयरूप में अतिरिक्त प्रकाश का स्वीकार करने की अपेक्षा अन्धकाराभाव का ही स्वीकार क्यों न किया जाय" १ अतः अन्धकार को प्रकाशाभावस्वरूप मानना या प्रकाश को अन्धकाराभावस्वरूप मानना ? इस विषय में कोई नियामक नहीं है । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "अन्धकार प्रकाशाभावस्वरूप माना जा सकता है, क्योंकि इस पक्ष में कोई बाधक नहीं है । मगर प्रकाश को अन्धकाराभावस्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि आलोक (= प्रकाश) तो चाक्षुषप्रत्यक्षजनक आलोकसंयोग का आश्रय है । आलोक का द्रव्य के साथ संयोग द्रव्यादिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार का जनक है, जो आलोकवृत्ति हो कर ही चाक्षुष प्रतीति को उत्पन्न करता है, अन्यथा अन्धकारस्थित अन्य का भी चक्षुरिन्द्रियसंयोग से साक्षात्कार होने लगेगा। संयोग तो गुण है । गुण का आश्रय द्रव्य ही होता है । अतः आलोक ( प्रकाश)
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३२७ मध्यमस्पाद्वादरहस्ये खण्डः २ - का... * योग्यतारिशंषापेक्षाऽऽविष्कारः *
त्वात् । न च ताशयोग्यतां विनाऽपि किचिदंशेन तमःसंयुक्तद्रव्यग्रहाद व्यभिचार इति वाच्यम्, तमःसंयुक्तांशग्रहे तादृशयोग्यताया अवश्याऽयेक्षणात्,
=-= -=-... - ---* जरालता * = =.. | क्षिप्ता, तं विनव मन्दान्धकारस्थितद्रव्यचाशुषोदयात् । गाढान्धकारावरिधनद्रव्यगोचरज्ञानावरगकर्मक्षयोपशमविरहादेव नाऽस्माकं || तचाक्षुषमिति नान्वयव्यभिचारः । गेषश्चैतत्यस्तावे भाबितमेव ।
ननु माऽस्त्वन्वययभिचारः, व्यतिरकव्यभिचारस्तु कथं पराकार्थः :, एकावच्छेदेन्बा मावति अपरभागावच्छेदेन तमोवति द्रव्ये आलोकावच्छेदकाबच्छेदेन चाक्षुषोदयात् । न च तत्रालोकावच्छेदेन तच्चाक्षुषोदय गोलोकसंयोगस्यैव हेतुत्वस्वीकारान्न अभिचार इति वाच्यम्, मन्दतभासंयोगावच्छेदकावच्छेदेन तच्चाक्षुषोदयस्याप्यानुभविकत्वात, निरवच्छिन्नतमःसंयुक्तद्रव्यविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यताविरहेऽपि तादृशतमःसंयुक्तचाक्षुषोदयेन व्यतिरेकव्यभिचारो दुरुद्धरः इति शङ्कां निरसितुमुप
ते । वान्यमित्यनेना स्यान्वयः । तादृशयोग्यतां = आलोकसंयोगानाश्रय-निरवच्छिन्नतमःसंयोगाश्रयाऽन्यतर विषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यतां विनाऽपि किश्चिदंशेन तमःसंयुक्तद्रव्यग्रहात् अमुकावच्छेदकावच्छिन्नतमःसंयोगाश्रयद्रव्यविषयकचाक्षुषोदयात्, व्यभिचारः = व्यतिरेकन्यभिचारः । अतः तादृशयोग्यताविदोषस्य न तमःसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं भवितुमर्हतीति शङ्काशयः ।।
प्रकरणकारो व्यतिरेकव्यभिचारमपाकरोति । तमःसंयुक्तांशग्रहे इति । तमःसंयोगावच्छेदकावच्छेदेन द्रव्यचाक्षुषोदये सति । तादृशयोग्यतायाः = तमःसंयुक्तांशविषयक-ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमस्वरूपयोग्यतायाः अवश्यापेक्षणात् । न हि वयं तमःसंयुक्तगोचरचाक्षुष प्रति कारणविधया तमःसंयोगावच्छेदकीभूतांशविषयकं निरवच्छिन्नतमःसंयुक्तद्रव्यविषयकं वा ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम योग्यताशब्देन प्रतिपादयामः येन व्यतिरेकव्यभिचार: प्रतिष्ठां लभेत किन्तु चाक्षुषविषयविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमं योग्यताशब्देनाऽभिदधामः । स च मन्दान्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छेदेन द्रव्यचाक्षुषोदयदशायामयस्त्येवेति न व्यभिचारः | न होकावच्छेदेनालोकसंयोगवतो द्रव्यस्य मन्दान्धकारसंयोगावच्छेदकविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविरहे मन्दतमासंयोगावच्छेदकांशगोचरलौकिकचाक्षुषं भवितुमर्हति ।
भी चाक्षुषजनक संयोग (गुण) का आश्रय होने से द्रव्यात्मक ही है, न कि अन्धकाराभावस्वरूप । इसलिए आलोक को द्रव्यात्मक एवं अन्धकार को आलोकाभावस्वरूप मानना मुनासिन है" - तो यह भी ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि नैयायिकसम्प्रदाय में चक्षु को प्राप्यकारी मानी जाती है, न कि जैनमत में । हम चक्षु को अप्राप्यकारी ही मानते हैं। इस विषय का विवेचन पूर्व में किया गया है। चक्षु अप्राप्यकारी होने से चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न आलोकसंयोग को चाक्षुषप्रत्यक्ष का कारण नहीं मानते हैं। दूसरी बात यह है कि प्रकाश न होने पर भी मन्द अन्धकार में अवस्थित द्रव्य का चाक्षुष होता है । इसलिए आलोकसंयोग को स्वतन्त्ररूप से भी चाक्षुष प्रत्यक्ष का कारण नहीं माना जा सकता। अन्धकारस्थित द्रव्य के चाक्षुप के प्रति तो योग्यताविशेष को ही कारण माना जा सकता है। जब कि तमःसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुषमात्र के प्रति आलोकसंयोग की कारणता वाचित है। तब चाक्षुपत्वावच्छेदेन (= सभी चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति आलोकसंयोग को कैसे कारण कहा जा सकता है ? जिसकी वजह उसका आश्रय होने के सबब प्रकाश में द्रव्यत्व की सिद्धि नैयायिक महाशय की ओर से हो सके । मंद अन्धकारस्थित द्रव्य का चाक्षुष भी अनुभवसिद्ध होने से यही मानना उचित है कि तमासंयुक्तद्रव्यविषयकचाक्षुपत्यावच्छेदेन योग्यताविशेष ही कारण है ।
म योग्यताविशेष चाक्षुष का अव्यभिचासी कारण है - स्यादादी न च नाद. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह शंका की जाय कि -> "तमःसंयुक्त द्रव्यविषयक चाक्षुष के प्रति योग्यताविशेप को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब व्यतिरेक व्यभिचार उपस्थित होता है । वह इस तरह, जब द्रव्य के एक भाग में आलोकसंयोग होता है और अन्य भाग में अन्धकारसंयोग होता है तब उस द्रव्य का चाक्षुष साक्षात्कार होता है। मगर उसके प्रति आलोकसंयोग को ही कारण माना जा सकता है, न कि योग्यताविशेप को, क्योंकि सर्वथा मन्द अन्धकार में स्थित द्रव्य के चाक्षुष की जैसी योग्यता होती है, वैसी योग्यता तो अमुक भाग में प्रकाश से एवं अन्य भाग में अन्धकार से संयुक्त द्रव्य के चाक्षुषस्थल में नहीं हो सकती है। तादृश योग्यताविशेष के अभाव में भी अमुक १. देखिये पृष्ट, ५२-७२ ।
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* अंशांशिनोः कश्चिद्भदसमर्थनम् * अंशांशिनोः कथसिद्धदस्य च प्रत्यक्षसिन्दत्वात् । 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी'त्यत्र हि 'मूलांश
=-=-=-----...-.. ---* जयलता *
नन्वेबमपि व्यभिचारो दर्निवारः, मन्दतमः संयोगावच्छेदकांशविषयकयोग्यतादशायां चक्षषा तदंशाग्रहे तदभिन्नत्वेनाऽवयविनोऽपि ग्रहादित्याशङ्का काह.. अंशांशिकोरिति । उपाध्यतिनो . . कथमिद्भेदस्य च = स्याद्भिन्नत्वस्य, हि प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति । तदेव दर्शयति- मूल इति । अयं स्याद्वादिनोऽभिप्रायः, यत्रैकस्यैव घटस्थाढ़ मंदतमसि अर्द्धश्वालोके तत्र मन्दतमो:वच्छेदेन न घटद्रव्यस्य चाक्षुषं किन्तु तमःसंयोगावच्छेदकांशस्यैव चाक्षुषम् । यदि च तत्र घटभानमानुभविकं तदा तत् स्मृत्यनुमानादिरूपमवगन्तव्यम् । अत एबाऽऽलोकावच्छेदेन रक्तरूपवति तमोऽवच्छेदेन झ्यामरूपवति पटे आलोकाभिमुखचक्षुर्दशायां 'रक्तोऽयमि' त्यस्य देशापेक्षया प्रामाण्योपपत्तेः, अन्यथा यावदवयवचक्षुःसन्निकर्षस्य कुत्राऽप्यसम्भवेन अनेकतत्संयोगस्य चाऽतिप्रसञ्जकत्वेन न कदाऽपि रूपनिश्चयो भवेत् । द्विहस्तादिमात्रे पटेनावृतकहस्तावच्छेदेन महत्त्वग्रहोऽपि देशापेक्षयैव प्रमाणम् । अत एव आवरणाऽपगमे स्कन्धापेक्षया परिमाणे द्विहस्तत्वग्रहेऽपि तावदवच्छेदन हस्तत्वग्रहस्य नाडप्रामाण्यम्, देशस्कन्धभेदेनो भयोपपनेः । यदि चावयवद्वारा सर्वत्रवावयविनः प्रत्यक्षं भवत्येवेत्यङ्गीक्रियेत, तदा निखातघट्नुम्नदेशदर्शने 'किमयं घट आहोस्वित् इस्राव उदस्वित् कपालं यदुत कपालिका वा ?' इति संशयो न स्यात् । अतो यद्देशाभिमुखं चक्षुः तदंशस्यैव चाक्षुषमुपगन्तव्यम् । ततश्च मन्दतमःसंयुक्तावविविषयकयोग्यताविरह्समकालीन-मन्दतमःसंयोगावच्छेदकांशविषयक योग्यतादशायां चक्षुषांऽयाग्रहेऽप्यशिनोऽग्रहादेव न व्यतिरेकन्यभिचारावकाशः । इदञ्च भेदनयपुरस्कारेणोक्तं द्रष्टव्यम् । तेन नैकान्तवादप्रवेश इति ध्येयम ।
_अथवा प्रस्तुतशङ्का-समाधानबार्तासङ्गतिरेवं कार्या । तत्राऽयं नैयायिकाशयः योग्यताविशेषस्य तमःसंयुक्तद्राचाक्षुषकारणता | न युक्ता, एकावळेदेनालोकवतोपावच्छेदेन च तमःसंयोगवतो द्रव्यरन्य तमःसंयुक्तत्वेऽपि आलोकाभिमुखचक्षुषा ग्रहात्, | आलोकेनैव तदुपपत्ती तत्र योग्यतःविशेषकारणत्वस्य कल्पयितुमशक्यत्वेन व्यतिरेकन्यभिचारात् । अत्रेदं स्याद्वावादिसमाधानं, एवं, तमःसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषोदयस्य चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगेनोपपादनेऽपि एकाबच्छेदेनालोकवतोपरबछेदन तमःसंयोगयतो द्रव्यस्य तमःसंयुक्तांशे चाक्षुषस्य चक्षुःसंयोगावच्छेदकानिछन्नालोकसंयोगेनोपपादयितुमशक्यत्वात, तयारमदभिमतयोग्यताविशेषस्यैवाइवल्याश्रयणीयत्वात्, तमःसंयुक्तांशगोचरचा पत्तस्यैव योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदकत्वेन व्यतिरकन्यभिचाराऽ. योगात । न चाऽवयवाञ्वयवितादात्म्यपक्षे तमःसंयुक्तचाक्षुषे दर्शिताला कसंयोगस्य कारणता तमःसंयुक्तांशचाक्षुषे च तस्याऽकारणता कथं स्यादिति वक्तव्यम् , देश-स्कंधयोः कश्चिद्भेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वेन सर्वथातादात्म्यस्य बाधात् । दृष्टो हि 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी'त्यत्र 'मूलांशवृक्षः कपिसंयोगी'त्याकारिका प्रमा । न हि तबाउभेदवादिनाऽपि वृक्षे कपिसंयोगाऽपृथग्भावभानं वक्तुं युज्यते, अन्यथा तदानीं 'शावायां वृक्षः कपिसंयोगी' त्यस्याऽपि प्रामाण्यं स्यात् । न चैवमस्ति, मूले एव कपिसंयोगतादात्म्यसत्त्चात्, न तु शाखायाम् । ततश्च तमःसंयुक्तांशचाक्षुषे योग्यताविशेषस्य न व्यभिचारित्वमिति फलितम् ।
ननु, स एव नयनाभिमुखभागे एकत्र पटाद्यावृतो द्रव्यांशो यदा नयनपराङ्मुखभागे तमःसंयोगवान् नयनाभिमुखानाबृतभागे चालोकसंयोगवान् तदा तचाक्षुष प्रति तु आलोकसंयोगावच्छेदकाऽवच्छिन्नस्य चक्षुःसंयोगस्यैव हेतुत्वं युक्तं न तु
अंश में तमःसंयुक्त द्रव्य का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने से व्यतिरेक व्यभिचार अनिराकार्य है" -तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि तमःसंयुक्त अंश के चाक्षुष के लिए तो योग्यताविशेष की अपेक्षा जरूर रहती है। अमुक भाग में आलोक एवं अमुक भाग में अन्धकार से संयुक्त द्रव्य के आलोकवाले भाग का चाक्षुष भले आलोकसंयोग से हो जाये मगर आलोकसंयोगशून्य अन्धकारवाले भाग के चाक्षुष के लिए तो योग्यताविशेप को ही कारण माना जा सकता है । अतः व्यतिरेक व्यभिचार निरवकाश है। यहाँ यह प्रश्न करना कि > 'एक ही द्रव्य के चाक्षुष में आलोक की कारणता एवं अकारणता कैसे हो सकती है?
-नामुनासिब है, क्योंकि अवयव और अवयवी में कथंचिद्भेद प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। अतः आलोकवाले भाग के चाक्षुष के प्रति आलोक की कारणता एवं आलोकशून्य भाग के चाक्षुष के प्रति आलोक की अकारणता हो सकती है। अतः तमःसंयुक्त अंश के चाक्षुष के प्रति योग्यताविशेष की कारणता अबाधित है। अंश-अंशी में भेद प्रत्यक्षसिद्ध है इसका यह दृष्टान्त है कि 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' इस वाक्य से 'भूलांशवृक्ष कपिसंयोग वाला है ऐसा प्रमात्मक शान्दवोध होता है, क्योंकि मूलावयव में ही कपिसंयोग का अपृथग्भाव है, न कि संपूर्ण वृक्षात्मक अवयवी में । इसलिए मूल (= जड़) एवं वृक्ष में कथंचितभेद मानना आवश्यक है । इस परिस्थिति में तमःसंयुक्त द्रव्यांश के प्रति योग्यताविशेष को कारण मानना मुनासिब ही है।
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३२९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * आलोकसंयोगस्य चाक्षुषजनकत्वासम्भवविमर्शः * वृक्षः कपिसंयोगी'त्येव प्रमीयते, तदंश एव कपिसंयोगाऽविश्वम्भावात् । न त तस्मिन्नेवांऽशे नयनपराइमुस्वतम:शालिन्यपि प्रत्यक्षोदयात् आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगस्यैव || द्रव्यचाक्षुधे हेतुत्वमुचितमिति वाच्यम्, घूकादिचाक्षुषानुरोधेन चक्षुरुन्मुखतमःसंयोगवच्चाक्षुषं | | प्रति योग्यताविशेषहेतुत्वस्यैवाऽवश्याऽऽश्रयणीयत्वात् । || आलोकाऽजन्यद्रव्यचाक्षुषं प्रति तस्य हेतुत्वमस्त्विति नाऽभिधानीयम, आलोकजन्यतावच्छेदकनियतरूपाऽपरिचयात,
== = == * जयलता *F= = = योग्यताविशेषस्येति नैयायिकाको पराकर्तुमुपक्रमते- न चेति । 'वाच्यामि'त्यनेनाः स्याउन्चयः । तस्मिन्नेबांशे = तमःसंयुक्तद्रव्यांश, प्रत्यक्षोदयात् = चाक्षुषसाक्षात्कारोत्पत्तेः । आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगस्यैवति । आलोकसंयोगस्याऽवच्छेदको यो भागः तदवच्छिन्नस्य = तन्नियन्त्रितस्य चक्षुःसंयोगस्य । एकभागे आलोकसंयोगस्या परभागे च चक्षुःसंयोगस्य सन्चे चाक्षुषं न भवतीत्यत: 'आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्ने ति चक्षुःसंयोगविशेषणमुपादत्तम् । एवकारेण च योग्यताविशेषस्य व्यवच्छेदः
द्रव्यवाक्षुषे हेतुत्वं = द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नकार्यत्वनिरूपितकारणत्वम् । तन्निरासे प्रकरणकृ तुमुपदर्शयति - घूकादिचाक्षुषानुरोधेनेति । आदिपदेन मार्जारादिग्रहणम् । अयं समाधानाशयः, अन्धतमःसंयोगाश्रयाभूतद्रव्यचाक्षर्ष कौशिकादीनां भवत्येव । न च तत्रालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुसंयोगो वर्तते । अतः तत्र स्थले योग्यताविशेषस्यैव कारणतोपगन्तव्या परैरपि । अनेन द्रव्यचाक्षषत्वावच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षःसंयोगस्य कारणलं पत्यका व्यतिरेकन्यभि| चारात्, आलोकसंयोगस्याऽन्यथासिद्भत्वापत्तेः, चक्षुषोप्राप्यकारित्वेन चक्षुःसंयोगविरहाच ।
ननु भवतु योग्यताविशेषस्या लोकाऽजन्यद्रव्याचाक्षुषं प्रति हेतुत्वं न तु द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति, कस्यचित् चाक्षुषस्याऽलोकसंयोगजन्यत्वात् । अतोऽपि तदाश्रयत्वेना लोकस्य द्रव्यत्वं सेत्स्यतीति नैयायिकाशऽऽङ्कायां प्रकरणकार आहआलोकाऽजन्यद्रव्यचाक्षुपमिति । आलोकाऽजन्य द्रव्यचाक्षुषत्वावन्छिन्नमिति । तस्य = योग्यताविशेषस्य, हेतुत्वं = कारणलं, अस्त्विति न अभिधानीयं = नैव वाच्यम् । अत्र हेतुमाह- आलोकजन्यतावच्छेदकनियतरूपाऽपरिचयादिति | आलोकाजन्यद्रव्यचाक्षर्ष प्रति योग्यताबिशेषस्य हेतुत्वमित्यङ्गीकारे आलोकजन्यद्रव्यचाक्षुषेतरद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति तदेतत्वमिति लभ्यते । आलोकजन्यद्रव्यचाक्षुषस्य प्रसिद्धौ तदितरद्रव्यचाक्षुषत्वस्य योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदकत्वं स्यात्, नाऽन्यथा, घटका:प्रसिद्धी घटिताऽसिद्धेः । न च घटादिद्रव्यचाक्षुषत्वस्य तथात्वमस्त्विति वाच्यम्, अन्धतमस्यपि देवतायाः तच्चाक्षुषोदयात् । || न चालोकजन्यद्रव्यचाक्षुषं प्रसिद्धमिति वाच्यम्, आलोकजन्यतावच्छेदकनियतधर्मा:प्रसिद्धेः । न च देवतेतरसमवेतद्रव्य -
न च ते. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि --> "तमःसंयुक्त जिस द्रव्यांश का योग्यताविशेपजन्य चाक्षुष बताया गया है, वही द्रव्यांश जब चक्षु के पराङ्मुख भाग में ही अन्धकारसंयोगवाला और चक्षु के सन्मुख भाग में आलोकसंयोग वाला होता है, तभी भी उसका चाक्षुप होता है । उसके प्रति तो आलोकसंयोगावच्छेदक भाग से अवच्छिन्न (= नियन्त्रित) चक्षुसंयोग को ही कारण मानना उचित है, न कि. योग्यता को। इसलिए द्रव्यचाक्षुप के प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न चक्षुसंयोग को ही कारण मानना उचित है" - तो यह नैयायिककथन असंगत है । इसका कारण यह है कि द्रव्याचपयकचाक्षुपत्वावच्छिन्न (= सभी द्रव्यचाक्षुष) के प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकाचच्छिन चक्षुसंयोग को कारण मानने पर व्यतिरेक व्यभिचार उपस्थित होता है। वह इस तरह - उल्ल पक्षी, बिल्ली आदि की चक्षु के अभिमुख अन्धकार होता है तभी भी उन्हें द्रव्यचाक्षुष होता है। तब आप नैयायिक महाशय का अभिमत उल्लूचक्षुसंयोग आलोकसंयोगावच्छेदक भाग से अवच्छिन्न = नियन्त्रित नहीं है, फिर भी द्रव्यचाक्षुप होता है। यहाँ तो योग्यताविशेष को ही कारण मानना होगा। इसलिए, द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्न के प्रति आलोकसंयोगावच्छिन्नचक्षुःसंयोग को कारण नहीं माना जा सकता, जिसके फलरूप में कारणताअबच्छेदक आलोकसंयोग के आश्रय होने से आलोक में द्रव्यत्व सिद्ध हो सके ।
* द्रव्यचाक्षुषमात्र का योग्यताविशेष कारण है - स्यादादी* आलोकाऽज. इति । पदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "उल्लू आदि का द्रव्यचाक्षुषसाक्षात्कार आलोकाजन्य होने पर भी सर द्रव्यचाक्षुष को योग्यताविशेषजन्य कहना उचित नहीं है । उल्लू आदि के चाक्षुप के अनुरोध से यह कहना ठीक है कि आलोकाऽजन्य दुव्यचाक्षुष के प्रति योग्यताविशेष कारण है, जिससे अर्थतः यह सिद्ध हो जायेगा कि उससे भिन्न द्रव्यचाक्षुष के प्रति आलोकसंयोग कारण है। इस तरह उसके आश्रयरूप में आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि हो
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* ज्ञप्ती परस्पराश्यप्रकाशनम् * | आलोकजन्यत्वाऽज्ञाने तदजन्यत्वाऽज्ञानात् । 'आलोकाऽसंयुक्तचाक्षुषं प्रति तस्य हेतुत्वमि'त्यपि न वक्तुं युक्तम, महदुद्भूताऽनभिभूतरूपवत्तनिवेशे गौरवात् ।
-----* जयलता * चाक्षुषत्वमेवाऽऽलोकजन्यतावच्छेदकमिति वाच्यम्, चूकादिसमवेते द्रव्यचाक्षुधे ब्यभिचारात् । न च पक्षिदेवतेतरसमवेतद्रव्यचाक्षुषत्वमस्तु तथेति वक्तव्यम्, बिडालसमवेते द्रव्यचाक्षुषे व्यतिरेकन्यभिचारात् । न च पशुपक्षिदेवतेतरसमवेतद्रव्यचाक्षुषत्वे तत्त्वं बक्तुं युज्यते, गौरवात्, अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां चौरादीनां द्रव्यचाक्षुषे व्यभिचाराच्च । एतेन मनुष्यसमवेतद्रव्यचाक्षुषत्वस्याऽप्यालोकजन्यतावच्छेदकत्वं प्रत्युक्तम् । सत्कार्यताद छेदका प्रसिधा सवछिनकालानिरूपितकारणताया आश्रयत्वमालोकस्य कधं संभवेत् ? येनालोकजन्यवानुषं सिध्येत, आलोकनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यतावच्छेदकाश्रया प्रसिद्धी च कधमालोकाऽजन्यद्रव्यचाक्षुषं सिद्भिसीधमारोहेत् : अप्रसिद्धनिषेधान्योगादित्याशयेनाऽऽह- आलोकजन्यत्वाऽज्ञाने इति । तदजन्य त्वाऽज्ञानात् = आलोकाऽजन्यत्वा प्रसिद्धेः । एतेन योग्यताविशेषा:जन्यचाक्षुषत्वमालोकजन्यतावच्छेदकमिति निरस्तम्, ज्ञप्ती परस्पराश्रयप्रसङ्गात् ।
नन्वस्त्वालोका संयुक्तद्रव्यचाक्षुषत्वस्यैव योग्यताविशेषजन्यतावच्छेदकत्वमिति नैयायिकाशङ्कायामाह- आलोकाऽसंयुक्तचाक्षुषं प्रतीति । आलोकसंयोगशून्यद्रव्यविषयकचाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रति । तस्य = योग्यताविशेषस्य, हेतुत्वं - निमित्तकारणत्वं, इत्यपि, किमुताऽऽलोका जन्यद्रव्यचाचपं प्रतीत्यपिशब्दार्थः, न वक्तुं युक्तम् । आलोकपरमाणुसंयुक्तयटादिद्रव्यस्य मन्दतमसि चाक्षुषोदयेनाइलोका संयुक्तद्रव्यचानुषत्वस्य योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदकत्वाऽसम्भवात् । न च महदाऽऽलोकाऽसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति योग्यताविशेषस्य कारणतेति वक्तव्यम्, त्वदभिमतमहदनुभूतचक्षूरदिमसंयुक्तयटादिद्रन्यस्य मन्दतमसि चाक्षुषोदयेन महदालोका संयुक्तचानुषत्वस्याऽप्यतिरिक्तवृत्तित्वात् । न च महदुद्भूतालोकाऽसंयुक्तचाक्षुषत्वस्य तथात्वं श्रद्धेयम्, मन्दतमसि महदुद्भूतरूपवदालोकलक्षणसुवर्णद्रव्यचाक्षुषस्यापि योग्यताविशेषजन्यत्वेन तद्दोषतादवस्थ्यात् । न च महदद्भतानभिभूतरूपबदालोका संयुक्तचाक्षषत्वस्वैव तत्त्वम् । सुवर्णरूपस्याऽभिभूतत्वेन सुवर्णगगनसंयोगस्याऽतधात्वान दोषः । ततश्च योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदकघटकीभूततादृशालोकसंयोगाश्रयत्वेनाऽऽलोकस्य द्रव्यत्वं सेत्स्यतीति वाच्यम्, कार्यता:बच्छेदककोटेरतिगुरुत्वापतेरित्याशयेनाऽऽह-महदुद्भूतानभिभूतरूपवत्तनिवेशे इति । महत्परिमाणोद्भूताऽनभिभूतरूपबदालोकस्य योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदककोटी निवेशे । गौरचात् = अप्रामाणिकमहागौरवात् । ततश्च द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति योग्यताविशेषस्य कारणता स्वीकर्तन्या । अतो नालोकसंयोगाश्रयत्वना:लोकस्य द्रव्यत्वं सिंध्येत ।।
सकती है" - तो यह उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि योग्यताविशेष को आलोकाऽजन्य द्रव्यचाक्षुष का कारण कहने का मतलब यह होता है कि वह आलोकजन्य द्रव्यचाक्षुप से भिन्न द्रव्यचाक्षुप प्रत्यक्ष का कारण है । इसलिए जब तक आलोकजन्यत्व का किसी द्रव्यचाक्षुप में भान नहीं होगा तब तक एक भी द्रव्यचाक्षुप में आलोकाऽजन्यत्व (=आलोकजन्यभेद) का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि प्रतियोगी का ज्ञान अभावज्ञान में कारण होता है । तथा द्रव्यचाक्षुप में आलोकजन्यत्व का निश्चय तब हो सकता है, यदि द्रव्यचाक्षुषवृत्तित्वेन आलोकजन्यताअवच्छेदक नियत धर्म का बोध है । अवच्छेदक का ज्ञान न होने पर तदवच्छिन का ज्ञान नहीं हो सकता है । शाखा का ज्ञान न होने पर शाखावजिन्नत्वरूप से कपिसंयोग का अक्रोध नहीं होता है। मगर आलोकजन्यतावच्छेदक नियत धर्म अप्रसिद्ध है । कौन कौन द्रव्यचाक्षुष साक्षात्कार आलोक से ही जन्य है, न कि योग्यताविशेप से ? यह अभी तक अनिश्चित है । अतः आलोकाजन्य चाक्षुप के प्रति योग्यताविशेष को कारण नहीं माना जा सकता।
आलोकासं. इति । यहाँ यह नैयायिककथन हो कि -> "आलोकाऽसंयुक्त द्रव्य के चाक्षुप के प्रति योग्यताविशेष को और आलोकसंयुक्त द्रव्य के चाक्षुप के प्रति आलोकसंयोग को कारण मानने में कोई बाध नहीं है। इस तरह भी आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि हो सकती है । इसलिए आलोकाऽसंयुक्तद्रव्यचाक्षुपत्व ही योग्यताविशेपकार्यतावच्छेदक हो सकता है" - तो यह नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदक धर्म के घटकविधया जिस आलोक का प्रवेश किया गया है, वह आलोकसामान्य न हो कर आलोकविशेष है। आलोकविशेप का मतलब है महत्परिमाण एवं उद्भुत अनभिभूत रूपवाला आलोक, क्योंकि मन्द अन्धकार में आलोकपरमाणु, नेयायिकसंमत नयनरश्मिस्वरूप आलोक एवं सुवर्णात्मक आलोक के संयोग वाले घटादि द्रव्य का योग्यताविशेप से चाक्षप साक्षात्कार होता है। अतः योग्यताविशेषकार्यता
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३३१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * आलोकादीनां क्षयोपशमविशेषे उपक्षीणत्वम् *
योग्यताविशेषश्च 'तदंशे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम' इति न विशेषपदार्धाऽनिरुक्ति: ।। परेण तु चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न-महदुतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वेन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छेि प्रति कारणता वक्तव्या । सा च न सम्भवति, ===..
------------- वस्तुत आलोकाअनरसायनादीनां ज्ञानाबरणक्षयोपशमे एवोपक्षीणत्वाद्रव्यचाक्षुष प्रति न कारणत्वम्, निरूपयिष्यमाणाऽन्यथासिद्धिग्रस्तत्वात् । यद्यपि तदंशविषयकस्याऽऽलोकायुद्धोध्यज्ञानावरणक्षयोपशमस्य तदंशविषयकक्षायोपशमिकज्ञानं प्रत्येव कारणत्वं तथापि चक्षुरादिविशेषसामग्रीसहकारेण तदंशविषयकचाक्षुषादिसाक्षात्कारोत्पत्तिर्न विरुद्धेत्यादिकं विभावनीयं सुधीभिः समयानुसारेण ।
ननु स्याद्वादिनये योग्यताविशेषस्य कारणमपि विशेषपदार्धा परिचयादसम्भवदुक्तिकमित्याशङ्कायो प्राह- योग्यताविशेष - श्रेति । 'तदंशे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम' इति । केवलिनां चाक्षुषविरहात् 'क्षयोपशम' इत्युक्तम् । बहलतमे तमसि यूकादीनां घटादिचाक्षुषोदयात् अन्येषाश्च तदनुदयात् प्रकृते 'विषयग्रहणपरिणामरूपभावेन्द्रियग्राह्यतापरिणामो विषयनिष्ठो योग्यताविशेष' इत्यनुक्त्वा 'विषयांचे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमो योग्यताविशेष' इत्युक्तम् । योग्यताविशेषस्य विषयनिष्ठत्वे तु तत्तत्पुरुषीयलनिवेशावश्यकत्वेन गौरवतादवस्थ्यात् ।।
परेण = नैयायिकेन तु चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न-महद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वेनेति । चक्षुःसंयोगस्य योऽवच्छेदक; तंदवच्छिन्नो यो महदुद्भुतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगः तत्त्वेनेति । द्रव्यचाक्षुपत्वावच्छिन्नं = लौकिकन्यचाक्षुषमात्र प्रति कारणता = निमित्तकारणता वक्तव्या । अन्यथा चक्षुःसंयोगावच्छेदकानवच्छिन्न-महत्परिमाणशून्यानुद्भूताभिभूता - लोकसंयोगादपि नयनपराङ्मुखादिद्रव्यचाक्षुषापत्तेः । यद्यपि योग्यताविशेषाऽपेक्षया दर्शितकार्यकारणभावे गौरवं स्फुटमेव । न च फलमुखत्वेन तस्याऽदोषत्वमिति वाच्यम्, लघुगत्यन्तरस्योपस्थिती प्रमाणप्रवृत्तिसमये सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याघातेन फल
अवच्छेदक धर्म महत्परिमाणोद्भूतानभिभूतरूपचदालोकसंयोगशून्यद्रव्यचाक्षुषत्व होगा, जो अत्यंत गुरु (बडा) धर्म होने से गौरवदोषावह है। इसकी अपेक्षा उचित यही है कि सभी द्रव्यचाक्षुष के प्रति योग्यताविशेष को कारण माना जाय, जिसका कार्यतावच्छेदकधर्म द्रन्यचाभूपत्व होगा, जो अत्यंत लघु है। इसलिए द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छेदेन योग्यताविशेप को कारण मानना ही ठीक है । अतः आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
* योग्यताविशेष का निर्वचन.* योग्य, इति । यहाँ यह कहना कि -> 'योग्यताविशेष में विशेष पदार्थ की व्याख्या नामुमकिन होने से द्रव्यचाचपत्वावच्छिन्न के प्रति योग्यताविशेप को कारण नहीं माना जा सकता है" - असंगत है, क्योंकि योग्यताविशेष का अर्थ है उस अंश में ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम । तदंशविषयक ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर तदंश का चक्षु के सहकार से चाक्षुष साक्षात्कार होता है और उसके अभाव में चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसलिए द्रव्यचाक्षुप के प्रति उक्तस्वरूप योग्यताविशेप को कारण कहने में कोई दोप नहीं है । वस्तुतः तदेशविषयक ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम तदंशविषयक केवल चाक्षुप का कारण
नहीं है किन्तु तदंशविपपक मत्यादि ज्ञान का कारण है। फिर भी नेत्रादि इन्द्रियविशेप के सहकार से वह चाक्षुपादि ज्ञानविशेष | का जनक होता है ।
* आलोकसांयोगकारणतापक्ष में विजिगमनाविरह परण. इति । स्याद्वादी के मतानुसार द्रव्यचाक्षुप का कारणताअवच्छेदक धर्म तदंशविषयक ज्ञानावरणक्षयोपशमत्व होता है, जो लघुभूत है । जब कि नैयायिक को द्रव्यचाचप के कारणतावच्छेदकधर्मविधया चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छित्र-महङ्ग्रतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्व का अंगीकार करना पड़ेगा, जो अत्यंतगुरुभूत है। जिस भाग में चक्षुसंयोग हो उसी भाग में जब महत् परिमाण एवं उद्धृत और अनभिभूत रूप के अधिकरणीभूत आलोक का संयोग होता है, तभी उस भाग का चाक्षुष होता है - ऐसी नैयायिक विद्वानों की मान्यता है । मगर यह कारणता नामुमकिन है। इसका कारण यह है कि द्रव्यचाक्षुष के प्रति चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न महद्भुतानभिभूतरूपाश्रयालोकसंयोग को कारण मानना या महद्भुतानभिभूतरूपाश्रयालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न चक्षुसंयोग को कारण मानना ? इस विषय में कोई निर्णायक युक्ति नहीं है। अतः द्रव्यचाक्षुषकारणता
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३३२
* आलोकसयोगकारणतायां विनिगमनाविरहः | आलोकसंयोगस्याऽप्यवच्छेदकत्वसम्भवे विनिममनाविरहात् । एतेन -> स्वाऽवच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगसम्बन्धेनाऽप्यालोकसंयोगस्य कारणत्वं - प्रत्युक्तम्, चक्षुःसंयोगस्यापि स्वावच्छेदकावच्छिन्नाऽऽलोकसंयोगसम्बन्धेन तथात्वे विनिगमकाऽभावात् ।
= = =* जयलता * मुखत्वाऽयोगात, तथापि तादृाकारणताया असम्भवे हेत्वन्तरमाह- आलोकसंयोगस्याऽऽपीति । अवच्छेदकत्वसम्भवे = चक्षुःसंयोगाऽवच्छेदकयटकत्यकल्पने विनिगमनाविरहादिति । द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न-महदुद्भूतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगः कारणं यदुत महदुतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न-चक्षुःसंयोगः ? इत्यत्रैकतरपक्षपातियुक्तिविरहात् द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नक्षार्थतानिरूपितकार यतावच्छेदकयटकविधया चक्षुःसंयोग इव तादृशालोकसंयोगोऽपि कल्पयितुं शक्यत इति द्वितयमपि तादृशकारणतावच्छेदकघटकं स्यादित्युभयोरतिगुरुभूतयो: तटितयोः कारणताकल्पनापत्तिः । चक्षुःसंयोग-तादृशालोकसंयोगयो: स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं तु एकावच्छेदेन तादृशालोकसंयोगवतो द्रव्यस्याऽपरभागावच्छेदेन चक्षुःसंयोगाचाक्षुषापत्तेः ।
एतेनेति । विनिगमनाविरहेणेति । अस्याऽग्रे 'प्रत्युक्तमित्यनेनाऽन्वयः । स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेनाऽऽलोकसंयोगस्य ग्रहणम् । आलोकसंयोगस्य = महत्परिमाणोद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगस्य कारणत्वं = द्रव्य-चाक्षुषत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणत्वम् । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति महदुद्भूतानभिभूतालोकसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन कारणम्, यथा नयनाभिमुखालोकसंयोगाश्रयद्रव्ये चक्षुःसंयोग-तादृशालोकसंयोगयोरवच्छेदकक्यतादशायां तादृशालोकसंयोग: स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन यत्र द्रव्यांशे वर्तते तत्रैव विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषं जायते । यदा त्वेकभागावच्छेदेन तादृशालोकसंयोगोऽपरभागावच्छेदेन च चक्षुःसंयोगः तदा तदवच्छेदकभेदात्तादृशालोकसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगेन न कुत्राऽपि वर्तते, तादृशचक्षुःसंयोगस्यालोकसंयोगावच्छेदकानवच्छिन्नत्वादिति केषाश्चिन्नैयायिकानां मतम् ।
प्रकरणकार: तन्निरासे हेतु कण्ठत आह - चक्षुःसंयोगस्याऽपि स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगसम्बन्धेन तथात्वे = द्रव्यचाक्षुषकारणत्वसम्भवे, विनिगमकाऽभावादिति । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति किं महदुद्भूताननिभूतालोकसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन कारणं यदुत चक्षुःसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिन्नमदुद्भूतानभिभूतालोकसंयोगसम्बन्धेन कारणं ? इत्यत्रैकतरसाधकबाधकयुक्तिविरहान्नैकस्यैव द्रव्यचाक्षुषकारणत्वं वक्तुं युज्यते । न हि चक्षुःसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगसम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषकारणत्वे किमपि बाधकमस्ति, तयोरवच्छेदकाभिन्नत्वे एव चक्षु:संयोगस्य स्वावकछेदकावच्छिन्नालोकसंयोगसम्बन्धेनाश्रये विषयतासम्बन्धेन द्रव्यलौकिकचाक्षुषस्य जायमानत्वात् । परो विनिगमकअवच्छेदकशरीर के घटकविधया चक्षुःसंयोग की भाँति तादृशालोकसंयोग का भी निवेवा मुमकिन होने से निश्चित रूप से एक का ग्रहण नहीं हो सकता है और दोनों का ग्रहण करने में अत्यंत गौरव है। इसलिए द्रव्यचाक्षुष के प्रति दर्शित आलोकसंयोग को कारण नहीं माना जा सकता ।
प्रतेन, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "व्यचाक्षुष के प्रति आलोकसंयोग ही कारण है और कारणतावच्छेदक सम्बन्ध है स्वावच्छेदकावच्छिन चक्षुसंयोग । स्वपद से द्रव्यचाक्षुषकारणीभूत आलोकसंयोग का ग्रहण अभिमत है । वह द्रव्य के जिस भाग में रहता है, वह भाग आलोकसंयोग का अवच्छेदक होता है, उसी भाग में यदि चक्षुसंयोग रहता हो तब वह आलोकसंयोग स्वावच्छेदकावञ्छित्र चक्षुसंयोग सम्बन्ध से उसी भाग में रहता है और विषयता सम्बन्ध से द्रन्यचाक्षुप भी वहीं रहता है । भिन भिन्न भागावच्छेदेन आलोकसंयोग और चक्षुसंयोग द्रव्य में रहने पर चक्षुःसंयोग आलोकसंयोगावच्छेदक भाग से अवजिन्न नहीं होता है। अतएव तब द्रव्यचाक्षुष के उदय का आसदन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस अवस्था में द्रव्य में आलोकसंयोग स्वावच्छेदकावच्छिन्न चक्षुसंयोग सम्बन्ध से नहीं रहता है" - तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि अब भी विनिगमनाविरह दोष से नैयायिक मुक्त नहीं हो सकता । नैयायिक के उपर्युक्त कथन के खिलाफ में यह भी कहा जा सकता है कि विषयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुध का चक्षुसंयोग ही स्वारच्छेदकावच्छिनालोकसंयोगसम्बन्ध से कारण है । यह कथन अयुक्त है और नैयायिककथन युक्तिसंगत है . इस विषय में कोई साधक-बाधक तर्क नहीं है। इसलिए आलोकसंयोग-कारणता विनिगमनाविरहग्रस्त होगी। इस परिस्थिति में या तो दोनों में कारणता माननी पड़ेगी या
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३३३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५
चक्षुःसंयोगकारणतावादिमतप्रकटीकरणम् *
अथ चक्षुः संयोगस्यैव निरुक्तसम्बन्धेन तथात्वमस्तुरभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वस्य चाक्षुषानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वस्य वाऽपेक्षया चक्षुः संयोगत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वे लाघवादिति चेत् ? न, सम्बन्धविधया तत्प्रवेशे तवाऽपि साम्यात् । सम्बन्ध
*नयलता
=
स्वावच्छेद
मुपदर्शयति अथेति । चक्षुः संयोगस्यैवेति । एवकारेणालोकसंयोगव्यवच्छेदः कृतः । निरुक्तसम्बन्धेन कावच्छिन्न- महदुद्भूतानभिभूतालोकसंयोगसंसर्गेण तथात्वं = द्रव्यचाक्षुषहेतुत्वं अस्तु । ननु महदुद्भूतानभिभूतालोकसंयोगस्य एवं स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुः संयोगसंसर्गेण द्रव्यचाक्षुप हेतुत्वं किं बाधकमस्ति येन भवदुपदर्शितकार्यकारणभावः स्वात्मप्रतिष्ठां | लभेत ? इत्याशङ्कायां पर आह महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वस्येति । अस्याऽग्रे 'कारणतावच्छेदकत्वे' इत्यत्राऽन्वयः । नैयायिकः प्रतिवादिमते संभवल्लघुकारणतावच्छेदकमाह चाक्षुषानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वस्य वेति । महत्परिमाणोद्भूतरूपाश्रयस्यैव परमते चाक्षुषत्वसम्भवात् तत्स्थाने 'चाक्षुषे' त्युक्तम् । शेषं पूर्ववत् । चक्षुः संयोगत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वे = द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकत्वे लाघवादिति । कारणतावच्छेदकधर्मशरीरलाघवादिति । आलोकसंयोगस्य निरुक्तसंसर्गेण तत्कारणत्वे महद्दुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वं चाक्षुषानभिभूतरूपवदालो कसंयोगत्वं वा तत्कारणतावच्छेदकं स्यात् । चक्षुः संयोगस्य निरुक्तसंसर्गेण तथात्ये तु चक्षुः संयोगत्वमेत्र तत्कारणतावच्छेदकं स्यात् । तत्र चक्षुः संयोगत्वस्यैव लघुत्वाच्चक्षुःसंयोगस्यैव निरुक्तसम्बन्धेन तद्धेतुत्वं कल्पयितुमुचितमिति अथाशयः ।
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आलोककारणतावादी तन्निराकुरुते नेति । सम्बन्धविधया = कारणतावच्छेदकसंसर्गरूपेण तत्प्रवेशे = महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्व- चाक्षुषानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वाऽन्यतरनिवेशे, तब नैयायिकस्य अपि साम्यात् = तुल्यगीरवात् । चक्षुःसंयोगस्य तद्धेतुत्वे तूपदर्शितगुरुतरधर्मघटित द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकसम्बन्धे यादृशं गौरवं तादृशमेव गौरवं महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगस्य तत्कारणत्वे मम द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकधर्म इति तुल्यगौरवमुभयपक्षे ।
ननु कारणतावच्छेदकधर्मशरीरगौरवमेव दूषणं न तु कारणतावच्छेदकसम्बन्धवशरीरगौरवमित्याशङ्कायां स्याद्वाद्याह- सम्बन्धदोनों में अकारणता दोनों में कारणता मानने में तो भारी गौरव है और एक को भी कारण न मानने पर आलोक में अन्यत्व की सिद्धि न हो सकेगी ।
* धर्मगौरव की भाँति सम्बन्धगौरव भी दोष
स्यादादी
अथ च इति । यदि यहाँ नैयायिक की ओर से ऐसा कहा जाय कि “विषयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुप के प्रति स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुः संयोग सम्बन्ध से आलोकसंयोग का कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि गाव अन्धकारस्थित द्रव्य के साथ आलोकपरमाणु का चक्षुरश्मिस्वरूप आलोक को एवं सुवर्णात्मक आलोक का संयोग होने पर भी उस द्रव्य का चाक्षुष नहीं होने से द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदक धर्म आलोकसंयोगत्व नहीं हो सकता किन्तु महदुद्धृतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्व हो सकता है अथवा चाक्षुषानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्व । महत्परिमाण एवं उद्धृत रूपवाले द्रव्य का ही चाक्षुष साक्षात्कार होने से बढ़ चाक्षुष भी कहा जा सकता है । मगर यह कारणतावच्छेदक धर्म अत्यन्त गुरु है । इसकी अपेक्षा चक्षुसंयोग को ही दर्शितसम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुप का कारण मानना उचित है, क्योंकि तब कारणतावच्छेदक धर्म चक्षुसंयोगत्व ही होता है, जो अत्यन्त लघु हे । अतः आलोकसंयोग को द्रव्यचाक्षुष का कारण मानने की अपेक्षा चसंयोग को ही उसका कारण मानना उचित है" <- तो यह भी असंगत है। इसका कारण यह है कि आलोकसंयोग को स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुसंयोगसम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुष का कारण मानने पर हमारे मत में जैसे कारणतावच्छेदक धर्म के शरीर में गौरव है, ठीक वैसे ही आप नैयायिक महाशय को बक्षुसंयोग को स्वावच्छेदकावच्छिन्नमदुद्भूताऽनभिभूतरूपवदालोकसंयोगसम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुष का कारण मानने की वजह कारणतावच्छेदकसम्बन्ध के शरीर में गौरव होता है । हमारे अभीष्ट कारणतावच्छेदकधर्म का आप नैयायिक विद्वान् कारणतावच्छेदकसम्बन्ध के घटकरूप में स्वीकार करते हैं । अतः द्रव्यचानुपकारणतावच्छेदकधर्मवशरीर में जो हमारे मत में गौरव प्रसक्त होता है, वही गौरव आप नैयायिक मनीषी के पक्ष में द्रव्यविपयकचानुपकारणतावच्छेदकसम्बन्धशरीरांश में है । अतः आपके अभिमत कार्य कारणभाव की अपेक्षा हमारे अभीष्ट कार्य कारणभाव के अंगीकार में ज्यादा गौरव नहीं है, तुल्य गौरव है । यहाँ यह भी नहीं कहना चाहिए कि > "कारणतावच्छेदक धर्म के शरीर में जो गौरव है, वही दोषात्मक है, न कि कारणतावच्छेदक सम्बन्ध शरीर में प्रविष्ट गौरव भी । इसलिए विषयतासम्बन्ध से द्रव्यविषयक चाक्षुप साक्षात्कार के प्रति चक्षुसंयोग को कारण मानने पर कारणतावच्छेदक संबन्ध के शरीर में जो गौरव प्रसक्त होता है वह
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* सम्बन्धगौरवस्याफि दूपणत्वम् ** गौरवाऽदोषत्वपवादस्य नियुक्तिकत्वात् । विजातीयालोकसंयोगत्वेनैव तन्देतुत्वमित्यरो ।।
त द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयता-द्रव्यसमवेतनिष्ठलौकिकविषयतादिसम्बन्धभेदेन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्यालोकसंयोगावच्छेदकाच्छिमचक्षुःसंयोग-तत्संयुक्तसमवायादेन नाहेतुताकल्पने गौरवात,
= ==* जयलता *=== गौरवाऽदोषत्वप्रवादस्य = ‘सम्बन्धीरवस्य निर्दोषत्वमिति प्रबादस्य, नियुक्तिकत्वात् = अप्रामाणिकत्तात् । अत: कारणतावच्छेदकधर्मशरीरगौरववत् कारणतावच्छेदकसम्बन्धदेहगीरवस्याऽपि दुष्टत्वमेव । विनिगमकाऽभावादुभयोः सदोषत्वं निर्दोषत्वं वा स्यात्, न त्वेकतरस्येति निरुक्तसम्बन्धेन चक्षुःसंयोगवत् प्रदर्शितसंसर्गेण महदुद्भुताऽनभिभूतरूपवदालोकसंयोगस्याऽपि तद्धेतुत्वे विनिगमनाविरहस्य वज्रलेपायमानत्वेनोभयो : गुरुतरसम्बन्धधर्मघटितकारणत्वप्नाप्तावप्रामाणिकमहगौरवमिति तात्पर्यम् ।
यदि च साम्प्रदायिकप्रवादप्रवाहपतितः पर; सम्बन्धगौरवाऽदोषत्वकदाग्रहं नैव परित्यजेत्तदा स्वपक्षेऽपि आलोककारणतावादिनो द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकधर्मशरीरलाधवमुपदर्शयन्ति - विजातीयाऽऽलोकसंयोगत्वेनैवेति । एवकारेण महटुगतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगत्वस्य चाक्षुषानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वस्य च गरुतरधर्मस्य व्यवच्छेदः कृतः । तद्धेतुत्वं = द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वम् ।
उपदर्शितचक्षुःसंयोगकारणतावादिमतमुन्मूलयितुमालोकसंयोगकारणतावादी उपक्रमते - अथेति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । द्रव्यनिष्टलौकिकविषयता-द्रव्यसमवेतनिष्टलौकिकविषयतादिसम्बन्धभेदेनेति । आदिदाब्देन द्रव्यसमवेतसमवेतवृत्तिलौकिकविषयताद्रव्यवृत्त्यभावविशेषणताख्यलौकिकविषयता-द्रव्यसमवेतवृत्त्यभावविशेषणताभिधानलौकिकविषयता-द्रव्यसमवेतसमवेतवृत्त्यभावविशषेणतात्मकलौकिकविषयतानां ग्रहणमभिप्रेतम् । चाक्षुषत्वावच्छिन्नं = लौकिकचाक्षुषसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नं प्रति, आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षःसंयोग-तत्संयुक्तसमवायादेरिति । आदिपदेन तत्संयुक्तसमवेतसमवाय-तत्संयुक्तवि क्तसमवेतविशेषणता-तत्संयुक्तसमवेतसमवेतविशेषणतानां परिग्रहः कार्य: । नानाहेतुताकल्पने गौरवादिति । चक्षुःसंयोगस्य चाक्षुषकारणतोपगमे षट्कार्यकारणभावस्वीकारगारवम् । तथाहि - (१) द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगारच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगस्य समवायेन हेतुत्वं यथा घटचाक्षुषं प्रति तादृशचक्षु:संयोगस्य । अत्र चाक्षुषनिष्ठकार्यतावच्छेदकसम्बन्धविधया द्रव्यवृत्तिविषयतोपादाने 'चैत्रस्यायं पत्र' इत्यादिचाक्षषे चैत्रायंशे व्यभिचार: स्यादित्यतो
दोषरूप नहीं है । जर कि आलोक-संयोगकारणताबाद में कारणतावच्छेदकधर्म के शरीर में गौरव प्राप्त होने से वह सदोष है। इसलिए आलोकसंयोग को द्रव्यचाक्षुष का कारण नहीं माना जा सकता" - यह नैयायिककथन इसलिये नामुनासिब है, कि 'सम्बन्धशरीर में गौरव निर्दोष है। यह प्रवाद नियुक्तिक होने से हमें स्वीकार्य नहीं है। जैसे अवच्छेदकधर्मशरीर में प्रविष्ट गौरव दोपात्मक माना जाता है, ठीक उसी तरह अवच्छेदकसम्बन्धशरीरगत गौरव को भी सदोष मानना ही संगत प्रतीत होता है । अतः चक्षुसंयोगकारणतावादी के मत में कारणतावच्छेदकसम्बन्धशरीरगत गौरव में निर्दोपता की घोषणा करना नितांत अयोग्य है। अतः दोनो पक्ष में गौरव समान ही है।
विजाती. इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन है कि आलोककारणतावादी की ओर से महद्भतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगत्व या चाक्षुपानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्व की अपेक्षा लघुभूत विजातीयालोकसंयोगत्व का द्रव्यचाक्षुषकारणतारच्छेदकधर्मविधया स्वीकार किया जा सकता है । ऐसा मानने पर कारणतावच्छेदकधर्मशरीर में गौरव का अवकाश नहीं है। अतः विषयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुष के प्रति चक्षुसंयोग की भाँति आलोकसंयोग को कारण मानने में कारणतावच्छेदकधर्मशरीर में भी गौस्त्र का अवकाश न होने से विनिगमनाविरह दोष बबलोप बनता है। इसी दोष की वजह दर्शित सम्बन्ध से चक्षुसंयोग को द्रव्यचाक्षुपकारण नहीं माना जा सकता, यह फलित होता है ।
E विषयनिष्ठप्रत्याशि से. चक्षुसंयोगफारता में गौरव - आत्मनिष्ठप्रत्यास तिवादी ह
पूर्वपक्ष :- अथ द्रव्य, इति । यहाँ आन्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से आलोकसंयोग को विजातीय चाक्षुष का कारण मानने वाले विद्वान लोग विषयनिष्टप्रत्यासत्ति से चक्षुःसंयोग को चाक्षुप का कारण मानने वाले मनीषियों के पक्ष में दोष का उद्भावन करते हुए कहते हैं कि -> "चक्षुःसंयोग को विषय में रख कर चाक्षुष का कारण मानने पर अनेक कार्य-कारणभाव की कल्पना आवश्यक बनने से कार्यकारणभावबाहूल्य होता है, जो दोषस्वरूप माना जाता है । वह इस तरह-द्रव्यनिष्टलौकिक | विषयता सम्बन्ध से चाक्षुष के प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकारच्छिनचक्षुःसंयोग को कारण मानना होगा, जैसे घटविषयक
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३३५ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः २ - का. * षड्विधकार्यकारणभाषद्योतनम् * | लाघवात् समवायेन तमस्तव्याप्यभिनीयलौकिकवियितावच्चाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य |
---... -----...-.-....-----* जयलता *- =-=-=-- :लौकिकत्वाख्यविषयताविशेषोशदानम् । एवमग्रेऽपि स्वयमेव भावनीयम । (२) द्रव्यसमवेतनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्यावच्छिन्न प्रति आलोकसंयोगाबच्छेद कावन्छिन् चक्षुःसयोगाश्रयसमवायस्य स्वरूपेण यदा तादृशचक्षुःसंयोगस्य स्वाश्रयसमवायेन हेतुत्वं यथा घटरूपचाक्षुष प्रति दमित्रवरूपम्म । (३) द्रव्यसमवेतसमवेतनिष्ठलौकिकविषयतासंसर्गेण चाक्षुषत्वावच्छिन्न प्रति आलोक-संयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्ष मांगाश्रयसमगन्यमवायस्य स्वरूपेण यद्वा तादशचन:संयोगस्य स्वाश्रयसमवेत हेतुत्वं यथा घटापसमवेतरूपत्वचाक्षुषं प्रति व्यावर्णितलक्षणस्य । (४) द्रल्यवृत्त्यभावनिष्ठविशेषणतात्मकलांकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षषत्वावच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्ष:संयोगाश्रयविशेषणताया हेतत्वं यथा भूतलबुसिघटाभावचाक्षुषं प्रति तस्याः। (५) द्रव्यसमबेतवृत्त्यभावनिष्ठविशेषणतास्वरूपलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्वावच्छिन्न प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगाश्रयसमवेतविशेषणत्वस्य स्वरूपेण यद्वा तादृशचक्षुःसंयोगस्य स्वाश्रयसमवेतविशेषणतासम्बन्धेन कारणत्वं या घटनीलवृत्तिरूपाभाश्चाक्षुषं प्रति निरूपितहेतोः । (६) द्रव्यसमवेतसमवेतवृत्त्यभावनिष्ठविशेषणतालक्षणलौकिकविषयतासंसर्गेण चाक्षुषल्यावच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षु:संयोगाश्रयसमवेतसमवेनविशेषणत्वस्य स्वरूपेण यद्वा तादृशचक्षुःसंयोगस्य स्वाश्रयसमरेतसमदेतविशेषणतासम्बन्धेन हेतुत्वं यथा रूपत्वबृत्तिरूपाभावचाक्षुषं प्रति व्याख्यातकारणस्य । कार्यता. वच्छेदककारणतावच्छेदकधर्मसम्बन्धान्यतमभेदेऽपि कार्यकारणभावो भिद्यते, घटकभेदे तटितभेदात् । ततश्च विषयनिष्ठप्रत्यासत्त्या चक्षुःसंयोगकारणतारादिनये प्रदर्शितषट्कार्यकारणभावाऽगीकारस्याऽऽवश्यकत्वान्महगौरवम् ।।
साम्प्रतमात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्था आलोकसंयोगकारणतावादी स्वपक्षे लाघवमाविस्करोति - लाघवादिति । विषयनिष्ठप्रत्यासत्त्या चक्ष:संयोगकारणतापक्षाउपेक्षया लाघवादिति । समवायेनेति । अनेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धः प्रदर्शितः । तमस्तद्| व्याप्यभित्रीयलौकिकविषयितावच्चाक्षुषं = तमस्तद्व्याप्यभिन्ननिरूपितलौकिकविषयिताश्रयचाक्षुषलक्षणं कार्य प्रति आलोकसंयोग
लौकिकचाक्षुष न्यनिष्ठ लौकिक विषयता सम्बन्ध से घट में रहता है और उसी घर के एक ही भाग में आलोकसंयोग एवं चक्षुसंयोग रहने पर आलोकसंयोग के अपनटेदक भाग से अवञ्छेिन चक्षुसंयोग भी घट में रहता है। कार्य और कारण इस तरह विपयनिष्ठ सम्बन्ध से समानाधिकरण बनने से उन दोनों के बीच कार्यकारणभार संगत हो सकता है । मगर घटनीलरूपविपयक चाक्षुप की उपपनि प्रदर्शित कार्य-कारणभाव से नहीं हो सकती है, क्योंकि उक्त चाक्षुष का विपय घटनीलरूप है, जो गुण है न कि द्रव्य । अतः व्यनिष्ट लौकिक विषयता सम्बन्ध से वह चाक्षुष घटनीलरूप में न रह सकेगा (उत्पत्र नहीं हो सकेगा)। अतः यहाँ कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध द्रव्यनिष्ठ लौकिक विषयता न हो कर द्रव्यसमवेतनिष्ट लौकिक विषयता होगा, क्योंकि घटनीलरूप घट द्रव्य में समवेत होने से द्रव्यसमवेतनिष्ठ लौकिक विषयता सम्बन्ध से घटनीलरूपचाक्षुप घटनीलरूप में रह सकता है । वहाँ चक्षुःसंयोग नहीं रह सकता, क्योंकि घटनीलरूप गुण है और चक्षुसंयोग भी गुण है तथा गुण में गुण नहीं रहता है । इसलिए आलोक-संयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुसंयोगाश्रयसमवाय को ही घटनीलरूपचाक्षुष का कारण मानना होगा । तादृश चक्षुसंयोग का आश्रय नील घट है, जिसका समवाय घटनीलरूप में रहता है । इसलिए द्रव्यसमवेतनिष्ठ लौकिकविषयता सम्बन्ध मे चाक्षुप के प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुसंयोगाश्रयसमवाय को कारण मानना होगा । यह दूसरा कार्य-कारणभाव हुआ। इस तरह अन्य कार्यकारणभाव का स्वीकार रूपत्वादिविषयक चाक्षुप के अनुरोध से करना पड़ेगा । अतः विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चाक्षुप प्रत्यक्ष के कारणविभूया चक्षुःसंयोगादि की कल्पना गौरवदोषग्रस्त है ।
___* आत्मनिष्ठप्रत्यासति से आलोकसंयोग में कारणताकल्पना लघु है **
लाघवा. इति । विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग में कारणता की कल्पना की अपेक्षा आत्मनिष्ठप्रत्यासति से आलोकसंयोग में कारणता की कल्पना करने में लायब है। आत्मा में समवाय सम्बन्ध से चाक्षुष साक्षात्कार रहता है, क्योंकि बह गुण है। अतः कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध समवाय है । चाक्षुपात्मक कार्य आत्मा में रहता है। इसलिए उसके कारण आलोकसंयोग का भी आत्मा में रहना आवश्यक है, क्योंकि कार्य और कारण समानाधिकरण होने पर ही उन दोनों में कार्य-कारणभाव हो सकता है। आलोकसंयोग और चक्षुसंयोग एक भाग में रहने पर ही चाक्षुप साक्षात्कार का उदय होता है । तथा उस चक्षुसंयोग के आश्रय चक्षु से मन का संयोग होता है और मन का विजातीय संयोग आत्मा के साथ होता है। अत: आलोकसंयोग स्व(आलोकसंयोग) अवच्छेदक (विषयभाग)अवच्छिनचक्षुसंयोगाश्रय(चक्षु) संयुक्तमनप्रतियोगिक-आत्मानुयोगिक-विजातीयसंयोगसंबन्ध से आत्मा में रहता है। यद्यपि ज्ञानमात्र के प्रति आत्ममनसंयोग कारण है। फिर भी चाक्षुषजनक आत्ममनःसंयोग स्पार्शनादिजनक आत्ममनःसंयोग से विजातीय = भिन्नजातिवाला होता है । इसलिए कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में तादृशसंयोग
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*आलोकसंयोगकारणतापक्षे लाघवप्रकाशनम् * || स्वावच्छेदकाच्छिमसंयोगवच्चनःसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेव कारणता कलयते । चक्षःसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिमस्ववच्चन:संयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन तथात्वे तु स्फुटमेव गौरवम्, सम्बन्धौर
=-., =* जयलता है | स्येति । 'कारणते' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । आत्मनिष्ठप्रत्यासत्तिबादी स्वपक्षे कारणतावच्छेदकसम्बन्धमाह - स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवच्चक्षुःसंयुक्तमनःप्रतियोगिकचिजातीयसंयोगसम्बन्धेनेवेति । स्वपदेन आलोकसंयोगस्य ग्रहणम् । तदवच्छेदको यो विषयांऽशः तवचिदन्नः संयोगः = चन:संयोगः, तदाश्रपीभूतेन चक्षुषा संयुक्तं मनः तत्प्रतियोगिक आत्मानुयागिकः यो | विजातीयसंयोगः तत्सम्बन्धेनैवेत्यर्थः । तेन सम्बन्धेन आलोकसंयोग आत्मनि वर्तते तत्रैव च समवग्यसनन्धन दर्शितचामपं वर्तते । अन्धकारप्रत्यक्षे तमोव्याप्यालोकसंयोगाभावचाक्षुषे च नालोकसंयोगापेक्षति आलोकसंयोगकार्यघटकभेदकोटी तदाबविषयनिवेशः । न च कारणतावच्छेदकसम्बन्धी विजातीयत्वेन किमर्थं विशेषित इति वाच्यम, रासनादिसाक्षात्कार-जन ममन:संयोगव्यवच्छेदकृते तस्याऽवदयकत्वात् । यद्यपि प्रतिक्षणमात्ममन:संयोगो भिद्यते, मनसः चंचललान् तथापि चयूष - जनकतावच्छेदकजातिविशेषसत्त्वान्न व्यतिरेकव्यभिचार: । एवञ्चात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्य कनिधकारणत्वेन लाघवमेव मत्पक्षे विनिगमकमिति भावः ।
___ नन भवतु ममाऽपि चक्षुःसंयोगस्याऽऽत्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या कारणत्वमिति चक्षुःसंयोगकारणनावाद्य-शां मनसिकृत्य आलोकसंयोगकारणतावाद्याह - चक्षुःसंयोगस्येति । स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववच्चक्षुःसंयुक्नमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेनाऽत्र चक्षुःसंयोगस्य ग्रहणम् । चक्षुःसंयोगस्या बच्छेदको यो वियवृत्तिः भागः तदवच्छिन्नो य आलोकसंयोगः तदवच्छेदकः पुनः स एव विषयांश: तदवच्छिन्नोऽपि पुनः स एव चक्षुःसंयोग . तद्वत् यचक्षः तत्संयक्तं यन्मनः तत्प्रतियोगिक आत्मानुयोगिको यो विजातीयः = रासनादिसाक्षात्कारजनकतावनछेदकज शन्यः संयोगः स आत्मनि वर्तते । अतः तेन सम्बन्धेन चक्षुःसंयोगोऽप्यात्मन्यैव वर्तते । एवञ्चाक्षात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या चक्षुः२. गस्य तधात्वे = तमस्तद्व्याप्यभिन्ननिरूपितलौकिकविषयितावच्चाक्षुषकारणत्ये, तु स्फुटमेव = स्पष्टमेव गौरवं = कारणतावक
| न कह कर 'तादृशविजातीयसयोग' ऐसा कहा है । यहाँ यह भी ध्यान में रहे कि आलोकसंयोग चाक्षुषमात्र का जनक नहीं होता है, क्योंकि अन्धकार = प्रकाशाभाव एवं उसके व्याप्य प्रकाशसंयोगाभाव का चाक्षुप प्रत्यक्ष आलोकसंयोग के बिना ही होता है । इसलिए आलोकसंयोग का कार्यताअवच्छेदक धर्म भी चाक्षुपत्व न हो कर अन्धकार-तद्व्याप्यभिन्नपदार्थनिरूपितलीकिकविपपिताश्रयचाक्षुपत्व ही होगा। यहाँ अनेक कार्य-कारणभाव की कल्पना अनावश्यक है, क्योंकि चाहे घटचाक्षुष हो, चाहे घटनीलरूपविषयक चाक्षुप हो, चाहे घटनीलरूपत्वविषयक चाक्षुष हो, राहे पटाभावविषयक चाक्षुप हो, चाहे घटनीलरूपवृत्तिपीतरूपाभावविषयक चाक्षुष हो, चाहे नीलरूपवजातिवृत्तिरूपाभावविषयक चाक्षुप हो, वे सभी समवाय सम्बन्ध से आत्मा में ही रहते हैं। अतः आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति (=सम्बन्ध) से आलोकसंयोग में कारणता का स्वीकार करने में अनेककार्य-कारणभावकल्पनाऽनावश्यकताप्रयुक्त लायब है। यह लायब ही विनिगमक होने से 'चाक्षुध का कारण चक्षुसंयोग है या आलोकसंयोग ?' इत्याकारक विनिगमनाविरह का अवकाश नहीं है । इसलिए आलोकसंयोग को ही उसका कारण मानना उचित है - यह फलित होता है।
* च संयोग को आत्मनिष्ठप्रत्यासति से. कारण मानने में गौरव चक्षुःसं. इति । यदि यहाँ चक्षुसंयोगकारणताचादी की ओर से यहा कहा जाय कि -> "यदि विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग को चाक्षुप साक्षात्कार का कारण मानने में दोष है तब उसे आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से कारण मानो। जैसे आलोकसंयोग को आप आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से कारण मानते हैं, ठीक उसी तरह चक्षुसंयोम को भी आत्मनिष्टप्रत्यासत्ति से चाक्षुष साक्षात्कार का कारण माना जा सकता है। अत: चिनिगमनाविरह दोष पुनः प्रसक्त होगा" - तो यह नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग को चाक्षुष साक्षात्कार का कारण मानने का मतलब यह होता है कि चक्षुसंयोग आत्मा में रह कर के आत्मा में समवाय सम्बन्ध से चाक्षुप को उत्पन्न करता है । मगर चक्षुसंयोग केवल स्वाश्रयसंयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोग सम्बन्ध से आत्मा में रह कर चाक्षुष को उत्पन्न नहीं कर सकता है, गाढ अन्धकार में अवस्थित घटादि द्रव्य के साथ चक्षुसंयोग होने पर भी घटादि का चाक्षुष होने लगेगा, क्योंकि तब भी चक्षुसंयोग स्व(= चक्षुसंयोग)आश्रय (चक्षु)संयुक्तमनःप्रतियोगिक विजातीयसंयोग वाले आत्मा में तादृश सम्बन्ध से रहता है। इसका निवारण करने के लिए यही कहना होगा कि चक्षुसंयोग स्वाबच्छेदकावच्छिनालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववचक्षुःसंयुक्त
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३३७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ लघुसम्बन्धसम्भवे मुरुसम्बन्धकल्पनाया अन्याय्यत्वम् * वाऽदोषत्ववादिनाऽपि सम्भवति लघुसम्बन्धे गुरुसम्बन्धाऽकल्पनादिति चेत् ? न, तथापि |
==* जयलता - - - सम्बन्धवारीगीरवम् । स्वाश्रयसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन चक्षुःसंयोगस्य चाक्षुषकारणत्वे तु बहलतमे तमसि घटचक्षुःसन्निकर्ष दशायां लचाक्षुषापत्तिरिति दर्शितगुरुसम्बन्धस्यैव कारणतावच्छेदकत्वं वायमिति गौरवमेवेति भावः |
__ ननु चक्षु:संयोगकारणतावादिनो मम मते सम्बन्धगौरवस्य दोषत्वं नाऽड्रीक्रियते किन्तु धर्मगौरवस्यैवेति न तादृशचाक्षुषकारणतावच्छेदकसम्बन्धशरीरगौरवं दोष इति पुनर्विनिगमनाविरही दुरुद्धर इति नालोकसंयोगस्य तत्कारणत्वं सुघटघटाकोटिसण्टङ्कमाटीकते इत्याशङ्कायामालोकसंयोगकारणतावाद्याह - सम्बन्धगौरवाऽदोपत्ववादिनाऽपीति । किं पुनः सम्बन्धगौरव - दोषत्ववादिनेति अपिशब्दार्थः । सम्भवति लधुसम्बन्धे गुरुसम्बन्धाऽकल्पनादिति । आलोकसंयोगस्य लघुसम्बन्धेन तत्कारणलोपपत्ती चक्षुःसंयोगस्य गुरुतरसम्बन्धन तत्कारणत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वान्न प्रकते विनिगमनविरह ट्रयात्मनिषुप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्यैव तद्धेतुत्वकल्पनमुचितमिति तदाश्रयत्वेनालोकस्य द्रव्यत्त्वसिद्धिरित्यथाशयः ।
स्याद्वादी तन्निराकरोति - नेति । यद्यपि आलोकसंयोगस्य दर्शितसम्बन्धेन चाक्षुषकारणत्वे उद्योतस्थपुरुषस्य बहलान्धकारस्थवस्तुचाक्षुषसाक्षात्कारोदयापत्तिर्द्वारा, आलोकसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवचक्षुःसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनाऽत्मनि सत्त्वात् । न च स्वानवच्छेदकानवच्छिन्नचक्षुःसयोगयचक्षुःसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धे- || ना लोकसंयोगस्य तद्धेतुत्यमिति वाच्यम्, गौरवात्, अन्धकारस्थपुरुषस्याउ लोकस्थवस्तुचाक्षुषानुदयप्रसगाच्च तथापि स्फुटत्वा
मन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोग सम्बन्ध से आत्मा में रह कर समवाय सम्बन्ध से आत्मा में चाक्षुष उत्पन्न करता है। गाढ अन्धकार में अवस्थित यदादि में जो चक्षुसंयोग है उसके अवच्छेदक घटादिद्रव्यावयव से अवच्छिन आलोकसंयोग ही नहीं होने से उससे घटित सम्बन्ध से चक्षुसंयोग भी आत्मा में नहीं रहता है । मगर जब घट के नयनाभिमुख भाग में आलोकसंयोग रहता है तभी चक्षुसंयोग दर्शित सम्बन्ध से आत्मा में रह सकता है, क्योंकि स्व = चक्षुसंयोग, उसके अवच्छेदक घटावयव |' से अवच्छिन्न = नियन्त्रित है आलोक संयोग, उसके अवच्छेदकीभूत उसी घटावयव से अवच्छिन्न है वही चक्षुसंयोग, जो ग्रन्थस्थ द्वितीय स्वपद से अभिमत है । तादृश चक्षुसंयोगवाली चक्षु है और उससे संयुक्त है मन, जिसका विजातीय संयोग आत्मा में रहता है। अतः दर्शित सम्बन्ध से चचसंयोग आत्मा में रह सकता है, जो उसी आत्मा में समवाय सम्बन्ध से घटगोचर चाक्षुष को उत्पन्न करता है । इस तरह चक्षुसंयोग और चाक्षुप में सामानाधिकरण्य एवं कार्यकारणभाव की उपपत्ति करनी होगी। अब महाशय ! चक्षुसंयोगकारणतावादी ! देखिये, आपके मत में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध हुआ स्वावच्छेदकारच्छिनालोकसंयोगाबच्छेदकावच्छिन्त्रस्ववचक्षुसंयुक्तमनप्रतियोगिक विजातीयसंयोग और आलोकसंयोग को कारण मानने वाले हमारे मत में कारणतावच्छेदकसम्बन्ध हुआ स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगाश्रयचक्षुसंयुक्तमनप्रतियोगिक विजातीयसंयोग । स्पष्ट ही है कि आत्मनिष्टप्रत्यासति से चक्षुसंयोग को चाक्षुष का कारण मानने पर आपके पक्ष में हमारे मत की अपेक्षा गुरुभूत सम्बन्ध है 1 इसलिए आत्मनिष्टप्रत्यासति से चक्षुसंयोग को कारण न मान कर आलोकसंयोग को ही कारण मानना उचित है। यहाँ यह कहना अनुचित है कि -> "चक्षुसंयोगकारणतावादी हम सम्बन्ध के गौरव को दोषात्मक नहीं मानते हैं । अत: भले हमारे मत में आपके मत की अपेक्षा सम्बन्धशरीर में गौरव हो, फिर भी आत्मनिष्ठ उक्त प्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग को कारण माना जा सकता है" -। यह अनुचित न होने का कारण यह है कि सम्बन्धशरीप्रविष्ट गौरव को दूषण नहीं मानने वाले विद्वान भी गुरुभूत सम्बन्ध का स्वीकार तब करते हैं, जब लघुभूत अन्य सम्बन्ध से कार्यकारणभाव आदि की उपपत्ति न हो सके । जब लयु सम्बन्ध उपस्थित हो और उससे कार्यकारणभाव आदि की संगति हो सके तब तो वे भी गुरुभूत सम्बन्ध की क्लिष्ट कल्पना को मान्य नहीं करते हैं। प्रस्तुत में आलोकसंयोग को कारण मानने पर लयुभूत कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से चाक्षुपोत्पत्ति का समर्थन मुमकिन होने की वजह उसे छोड़कर गुरुभूत सम्बन्ध को कारणतावच्छेदक सम्बन्ध मान कर चाक्षुप की कारणता की चक्षुसंयोग में कल्पना करना नितांत अयोग्य है । इसलिए लाघव सहकार से आलोकसंयोग को ही तादृश चाक्षुप साक्षात्कार का कारण मानना मुनासिब है - यह फलित होता है । जब आलोकसंयोग में कारणता सिद्ध हो गई तब तो उसका आश्रय होने की वजह आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि अनायास ही हो जायेगी । अतः आलोक को अन्धकाराऽभावात्मक न मान कर अन्धकार को ही आलोकाभावात्मक मानना ठीक है। यह हम नैयायिक विद्वानों का तात्पर्य है।"
___ आलोकसंयोगाकारणतापक्षा में विजिगमनाविरह - स्यात्दादी उत्तरपक्ष :- न, तथा, इति । आत्मनिष्ठप्रत्यासतिवादी का उपर्युक्त कयन असंगत है । इसका कारण यह है कि
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* अभिनवदोषद्रयाविष्करणम् *
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संयोगस्य सम्बन्धविद्यया निवेशाऽनिवेशाभ्यां महत्त्वोद्भूतरूपवत्त्वादिविशेषण- विशेष्यभावे च तद्दोषतादवस्थ्यात् । 'स्वावच्छेदकावच्छिन्ने 'त्यादिसम्बन्धेन तत्र तमःसंयोगस्य प्रतिबन्ध
गयलता
| देतद्दोषजालमुपेक्ष्य स्याद्वादी दोषान्तरमाह तथापीति । आत्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्य तद्धेतुत्वोपगमेऽपीति । संयोगस्य सम्बन्धविधया कारणतावच्छेदकसंसर्गरूपेण निवेशाऽनिवेशाभ्यामिति । अस्याग्रे 'तदोषत्तादवस्थ्यादि' त्यनेनाऽन्वयः | आलोकसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवचक्षुः संयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन तत्कारणत्वं यदुताऽलोकस्य स्वसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवच्चक्षुः संयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन तद्धेतुत्वं ? इत्यत्र कारणतावच्छेदकसम्बन्धकोटी संयोगस्य निवेशानिवेशाभ्यां विनिगमनाविरहदोषस्य तदवस्थत्वान्नालोकसंयोगस्याऽपि कारणत्वं सङ्गतिमङ्गति ।
=
-
नन्वस्त्वालोकस्यैवोपदर्शितसम्बन्धेन कारणत्वं कारणतावच्छेदकधर्मलाघवात् सम्बन्धगौरवस्य चादोषत्वात् । एवमप्यालोकस्य द्रव्यत्वसिद्धिरव्याहतेति नैयायिकाशङ्कायां स्याद्वादी गत्यन्तरेण विनिगमनाविरहदोषं दृढयति महत्त्वोद्भूतरूपवत्त्वादिविशेषण - विशेष्यभावे इति । आदिशब्देनाऽनभिभूतरूपवत्त्वग्रहणम् । तद्दोषत्तादवस्थ्यात् = विनिगमनाविरहप्रयुक्तगौरव| दोषस्य दुर्वारत्वात् । आलोकस्यैव दर्शितसंसर्गेण कारणत्वेऽपि कारणतावच्छेदकधर्मत्वमालीकत्वस्य न सम्भवति आलोकपरमाणु| नयनरश्मि - सुवर्णसंयुक्तस्य गाढान्धकारस्थद्रव्यस्य चाक्षुषत्वापत्तेः किन्तु महत्परिमाणोद्भूतानभिभूतरूपवदालोकत्वस्यैव तत्त्वं गौतमीयेन वक्तव्यम् । तच न सम्भवति, उद्भूतानभिभूतरूप महत्त्ववदालो कत्वस्याऽनभिभूतोद्भूतरूपमहत्त्ववदालोकत्वस्य महदन| भिभूतोद्भूतरूपवदालोकत्वस्य वा कारणतावच्छेदकधर्मले विनिगमनाविरहेण सर्वेषामेव तेषां तत्त्वप्रसङ्गेन महागौरवात् । ततो नालोकस्य कारणता साध्वीति स्याद्वाद्याशयः ।
आलोकस्य कारणत्वोपगमें न केवलं कारणतावच्छेदकधर्म-तत्सम्बन्धशरीरगौरवं किन्तु कार्यतावच्छेदकधर्मदेहगौरवमपि । समवायेन चाक्षुषत्वस्य तत्त्वेऽन्धकारचाक्षुषे व्यभिचारात् । तमोभिचानुषत्वस्य तथात्वे आलोकसंयोगाभावचाक्षुषे व्यभिचारात् । तमस्तद्व्याप्यभिचाक्षुषत्यस्य तथात्वे गौरवात् ।
किञ्च येन सम्बन्धेनालोकसंयोगस्य तत्कारणत्वं तेनैव सम्बन्धेन तमः संयोगस्य प्रतिबन्धकत्वमपि त्वयाऽवश्यमभ्युपेयम्, अन्यथा यंत्रकस्यैव पटस्यार्द्ध तमसि अर्द्धञ्चालोके तत्र स्थले उभयावच्छेदेन चक्षुः संयोगे सति नयनाभिमुखाखिलपटचाक्षुषमापद्येत । इत्थञ्च तस्य प्रतिबन्धकत्वाऽभ्युपगमस्यावश्यकत्वे सिद्धं प्रतिबन्धका भावस्य कारणत्वेन तव कारणान्तरकल्पनागौर| वापत्तिः । वस्तुत एवमबश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्त्तिनः नमः संयोगाभावादेव कार्यसम्भवे आलोकसंयोगस्याऽन्यथासिद्धत्वमित्याशयेन स्याद्राचाह 'स्वावच्छेदकावच्छिन्ने' त्यादिसम्बन्धेनेति । स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवच्चक्षुः संयुक्त मनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेन तमः संयोगस्य ग्रहणम् । शेषं पूर्ववद्भावनीयम् । तत्र = तमस्तद्व्याप्यभित्रीयलौकिकविष
आलोकसंयोग को स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवचक्षुः संयुक्तमनः प्रतियोगिक विजातीयसंयोग संबन्ध से कारण माना जाय या आलोक को स्वसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवश्चक्षुः संयुक्तमनः प्रतियोगिक विजातीयसंयोग सम्बन्ध से कारण माना जाय ? इन दो पक्ष । में से एक भी पक्ष की समर्थक युक्ति नहीं है। मतलब कि संयोग का कारणशरीर में प्रवेश किया जाय या कारणतावच्छेदकसम्बन्धदेह में निवेश किया जाय ? इसका निश्चायक तर्क न होने से 'आलोकसंयोग ही दर्शित आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से कारण है' यह नैयायिक प्रतिपादन असंगत है । दूसरी बात यह है कि आलोक को लाघवसहकार से 'स्वसंयोगावच्छेदक...' इत्यादि सम्बन्ध से कारण मान भी लिया जाय तो भी आलोकसामान्य तो कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि आलोकपरमाणु, तप्तजलस्थ आलोक, सुवर्णात्मक आलोक होने पर भी तत्संयुक्त द्रव्य का बाप नहीं होता है। इसलिए महद्भूतानभिभूतरूपवदालोक को ही चानुपकारण मानना होगा। मगर यहाँ कारणतावच्छेदक धर्म महदुद्धृतअनभिभूतरूपवदालोकत्व है या उद्भूताऽनभिभूतरूपमहत्त्ववदालीकत्व है या अनभिभूतोद्भूतरूप महत्त्ववदालोकत्वादि है ? इस समस्या का कोई समाधान नहीं होने से सभी का चाक्षुपकारणतावच्छेदक-धर्मविधया स्वीकार करना होगा, जिसकी वजह कार्य कारणभाव में अत्यन्त गौरव होगा । इस तरह | आलोकसंयोगकारणतावादी के पक्ष में उपर्युक्त विनिगमनाविरह दोष ज्यों का त्यों बना रहने से आलोकसंयोग को चाक्षुषकारण नहीं माना जा सकता ।
अन्धकार में द्रव्यत्वसिद्धि
स्वाब. इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि जैसे आलोकसंयोग को स्वावच्छेदकावच्छिन्न संयोगवच्चक्षुः संयुक्तमनः
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३३९ मध्यमस्याद्वाद रहस्ये खण्ड २ - का. ५ कत्वेनोपपत्तेश्च ।
* उलूकादिचाक्षुषेन व्यभिचारदूषणम् *
पेचकादिचाक्षुषे व्यभिचारश्च सर्वत्र साधारणं दूषणम् । न च नरचाक्षुषं प्रत्येव कारणता, * जयलता है
यितावच्चाक्षुषसाक्षात्कारे, तमः संयोगस्य प्रतिबन्धकत्वेन एवं उपपत्तेश्चेति । न च ' तमः संयोगाभावत्वेन न हेतुताऽपि तु आलोकसंयोगत्वेन, लाघवादिति वाच्यम्, महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वापेक्षया महत्तमः संयोगाभावत्वस्य लघुत्वात्, परमते महत्वोद्भूतत्वादिविशेषणविशेष्यभावे विनिगमकाभावाच्च । इत्थञ्च नैयायिकमते आलोकद्रव्यत्वसिद्धिः दुर्घटा । मम तु प्रतिबन्धकीभूतसंयोगाश्रयत्वेन तमोद्रव्यत्वसिद्धिः । इत्थञ्च 'अस्तु तमस एवं द्रव्यत्वं आलोकव्यवहारस्य तु तमोऽभावेनैवोपपत्तेः' इति स्याद्वादिना पर्यनुयुङ्क्ते सति नैयायिकेन न किमपि विनिगमकमुपदर्शयितुं पार्यत इति प्रकरणकुदाशयः ।
किचालोकं बिना पेचकादिचाक्षुषोदयाद् विषयनिष्ठप्रत्यासत्या एव चैत्रादिचाक्षुषे तद्धेतुत्वोपगमो न्याय्यो न त्वात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या इत्याशयेन प्रकरण दाह पेचकादिचाक्षुष इति । उलूकादिचाक्षुषसाक्षात्कार इति । तदुक्तं मूलकाररेव अभिधानचिन्तामणी 'घूके निशाद: काकारि: कौशिकोलूकपेचका:' (अभि.चि.लो. १३२४ ) इति । व्यभिचारः = व्यतिरेकव्यभिचार: सर्वत्र = आत्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्य चक्षुः संयोगस्य तमः संयोगाभावस्य वा तद्धेतुत्वोपगमे साधारणं दूषणम् । स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवच्चक्षुः संयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनालोकसंयोगस्य तमः सयोगाभावस्य च तथा स्वावच्छेदकावच्छिन्नालीकसंभोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववच्चक्षुः संयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन चक्षुः संयोगस्य पेचादावसत्त्वेऽपि तत्र समवायेन घटादिचाक्षुषोदयाद् व्यतिरेकव्यभिचारः ।
दर्शितव्यतिरेकव्यभिचारश्चाऽऽत्मनिष्ठप्रत्यासत्या आलोकसंयोगस्य तमः सयोगाभावस्य तद्धेतुत्वेऽन्वयव्यभिचारस्योपलक्षणम्, आलोकस्थपुरुषस्याऽन्धकारस्थद्रव्यचाक्षुषानुदयादिति ।
नन्वस्त्वालोकसंयोगादेः नरचाक्षुषत्ववाच्छिन्नं प्रत्येव हेतुतेति न पेचकादिचाक्षुषे व्यतिरेकव्यभिचारः, तस्य तत्कार्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वादिति पराभिप्रायं दूषयितुमुपक्रमते न चेति । नरचाक्षुषं नरसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव आलोक
-
प्रतियोगिक विजातीय संयोग सम्बन्ध से चाक्षुष साक्षात्कार का कारण माना जाता है, ठीक उसी तरह अन्यकारसंयोग को उसी सम्बन्ध से चाक्षुष का प्रतिबन्धक भी मानना आवश्यक है, क्योंकि अन्धकारसंयुक्त द्रव्य के जिस भाग में अन्धकारसंयोग हो उसी भाग में चक्षुसंयोग होने पर उस द्रव्य का चाक्षुप नहीं होता है। आत्मा में तब समवाय सम्बन्ध से चाक्षुप नहीं होता है। इसलिए अन्धकारसंयोग भी स्व ( = अन्धकारसंयोग) अवच्छेदकावच्छिन्नचक्षुसंयोगाश्रयीभूतचक्षुसंयुक्तमनप्रतियोगिक विजातीय संयोग सम्बन्ध से आत्मा में रहेगा । इस तरह चानुष साक्षात्कार के प्रति आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से अन्धकारसंयोग को प्रतिबन्धक एवं उसके अभाव को कारण मानना आवश्यक है । अब तो आलोकसंयोग को चाक्षुष का कारण मानने की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अन्यकारसंयोगाभावस्वरूप प्रतिबन्धकाभाव से ही चाक्षुपोदय हो सकता है। द्रव्य के साथ चक्षु का संयोग जिस भाग में हो उस भाग में अन्धकाराभाव रहने पर ही आत्मा में दर्शित सम्बन्ध से प्रतिबन्धकाभाव रहता है और तभी आत्मा में समाय सम्बन्ध से चाक्षुप का उदय भी होता ही है। इस तरह अन्धकारसंयोगाभाव को ही चाप का कारण माना जा सकता है जिसके फलस्वरूप में प्रतिबन्धकीभूत संयोग का आश्रय होने की वजह अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि निराबाध होगी । प्रत्युत आलोकसंयोग में चाक्षुपकारणता असिद्ध रहने से आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि नैयायिक के लिए दुर्घट बनती है । आलोकसंयोगकारणतापक्ष में व्यभिचार
पेचका इति । दूसरी बात यह है कि आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से चाहे आलोक को या आलोकसंयोग को या चक्षुसंयोग को या अन्धकारसंयोगाभाव को चाक्षुषसाक्षात्कार का कारण माना जाय, मगर उल्लू आदि के चाक्षुप प्रत्यक्ष में व्यतिरेक व्यभिचार तो आवश्य रहेगा ही, क्योंकि आलोकादि के विरह में भी गाद अन्धकार में घटादि का साक्षात्कार उन्हें होता है । कारणाभाव में भी कार्योत्पाद होने से प्राप्त व्यभिचार दोष आलोक, आलोकसंयोगादि में कारणता का निश्चय नहीं होने देगा, क्योंकि व्यभिचार दोष कार्य कारणभाव का विघटक है। इस व्यभिचार दोप का निवारण करने के लिए नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'आलोकसंयोगादि का कार्यतावच्छेदक धर्म चानुपत्य नहीं है किन्तु मनुष्यचाक्षुपत्व है। अर्थात् आलोकसंयोग आदि का कार्य सघ चाक्षुष साक्षात्कार नहीं है किन्तु मनुष्यवृत्ति चाक्षुप ही है । उल्ल, बिल्ली आदि का चाक्षुष मनुष्यवृत्ति नहीं है । इसलिए उसकी उत्पत्ति आलोकसंयोग आदि के बिना हो तो भी व्यभिचार दोष नहीं होगा । जो कार्य अपना
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* आलोककारणतापक्षान्मूलनम् * अअनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां चाक्षुषे तथापि व्यभिचारात् । न च स्वाभाविकनर- ! चाक्षुषत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वान्नायं दोष इति वाच्यम्, स्वाभाविकत्वस्याऽऽलोकसहकृतचक्षुर्जन्यत्वरूपस्याऽऽलोककारणतापरिचयं विनाऽपरिचयात, अन्यस्य दुर्वचत्वात् ।
=- =* जयलता * संयोगादेः कारणता । तत्र दोषमाह - अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुणमित्ति । आदिपदेन रसायनगुटिकादिग्रहणम् । तस्करादीना. मिति । आदिपदेन 'योग्यादिग्रहणम् । चाक्षुपे तथापि = नरचाक्षुषत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितालोकसंयोगादिनिष्ठकारणत्वोपगमेऽपि, व्यभिचारात् = व्यतिरेकव्यभिचारात्, अअनादिसंस्कृतनेत्राणां निशायां भ्रमतां आलोकसंयोगादिकमृतेऽपि चाक्षुषोदयात् ।
न चेति । अस्य वाच्यमित्यन्नाऽन्वयः । स्वाभाविकनरचाक्षुपत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वात् = आलोकसंयोगादिनिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वात्, न अयं दोपः = आलोकसंयोगाद्यजन्या अनादिसंस्कारजन्यनरचाक्षुषोदये व्यभिचारदोषः, तस्यास्वाभाविकत्वादिति नैयायिकाशयः । स्यावादी तनिरासे हेतमाह - स्वाभाविकत्वस्येति । आलोकसंयोगादिकार्यतावच्छेदकधर्मघटकीभूतस्य स्वाभाविकत्वस्येति । आलोकसहकृतचक्षुर्जन्यत्वरूपस्य = आलोकसहकारिकारणकनेत्रजन्यत्वलक्षणस्य आलोककारणतापरिचयं = आलोकनिष्ठकारणतारोधं, बिना अपरिचयात् = अज्ञानात् । नयायिक आलोककारणत्वसिद्धये प्रवृत्तः । न चाऽद्यावधि तत्कारणता सिद्धा । असिद्धेनाऽसिद्धसाधने तून्मत्तत्वग्रसङ्गानालोकसहकारिकारणकचक्षुर्जन्यत्वविशिष्टनरचाक्षुपत्वस्याऽऽलोकजन्यतावच्छेदकत्वं सम्भवतीति व्यतिरेकन्यभिचारो दुर एव । 'अस्तु स्वाभाविकत्वमालोकसहकृतचक्षुर्जन्यत्वविलक्षणमन्यदेवे' ति नैयायिकाभिप्राय खण्डयितुं स्याद्वाद्याह - अन्यस्य = आलोकसहकृतचक्षुर्जन्यत्वव्यतिरिक्तस्य दुर्वचत्वात् = दुर्व्याख्यानत्वात् । न च स्वाभाविकत्वं जातिरूपमेवेति वाच्यम्, साङ्कर्यात्, अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषामेकदैवालोकसंयोग-तच्छून्यद्रव्याणां चाक्षुषोदयात्, तस्याऽऽलोकस्थद्रव्यांशे स्वाभाविकत्वात् तमस्स्थद्रव्यांशे चाऽस्वाभाविकत्वात् । न च
! नहीं है, उसकी उत्पत्ति अपने बिना हो तो दोष नहीं कहा जाता । इसलिए नरचाक्षुष के प्रति आलोकसंयोग की कारणता
का विघटन नहीं हो सकता" -तो यह नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि आलोकसंयोग को नरचाक्षुप का कारण मानने पर भी व्यतिरेक व्यभिचार दोष तो ज्यों का त्यों बना रहता है, क्योंकि अंजनादि के योग से आँख में संस्कारविशेष का आधान कर के चौर, संन्यासी आदि मनुप्य अमावास्या की रात्रि में भी, बिना आलोकसंयोग के, घटादि का चाक्षुष साक्षात्कार करते हैं। उनके चाक्षुप में आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक नरवाक्षुपत्व धर्म है, फिर भी उनके चाक्षुष साक्षात्कार की उत्पत्ति, बिना किसी आलोकसंयोग के, होने से व्यतिरेक व्यभिचार दुर्निवार है । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि --> "अञ्जनादि के सहकार से चौर, संन्यासी आदि मनुष्य को जो चाक्षुष होता है वह स्वाभाविक नहीं है, अस्वाभाविक है। अञ्जनादि के बिना तो वे भी गाढ अन्धकार में अवस्थित पदार्थ को नहीं देख सकते है। अअनादि न हो तब आलोकसंयोग होने पर ही उन्हें चाक्षुष साक्षात्कार होता है। इसलिए आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक नरचाक्षुपत्व नहीं, किन्तु स्वाभाविकनरचाक्षुपत्व ही है। अब कहाँ है अवकाश व्यतिरेकव्यभिचार को ? स्वाभाविक नरवृत्ति चाक्षुप साक्षात्कार आलोकसंयोग के बिना हो ही नहीं सकता" -तो यह भी ठीक नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आलोकसंयोग का कार्यताअवच्छेदक स्वाभाविकनरचाक्षुषत्व है, ऐसा कहने का मतलब यह है कि स्वाभाविकत्वविशिष्टनरचाक्षुपत्त्व उसका कार्यतावच्छेदक है । मगर यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'कार्यतावच्छेदकधर्म की कुक्षि में निविष्ट स्वाभाविकत्वं क्या है ?'
२. परमत में स्वाभातिकाच का निर्वतन दु:शापय ४७ आलांक. इति । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि ->"स्वाभाविकत्व का अर्थ है आलोकसहकृतचक्षुजन्यत्व । अर्थात् चाक्षुषोत्पत्ति के लिए जिसका सहकारी (कारण) आलोक है ऐसी चक्षु से जन्य चाक्षुप साक्षात्कार में रहने वाला धर्म ही स्वाभाविकत्व है, जो आलोकसंयोगजन्यताचच्छेदकधर्मशरीर में प्रविष्ट है" - तो यह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि नेयायिक महाशय आलोकसंयोग में स्वाभाविक नरचाक्षुष की कारणता को सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं, मगर अभी तक उसकी सिद्धि नहीं हुई है। उसकी सिद्धि करने के लिए उसी तर्क, अनुमान, व्याप्ति आदि का सहारा लिया जा सकता है, जिसके शरीर में एक भी असिद्ध पदार्थ का निवेश न हो । यहाँ अभी तक आलोक में चाक्षुपकारणता या चाक्षुप में आलोकजन्यता असिद्ध = अपरिचित = अज्ञात है, फिर भी नैयायिक विद्वान आलोकसंयोग के कार्यतावच्छेदक
१. पहा योगी पद से अधारसंन्यासी आदि का ग्रहण अभिमत है, न कि केवलज्ञानी आदि का । २. देखिये, 'अबोर नगारा बागे' पुस्तक |
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३४१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * स्वाभाविकत्वनिर्वचनाऽसम्भवः *
अथ अजेनाद्यसंस्कृतचक्षुर्जन्यत्तं तदिति चेत् ? न. आदिपदार्थाननुगमेन कार्यतावच्छेदकाननुगमात् । 'आलोकेतराऽसंस्कृतचक्षुर्जन्यत्वं तदिति चेत् ? न, आलोकेतरस्याऽजनादेव्यभिचारेण चाक्षुषाऽजनकत्वेन चक्षुरसंस्कारकत्वात् ।
* जयलवा
तादृशचाक्षुषस्य विजातीयत्वान्नायं दोष इति वक्तव्यम्, तस्य तथात्वे मानाभावात् 'पश्यामीत्यनुव्यवसायानुपपत्तेः गौरवाच । साम्प्रतं परी गत्यन्तरेण स्वाभाविकत्वं निरूपयति अथेति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । अञ्जनाद्यसंस्कृतचक्षुर्जन्यआलोककार्यतावच्छेदकधर्मघटकीभूतं स्वाभाविकत्वम् । स्थाद्वादी तन्निराकुरुते नेति । आदिपदार्थाननुगमेन अञ्जनपदोत्तरादिपदार्थेष्वनुगत धर्मविरहेण कार्यतावच्छेदकाननुगमात् = आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदकधर्मस्य तद्घटितस्याऽननुगमात्, नियतधर्मावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणताया आलोकसंयोगेऽसम्भवान्नैतादृशः कार्यकारणभावो घटामञ्चतीति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः । पर आह- आलोकेतरासंस्कृतचक्षुर्जन्यत्वं = आलोकेतरा सहकृतचक्षुर्जन्यत्वं तत् = आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदकधर्मघटकीभूतं स्वाभाविकत्वम् । आलोकेतरत्वेनाऽ अनादीनामनुगमात्र तदननुगमप्रयुक्तकार्यतावच्छेदकधर्माननुगमो न वा व्यतिरेकव्यभिचारावकाशः, अञ्जनादिसहकृतचक्षुषां चीरादीनां चाक्षुषे आलीकेतराऽ सहकृतचक्षुर्जन्यनरसमवेतचाक्षुषत्वलक्षणस्य कार्यतावच्छेदकस्य विरहादिति नैयायिकाशयः ।
त्वं तत्
11
-
=
नन्वालोकेतराऽसहकृतत्वं चक्षुषः किं स्वरूपविशेषणं यदुत व्यावर्तकविशेषणं १ इति विकल्पयुगलीस मवतीर्यते । तत्र नायः क्षोदक्षम:, तस्य कार्यतावच्छेदकधर्मघटकत्वायोगात् पर्धगौरवात् व्यतिरेकव्यभिचारस्य तदवस्थित्वाच्च । नापि द्वितीय: समीचीनः, आलोकेतरस्याऽअनादे: चाक्षुषं प्रति चक्षुः सहकारिकारणत्वविरहात्, अञ्जनादिकमृतेऽपि चाक्षुषस्य जायमानत्वेन व्यतिरेक्यभिचारादित्याशयेन स्याद्वादी तन्निराकुरुते नेति । व्यभिचारेण व्यतिरेकव्यभिचारेण चाक्षुषत्वावच्छिन्नाऽव्यवहितनियतपूर्ववर्तित्वाभावेनेति यावत् । चाक्षुषाऽजनकत्वेन चाक्षुषत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणत्वासम्भवेन, चक्षुरसंस्कारत्वात् = चक्षु: सहकारिकारणत्वायोगात् । घटं प्रति यथा दण्डस्य कुलालसहकारित्वं भवति तथा चाक्षुषं प्रति नाञ्जनाधर्म के घटकीभूत स्वाभाविकत्व के घटकविधया आलोकसहकारित्व = आलोककारणत्व आलोकनिष्ठ चाक्षुपसहकारिकारणत्व का ग्रहण करते हैं । यह कैसे संगत हो सकता है ? अभी तक स्वाभाविकत्व भी असिद्ध है और आलोकवृत्ति चाक्षुपसहकारिकारणता भी असिद्ध है । तब असिद्ध से असिद्ध की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? तथा आलोकसहकृतचक्षुजन्यत्व से अतिरिक्त अन्यस्वरूप भी स्वाभाविकत्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ का निरूपण करना नैयायिक मनीपी के लिए लोहे के चने चबाना जैसा मुश्किल है ।
=
अथा. इति । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि
“स्वाभाविकत्वपद का अर्थ है अंजनादि से असंस्कृत चक्षु से जन्यत्व | अञ्जनादि पदार्थ तो प्रसिद्ध है । अतः उसका स्वाभाविकत्व के घटकविधया निवेश हो सकता है। अंजनादि के सहकार से चौरादि को जो चाक्षुष साक्षात्कार, आलोकसंयोग के बिना होता है, वह अंजनादिसंस्कृतचक्षुजन्यनरचाक्षुप होने से अंजना संस्कृतचक्षुजन्यत्वविशिष्टनरचाक्षुषत्वस्वरूप आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदक धर्म से रहित होने से उसकी उत्पत्ति, बिना आलोकसंयोग के हो तो भी व्यतिरेक व्यभिचार दोष का अवकाश नहीं है, क्योंकि वह आलोकसंयोग का कार्य ही नहीं है" तो यह भी गलत है । इसका कारण यह है चक्षु में संस्कारविशेष का आधान केवल अंजन से ही नहीं होता है, किन्तु रसायन, गुटिका, मणि आदि से भी होता है । वे कितने हैं ? यह अनिश्चित है। अतः 'अञ्जनादि' पद में जो आदिशब्द है, उसका अर्थ अननुगत होने से उससे घटित आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदक धर्म भी अननुगत बन जायेगा । तब तो अनेक कार्य कारणभाव का स्वीकार आवश्यक बनने पर महागौरव होगा या तो व्यभिचार होगा । इसलिए आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म अंजनाग्रसंस्कृतचक्षुजन्यत्वविशिष्टनरवृत्तिचानुपसाक्षात्कारत्व नहीं हो सकता है । कार्यतावच्छेदक धर्म अनिश्रित होने पर उससे अवच्छिन्न = नियन्त्रित कार्यता भी अप्रसिद्ध बनेगी । जब कि तादृश कार्यता अप्रसिद्ध है, तब उससे निरूपित कारणता भी आलोकसंयोग में कैसे रहेगी, जिसके फलस्वरूप में आलोकसंयोग को कारण माना जा सके।
आलोकेतराऽसंस्कृतचक्षुजन्यत्व स्वाभाविकरूप नहीं है - स्यादादी
=
=
आलोकेत इति । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "आलोककार्यतावच्छेदकपटकीभूत स्वाभाविकत्व का अर्थ है आलोकेतर से असंस्कृत असहकृत चक्षु से जन्यत्व | अतः कार्यतावच्छेदक होगा आलोकेतराऽसहकृतचक्षु
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* आलोकसंयोगकारणताविचारः * | अअनाधभावाऽकालीनचाक्षुषं प्रत्यअनादीनां जनकत्वे चाऽऽलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्वमात्रस्य || कार्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् । एवमपि सिन्दं न: समीहितमिति चेत् ? त, तदपेक्षया लाधवेन ।
= = = = =* जयलता = == === | देश्वक्षु:सहकारित्वं, येन तद्न्यवच्छेदकृते आलोकेतराउसहकृतत्वं चक्षुषो व्यावर्तकविशेषणविधया उपादेयं स्यात् । ततो नालोकेतरा सहकृतचक्षुर्जन्यत्वलक्षणस्वाभाविकत्वविशिष्टनरसमवेतचाक्षुषत्वमालोकसंयोगस्य कार्यतावच्छेदकं भवितुमर्हतीति प्रकरणकृदाशयः ।
ननु तृणारणिमणिन्यायेना लोकसंयोगस्येवालाकेतरस्याऽञ्जनादेरपि स्वाऽव्यवहितोत्तरचाक्षषं प्रति पद्वा स्वाऽभावा| कालीनचाक्षुषं प्रति जनकवे व्यतिरेकव्यभिचाराध्योगात्, तस्य तं प्रति चक्षुःसहकारिकारणत्वसम्भवादालो केतरासहकृतत्वस्य
चक्षुर्व्यावर्तकविशेषणत्वं सम्भवत्येव । ततश्चालोकसंयोगस्यालोकेतराऽसहकुतचक्षुर्जन्यनरचाक्षुषकारणत्वे नास्ति बाधक किश्चि| दित्यालोकेतरासहकृतनयनजन्यनरचाक्षुषत्वस्यैवालोकसं योगनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वमभ्युपेयमिति नैयापिका| शङ्कायां रयाद्वादी प्राह - अञ्जनायभावाऽकालीनचाक्षुषं प्रतीति । अञ्जनाद्यभावकालीननाक्षुषेतरचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रतीति । अञ्जनादीनामिति आदिशब्देन रसायनचूर्णलेपोषध्यादिग्रहणम् । जनकत्वे च = त्वया जनकत्वेऽभ्युपगम्यमाने तु, तदपेक्षया
काभावाऽकालीनचाक्षुषत्वमात्रस्येति । मात्रपदेन आलोकेतराउसहकतचक्षर्जन्यनरचानषत्वस्य व्यवच्छेदःकृतः, तदपेक्षया गुरुत्वात् । कार्यतावच्छेदकत्वौचित्यादिति । आलोकसंयोगनिष्ठकारणतानिरूपिताया कार्यताया अवच्छेदकत्वस्य युक्तत्वात्, अञ्जनादेरञ्जनाद्यभावाऽकालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्न प्रति कारणत्वमालोकसंयोगस्य चालोकेतराऽसहकृतचक्षुर्जन्यनरचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वमिति द्विविधकार्य-कारणभावकल्पनापेक्षया आलोकसंयोगस्याऽऽलोकाभाबाकालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव कारणत्वकल्पनेऽतिलाघवादिति । पेचकादीनां तादृशचौराणाञ्च बहलतमे तमसि जायमानस्य घटादिचाक्षुषस्या लोकाभावसमकालीनत्वेनाऊलोकसंयोगकार्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वान्नैव व्यभिचारगन्धलेयोऽपीति स्यावादिनोऽभिप्रायः ।।
पर: लब्धावसर; साम्प्रतमिष्टापत्तित्वेन दर्शितफल-फलवद्भावमभ्युपैति - 'एवमपीति । आलोकाऽभावाकालीनचाक्षुषत्वस्यैवाऽलोकसंयोगजन्यतावच्छेदकत्वाइन्युपगमे पाति । सिद्धं नः = अस्माकं नैयायिकानां समीहितम्, आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषकारणीभूतसंयोगाश्रयत्वेनाइलोकस्य द्रव्यत्वसिद्ध्या तमसो लाघवेन तदभावात्मकत्वोपपत्तेरिति नैयायिकाभिप्राय: । निर्भाग्यशेखरमनोरथवदयमधुना विशरारुतामाकलयीत्याशयेन स्याद्वाद्याह - नेति । आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषवस्य तत्कार्यतावच्छेदकत्वं न यक्तमित्यर्थः । तदपाकरणे हेतमाह - तदपेक्षयेति । आलोकाभावकालीनेतरकालिकचाक्षुषत्व
2.DD
जन्यनरचाक्षुपरसाक्षात्कारत्व । यहाँ आलोकेतरपद से अंजन, रसायन आदि सब का ग्रहण हो सकता है। आलोकेतरत्व धर्म उन सब में अनुगत होने से कार्यतावच्छेदक धर्म अननुगत होने का दोप अभी असंभव है। आलोकेतर से असहकृत यानी आलोकेतर अंजनादि जिसका सहकारी कारण नहीं है ऐसी चक्षु से जो नरवृत्तिचाक्षुष साक्षात्कार होता है, उसके प्रति तो आलोकसंयोग, अवश्य कारण होने से अंजनसंस्कृतचक्षुवाले चौर आदि के चाक्षुप में व्यतिरेक व्यभिचार का भी उद्दावन नामुमकिन है, क्योंकि आलोकसंयोग के बिना उत्पन्न होने वाले उस चाक्षुप में उक्त कार्यतावच्छेदक धर्म नहीं है। इसलिए आलोकेतरासहकृत्तचक्षुजन्यत्व को स्वाभाविकत्वपद का अर्थ माना जा सकता है" - तो यह भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि चक्षु का कभी भी आलोकेतर (अंजनादि) सहकारी हो तब उसका व्यवच्छेद करने के लिए आलोकेतर से असहकृतत्व को चक्षु का विशेषण बनाना उचित है । मगर चाक्षुप साक्षात्कार के लिए आलोकेतर अंजनादि चक्षु का सहकारी कारण ही नहीं है, क्योंकि जब जब चाक्षुष साक्षात्कार होता है, उसके अव्यवहित पूर्व क्षण में अवश्य सर्वत्र आलोकेतर अंजनादि हो - ऐसा नहीं है। आलोकेतर अंजनादि के बिना भी बहुत से चाक्षुप उत्पन्न होते हैं। इसलिए वे चाक्षुष के व्यभिचारी हैं। अतः जैसे 'दण्ड घटोत्पत्ति के लिए कुम्हार का सहकारी कारण है" - यह कहा जाता है वैसे 'आलोकेतर अंजनादि चाक्षुषोदय के लिए चक्षु का सहकारी कारण है' . यह नहीं कहा जा सकता । इसलिए आलोकेतराऽसहकृतत्व चक्षु का व्यावर्तक विशेषण नहीं बन सकता । जो व्यावर्तक न हो उसका स्वरूपविशेषणविधया कार्यतावच्छेदकधर्मकोटि में निवेश करने में गौरव है। तथा तादृश प्रवेश करने पर भी व्यतिरेक व्यभिचार तो ज्यों का त्यों ही बना रहता है, क्योंकि स्वरूपविशेषण तो चक्षु में सदा होता ही है ।
SE कार्यतावरलेदकधर्मलाधव से. अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि - स्याद्वादी 3
अंजना. इति । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "अंजनादि भले सब चाक्षुष का सहकारी कारण . न हो, मगर अंजनादि का अभाव होने पर न होने वाले बाक्षुप साक्षात्कार के प्रति तो वह चक्षु का सहकारी हो सकता | है। इसलिए अंजनादि को अंजनाद्यभावाऽकालीन चाक्षुप के प्रति कारण माना जा सकता है । अत: अंजनादि भी अंजनादि
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३४३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * विजातीयाऽऽलोककल्पना तम:संयुक्ताऽन्यचाक्षुषत्वस्यैव तत्वौचित्येन तमसो द्रव्यत्वसिन्देः । केचितु - फलबलात्तत्राऽलोकविशेष: कल्यते ।
=-... =- जयलता * पर्यवसितस्य आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्वस्य अपेक्षया, लाघवेन = कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरलाघवेन, तमःसंयुक्ताऽन्यचाक्षुषत्वस्यैव तत्त्वौचित्येन = आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदकत्वौचित्येन, तमसो द्रव्यत्वसिद्धेरिति । आलोकाभावाकालीनचानुषत्वस्या भावयगर्भितत्वेनैकाभावघटितस्य तम:संयुक्तान्यचाक्षुषत्वस्य तदपेक्षया लघुत्वात् कार्यतावच्छेदकत्वमुचितम् । ततश्वालोकसंयोगकार्यतावच्छेदकयटकीभूतसंयोगाऽ श्रयत्वनान्धकारस्य द्रव्यत्वसिद्धिः तम:संयुक्तान्यचाक्षुषकारणताश्रयत्वेन चालोकस्य द्रव्य - त्वसिद्धिः । तेन नान्धकारस्या लोकाभावात्मकल्यं न वाऽपसिद्धान्त इति स्याद्वादिनो गूढाभिप्रायः ।।
एकदेशिमतं दर्शयतिकेचित्त्विति । 'न्याकोपापलेरिती'त्यन्तमयं पूर्वपक्षः । फलबलात् -- चाक्षुषसाक्षात्कारलक्षण| फलोदयाऽन्यथाऽनुपपत्त्या, तत्र = पेचकादिचाक्षुषस्थले, आलोकविशेषः = महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाऽपेक्षया विजातीय | आलोक:, कल्प्यते = अनुमीयते । प्रयोगाश्चैवम् - कौशिकादिचाक्षुषमालोकजन्यं चाक्षुषत्वात् महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाs
भावाऽकालीनचाक्षुषवत् । पक्षतावच्छेद-कञ्च कौशिकादिचाक्षुषत्वम्, तेन न हेतुपक्षतावच्छेदकारेक्यम् । गाढतम:स्थपेचकादि
के अभाव के काल से इतर काल = अंजनादिकाल में होने वाले चाक्षुष के प्रति चक्षु का सहकारी हो सकता है । अंधेरी रात में यदि चौर आदि की आंख का सहकारी अंजनादि हो तभी उन्हें, आलोकसंयोग के बिना, गाढ अन्धकार में स्थित घटादि का चाक्षुप हो सकता है । अतः आलोकसंयोग को आलोकेतराऽसहकृतचक्षुजन्य नरसमवेत चाक्षुप साक्षात्कार के प्रति कारण माना जा सकता है" - तो यह नैयायिकोक्ति समीचीन नहीं है। इसका कारण यह है कि अंजनादि को अंजनायभावाऽसमकालीन चाक्षुष का कारण मानना और आलोकेतराऽसहकृतचक्षुजन्य नरवृत्ति चाक्षुष के प्रति आलोकसंयोग को कारण मानना आवश्यक बन जाने से विविध कार्य-कारणभाव का स्वीकार करना पड़ता है, जो गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है । इसकी अपेक्षा अच्छा तो यह है कि आलोकसंयोग को आलोकाऽभावाकालीन चाक्षुष के प्रति ही कारण माना जाय । ऐसा मानने पर कार्यतावच्छेदक धर्म आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुपत्त ही होगा । इस तरह कार्य-कारणभाव में भी लाघव होता है। उल्ल, बिल्ली, अंजनादिसंस्कृतचक्षु वाले चौर आदि का जो चाक्षुष साक्षात्कार है, वह आलोकाभावकालीन होने से आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदक धर्म से शुन्य है। इसलिए व्यतिरेक व्यभिचार को भी अवकाश नहीं रहता है। अतः यही मानना उचित है - यह हम स्याद्वादियों का अभिप्राय है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → "आप स्याद्वादी को यदि ! यह उचित है, तो हम भी इस कार्यकारणभाव का सहर्ष स्वीकार करते हैं, क्योंकि इस तरह भी आलोकसंयोग में कारणता । सिद्ध होने से आलोकसंयोग के आश्रय में द्रव्यत्व की सिद्धि होने से हमारा इष्ट फल सिद्ध हो जायेगा कि - 'आलोक द्रव्यात्मक है और अन्धकार आलोकाऽभावस्वरूप है । अतः तादृश कार्य-कारणभाव को हम मान्य करते हैं" <- तो यह नैयायिक कथन असंगत है । इसका कारण यह है कि आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्व को आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म मानने की अपेक्षा तमःसंयुक्ताऽन्यचाक्षुषत्व को ही उसका कार्यतावच्छेदक मानने में लाघव है, क्योंकि आलोकाभावाकालीनचाक्षुषत्व का अर्थ है आलोकाभावकालीनत्वाभाववच्चाक्षुषत्व जिसमें दो अभाव का प्रवेश होता है जब कि तम:संयुक्तान्यचाक्षुपत्व में एक ही अभाव का निवेश होता है । लयुभूत धर्म संभव हो तो गुरु धर्म में अवच्छेदकत्व नहीं माना जा सकता । इसलिए लाघवसहकार से आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म तमःसंयुक्तान्यचाक्षुपत्व सिद्ध होता है । कार्यतावच्छेदक धर्म में तमःसंयोग का घटकविधया समावेश किया गया है। उसका आश्रय होने से अन्धकार में व्यत्व की सिद्धि निरागाध होने से अन्धकार को आलोकाभावात्मक नहीं माना जा सकता। इस तरह कारण का आश्रय होने से आलोक भी द्रव्यात्मक है एवं कार्यताअवच्छेदकघटकीभूत संयोग का आश्रय होने की वजह अन्धकार भी द्रव्यस्वरूप ही है - यह सिद्ध होता है, ऐसा स्याद्वादी का तात्पर्य है ।
Mउलू आदि का चाक्षुष आलोकविशेषगन्य - नैयायिकदेशीमत ।
:- केचिः इति । यहाँ अन्य नैयायिक विद्वानों का यह अभिप्राय है कि उह, चिल्ली आदि का चाक्षुष तभी उत्पन्न हो सकता है, यदि वहाँ कोई न कोई आलोक विद्यमान हो । अतः उल्लू आदि के बाक्षुप साक्षात्कार स्वरूप फल की । अन्यथा अनुपपत्ति से वहाँ आलोक की सिद्धि होती है। मगर गाद अन्धकार में रहने वाले उस आलोक का चाक्षुप प्रत्यक्ष
नहीं होता है । इसलिए वह आलोक हमारी चक्षु से अग्राह्य है - ऐसा सिद्ध होता है । इस तरह अन्धकार में भी उत्पन्न
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* व्यभिचारज्ञानस्य कारणतानिश्चयप्रतिबन्धकताविचारः व्यभिचारबहे सत्यालोकस्य कारणताग्रहस्यैवाऽनुपपत्तेः कथमेवमिति चेत् ? न, तदवच्छेदेन व्यभिचारग्रहस्यैव तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहप्रतिबन्धकत्वात् । अत्र चाऽऽलोकत्वसामानाधिकरण्येनेव तदग्रहात् तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहस्य निरपायत्वात, अन्यथा
=* जयावा *-----= चक्ष: आलोकसंयक्तं चाक्षषजनकबहिरिन्द्रियत्वात सम्प्रतिपन्नवत । जनकत्वञ्चायोपधायकत्वस्वरूपं ग्राह्य, तेन न व्यभिचार: । गाढतम:संयुक्तद्रव्यं आलोकसंयुक्तं, द्रव्यत्वे सति चाक्षुषविषयत्वात् सम्प्रतिपन्नवत् । पेचकादिचाक्षुषजनकालोकः विजातीय- ! | त्वादस्मदादिभिर्न गृह्यत इति न बाधः न वा गौरवम्, फलाभिमुखत्वादिति नैयायिकैकदेशीयाऽभिप्रायः ।
मूलीथिल्यमत्र कश्चिन्छड़कते . व्यभिचारग्रहे = व्यतिरेकव्यभिचारग्रहे, सति आलोकस्य कारणताग्रहस्य = चाक्षुषकारणत्यज्ञानस्य एव अनुपपनेः = अघटमानत्वात्, कथं एवं = धूकादिचाक्षुषस्य विजातीयालोकजन्यत्वकल्पनं घटामश्चेत् ? आलोकस्य चाक्षुषकारणत्वनिश्चयपूर्वमेव कौशिकादिचाक्षुषे ब्यतिरेकव्यभिचारज्ञानान्नालोके चाक्षुषकारणतानिश्चय: सम्भवति, व्यभिचारग्रहस्य कारणत्वनिश्चयप्रतिबन्धकत्वादिति न तत्र विजातीयालोकसिद्भिरिति झाड़काशयः । विजातीयालोकवादिन: तामपाकुर्वन्ति-नेति । तदवच्छेदेनेति । व्यवहितैवकारस्याऽवाऽन्वयात् कारणतावच्छेदकावच्छेदेनैवेत्यर्थः । व्यभिचारग्रहस्य = अन्वयव्यतिरेकन्यभिचारज्ञानस्य, तत्सामानाधिकरण्येन = कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन, कारणताग्रप्रतिबन्धकत्वात् = कारणतानिश्चयविघटकत्वादिति । यथा पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन हेत्वसिद्भिग्रहः पक्षतावच्छेदकावदेन 'पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन च साध्यसिद्धिप्रतिबन्धकः, पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन हेत्वसिद्धिग्रहस्तु पक्षतावच्छेदकावच्छेदेनैव साध्यसिद्धिप्रतिबन्धको न तु पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन साध्यनिश्चयं प्रति तथैव कारणतावच्छेदकावच्छेदेन व्यभिचारज्ञानं कारणतावच्छेदकावच्छेदेन कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन च कारणताग्रहप्रतिबन्धकं कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन त्र्यभिचारग्रहस्तु कारणतावच्छेदकावच्छेदेनैव कारणताग्रहं प्रति प्रतिरन्धको न तु कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन कारणताग्रह प्रति । पेचकादिचाक्षुष तु मदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकबिरहे जायते न त्वालोकसामान्यविरहे । अता व्यतिरेकव्यभिचारग्रहः प्रकृते आलोकत्वसामानाधिकरण्येनैव न तु तदवच्छेदेनेति तस्यालोकत्यावच्छेदेनैव चाक्षुषकारणताग्रहप्रतिबन्धकत्वं न त्वालो कत्लसामानाधिकरण्येनेत्याशयेन वदन्ति - अत्र चेति । पेचकादिचाक्षुषस्थले त्विति । आलोकत्वसामानाधिकरण्येनैवेति । एयकारेगा'लोकत्वावच्छेदने' त्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । तद्ग्रहात् = अन्चय-व्यतिरेकव्यभिचारग्रहातू, तत्सामानाधिकरण्येन - आलोकत्वसामानाधिकरण्येन, कारणताग्रहस्य = चाक्षुषकारणताज्ञानस्य, निरपायत्वात् = अप्रतिबध्यत्वात् । पत्किञ्चिदा
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होने वाले उस आदि के चाक्षुषात्मक फल के बल से वहाँ आलोकचिशेप की सिद्धि होती है। यहाँ यह शंका हो कि -> "यदि आलोक में चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति कारणता का ज्ञान हो तभी तो उल्स् चाक्षुषोदय से उसके कारणविधया अन्धकार में आलोकविशेष की सिद्धि हो सकती है। मगर आलोक में चाक्षुपकारणता का निश्चय ही नहीं हो सकता, क्योंकि आलोक में चाक्षुपकारणता के निश्चय के पूर्व काल में ही व्यभिचार का ज्ञान रहता है, जो कि कारणतानिश्चय का प्रतिबन्धक है । उहू, बिल्ली आदि के चाक्षुप की अन्धकार में उत्पत्ति होने से आलोक में चाक्षुपकार्य के प्रति व्यतिरेक व्यभिचार का ग्रह पूर्वोपस्थिन होने से आलोक में चाक्षुषकारणता का निश्चय ही नहीं हो सकता । इस स्थिति में उल्लूचाक्षुपात्मक फल की अन्यथा अनुपपत्ति से वहाँ आलोकविशेप की सिद्धि कैसे हो सकती है ?" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि यहाँ जो व्यतिरेक व्यभिचार प्रदर्शित किया गया है, वह आलोकत्वसामानाधिकरण्यरूप से बताया गया है, न कि आलोकत्वाऽवच्छेदेन । मतलब कि उल्लूचाक्षुषस्थल में सभी आलोक का अभाव नहीं है किन्तु आलोकविशेष = महद्भतानभिभूतरूपवदालोक का अभाव है। यत्किञ्चित् आलोक का अभाव होने से उस आलोक में भले चाक्षुपकारणता का व्यभिचार हो, मगर उस आलोक से भिन्न आलोक में तो चाक्षुषकारणता का भान हो सकता ही है। कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से व्यभिचार ज्ञान कारणतावच्छेदकावच्छेदेन कारणताज्ञान का प्रतिबन्धक = विरोधी होना है, न कि कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से कारणताज्ञान का भी। कारणतानच्छेदकसामानाधिकरण्य से कारणताग्रह का प्रतिबंध तभी हो सकता है, यदि कारणतावच्छेदकावच्छेदेन व्यभिचारज़ान हो । प्रस्तुत में तो कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से = आलोकत्वसामानाधिकरण्य से यानी यत्किञ्चित् आलोक में व्यभिचार - का ज्ञान है, क्योंकि उल्लूचाक्षुष आलोकत्वावच्छिन्न = यावत् आलोक के अभाव में उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु यत्किञ्चित् । आलोक = महदुद्भूतानभिभूतरूपवाले आलोक का अभाव होने पर उत्पन्न होता है। इस स्थिति में आलोकत्वावदेन = सभी आलोक में चाक्षुषकारणता का निश्चय नहीं हो सकता है, किन्तु आलोकत्वसामानाधिकरण्येन = आलोकविशेष में दो चाक्षुषकारणता
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३४५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ मिजसकधर्मेण कारता गगमः
क्वचितप्रथममतिप्रसक्तेनाऽपि धर्मेण कारणताग्रहोत्तरं पश्चादलगतावच्छेदकधर्मकल्पनासिन्दान्तव्याकोपायत्तेरिति । ता, तदाऽऽलोकेनाऽन्येषामपि चाक्षुषायत्ते१रित्वात् । पेचका
-- = =* जयलता * लोकेऽन्वयव्यतिरेकव्यभिचारग्रहस्य तदितरालोके चाक्षुषकारणताग्रहविरोधित्त्वं नास्ति विशेष्यतावच्छेदकभेदेनाइसमानाकारकत्वात् । ततश्चालोकत्वसामानाधिकरण्येन चाक्षुषकारणत्वग्रहः सम्भवत्येव । - बिपक्षबाधमुपदर्शयन्ति - अन्यथेति । कारणताबच्छेदकसामानाधिकरण्येन व्यभिचारग्रहस्य कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन कारणत्वग्रहाऽप्रतिबन्धकत्वानभ्युपगमे इति । स्वचित् = शीतस्पादिकारणतास्थले, प्रथमं अतिप्रसस्ते = जलल्वादिधर्मेण, अपि कारणताग्रहोत्तरं = शीतस्पर्शादिजनकताज्ञानोत्तरं, पश्चात् जलादिपरमाणोः शीतस्पर्शाद्यकारणत्वेन व्यभिचारग्रहे सति, अनुगतावच्छेदकधर्मकल्पनासिद्धान्तन्याकोपापत्तेः = शीतस्पशांदिकारणत्वान्यूनानतिरिक्तानुगतजन्यजलत्यादिलक्षणाऽवच्छेदकधर्मकल्पनासिद्धान्तभड्गप्रसङ्गात् । तथाहि शीतस्पर्शत्वावच्छिन्नं प्रति जलस्य हेतुत्वज्ञाने शीतस्पर्शत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपित - कारणता जलत्वावनिछन्नेति सामान्यतो कारणताजानमपजायते । गरं 'जळीयपणो. सीना ग नित
यतो कारणताज्ञानमुपजायते । परं 'जलीयपरमाणोः शीतस्पर्शस्य नित्यत्वेन जलत्वं कारणतातिरिक्तवृत्ति' इति व्यभिचारज्ञाने सातेऽनतिप्रसक्तजन्यजलत्वस्य हतिस्पर्शकारणतावच्छेदकत्वं कल्यते इति न्यायविदः । यदि कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन व्यभिचारज्ञानं तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहप्रतिबन्धकं स्यात्तदोक्तरीत्या जलत्वसामानाधिकरण्येन शीतस्पर्शकारणत्वग्रहो नैव स्यात् । न चैवमस्तीति तत्सामानाधिकरण्येन व्यभिचारज्ञानस्य न तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहविरोधित्वमभ्युपेयम् । ततश्चालोकत्वसामानाधिकरण्येन चाक्षषकारणताज्यभिचारज्ञानस्य तत्सामानाधिकरण्येन तत्कारणताग्रहाःप्रतिबन्धकत्वेनोपदर्शितरीत्या पेचकादिचाक्षुषस्थले आलोकविशेषसिद्भिरप्रत्यूहेति केचित्तुमताशयः |
प्रकरणकृत्तन्निराकुरुते - तन्नेति । तदालोकेन = पेचकादिनयनसंसृष्टालोकविशेषेण, अन्येषां - पेचकादिभिन्नानां अपि । तदानीं चाक्षुपापत्ते: दुरित्वान्, कारणतावच्छेदकावच्छिन्नोपस्थिती तदितरसकलकारणसमवधाने कार्योत्पादस्य न्याय्यत्वात् ।।
का निश्चय हो सकता है। इसलिए आलोक में सामानाधिकरण्य से चाक्षुषकारणताज्ञान का सामानाधिकरण्य से व्यभिचारज्ञान प्रतिबन्धक = विरोधी नहीं हो सकता। इसलिए सामानाधिकरण्य से आलोक में चाक्षुष-कारणता का ज्ञान हो सकता है। यदि कारणतारच्छेदकसामानाधिकरण्य से यानी यत्किंचित् कारण में व्यभिचारज्ञान को कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से भी कारणताज्ञान का प्रतिबन्धक माना जाय तब तो कभी कभी अतिप्रसक्त = कारणताऽतिरिक्तवृत्ति धर्म से सामान्यतः कारणताज्ञान के बाद अनुगत = कारणताउनतिरिक्तवृत्ति धर्म में कारणतावच्छेदकत्व का एवं उससे अवच्छिन = नियन्त्रित कारणता का ज्ञान करने का जो नैयायिकसिद्धान्त है, उसका भंग होने की आपत्ति आयेगी। आशय यह है कि 'शीतस्पर्श के प्रति जल कारण है' यानी 'शीतस्पर्शत्वावचिन कार्यता से निरूपित कारणता का अवच्छेदक जलत्व है और तादृश कारणता जलत्वाचनिन्न है ऐसा सामान्यतः कार्यकारणभाव का ज्ञान होने के पश्रात् कारणतातिरिक्तवृत्ति होने से जलत्व का त्याग किया जाता है
और जन्यजलव का शीतस्पर्शकारणतावच्छेदकथभविधया ग्रहण किया जाता है । जलव तो जलीय परमाणु में भी रहता है मगर जलपरमाणु का शीतस्पर्श नित्य होने से जलीय परमाणु में शीत स्पर्श की कारणता नहीं रहती है और जलत्व जाति रहती है 1 जलत्व धर्म शीतस्पर्शकारणता से शून्य जलपरमाणु में रहने से वह शीतस्पर्शकारणताऽतिरिक्तवृत्ति होने से वह कारणताबच्छेदक धर्म नहीं बन सकता । यह व्यभिचारज्ञान जलत्वावच्छेदेन शीतस्पर्श-कारणताज्ञान का विरोधी होता है, मगर जलत्वसामानाधिकरण्येन शीतस्पर्शकारणताज्ञान का विरोधी नहीं है। अतएव बाद में शीतस्पर्शकारणताइनतिरिक्तवृत्ति जन्यजलत्व यानी अनिन्य जल से निरूपित वृत्तिता से विशिष्ट जलत्व को शीतस्पर्शकारणतावच्छेदक बनाया जाता है । कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से व्यभिचारज्ञान यदि करणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से कारणताज्ञान का प्रतिबन्धक होना तब जलत्वसामानाधिकरण्येन : जलीयपरमाणु में, शीतस्पर्शजनकता का व्यभिचारज्ञान होने से जलत्वसामानाधिकरण्येन = जन्यजल. में शीतस्पर्शकारणताज्ञान कैसे हो सकता ? मगर जन्यजलत्व को शीतस्पर्शकारणतावच्छेदक तो सभी नैयायिक विद्वान मानते ही हैं। इसलिए आलोकत्वसामानाधिकरण्य से व्यभिचारज्ञान भी आलोकत्वसामानाधिकरण्य से चाक्षुपकारणताज्ञान का प्रतिबन्धक = विरोधी नहीं हो सकता है। इसलिए आलोक में चाक्षुपकारणता का ज्ञान हो सकता है। जिस आलोक में व्यभिचारज्ञान हुआ है उससे भिन्न आलोक में उल्लू आदि के चाक्षुष की कारणता सिद्ध होने से महुदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोक से इतर आलोक की सिद्धि होती है ।
2 उलूचाक्षुष में विजातीय आलोक की कrendl अप्रमाण - रयाद्धादी म उत्तरपक्ष :- तन्नः इति । उल्लू आदि के चाक्षुष के प्रति विजातीय आलोक को कारण मानने में कोई प्रमाण नहीं |
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* शशधरमतसमालोचना* || दिनयनगोलकसंसृष्टाऽऽलोकस्य पेचकादिमात्रचाक्षुषं प्रति नानाकारणताकल्पने च महद- । गौरवादिति दिक् ।
उसहस्वास्तु → स्यालोककालीनचाक्षुषजनकविजातीयचक्षुर्मनोयोगाऽभावादेव तमसि न घटादिचाक्षुषोदय इति न तत्राऽऽलोकस्य कारणता ।
== =* जयलता *= = ==== न च तदालोकस्य पेचकादिचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वान्नान्येषां तदानीं चाक्षुषापादनमर्हति, अन्यचाक्षुषत्यावच्छिन्नं प्रति महदुन्द्तानभिभूतरूपयदालोकस्य कारणत्वादिति वाच्यम्, नानाकार्यकारणभावकल्पनाया गुरुत्वेनाप्रामाणिकत्वादित्याशयेनाऽऽहपेचकादिनयनगोलकसंसृष्टालोकस्य = आलोकविशेषस्य, पेचकादिमात्रचाक्षुषं प्रति = पेचकादिभिन्नचाक्षुषेतरत्वे सति पेचकादिचाक्षुषत्वावच्छिन्ने प्रति, कारणत्वं पेचकादिभिन्नचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति च महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकस्य कारणत्वमित्येवं नानाकारणताकल्पने महगौरवादिति । किञ्च पेचकादिचाक्षुषं प्रति महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया आवश्यकत्वेन तदभावेनैव पेचकादिचाक्षुषोपपत्ती विजातीयालोककल्पनाया अनुत्थानपराहतत्वात्, सौरालोकेन विजातीयालोका:भिभवकल्पनायां त्वप्रामाणिकगौरवात् । एतेन पेचकादीनां बाह्यालोकनिरपेक्षं चक्षुहिकमित्यसिद्धमेव । तत्र तेजाउन्तरस्य विद्यामानत्वात् । अत एव ते दिया न पश्यन्ति, स; सौरालोकनामिनूतलात, तेषां तत्सहकृतचक्षुाहित्वनियमात्' (न्या. सि.दी. पृ.९१) इति न्यायसिद्धान्तदीपकृतः शशधरशर्मणो वचनं प्रत्युक्तम्, अनभिभूततेजोऽन्तरस्य पेचकाद्यन्यचाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पने पेचकादिचाक्षुषं प्रति कारणत्वकल्पने चाऽदिपदार्थांननुगमेन तद्घटितप्रतिबन्ध्यतावच्छेदककार्यतावच्छेदकधर्माननुगमाचेत्यादिसूचना) दिगित्युक्तमिति विभावनीयं सुधीभिः ।
उच्छृङ्खलास्त्विति । अस्य चाऽऽहुरि त्यनेनाऽन्वयः । आलोककालीनचाक्षुषजनकविजातीयचक्षुर्मनोयोगाऽभावादेवेति । आलोकसमकालीनं यच्चानुषं तस्य जनको यो विजातीयः चक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगः तस्याऽभावादेवेत्यर्थः । स्पार्शनादिजनकस्य चक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगस्याऽपाकरणाय 'विजातीये' त्युक्तम् । तमसि न घटादिचाक्षुषोदयः इति न तत्र = आलोककालिकचाक्षुषे आलोकस्य कारणतेति । आलोककालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं विजातीयचक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगस्यैव न लालोकस्य । न च वैपरीत्यमंच किमिति न रोचयेरिति वाच्यम, आलोकस्य कारणत्वकल्पनेऽपि विजातीयचक्षुर्मन: संयोगस्याध्ययकल्पनीयत्वात्, आलोकस्य तत्संपादन एवोपक्षीणत्वेनाऽन्यधासिद्भत्वाच्च । एतेन दिवा जायमानं
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है, यह स्याद्वादी का कथन है। इसका कारण यह है कि गाट अन्धकार में आलोकविशेष से जैसे उल्लू, बिल्ली आदि को घटादिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार होता है, ठीक उसी तरह उसी आलोक से हमें भी अन्धकार में बिना अंजनादिसंस्कार के घटादिविषयक चाक्षुप प्रत्यक्ष होना चाहिए - यह आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी है। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता है कि -> "उल्लू आदि के नयनगोलक से संयुक्त आलोकविशेष उल्लू आदि के चाक्षुप प्रत्यक्ष के प्रति ही कारण है, न कि मनुष्यवृत्ति चाक्षुष के प्रति । इसलिए उल्लू आदि के चाक्षुष के जनक आलोकविशेष से हमें अन्धकार में घटादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं हो सकता"-। यह नैयायिककधन इसलिए अयुक्त है कि उलू आदि के चाक्षुष के प्रति विजातीय आलोक को कारण और महद्भतानभिभूतरूपवदालोक को प्रतिबन्धक मानना एवं नरवृत्ति चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति महदद्भुतानभिभूतरूपबदालोक को कारण और अनभिभूत विजातीय आलोक को प्रतिबन्धक मानना इत्यादि कल्पना करने में अनेक कार्यकारणभाव के स्वीकार का महागौरव होता है, जो कि अप्रामाणिक होने से मान्य नहीं किया जा सकता। इसलिए पुन: उल्लचाक्षुपजनक आलोकविशेप से अन्धकार में हमें घटादिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार होने की आपत्ति ज्यों कि त्यों बनी रहती है। अतएव चिजातीय आलोक में उल्लू आदि के चाक्षुष की कारणता मान्य नहीं हो सकती । अत: आलोक में चाक्षुषकारणता का व्यभिचार बज्रलेप बना रहता है।
* विजातीयचक्षुमनोयोग चाक्षुषजनक - उछृखलमत * जन्मृ. इति । यहाँ अन्य स्वतन्त्र विद्वानों का यह कथन है कि चाक्षुष साक्षात्कार के दो प्रकार होते हैं (१) आलोककालीन = आलोककाल में उत्पन्न होने वाला एवं (२) आलोकाऽकालीन = आलोककाल से भिन्न काल में होने वाला । आलोककालीन चाक्षुप का कारण विजातीय चक्षुमनःसंयोग है। जब अन्धकार होता है तब आलोककालीनचाक्षुषजनक विजातीय चक्षुमनसंयोग नहीं होता है। इसलिए अन्धकार में हमें घटादि का चाक्षुष साक्षात्कार नहीं होता है। अन्धकार में चाक्षुप की अनुत्पत्ति का
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३४७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * आहःपदप्रयोजनप्रकाशनम् *
न च तथापि तमसि घटादीनामालोलाऽकालीलचानपारात्तिः; पेचकादीनामिष्टत्वात् । न चाऽ- ] समदादिधटचक्षुःसंयोगादपि तदापत्ति:; आलोकाभावकालीनचाक्षुषं प्रति अपि विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य पृथक्कारणत्वादित्याहुः - ।
-=-=* जयला * =चाक्षुषं प्रत्यालोकस्य कारणत्वं विजातीयचक्षु:मन:संयोगस्य बा ? इत्यत्र विनिगमकाभाव इति प्रत्युक्तम्, कारणतावच्छेदकसम्बन्धगौरवाच । अत एव पेचकादिचाक्षुष आलोकन्यभिचारप्रदर्शनेऽपि न क्षतिः, आलोककारणत्वाऽनभ्युपगमेनानुक्तोपालम्भसमत्वात् ।
ननु भा भवतु तमसि घटादीनामालोककालीनचाक्षुषं परं तद समकालीनचाक्षुषे किं नाम बाधकं तदानी ! त्वया आलोककारणत्याऽनभ्युपगमेन तदभावादाऽऽलोकाऽकालीनघटादिचाक्षुषनिराकरणस्य कर्तुमास्यत्वादित्याशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमन्ते - न चेति । तथापि = आलोककालीनचाक्षुषत्वस्य चक्षुर्मनोविजातीयसंयोगकार्यतावच्छेदकत्वाऽभ्युपगमेऽपि, तमसि घटादीनां आलोकाऽकालीनचाक्षुपापत्तिः, आलोककालीनचाक्षुषजनकचक्षुःप्रतियोगिकमनोविजातीयसंयोगाऽभावेनाऽऽलोकाऽकालीनचाक्षुषनिराकरणाच्योगादिति शङ्काशयः । तदापाकरणे हेतुमुपदर्शयन्ति - पेचकादीनामिष्टत्वादिति । तमसि पेचकादीमालोका:कालीनस्य घटादिचाक्षुषस्य जायमानत्वेनेष्टापत्तेः । तहि पेचकादीनामिवाऽस्मदादीनामपि तमसि आलोकाउकालीनचाक्षुषोत्पत्तिदुरिति शङ्का पाकरणाय वदन्ति - न चेति । अस्मदादिघटचक्षुःसंयोगादपि तदापत्तिः = आलोकाऽकालीनचाक्षुषापत्तिः । तन्निरासे हेतुमाविष्कुर्वन्तेि - आलोकाभावकालीनचाक्षुषं प्रत्यपीति । किमुताऽलोककालीनचाक्षुषं प्रतीत्यपिशब्दार्थः । विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य = चक्षुःप्रतियोगिकमनोविजातीयसंयोगस्य, पृथक्कारणत्वात् = स्वतन्त्रकारणत्यत् । आलोकाऽकालीनचाक्षुषजनकतावच्छेदिका या जाति:पेचकादिचक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगे एव वर्तते तद्भिन्ना जातिरालोककालीनचाक्षुषजनकतावच्छेदिका याजस्मदादिचक्षुर्मन:संयोगे एवं विद्यते । अस्मदादिचक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगे आलोकाऽकालीनचाक्षुषजनकतावच्छेदकजातिविरहादेवास्मदादीनामाऽऽलोकाऽकालीनचाक्षुषस्य घटादिगोचरस्य तदानीं प्रसङ्गो नास्ति । एतेनाऽऽलोको यदि चाक्षुषकारणं न स्यात्तदा तद्विरहेऽप्यस्मदादीनां घटादिचाक्षुषं जायेतेति प्रत्युक्तम्, अस्मदादीनामालोकाऽकालीन| चाक्षुषकारणतावच्छेदकावच्छिन्नशून्यत्वात् । इत्थश्च न तमसो द्रव्यत्वसिद्धिरिति भावः ।।
आहुरित्यनेन प्रकरणकृता स्वकीयाऽस्वरसोद्भावनं कृतम् । तद्बीजश्चेदम्, एवं हि विजातीयचक्षुर्मन:संयोगस्याऽप्यालोककालीनचाक्षुषकारणत्वं विशीर्येत, कारणताबच्छेदकसम्बन्धलाघवेन विजातीयमन आत्मसंयोगस्य तत्कारणत्वौचित्यात, चक्षुर्मनी| विजातीयसंयोगस्य तत्सम्पादने एवोपक्षीणत्वेनाऽन्यथासिद्धत्वाचे त्यस्यापि जागरूकत्वात् । एतेन 'दिवा जायमानस्य चाक्षुषस्य । किं विजातायचक्षुमनोयोगजन्यत्वं यदुत विजातीयमनआत्मसंयोगजन्यत्वं ? इत्यत्र विनिगमनाविरह' इत्यपि प्रत्युक्तम् । न चैवं तस्य मानसलं स्यान्न त चाक्षषलमिति वाच्यम, चक्षषो मन प्रतियोगिकात्मसंयोगवैजात्यप्रयोजकत्वेनाऽपि तदपपत्तेः ।। आलोकादेरिव विजातीयनेत्रमन:संयोगस्याऽपि क्षयोपशमोद्बोधे एव चरितार्थत्वेन तदुदोध्यक्षयोपशमरूपयोग्यताया एबाउनुगततया तहेतुत्वीचित्पात् । एतेन यद्यप्यालोकसंयोगस्य चक्षुःसंयोगावच्छेदकावन्छिन्नस्य चाक्षुषहेतुत्वे बिडालादिचाक्षुषे व्यभिचारः; मानुषीयद्रव्यचाचपत्लावभिन्न प्रति हेतुत्वोक्तावप्यञ्जनादिना तमसि पश्यतां चाक्षषे व्यभिचार: तथापि येषां न कदाऽप्यञ्जना
- -- - निर्वाह विजातीय चक्षुप्रतियोगिक मनसंयोग के विरह से ही मुमकिन होने से आलोकाभाव से उसका निर्वाह करना नामुनासिब है। इसलिए आलोक में आलोककालीन चाक्षुष की कारणता की कल्पना करना असंगत है। यहाँ यह शंका कि -> "अन्धकारकालावच्छेदेन आलोककालीनचाक्षुषजनक विजातीय नयनमनसंयोग न होने से आलोककालीन चाक्षुष साक्षात्कार का उदय नहीं होता है, यह तो ठीक है । मगर उस काल में आलोकाऽकालीन चाक्षुष का उदय क्यों नहीं होता है ? उसके जन्म में कोई बाधक तो नहीं है" - करना ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि उल्लू, बिल्ली आदि को अन्धकार में आलोकाऽकालीन चाक्षुष होता ही है, यह हमें इष्ट है। जो अभीष्ट है, उसका आपादन करने में क्या बुद्धिमत्ता है ? यहाँ यह प्रश्न करना कि -> "यदि उल्ल को अन्धकार में घटादिविषयक आलोकभिन्नकालीन चाक्षुप होता है तब हमको चक्षुसन्निकर्ष से क्यों घटादि का आलोकेतरकालीन चाक्षुष अन्धकार में नहीं होता है ? वल्लू आदि की भाँति हमको भी अन्धकार में आलोकाकालीन घटादिविषयक चाक्षुप होना चाहिए"-ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि आलोकाऽभावकालीन चाक्षुप के प्रति भी विजातीय चक्षुमनसंयोग, जो कि आलोककालीनचाक्षुपजनक विजातीय नयनभनसंयोग की अपेक्षा विजातीय है, पृथक् = स्वतंत्र कारण है। आलोकाऽकालीन चाक्षुप का जनक नयनप्रतियोगिक विजातीय मनसंयोग उल्लू आदि के पास होने से उन्हें आलोकाभारकालीन घटादिचाक्षुष होता
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* मथुरानाधमतसमीक्षा * । यदि पुनरन्धकारेऽपि घटादेः कालिकेनाऽऽलोकविशिष्टत्वात् तद्देशावच्छेदेनाऽऽलोक-] विशिष्टत्वस्य तधात्वे गौरवं, कार्यतावच्छेदकाऽननुगमो विनिगमनाविरहश्चेति विभाव्यते
== =-* जयलता * = = दिना प्रत्यक्षं तत्पुरुषीयद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव निरुक्तालोकसंयोगस्य हेतुत्वं, येषां तु कदाचिदञ्जनादिनाऽपि प्रत्यक्षं | तत्पुरुषीयद्रव्यचाक्षुषे तत्पुरुषीयाऽञ्जनसंयोगाऽभावविशिष्टालोकसंयोगाभावाभावत्वेन हेतुत्वं, बिडालादिचाक्षुषे तु बिडालादिचक्षुःसंयोगत्वेनैवात न दोष' इाते मथुरानाथप्रभृतीनां पचन प्रत्युक्तम्, महागौरवाच्च । अत एव विषयस्य प्रत्यक्षकारणत्वमिति नैयायिकप्रबादोऽपि प्रत्यास्यातः, अतीतानागतविषयके सर्वज्ञसाक्षात्कारे व्यभिचारात, जन्यप्रत्यक्षत्वस्य तत्कार्यतावच्छेदकत्वेऽप्यतीताश्नागतगोचरे योगिप्रत्यक्षे व्यभिचारात्. जन्यलौकिकप्रत्यक्षत्वस्य तत्त्वेऽपि भ्रमे ब्यभिचारात, कार्यतावच्छेदककोटी तद्वदविशेष्यकतत्प्रकारकत्वलक्षणप्रमात्वस्य निवेशे तु महागौरवादिति विषयाधुबोध्यक्षयोपशमस्यैव तत्त्वीचित्यादिति कृतं प्रसङ्गेन ।
प्रकरणकारः कण्ठत उच्छृङ्खलमतं दूषयति - यदीति । अन्धकारेऽपि = अन्धकारसंयुक्तत्वेऽपि घटादेः कालिकेन | - अत्र स्वसंयुक्तसंयोगलक्षणकालिकसम्बन्धेन, आलोकविशिष्टत्त्वात् विजातीयचक्षुर्मनःसंयोगाद घटादिचाक्षुषमापद्येतेति शेषः । यदा बटादिः गुहायां निहितः तदाऽपि स आलोककालीन एव, तदानीमन्यत्र सत आलोकस्य स्वसंयुक्तकालसंयोगसम्बन्धेन घटादौ सत्त्वात् । अतः तमस्यपि विजातीयचक्षुमनोयोगादालोककालीनघटविषयकचाक्षुषापत्तिर्दुर्वारा उच्छृङ्खलमते । यदि च | | परैः 'आलोककालीनचाक्षुषं नाम न कालिकेनाऽऽलोकविशिष्टविषयकचाक्षुषं किन्तु विषयदेशारच्छेदेनाऽऽलोकविशिष्टविषयकचाक्षुषम् । तत्प्रत्येव विजातीयचक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगस्य हेतुत्वम् । विषयदेशश्वाऽत्र विषयसमवायी ग्राह्यः । यदाऽन्यदेशावच्छेदेनाऊलोकसंयोगो न तु कपालायच्छेदेन तदा घटस्य न स्वदेशकपालावन्मेदेनाइलोकविशिष्टत्वं, 'इदानीमिह कपाले नाऽलोक' इति प्रतीते: । अतो न तदानीं विजातीयचक्षःप्रतियोगिकमन:संयोगादालोककालीनचाक्षुषाऽऽपत्तिः, घटस्य कपालावच्छिन्नालोकविशिष्टत्वशून्यत्वेनाऽऽलोकाऽकालीनत्वादि'त्युच्यतेति मनसिकृत्याऽऽह - तद्देशावच्छेदेनेति । विषयसमवायिदेशावच्छेदेनेति । आलोकविशिष्टत्वस्य तथात्वे = चक्षुःप्रतियोगिकविजातीयगन:संयोगकार्यतावच्छेदकघटकत्वे गौरवं = कार्यतावच्छेदकशरीरगीरवं, विषयदेशावन्छिन्नालोकविशिष्ट(घटादि)विषयकचाक्षुषल्वस्य गुरुतरशरीरत्वं स्पष्टमेव । यदि च परः 'कार्यकारणभावनिश्चयाऽनन्तरमुपस्थितत्वेन तस्य फलमुखत्वान्न दोषत्वमिति प्रणिगद्यतेति चेतसिकृत्य दोषान्तरमाविर्भावयति कार्यतावच्छेदकाननुगम इति । कार्यताऽवच्छेदकधर्मघटकीभूतकपाल-तन्त्वादितद्देशाऽननुगमेन चक्षुःप्रतियोगिकमनोविजातीयसंयोगकार्यतावच्छेदकधर्माननुगम इत्यर्थः । यदि च परैः ‘विषयसमवायित्वेनानुगतधर्मेण कपाल-तन्त्वादीनामनुगमसम्भवान्न कार्यतावच्छेदकधर्माननुगम' इति प्रोन्यतेति लक्ष्यीकृत्य दोषान्तरमाविष्करोति - विनिगमनाचिरहनेति । विजातीयचक्षुर्मन:| है और हमारे पास उसका विरह होने से हमें आलोकाऽकालीन घटादिचाक्षुप नहीं होता है, न कि आलोक का विरह होने से । निष्कर्ष : चाक्षुप का जनक आलोक नहीं है, किन्तु नयनप्रतियोगिक विजातीय मनसंयोग है।
आलोककालीन क्षुष को कार्य मानने पर दोषपरम्परा यदि. इति । यदि यहाँ यह कहा जाय कि → “आलोककालीनद्रव्यविषयक चाक्षुप के प्रति विजातीय चक्षुमनोयोग को कारण माना जाय तब तो अमावस्या की रात्रि में गाढ अन्धकार में स्थित घटादि का हमें चाक्षुप होने लगेगा, क्योंकि | घट अनित्य होने से कालिक सम्बन्ध से आलोकविशिष्ट = आलोककालीन है । अतएव तब उसका चाक्षुष आलोककालीन द्रव्यविषयक कहा जा सकता है और आलोककालीन द्रव्यविषयक चाक्षुष का जनक विजातीय नयनमनसंयोग हमारे पास होने में कोई राध भी नहीं है । यद्यपि यहाँ इस आपत्ति के परिहारार्थ यह कहा जा सकता है कि • 'विजातीय नयनमनसंयोग के कार्यस्वरूप आलोककालीन चाक्षुष का अर्थ कालिकसम्बन्ध से आलोकविशिष्टद्रव्यविषयक चाक्षुष नहीं है, किन्तु विषयदेशावच्छेदेन आलोकविशिष्टद्रव्यगोचर चाक्षुप है । जब घट अन्धकार से आवृत होना है तब कालिकसम्बन्ध से घट में आलोक होने पर भी घटदेश = घटसमवायी कपाल के अवच्छेद से (= कपालावच्छेदेन) घट में आलोक नहीं रहने से घट स्वदेशावच्छेदेन आलोकविशिष्ट = आलोककालीन नहीं है । अतएव उस काल में उसका चाचप आलोककालीनद्रव्यविषयक नहीं कहा जा सकता । विवक्षित विजातीय नयनमनसंयोम के कार्यतावच्छेदक से शून्य होने की वजह तब हमें घट का चाक्षुष नहीं हो सकता है। अतः अन्यकारस्थ यट के चाक्षुष की आपत्ति विजातीयनयनमनसंयोगकारणतापक्ष में नहीं दी जा सकती' - तथापि यह कथन इसलिए असंगत बनता है कि ऐसा मानने में गौरव है, क्योंकि कार्यतावच्छेदककोटि में विषयदेश - विषयसमवायी
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३४९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ नियोगकारणतावचाः *
तदाऽस्तु लाघवात् तमः संयुक्तचाक्षुषं प्रत्येव विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य हेतुत्वम् । नच तमः कालीनचक्षुः संयोगादेवोऽऽलोक समवहिताघटादिचाक्षुषोदयदर्शनात् चक्षुर्मनोयोगस्या - प्येकस्यैव सम्भवात्कथमेवं ? इति वाच्यम्, मनसः त्वरितगतित्वे भाऽऽलोकसमवधानदशायां * जयलता GYO
| संयोगकार्यतावच्छेदकं विषयसमवायिदेशावच्छिन्नालोकविशिष्टविषयविषयकलौकिकचाक्षुषत्वं वदुत विषयविशिष्टविषयसमवायिदेशावच्छिन्नालोकविषयकलौकिकचाक्षुषत्वं ? इत्यत्र विनिगमनाभावः । ततश्च नोपदर्शितोच्छ्रङ्गखलमतं श्रद्धेयमिति विभाव्यते, तदाऽस्तु लाघवात् = कार्यतावच्छेदकधर्म लाघवात् तमः संयुक्तचाक्षुषं प्रत्येव विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य हेतुत्वमिति । प्रेचकादीनां विजातीयचक्षुः प्रतियोगिकमन: संयोगेनैव रात्री तमः संयुक्तघटादिचाक्षुषमस्मदादीनाञ्च तद्विरहेण न तदानीं तमः - संयुक्तघटादिगोचरचाक्षुषम् । इत्थञ्च तमः संयुक्तचाक्षुषत्वस्यैव विजातीयचक्षुः प्रतियोगिक मनः संयोगकार्यतावच्छेदकत्वं घटामश्वतीति कार्यतावच्छेदकघटकसंयोगाश्रयत्वेन तमसो द्रव्यत्वं सेत्स्यतीति भावः ।
ननु तमः संयोगविशिष्टस्यैव द्रव्यस्य पश्चादालोकसंयोगदशायां चाक्षुषमुपजायते । तच कथं घटते ? पूर्वोत्तरकालीनस्यैकपुरुषीयचक्षुःप्रतियोगिकविजातीयमन:संयोगस्याभिन्नत्वात् । अतो न तमः संयुक्तद्रव्यचाक्षुषं प्रति विजातीयचक्षुर्मनोयो| गस्य कारणत्वं घटामञ्चतीत्याशङ्कामपनोदयितुमुपदर्शयति न चेति । वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तमः कालीनचक्षुः संयोगात् विषयदेशावच्छिन्नतमःसंयोगाश्रयघटादिगोचरचक्षुः संयोगात् एव आलोकसमवहितात् आलोकसंयोगाऽवच्छेदकावच्छि न्नात् घटादिंचाक्षुषोदयदर्शनात् चक्षुर्मनोयोगस्य = चक्षुः प्रतियोगिकविजातीयमन:संयोगस्य, अपि एकस्यैव | सम्भवात् कथं एवं = विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य तमः संयुक्तद्रव्यचाक्षुषजनकत्वं ! आलोकसमवधानाः समवधानकालीनविषयरुचक्षुरादेर्भेदाभावेन चक्षुः प्रतियोगिकविजातीयमन:संयोगस्याऽयभिन्नत्वादालोकरग्भवधानदशायामिवाऽलोकाः समवधानदशायामपि घटादिचाक्षुषमस्मदादीनां स्यात् न स्याद्वाऽलोकसमवधानकालेऽपि तदिति शङ्काशयः ।
अभिन्नस्यैव,
तदूव्यपोहे प्रकरणकृद्धेतुमावेदयति- मनसः त्वरितगतित्वेनेति । मनसः चञ्चलत्वेनेति । आलोकसमवधानदशायां
C
का निवेश अधिक है । दूसरी बात यह है कि विषयदेश भिन्न भिन्न होते हैं, जैसे घट का देश है कपाल, पट का देश है तन्तु । घटादि विषय का देश = समवायी अननुगत होने से उससे घटित कार्यतावच्छेदक धर्म भी अननुगत बनता है । कार्यतावच्छेदक धर्म अननुगत होने से विजातीय नयनमनमंयोग को आलोककालीन चाक्षुष साक्षात्कार का कारण नहीं माना जा सकता । तीसरा दोष यह है कि विजातीय नयनमनसंयोग के कार्यतावच्छेदकधर्मरूप से विषयदेशावच्छिन्नाऽऽलोकविशिष्टविषयविषयकचाक्षुषत्व का स्वीकार करना या विषयविशिष्टविषयदेशावच्छिन्नाऽऽ लोकविपयकचाक्षुपत्व का ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है, क्योंकि घटसंयुक्तनयनप्रतियोगिक विजातीय मनोयोग के कार्यरूप में कपालावच्छिन्नाऽऽलोकविशिष्टघटचाक्षुष की भाँति घटविशिष्ट कपालावच्छिन्नालोकविषयक वाक्षुप का भी स्वीकार किया जा सकता है । इन तीन दोष की वजह चक्षुप्रतियोगिक विजातीय मनसंयोग को आलोककालीनद्रव्यविपयक चाप का कारण नहीं माना जा सकता" ←
ॐ अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुष भी विभातीयसंयोग का कार्य है स्याद्धादी +
=
तदा उति । तब उचित यही है कि चक्षुप्रतियोगिक विजातीयमनसंयोग को आलोककालीनद्रव्यविषयक विषय देशावच्छिन्नालोकविशिष्टविषयविपयक चाप का कारण न मान कर अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुष का ही कारण माना जाय, क्योंकि यहाँ कार्यतावच्छेदक धर्म का शरीर लघु होता है । उल्लू, बिल्ली आदि को अन्धकारस्थित द्रव्य का चाक्षुप होने का कारण विजातीय नयनमनसंयोग ही है। यहाँ यह शंका हो कि “एक ही घट जब अन्धकारकालीन अन्धकारसंयुक्त होता है तब हमें उसका चाक्षुप नहीं होता है और जब उसी घट के पास दीपक लाया जाता है तब हमें उसी घट का चाप होता है । यहाँ अन्धकार और प्रकाश के काल में घट, पुरुष, नयन, नयनसंयोग में कोई भेद नहीं होने से पूर्वोत्तरकालीन नयनमनसंयोगविशेष भी अभिन्न = एक ही होता है, यह तर्कसिद्ध होता है । आलोक यदि चाक्षुष का कारण ही नहीं है और विजातीय नयनमनसंयोग पूर्वोत्तरकाल में एक ही है तब पूर्वकाल अबच्छेदेन (= अन्धकार काल में ) घट का चाक्षुष क्यों नहीं होता है ? और पश्चात् आलोककाल में उसी घट का चाक्षुष क्यों होता है ? या तो पूर्व काल में भी घट का चाक्षुष होना चाहिए या तो पश्चात् भी घट का चाक्षुप नहीं होना चाहिए, क्योंकि नयनमनसंयोगविशेष तो एक ही हे" तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि मन चंचल है, अस्थिर है, शीघ्र गति वाला है । इसी वजह
=
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२०
* अभिनवरीत्याऽपसिद्धान्तनिराकरणम् **
चक्षुर्मनोयोगस्य भिन्नस्यैव कल्पनादिति तमसो द्रव्यत्वं निराबाधम् ।
एतेन द्रव्यचाक्षुषसामान्यं प्रत्यालोक संयोगहेतुताया: क्लृप्तत्वादालोकं विना वीक्ष्यमाणस्य तमसः कथं द्रव्यत्वमित्यपि दुरापास्तम् ।
तौताविकैकदेशिन स्तु
द्रव्यचाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतुत्वेऽपि तामसेन्द्रियेणैव
* जयलता
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=
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चक्षुर्मनोयोगस्य चक्षुः प्रतियोगिकमनोविजातीयसंयोगस्य भिन्नस्यैव आलोकाऽसमबधानकालिकचक्षुः प्रतियोगिकमनोविजातीयसंयोगाऽपेक्षया विलक्षणस्यैव कल्पनात् न पश्चादिव पूर्वं घटादिचाक्षुषप्रसङ्गो न वा पूर्वमिव पश्चाद् घटादिचाक्षुषानापत्तिः । अतो न प्रदर्शितहेतुहेतुमद्भावे व्यभिचार इति = हेतोः विजातीयचक्षुर्मनोयोगकार्यतावच्छेदकघटकी भूतसंयोगाश्रयवेन तमसो द्रव्यत्वं निराबाधमिति ।
३५०
एतेनेति । आलोकस्य द्रव्यविषयकचाक्षुषत्वावच्छिन्नकारणत्वासम्भवेनेति । अस्य दूरापास्तमित्यनेनाऽन्वयः । द्रव्य'चाक्षुषसामान्यं प्रति = द्रव्यविषयकली किकच्चाक्षुषत्वाच्वच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगहेतुतायाः = चक्षुः संयोगाऽबच्छेदकाबच्छिन्नाऽऽलोकसंयोगकारणताया:, क्लृप्तत्वात् = आवश्यकत्वात्, आलोकं बिना एव वीक्ष्यमाणस्य = दृश्यमानस्य तमसः कथं द्रव्यत्वं ? यदि हि तमो द्रव्यं स्यात्तर्हि चक्षुः संयोगाज्यच्छेदकावच्छिन्नाऽऽलोकसंयोगेनैव तचाक्षुषं स्यात्, द्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति तस्य हेतुत्वावधारणात मषं न भवति । अत एव न तस्य द्रव्यत्वमिति नैयायिकाशय: । पाटचरविलुण्टिते वेश्मनि यामिकजागरणतुल्यमिदम् । व्यावर्णितरीत्या द्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वस्याऽऽलोकसंयोगकार्यत्वावच्छेदकत्वासम्भवादेवेदं प्रन्त्यवत इति स्पष्टम् । एतेन तमसो द्रव्यत्वे आलोकनिरपेक्षेण चक्षुरिन्द्रियेण ग्रहो न स्यात्, द्रव्यलौकिकन्चाक्षुषे आलोकसापेक्षचक्षुरिन्द्रियस्य कारणत्वादित्यपि प्रत्याख्यातम् । आलोकचाक्षुषे व्यभिचाराच्च । ततश्च विजातीयचक्षुर्मनोयोगकार्यतावच्छेदकपटकीभूतसंयोगाश्रयत्वेन तमसो द्रव्यस्यमेवेति निष्कर्ष: ५ विजातीयचक्षुः प्रतियोगिकमन:संयोगश्च स्वमते क्षयोपशमविशेषस्थानीययोग्यतात्मको बोध्यः । तेन नाऽपसिद्धान्तप्रसङ्ग इति विभावनीयं सुधीभिः ।
तीतातिकैकदेशिनस्त्विति । बाल्यवयसि तुतातिकपदेनाऽभिधीयमानस्य मीमांसकधुर्यस्य कुमारिलभट्टस्याऽनुयायिनः
리
आलोकविरहकाल में जो नयनप्रतियोगिक मनसंयोग होता है वह आलोकसमधानकाल में नष्ट होता है और उससे विजातीय नयनप्रतियोगिक मनसंयोग उत्पन्न होता है । अन्धकार होने पर हमारे पास अन्धकारस्थ घट के चाक्षुष का जनक नयनमनसंयोगविशेष नहीं होने के सबब हमें उसका चाक्षुप नहीं होता है और उल्लू, बिल्ली आदि के पास अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुप का जनक नयनमनसंयोगविशेष होने से उन्हें तब उसका चाक्षुप होता है । आलोक के सान्निध्य और असानिध्य काल में हमारा नयनसंयोग अलग अलग होने की वजह अन्धकारकाल में हमें घट का चाक्षुष नहीं होता है और प्रकाशकालावच्छेदेन घट का चाक्षुप साक्षात्कार होता है । अतः नयनमनसंयोगविशेष को अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविपयक चाक्षुष का कारण मानना युक्तिसंगत ही है। उसका कार्यतावच्छेदक धर्म है अन्धकारसंयोगविशिष्टविषयकलौकिकचाक्षुषत्व, जिसके घटकीभूत संयोग का आश्रय होने की वजह अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि होती है, क्योंकि संयोग गुण है, जो केवल द्रव्य में ही रहता है। अत: आलोक को चाक्षुष प्रत्यक्ष का कारण नहीं माना जा सकता
एतेन इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन कि "द्रव्यविषयक चाक्षुषसामान्य यानी सब द्रव्यचाक्षुप के प्रति आलोकसंयोग में कारणता सिद्ध होने से अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अन्धकार का चाक्षुष तो बिना आलोकसंयोग के ही होता है । यदि अन्धकार अन्य होता, तब तो घटादि की भाँति उसके चाक्षुष की उत्पत्ति बिना आलोकसंयोग के नहीं हो सकती। मगर होती तो है। इसलिए अन्धकार को द्रव्यस्वरूप न मान कर आलोकाऽभावस्वरूप ही मानना संगत है" - इसलिए निराकृत हो जाता है कि आलोकसंयोग में द्रव्यविपयकलीकिकचाक्षुषत्वावच्छ्रित्र के प्रति कारणता ही नामुमकिन है, जिसका हमने अभी तक विस्तार से निरूपण किया है । आलोकसंयोग में द्रव्यचाक्षुपमात्र के प्रति कारणता असिद्ध होने से अन्धकार का, बिना आलोकसंयोग के, चाक्षुष होने से उसमें द्रव्यत्व का बाघ नहीं हो सकता । अतः अन्धकार द्रव्यात्मक है, यही मानना संगत है ।
तामसेन्द्रियकल्पना - चौताविकदेशीयमत
पूर्वपक्ष: तौता इति । द्रव्यचाक्षुषमात्र के प्रति आलोकसंयोग की कारणता निश्चत ही है, फिर भी अन्धकारसाक्षात्कार
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३५१ मध्यमस्याद्वादरहरये खण्डः २ . का.५ * तमोग्राहकतामसेन्द्रियकल्पना*
तमोगहसाभवामाऽनुपपत्तिः । न च निमीलितनयनस्यापि तदग्रहाऽऽयत्ति:; चक्षुःश्रव:श्रोत्रवत् तस्य चक्षुर्गोलकाधिष्ठानत्वात् । न चेन्द्रियान्तराऽग्राह्यस्वमागुणाभावात् तादृशेन्द्रियाऽ
--- ..= = ...==* जयलता है तौतातिकपदेनोच्यन्ते । कुमारिलभट्टसिद्धान्तैकदेशाश्रयत्वे सति स्वतन्त्रार्थप्रतिपादकाः नौततिलकदेशिन इति गीयन्ते । तुः नयाथिकाद्यपेक्षया विशेषबोधकः । विशेषश्चार्य - द्रव्यचाक्षुपं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतुत्वेऽभ्युपगम्यमानेऽपि तामसेन्द्रियेण चक्षुरादिपश्चेन्द्रिवत्र्यतिरिक्तेन एव तमोग्रहसम्भवात् = तमोद्रव्यप्रत्यक्षसम्भवात् नाऽनुपपत्तिः । एतेन द्रव्यचाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतुत्वे आलोकसंयोगमृते दृश्यमानस्य तमसः कथं द्रव्यत्वमिति प्रत्युक्तम्, तमसः चक्षुरग्राह्यत्वेनाइचाक्षुपत्वात् । चक्षुषस्तमोऽग्राहकत्ये पिहितनयनस्यापि पुरुषस्य तमःसाक्षात्कार स्यादित्याशकां निराकुर्वन्ति । न चेति । तद्ग्रहापतिः = तमःप्रत्यक्षप्रसङ्ग । प्रकृतापादनस्याऽपाकरणे ते हेतुमुपदर्शयन्ति - चक्षुःश्रवःश्रोत्रवत् = भुजङ्गमश्रोत्रमिय, 'चक्षुषी एव श्रवसी यस्य स सप: चक्षुःश्रवः पदेन प्रतिपाद्यते । वासुकिश्रोत्रं यथा नेत्रगोलकान्तर्ति तथा तामसेन्द्रियमपि नयनगोलकाधिष्ठितमित्यर्थः । तस्य = तामसरप, चक्षुर्गालकाधिष्ठानत्वात् = अक्षिगालके वस्थितत्वात् । यथा भोगी नेत्रे निमील्य न किश्चिदपि पश्यति शृणोति वा तदीयश्रोत्रनयनेन्द्रिययोः चक्षोलकस्थत्वेन चक्ष:पिधानदशायां तयोः स्वविषयाऽसनिकृष्टत्वात् तथैव दयमपि नयने पिधाय न घटादिकं चक्षुरिन्द्रियेण तमो बा तामसेन्द्रियेण विज्ञातुं शक्नुमः, अस्मदीयचक्ष:तामसेन्द्रिययोः नेत्रगोलकवर्तितया नयननिमीलनावस्थायां तमसः स्वविषयासनिकृष्टत्वादिति न निमीलितनयनीयतमःप्रत्यक्षप्रसगावकाश इति तेषामाशयः |
ननु तामसस्येन्द्रियत्यसिद्धौ तमसस्तद्ग्राह्यत्वं सिध्यति । न च तस्येन्द्रियत्वं सम्भवति, तमसि चक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्यत्वे सति तामसग्राहागुणस्याऽभावात् । यथा पृथिव्यां चक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्यस्य घ्राणग्राह्यस्य गन्धगुणस्य सत्त्वाद् प्राणस्य चक्षुरादीन्द्रिया :तिरिक्तेन्द्रियत्वं सिध्यति तथा नाऽन बक्तुं शक्यते इति न तामसस्य चक्षुराद्यतिरिक्तेन्द्रियत्वसिद्धिरिति शङ्कामपहस्तयितमपक्रमन्ते - न चेति । इन्द्रियान्तराऽग्राह्य-स्वग्राह्यगुणाभावात् = तमसि तामसेतरचक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्य -तामसग्राह्यगुणस्य बिरहात्, तादृशेन्द्रियाऽसिद्धिः = चक्षुराद्यतिरिक्तेन्द्रियत्वेन तामसस्य न सिद्भिः । इन्द्रियान्तरत्वव्यवस्थापकगुणविरहान्न तामसेन्द्रियसिद्धिरिति शङ्ककाशयः ।
में व्यभिचार नहीं है, क्योंकि अंधकार का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है किन्तु तामसेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष होता है। अन्धकारसाक्षात्कार में चाक्षुपत्वस्वरूप कार्यतावच्छेदक धर्म नहीं होने से उसका जन्म, बिना आलोकसंयोग के, होने पर भी व्यतिरेक व्यभिचार नहीं कहा जा सकता । अन्धकार का प्रत्यक्ष चक्षु इन्द्रिय से नहीं होता है किन्तु तामस नाम की छठी इन्द्रिय से होता है । यहाँ यह शंका करना कि -> "अन्धकार के साक्षात्कार के प्रति यदि चक्षु इन्द्रिय कारण नहीं है, किन्तु तामस इन्द्रिय ही कारण है, तब तो जैसे आँखें मूंद कर श्रवणेन्द्रिय से शब्द का प्रत्यक्ष होता है, ठीक वैसे ही अन्धकार का भी तामस इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने लगेगा" - नामुनासिब है। इसका कारण पह है कि सर्पकर्ण की भाँति तामसेन्द्रिय भी चक्षुगोलक में अधिष्ठित होती है । आशय यह है कि नाग की श्रवणेन्द्रिय आँख में ही होती है। इसलिए जब वह आँखें बंद करता है, तब उसकी कर्णेन्द्रिय का शब्द से सत्रिकर्ष नहीं होने से वह शब्द को नहीं सुन सकता है। ठीक इसी तरह हमारी तामस इन्द्रिय भी नेत्रगोलक में ही अधिष्ठित होती (= रहती) है । इसलिए जब हम आँखें बंद करते . हैं, तब हमारी तामस इन्द्रिय का अन्धकार द्रव्य के साथ संयोग नहीं होने से उस समय अन्धकार का प्रत्यक्ष हमें नहीं होता है । यहाँ यह शंका हो कि -> "तामस नाम की अतिरिक्त इन्द्रिय की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि अन्धकार द्रव्य को कोई भी गुण ऐसा नहीं है, जो तामस इन्द्रिय से ग्राह्य हो और उससे भिन्न इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं हो । इन्द्रियत्व का व्यवस्थापक असाधारण गुण होता है, जो भिन्न इन्द्रिय से अग्राह्य हो एवं अपने से ग्राह्य हो । जैसे कि पृथ्वी में गन्य गुण ऐसा है, जो प्राण से ही ग्राह्य है एवं उससे अतिरिक्त चक्षु आदि इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं है । इसलिए चक्षु आदि से नाक को भिम इन्द्रिय मानी जाती है । मगर अन्धकार में कोई भी ऐसा गुण नहीं है, जो तामस से भिन्न इन्द्रिय से अग्राह्य एवं तामस से ही ग्राह्य हो। इसलिए तामस में चक्षु आदि से अतिरिक्त इन्द्रियत्व ही नहीं माना जा सकता। तब तो अन्धकार का चाक्षुष ही मानना पड़ेगा, जिससे आलोकसंयोगनिष्ठ कारणता में व्यभिचार प्रसक्त होगा" <
र इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकाप ही मिनेन्द्रियत्त का व्यवस्थापक लाघवा, इति । तो यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियान्तराऽग्राह्य-स्वग्राह्यगुणग्राहकत्व को अतिरिक्त इन्द्रियत्व
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* तामसेन्द्रियसाधनम्
सिद्धि:: लाघवादिन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकत्वमात्रस्यैव भिम्नेन्द्रियत्वव्यवस्थापकत्वात् तादृशस्य तमः संयोगस्यापि सहकारित्वात् । न च तमसि तमः संयोगाऽसम्भवः, गगनतमः संयोगस्य तत्राऽपि सत्त्वात् ।
नन्वेवमपि किञ्चिदवच्छेदेन तमः संयोगवति भित्यादावालोकसंयुक्ते तामसेन्द्रियेण प्रतीति:
* जयलता
तामपाकुर्वन्ति - लाघवादिति । इन्द्रियान्तराऽग्राह्य-स्वग्राह्मगुणस्येन्द्रियान्तरत्वव्यवस्थापकत्वाऽभ्युपगमाऽपेक्षया लाघवादिति । | इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकत्वमात्रस्यैव भिन्नेन्द्रियत्वव्यवस्थापकत्वादिति । चक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्यस्य गन्धस्य ग्राहकत्वेनैव घ्राणस्य | चक्षुराद्यतिरिक्तेन्द्रियत्वसिद्धिः न त्विन्द्रियान्तराज्ग्राह्य-स्वग्राह्यगुणग्राहकत्वेन, गौरवात् । तादृशस्य इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकत्वस्य च प्रकृते = तमोग्रहस्थले, तामसे तामसपदप्रतिपाद्ये एव सत्त्वात् न तु चक्षुषि, तस्याऽऽलोकसंयोगसहकृतस्यैव द्रव्यग्राहकत्वात, तमसस्त्वालोकसंयोगमृते एव ग्रहात् । तमसः चक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्यत्वेन तद्ग्राहकस्य तामसस्याऽतिरिक्तेन्द्रियत्वसिद्धिरिति तेषामशयः ।
=
न च पेचकादीनां रात्राविव दिवाऽपि घटादिग्रहापत्तिः घटादिसाक्षात्कार प्रसङ्गः, तदीयनयनगोलकाधिष्ठिततामसेन्द्रियसन्निकृष्टत्वादुद्घटादीनामिति शङ्काशयः । तदयुक्तत्वमाविर्भावयन्ति तामसेन्द्रिये द्रव्यसाक्षात्कारं प्रति नमः संयोगस्याऽपि सहकारित्वात् दिवा तमोद्रव्यसंयोगस्य घटादी विरहात् न पेचकादीनां तामसेन्द्रियेण घटादिग्रहप्रसङ्गः । न हि सामग्रीविरहे कार्योत्पाद आपादयितुमर्हतीति तेषामभिप्रायः ।
ननु संयोगसम्बन्धेन तमसः तामसेन्द्रियसहकारित्वीप ग्रहो न स्यात् तेन सम्बन्येन तपस्यसत्त्वादिति शङ्कामपाकुर्वन्ति न चेति । गगनतमः संयोगस्य गगनप्रतियोगिकतमः संयोगस्य तत्राऽपि नमस्यपि सत्त्वात् । अनेन तमसि तमोऽन्तराऽसत्त्वाद् व्यतिरेकव्यभिचार इति प्रत्युक्तम् चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नगगनतमः संयोगसम्बन्धेन तमसः तमोवृत्तित्वात् ।
अन्वयव्यभिचारं कश्विच्छङ्कते नन्विति । 'चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । एवमपि = तमसः गगनतमः संयोगवत्त्वेन तमोग्र हे व्यतिरेकव्यभिचारनिराकरणद्वारा तमः संयोगस्य तमः संयुक्तद्रव्यग्रहं प्रति तामसेन्द्रियसहकारित्वप्रतिपादनेऽपि किञ्चिदबच्छेदेन तमः संयोगवति = परभागावच्छिन्नतमःसंयोगविशिष्टे, भित्त्यादी, आलोकसंयुक्ते = अपरभागावच्छिन्नालोकसंयोग
=
=
=
३५२
=
का व्यवस्थापक मानने में गौरव है । इसकी अपेक्षा इन्द्रियान्तराज्ग्राह्यग्राहकत्व को ही भित्रेन्द्रियत्व का व्यवस्थापक मानना उचित है, क्योंकि इसमें लाघव है । चक्षु आदि इन्द्रिय से अग्राह्य यानी चक्षु आदि इन्द्रिय से जन्य प्रत्यक्ष के अविपय गन्ध का नाक से ग्रहण यानी प्रत्यक्ष होने से ही नाक में चक्षु आदि की अपेक्षा अतिरिक्त इन्द्रियत्व की सिद्धि होती है । यह तो तामस में भी अबाधित है, क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रिय से अग्राह्य अन्धकार का ग्राहकत्व = ज्ञानजनकत्व तामस में रहता ही है । इसलिए तामस में अतिरिक्त इन्द्रियत्व की सिद्धि निराबाध है । यहाँ यह शंका करना कि -> "यदि तामस इन्द्रिय से ही उल्लू आदि को रात को घट आदि का साक्षात्कार होता है, तब तो उल्लू आदि को दिन में भी तामस इन्द्रिय से घटादि का साक्षात्कार होना चाहिए, क्योंकि उनकी तामसेन्द्रिय का घटादि के साथ सन्निकर्ष दिन में भी अबाधित है" तो यह नामुनासिब है, क्योंकि तामस इन्द्रिय से जन्य साक्षात्कार में अन्धकारसंयोग भी सहकारिकारण है । दिन में अंधकारसंयोगस्वरूप सहकारिकारण के विरह से उल्लू आदि को तामसेन्द्रियसंयुक्त घटादि का साक्षात्कार नहीं होता है । यहाँ यह शंका हो कि "यदि तामसेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में अन्धकारसंयोग भी सहकारिकारण है, ऐसा मानने पर तो अन्धकार कभी भी तामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार का विषय नहीं बन सकेगा, क्योंकि घट में जैसे संयोग संबंध से अन्धकार रहता है। वैसे अन्धकार में दूसरा अन्धकार संयोगसम्बन्ध से नहीं रहता है, जिससे उसमें अन्धकारसंयोगात्मक सहकारिकारण रह सके । अन्धकार में अन्धकारसंयोग नामुमकिन होने से उसका साक्षात्कार तामसेन्द्रिय नहीं हो सकेगा" <- तो यह नामुनासिब है, क्योंकि अन्धकार में भी आकाश- अन्धकारसंयोगात्मक अन्धकारसंयोग रहता ही है। इस तरह सहकारिकारण के रहने से अन्धकार का तामस इन्द्रिय से प्रत्यक्ष हो सकता है ।
अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन तामससंयोग कारण
नन्वं इति । यहाँ यह शंका हो कि “तामसेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में अन्धकारसंयोग सहकारी कारण है, यह नहीं १. 'तमस' इति मूळप्रती पाठः ।
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३५३ मध्यमस्याबादरहस्ये खण्डः २ - का. मीमांसाश्लोकवार्तिकमवादः * || स्यादिति शेत् ? तर्हि तमःसंयोगावच्छेदेकावच्छिन्नतामसेन्द्रियसंयोगस्यैव तमःसंयुक्तद्रव्यपाहकत्वमस्तु । विनिगमनाविरहस्तु परस्याऽपि तुल्य: । चन्द्रिकायां पेवकादेस्तु चाक्षुष
=-... --* चलता *-. ... पति सति तम:संयुक्तभित्त्यादरालोकसंयुक्तभागस्य तामसेन्द्रियेण प्रतीतिः स्यात्, भिल्यादे: तम:संयुक्तत्वात् । न चैवं तद्ग्रहो भवतीति दुर्निवारोइन्वयन्यभिचार इत्येकं सीव्यतो परप्रच्युतिरिति शड़काशयः ।
तामसेन्द्रियवादिनोऽत्र प्रतिविदधते - तहीति । तम:संयुक्तभित्त्यादेरालीकसंयुक्तभागस्य तामसेन्द्रियेणाऽग्रहे सतीत्यर्थः । तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामसेन्द्रियसंयोगस्यैवेति । तम:संयोगस्य यो विषयदेशोऽवच्छेदकः तदवच्छिन्त्रस्य तामसेन्द्रिय. संयोगस्यति, एवकारेण तम: संयोगसहकृततामसस्य व्यवच्छेदः कृतः । तमःसंयुक्तद्रव्यग्राहकत्वं = तम: संयुक्तद्रव्यविषयकप्रत्यक्षजनकत्वं अस्तु । न च तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामसन्द्रियसंयोगस्य हेतुत्वं यदुन तामससंगोगावच्छेदकावच्छिन्ननम:संयोगस्येत्यत्र विनिगमकाऽभावान्नैतादशकार्यकारणभावसम्भव: इति वाच्यम. तब नयायिकस्यापि 'चक्षःसंयोगावच्छेद कावच्छिन्नालोकसंयोगस्य आलोकसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषजनकत्वं यदुत्ताऽऽलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगस्य ?' इत्यत्र विनिगमनायिरहस्य तुल्यत्वादित्याशयेन गदन्ति - विनिगमनाविरहस्त्विति । कारणविनिगमकाभावस्त्वित्यर्थः, परस्यापि = नैयायिकस्थापि, तुल्यः = समः । अत एब तेन नैतादृशः पर्यनुयोगः कर्तुं युज्यते । तदुक्तं श्लोकवार्तिके यच्चोभयोः समो दोष:, परिहारस्तयो: समः । नैक, पर्यनुयोज्य: स्यात्तादृगर्थविचारणे ।। ( ) इति । एतेनाऽऽलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन चक्षुष एबालोकसंयुक्तचाक्षुषकारणत्वं लाघवादिति नैयायिकवचनं प्रत्याख्यातम्, 'तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन तामसस्यैव तम:संयुक्तद्रव्यग्राहकत्वं लाघबादित्यस्याऽपि सुवचत्वात् । न चैवमपि तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न संयोगसम्बन्धेन तामसस्य हेतुत्वं यद्रा तामससंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन हेतुत्वम् : इत्यत्र विनिगमनाविरह इति वक्तव्यम्, आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन चक्षुषा हेतुत्वमाहीस्वित् चक्षुःसीमावदकावच्छिनासयोगसम्बन्धेना-लोकस्य ! इत्यत्र नयायिकरपाणि विनिगमकस्याऽन्वेषणीयत्वादिति तेषामभिप्रायः ।।
नन तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्त्रतामससंयोगस्य न तम:संयुक्तद्रव्यविषयकतामसग्रहजनकत्वं सम्भवति, राकायां सर्वतः चन्द्रिकाप्रसारे सति घटाद: तमोऽसंयुक्तत्वेन तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामससंयं बजपि पेचकादे: तत्तामससाक्षात्कारोदयेन
माना जा सकता, क्योंकि भित्ति आदि के पत्रात भाग में अन्धकार संयोग होने पर आलोकसंयुक्त पुरोवर्ती भाग का तामस । इन्द्रिय से साक्षात्कार होने की आपत्ति मुंह फाड़े खड़ी रहती है । मगर वस्तुस्थिति यह है कि तब अन्धकारसंयुक्त भित्ति
के आलोकसंयुक्त भाग का प्रत्यक्ष चाक्षुष (= चक्षुजन्य) ही होता है, न कि तामसेन्द्रियजन्य । इसलिए अन्धकारसयोग तामस ' का सहकारी कारण नहीं माना जा सकता है" - तो यह नामुनासिब है, क्योंकि इसके परिहारर्थ यह कहा जा सकता
है कि तामसीय साक्षात्कार के प्रति अन्धकारसंयोग और तामसेन्द्रियसंयोग को स्वतंत्रकारण नहीं है किन्तु अन्धकारसंयोग ! के अवच्छेदक विषयदेश से अवच्छिन्न = नियन्त्रित तामसन्द्रियसंयोग ही कारण है। भित्ति के केवल पत्रात् भाग में अन्धकारसंयोग होने पर तामसेन्द्रियसंयोग अन्धकारसंयोगाऽवच्छेदक पश्चात् भाग से अवच्छिन्न नहीं होता है । विशेप्य होने पर भी अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नत्वात्मक विशेषण का विरह होने से विशिष्टकारण का अभाव सिद्ध होता है। अतएव भित्ति के पुरोवर्ती आलोकसंयुक्त भाग का होने वाला साक्षात्कार तामसीय (= तामसेन्द्रियजन्य) नहीं होगा, किन्नु चाक्षुप (= चक्षुजन्य) ही होगा। यहाँ यह नयायिककथन हो कि -> "तामसीय प्रत्यक्ष के प्रति अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न तामसेन्द्रियसंयोग को कारण माना जाय या तामसेन्द्रियसंयोगावच्छेदकावच्छिनान्धकारसंयोग को कारण माना जाय ! इस समस्या का समाधान कुमारिलभट्टानुयायी के एकदेशीय विद्वानों की ओर से नहीं किया जा सकता है" -- तो यह नामुनासिब है, क्योंकि आप नैयायिक महाशय को भी "आलोकसंयुक्तद्रव्यविपयक चाक्षुप प्रत्यक्ष का कारण आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न चक्षुसंयोग माना जाय या चक्षुसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोग ' इस प्रश्न का प्रत्युत्तर देना ही पड़ेगा । यह दिनिगमनाविरह दोष नैयायिकमत में भी अप्रतिकार्य होने से उपर्युक्त दोष का उद्भावन उसकी ओर से नहीं किया जा सकता । उक्त समस्या के बारे में तो नैयायिक और मीमांसक को 'तेरी भी चुप और मेरी भी चुप' यही उचित है ।
चाँदनी में उल्लूवाक्षुष का स्वीकार ' चंद्रि. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> 'अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न तामसेन्द्रियसंयोग को तामसीय प्रत्यक्ष का
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* चन्द्रिकायां पेचकादः चाक्षुषाभ्युपगमः* | मेवाऽभ्युपेयम् । न च दिवाऽपि तद्ग्रहाऽऽपत्तिः, फलबलात् सौरालोकस्य तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनादित्याहू: ।
ततचा - 'तमः पश्यामी'तिप्रतीतेर्निरालम्बमत्वापत्तेः । अथ 'पश्यामीति विषयता न्यायनये चक्षुःसन्निकर्ष-दोषविशेषयोरिव तामसेन्द्रिय समि
* जयलता * | व्यतिरेकव्यभिचारादित्याशङ्कायां तयाहुः - चन्द्रिकायामिति । पेचकादेस्तु चाक्षुपमेवाऽभ्युपेयमिति । एक्कारेण तामससाक्षात्कारव्यवच्छेदः कृतः । तदानीं, पेचकादे: तामसेन्द्रियजन्यसाक्षात्काराऽनभ्युपगमादेव न व्यतिरेकव्यभिचारावकाश इति भावः । 'तर्हि राकायामिव दिवाऽपि ऐचकादेः पटादिचाक्षुशपत्तिः स्यादिति शङकामपनोदयन्ति - न चेति । तदपाकरणे हेतमावेदयन्ति - फलबलादिति । दिवा पेचकादेतचाक्षषानदयाऽन्यधानपपत्तेः सौरालोकस्य तप्रतिबन्धकत्वकल्पनादिति । पेचकादिवाक्षुषप्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमादिति । चन्द्रालोके सत्यपि पेचकादीनां चाक्षुषोदयान्न तस्य तच्चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं परं सीराब्लोके सति तेषां तदनुदयात सौरालोकस्य तमोक्षष प्रति प्रतिबन्धकत्वमुन्नीयते । इत्यश्च तमसि जायमानं साक्षास्कार प्रति तामसेन्द्रियस्य तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन कारणत्वं फलितमिति तौतातिकैकदेशीयाभिप्रायः ।
ननु 'पश्यामी विज्ञाननिरूपितविषयता चक्षुःसन्निकर्षण नियम्या यथा 'शुक्तिं पक्ष्यामी' त्यादौ प्रमायां, यद्वा दोषविशेषेण नियम्या यथा 'रजतं पश्यामी'त्यादौ भ्रमे । यदि च तमसः तामसेन्द्रियजन्यसाक्षात्कारविषयत्वमुपेयेत तर्हि तस्य चाक्षुषत्वं न स्यात् । न स्याच 'तमः पश्यामी ति प्रतीतेः प्रमात्वम्, 'रजतं पझ्यामी त्यादिज्ञानवत् निरालम्बनस्वादित्याशयेन प्रकरणकार: तीतानिककदेशिमतं दूषयति - तत्तुच्छमिति । 'तमः पश्यामी'ति प्रतीतेः निरालम्बनत्वापत्तेः = निर्विषयत्वप्रसङ्गात् । न चेष्टापनिरिति वक्तव्यम्, सार्वजनीनत्वेन तरया भ्रमत्वा योगात, बाधका भावाच । अत एवातिरिक्ततामसेन्द्रियकल्पनाऽपि प्रत्याख्याता, गौरवात, मानाभावाचेति स्यादाद्याशयः ।
अतिरिक्ततामसेन्द्रियवादिनः साम्प्रतं स्वपक्षं साधयन्ति - अधेति । 'पश्यामीति विषयता = 'पझ्यामी तिप्रतीतिनिरूपितविषयता, न्यायनये चक्षुःसनिकर्ष-दोपविशेषयोरिव तामसेन्द्रियसनिकर्षस्यापि नियम्या, तन्मत इति शेष: । 'शक्ति
कारण मानने पर उल्लू को पूनम की रात में चारों ओर चाँदनी होने पर घटादि का तामसीय साक्षात्कार कैसे हो सकेगा? मगर उल्लू को चाँदनी में घटादि का साक्षात्कार तो होता ही है । इसलिए व्यतिरेक व्यभिचार होगा" - तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उल्लू आदि को चाँदनी में घटादि का जो साक्षात्कार होता है, वह तामसीय नहीं होता है किन्तु चाक्षुप होता है । यदि तामसीय प्रत्यक्ष माना जाय तो कारण के बिना कार्य उत्पन्न होने से व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश होता। मगर तब हम तामसीय प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं किन्तु चाक्षुप प्रत्यक्ष मानने हैं। इसलिए व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि -> "उल्ल आदि को रात में चंद्रालोक (= चाँदनी) होने पर भी यदि घटादि का चाक्षुष साक्षात्कार होता है, तब तो दिन में सौरालोक (= सूर्यप्रकाश) होने पर भी घटादि का चाक्षुप होने लगेगा"- तो बह ठीक नहीं है। क्योंकि दिन में उल्लू आदि को घटादि का चाक्षुप साक्षात्कार नहीं होता है, यह तो सर्वजनविदित होने से उसके रल से सूर्यप्रकाश को उल्लू आदि को होनेवाले चाक्षुष प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक मानते हैं । यदि सूर्यप्रकाश उल्लूचाक्षुप का प्रतिबन्धक नहीं होता, तब तो चन्द्रालोक की भाँति सूर्यालोक होने पर भी घटादि का उल्लू आदि को चाक्षुष होता । मगर होता नहीं है। इसलिए सूर्यप्रकाश को उसका प्रतिबन्धक मानना ही उचित है । मगर अँधेरी रात में उल्लू आदि को जो घटादि का प्रत्यक्ष होता है, वह तो तामसीय (= तामसेन्द्रियजन्य) ही होता है, न कि चाक्षुप । इस तरह हमें भी अन्धकार द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है, वह तामसीय ही होता है, न कि चाक्षुप । अतः नामस इन्द्रिय की कल्पना तर्कसंगत ही है।
A मनोन्द्रियएल्पना अप्रामाणिक - स्यादादी उत्तरपक्ष :- तत्तुच्छम. इनि । प्रकरणकार तौतातिकैकदेशीयमत का खण्डन करते हैं कि - अन्धकार का तामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार मानना असंगत है, क्योंकि तब 'तमः पश्यामि' यानी 'अन्धकार को मैं देखता हूँ' यह प्रतीति निरालम्बन होने की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहती है। आशय यह है कि 'पश्यामि' यह प्रतीति चक्षु इन्द्रिय के कार्यत्व की झापक है, न कि तामस इन्द्रिय के कार्यत्व की । मगर आप मीमांसकदेशीय महाशय उक्त प्रतीति को चाक्षुष नहीं मानते हैं, जो कि मुमकिन है और तामसजन्य मानते हैं, जो कि प्रतीति के आधार पर नामुमकिन है । फलतः उक्त प्रतीति निरालम्बन हो जायेगी यानी भ्रमात्मक हो जायेगी । यहाँ तामसेन्द्रियवादी की ओर से यह कहा जाय कि -> "न्यायमतानुसार 'पश्यामि'
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३५५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ५ - का. * 'पश्यामी'तिविषयतानियामकविचारः *
कर्षस्थाऽपि नियम्या, अव्यवहितोत्तरत्वस्य कार्यतावच्छेदककोटी दानेन व्यभिचाराऽप्रचारादिति चेत् ? न, स्फुटगौरवात; तथापि तामसेन्द्रियेण तमस इव घटादीनामपि पेचकादीना
== गयलत!* पश्यामी' तिप्रतीतिनिरूपितशुक्तिनिष्ठविषयताया निवामकत्वं चक्षुःसन्निकर्षस्य 'रजतं पक्ष्यामी तिप्रतीतिनिष्ठप्रकारिताख्यविषयितानिरूपिताकारताभिधानविषयतायाश्च नियामकत्वं चाकचिक्यादिदोषविशेषस्येति यथा गौतमीयदर्शने प्रसिद्धं तथा 'पश्यामी' तिप्रतीतिनिरूपितविपयताया नियामकत्वं तामसेन्द्रियसन्निकर्षस्याऽपीति मम मतेऽभ्युपगतम् । अत एव 'तमः पश्यामीति प्रतीतेरामास्वं प्रत्याख्यातम् तमोनिष्ठविषयतायाः तामसेन्द्रियसन्निकर्षनियम्यत्वात् । इत्थञ्च चक्षुःसन्त्रिकर्षजन्यज्ञानविषयकानुव्यवसाय इव तामससन्निकर्षजन्यव्यवसायज्ञानविषयकानुव्यवसायेऽपि ‘पश्यामी' तिविषयिताया निराबाधत्वं प्रदर्शितम् । न चैवमपि व्यतिरेकव्यभिचारस्य दुर्निवारत्वं, 'घटं पश्यामी त्यस्याः तामसेन्द्रियसन्निकर्षमृते जायमानत्वात् 'नमः पश्यामी'तिप्रतीतेः चक्षुःसन्त्रिकर्षमन्तरैवोपजायमानत्वादिति वाच्यम्, तामसेन्द्रियसन्त्रिकर्षाव्यवहितोत्तरत्वविशिष्ट प्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति तामससन्निकर्षस्य चक्षुःसन्निकर्धाऽव्यवहितोत्तरत्वविशिष्टप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति च चक्षुःसन्निकर्षस्य कारणत्वमित्यभ्युपगमेन तदश्योगादित्याशयेन तामसेन्द्रियवादिनो वदन्ति - अव्यवहितोत्तरत्वस्येति । तत्तदव्यदहितोत्सरत्वस्य तत्तदभावाकालीनत्वस्येति यावत् । कार्यतावच्छेदककोटी = तत्तत्कार्यतावच्छेदककोटी, दानेन = निवेशेन, व्यभिचाराऽप्रचारात् = व्यतिरेकव्यभिचाराऽसम्भवात् । तामरससन्निकर्षाऽव्यवहितोत्तरत्वशून्यायाः 'घटं पश्यामी' तिप्रतीते: तामससन्निकर्षाऽकार्यत्वेन चक्षुःसन्निकर्षा व्यवहितोत्तरत्वविकलाया: 'तमः पश्यामी'तिप्रतीतेश्च चा:सन्निकर्षाऽकार्यत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारो दुरापास्त इति तामसेन्द्रियवाद्यभिप्राय: |
प्रकरणकार: समाधत्ते - नेति । स्फुटगौरवादिति । नानाकार्यकारणभावकल्पनागौरवात्, कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरगौर. । वाचेत्यर्थ: । यदि च परे फलाभिमुखत्वेन तददोषत्वं सोल्लण्ठं बंदयुः तदा प्रीढिवादेन प्रकरणकृदाह - तथापीति ।
= 'मैं देखता है ऐसी अदीति से मिति निमारमा जैसे चक्षसन्निकर्ष. एवं दोपविशेप से नियम्य है ठीक वैसे ही हमारे मत में तामसेन्द्रियसत्रिकर्ष से भी नियम्य है। मतलब यह है कि 'शुस्तिं पश्यामि' यानी 'मैं शीप को देखता हूँ' इत्याकारक प्रतीति से निरूपित शुक्तिनिष्ट विषयता शुक्ति के साथ चक्षुसन्निकर्प से नियम्य है, चक्षुसम्बन्ध उसका नियामक है । यह हुई प्रमात्मक चाक्षुष साक्षात्कार की विषयता की बात । मगर कभी कभी भ्रमात्मक चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है, जैसे उसी शीप में चाकचिक्य (= चमक) आदि दोपविशेष की वजह 'रजतं पश्यामि' = 'मैं चाँदी को देखता हूँ' ऐसी प्रतीति । इस प्रतीति की विषयता का नियामक चक्षुसन्निकर्प नहीं है, क्योंकि दुकान में रही हुई चाँदी के साथ तब पुरुप की चक्षु इन्द्रिय का सन्निकर्ष नहीं है । उक्त विषयता का नियामक है उपयुक्त दोपविशेष । इस तरह न्यायमतानुस प्रनीति से निरूपित विषयता का नियामक चक्षुसन्निकर्प या दोपविशेप है । मगर हमारे मतानुसार तामसेन्द्रियसत्रिकर्प भी उक्त विषयता का नियामक है । अतः 'तमः पश्यामि' यानी 'में अन्धकार को देखता है। इस प्रतीति से निरूपित विपयता निरालम्बन होने की आपनि नहीं होगी, क्योंकि अन्धकार में उक्त विपयता का नियामक तामसेन्द्रियसंयोग रहता ही है। यद्यपि चक्षुसत्रिकर्ष एवं तामससन्निकर्प को उक्त विपयता का नियामक मानने पर व्यतिरेकन्यभिचार प्रसक्त होता है, क्योंकि 'घट पश्यामि' इस प्रतीति से निरूपित विषयता तामसेन्द्रियसंयोग के बिना एवं 'तमः पश्यामि' इस साक्षात्कार से निरूपित विषयता चक्षुसंसर्ग के बिना ही उत्पन्न होती है। बिना कारण के कार्य का होना ही व्यतिरेक व्यभिचार है तथापि कार्यतारच्छेदकधर्मशरीर में अव्यवहितोत्तरत्व का निवेश करने पर उसका निराकरण हो सकता है । मतलब कि चक्षुसनिकर्षाऽव्यवहितोत्तर प्रत्यक्ष के प्रति चक्षुसन्निकर्य कारण है एवं तामससन्निकर्षाऽन्यदहितोत्तरकालीन प्रत्यक्ष के प्रति तामसेन्द्रियसनिक कारण है, ऐसा मानने पर उक्त व्यभिचार दोप का निवारण हो सकता है, क्योंकि 'घटं पश्यामि' यह प्रतीति चक्सत्रिकर्षाऽन्यवाहितोत्तरकालीन है, जिसका कारण तामसमधिकर्प नहीं है किन्तु चक्षुसनिकर्प है, जो कार्यपूर्वक्षण में विद्यमान है । एवं 'तमः पश्यामि' यह साक्षात्कार तामसेन्द्रियमभिकर्पाऽज्यवहितोत्तरकालिक है, जिसका कारण चक्षुसन्निकर्प नहीं है किन्तु तामसेन्द्रियसन्निकर्प है, जो कार्योत्पाटपूर्वक्षण में उपस्थित है। इस तरह 'तमः पश्यामि' इस प्रत्यक्ष के भ्रमत्व की आपत्ति नहीं है" -
Mसेन्द्रियवादिमत में दोषस्य - स्यादादी न, स्फु. इति । मगर तामसेन्द्रियरादी का उक्त प्रतिपादन इसलिए मान्य नहीं हो सकता है कि उस पक्ष में दो | कार्य-कारणभाव के अंगीकार का एवं कार्यतावच्छेदकधर्मशरीर में तदव्यविहितोत्तरत्व का निवेश करने का महागौरव है । दूसरा .
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तमःस्थघटादिचाक्षुषमञ्जनादिजन्यम् * मिव मानवानामपि प्रतीत्यापत्तेश्च । ___(न च?) विषयतया नरतामसेन्द्रियजन्यज्ञानं प्रति तादात्म्येन तमस: तमस्त्वादेश्च हेतुत्वमिति घटादेस्तादात्म्येन तदधेतुत्वालाऽयं दोषः, अअनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां तु बहलतमे तमसि घटादीनां न तामसेन्द्रियजन्यं ज्ञानं किन्तु चाक्षुषमेव । न चालोकं
= =* जयलता * | चक्षुःसन्निकर्षाऽव्यवहितोत्तरकालीनप्रत्यक्षं प्रति चक्षु:सत्रिकर्षस्य तामससन्निकर्षाऽव्यवहितोत्तरकालिक प्रत्यक्ष प्रति च तामससत्रिकर्षस्य ,हेतुत्वमिति गुरुतरकार्यतावच्छेदकधर्मंघटितकार्यकारणभावयागीकारेऽपीत्यर्थः । तामसेन्द्रियेणेति । यधा पेचकादीनां तामसेन्द्रियेण रात्री तमस इव घटादीनामपि प्रत्यक्षं भवति तथा मनुष्यायामपि तेन तमस इव घटादीनामपि साक्षात्कार: स्यात्, तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामसेन्द्रियसन्निकर्षस्याऽबाधात् । न च मनुष्यतामसेन्द्रियसंयोग तमस्येव न तु घटादाविति वक्तं शक्यने, अर्धजरतीयप्रसड़गात, पेचकादीनामपि तद्वदेव तामसेन्द्रियेण रात्री घटादिसाक्षात्कारप्रसड़गाचेति स्याद्वाद्याशयः ।
परे एतद्दोषपरिजिहीर्षवा बदन्ति - अधेति । विषयत्तयेति । अनेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धः प्रदर्शितः । नरतामसेन्द्रियजन्यज्ञानं = मानवीयतामसेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षत्वावन्छिन्, प्रति तादात्म्येन तमसः समवायेन तमस्त्यादेश्व हेतुत्वमिति हेतोः घटादेः तादात्म्येन घटत्वादेश्व समवायेन ता = विषयताजन नराली गजलक्षे, अहेतुत्वात् नाऽयं दोषः = न मनुष्याणां तामसेन्द्रियेण घटादिसाक्षात्कारप्रसङ्गः । तमसि तादात्म्येन तमसः समवायेन तमस्त्वस्य च सत्त्वात् तत्र विषयतासम्बन्धेन नरतामसजन्यसाक्षात्कारो भवितुमर्हति परं घटादौ तादात्म्येन तमसः समवायेन तमस्त्वस्य चाइसत्वान्न तत्र विषयतासम्बन्धेन नरतामसजन्य प्रत्यक्षमुत्पत्नुमहंतीति तामसेन्द्रियवाद्यभिप्रायः ।
नन्येवमञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां रात्री तामसेन्द्रियेण घटादिप्रत्यक्षं कथं स्यात् विषयतासम्बन्धेन साक्षात्काराधिकरणे घटादौ । तादात्म्येन तमसः समवायेन तमस्त्वस्य च विरहादित्याशङ्कामपनोदयन्ति तामसेन्द्रियवादिनः - अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुपामिति । घटादीनां न तामसेन्द्रियजन्यं ज्ञानं = प्रत्यक्षं किन्तु चाक्षुषं = चक्षुरिन्द्रियसंयोगजन्यं एव । तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नतमस्त्वावन्छिन्नकारणतया समवायावच्छिन्न-तमस्त्वत्वावच्छिन्नकारणतया निरूपितायाः कार्यताया अवच्छेदकत्वस्य तामसीयप्रत्यक्षत्वस्य अञ्जनादिसंस्कृतनेत्राणां घटादिचाक्षुषे विरहान्न व्यतिरेकन्यभिचारावकाश इति तेषामाशयः । न चेति । वाच्यमित्य -
दोष यह है कि 'तुप्यतु दुर्जनः' इस न्याय से 'चक्षुसन्निकर्पाऽव्यवहितोत्तर प्रत्यक्ष के प्रति चक्षुसन्निकर्ष कारण है एवं तामससनिकांऽव्यवहितोत्तरकालीन प्रत्यक्ष के प्रति तामसेन्द्रियसत्रिकर्ष कारण है। इस तरह गुरुतर दो कार्यकारणभाव को मान्य किया जाय तो भी यह आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहती है कि जैसे उल्लू आदि को रात में अन्धकार का एवं घटादि का तामसीय साक्षात्कार होता है वैसे मनुष्य को भी रात में अन्धकारसंयुक्त घटादि का तामस दुनिय से साक्षात्कार होना चाहिए । 'मनुष्य के पास तामसेन्द्रिय नहीं है' ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तामसेन्द्रियबादी के मतानुसार मनुष्य को अन्धकार का तामस इन्द्रिय से ही साक्षात्कार होता है । अतएव अन्धकार की भाँति घटादि का भी तामस इन्द्रिय से मनुप्य को साक्षात्कार होना चाहिए ।
नुष्यतामसीय प्रत्यक्ष में अन्यकारहेतुता - पूर्वपक्षपूर्वपक्ष:- ाथ विष. इति । मनुष्य को तामस इन्द्रिय से घटादि का साक्षात्कार नहीं होता है, इसके अनुरोध से हम तामसेन्द्रियवादी इस तरह कार्य-कारणभाव का स्वीकार करने हैं कि विपयतासम्बन्ध से मानवीयतामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार एवं समवाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व कारण है । मनुप्य को अन्धकार का प्रत्यक्ष तामस इन्द्रिय से हो सकता है, क्योंकि विषयतासम्बन्धात्मक कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध से अन्धकारप्रत्यक्ष के, जो मनुप्यतामसेन्द्रियजन्यत्वरूप से अभिमत है, आश्रय अन्धकार में तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार एवं समवायसम्बन्ध से अन्धकारत्व रहते हैं। कार्याधिकरणविधया अभिमत में कारणतावच्छेदकसम्बन्ध से कारणसामग्री के रहने पर कार्योत्पाद होना न्याय्य है। मगर मनुप्य को अन्धकार में घटादि का ताममेन्द्रियजन्य साक्षात्कार नहीं हो सकता, क्योंकि विपयतासम्बन्ध से कार्याधिकरणविधया अभिमत घटादि में न तो तादात्म्यसम्बन्ध से अन्धकार रहता है और न तो समयाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व रहता है। कारण का अभाव होने पर कार्यजन्म का आपादन कैसे किया जा सकता है ? आपादक के विरह में आपादन नहीं किया जा सकता । यहाँ यह शंका हो कि -> "यदि विषयता सम्बन्ध से मानवीयतामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार
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३५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * अअनादेः चाक्षुषसहकारित्वविचारः * | विना कथं तदानीं तेषां तच्चाक्षुषमिति वाच्यम्, आलोकस्येवाऽसनादेरपि चाक्षुषजनने चक्षुषः । पृथक्सहकारित्वात् ।। अअनादिसंस्कृतवक्षुष एवाऽऽलोकाऽजन्यचाचणे हेतुत्वात् अजनादेर्हेतुतावच्छेदकत्व
-=-=---* गयला = नेनाऽन्वयः । आलोकं बिना कथं तदानीं = बहलतमतम: काले, तेषां = अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां, तच्चाक्षुपं - घटादिचाक्षुषं ? द्रव्यचाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतृत्वान्न तदा घटादिचाक्षुपं नेषां भवितुमर्हनीति शङ्काशयः । तदपाकरणे परे हेतुमुद्योतयन्ति - आलोकस्येवेति । अञ्जनादेरपि चाक्षुषजनने चक्षुषः पृथक्सहकारित्वादिति । यथाऽलोककालीनचाक्षुषं प्रति आलोकस्य तत्सहकारिकारणत्वं तथा अनादिकालीनचाक्षुपं प्रति अञ्जनादे; तत्सहकारिकारणत्वम् । अत एवाड| अनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां बहलतम तमसि घटादिचाक्षुषोदयेऽपि न न्यतिरेकव्यभिचार :; आलोकस्या अनादिकालीनचाक्षुषं प्रत्यहेतुत्वादिति तौतातिककदेशीयाभिप्रायः ।
अत्रैव केषाञ्चिन्मतमपहस्तयितुमुपदर्शयन्ति - अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुप एवेति । एवकारेण चाक्षुषे अनादेः चक्षुःसहकारिकारणत्वव्यवच्छेदः कृतः । आलोकाऽजन्यचाक्षुषे हेतुत्वादिति । आलोकाऽकालीनचाक्षुषोदये कारणत्वादिति । अञ्जनादेः हेतुतावच्छेदकत्वमेवेति । चक्षुषोऽञ्जनादेश्च पृथक् चाक्षुषकारणत्वमिति नाऽङ्गीक्रियते किन्तु अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषः एच चाक्षुषकारणत्वं, अञ्जनादिकं तु कारणतावच्छेदककोटी प्रविष्टमिति घटं प्रति दण्डत्वादेरिय तस्या न्यधासिद्धत्वमिति बहलतमे | नमसि अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां बटादिवाक्षुषोदये पि न कश्चिदोषः, तस्यालोकाः जन्यत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारनिरासादिति भावः । 'केचिदिति । आहुरिति गम्यते ।
एवं समवायसम्बन्ध से अन्धकारत्व जाति को कारण माना जाय तब अंजनादि से संस्कृत नेत्र वाले चीर आदि मनुष्य को रात में घटादि का तामस इन्द्रिय से साक्षात्कार कैसे हो सकेगा ? क्योंकि विपयता सम्बन्ध से कार्याधिकरणविधया अभिमत घटादि में न तो तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार रहता है और न तो समवाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व जाति रहती है। अन्धकार से घटादि अभिन्न नहीं है किन्तु भिन है- यह तो सर्वजनविदित है । वस्तुस्थिति तो यह है कि अंजनादिसंस्कृत चक्षु वाले चौर आदि मनुष्य को अन्धकार में भी घटादि का साक्षात्कार होता है । कारण के बिना ही इस तरह कार्योत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार दुर्निवार होगा" <
* आंजनादिसंस्कार से सात में घटादि का शुष ही होता है - पूर्वपक्ष गारी *
अञ्जना. इति । तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्धकार में अंजनादिसंस्कारयुक्त चक्षु से चौर || आदि को घटादि का चाक्षुप साक्षात्कार ही होता है, न कि तामसीय साक्षात्कार । यदि तब तामसेन्द्रियसभिकर्पजन्य साक्षात्कार
का स्वीकार किया जाय तो व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश होता । मगर अन्धकार में अंजनादि के सहयोग से चौर आदि । को घटादि का चाक्षुप ही होता है। इस तरह कारण के विरह में तामसीय साक्षात्कार की उत्पत्ति अमान्य होने से व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है। अनः विषयतासम्बन्ध से नरतामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार एवं समवाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व को कारण मानने में कोई दोष नहीं है । यहाँ यह शंका हो कि → “अँधेरी रात
र आदि को घटादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? क्योंकि चाक्षप प्रत्यक्ष के प्रति आलोक चक्षु का सहकारी कारण है । अतः उसके विरह में चाक्षुपात्मक कार्य की उत्पनि नहीं हो सकती" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे आलोक चाक्षुषप्रत्यक्षोदय के लिए चक्षु का सहकारी कारण है वैसे अंजनादि भी स्वतंत्र सहकारी कारण है। मतलब यह है आलोककालीन चाक्षुष के प्रति आलोक एवं अंजनकालीन चाक्षुप के प्रति अंजन चक्षु का सहकारी कारण है। इसलिए अंजनादि के सहकार से चौर आदि को अंजनादिकालीन घटादिवानुष गाढ अन्धकार में होने पर व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है।
अंजनादि में चाक्षुषकाःणतावर कदम ipl निराकरण ____ अंज. इति । अमुक विद्वान मनीपियों का यह कथन है कि -> "अंजनादि चाक्षुप के स्वतंत्र सहकारी कारण नहीं i| है, किन्तु कारणतावच्छेदक है । वह इस तरह . 'आलोकाऽकालीन यानी आलोकाऽजन्य चाक्षुष के प्रति अंजनादिसंस्कृत
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___ * अपरमताऽस्वरसबीजाऽऽवेदनम् * || मेवेति केत्तित् । तन, अझनाद्यभावाऽकालीनचाक्षुषं प्रति स्वसंस्कृतचक्षु:संयोगसम्बन्धेनाज
नादर्हेतुत्वस्यौचित्यादिरापरे । तथा च न तत्र व्यभिचार इति चेत् ? न, एवं सति नानाकार्यकारणभावकल्प महागौरवात् ।
= = = = == जयलवा *======
तन्नेति । 'अपरे' इत्यनेना स्याऽन्वयः । दर्शितकेचिन्मताऽयुक्तत्वे हेतुमाविष्कुर्वन्ति । अञ्जनायभावाऽकालीनचाक्षुषं || = अञ्जनायव्यवहितोत्तरकालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति स्वसंयुक्तचक्षुःसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेनाऽअनादे: ग्रहणम् । तत्संयुक्त| स्य चक्षुषः संयोगो यस्मिन् घटादिविषयदेशे तत्रोक्तसम्बन्धेनाऽअनादेः सत्त्वं तत्रैव च विषयतासम्बन्धेन घटादिचाक्षुषस्या
अनाद्यव्यवहितोत्तरकालीनस्याऽञ्जनादिसंस्कृतचक्षुः समवेतस्य सत्वमिति कार्यकारणसामानाधिकरण्योपपत्निः । अञ्जनादेहेतुत्वस्यौचित्यादिति । कारणतावच्छेदकधर्मलाघवादीचित्यं भावनीयम, अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुष्ट्वाऽपेक्षयाऽजनत्वादेलाचादिति । 'अपरे' इत्यनेन स्वाऽस्वरसोद्भावनं कृतम्, धर्मगौरवस्येव सम्बन्धगौरवस्याऽपि सदोषत्वात्, चक्षुषः कारणतावच्छेदककोटिप्रविष्टत्वेना:न्यधासियापत्ते, विनिगमनाविरहाच ।
तथा चेति । आलोकस्येवाऽअनादेरपि चाक्षुषजनने चक्षुषः पृथक् सहकारित्वाऽभ्युपगमाचेति । चशब्देन नरनाम. || सेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षं प्रति तादात्म्येन तमसः समवायेन तमस्त्वादेश्च हेतुत्वाऽभ्युगमोऽत्र समुच्चीयते । न तत्र व्यभिचारः इनि ।
अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां मनुष्यतस्करादीनां बहलत मेऽपि तमसि घटादीनां चाक्षुषे न व्यतिरेकन्यभिचारो न वाऽस्मदीयतामसेन्द्रियेणाऽन्धकारस्थघटादिप्रत्यक्षेऽन्वयन्यभिचार इति तामसेन्द्रियवादिनोऽभिप्रायः ।
प्रकरणकार: तामसेन्द्रियवादिमतं निरस्यति - नेति । एवं सतीति । अतिरिक्ततामसेन्द्रियाऽभ्युपगमे सतीति । नाना| कार्यकारणभावकल्पने महागौरचादिति । चक्षुःसन्त्रिकर्षाऽव्यवहितोत्तरकालीनप्रत्यक्ष प्रति चक्षुःसन्निकर्षस्य कारणत्वं, तामसंन्द्रिय
सनिकर्षा व्यवहितोत्तरकालिकप्रत्यक्ष प्रति तामससन्निकर्षस्य कारणत्वं, विषयतासम्बन्धेन नरतामसेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षं प्रति तादात्म्येन | तमसः समवायेन तमस्त्वादेश्च कारणत्वं, आलोकाइभावाऽकालीनचाक्षुषोदये आलोकस्याऽअनाद्यभावाऽकालिकचाक्षुषोदये चार
अनादेः चक्षुःसहकारिकारणत्वं, तम:संयुक्तद्रव्यप्रत्यक्षं प्रति च तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामससंयोगस्य कारणत्वमित्याद्यनेकविधकार्यकारणकल्पने महागौरवादित्यर्थः । न च तस्य फलमुखत्वेनाऽदोषत्वमिति वाच्यम्, तामसेन्द्रियकल्पनाऽविनाभाविनः तस्य पूर्वमेवोपस्थिते:फलमुखत्वाऽयोगात् ।।
किच, भित्त्यादेः पुरोवर्येकभागावच्छेदेनाऽलोकसंयोगबनोऽपरपुरोवर्तिभागावच्छेदेन च तम:संयोगवतः चक्षुःतामसेन्द्रियसंयोगाभ्यां युगपद्ग्रहणानुपपत्तिः, बहिरिन्द्रियद्यजन्यलौकिकसाक्षात्कारविषयताया युगपद् बहिरिन्द्रियद्वयजन्यत्वाऽयोगात् । न च क्रमिकत्वमेव तज्ज्ञानयोः, योगापद्यप्रत्ययस्य शतपत्रशतपत्रीवेधन्यतिकरण भ्रमत्वादिति बक्तव्यम्, तम:संयोगावच्छेदका
= - = - =चक्षु ही कारण है ऐसा कार्य-कारणभाव मानने पर अंजनादि कारणतावच्छेदक धर्म के घटक होने से कारणतावच्छेदक ही बनेगे, न कि कारण । अतः अंजनादिसंस्कृत आँख से चौर आदि को अन्धकार में आलोकाऽकालिक घटादिविषयक चाक्षुप प्रत्यक्ष हो सकता है।" - मगर अन्य विद्वानों का उक्त मत के प्रतिवाद में यह कहना है कि → “आलोकाऽकालीन द्रव्यचाक्षुप के प्रति अंजनादिसंस्कृत चक्षु को कारण मानने पर कारणतावच्छेदक धर्म अंजनादिसंस्कृतचक्षुटव होगा जो गुरुतर है। इसकी अपेक्षा अंजनायभावाऽकालीन चाक्षुप के प्रति स्वसंस्कृतचक्षुसंयोग सम्बन्ध से अंजनादि को ही हेतु मानना उचित है, क्योंकि तब कारणताअवच्छेदक धर्म अंजनत्व आदि बनेगा जो अंजनादिसंस्कृतचक्षुष्ट्य की अपेक्षा लघुतर है" -। उक्त मत-मतान्तर के बारे में अधिक चर्चा करना हम तामसेन्द्रियादी को यहाँ उचित नहीं लगता है। मगर हमारा आशय यह है 'अंजनादि भी आलोक की भाँति चाक्षुष के प्रति चक्षु का सहकारी कारण है एवं नरतामसेन्द्रियजन्यसाक्षात्कार के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार तथा समवाय सम्बन्ध से अन्धकारव जाति कारण है' ऐसा मानने पर व्यतिरेक व्यभिचार दोष का अवकाश नहीं है।
ॐ तामसेन्द्रियपदा में महागौरत - उत्तरपक्ष ॐ उत्तरपक्ष :- नवं. इति । तामसेन्द्रियवादी का उक्त कयन मान्य नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनेक कार्य-कारणभाव के अंगीकार का महागौरव होता है। वह इस तरह . (१) अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न तामसेन्द्रियसंयोग |१. अनादिसंस्कृतमधु: पदेना व बहुव्रीहिसमाराश्रयणानादातरकरादिग्रहणमभिममिति पेयम् ।
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३५९ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्डः २ का ५ * द्विविधयोग्यताप्रतिपादनम्
वस्तुत: सामान्यत एका चाक्षुषजननी योग्यताऽपरा च तम: संयुक्तचाक्षुषजननी । तत्र पेचकादीनां दिवा न चाक्षुषं मानवानाथ नक्तं न घटादिचाक्षुषमित्यत्र स्वभाव एव शरणम् । न चैवं स्वभाववादिमतप्रवेशः, समवायाऽभ्युपगमे तदऽप्रवेशात् ।
* जयलता -
वच्छिन्नतामससंयोगस्याऽऽलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुः संयोगस्य चैकदा सत्त्वे बाधकाभावात् आलोकसंयुक्तभित्तिप्रत्यक्षस्य तमः संयुक्तभित्त्यनुव्यवसायसमये विनष्टत्वेन 'आलोकतमः संयुक्तां भित्तिं पश्यामी' त्यनुव्यवसायानुपपत्तेश्व । न च क्रमिकज्ञानाऽऽहितसंस्काराभ्यां जनितायां समूहालम्बनस्मृतावेवाऽनुभवत्वारोपात्तथानुव्यवसायो यथा पञ्चवधानस्थल इति वाच्यम्, उपेक्षात्मकतज्ज्ञानतस्तादृशस्मृत्यसम्भवात् तव लौकिकसन्निकर्षजन्यज्ञानस्यैव विषयतया 'साक्षात्करोमी' त्यनुष्यवसायजनकत्वाच्च । न च भिन्नाऽधिष्ठानयोरिन्द्रिययोरेव युगपज्ज्ञानाऽजनकत्वान्नायं दोष इति शङ्कनीयम्, चक्षुःश्रवसोऽपि युगपञ्चाक्षुष - श्रावणयोः प्रसङ्गात् । न चेष्टापत्तिरिति वाच्यम्, सर्वत्रैव तथा वक्तुं शक्यत्वेन मनउच्छेदापत्तेः ।
किञ्च, तमःसंयुक्तद्रव्यग्राहकत्वं तमः संयोगावच्छेदकाऽवच्छिन्नतामसेन्द्रियसंयोगस्य यदुत तामसेन्द्रियसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नतमः संयोगस्य ? इत्यत्र विनिगमकाऽभावः परस्यापरिहार्य एव । न च तवाऽपि आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुः| संयोगस्य आलोकसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषकारणत्वमाहोस्वित् चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगस्य ? इत्यत्र साम्यमित्युद्भिरणीयम्, मन्मते चक्षुषोप्राप्यकारित्वेन योग्यताया एव तन्नियामकत्वात् । इत्थमेव मन्दतमे तमसि घटादिचाक्षुषमप्युपद्यत इत्याशयेन प्रकरणदाह - वस्तुत इति । सामान्यत एका चाक्षुपजननी योग्यतेति । योग्यतायाः चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्व| मित्यर्थः । अपरा च योग्यता तमःसंयुक्तचाक्षुपजननीति । योग्यताविशेषस्य च तमः संयुक्तद्रव्यगोचरचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वमित्यर्थः । अत एव निर्मलचक्षुषां मन्दतमः संयुक्तघटादिचाक्षुषं योग्यताविशेषाज्जायते । सामान्ययोग्यतातश्च तमोऽसंयुक्तघटादिचाक्षुषमुपजायते ।
ननु योग्यताविशेषात्पेपकादीनां तमसि घटादीनां यथा चाक्षुषमुपजायते तथा दिवाऽपि कथं तन्न भवति, विशेषस्य सामान्याऽविनाभावित्वादित्याशङ्कायामाह तत्रेति । पेचकादीनां दिवा न चाक्षुषं मानवानाश्च नक्तं न घटादिचाक्षुष - मित्यत्र स्वभाव एव शरणमिति । स्वभावस्य चाडपर्यनुयोज्यत्वात् । अत एव पेचकादीनां कुतोऽयमेव स्वभावो यदुत तेषां रात्रावेव घटादिचाक्षुषमुपजायते न तु दिने तथा मानवानां कस्माद्धेतोरेवं स्वभावो यद् दिवैव तेषां घटादिवाक्षुषोत्पादन तु निशायां ? इति प्रत्युक्तम् । तदुक्तं कः कण्टकानां प्रकरोति क्षम्यं ( ) इत्यादि । ' तर्हि भवतामेकान्तस्वभाववादिमतप्रवेशो दुर्निवार' इति पराशङ्कापनोदयति - न चेति । एवं स्वभावाश्रयणेनोक्त पर्यनुयोगपरिहारे, स्वभाववादिमतप्रवेशः = एकान्तस्वभाववादिमताऽऽपातः । तदपाकरणे हेतुमाह समवायाऽभ्युपगम इति । स्वभावेतरकर्म-काल- पुरुषकारादिकारणकलापाऽभ्युपगमे इति । तदप्रवेशात् एकान्तस्वभाववादिमताऽप्रवेशात् । पञ्चकारणसमुदायाऽङ्गीकारेण
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को अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविपयक प्रत्यक्ष का कारण मानना (६) नरतामसेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष के प्रति तादात्म्य संबन्ध से अन्धकार और समवाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व को कारण मानना (३) आलोककालीन चाक्षुष के प्रति आलोक को चक्षुसहकारी कारण मानना ( ४ ) अंजनादि के अव्यवहित उत्तर काल में होने वाले प्रत्यक्ष (चाक्षुष) के प्रति अंजनादि को चक्षुसहकारी कारण मानना... इत्यादि अनेकविध कार्य कारणभाव तामसेन्द्रिय की कल्पना करने पर मान्य करने पड़ेंगे, जिसमें महागौरव स्पष्ट ही है । वस्तुस्थिति तो यह है कि दो प्रकार की योग्यता ही दो प्रकार के चाक्षुप की जनक होती है । एक सामान्य योग्यता ऐसी है जो कि चाक्षुपसामान्य का कारण है । अर्थात् कारणतावच्छेदक योग्यतात्व एवं कार्यतावच्छेदक राक्षुषत्व बनता है। तभा दूसरी विशेष योग्यता वह है जो कि अन्धकारसंयुक्त द्रव्य के चाक्षुप साक्षात्कार की जनक है । यहाँ कारणतावच्छेदक धर्म विजातीययोग्यतात्व और कार्यतावच्छेदक धर्म अन्धकारसंयुक्तचाक्षुत्व है । उल्लू आदि में विशेष योग्यता होने से उन्हें | गाढ अन्धकारस्थित घटादि का चाक्षुष होता है और विजातीय योग्यता का विरह होने से हमें अमावास्या रात्रि के घने अन्धकार में घटादि का चाक्षुप नहीं होता है । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि उल्लू आदि को रात को घटादि का चाक्षुप होने पर भी दिन में उसका चाक्षुष नहीं होता है तथा मानव को दिन में घटादि का चाक्षुप होता है मगर रात में गाढान्धकारस्थ घटादि का चाक्षुष नहीं होता है इस विषय में स्वभाव ही कारण है । एक पौधे पर पैदा होने पर भी काँटे तीक्ष्ण क्यों होते हैं और गुलाब का फूल कोमल क्यों होता है ? इसका समाधान स्वभावविशेष को छोड़ कर अन्य क्या हो सकता है ? यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि "स्वभाव का आलम्बन लेने पर तो एकान्तस्वभावबादी के मत में अनेकान्तवादी
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* पट्टाभिराममतयोतनम्
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बहिरिन्द्रियजन्यज्ञाने उपनीतस्य विशेषणत्वमेव मानसे तु विशेष्यत्वमपीत्यादी परेणाऽपि स्वभावस्याऽवश्यमाश्रितत्वात् ।
ॐ जयलता
साहादानतिक्रमात् क्वचित् कदाचित् कस्यचित्प्राधान्यं तदितरेषाञ्चाऽप्राधान्यमित्यन्यदेतत् । नैतावतैवैकान्तवादाऽभ्युपगमः, | तदितरसापेक्षत्वेनैकान्तवादप्रच्यवादित्याशयः । स्वभावाश्रयणं न केवलमस्माकं स्याद्वादिनामेव किन्तु परस्याऽपीति दृढयति बहिरिन्द्रियजन्यज्ञान इति । बहिष्वं मनोभिन्नत्वमिति मनोभिनेन्द्रियजन्यसाक्षात्कारे इत्यर्थः । उपनीतस्येति । ज्ञानलक्षणसन्निकर्षेणोपस्थापितस्येति । पट्टाभिरामशास्त्री तु 'उपनीतः = ज्ञानलक्षणाश्रयः तत्रिष्ठं भानं उपनीतभानम् । भानशब्दश्व विषयतापर:, 'अयं घट' इति ज्ञाने 'घटो भाति' 'घटो भासते' इत्यादी भाति भासतिभ्यां विषयताया एवं प्रत्यायनात् । एवञ्च ज्ञानलक्षणजन्यतावच्छेदकीभूताऽलौकिकविषयताविशेषस्य उपनीतभानमिति सञ्ज्ञा (मु.मभू. पू. २३५) इत्युक्तवान् विशेषणत्वमेवेति । एवकारेण विशेष्यत्वव्यवच्छेदः कृतः । यथा 'सुरभि चन्दनमि' ति बहिरिन्द्रियजन्यज्ञाने चन्दनविशेषणविधयैव ज्ञानलक्षणसन्निकर्षेणोपस्थापितस्य सौरभस्य भानं भवति । न च सौरभस्योपनीतत्वमेव कथमिति वक्तव्यम्, सौरभेण सह चक्षुषो लौकिकसन्निकर्षाऽभावेन सौरभत्वप्रकारतानिरूपितसौरभत्वाश्रयकिञ्चिनिष्ठलौकिकविशेष्यताशालिचाक्षुषाऽप्रसिद्धया तादृशचाक्षुषजनक भग्रूयाः सुतरामप्रसिद्धत्वेन तत्समानकालीनसामान्यप्रत्यासत्तेरभावात् सौरमे मानसान्यप्रत्यक्षनिरूपितविषयत्वासम्भवात् । यद्यपि सामान्यलक्षणयाऽपि प्रत्यासत्त्या सौरभमानं सम्भवति तथापि सौरभत्वजातिभानं ज्ञानलक्षणयैवेति भावनीयम । मानसे त्विति । 'उपनीतस्ये' त्यत्राऽप्यनुवर्त्तते तुर्विशेषणार्थ: । तदेवाऽऽह्- विशेष्यत्वमपीति । अपिना विशेषणत्वं समुच्चीयते । तथाहि 'ज्ञातो घट:' इति मानसप्रत्यक्षे उपनीतभानविषयस्य ज्ञानस्य विशेषणविधया घटस्य च विशेष्यविधया भानं, 'ज्ञानविषयो घट:' इति तदर्थात् । 'मयि घटज्ञानं' इति आत्मप्रकारक घटविषयकज्ञानविशेष्यक्रमानसे उपनीतस्य ज्ञानस्य विशेष्यविधया घटस्य च तद्विशेषणविधया भानं भवति । 'घटज्ञानवानहमिति मानसे उपनीतभानगोन्वरस्य ज्ञानस्य विशेषणविधया घटस्य च विशेषणतावच्छेदकविधया भानं भवति । बहिरिन्द्रियजन्यज्ञाने तूपनीतस्य न कदापि विशेष्यविधया मानमित्यत्र परेण एकान्तवादिना, अपि स्वभावस्याऽवश्यमाश्रितत्वादिति । एतेन स्वभावस्य हेतुत्वे न किञ्चिदपि दुर्वचमिति 'स्वभावादेव पेचकादीनां दिवा न चाक्षुषं मानवानां च नक्तं ने 'त्यसम्यगुत्तर इति प्रत्युक्तम्, 'स्वभावादेव बहिरिन्द्रियजन्यज्ञाने उपनीतस्य विशेषणत्वमेव मानसं तु विशेषत्वमपी' त्यत्राऽपि प्रकृतपर्यनुयोगस्य समत्वादिति यत्किञ्चिदेतत् ।
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का प्रवेश हो जायेगा" <- क्योंकि हम स्वभाव को कारण मानने पर भी अदृष्ट (= पुण्य-पाप कर्म) }, काल आदि अन्य कारण का अपलाप नहीं करते हैं। पाँच कारण के समुदाय (= समवाय) का अभ्युपगम करने से न तो स्वभावबादी के एकान्तमत में प्रवेश होगा और न तो अनेकान्तवाद का त्याग होगा । समझे 11
परमत में भी स्वभाव का आश्रय अनिवार्य स्याद्वादी
बहिर इति । यहाँ यह कहना कि
"किसी प्रश्न के प्रत्युत्तर में स्वभाव का आलम्बन करने में कोई तर्क नहीं होने से 'उल्लू आदि को स्वभावविशेष की वजह दिन में घटादिचाक्षुष नहीं होता है और स्वभावविशेष की वजह मनुष्य को रात में गाढान्धकारस्थ घटादि का चाक्षुष नहीं होता है' यह कथन स्वीकार्य नहीं हो सकता" - ठीक नहीं है, क्योंकि एकान्तवादी को भी स्थलविशेष में स्वभाव का आश्रय लेना ही पड़ता है । वह इस तरह 'वहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में उपनीत = ज्ञानलक्षणसन्निकर्षभास्य का विशेपणविधया ही भान होता है जब कि मानस साक्षात्कार में उपनीत का विशेषणविधया और विशेष्यविधया भी भान होता है' इस एकान्तवादी की मान्यता - सिद्धान्त में स्वभाव का ही आश्रय लिया गया है, क्योंकि बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में उपनीत का विशेष्यविधया भान क्यों नहीं होता है ? तथा अभ्यन्तर इन्द्रिय = मन में जन्य ज्ञान में उपनीत का विशेषणविधया ही भान क्यों नहीं होता है ? इस प्रश्न के समाधान में एकान्तवादी को यही कहना पड़ेगा कि 'इस विषय में स्वभावविशेष ही कारण है' । 'सुरभि चन्दनं' इस चाक्षुप प्रत्यक्ष में सुरभि ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से उपनीत है, जो विशेप्यभूत चन्दन के विशेषणरूप में ही भासित है, न कि विशेष्यरूप में मानस प्रत्यक्ष की तो बात ही अलग है । 'मया ज्ञातो घटः' यहाँ उपनीत घट का ज्ञान के विशेष्यरूप में भान होता है, क्योंकि 'मत्समवेतज्ञानविपयो घट:' ऐसा उक्त प्रतीति का विश्लेषण होता है । इसलिए इस मानस साक्षात्कार में उपनीत घट का विशेष्यविधया भान होता है । तथा 'मपि घटज्ञानं' इस मानस साक्षात्कार में ज्ञान विशेष है और उसके विशेषणविधया उपनीत घट का भान होता है एवं 'घटज्ञानवान् अहं' इस मानस साक्षात्कार में ज्ञान का विशेषण उपनीत घट है और 'अहं' का विशेषण पटज्ञान
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२६१ मध्यमस्याद्वादरहस्य खगरः २ - का. *स्वभावपक्षानपणविमर्शः * || सर्वज्ञानस्वभावस्य चात्मनः तत्तदेश-तत्तत्काल-तत्तदविषयाद्याश्रित्य विचित्रज्ञानावरण- | || क्षयोपशमवशाद विचित्रज्ञानोत्पत्तो को वा विस्मय: स्यान्दादास्वादसुन्दरीधयाम् ? न ज्ञानस्वभावत्वमेवात्मनः कथमिति चेत् १ द्रव्यत्वेन गुणस्वभावत्वसिन्दो पारिशेष्या- || ।' दिति बूमः ।
= =* जायला *॥ ननु सुहृद्भावेन वयमापृच्छामो यदुत पेचकादीनां कुतोऽयमेव स्वभावो यद् दिवा ते न पश्यन्ति ? मानवानाञ्च कुतोऽयं स्वगावो यत्ते नक्तं न पश्यंति ! नश्वेतश्चमत्कारकारीदं समिति पराडकायां प्रकरणकारः प्राह - सर्वज्ञानस्वभावस्य चाऽऽत्मन इति । सर्वं ज्ञातुं स्वभावो यस्य स तथा. तस्य आत्मन इति । 'आत्मनः सर्वज्ञानस्वभावत्वे कुतः सर्वेषामात्मनां सर्वदा सर्ववस्तुगीचरज्ञानं न प्रादुर्भवती'त्याशड़कायामाह - तत्तद्देशेति । पेचकादीनां भवप्रत्यायको यं ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम: यन्महिम्ना ते दिवा न पश्यन्ति किन्तु निशायामेव । प्राकृतमानवानां चैवंविधा ज्ञानावरणक्षयोपशमो यद्वशात्सामान्यत:ते बहलतमें तमरि घटादिकं न प्रेक्षन्ते । अञ्जनादिद्रव्यविशेषमासाद्य गुर्वनुग्रह-शक्तिपातादिकं वा प्राप्य तथाविधः क्षयोपशमस्तंषामयोपजायते यद्भलादन्धतमस्यपि घटादिकं निहितनिध्यादिकञ्च तेऽवलोकन्ते अनाद्यपनयने तु नेति । दृश्यते हि साम्प्रतं मन्दतमनयना अपि पुरुषा बहिर्गोलकान्तर्गौलककाचनिर्मितयन्त्रविशेषाऽऽहितक्षयोपशमपाट्वेन सूक्ष्माक्षरादिकमीक्षमाणाः । ज्ञानावरणक्षयोपशमवैचित्र्यप्रयुक्तज्ञानवैचित्र्यज्ञातवतां को वा विस्मयः स्याद्वादास्वादसुन्दरधियां ? एकान्तवादविषयविषपानविगलित - ।' बुद्धीनामप्राप्तसर्वज्ञप्रवचनानामेव तत्राश्चर्यं न त्वनेकान्तबादमीमांसामांसलमतीनामस्माकमिति भावः ।।
पर: शकते - ज्ञानस्वभावलगेगा: मनः को रिसिद र सर्पशागस्वभावस्या उत्मनः' इत्यादिकं भवदुक्तं सर्वमेय बन्ध्यास्तनन्धयशृङ्गारसहोदरमामातीति शड़काशयः । तत्र समाधान .. द्रव्यत्वेन गुणस्वभावत्वसिद्धाविति । 'गुणपर्यायत्रद् द्रव्य (तत्त्वा. ५/३७) इति सूत्रेण द्रव्यत्वावच्छेदेन गुणपर्यायस्वभावत्वस्य साधनात् आत्मनो द्रव्यत्वानद्व्यापकगुणस्व. भावत्वं निरानाधम । तथापि ज्ञानस्वभावत्वसिद्भिः कथं स्यात्' : इत्याशङ्कायामाह - पारिशेष्यादिति । प्रसक्तप्रतिषेधे शिष्यमागसम्प्रत्ययः = पारिशेषन्यायः, तस्मादित्यर्थः । आत्मनो वर्णगन्धरसादिगुणस्वभावत्वं न सम्भवति, तस्याऽमृतत्वाद
है । उक्त प्रत्यक्ष में एकान्तवादी का यही मन्तब्य है कि - "बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में उपनीत का विशेषणविथपा ही भान होता है एवं मानस प्रत्यक्ष में उपनीत का विशेषणविधया और विशेष्यविधया भान होता है, इस विषय में स्वभाव ही शरण है। इस तरह स्याद्वादी की ओर से भी यह कहा जाना उचित ही है कि स्वभावविशेष की वजह उल्लू आदि को दिन में घटादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है और मनुष्य को भी स्वभावविशेष के सबब ही घटादि का रात के अन्धकार में चाक्षुप नहीं होता है । वस्तुतः आत्मा का स्वभाव सब चीज को जानने का है मगर देशविशेष, कालविशेष, विषयविशेष आदि की अपेक्षा जीव का संसारी अवस्था में ज्ञानावरणकर्मविषयक क्षयोपशम विचित्र = भित्र भित्र होता है । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में विचित्रता होने से उससे नियम्य ज्ञान भी विभिन्न प्रकार के होते हैं । उल्लू आदि भव की अपेक्षा, अंजनादि द्रव्य की अपेक्षा ऐसा ज्ञानावरणक्षयोपशम होता है कि रात के गाद अन्धकार में रही हुई चीज का ज्ञान (चाक्षुप) हो सकता है । तथाविध क्षयोपशम के विरह में आम जनता को गाढ अन्धकार में रही हुई चीज का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस विषय में स्याद्वाद का गहन अभ्यास करने वाले को आश्चर्य क्या ? अतः ज्ञानवरणक्षयोपशमात्मक योग्यताविशेप को ही चाक्षुपादि प्रत्यक्ष का नियामक मानना सुसंगत है।
HF ज्ञान आत्मस्वभाव है - स्यादादी I ज्ञानस्व. इति । यहाँ यह शंका हो कि --> "ज्ञानस्वभाववाली आत्मा कैसे हो सकती है ? यह जब तक सिद्ध न हो तब तक ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम के वैचित्र्य से ज्ञानवैचित्र्य का समर्थन नहीं हो सकेगा" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यमान गुणस्वभावबाला होता है, द्रव्यत्वावच्छेदेन गुणस्वभावत्व सिद्ध है। अतः आत्मा भी द्रव्य होने से गुणस्वभाववाली सिद्ध होनी है । वर्णगन्धादि तो आत्मगुण नहीं होने से आत्मा वर्ण-गन्धादिगुणस्वभाववाली नहीं हो सकती । एवं इच्छा, द्वेप आदि गुण भी मोक्षावस्था में नहीं होने से इच्छादिस्वभाववाली आत्मा नहीं हो सकती । इसलिए पारिश्ोप न्याय से ज्ञानगुण ही आत्मस्वभाव ! हो सकता है। इसलिए ज्ञानस्वभाववाली आत्मा होने में कोई दोष नहीं है । यहाँ यह शंका हो कि → "आत्मा ज्ञानस्वभाव। वाली है, तो फिर 'ज्ञान उत्पन्न हुआ इत्यादि व्यवहार कैसे हो सकेगा ?" -तो यह नामुनासिब है, क्योंकि ज्ञान आत्म
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* आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वसाधनम् * ज्ञानोत्पत्तिव्यवहारः पुनरावरणविगमादाविर्भावनिबन्धन:; भानुप्रकाशोत्यत्तिव्यवहारवत् । न चाऽऽविर्भावस्य सदसदविकल्पो स्यान्दादिना दोषाय; रूपभेदेनैव सदसत्त्वाऽभ्युपगमादित्याय विस्तरः । यतु -> तमसो द्रव्यत्वसिन्दौ तद्ग्रहार्थं तामसेन्द्रियसिन्दिः, तत्सिन्दौ चालोकनिरपेक्षचन
=-* जयला * -- पौगलिकत्वाच्च, औपाधिकानां तु तेषामुपाधिविलय मोक्षाऽवस्थायामननुवृत्तेस्तत्स्वभावत्वाऽयोगात् । अत एबन्छाद्वेषादिगुणस्वभावत्वमपि नाऽऽत्मनः सम्भवति, अदृष्टस्य तु पौलिकत्वस्य पूर्वमेव साधनेन गुणत्वाऽयोगाचेति प्रसक्तप्रतिषेधादात्मनः ज्ञानात्मगुणस्वभावत्वं सिध्यतीत्याशयः |
ननु ज्ञानस्वभावत्वं चेदात्मनः तदा 'आत्मनि ज्ञानमुत्पन्नं विनष्टमि' त्यादिव्यवहारो न स्यात् । न हि जलपरमाणो: शीतस्पर्शस्वभावत्वे तत्र तदुत्पत्तिविनाशन्यवहारः सम्भवति, सर्वदा तत्र तत्सत्त्वादित्याशङ्कायामाह - ज्ञानोत्पत्तिव्यवहार इति । 'आत्मनि ज्ञानमुत्पन्नं' इति शब्दप्रयोगः इति । आवरणविग़मात् = ज्ञानावरणकर्मबिलयात् आविर्भावनिबन्धनः = अभिव्यक्तिनिमित्तकः भानुप्रकाशोत्पत्तिव्यवहारवदिति । यधा सवितुः प्रकाशस्वभावत्वेऽपि घनाघनाम्बुवाहच्छन्नदशायां सूर्यप्रकाशो | नोपलभ्यते किन्तु तद्विलयावस्थायामेव । त्र्यवहन्ति च लोका अपि तदानीं यदुत 'सूर्यप्रकाश उत्पन्नोऽधुने ति । पुनश्च बारिवाहाऽऽवरणकाले 'सूर्यप्रकाशो विनष्ट' इति ब्यबहारोऽपि दृष्टचर एव । तथैव प्रकृते आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽपि धनज्ञानावरणकर्मच्छन्नावस्थायां 'मूढोऽयं न वनि किञ्चन' इति व्यवहार: तद्भिगमे पुनः 'ज्ञानमुत्पन्न' तदागमे च 'ज्ञानं विनष्टमिति व्यवहार इति आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽपि ज्ञानावरणविल्यादिनिमित्तकज्ञानाविर्भावादिनिमित्तकत्वेनाऽपि ज्ञानोत्पत्तिविनाश व्यवहारोपपत्तेरिति तात्पर्यम् ।
ननु ज्ञानस्वभावत्वेऽपि तदाविभांवे तदुत्पत्तिव्यबहार: तदावरणे च तद्विनाशव्यवहारो न पुनः सर्वधा तदुत्पत्त्यादि । व्यवहारः इति स्याद्वाद्यभ्युपगमो न युक्तः, तदाविर्भावस्याऽपि सदसद्विकल्पग्रस्तत्वात् । आविर्भावस्य पूर्व सत्त्वे पूर्वमपि ज्ञानोपलब्धिप्रसङ्गात् पूर्वमसत्त्वे च पश्चादप्यसत्त्वापत्तेरिति शङ्कामपनोदयति - न चेति । तदपाकरणे हेतुमाह - रूपभेदेनेव सदसत्त्वाऽभ्युपगमादिति । ज्ञानाऽऽविभविस्य पूर्व द्रव्यतन सत्त्वात् पर्यायत्वेन चा सत्त्वान्न दोषः । सदसत्कार्यबादसमर्थक. पूर्वोक्तयुक्त्यनुसारण भावनीयमिदम् ।
- यत्त्विति । तदुरववधानमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तद्ग्रहार्थं = तमोद्रव्यज्ञानकृते इन्द्रियान्तराग्राह्यग्राहकत्वेन तामसेन्द्रियसिद्धिः । तमोद्रव्यत्वसिद्भिश्च कुतः ? इत्यावेदयति तत्सिद्धी = तामसेन्द्रियसिद्धी सत्यां च आलोकनिरपेक्षचक्षुर्गाद्य
स्वभाव होने पर भी ज्ञानावरण के विलय से ज्ञान का आविर्भाव होता है, उस निमित्त से 'ज्ञानं उत्पन' पह व्यवहार हो सकता है । यह ठीक उसी तरह संगत होता है जैसे सूर्यप्रकाशोत्पत्ति का व्यवहार । सूर्य प्रकाशस्वभाववाला होता है फिर भी जब वातावरण में बादल छा जाते हैं तब सूर्यप्रकाश नहीं दिखता है, बादलस्वरूप आवरण दूर होने के बाद 'सूर्यप्रकाश उत्पन्न हुआ' यह व्यवहार सूर्यप्रकाश के आविर्भावस्वरूप निमिन से होता है। इसी तरह ज्ञानोत्पत्तिव्यवहार भी ज्ञानाविर्भावनिमित्तक हो सकता है । यहाँ यह शंका करना कि ---> "ज्ञानाविर्भाव ज्ञानावरणविलय के पूर्व में विद्यमान है या अविद्यमान ? यदि विद्यमान है, तब तो पूर्व में उसका अनुभव होना चाहिए । यदि पूर्व में वह अविद्यमान है, तो पत्रान् कैसे विद्यमान हो सकेगा ? इसलिए ज्ञानावरणविलय से ज्ञान की उत्पत्ति माननी चाहिए, न कि आविर्भाव" - स्याद्वादिमत में संगत नहीं है। क्योंकि ज्ञानाविभांच भी द्रव्यत्वरूप से पूर्व में विद्यमान है, पर्यायरूप से अविद्यमान है। ज्ञानावरणविलय के पश्चात् पर्यायात्मना ज्ञानाविर्भाव विद्यमान होता है । इसलिए पश्रात् ज्ञान का साक्षात्कार होगा, पूर्व में नहीं । इस विषय का विस्तार से निरूपण प्रकरणकार ने अन्यत्र किया है, इसलिए विशेप जिज्ञासु अन्य ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं।
तामसेन्द्रियमापना में अन्योन्याश्रय दोष का जिराकरण यत्तु त. इति । यहाँ प्रकरणकार अन्य विद्वानों के वक्तव्य को खण्डनार्थ बताते हैं । उन मनीषियों का यह कथन : है कि -> "अन्यकार जब द्रव्यात्मक सिद्ध हो जाय तब अन्धकारद्रव्यज्ञानार्थ तामसेन्द्रिय की सिद्धि होगी। मगर तामसेन्द्रिय । की सिद्धि होने पर ही आलोकनिरपेक्ष चक्षु से ग्राह्यत्व अन्धकार में माना जा सकता है, जिसके फलस्वरूप में अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि होगी। इस तरह अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि तामस इन्द्रिय की सिद्धि से होगी और तामसेन्द्रिय की सिद्धि से अन्यकार में द्रव्यत्व की सिद्धि हो सकेगी। इसलिए अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा" -
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३६३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * तमोद्रव्यत्वपक्षेऽन्योन्याश्रयापाकरणम् *
हित्वस्य बाधकस्याऽभावात् तमसो द्रव्यत्वसिन्दिरित्यन्योन्याश्रय इति कस्यचिदभिधानं ८- तदनुस्वधानम्, पेचकादीनां घटादिग्रहार्थमेव साध्यमानस्य तस्य तदयाहकत्वेन सिन्देः । प्रामाकरास्तु आलोकज्ञानाभाव एव तमः । अत एव आलोकवद्गर्भगृहं प्रविशतस्तमोधीः । = =--
जयलता * त्वस्य = महदद्भुतानभिभूत-रूपवदालोकनिरपेक्षचक्षुर्गोलकाधिष्ठितेन्द्रियजन्यज्ञाननिरूपितलौकिकविषयत्वस्य. बाधकस्याऽभावात् | तमसो द्रव्यवसिद्धिरिति ज्ञप्तौ अन्योन्याश्रय इति । तदश्रद्धेयत्वमाविष्करोति - पंचकादीनां नक्तं घटादिग्रहार्थमेवेति । एवकारेण 'तमोग्रहार्थ मित्यस्य व्यवच्छेद: कृतः । तस्य = तामसेन्द्रियस्य, पेचकादीनां तद्ग्राहकत्वेन = अन्धकारस्थितघटादिज्ञानजनकत्वेन, धर्मिग्राहकप्रमाणेन सिद्धेः । नक्तं पेचकादीनां घटादिग्रहान्यथानुपपत्तेः तामसेन्द्रियसिद्भिसम्भवादित्याशयः । इदञ्च परमताभ्युपगमेनोक्तमिति द्रष्टव्यम् । स्वमते तु पूर्वोक्तरीत्या भवप्रत्ययिकज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषलक्षणयोग्यताबलादेव तदुपपत्तेर्न तामसेन्द्रियसिद्धिरिति ध्येयम् ।
प्राभाकरा इति । मीमांसकधुर्यकुमारिलभट्टशिष्य-गुर्वपराभिधान-प्रभाकरमियानुयायिन इति । आलोकज्ञानाभावः = आलोकचाक्षुषाभायः एव तमः । एवकारेण आलोकाभावो द्रव्यं या न तम इति दर्शितम । उपलब्धियोग्यालोकचाक्षषाऽभावे सति तमोऽभावाप्रतीते; तमोल्यवहाराच तमस उपलब्धियोग्यालोकचाक्षुषत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावत्वमेध, लायन समनियतयॉरेक्यादिति । जात्यन्ध-निमीलितनयनपुरुषादरालोकचाक्षुषाभायेऽतिव्याप्तिवारणार्थं 'उपलब्धियोग्ये ति विशेषणमिति तेषामाशयः । अत एवेति । तमस आवश्यकाइलोकाऽभावानात्मकत्वादेव । सौरालोकवशात् आलोकवद्गृहं = महदनभिभूतोद्भूतरूपवता सौरालोका पेक्षया मन्देनाऽलोकेन युक्तं गृहं. प्रविशतः पुरुषादेः क्षणमेक 'अत्राऽन्धकार' इत्याकारिका तमोधीः उपपद्यते । तमस आवश्यका लोकाभावात्मकत्वे तु कथं तादृशाप्रतीतिरुपपद्येत ? अत: तमस उपलब्धियोग्याऽऽलोकचाक्षुषाभावात्मकत्वमेव युक्तम् । न चैवं सति 'नीलं तम' इति प्रीतिः कथं सङ्गच्छते ? इति वक्तन्यम्, स्मृतनीलिम्ना सममुपलब्धियोग्यालोकदर्शनाभावस्या संसर्गाऽग्रहादेव तदपपत्तेः । अत एच सौरालोकोपेतबहिर्देशादालोकवदर्भगृहं विशतः पुरुषादे: प्रथममालोकाग्रहे 'नीलं तम' इति धीः । तदुक्तं 'अप्रतीतावेव प्रतीतिभ्रमो मन्दानां' ( ) इति तेषामाशयः ।
मगर यह कथन अयुक्त है, क्योंकि तामसन्द्रिय की सिद्धि के लिए कुमारिलभट्टानुयायी के एकदेशीय की ओर से यह कहा जा सकता है कि तामस इन्द्रिय की सिद्धि अन्धकार में व्यत्व की सिद्धि पर निर्भर नहीं है, किन्तु उल्ल आदि को रात्रि
में घटादि के साक्षात्कार की अन्यथा अनुपपत्ति पर अवलम्बित है। अन्धकारस्थ घटादि के उल्लूचाक्षुप के लिए सिद्ध की जाने !' वाली तामसन्द्रिय की उसके ग्राहक (= ज्ञान-जनक) रूप में ही सिद्धि हो सकती है। अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि पर । तामस इन्द्रिय की सिद्धि आधार नहीं रखती है, जिसके फलस्वरूप में अन्योन्याश्रय दोप का प्रसङ्ग उपस्थित हो सके ।
आलोकज्ञानाभात ही अन्धकार है - प्रभाकरमत प्राभा, इति । मीमांसक के नीन भेद हैं (१) कुमारिलभट्ट के अनुयायी (२) कुमारिलभट्टशिप्य प्रभाकरमिश्र के अनुयायी (३) मुरारिमिश्र के अनुयायी । कुमारिलभट्टानुयायी के एकदेशीय विद्वानों के मत का निरूपण एवं निराकरण कर के प्रकरणकार
अब प्रभाकरमिश्र के अनुयायी के मत के खण्डनार्थ पहले उसके मत का प्रतिपादन करते हैं। । प्रभाकर के अनुयायिओं का कहना है कि -> "आलोकज्ञान का अभाव ही अन्धकार है । इसका आशय यह है | कि जिस स्थान में मनुप्य को आलोक नहीं दीखता, वहाँ वह अन्धकार का व्यवहार करता है, इससे सिद्ध होता है कि 'आलोकदर्शनाभाव ही अन्धकार है । जब विशेप्यता-सम्बन्ध से या प्रकारतासम्बन्ध से तन्देश में आलोकदर्शन का अभाव होता है, तभी वहाँ अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार होता है । जब मनुप्य बाहर के प्रवल आलोक से गृह के भीतर प्रवेश करता है तो सहसा उसे वहाँ स्थित आलोक का दर्शन (चाक्षुष प्रत्यक्ष) नहीं होता और वह झट से बोल पड़ता है 'अत्र अन्धकारः' - 'यहाँ अन्धेरा है । इस व्यवहार से भी यही सिद्ध होता है कि आलोकदर्शनाभाव ही अन्धकार है, अन्यथा यदि आलोकाभाव तम होता नो आलोक तो वहाँ है ही, फिर आलोकाभावस्वरूप अन्धकार का चाक्षुप एवं व्यवहार कैसे हो सकता ? इस प्रकार आलोकज्ञानाभाव को अन्धकार मानने में युक्ति की अनुकूलता को देख कर प्रभाकरानुयायी कहते हैं कि अन्धकार दुसरा कुछ नहीं है, मगर आलोकदर्शनाभाव है। यह मीमांसक अग्रणी प्रभाकर के अनुयायिओं का मन्तव्य है।
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* सम्बन्धद्वितयेन चाक्षुपाभावस्याऽन्धकारत्वविचारः * ततुच्छम, एवं सति 'अन्धकारखानहमिति प्रतीत्यापत्तेः । न च सम्बन्धविशेषेणालोक-! ज्ञानाभाववत्येव तम:प्रतीतिनियमालाऽयं दोषः, तथा सति 'आलोकज्ञानाभाववानहमिति
======ॐ जयलता *= == प्रकरणकार: प्राभाकरमतमपाकरोति - तनुच्छमिति । एवं सति = तमस आलोकदर्शनाभावात्मकत्वे सति, 'अन्धकारनहमिति प्रतीत्यापत्तेः ज्ञानत्वावच्छिन्नस्याऽऽत्मवृत्नित्वेनालोकज्ञानाभावलक्षणान्धकारस्याऽऽत्मवृनित्वस्य न्याय्यत्वात् ।। 'अन्धकारवभूतलमि' त्यादिप्रतीतेरप्रामाण्यं प्रसज्येते' त्यप्युपलक्षणादत्र दोषत्वेन लभ्यते ।
नन्दस्माभिर्न समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकालोकदर्शनाभावस्य तमस्त्वमङ्गीक्रियते येन तद्गत्यात्मनि तमःप्रतीतिः । प्रसज्येत किन्तु स्वनिरूपितालोकनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यता-स्वनिरूपितालोकनिष्ठविशेष्यतानिरूपिताऽऽधेयत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारताऽन्यतरसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकचाक्षुषाभावस्यैव तमस्त्वमभ्युपगम्यते । प्रथमसम्बन्धेन 'आलोकवान् देशः' इति प्रतीति: द्वितीयसम्बन्धेन च ‘देशे आलोक' इति दर्शनं देशे वर्त्तते । यत्र तु तदन्यतरसम्बन्धेन तादृशाचाक्षुषप्रतीतिर्नेव वर्तते तत्रैब तमः प्रतीतिर्भवतीति नियमः । आत्मनि तु समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक आलोकदर्शनाभावो न तूपदर्शितसम्बन्धावच्छिन्न इति 'अन्धकारवानहमि'ति प्रतीतेनावकाश इति प्राभाकराशयं दृषयति . न चेति । तदयुक्तत्वमेव द्योतयति - तथा सतीति । 'दर्शितान्यतरसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकालोकदर्शनाभाववत्येवा न्धकारप्रतीतिव्यवहारी भवत' इति नियमाऽङ्गीकारे सति, 'आलोकज्ञानाभाववानहमिति प्रतीतेः इति । अपिशब्दस्त्वत्र गहाया बोध्य: । चिलयापत्तेः = कदाप्य.
*प्रमानकंदन * तत्तुच्छं. इति । प्रकरणकार का कहना है कि प्रभाकरमिथ के अनुयायियों का मत विचार करने पर अयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि अन्धकार को आलोकज्ञानाभावात्मक मानने पर 'अन्धकारवानह' = 'मैं अन्यकारवाला हूँ' इस प्रतीति की आपति मुँह फाड़े खड़ी रहती है । आलोकज्ञान का आश्रय आत्मा होने से आत्मा में ही आलोकज्ञानाभावात्मक अन्धकार की प्रतीति होनी चाहिए, न कि भूतलादि बहिर्देश में । मगर अन्धकार की प्रतीति आत्मा में नहीं होती है किन्तु बाह्य देश में होती है । इसलिए अन्धकार को आलोकदर्शनाऽभावस्वरूप नहीं माना जा सकता । यहाँ प्रभाकरानुयायी की ओर से यह कहा जाय कि -> “आलोकज्ञान आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहने की वजह वहाँ रहने वाला आलोकज्ञानाभाव भी समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक ही होगा, न कि अन्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक । मगर हम जिस आलोकज्ञानाभाव को अन्धकारात्मक मानते हैं, वह समवायसम्बन्धावञ्चिन्नप्रतियोगिताक नहीं है, किन्तु अन्य सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक है, जो कि बहिर्देश में ही रहता है, न कि आत्मा में । वह सम्बन्ध है स्वनिरूपितालोकनिष्ठप्रकारतानिरूपित विशेप्यता एवं स्वनिरूपित आलोकनिष्ठविशेप्यतानिरूपित आधेयत्वसम्बन्धावच्छिन्न प्रकारता । इन दोनों सम्पन्ध से ज्ञान का न होना ही अन्धकार है, अर्थात् उक्त विशेष्यता-उक्त प्रकारता-एतदन्यतरसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक चाक्षुपाभाव = अन्धकार | जिस देश में 'आलोकवान अयं देशः' इस प्रकार आलोक का चाक्षुप प्रत्यक्ष होगा, उस देश में उक्त विशेप्यतासम्बन्ध से यह चाक्षुप रहेगा, क्योंकि उक्त चाक्षुप में आलोक प्रकार और देश विशेप्य है । अतः उक्त विशेप्यतासम्बन्ध में 'स्व' शब्द | से उक्त चाक्षुप को लेने पर वह स्वनिरूपितआलोकनिष्टप्रकारतानिरूपित विशेप्यता सम्बन्ध से देश में रहेगा और जब देश में 'अत्र देशे आलोकः' इस प्रकार आलोकचाक्षुप होगा तब वह उक्त प्रकारतासम्बन्ध से देश में रहेगा, क्योंकि इस चाक्षुष में आलोक विशेप्य है और देश उसमें आधेयतासम्बन्ध से प्रकार है । अतः उक्त प्रकारतासम्बन्ध में 'स्व' पद से इस चाक्षुष को लेने पर वह देश में उक्त प्रकारतासम्बन्ध से रहेगा । जिस देश में जब उक्त चाक्षुष में से कोई भी आलोकचाक्षुष नहीं रहेगा, वैसी ही स्थिति में वहाँ ही अन्धकारप्रतीति एवं अन्धकारव्यवहार होगा । इसलिए आत्मा में अन्धकार की प्रतीति का प्रसंग नहीं होगा" -
. "आलोकज्ञानाभातवान् अह'.- प्रतीति की प्रभाकरमत अनुपपत्ति
तथा स, इति । तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शित प्रकारतादि सम्बन्ध से आलोकज्ञानाऽभाव के अधिकरण 'में ही अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार को अंगीकार करने पर 'आलोकज्ञानाऽभाववान् अहं' इस प्रतीति का विलय होने की आपत्ति होगी, क्योंकि तादृश प्रकारतादिसम्बन्ध से आलोकज्ञानाभाव बहिर्देश में रहता है, न कि आत्मा में । तथा अन्धकार और आलोकज्ञानाभाव दोनों एक = अभिन्न ही है। इसलिए अन्धकारात्मक आलोकदर्शनाभाव की प्रतीति आत्मा में कैसे हो सकती है ? ऐसा कहने से ही यह कथन कि → “विषयतासम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक आलोकदर्शनाभाव ही अन्धकार
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६६५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * प्राभाकरमते तममनाक्षुपत्वाऽसङ्गतिः * प्रतीतेरपि विलयापते: । न ह्यालोकज्ञानाऽभावत्वं तमस्त्वादिदानीमतिरिच्यते । एतता विषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्याऽपि तस्य तमस्त्वं पत्याख्यातम् ।
किश्चैवं तमसम्चाक्षुषत्वं न स्यात्, ज्ञानाभातस्य मानसत्वात् । तथा च 'तमः पश्यामीति प्रतीति: कथमुपपादनीया ? एतेन तदंशेऽलौकिकचाक्षुषमपि प्रत्युक्तम्, बाह्येन्द्रिय
=- ==* लयलता * सम्भवप्रसङ्गात् । अत्रैव हेतुमाह - न हीति । आलोकज्ञानाभावत्वं तमस्त्वात् इदानीं = दर्शितनियमाऽङ्गीकारकाले, अति| रिन्यने । उक्तान्यतरसम्बन्धावच्छिन्नालोकदर्शनत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वलक्षणतमसत्ववदाश्रयत्वं नाऽऽत्मनः किन्तु भूतलादेवति न कदापि आलोकदर्शनाभानमामि ति प्रतीनि: स्यात ।
एतेनेति । 'आलोकदर्शनाभावबानहमि तिप्रतीत्युन्छेदकप्रसङ्गेनेति । 'प्रत्याख्यातमि त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । विषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य = स्वनिष्ठविषवितानिरूपित विषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य, अपिशब्देन प्रकारतादिस्वरूपविषयताविशेषसम्बन्धावछिन्नप्रतियोगिताकसमुच्चयः कृतः, तस्य = आलोकदर्शनाभावस्य, तमस्त्वमिति । स्वपदमालोकदनस्य ग्रहणम् । तच स्वनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतासम्बन्धेन भूतलादो वर्तते 'आलोकवद्भूतलमि' त्यादिप्रतीतिबलात् । तच्छून्ये च 'तमोवद्गृहादिकमि' ति व्यवहारात् स्वनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतासम्बन्धाचच्छिन्नप्रतियोगिताक आलोकदर्शनाभाव एव तम इति प्राभाकराशयः । एवं सति 'आलोकदर्शनाभावबानहमिति प्रतीतिर्न स्यात् । गुहादरेव विषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकालोकदर्शनाभावत्वलक्षणतमस्त्ववदाश्रयत्वादिति भावः ।
दोषान्तरसमुच्चयार्थमाह - किश्चेति । एवं = तमस आलोकचाक्षुषन्नानाभावात्मकत्वाऽभ्युपगमे सति, तमसः चाक्षुपत्वं | न स्यात्, ज्ञानस्य मानसत्वेन ज्ञानाभावस्य मानसत्वादिति । यो यदिन्द्रियेण गृहाते तदभावस्तद्गता जातिरपि तेनैवेन्द्रियेण गृह्यत इति नियमेनाऽऽलोकज्ञानस्य मनोग्राहालेन तदभावस्यापि मनोग्राद्यत्वमेव स्यात्, न तु चक्षुग्रहात्वम् । 'इष्टमेवेदमित्याऽऽशकायां प्रकरणकदाह . तथा चेति । आलोकज्ञाना भावलक्षणस्य तमसो मानसत्वेऽभ्युपगम्यमाने 'तमः पश्यामी' ति प्रतीतिः कथं प्रमात्वेन उपपादनीया ? न च तस्याः प्रमात्वभपह्नोतुमुचितम्, तस्याः सार्वजनीनत्वात्, बाधका:भावात् । एतेन तमस आलोककालाऽभावात्मकत्वमपि प्रत्युक्तम् , कालस्याऽतीन्द्रियत्वेन नदभावस्वरूपस्य तमसोऽप्रत्यक्षत्वापत्तेः ।
___एतेनेति । अस्य 'प्रत्युक्तगि त्यनेनाऽन्वयः । तदंशे = तमोऽसे, अलौकिकचाक्षुषं = ज्ञानलक्षणसन्निकर्षप्रयोज्य| विषयतावचाक्षुषम् । यथा 'सुरभि चन्दनमिति प्रतीती सौरभादोऽलौकिकचाक्षुषं चन्दनांशे च लौकिकचाक्षुषं तथैव 'तमः पश्यामी' तिप्रतीतौ तमोउदोऽलौकिकचाक्षुषं 'पश्यामी' त्यंशे लौकिकचाक्षुषं 'पश्यामी तिविषयतायाः चक्षुरिन्द्रियसन्निकर्षनियम्यत्वादिति | भावः । तदपाकरणे प्रकरणकारी हेतुमाह - बाह्येन्द्रियज्ञाने = मनाभिनन्द्रियजन्यज्ञाने, उपनीतस्य = ज्ञानलक्षणसन्निकर्षो
है।" <-- भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि विपयतासम्बन्ध से आलोकदर्शन बहिश में रहने से विपयतासम्बन्धावदिनप्रतियोगिताक आलोकदर्शनाभाव भी बहिर्देश में ही रहने की वजह आत्मा में आलोकज्ञानाभाष की = 'आलोकदर्शनाभाववानह' इस प्रतीति का उच्छेद हो जायेगा ।
* 'तमः पश्यामि' इत्यादि प्रतीति की प्रमाकरमत में अनुपत्ति ॐ ___किंचे. इति । दुसरी बात यह है कि अन्धकार को आलोकदर्शनाभावात्मक मानने पर 'तमः पश्यामि' = 'मैं अन्धकार को देखता हूँ' इस प्रतीति की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि अन्धकार आलोकचाक्षुपाभावात्मक है और आलोकचाक्षुषप्रत्यक्ष मनोग्राह्य होने से उसका अभावस्वरूप अन्धकार भी मनोग्राह्य ही होगा, न कि चक्षुग्राह्य । जब कि 'तमः पश्यामि' यह प्रतीति चक्षु इन्द्रियजन्य है, न कि मनोजन्य । मतलब कि 'तमः पश्यामि' इस प्रतीति से अन्धकार चाग्राह्यत्वेन सिद्ध होने से उसे आलोकज्ञानाभावस्वरूप नहीं माना जा सकता । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि -> "अन्धकार को मैं देखता हूँ - यह प्रतीति अन्धकारांश में अलौकिक चाक्षुपात्मक है यानी ज्ञानलक्षणसत्रिकर्ष से जन्य है, ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि आलोकदर्शनाभाव का ज्ञानलक्षणसत्रिकर्ष से भान हो सकता है।" यह कथन इसलिए अयुक्त है कि 'ज्ञानलक्षण सनिकर्ष से उपस्थापित का बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में विशेषणचिधया ही भान होता है, न कि विशेप्यविधया भी' इस नियम के बल से अन्धकार का विशेपणविधया ही अलौकिक चाक्षुप में भान हो सकता है । जैसे चन्दन को देख कर सीरभ का स्मरण होने पर 'सुरभि चन्दनं' ऐसे बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में उपनीत = ज्ञानलक्षणसत्रिकर्ष से उपस्थापित सौरभ का चन्दन
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*जात्यन्धानामपि चाक्षुषत्वोपगमः* ज्ञाने उपनीतस्य विशेषणत्वेनैव भाननियमात 'नीलं तम' इति प्रतीत्यनापत्तेश्चेति किमधिकमन्दविवादक्षोदेन ! प्रगल्भस्तु प्रकाशकरूपाभाव एव तमः, प्रौढप्रकाशकयावत्तेज:संसर्गाभावस्य तथात्वे
- जयलता == पस्थापितस्य, विशेषणत्वेनैव भाननियमादिति । एक्कारेण विशेष्यत्वेन तद्भानप्रतिक्षेपः कृतः । 'तमः पश्यामी ति बहिरिन्द्रियजन्यज्ञाने आलोकज्ञानाऽभावलक्षणस्य तमसो विशेष्यत्वेनैव भासनात्र तदंशोऽलौकिकचाक्षुषत्वं सम्भवतीति भावः । तत एव दोषान्तरमाह - 'नीलं तम' इतिप्रतीत्यनापतेश्चेति । आलोकज्ञानाभावस्य नीरूपत्वेन तत्स्वरूपे तमसि नीलत्वभानाsनुपपत्तेः । एतेन 'नीलं तम' इति धीस्तु स्मृतनीलिम्ना सममालोकज्ञानाभावस्याऽसंसर्गाग्रहादित्यपि प्रत्याख्यातम्, तथाननुभवात्, अप्रामाणिकगौरवात्, अस्खलवृत्तेश्च तस्या 'इदं रजतमि' त्यादिप्रतीतिवदसंसर्गाऽग्रहेणोपपादनाऽसम्भवात् । सौरालोकाद् | मध्यंदिने आलोकवद्गर्भगृहं प्रविशत: तमःप्रत्ययश्च भ्रम एव, आलोकज्ञानप्रतिबन्धकदोषस्य तत्र स्वीकारावश्यकत्वादिति दिक् ।
मीमांसाकुतूहले तु कमलाकरभट्टेन प्रभाकरमतमपनोदयता 'सौरालोकेऽपि तदप्रतिसन्धाने तमस्त्वापत्तिः, तमसि आलोकस्मरणे तदभावापत्तेश्च' (मी.कु.) इत्याद्युक्तम् ।
वस्तुतस्तु क्षयोपशमविशेषस्यैव चाक्षुषविषयतानियामकत्वं चक्षुरादेस्तु तत्रैवोपक्षीणत्वाचाक्षुषं प्रत्यन्यथासिद्भत्वम् । इत्यमेव जात्यन्धानामपि चाक्षुषमुपपद्यते । तदुक्तं व्यवहारसूत्रभाष्ये 'जो जाणइ य जचंधो बने रूवे विकप्पसो । न ते बावरिते तस्य विनाणं तं तु चिट्ठइ ।। (न्य.उ.१०, भा.गा.६६) इति । अत्र मलयगिरिसूरिवृत्तिश्चैवं . 'यो नाम जात्यन्धः स्पष्टचक्षुर्वर्णान् रूपाणि च विकल्पशोऽनेकप्रकार जानाति तस्य नेत्रेऽप्यावृते तत् विज्ञानं तिष्ठति अन्धीभूतोपि वर्णविशेषान् रूपविशेषांश्च स्पर्शतो जानातीत्यर्थः' (व्य.सू.उ.२०, भा.गा.६६ वृ.) । इत्थमेव 'स्वप्ने रथादयो मया दृष्टा इत्यादिप्रतीतेख्यार्थत्वमप्युपाया इति विभावनाय कोविदः ।
__ प्रगल्भ इति । तत्त्वचिन्तामणिव्याख्याकारविशेषः । तुः पूर्वोपदर्शितमतापेक्षया विशेषणे । तदेवाऽऽह - प्रकाशकरूपाsभाव एवं तमः । एवकारेण प्रौढप्रकाशकयावत्तेज:संसर्गाभाव-मदतानभिभूतरूपबदालोकाभावाऽऽलोकज्ञानाभावाऽऽलोककालविशेषाभावाऽतिरिक्तद्रव्यादेर्व्यवच्छेदः कृतः । तदेव लेशतो दर्शयति - प्रीदप्रकाशकयावत्तेजःसंसर्गाभावस्य = प्रौढ
के विशेषणरूप में ही भान होता है, न कि विशेष्यरूप से । ठीक वैसे ही आलोकदर्शनाभावस्वरूप अन्धकार का उपनीतभान मानने पर उसका चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान में विशेषणविधया ही भान होना चाहिए मगर 'तमः पश्यामि' इस चाक्षुष प्रतीति में तमस्त्व के विशेष्यरूप में ही अन्धकार का भान होता है । इसलिए उक्त प्रतीति को अन्धकारांश में अलौकिक नहीं मानी जा सकती। इसी तरह 'नीलं तमः' यह चाक्षुष प्रतीति भी अन्धकार को आलोकज्ञानाभावात्मक मानने पर प्रभाकर मत में अनुपपत्र ही रहेगी, क्योंकि नील रूप कभी अभाव में नहीं होता है । अभाव तो नीरूप होता है । अतः नील रूप के विशेष्यरूप में अन्धकार का प्रामाणिक चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रभाकरमत में अनुपपत्र ही रहेगा । इस तरह अन्धकार को आलोकदर्शनाभावात्मक मानने पर अनेक दोषों की परम्परा प्राप्त होने से प्रमाकरमत मान्य नहीं हो सकता । मंद व्यक्ति के साथ बहत विवाद के परिश्रम से क्या फायदा ?
प्रकाशकरूपाभाव ही अन्धकार - प्रगल्भप्रगल्भ. इति । यहाँ प्रकरणकार श्रीमद्नी तत्त्वचिन्तामणिग्रन्थ के व्याख्याकार नव्यनैयायिक प्रगल्भ के मत का निरूपण करते हैं। प्रगल्भ का कहना है कि अन्धकार और कुछ नहीं है, मगर प्रकाशकरूपाभाव ही अन्धकार है। जहाँ जहाँ प्रकाशक रूप का अभाव होता है वहाँ वहाँ अन्धकार का व्यवहार होता है, न कि अन्यत्र । अतः लापवसहकार से अन्धकार को प्रकाशक-रूपाभावस्वरूप ही मानना उचित है। प्रौत प्रकाशक यावत्तेजद्रव्य के संसर्गाभाव को तो अन्धकार नहीं माना जा सकता । इसका कारण यह है कि प्रौढप्रकाशक यावत्तेजद्रव्य में चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि की प्रभा का भी समावेश होता है। मगर चन्द्रादि की प्रभा तो अतीन्द्रिय है, क्योंकि उसमें उद्भुत रूप होने पर भी उद्भुत स्पर्श नहीं होता है। चन्द्रादि की प्रभा के स्पर्श का हमें कोई अनुभव नहीं होता है, तर उसे उद्भुत कैसे माना जाय ! बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में केवल उत रूप नियामक नहीं है, किन्तु उद्भुत स्पर्श भी नियामक है। जैसे जहाँ उद्भुत रूप नहीं होता है, उसका साक्षात्कार नहीं होता है । ठीक वैसे ही जिसमें उद्भुत स्पर्श नहीं होता है उसका भी प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतः उद्भूत रूप को
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३६७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ का ५ * प्रकाशकरूपाभावतमांचादिप्रगल्भमतखण्डनम् *
तमसोऽतीन्द्रियत्वापत्तेः, अतीन्द्रियचन्द्रादिप्रभाप्रतियोगिकत्वात् विनिगमनाविरहेणोद्भूतरूपवत्त्वस्येवोद्भूतस्पर्शवावस्याऽपि प्रत्यक्षतायां तन्त्रत्वतात् तस्याऽतीन्द्रियत्वादिति । स पुलरप्रगल्भः, योग्यताविशेषस्यैव प्रत्यक्षप्रयोजकत्वात् ।
* जयलता
प्रकाशकतेजस्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकसंसर्गाभावस्य, तथात्वे = तमस्त्वे, तमसोऽतीन्द्रियत्वापत्तेः । तत्र हेतुमाह - अतीन्द्रियचन्द्रादिप्रभाप्रतियोगिकत्वादिति । वहिरिन्द्रियजन्यलौकिकप्रत्यक्षाऽगोचरचन्द्र-तारक ग्रहादिप्रभानिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वात्, अतीन्द्रियप्रतियांगिकत्वेन प्रौढप्रकाशकयावत्तेजः संसर्गाभावलक्षणस्य तमसोऽतीन्द्रियत्वस्य न्याय्यत्वात् । प्रतियोगिनः चन्द्रादि| प्रभालक्षणस्य कथमतीन्द्रियत्वं उद्भूतरूपवत्त्वस्य तत्राऽबाधात् ? इत्याशङ्कानिराकरणायाऽऽह-विनिगमनाविरहेण विनिगमकाभावेन उद्भूतरूपवत्त्वस्येवोद्भूतस्पर्शवत्त्वस्याऽपि प्रत्यक्षतायां = बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षतायां तन्वत्वात् = नियामकत्वात् उद्भूतस्पर्शशून्यत्वेन तस्य चन्द्रप्रभादेः, अतीन्द्रियत्वात् = प्रत्यक्षत्वाऽसम्भवात् । चन्द्रप्रभादेः प्रौढप्रकाशकयावदन्तर्गतब्येन तत्प्रतियोगिकसंसर्गाभावलक्षणस्य तमसोऽप्यतीन्द्रियत्वस्य वज्रलेपायित्वम् । न च तमसोऽतीन्द्रियत्वम्, 'तमः साक्षात्करोमी' ति प्रतीते: सर्वानुभवसिद्धत्वात् । अत एव तमसो न प्रौढप्रकाशकयाबत्तेजः संसर्गा भावत्वात्मकत्वं किन्तु प्रकाशकरूपाभावत्वमेव । युक्तःचैतत् प्रकाशकरूपे सति तत्र तमोऽज्ञानात्, प्रकाशकरूपाभावे सति च तदाश्रये तमोव्यवहारात्तयोः समनैयत्येनैक्यादिति प्रगल्भाऽभिप्रायः ।
=
प्रकरणकारः तन्मतमपाकर्तुमुपक्रमते स = प्रगल्भः, पुनः अप्रगल्भः = अप्रवीणमतिः । स न यथा नाम तथा गुण इत्यर्थः तदेव भावयति योग्यताविशेषस्य तदंशे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणस्य आत्मनिष्ठस्य प्राग्व्यावर्णितस्वरूपस्य एव प्रत्यक्षप्रयोजकत्वात्
साक्षात्कारविषयतानियामकत्वात् । एवकारेण विषयनिष्ठोद्भूतरूपस्पर्शो भयव्यवच्छेदः कृतः । चन्द्रादिप्रभाप्रत्यक्षेऽस्मदादियोग्यताविशेषस्याऽपेक्षितत्वात् तस्य चाऽस्मदादिष्वबाधान चन्द्रादिप्रभाया अतीन्द्रियत्वं वक्तुं पुज्यते । अत एव प्रगल्भं प्रत्यस्माभिः 'प्रौढप्रकाशकयावत्तेजः संसर्गाभावस्य तमस्त्वमित्युक्तौ न तेन किञ्चिद्वक्तुं पार्यते । इदञ्च प्रौढिवादेन ज्ञेयम्, स्वमते तमसो द्रव्यत्वादिति ध्येयम् ।
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ननु योग्यताविशेषस्य द्रव्यप्रत्यक्षत्वप्रयोजकत्वाभिधानं तु स्वगृहे एव प्रणिगद्यमानं शोभते न तु विद्वत्सभायामिति ही प्रत्यक्षविषयता का नियामक माना जाय, न कि उद्भूत स्पर्श को - इस विषय में कोई विनिगमक यानी एकतरपक्षपाती अनुकूल तर्क ही नहीं होने से दोनों को प्रत्यक्षविपयता का प्रयोजक मानना चाहिए । चन्द्रादि की प्रभा में उद्भूत रूप नहीं होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । चन्द्रादि की प्रभा में उद्भूत रूप नहीं होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । चन्द्रादि की प्रभा अतीन्द्रिय होने की वजह उसके अमावस्वरूप अन्धकार के मी अतीन्द्रिय होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि जिस अभाव का प्रतियोगी अतीन्द्रिय होता है, वह अभाव भी अतीन्द्रिय ही होता है, जैसे पिशाचाsभाव । अतः प्रौढप्रकाशक यावतेजद्रव्य के संसर्गाभाव को अन्धकाररूप मानने में तम अतीन्द्रिय होने की समस्या मुँह फाड़े खड़ी रहती है । अतः प्रकाशकरूपाभाव को ही अन्धकारस्वरूप मानना तर्कसंगत है ।
** प्रागत्भमतनिराकरण
स पुन इति । प्रकरणकार कहते हैं कि प्रगल्भ निपुणमतिवाला नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रौढप्रकाशक यावतेजद्रव्य के संसर्गाभाव को अन्धकार नहीं मानने में उसने जो युक्ति दिखाई थी कि प्रत्यक्षविषयता में उद्भूत स्पर्श भी विनिगमकाभाव से नियामक होने से उससे शून्य चन्द्रादिप्रमा अतीन्द्रिय बनती है । अतएव तदभावात्मक अन्धकार अतीन्द्रिय बनेगा' <यह नामुनासिव है । इसका कारण यह है कि प्रत्यक्षविषयता में योग्यताविशेष ही प्रयोजक है । योग्यताविशेष होने की वजह ही चैत्रादि को चन्द्रादि की प्रभा का प्रत्यक्ष होने में कोई बाधक नहीं है। अतएव चन्द्रादि की प्रभा को अतीन्द्रिय नहीं मानी जा सकती । चंद्रादि की प्रभा का साक्षात्कार अनेक आदमी को होता ही है । अतः अन्धकार अतीन्द्रियप्रतियोगिक प्रौढप्रकाशकयावत्ते जद्रव्यसंसर्गाभावात्मक होने की और उसीकी वजह अन्धकार के अतीन्द्रियत्व अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है । दूसरी बात यह है कि प्रगल्म को भी द्रव्यचाक्षुष के प्रति उद्धृत रूप को ही हेतु मानना उचित है। जिस द्रव्य में उद्भूत रूप होता है, उसका चाक्षुष होता है, जैसे घट का । जिस द्रव्य में उद्भूत रूप नहीं होता है
१. स्वबुद्धपुत्कर्षप्रदर्शनार्थं प्रतिवादिवलपरीक्षणार्थं वा स्वानभिमतार्थकथनं
प्रौदिवादः ।
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* चाक्षुषे स्पर्शस्याऽकारणत्वाऽऽवेदनम् * किच, परेणाऽपि द्रव्यचाक्षुषत्वावछि प्रति उद्धृतरूपस्य हेतुत्वं वाच्यम् । न च ता (तत्र च न ?) उद्भतस्पर्शवत्त्वस्याऽपि तथात्वे विनिगमकाभावः; वायोश्चाक्षुषत्वापत्तेरेव विनिगमकत्वात् । न च बहिर्दव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिा प्रत्येवोद्भुतरूपस्पभियनेन हेतुताsस्तु, द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिनं प्रत्युतरूपस्य द्रव्यस्पार्शनत्वावच्छिनं प्रत्युतस्पर्शस्य च
* जयलता * पराशङ्कायामाह - किवेति । परेणाऽपि = प्रगल्भेनापि, द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं = द्रव्यविषयकलौकिकचाअषमात्र, प्रति | उद्भूतरूपस्य हेतुत्वं वाच्यम् । तथा च न चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्याऽतीन्द्रियत्वम्, तस्योद्भूतरूपवत्त्वात् । अत एव प्रौढप्रका
झकयावत्तेज:संसर्गाभावस्य नातीन्द्रिय प्रसङ्गः, येन प्रकाशकरूपाभावस्यैव तमस्त्वाऽभ्युपगमः चारुतामञ्चत् । परशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते - न चेति । तत्र = द्रव्यगोचरलौकिकचाक्षुषत्वावच्छिन्ने, उद्भूतरूपवत् उद्भूतस्पर्शरत्वस्थाऽपि तथात्वे - कारणत्वे, विनिगमकाभावः । द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति उद्भूतरूपवत्त्वग्य हेतुत्वमाहोस्वित् उद्भुतस्पर्शवत्वस्य ? इत्यत्रैकतरपक्षपातियुक्तिविरहेण मयोद्भुतस्पर्शवत्वस्यैब तथात्वमुपेयते त्वयोद्भुतरूपवत्त्वस्येव । तथा च चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्य न चाक्षुषत्वम्, उद्भूतस्पर्शशून्यत्वात्तस्येति प्रौढप्रकाशकयावत्तेज:संसर्गाभावयव तमस्त्वे तमसाइतीन्द्रियत्वस्य दुरित्वामिति शङ्काशयः । तस्या अयुक्तत्वामाविष्करोति प्रकरणकृत् - वायोवाक्षुषत्वापत्तरेव विनिगमकत्वादिति । यदि चोद्भुतस्पर्शवत्त्वस्यैव द्रव्य - चाक्षुषकारणत्वं स्यात्तर्हि वायोरुभूतस्पर्शवत्त्वेन चाक्षुषत्वं स्यात् । न च तथा, तस्मात्रोद्भुतस्पर्शवत्वस्य द्रव्यलौकिकचाक्षुषहेतुत्वमिति समाधानाशयः ।
न चेति । 'वाच्यमि' त्यनेनाऽस्याऽन्दयः । बहिर्द्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन = बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यगांचरलौकिकप्रत्यक्षमात्र, प्रत्येव उद्भूतरूप-स्पीभयत्वेनेति । एवकारों चण्टालोला-चायनामिसम्बध्यते, 'उद्भूते' त्याद्यदीपकन्यायेनाऽग्रे स्पर्शेनाऽपि साकमन्वीयते । हेतुताऽस्त्विति । लाघवादिति गम्यते । चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्योद्भूतरूपवत्त्वेऽप्युद्भूतस्पर्शशून्यत्वेन 'एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ती' ति न्यायादुद्भूतरूपस्पभियत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावदत्त्वान्न प्रत्यक्षत्वम् । अत: प्रौढप्रकाशकयाबनजोद्रत्र्यसंसर्गाभावस्य तमस्त्वे तमसोऽतीन्द्रियत्वापत्त्या प्रकाशकरूपाभावस्यैव तमस्त्वमभ्युपगन्तुमर्हतीति प्रगल्भाभिप्राय उन्नीयते । पूर्वोक्तैवकारफलं दर्शयति - द्रव्यचाशुषत्वावच्छिन्नं = विषयतासम्बन्धेन द्रव्यविषयकलौकिकचाक्षुषमात्र प्रति समवायेन उद्भूतरूपस्य द्रव्यस्पार्शनत्वावच्छिन्नं = विषयतासम्बन्धेन द्रव्यविषयकलौकिकस्मार्श ग्मात्रं प्रति समवायेन उद्भूतस्पर्शस्य च इति हेतुताद्वय
उसका चाभुप नहीं होता है जैसे जलस्थ तेजद्रन्य, चक्षुरश्मि आदि का । चन्द्रादि की प्रभा में उद्भत रूप तो स्वानुभरसिद्ध ही होने से चन्द्रादि की प्रभा का चाक्षुष होने में नैयायिकमत्तानुसार भी कोई बाधक नहीं है । अतएव चन्द्रादि की प्रभा को अतीन्द्रिय द्रव्य नहीं कहा जा सकता । इस तरह परमतानुसार भी चन्द्रादिप्रभाद्रव्य चाक्षुषयोग्य होने से प्रीदप्रकाशकयावत्तेजोद्रव्यसंसर्गाभाव को अतीन्द्रिय नहीं कहा जा सकता । यहाँ यह शंका करना कि -> "द्रव्यविषयक चाक्षुष के प्रति ट्रम्पसमवेत उदूत रूप को हेतु मानना या उद्भुत स्पर्श को ? इस विषय में कोई नियामक - विनिगमक नहीं होने से उद्भूत स्प; को ही द्रव्यचाक्षुष का कारण माना जा सकता है । चन्द्रादि की प्रभा में, जो द्रव्यात्मक है, उद्भुत स्पर्श न होने से उसका चाक्षुष नहीं हो सकता है। अतएव अन्धकार को प्रोडप्रकाशक यावत्तेजोद्रव्य के संसर्गाभावात्मक मानने पर अन्धकार में अतीन्द्रिषत्व की आपत्ति ज्यों की त्यों बनी रहती है" - ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यचाक्षुष में उद्भूत पर्श को कारण मानने पर वायु का चाक्षुष होने की आपत्ति मुँह फाडे खड़ी रहती है, क्योंकि वायु में उद्भूत स्पर्श तो रहता ही है। मगर वायु द्रव्य का कभी भी चाक्षुष नहीं होता है। इससे ही निश्चय होता है कि द्रव्यविषयक लौकिक चाक्षुष में उद्भुत स्पर्श कारण नहीं है, किन्तु उद्भूत रूप ही कारण है। उद्धत रूप तो चन्द्रादि की प्रभा में अबाधिन होने से उसका बानुष हो सकता ही है। अतः उक्तस्वरूप अन्धकार के अतीन्द्रियत्व होने की समस्या का अवकाश नहीं है ।
उतरूप-स्पर्शोभय में बहिरिन्द्रियजन्य द्रव्यप्रत्यक्षा की कारणता नामुमकिन है
न च बहि, इति । यदि प्रगल्भ की ओर से यह कहा जाय कि -> "रहिरिन्द्रिषजन्य द्रव्यप्रत्यक्ष के प्रति उन्न्त रूप एवं उद्भुत स्पर्श उभय को ही हेतु मानना उचित है, क्योंकि ऐसा मानने पर एक कार्यकारणभाव की ही कल्पना करनी पड़ती है। जब कि द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छित्र = यावत् द्रव्यचाक्षुष के प्रति उद्धृत रूप को कारण मानने पर व्यस्पार्शनत्वावचित्र - यावत् द्रव्यविषयक स्पर्शनेन्द्रियजन्य ज्ञान के प्रति उद्भुत स्पर्श को कारण मानना पड़ेगा । इस तरह दो कार्य-कारणभाव
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३६९ मध्यमस्यालादरहस्ये खण्डः २ का ५
* दीधितिकारमतखण्डनम्
हेतुतान्दयकल्पने गौरवादिति वाच्यम्, उभयत्वस्यैकविशिष्टाऽपरतया विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहात् ।
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* जयलता *
कल्पने गौरवादिति । पृथक्कार्यकारणभावद्वयकल्पनागौरवस्य पूर्वमेवोपस्थितेर्द्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति समवायेनोद्भूतरूपस्य न हेतुत्वं सम्भवति येन चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वेन प्रौढप्रकाशकयावत्तेजः संसर्गाभावस्यातीन्द्रियत्वं न स्यात् । ततः प्रकाशकरूपाभावस्यैव तमस्त्वमभ्युपगन्तुमर्हतीति प्रगल्भतात्पर्यम् ।
तद्वयपोहाय प्रकरणकारो यतते उभयत्वस्येति । एकविशिष्टापरतया विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहादिति । उद्भूतरूपस्पर्शोभयस्य बहिरिन्द्रियजन्यलौकिकद्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वे कारणतावच्छेदकीभूतोभयत्वं किं प्रकृते उद्भूतरूपविशिष्टोद्भूतस्पर्शत्वरूपं यदुतोद्भूतस्पर्शविशिष्टोद्भूतरूपत्वरूपं ? इत्यत्र विनिगमकाभावाद् द्वयोः कारणतावच्छेदकत्वकल्पनागौरवस्याऽधिकंदोषत्वात् । न च पूर्व 'अविशिष्टयोरपि गोत्वाऽश्वत्वयोरुभयत्वप्रत्ययात्तस्याऽतिरिक्तधर्मत्वात्' (दृश्यतां ९० तमे पृष्ठे प्रथम खण्डे ) इत्युक्तं साम्प्रतःञ्चोभयत्वमेकविशिष्टाऽपरत्वलक्षणमुक्तमिति कथं न पूर्वापरविरोध इति वक्तव्यम्, प्रगल्भमते उभयत्वस्यैकविशिष्टाऽपरत्वात्मकत्वेन प्रकृते तत्पुरतः तथाकथने दोषाभावात् ।
वस्तुतस्तूभयत्वं न सर्वथाऽतिरिक्तम्, अविशिष्टयोरपि एकज्ञानविषयत्वादिसम्बन्धेन वैशिष्ट्यस्य सम्भवात् । एतेन 'उभयत्वं हि न विशिष्टत्वादनतिरिक्तं न ना तदवच्छिन्नाभावस्तदवच्छिन्नाभावात्, वैशिष्ट्यविरहेऽपि घटत्व - पटत्वयोरुभयत्वस्य उभयत्वेन तदभावस्य च प्रत्यक्षसिद्धत्वात्' (सि. दी. पृ. ८४ ) इति सिद्धान्तलक्षणदीधितिकारवचनमपि प्रत्याख्यातम् ।
अभ्युपगमवादेन उभयत्वस्याऽतिरिक्तत्वाऽङ्गीकारेऽपि प्रकृते उद्भूतरूपस्पर्शोभयस्य वहिरिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारे चाक्षुषे स्पार्शने च प्रत्येकं हेतुता पर्यवस्यतीति प्रगल्भमते गौरवमनिवारितमेवेति द्रव्यचाक्षुषे उद्भूतरूपस्य द्रव्य -स्पार्शने चोदृत्तस्पर्शस्यैव हेतुत्वाऽभ्युपगम उचितः । एतेन सुर्यदि रहिरिन्द्रियजात्रा प्यार्शनसाक्षात्कारगोचरद्रव्यं वा स्यात्, उद्भूतरूप: स्यात्, तादृशसाक्षात्कारविषयद्रव्यस्योद्भूतरूपजनकत्वनियमादिति प्रत्युक्तम्, द्रव्यस्य रूपवत्समवेतत्वेनैव रूपजनकत्वात् न तु तादृशसाक्षात्कारविषयद्रव्यत्वेन, कारणतावच्छेदकधर्मगौरवात्, तस्य रूपजननोत्तरकालीनत्वाच । अत एव स्पार्शनत्वे उद्भूतस्पर्शवदुद्भूतरूपमपि तन्त्रं उद्भूतरूपवत्त्वे चाक्षुषत्ववत् स्पार्शनत्वदर्शनादिति पराकृतम्, उद्भूतरूपवत्त्वे सत्यपि प्रभाया अस्पार्शनत्वेनोद्भूतस्पर्शस्यावश्यकत्वे उद्भूतरूपस्याऽन्यथासिद्धत्वात् । न हि उद्भूतस्पर्शे सत्युद्भूतरूपाभावात् द्रव्ये स्पार्शनत्वाऽभावो दृष्टचर: 1
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यत्तु नव्यमतं दर्शयता गङ्गेशेन 'द्रव्यस्य स्पार्शनले उद्भूतस्पर्शमात्रं न तन्त्रं निदाघोष्मणि वायूपनीतशीतोष्णद्रव्ये च प्रत्यक्षत्वेन तद्गतसङ्ख्या परिमाण संयोग-विभाग- कर्मणां प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्, योग्यव्यक्तिवृत्तित्वेन तेषां योग्यतया द्रव्यग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वाऽवधारणात् । न चोष्मादिजातीये दोषाभावेऽपि घटादाविव करपरामर्शे कदाचित् केनाऽपि सङ्ख्या गृह्यते । तथोद्भूतरूपवत्त्वमात्रस्य तथात्वे चान्द्राद्युद्योतस्य नयनगतपित्तद्रव्यस्य च प्रत्यक्षत्वे तद्गतसङ्ख्याग्रहोऽपि स्यात् । न च घटादाविव निपुणं निभालयन्तोऽपि तद्गतसङ्ख्याद्वित्वादि हस्तवितस्त्यादिपरिमाणं कर्म वा वीक्षामहे इत्येकेकव्यभिचाराद्विनिंगम| काभावादुभयमपि बहिरिन्द्रियद्रव्यप्रत्यक्षत्वे प्रयां जकमिति वायुरप्रत्यक्ष' (त. चिं. प्र. ख. पृ. ७३८) इत्युक्तं तत्तु जयदेवमिश्रेणैव तत्त्वचिन्तामण्यालोके उभयप्रयोजकतागौरवदोषेण दूषितम् ।
वस्तुतस्तु 'वातं स्पृशामी' त्याद्यबाधितानुभवबलाद्वायो: स्पार्शनत्वमेव । न च दोषाऽभावे सति द्रव्यग्रहे तद्गतसङ्ख्यादिग्रहनियमाद् वाय सर्वथा तदग्रहात्र स प्रत्यक्ष इति वाच्यम्, यतो न तावदयं व्यक्तौ नियमः, पृष्ठलग्नवस्त्रादेः सङ्ख्यापरिमाणाऽग्रहेऽपि त्वचा तद्ग्रहात् । नाऽपि तज्जातीय, फूत्कारादी सङ्ख्या परिमाणादीनां वाय्वभिघातस्य च शरीरे प्रत्यक्षकी कल्पना करनी पड़ेगी, जो कि गौरवग्रस्त होने से उपादेय नहीं हो सकती । अतः लाघवसहकार से द्रव्यचाक्षुषमात्र, जो बहिरिन्द्रियजन्य हो, उसके प्रति उद्भूतरूप- स्पर्शोभय को ही कारण मानना उचित है । चन्द्रादि की प्रथा में उद्भूत रूप होने पर भी उद्भूत स्पर्श नहीं होने की वजह 'एकसत्त्वेऽपि उभयं नास्ति' न्याय से उभयाज्भाव सिद्ध होता है। कारण के अभाव से चन्द्रादि की प्रभा का बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । अतएव उसमें अतीन्द्रियत्व की सिद्धि से प्रौढप्रकाशक यावत्तेजोद्रव्य के संसर्गाभावात्मक अन्धकार के अतीन्द्रियत्व का प्रसङ्ग ज्यों का त्यों बना रहता है" तो यह भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि उभयत्व एकविशिष्टाऽपरत्वस्वरूप है, न कि प्रत्येक से अतिरिक्तरूप । अतएव विशेषणविशेष्यभाव
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*दिनकरभट्ट-रामरुद्रभट्टमतसमीक्षणम् * कि प्रकाशकरूपाभावस्य तमस्त्वे पृथिव्यादौ सदा तमोव्यवहारापत्तिः, समवायेन |
---.. * गयलता * त्वात् । यद्बा मास्तु वायूष्मादेः त्वाचसाक्षात्कारः मास्तु च संख्या-परिमाणादिसाधारणज्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति आश्रयत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकतया वाय्बादिवृत्तिसङ्ख्यागुणस्यापि त्वाचादिसाक्षात्कार; परन्तु वाय्वादिवृत्तिक्रियायाः वाय्वादिघटितसनिकर्षेण वाय्वादिवृत्तिवान्दोबरच-द्रनालाजिारो मनसायात रस्तु मीमांसकाभिमतो दुर्वार एव, द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतत्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति त्वक्संयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शवत्समवायत्वेनैव प्रत्यासत्तित्वात् । त्वक्संयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतरूपस्पर्शवत्समबायत्वेन प्रत्यासत्तित्वे गौरवात्, वायूष्मादिस्पर्शत्वाचे व्यभिचाराचेति भावनीयम् ।
नव्यास्तु 'बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षमात्रे न रूपं कारणं, प्रमाणाऽभावात्किन्तु चाक्षुषप्रत्यक्ष रूपं स्पार्शने च स्पर्शः कारणं, अन्वयन्यतिरेकात् । 'बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन्ने किं कारणं ?' इति चेत्, न किञ्चिदपि, आत्माऽवृत्तिशब्दभित्रविशेषगुणवत्त्वं वा प्रयोजकमस्तु । 'रूपस्य कारणत्वे लाघवमिति चेत् ? न, वायोस्त्वगिन्द्रियेणाऽग्रहणप्रसङ्गात् । इष्टापत्तिरिति चेत् ? तर्हि उद्भूतस्पर्शस्यैव तथात्वं किं न स्यात् ? प्रभाया अप्रत्यक्षत्वे त्विष्टापत्तेः सम्भवात् । न च 'प्रभा' पश्यामी'त्यनुव्यवसायस्यैव प्रभाप्रत्यक्षत्वे प्रमाणत्वात्रैवमिति वक्तव्यम, 'वायं स्पशामी'त्यनुव्यवसायस्याऽपि वायुस्पार्शनलसाधने बद्धकक्षत्वात् । प्रभावत् बायोरण्येकत्वं गृह्यत एव, क्वचित् सङ्ख्यापरिमाणाद्यग्रहो सजातीयसंवलनादिस्वरूपदोषादित्याहुः ।
यत्तु दिनकरेण 'प्रभाया अप्रत्यक्षे त्विष्टापत्तिरित्येव किं न स्यादिति तदपि न 'उपरिदेशे विहङ्गम' इत्यत्र प्रभामण्डलस्यैवोपरिदेशतया तत्प्रत्यक्षं विनोपरिदेशे विहङ्गम इति प्रत्यक्षानुपपत्तेः' (मु.दि. १.४२५) इत्युक्तं तन मनोरमम्, शाब्दबोधे प्रथमान्तपदोपस्थाप्यस्यैव मुख्य विशेष्यतया भाननियमेन उपरिदेशस्या प्रत्यक्षत्वेऽपि तस्य विहङ्गमविशेषणतयोपनीतभानसम्भवादनुपपत्त्यभावात् ।
यदपि रामरुद्रीये 'उपनीतं विशेषणतयैव भासत इति नियमादुपरिदेशस्या प्रत्यक्षत्वे तस्य प्रत्यक्षे मुख्य विशेष्यतया भानानुपपत्तिः, वायोरप्रत्यक्षत्वे तु न काचिदनुपपत्तिरस्तेि' (मु.रा. पृ.४२५) इत्युक्तं तदपि न चारु, 'शीतं वायु स्पृशामी'त्यचाधितानुव्यवसायानुपपत्तेरेव बायोः स्पार्शनत्वे प्रमाणत्वात् । एतेन शरीरवायुसंयोगानन्तरं 'शीतो वायुांती'त्यादिवायुमख्यविशेष्यकलौकिकसाक्षात्कारो न स्पार्शनः परन्तु मानस एवेत्यपि निरस्तम्, 'वायोः शीतं स्पर्श स्पृशामि', 'वायु स्पृशामी त्याद्यनुव्यवसायानुपपत्तेः । न चाऽसौ भ्रमः, तदनन्तरं बाधविरहात् । 'इदं रजतमि ति भ्रमानन्तरं 'नेदं रजतमि ति बाधनिश्चयादेव पूर्वतनप्रतीते: भ्रमत्वं कल्प्यते न तूत्तरकाले बाधनिश्चयाऽभाचे, अन्यथा घटादिविषयकप्रतीतीनामपि भ्रमत्वकल्पनापत्त्या शून्यवादिमतप्रवेशापातादिति दिक् ।
प्रकरणकार: प्रगल्भमते दोषान्तरमाविष्करोति - किश्चेति । समवायेन तदभावस्य = समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रति
में विनिगमनाविरह दोष उपस्थित होता है। अर्थात् बहिरिन्द्रियजन्य द्रव्यविषयक प्रत्यक्ष के कारणीभूत उभय को उद्धृतरूपविशिष्ट
नना या उद्धतस्पर्शविशिष्ट उद्धतरूपात्मक मानना ? इस विषय में कोई एकतरपक्षपाती युक्ति नहीं होने से उद्भूतरूपविशिष्टोद्भूतस्पर्शत्व और उद्धृतस्पर्शविशिष्टोद्भूतरूपत्र दोनों का रहिरिन्दिजन्य द्रव्यगोचर लौकिकज्ञान के कारणताबच्छेदकधर्मविधया स्वीकार करने की अपत्ति उपस्थित होने से प्रगल्भ के मत में ही हमारे पक्ष की अपेक्षा महागौरव दोष अनिवार्य होगा। अतः रहिरिन्द्रियजन्य द्रव्यप्रत्यक्ष के प्रति उद्भुत रूप एवं उद्भूत स्पर्श उभय को कारण नहीं माना जा सकता, किन्तु व्यचाक्षुष के प्रति उद्भूत रूप को एवं द्रव्यस्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति उद्भूत स्पर्श को ही कारण मानना उचित प्रतीत होता है। अतः चन्द्रादि की प्रभा का चाक्षुष होने में कोई दोष-बाध नहीं है, क्योंकि उसमें उद्भूत रूप रहता है। अतः प्रौढप्रकाशन यावनेजोद्रव्य के संसर्गाभावात्मक अन्धकार के अतीन्द्रियत्व के प्रसंग को अवकाश नहीं है। इसलिए 'प्रकाशकरूपाभाव ही अन्धकार है' इस प्रगल्भवचन को मान्य नहीं किया जा सकता ।
* प्रगल्भमत में पृथ्वी आदि में सदा अन्धकारल्यवहार की आपत्ति * किश्च. इति । दूसरी बात यह है कि अन्धकार को प्रकाशकरूपाऽभावात्मक मानने पर पृथ्वी आदि द्रव्य में सदा, चाहे दिन हो या सत, अन्धकारव्यवहार की आपत्ति आयेगी, क्योंकि पृथ्वी का रूप प्रकाशक नहीं होने से समवाय सम्बन्ध से | प्रकाशक रूप का अभाव सदा रहता है। समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव होने से मध्याह्न काल में भी
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३७१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ वृत्त्यनियामकसम्बन्धेनाभावानङ्गीकारः
तदभावस्य तत्र सार्वदिकत्वात् । 'स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन तदभावस्यैव तमस्त्वमिति नायं दोष' इति चेत् ? न तस्य वृत्यनियामकत्वेन तत्सम्बन्धावकिन्नाभावस्यैवाऽसिदेः ।
* जयलता
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योगिताकप्रकाशकरूपाभावस्य तत्र पृथिव्यादौ, सार्वदिकत्वात् = सर्वदा वर्तमानत्वात् । ततश्च मध्याह्नकाले सूर्यप्रकाशसंयुक्तेऽपि पृथिव्यादी समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रकाशकरूपाभावस्य सत्त्वेन तमोव्यवहारप्रसङ्ग इत्यर्थः । परः शङ्कते स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन तदभावस्यैव = स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रकाशकरूपाभावस्यैव, तमस्त्वमिति । एवकारेण समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य तस्य व्यवच्छेदः कृतः । स्वपदेन प्रकाशकरूपस्य ग्रहणम् । तदाश्रयेण सूर्यप्रकाशादिद्रव्येण संयुक्ते पृथिव्यादी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन प्रकाशकरूपस्य वर्तमानत्वेन तदा न तमोव्यवहारः संभवतीति हेतोः नायं दोषः = न पृथिव्यादौ सदा तमोव्यवहारप्रसङ्गः, आलोकसंयुक्तत्वदशायां पृथिव्यादी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रकाशकरूपाभावस्य विरहात् । प्रकरणकार: तदपाकरोति नेति । तस्य = स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य, वृत्त्यनियामकत्वेन आधाराधेयभावाऽनियामकत्वेन तत्सम्बन्धावच्छिन्नाभावस्य स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्य एव असिद्धेरिति । अयोगव्यवच्छेदेऽयमेवकारः । वृत्तिनियामकसम्बन्धस्यैव प्रतियोगितावच्छेदकत्वात् स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वं न सम्भवति । न हि स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन नीलपृथिव्यादौ प्रकाशरूपाधारता प्रतीयते । स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वेन प्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् तदवच्छिन्नप्रतियोगित्वाऽसम्भवात् तादृशप्रतियोगित्वनिरूपकप्रकाशकरूपाभावस्याऽप्यप्रसिद्धेः न तमसः तदात्मकत्वं सम्भवति, अन्यथा तमसो बन्ध्यापुत्रत्वात्मकत्वमपि स्यात्, अविशेषात् ।
ननु स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वेन मात्रस्तु प्रतियोगितावच्छेदकत्वं प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकत्वं तु सम्भवत्येव । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकतानिरूपकतादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकस्य प्रकाशकरूपकद्भेदस्य तमस्त्वे नं कश्चिद्दोषः । प्रकाशकरूपवत्सौरालोकादिसंयुक्ते पृथिव्यादी स्वाश्रयसंयोगेन प्रकाशकरूपवत्प्रति| योगिक भेदस्याऽसत्त्वान्न तदा तत्र तमोव्यवहारप्रसङ्गः । न च वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्ववत् प्रतियोगितावच्छेदकतानवच्छेदकत्वमेव किं न स्यादिति वक्तव्यम्, 'चैत्रो न पचती' त्यादौ 'अनुकूलत्वसम्बन्धेन पाकविशिष्टकृत्यभाववांचैत्र' इत्यन्वयबोधस्यानुभविकतया निरुक्ताभावीयकृतिनिष्ठप्रतियोगितानिरूपित पाकनिष्ठावच्छेदकताया वृत्यनियामकानुकूलत्वसम्ब
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'अन्धकारवती पृथिवी' 'अन्धकारवत् जले' इत्यादि शब्दव्यवहार एवं प्रतीति को मान्य करने की आपत्ति प्रगल्भमत में अनिवार्य बनेगी । यदि उक्त आपत्ति के निराकरणार्थ प्रगल्भ की ओर से यह कहा जाय कि "समवाय सम्बन्ध से प्रकाशक रूप का जहाँ अभाव हो वहाँ अन्धकारव्यवहार नहीं होगा, क्योंकि हम समवायसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव को अन्धकारात्मक नहीं मानते हैं, किन्तु स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाऽभाव को ही अन्धकारस्वरूप मानते हैं । जब मध्याह्न काल होता है तब पृथ्वी आदि में सूर्यप्रकाश का संयोग रहता है, जिसका रूप प्रकाशक = भास्वर होता है । स्व = प्रकाशक रूप, उसके आश्रय सूर्यप्रकाशव्य (= सीरालोक) का संयोग पृथ्वी आदि में मध्याह्न काल में रहने से स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से तब पृथ्वी में प्रकाशक रूप ही रहेगा, न कि प्रकाशक रूप का अभाव, क्योंकि प्रतियोगी अपने अत्यन्ताभाव का विरोधी होता है । जब रात का समय होगा और पृथ्वी आदि दीपक आदि की प्रथा एवं प्रकाश से शून्य होगी तब प्रकाशकरूप स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से पृथ्वी आदि में नहीं रहेगा, क्योंकि तब पृथ्वी प्रकाशकरूपवाले द्रव्य से संयुक्त नहीं है । उस काल में पृथ्वी आदि में स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छित्रप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाऽभाव रहने से 'अन्धकारबी पृथिवी' इत्यादि प्रतीति एवं व्यवहार निराबाधरूप से हो सकेगा । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव को अन्धकारात्मक मानने में कोई दोष नहीं है" तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध नृत्यनियामक होने से प्रतियोगितावच्छेदक नहीं हो सकता है। जिस सम्बन्ध से आधाराधेयभाव की प्रतीति हो उस सम्बन्ध को वृत्तिनियामक कहा जाता है, जैसे कि समवाय । जिस सम्बन्ध से आधाराधेयभाव की प्रतीति न हो वह वृत्ति-अनियामक कहा जाता है जैसे स्वसमवेतत्वसंसर्ग । प्रतियोगितावच्छेदक नहीं हो सकता है । प्रस्तुत में स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध वृत्ति अनियामक है, क्योंकि उस सम्बन्ध से आधार - आधेयभाव का भान नहीं होता है । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव ही अप्रसिद्ध है, तब उसे अन्धकारात्मक कैसे माना जा सकता ? इसलिए स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता के निरूपक प्रकाशकरूपाभाव की कल्पना केवल कल्पना ही है ।
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* सिद्धान्तलक्षणदीधिति - जागदीशीसंवादः *
तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकतद्वद्भेदस्य तथात्वे तु निशीथिन्यामपि भूतलादौ तमोव्यवहारानुपपत्तिः, अन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तित्वादिति दिक् ।
* गयलता कै
३७२
न्धावच्छिन्नतायां विवादाऽभावेन वृत्त्यनियामकसम्बन्धावच्छिन्नाऽपि प्रतियोगिताऽवच्छेदकता सर्वसम्मतैव । तदुक्तं सिद्धान्तलक्षणदीधितिजागदीश्यां "वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वाभावेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकताघटकसम्बन्धत्वं सर्वसम्मतमेव, 'चैत्रो न पचतीत्यादौ वृत्त्यनियामकाऽनुकूलत्वसम्बन्धेन पाकविशिष्टायाः कृतेरभावस्य चैत्रादावन्चयदर्शनात् " (सि.ल.जा. पु. २२९) इति । तथा च प्रकृताऽभावीय प्रकाशकरूपवभिष्ठप्रतियोगितानिरूपितप्रकाशकरूपनिष्ठावच्छेदकताया वृत्त्यनियामकस्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नतायां विप्रतिपत्त्यसम्भवादित्याशङ्कानिराकरणकृते प्रकरणकृदाह - तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकतद्वद्भेदस्य = स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न-प्रकाशकरूपनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकताकप्रकाशकरूपवत्प्रतियोगिकभेदस्य, तथात्वे = तमस्त्वेऽभ्युपगम्यमाने इति शेषः । अत्र प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धः स्वाश्रयसंयोगः प्रतियोगितावच्छेदकधर्मः प्रकाशकरूपं प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धश्च तादात्म्यसंसर्ग: सौरालोकादिशून्य एव देशे स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन प्रकाशकरूपविशिष्टस्य भेदो वर्तत इति तत्रैव तमसः प्रतीतिर्व्यवहारश्चेति प्रकाशकरूपवद्भेदलक्षणत मोवाद्यभिप्रायः ।
प्रकरणकारः तदपाकरणे हेतुमाह - त्विति । पूर्वाऽपेक्षया विशेषद्योतनार्थः । तमेवाऽऽह निशीथिन्यामपि भूतलादौ तमोव्यवहारनुपपत्तिः । कुतः ? इत्याह - अन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तित्वादिति । दिवा भूतलादी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन प्रकाशकरूपाश्रयस्य भेदः स्वरूपेण न वर्तत इत्यत एव तदानीं तत्र न तमसो ज्ञानं व्यवहारश्च । प्रकाशकरूपवत्प्रतियोगिकभेदस्य भूतलादी सौरालोकादिसंयुक्तत्वदशायामवर्तमानत्वात्र निशायामपि स तत्र भवितुमर्हति भेदस्य व्याप्यवृत्तित्वेन स्वाभावाधिकरणेऽवर्त्तमानत्वात् । न च काले देशस्येव देशेऽपि कालस्याऽवच्छेकत्वसम्भवादालोककालीने भूतलादौ तादृशभेदस्याsसत्त्वेऽपि आलोकशून्यकालावच्छेदेन निरुक्तभेदसत्त्वे बाधकाभावेन न नक्तं तत्र तमोव्यवहारानुपपत्तिरिति वाच्यम्, अत्यन्ताभावस्थले एव देशे कालस्य काले च देशस्याऽवच्छेदकत्वसम्भवात् न त्वन्योन्याभावस्थले । यद्वा भक्तु पाकानन्तरं रक्तनादशायां 'इदानीं नाज्यं श्याम' इत्यनुभवबलेन पाकानन्तरकालस्याऽन्योन्याभावस्थलेऽपि देशावच्छेदकत्वं तथापि आलोकभिन्नकालावच्छेदेन निरुक्तभेदस्य तमस्त्वं न सम्भवि, निशीधिन्यामप्यन्यदेशावच्छेदेनाज्ज्लोकसम्भवात् । तद्देशावच्छिन्नालोकभिन्न
* स्वाश्रयसंयोग को भेदप्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध मानने में दोष स्याद्वादी
तत्सं० इति । यदि प्रगल्भ की ओर से यह कहा जाय कि > "स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध वृत्ति अनियामक होने से प्रतियोगितावच्छेदक मत हो, मगर प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदक तो बन सकता है। ऐसा मानना तो नैयायिकमत में प्रसिद्ध ही है । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से प्रकाशकरूपवान् के भेद को ही अन्धकारात्मक माना जा सकता है। मतलब यह है कि प्रकाशक- रूपवत्प्रतियोगिक भेद ही अन्धकार है । यहाँ प्रतियोगितावच्छेदक सम्बन्ध तादात्म्य है एवं प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध है स्वाश्रयसंयोग । प्रतियोगितावच्छेदकधर्म है प्रकाशक रूप । प्रकाशक रूप स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से सूर्यप्रकाशादिसंयुक्त भूतलादि में रहता है, क्योंकि उक्त सम्बन्ध में स्वपद से प्रकाशक रूप को लेने पर उसका आश्रय सूर्यप्रकाशादिस्वरूप द्रव्य है, जो भूतलादि से संयुक्त है । अतः तादृश भूतलादि द्रव्य स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से प्रकाशकरूपविशिष्ट बनेंगे । उसका भेद सूर्यप्रकाशादि से असंयुक्त देश में रहेगा । अन्धकार तादृश भेदात्मक ही है, क्योंकि तादृश भेद जहाँ जहाँ रहेगा, वहाँ वहाँ अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार होता है । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियागितावच्छेदकता एवं तादात्म्यसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिता के निरूपक प्रकाशकरूपविशिष्टप्रतियोगिक भेद को ही अन्धकार मानना तर्कसंगत है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भेद व्याप्यवृत्ति होने से रात्रि में भी भूतलादि में अन्धकारव्यवहार की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि अन्योन्यामाव व्याप्यवृत्ति है । आशय यह है कि जिस अधिकरण में अन्योन्याभाव का अमाव रहता हो वहाँ अन्योन्याभाव नहीं रहता है तथा जहाँ अन्योन्याभाव का अभाव रहता हो वहाँ अन्योन्याभाव नहीं रहता है तथा जहाँ अन्योन्याभाव रहता है वहीं उसका अभाव नहीं रहता है। दिन में भूतल में सौरालोकसंयोग होने पर वहाँ स्वाथयसंयोगसम्बन्ध से प्रकाशक रूप से विशिष्ट का तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक भेद नहीं रहता है, क्योंकि स्व = प्रकाशक रूप के आश्रय सूर्यप्रकाश का संयोग तब भूतल में होने से स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से तब वह प्रकाशकरूपविशिष्ट है। अपने में अपना मेद नहीं रहता है। अतएव तब भूतलादि में अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार नहीं होता है। जब यह सिद्ध हो गया कि भूतलादि मे तादृश भेद नहीं रहता है, यानी तादृशभेद का अभाव रहता है, तब रात में भी तादृशभेद भूतलादि में नहीं रह सकता,
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३७३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * तमसोऽभावत्वे प्रसिद्धव्यवहाराऽसम्भवः *
किच तमसोऽभावत्वं विधिमुखेन प्रत्ययः कथमुपपनीपद्यताम् ? 'ध्वंसादाविव क्वाचित्कनञ्प्रयोगं विनाऽत्रापि तदुपपत्ती किं विस्मयोत्कन्धरतयेति चेत् ? तथापि 'घटस्य ध्वंस' इतिवत् 'आलोकस्य तम:' इति प्रत्ययापत्या किं न बिभेषि 'आलोकाभाव एव
* जयलता *
कालावच्छेदेन देशे स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकप्रकाशरूपवत्प्रतियोगिक भेदस्य तमस्त्वे गौरवात् । न च तदेशावच्छेदेन काले तादृशभेदस्यैव तमस्त्वमस्त्विति वाच्यम्, देशस्यैव तमोऽधिकरणत्वेन प्रतीतेरवच्छेदकत्वासम्भवात्, तादृशप्रणालीमविदुषीऽपि तमः प्रत्यया बेत्यादिसूचनार्थं दिगित्युक्तम् ।
अन्धकारस्याऽभावत्वपक्षे दोषान्तरं समुच्चिनोति किञ्चेति । तमसः = तमः पदवाच्यस्य अभावले महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावदा लोकप्रतियोगिकाभावत्वे, तादृशकतिपयालोकप्रतियोगिकसंसर्गाभावत्वे आलोकदर्शनाभावत्वे प्रकाशकरूपात्यन्ताभावत्वे प्रकाशकरूपवत्प्रतियोगिकान्योन्याभावत्वे कालविशेषाभावत्वे वा विधिमुखेन = 'अत्र तमोऽस्ती' त्येवंविधान्वयरूपेण प्रत्ययः = ज्ञानं कथं उपपनीपद्यतां - सङ्गच्छतांतरां ? अभावस्य तु निषेधमुखेन भानं भवति 'घटो नास्ती'त्यादिवत् । तमसस्तु न निषेधमुखेन भानं भवति किन्तूक्तविधिमुखेनैवेति न तस्याऽभावत्वं सङ्गतिमङ्गतीति भावः । परः समाधत्ते ध्वंसादाविवेति । क्वाचित्कनञ्प्रयोगमिति । कादाचित्कनञ्प्रयोगमित्यपि पाठः । 'कपाले घटस्य ध्वंसोऽस्ति', 'भूतले घटाभावो वर्तते' इत्यादी ध्वंसादेरपि नञ्प्रयोगं विनाऽपि भानं भवति सर्वत्राऽभावस्थले प्रयोगाऽवश्यम्भावानियमात् । तथैव अत्रापि आलोकाभावाद्यात्मकतम: स्थलेऽपि तदुपपतौ नञ्प्रयोगमृते 'तमोऽस्ती' त्येवंविधिमुखभानसम्भवे किं विस्मयोत्कन्धरतया ? तमसोऽभावत्वे नैव विधिमुखप्रत्ययदर्शनेनाश्चर्यं कार्यमिति पराभिप्रायः । स्याद्वाद्याह तथापीति । तमोविधानमुखप्रतीत्युपपादनेऽपि 'कपाले घटस्य ध्वंस' इतिवत् उपलक्षणात् 'घटस्याऽभावोऽस्तीतिवत्, ' आलोकस्य तम' इति प्रत्ययापत्त्या = तादृशप्रत्ययप्रयोगयोः प्रामाण्यप्रसङ्गेन किं न विभेषि ? तयोः प्रमाणत्वं दुर्निवारमिति भावः । परः प्रत्युत्तरयति - आलोकाभावे एवेति । एवकारेण प्रतियोगिविनिर्मुक्ताभावस्य व्यवच्छेदः कृतः । तम:पदेनैवाऽभावप्रतियोगिविधया आलोकभानसम्भवान्न 'आलोकस्य तम' इति प्रतीतिः प्रयोगो वेति पराशयः ।
=
=
क्योंकि भेद और भेदाभाव एक अधिकरण में नहीं रहते हैं । अन्धकार तो तादृश प्रकाशकरूपविशिष्टप्रतियोगिक भेदस्वरूप ही होने से उसके विरह से रात में भी आलोकाऽसंयुक्त भूतलादि में अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार नहीं हो सकता । यह तो दिग्दर्शनमात्र है । इस विषय में अधिक भी विचार किया जा सकता है, इसकी सूचना देने के लिए श्रीमद्जी ने 'दिक्' पद का प्रयोग किया है । विशेषजिज्ञासु यहाँ जयलता टीका को देख सकते हैं ।
अन्धकार को .
[-अभावात्मक मानने में दोषपरम्परा
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किञ्च इति । प्रगल्भमत का निराकरण कर के प्रकरणकार श्रीमद्जी अन्धकार को अभावात्मक मानने वाले नैयायिकादि विद्वानों के मत की पुनः समालोचना करते हैं कि यदि अन्धकार अभावात्मक ही है, न कि भावस्वरूप तो फिर अन्धकार की विधिमुख से प्रतीति कैसे उपपन्न हो सकेगी ? अभाव का तो निपेधमुख से ज्ञान होना चाहिए। मतलब कि घटाभाव का 'घटो नास्ति' इस रूप से निषेधमुखी ज्ञान होता है वैसे अन्धकार का भी निषेधमुख से ज्ञान होना चाहिए । मगर 'तमः अस्ति' ऐसा विधिमुख से अन्धकार का ज्ञान होता है । अन्धकार को अभावस्वरूप मानने पर उक्त विधिमुख ज्ञान कैसे संगत होगा ? यह समस्या है । यहाँ यह कहा जाय कि 'ध्वंस अभावात्मक होता है फिर भी जैसे 'घटस्य ध्वंसोऽस्ति' ऐसा उसका विधिमुख ज्ञान होता है ठीक वैसे ही अन्धकार अभावात्मक होने पर भी 'तमोऽस्ति' ऐसा विधिमुख भान हो सकता है । इस विषय में विस्मय से अपने को उत्कण्ठित बनाना ठीक नहीं है" - तो यह नैयायिकादिकथन इसलिए अयुक्त है कि जैसे 'घटस्य ध्वंसः कपालेऽस्ति' ऐसा ज्ञान होता है वैसे ही 'आलोकस्य तमः' यानी 'आलोक का अन्धकार' ऐसा ज्ञान होने पर नैयायिकादि को डरना नहीं चाहिए । मतलब कि दोनों प्रतीति प्रमात्मक हो जायेगी। मगर नैयायिकादि विद्वानों को भी 'आलोकस्य तमः ' ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अतः ध्वंस की भाँति अन्धकार को अभावस्वरूप नहीं माना जा सकता । यहाँ नैयायिकादि का यह कथन कि "तमः शब्द से ही आलोक की प्राप्ति हो जाने से पुनः 'आलोकस्य' ऐसा अधिक कहना जरूरी नहीं है । पुनरुक्ति दोष प्राप्त होने से 'आलोकस्य तमः' ऐसा शब्दप्रयोग होने का हमें खौफ नहीं है" - भी अयुक्त है, क्योंकि फिर भी 'करिकलभ' इत्यादि शब्दप्रयोग की भाँति 'आलोकस्य तमः' यह आपत्ति
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* तमसो द्रव्यत्वसमर्थनम् * सहकेतितस्तम:शब्द इति न तदापत्त्या बिभेमीति चेत् ?' तथापि 'करिकलौ'त्यादिवत् | किं न तथा प्रयुहक्षे ? 'अप्रयोगादेव न प्रयुञ्ज' इति चेत् ? तथापि 'आलोके नालोक' इतिवत् 'आलोकेऽन्धकारः' इत्यपि किं न व्यवहरसि ?
अपि चाऽन्धतमसावतसत्वाद्युत्कर्षापकर्षदर्शनादपि तस्य द्रव्यत्वम् । महद्धतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावत्वकतिपयतदभावत्वयोरज्ञानेऽपि तद्व्यवहारात् ।
= = = = = =* रायलवा *
स्याद्वाद्याह - तथापीति । तमस आलोकाभावे सङ्केतकरणेऽपि । 'करिकलभेत्यादिवदिति । कलभशब्दस्य करि| संताने एव सङ्केतितत्वेन कलभपदेनैव करिज्ञानसम्भवेऽपि 'करिकलभे'त्यादिप्रयोगः दृश्यत एब । तद्वदेव किं न तथा || 'आलोकतमः' इत्यपि प्रयुझे ? 'करिणः कलमे त्यादिवत् 'आलोकस्य तम' इत्यस्याऽ'युपलक्षणम् । परो वदति - अप्रयोगादेव न प्रयुञ्ज इति । लोके 'आलोकतम' इत्याद्यप्रयोगादेव तथाऽहं न प्रयोगं कुर्वे, 'करिकलभ' त्यादिप्रयोगस्य लोके
(लौकिकप्रयोगाणामिति पराभिप्रायः । प्रकरणकृदभ्युपगम्य दोषान्तरमाह - तथापीति । तमः पदस्यालोकाभावे सड़केतिनत्वेऽपि । 'आलोके नालोक' इतिवत् 'आलोके अन्धकार' इत्यपि किं न व्यवहरसि ? सप्तम्यन्तालोकपदसभिव्याहृतेन नञा अत्यन्ताभावस्यैव बोधनात् 'नालोक' इत्यनेनालोकात्यन्ताभावस्यैव ग्रहात् तमसश्च तद्रूपत्वात् तत्स्थानेऽन्धकारपदप्रयोगस्य न्याय्यत्वादिति प्रकरणकृदभिप्रायः ।
तमसोऽभावत्वे उत्कर्षांपकर्षाऽसम्भवादन्धतमसावतमसादिविशेषो न स्यादित्यतोऽपि तस्य द्रव्यत्वं युक्तमित्याह अपि | चेति । अन्धतमसावतमसत्वाद्युल्कापकर्षदर्शनादपि तस्य = तमसः द्रव्यत्वम् । उत्कर्षापकर्षों नाऽभावे सम्भवत: किन्तु भाव एव । दृश्येते च अन्धकार-न्धतमस्त्यावतमसत्वलक्षणाबुत्कर्षापकर्षों । तदन्यथानुपपत्त्या तमसो भावत्वं सिध्यति । ननु महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावोऽन्धतमसं कतिपयतदभावश्वाऽवतमसम् । इत्यञ्च तमसोऽभावत्वेऽपि महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावत्वेन अन्धतमसत्वप्रकारकप्रतीते: कतिपयतदभावत्वेन चाऽवतमसत्वप्रकारकप्रतीते: सम्भव इति पराऽऽशङ्कायामाह - महदिति । अज्ञानेऽपि = एतावघटकाज्ञानेऽपि तदव्यवहारात् = अन्धतमसावतमसव्यवहारात् । व्यवहारे
अनिवार्य है । आशय यह है कि कलभशब्द का संकेत संस्कृतभाषा में हाथी के बच्चे में होता है । कलभ कहने से ही 'करि = हाथी का रथा' ऐसा ज्ञान होता है। फिर भी 'करिकलभ' ऐसा शब्दप्रयोग शतशः दिखाई देता है । कलभशन्द से ही 'करि' का ज्ञान मुमकिन एवं आवश्यक होने पर भी 'करि' वान्द का कलभशब्द के आगे प्रयोग किया जाता है। ठीक वैसे ही आलोकाभाव में तम शब्द का संकेत होने पर भी 'आलोकस्य तमः' ऐसे वाक्यप्रयोग की आपत्ति होगी। अर्थात् 'करिकलभ' यह प्रयोग प्रामाणिक है ठीक वैसे ही 'आलोकस्य तमः' यह वाक्यप्रयोग भी प्रामाणिक हो जायेगा । तो पिर नैयायिकादि चिद्वान 'आलोकस्य तमः' ऐसा प्रयोग क्यों नहीं करते हैं? इस समस्या का कोई समाधान नैयायिकादि के पास नहीं है। यहाँ नैयायिकादि की ओर से यह कहा जाय कि → “आलोकस्य तमः-ऐसा लोक में प्रयोग नहीं होता है । इसलिए हम वैसा वाक्यप्रयोग नहीं करते हैं। 'करिकलभ' इत्यादि प्रयोग लोक में होता है। इसलिए हम तथाविध वाक्यप्रयोग करते हैं" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि तुम्हारे मत में अन्धकार आलोकाभावात्मक होने से जहाँ आलोकाभाव का प्रयोग होता है वहाँ अन्धकारपद का प्रयोग होना अनिवार्य होने से 'आलोके नालोकः' इस प्रयोग के स्थान में 'आलोकेऽन्धकार' इस वाक्यप्रयोग की आपत्ति तो दुर होगी । 'आलोक में आलोक नहीं है। ऐसा वाक्यप्रयोग तो लोक में सहस्रशः होता है, जिसमें 'आलोक नहीं है' का अर्थ आलोकात्यन्ताभाव होता है, जो अन्धकार है, ऐसा नैयायिकादि को अभिमत है । अतः उसके स्थान में अन्धकारपद का प्रयोग होना चाहिए । अत: 'आलोके अन्धकारः' = 'आलोक में अन्धकार है' यह प्रयोग भी नैयायिकादि के मत में प्रामाणिक हो जायेगा ।
अभावात्मक अन्धकार में तारतम्य की अमुपपत्ति के अपि च, इति । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि अन्धकार यदि आलोकाभावस्वरूप ही है तो फिर 'यहाँ गाढ अन्धकार है', 'वहाँ मंद अन्यकार है ऐसे उत्कर्ष, अपकर्ष का अन्धकार में भान कैसे होगा ? अभाव में उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं होता है । 'यहाँ गाढ घटाभाव है वहाँ मन्द पटाभाव है' इत्यादि प्रतीति या प्रयोग लोक में या शास्त्र में अप्रसिद्ध हैं । अत: गाढ अन्धकार का अर्थ गाह आलोकाभाव इत्यादि नहीं हो सकता है । उत्कर्ष या अपकर्ष भाव पदार्थ
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३७५ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्ड: २ - का
* उदयनाचार्यमतसमीक्षणम्
वस्तुतः कतिपय-तदभावो लाऽवतमसं, दिवा प्रकृष्टालोकेऽपि तत्सत्त्वात् । न च छायायामतिव्याप्तिवारणाय स्वन्यूनसंख्यबाह्यालोकसंवलने सतीति विशेषणावश्यकत्वात्,
ॐ जयलता
व्यवहर्तव्यज्ञानस्य कारणत्वात् घटकाज्ञाने च यदितानवबोधात् निरुक्तघटकाज्ञानवतीःन्धतमसत्वादिधीनं स्यात् न स्याच्चान्धतमसादिपदप्रयोगः । दृश्यते चैतादृशघटकाऽप्रतिसन्धानेऽपि अन्धतमसत्यादिप्रतिसन्धानं तथाव्यवहारश्चेति घटत्ववदन्धतमसत्वादेः जातित्वमेव न्यायमिति भावः । एतेन अभावप्रत्यक्षे प्रतियोगिज्ञानापेक्षायां विना प्रतियोगिज्ञानं जायमानं तमस्त्वप्रकारकं नमः प्रत्यक्षं तमसो भावत्वमेव साधयतीत्यपि दर्शितम् । अत एव आलोकं जानतामेव नमः प्रत्यक्षस्वीकारः । तदाहुराचार्याः किरणावल्यां 'गिरिदुरीविवरवर्तिनो यदि योगिनो न ते तिमिरावलोकिनः, तिमिरावलोकिन्तु नूनं स्मृतालोका: ' (१.३२) इति प्रत्युक्तम्, तेजसो प्रतिसन्धानेऽपि तमोऽनुभवस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । न चैवं तमसो भावत्त्वसाधनेऽपि द्रव्यत्वं कुतः ? इति वाच्यम्, नीलरूपायाश्रयत्वेन तस्य द्रव्यत्वसिद्धेः । इदं नीलमित्यादिधियां भ्रमत्वं तत्र 'नेदं नीलमि' त्यादिसाक्षात्कारे वस्तुस्वरूपस्यादृष्टविशेषस्य वा दोषस्य वा प्रतिबन्धकत्वं तत्राऽप्यप्रामाण्यज्ञानाऽभावविशिष्टतेजोऽभावत्वप्रकारकज्ञानादीनामुत्तेजकत्वमित्यादिकानेऽतिगौरवात् ।
वस्तु । कतिपयतदभावः = कतिपय
भूतानभिभूतरूपवदालोकाऽभावः नावतमसम् । कस्मात् ? इत्याह - दिवा प्रकृष्टालोकेऽपि भूतलादी तत्सत्त्वात् = देशान्तरवर्ति- कालान्तरीय-मदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाभावस्य विद्यमानत्वात्, तदानीमवतमसप्रतीतिप्रयोगी प्रसज्येतामिति भावः । न होकत्रैकदा यावदुक्तालोकसम्भवो घटाकोटिमाटीकते । अतः कतिपयतादृशालोकाभावस्य नावतमसत्वं युक्तमिति स्याद्वाद्याशयः ।
परशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते न चेति । अस्य 'वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । अवतमसभिन्नायां छायायां कतिपयमहदुद्भू| तानभिभूतरूपवदालोकाभावत्वयुक्तायां अतिव्याप्तिवारणाय = अवतमसलक्षण प्रवेशनिराकरणकृते, 'स्वन्यून सङ्ख्यबाह्यालोकसंबलने सतीति विशेषणावश्यकत्वादिति । संवलनं नाम एकदेशकालयोरस्तित्वम्, ततश्च स्वसमानदेशत्व-स्वसमानकालीनत्वोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वा न्यूनसङ्ख्यकनिरुक्ताऽऽलोकविशिष्टत्वे सति कतिपयमहदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोका भम्बोऽवतमसमिति तल्लक्षणं पर्यवसितम् । स्वपदेन निरुक्तालोकाभावस्य ग्रहणम् । छायायास्तु स्वसमान| देशत्व-स्वसमानकालीनत्वोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वाकसङ्ख्यका लोकविशिष्टत्वान्नातिव्याप्तिः । निरुक्तो - में ही होता है न कि अभाव पदार्थ में । अन्धकार में प्रसिद्ध अबाधित उत्कर्ष, अपकर्ष की प्रतीति की अन्यथा अनुपपत्ति से अन्धकार भावात्मक द्रव्यात्मक सिद्ध होता है । अन्धकार में नील रूपादि की प्रतीति तो सर्वजनविदित ही है । दूसरी बात यह भी ध्यातव्य है कि अन्धकार के स्वरूप से नैयायिक विद्वानों में भी मत-मतान्तर है । कोई नैयायिक अन्धकार को महदुतानभिभूतरूपवद्यावदालोक के अभावस्वरूप मानते हैं तो कोई महदुद्भूतानभिभूतरूपवत् कतिपय आलोक के अभाव को ही अन्धकार मानते हैं। मगर इसमें से एक भी मत श्रद्धेय नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि अभाव की ज्ञान में प्रतियोगी का ज्ञान एवं तादृश अभाव का ज्ञान कारण होता है। प्रतियोगी घट एवं विशेषण घटाभावत्व के ज्ञान के बिना घटाभाव का ज्ञान नहीं होता है। इसी तरह अन्धकार का ज्ञान भी महद्भूतानभिभूतरूपवत् यावत् आलोक एवं तादृशालोकप्रतियोगिकाभावत्व के ज्ञान के बिना या तादृश कतिपय आलोक एवं तादृशकतिपय आलोकप्रतियोगिकाभावत्व के ज्ञान के बिना नहीं होना चाहिए। तथा तादृश ज्ञान के विरह में अन्धकारव्यवहार भी नहीं होना चाहिए। मगर तथाविध प्रतियोगी एवं तथाविध अभावत्व के ज्ञान के बिना भी अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार होता है । इसलिए अन्धकार को तादृशालोकाभावात्मक नहीं माना जा सकता । घटक के ज्ञान के बिना घटित का ज्ञान नहीं हो सकता है, विशेषण के ज्ञान के बिना विशिष्ट का बोध नहीं होता है यह सर्वमान्य सिद्धान्त है ।
(*) कतिपय आलोकविशेष का अभाव अन्धकार नहीं हो सकता
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वस्तुत इति । वस्तुस्थिति यह है कि महत्परिमाणयुक्त एवं उद्भूत अनभिभूतरूपवाले कतिपय आलोक का अभाव अवतमस = मन्द अन्धकार नहीं हो सकता है, क्योंकि दिन में प्रकृष्ट आलोक होने पर भी कतिपय तादृश आलोक का अभाव होने से मध्याह काल में भी अवतमस की प्रतीति एवं व्यवहार के प्रामाण्य की आपत्ति होगी। सारे जहाँ के सभी प्रकृष्ट आलोक एक काल में और एक देश में नहीं होते हैं । अन्यत्र एवं अन्यदा तादृश भालोक की विद्यमानता होती ही है । अतः
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** अन्धतमसाऽवतमसस्वरूपमीमांसा * तिदानीच बाह्यालोकस्य स्वाधिकसइख्यत्वानातिव्याप्तिरिति वाच्यम, तदिनातिरिक्तानन्तदिनवृत्तिबाह्यालोकाभावानामेवाऽधिकत्वात् ।
* गरालता भयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वाऽधिकसङ्ख्यकाऽऽलोकविशिष्टत्वानातिव्याप्तिः । निरुक्तोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया बाऽधिकसयका लोकविशिष्टत्वे सति निरुक्तालोकाभावस्यैव छायालक्षणत्वमामनन्ति नैयायिकप्रवराः । 'तथापि दिवा प्रकृष्टालोके सत्यपि कतिपयोक्तालोकाभावस्य सत्त्वेन कथं न तदानीमवतमसप्रतीतिप्रयोगो' ? इत्याशङ्काम - पनोदितमाह . तदानीधेति । दिनसमये चेति । बाह्यालोकस्य स्वाधिकसख्यत्वात = कतिपयमहदद्भतानभिभूतरूप बदालोकाभावस्य स्वसमानदेशत्वस्यसमानकालत्वोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वाधिकसइख्याविशिष्टत्वात न | दोषः दिवा अवतमसप्रतीतिप्रयोगप्रामाण्यप्रसङ्गलक्षणः । इत्थश्चैकपरिष्कारेण दोषद्वयल्याहतिरिति पराभिप्रायः ।
प्रकरणकृत्तन्निरासे हेतुमुपदर्शयति - तदिनातिरिक्तानन्तदिनवृत्तिगह्यालोकाभावानामेवेति । अवतमसप्रतीतिप्रयोगप्रामाण्यापादनं यस्मिन् दिने क्रियते तस्मात् दिनात्, अतिरिक्तेषु अनन्तदिनेषु वृत्तीनां बाह्यालोकानामिति । एवकारो बाह्यालोकलक्षणान्ययोगव्यवच्छंदाधः । अधिकत्वात - स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया बाधिकसड़ख्यत्वात् । तदिवसे निरुक्तीभयसम्बन्धेन बाह्यालोकविशिष्टकतिपयनिरुक्तालोकाभावसङ्ख्यापेक्षया संवलितबाह्यालोकानां न्यूनसङ्गस्यत्वेन निरुक्तोभयसम्बन्धेन न्यूनसङ्ख्यकालोकविशिष्टस्य कतिपयनिरुक्तालोकाभावस्य दिवा भूतलादावक्षतत्वात् तदानीमवतमसप्रतीतिप्रयोगप्रामाण्यप्रसङ्गो दुर्निवार एवेति स्याद्वाद्यभिप्रायः ।
किश्चैतादृशरूपाऽप्रतिसन्धान प्यवतमसत्वानुभवान्न तस्यैतादृशाभावत्वम्, अभावज्ञाने स्वप्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानस्य हेतुत्वात् । एतेन रूपत्वग्राहकतेजःसंवलितस्तदवान्तरविशेषग्राहकयावत्तेजःसंसर्गाभावोऽवतमसम, रूपत्वावान्तरजातिग्राहकतेज:संवलितः प्रौढप्रकाशकयावत्तेजःसंसर्गाभावश्छाया, यावदालोकाभावश्चाऽन्धतमसमित्यपि प्रत्युक्तम्, ज्ञानगर्भतयाऽवतमसादीनामचराक्षषत्वप्रसगात्, तादृशजात्यसिद्ध्या ततज्ज्ञानविशेषपरिचापितजातिविशेषविशिष्टाऽऽलोकनिवेशाऽसम्भवाच्चेति भावनीयं सुधीभिः ।
विवक्षित देश में विवक्षित काल में अन्यत्र स्थित कतिपय प्रकृष्ट आलोक का अभाव सुचच है।
____ यदि नैयायिकादि मनीषियों की ओर से यह कहा जाय कि => 'महत्त्व एवं उद्भूत तथा अनभिभूत रूप जिस तेजों में होता है, उनमें से कतिपय तेज के अभाव को अवतमस मानने पर छाया में अतिव्याप्ति का चारण करने के लिए उक्त अभाव में उस अभाव से अथवा उसके प्रतियोगी से आपसङ्ख्यक बाह्यालोक के संचलन का निवेश करना होगा । संचलन का अर्थ है एक देश और एक काल में अस्तित्व । इस संचलन का निवेश करने पर अवतमस का लक्षण यह बनेगा कि स्व की अपेक्षा या स्वप्रतियोगी की अपेक्षा अल्पसङ्ख्यक वाह्यालोक से स्वसमानदेशत्व और स्वसमानकालत्व उभयसम्बन्ध से विशिष्ट जो कतिपय उक्त आलोक का अभाव है पह अवतमस है । अवतमस का यह लक्षण होने पर छाया में अतिव्याप्ति नहीं होगी, क्योंकि उक्त प्रकार के कतिपय आलोक के जितने अभाव के रहने पर छाया का व्यवहार होता है, उन अभावों से या उनके प्रतियोगियों से न्यूनसंख्यक वाद्यालोक का संचलन छाया में नहीं होता किन्तु अधिकसख्यक वाद्यालोक का संचलन होता है। अवतमस का यह लक्षण निप्पन्न होने पर दिन में प्रकार आलोक के समय अवतमस की प्रतीति एवं उसके व्यवहार की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उस समय उक्त प्रकार के आलोक का जितना अभाव होता है उससे अथवा उसके प्रतियोगी से अधिकसङ्ख्यक बाह्यालोक दिन के प्रकए आलोक के समय रहता है। अतएव उक्त समय में विद्यमान उक्त प्रकार के आलोकाभावों में उसकी अपेक्षा अथवा उसके प्रतियोगी की अपेक्षा न्यूनसंख्यक बाह्यालोक का संचलन नहीं रहता है" -
तदिन. इति । तो यह कथन भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि जिस दिन प्रकृष्ट आलोक के समय अवतमस का आपादन करना है उस दिन केवल उस दिन के ही कतिपय तादृश बाह्यलोकों का अभाव नहीं है, किन्तु उस दिन से भिन्न अन्य अनन्त दिनों के वाह्य आलोकों का भी अभाव है। अत: उस दिन जितने बाह्य आलोक का संकलन उस अभाव में है उनकी संख्या उन अभावों अथवा उनके प्रतियोगिओं से न्यून ही है । अतः अवतमस का प्रस्तुत लक्षण स्वीकार करने पर भी दिन में प्रकृष्ट आलोक के समय अवतमस की प्रतीति एवं व्यवहार (= शब्दप्रयोग) की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
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३७७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. ५ * नमसो द्रव्यत्वे बाधकनिराकरणम् *
अथ यदा यत्र प्रागुक्तयावत्तेन: संसर्गाभावो निरवच्छिन्नस्तदा तत्रान्धतमसं यदा तु यत्राऽयं सावच्छिन्नः तदा तत्राऽवतमसमिति चेत् ? न घटादेरिवान्धतमसावतमसयोरवच्छेदकाबुधरामेणैव प्रतीतेरिति दिक् ।
एटोल तमसो द्रव्यत्वे ऽनन्तसंयोगादिकल्पनमपि पराकृतम्, तस्य फलमुखत्वात् ।
परः शङ्कते अथेति । यदा = यत्कालावच्छेदेन यत्र = देशे, प्रागुक्तयावत्तेजः संसर्गाभावः महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजः संसर्गाभावः, निरवच्छिन्नः विवच्छिधिकाधिक ताक्षः, तदा = तत्कालावच्छेदेन तत्र = तदेशे अन्धतमसं विद्यते प्रतीयते व्यवह्नियते च । यदा यत्कालावच्छेदेन, तुर्विशेषणे यत्र देशे अयं यावन्महदुद्भूता| नभिभूतरूपवदालोकसंसर्गाभावः सावच्छिन्नः = सावच्छिन्नदेशिकाधिकरणताक:, तदा = तत्कालावच्छेदेन तत्र देशे, अवतमसं विद्यते प्रतीयते व्यवह्नियते च । समनियतत्वेन लाघवादन्धतमसं निरवच्छिन्नतादृशा भावात्मकमवतमसञ्च सावच्छिन्नतादृशा भावस्वरूपमिति न तयोः द्रव्यत्वकल्पना युक्तिमतीत्यथाशयः ।
:
=
क
प्रकरणकृत्तमपाकरोति नेति । घटादेरिव अन्धतमसावतमसयोः अवच्छेदकानुपरागेणैव प्रतीतेरिति । कपिसंयोगाभावस्य वृक्षादौ सावच्छिन्नत्यं हृदादी च निरवच्छिन्नत्वं यथा प्रतीयेते तथा यदि तमस क्वचिन्निरवच्छिन्नत्वं क्वचिच्च सावच्छिन्नत्वं प्रतीयेत तर्हि निरवच्छिन्नतादृशाभावस्याऽन्धतमसत्वं सावच्छिन्नरस्य च तस्यावतमसत्वं वक्तुं सम्भवेत् । न चैत्रमस्ति । घटादेखि निरवच्छिन्नतत्प्रतीतेः । अन्धकाराभावपक्षस्याऽचटमानत्वात्तमसो द्रव्यत्वमेव युक्तमित्याशयः ।
एतेनेति । तमसो द्रव्यत्वस्य प्रमाणसिद्धत्वेनेति । अस्य पराकृतमित्यनेनान्वयः । अनन्तसंयोगादिकल्पनमपीति गगनादिपरमाण्वाद्यनन्तद्रव्य प्रतियोगिकानन्तसंयोग-विभागकत्वपरिमाणादिकल्पनाप्रयुक्तगौरवमपीत्यर्थः । अपिशब्देन तत्कारणादिकल्पनागौरवंः समुच्चितम् । तस्य = तादृशगौरवस्य फलमुखत्वादिति । प्रमाणेन तमसो द्रव्यत्वसिद्ध्यनन्तरमुपस्थितत्वात् । प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वं तस्यानुपस्थितत्वेनाऽदोषत्वम्, प्रमाणप्रवृत्त्यनन्तरं सतोऽपि तस्य प्रमाणाऽपेक्षया दुर्बलत्वान्न प्रमाणविघटकत्वम् ।
स्याद्धादी
अन्यतमयादि की निवच्छिन्न ही प्रतीति अथ यदा इति । नैयायिकादि की ओर से यह कहा जाय कि "जिस काल और जिस देश में प्रकृष्ट यावत् आलोक का अभाव निरवच्छिन होता है, उस काल में और उस देश में अन्धतमस होता है । जब विवक्षित देश के अमुक भाग में आलोक रहता है, तब तादृश अभाव निरवनि नहीं होता है । अतः तब उस देश में अन्यतमस का व्यवहार या प्रतीति नहीं हो सकती । जब निरवच्छिन्न उक्त अभाव होता है, तभी उस देश में गाढ अन्धकार की प्रतीति एवं प्रयोग हो सकते हैं। जिस काल और देश में प्रकृष्ट यावदालोक का अभाव सावच्छिन्न होता है, वही उस काल और देश में अवतमस होता है । देश के अमुक भाग में कतिपय आलोक होने पर प्रकृष्ट आलोक का अभाव वहाँ सावच्छिन्न होने से तब उस देश में अवतमस की यानी मन्द अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार हो सकते हैं । अतः अन्धसत्व और अवतमसत्व को जातिविशेषात्मक एवं उसके आश्रय को द्रव्यात्मक नहीं मानना चाहिए" - तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि जैसे घटादि पदार्थ की प्रतीति निरबच्छिन्न होती है, ठीक वैसे ही अन्धकारमात्र की प्रतीति निवच्छिन्न ही होती है । यदि कपिसंयोगादि की भाँति अन्धकार की सावच्छिन्न प्रतीति कभी भी होती, तब तो सावच्छिन्न- निरवच्छिन ऐसा भेद करना संगत होता मगर अन्धकार की सर्वदा निरवच्छिन्न ही प्रतीति होने से अन्धतमस को तादृश निस्वच्छिन अभाव मानना एवं अतमस को सावच्छिन्न तादृशाभावस्वरूप मानना असंगत है। अतः अन्धकार को द्रव्यस्वरूप मानना ही युक्तिसंगत भी है ।
* अन्धकार में द्रव्यत्वबाधक का निराकरण *
एतेन तम इति । अन्धकार को अभावस्वरूप मानने वाले विद्वान का यह आक्षेप है कि "अभाव को द्रव्यात्मक मानने पर उसमें अनन्त द्रव्य ( आत्मादि) के संयोग की कल्पना का गौरव होगा" मगर यह कथन अयुक्त है, क्योंकि यह गौरव फलमुख होने से दोषरूप नहीं है । फलमुख गौरव का मतलब यह है कि कार्य कारणभाव, पदार्थ आदि की प्रमाण से सिद्धि होने के बाद उपस्थित होने वाला गीरव । प्रमाण, तर्क आदि के सहकार से वस्तुस्थिति का निर्णय होने के बाद उपस्थित गौरव प्रमाण का विरोध नहीं कर सकता । अतः वह दोपात्मक नहीं है । अन्धकार को द्रव्य मानने से
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३७८
* तमसोऽभावत्वाऽसम्भवाऽऽविष्करणम् * इत्थच 'तमचलती'त्यादिप्रत्यक्षमपि निराबाधम् । न च स्वाभाविकगतेरन्यगत्यनुविधानानुपपत्ति: परागप्रभायामेवाश्रयचलनानुविधानदर्शनात् । पद्मरागचलनं विनाऽपि कुड्यावरणविगमादिनापि तत्प्रभाचलनमुपलब्धमिति चेत् १ ताह, स्थिरेऽपि स्तम्भादौ प्राक् पश्चादीपसम्बन्धादिना तमश्चलनोपलम्भः किं काकेन भक्षित: ? तमस: प्रागभावत्वे उत्पत्ति
==* जयलता * = | इदमेव फलभुखगौरवस्या दुष्टत्वे बीजम्, अन्यथा लाघवस्यैव सर्वत्राऽदरे शून्यवादप्रवेशापातादिति बहुशः पूर्वमुक्तम् ।
. लमोद्रकला साप, परमणि प्रकरणबार उपदर्शयति - इत्थक्षेति । तमसो द्रव्यत्वेन चेति । 'तमचलती'त्यादिप्रत्यक्षमपि निराराधम्, आदिशब्देन 'नीलं तमः' 'घटसंयुक्तं तम' इत्यादिप्रत्यक्षग्रहणम् । अपिशब्देन तमस्त्वजातिसाधकानुमानादिसमुच्चयः कृतः ।
ननु तमसो द्रव्यत्वे तस्य स्वाभाविकी गतिः स्यात, घटादिगतिवत् । न चैवमस्तेि, पटादिगत्यनुसारित्वात् तमोगतेः । यथा नौयानारूढपुरुषोपलब्धवृक्षादिगतिः औपाधिकी नौयानगता वृक्षादावारोप्यते तथा पटादिगतगतिः तमस्यारोप्यते न तु | || वस्तुगत्या सा तमोगता, स्वाभाविकगतेः परद्रव्यगत्यनुकरणाऽदर्शनात् । ततः 'तमश्चलती त्यादि प्रत्यक्षं न तमसो द्रव्यत्वसाधकमित्याशङ्का निराकरोति - न चेति । तन्निरासे हेतुमाह - पद्मरागप्रभायामेवेति । एवकारोऽयोगव्यवच्छेदे आश्रयचलनानुविधानदर्शनात = स्वाश्रयपद्मरागगत्यनकरणोपलब्धेः । पद्मरागप्रभाया रूपादिमत्त्वेन परैः द्रव्यत्वमेवाऽङगीक्रियते । दृश्यते च तद्गते: स्वाश्रयगत्यनुकारित्वम् । तद्वदेव तमसो नीलरूपादिमत्त्वेन द्रव्यत्वेऽपि स्वाश्रयपटादिगत्यनुसारिगतिमत्त्वमपि सम्भवत्येव । एतेन 'तमश्चलती' त्यादिप्रत्यक्षं भ्रमः परगत्यनुविहितगतिविषयकत्वात् नौयानगतपुरुषीयवृक्षचलनप्रतीतिवदिति प्रत्युक्तम, 'प्रभा चलती' त्यादिप्रतीतरपि भ्रमत्वापत्तः ।
परः शकते - पद्मरागचलनं बिनाऽपि कुड्यावरणविगमादिनाऽपि तत्रभाचलनं = पद्मरागप्रभाचलनं, उपलब्ध = प्रतीतम् । स्वाश्रयगतिमृतेऽपि पदारागप्रभागतिदर्शनात तत्प्रभाया द्रव्यत्वं युक्तम् । न चैवं तमसि सम्भवतीति न तस्य द्रव्यत्वमिति शङ्काशयः । अत्र प्रतिबन्द्या प्रकरणकार उत्तरयति - तहीति । अन्धकाराश्रये स्थिरेऽपि स्तम्भादी प्राक्पथादीपसम्बन्धादिना तमश्चलनोपलम्भ इति । प्रभावत तमसोऽपि स्वाश्रयचलनमृते चलनोपलम्भान्न द्रव्यत्वबाध इति भावः ।
किञ्च महदद्भूतानमिभूतरूपवदालोकप्रतियोगिकस्य प्रागभावस्य तमस्त्वं यद्त प्रध्वंसाभावस्याऽत्यन्ताभावस्याऽन्योन्या
ही 'अन्धकार चलता है' इत्यादि प्रतीति की उपपत्ति हो सकती है। अभाव में चलन क्रिया कैसे हो सकती है ? यहाँ यह शङ्का नहीं करना चाहिए कि → “अन्धकार की गति स्वाभाविक नहीं है, किन्तु औपाधिक है। घटादि द्रव्य को चलाने पर ही अन्धकार में गति का भान होने से वह गति स्वाभाविक नहीं है। अन्यगत गति का भान अन्धकार में । होने से अन्धकार में द्रव्यत्व नहीं माना जा सकता" - यह इसलिए अयुक्त है कि पद्मराग मणि की प्रभा में, जो नैयायिकादि को भी द्रव्यरूप से मान्य है, भी अन्य गत गति का अनुविधान प्रसिद्ध है । पमराग मणि को गतिमान करने पर उसकी प्रभा में गति प्रतीत होती है। स्वाश्रय की गति का अनुकरण प्रभाद्रव्य करता है, फिर भी वह द्रव्यात्मक ही है । ठीक इसी तरह अन्धकार भी स्वाश्रय की गति का अनुकरण करने पर भी द्रव्यात्मक सिद्ध हो सकता है । यहाँ यह कहना कि
-> 'अन्धकार की गति एवं पद्मरागप्रभा की गति में रहुत फर्क है। पद्मरागमणिप्रभा के आश्रय पराग मणि को चलित किये बिना भिति आदि के दूर होने से भी प्रभाद्रव्य में गति की उपलब्धि = प्रतीति होती है। मतलब की आश्रय में गति न होने पर भी प्रभा में गति क्रिया उपलब्ध होने से प्रभा को द्रव्य मानने में कोई दोष नहीं है। मगर अन्धकार की बात ऐसी नहीं है । अन्धकार के आश्रय में गति होने पर ही अन्धकार में गति क्रिया उपलब्ध होती है । घटादि द्रन्य को चलाने पर ही 'अन्धकारः चलनि' ऐसी प्रतीनि होती है। अतः अन्धकार को द्रव्य नहीं माना जा सकता" - भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धकार के आश्रय स्तम्भादि स्थिर होने पर भी दीपक को आगे-पीछे करने पर अन्धकार में गति का भान होता है । आश्रय की गति के बिना भी प्रभा की भाँति अन्धकार में गति का भान समान होने से प्रभा की भाँति अन्धकार को द्रव्यात्मक मानने में कोई दोष नहीं है ।
| अन्धकार को अभावाम मानने में दोष न तमसः प्रा. इति । दूसरी बात यह है कि अन्धकार को अभावस्वरूप मानने वाले अन्धकार को किस अभावस्वरूप
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३७५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * 'तमो न नष्टमिति प्रतीतेः प्रमात्वापतिः * प्रत्ययः, इतराभावत्वे विनाशप्रत्ययश्च न स्यातामित्यप्याहुः । न च राशिष्वेिव किश्चित्समुदायिसम्भवव्यतिरेकप्रयुक्तावेव तम:सम्भवव्यतिरेको प्रतीयेते इति वाच्यम्, तथा सति 'राशिर्न नष्ट' इतिवत् तमो न नष्टमिति प्रतीतेरपि प्रमात्वापत्ते: ।
* मयलता भावस्थ्य वा तत्त्वमिति विकल्पचतुष्टयं साम्परायिकचतुष्कवद पतिष्ठते । तत्र आधे आह - तमसः प्रागभावत्वे - निरुक्तालोकप्रतियागिकप्रागभावस्वरूपत्वे, उत्पत्तिप्रत्ययः = 'तम उत्पन्नमि'त्याकारकाऽवबोधः न सम्भवेत, प्रागभावस्याऽनादित्वेनोत्पादा प्रतियोगिकत्वात् । शेषविकल्पत्रिके आह - इतराभावत्वे = निरुक्तप्रागभावभिन्नाऽभावात्मकत्वे, विनाशप्रत्ययश्न = 'तमो विनष्टमित्याकारकबोधश्च न सम्भवेत, प्रागभावभिन्नाभावत्वस्याऽविनाशित्वव्याप्यत्वात् । याबदभावविशेषाणां तमस्त्वेना घटमानत्वान्न तमसोऽभावात्मकत्वं युक्तम् विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावसापकत्वादिति भावः ।।
न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनाइन्चयः । राशिविर किञ्चित्समुदायिसम्भवव्यवतिरेकप्रयुक्तावेवेति । एवकारेण 'समुदायसम्भवतिरकप्रयुक्ता' वित्यस्य प्रतिषेधः कृतः । यथा धान्यादिराशौ नवीनधान्यादिसमागमे ‘महानयं धान्यराशिरुत्पन्न' इत्यादिप्रतीति: समुदायिसम्भवप्रयुक्ता न तु समदायसम्भवप्रयुक्ता, पूर्वतनधान्यादिबिलये 'महानयं धान्यराशिर्विनष्ट' इत्यादिप्रतीति; समुदायिव्यतिरेकप्रयुक्ता न नु समुदायविलयप्रयुक्ता, तथैव आलोकसंसर्गाभावसमुदायात्मके तमस्यपि यत्किञ्चित्समु. दायिसम्भवे 'अन्धकार उत्पन्न' इत्यादिप्रतीतिः आलोकध्वंसोत्पत्तिप्रयुक्ता न त्वालोकसंसर्गाभावसमुदायोत्पत्तिप्रयुक्ता, यत्किश्चित्समुदायिन्यतिरेक 'अन्धकारो विनष्ट' इत्यादिप्रतीतिः निरुक्तालोकग्रानभावध्वंसप्रयुक्ता न त्वेतादृशालोकसंसर्गाभावकूटविनाशप्रयुक्ता । समुदायिसम्भवन्यतिरेकावेच राशाविव तमस्यारो प्यत इति शङ्काशयः ।
प्रकरणकारः तदपाकरणकृते दोषमाविष्करोति - तथा सतीति । राशाबिव तमसि उत्पादविनाशप्रतीतेः यत्किञ्चिसमुदायिसम्भवञ्यतिरेकावगाहित्वाऽभ्युपगमे सति, 'राशिर्न नष्ट' इति प्रतीतेः यथा प्रमात्वं तद्वदर प्रदीपाऽनयनदशाया 'तमो न नष्टमि' तिप्रतीतेरपि प्रमात्वापत्तेः, राशिबत प्रकृष्टालोकसंसर्गाभावसमुदायस्याऽविनष्टत्वात, तादृशसमुदायप्रटकीभूतनिरुक्तालोकात्यन्ताभावस्य नित्यत्वेन नाशा योगात् । इदञ्चोपलक्षणं यत्किश्चितसमुदायिसम्भवे 'राशिनोंत्पन्न' इतिवत् 'अन्धकारो नोत्पन्न' इति प्रतीतेरपि प्रमात्वापनेः, निरुक्तालोकसंसगांभावसमुदायस्याऽनुत्पन्नत्वात्, तत्समुदायिनिरुक्तालोकात्यन्ताभावस्य
मानेंगे ? यदि आलोकप्रागभाव को अन्धकार मानेगे तो 'अन्धकारः उत्पन्नः' = 'अन्धकार उत्पन्न हुआ यह प्रतीति नहीं हो सकेगी; क्योंकि प्रागभाव अनादि होने से उत्पन्न नहीं होता है । यदि अन्धकार को आलोकप्रध्वंसाभावात्मक, आलोकात्यन्ताभावरूप या आलोकान्योन्याभावस्वरूप माना जायेगा तो 'अन्धकारी विनष्ट' ऐसी अन्धकार में बिनाशावगाही प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि ध्वंस, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव अविनाशी होते हैं । यावत् विशेष में बाध होने से अन्धकार को अभावस्वरूप नहीं माना जा सकता, किन्तु द्रव्यात्मक ही माना जा सकता है . ऐसा भी अनेक विद्वान् कहते हैं।
* आलोकसांसगभिावस.मूह भी अन्धकार नहीं है - स्यादादी * न न राशि, इति । यहाँ अन्य चिद्वानों का यह कथन है कि ---> "आलोक का केवल अत्यन्ताभाव ही अन्धकार | नहीं है, किन्तु आलोक के संसर्गाभाव का समुदाय अन्धकार है। इस समुदाय में आलोक का ध्वंस और आलोक का प्रागभाव भी प्रविष्ट हैं। इस समुदाय के घटक (= समुदायी) आलोकध्वंस उत्पत्ति होने पर समुदाय की उत्पत्ति की एवं आलोकपागभाव का नाश होने पर समुदाय के नाश की प्रतीति ठीक उसी प्रकार उपपन्न हो सकती है, जैसे राशि के कुछ अंश = घटक = समुदायी का आगमन या उत्पाद होने पर या नाश (न्यतिरक) होने पर राशि की उत्पत्ति या नाश की प्रतीति होती है। मतलब की समुदायी की उत्पत्ति और नाश ही समुदाय के उत्पाद और नाश का प्रयोजक है। समुदायी के उत्पाद और नाश का ही समुदायजन्मनाशविषयक प्रतीति अवगाहन करती है" - किन्तु विचार करने पर यह समुचित नहीं प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि राशि की जैसे न तो उत्पत्ति होती है, न तो विनाश एवं तादृशसंसर्गाभावसमुदाय की भी न तो उत्पत्ति होती है, न तो विनाश । इसलिए धान्यराशि के किसी अवयव का नाश होने पर भी 'धान्यराशिः न नष्टः' ऐसी प्रतीति प्रामाणिक मानी जाती है, ठीक वैसे ही निरुक्तसंसर्गाभावसमूह के घटक तादृशप्रागभाव का विनाश | होने पर भी 'तमो न नष्ट' यह प्रतीति भी प्रामाणिक हो जायेगी। मगर वस्तुस्थिति यह है कि प्रदीप आदि के आगमन से आलोकसागभाच का नाश होने पर अन्धकार में नाश की ही स्वाभाविक प्रतीति होती है। इसका कोई बाथज्ञान पश्चात्
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* न्यायसिद्धान्तदीपकार-शशधरमतसमालोचनम् * स्यादेतत् - तमसो जन्यदिव्यत्वे स्पर्शवदवयवारभ्यत्वं स्यात्, स्पर्शवदनन्त्यावयवित्वस्य । द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वादिति चेत् ? मैवम्, तत्र स्पर्शवत्वस्येष्टत्वात् ।। ' वस्तुतस्तेन रूपेणाऽनाराभकत्वम, स्पर्शवत्वादेर्विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविर
* जयलता * नित्यत्वेनोत्पत्त्ययोगात् । एतेन 'आलोकसंसर्गाभावसमुदाय एवान्धकारः, तत्र राशिष्विव किश्चित्समुदायिव्यतिरेकप्रयुक्त एवं विनाशः, एवमुत्पत्तिप्रत्ययोऽप्यूह्यः' (न्या.सि.दी.पृ.) इति शशधरशर्मणो वचनं प्रतिक्षिप्तम्. राशिषु बहुत्वविशेषनाशोत्पादाभ्यां तदाश्रयनाशोत्यादप्रतीत्युपपत्तावपि अभावस्याऽद्रव्यत्वेग आलोकसंसर्गाभावसमुदाये तदसम्भवात्, समूहविलक्षणमहदेकोत्पादविनाशानुभवाचेति ।
किञ्च, आलोकसंसर्गाभावसमूहलक्षणस्याऽन्धकारस्यैकत्र प्रतीतिर्न स्यात, प्राचां मते प्रागभावप्रध्वंसथोरत्यन्ताभावविरोधित्वात् । न च तत्रियमे मानाभावादेकत्र तम:प्रतीतौ विरोधाभाव इति वाच्यम्, तथापि भूतलादो तमःप्रतीतेरनुपपत्तेः, आलोकप्रागभावप्रध्वंसयोः स्वप्रतियोग्यदयववृत्तित्वनियमादिति दिक् ।
ननु तमो नित्यद्रव्यं यदुता नित्यद्रव्यं ? इति विकल्पयुगली समुपतिष्ठते । नाद्यः चारु:, तमस्युत्पादविनाशप्रतीत्यनुपपत्तेः । द्वितीये आह-स्यादेतदिति । स्पर्शवदवयवारभ्यत्वं = स्पर्शवद्भिरवयवर्जन्यत्वं स्यात् । कस्माद्धेतोः ? इत्याशङ्कायामाह - स्पर्शरदनन्त्याऽवयवित्वस्य = स्पर्शवदन्त्याऽवयविभिन्नत्वे सति स्पर्शवदवयवित्वस्य, द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वात् = जन्यद्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वात । घटादे: स्पर्शवद्रव्यत्वेऽपि जन्यद्रव्यानारम्भकत्वात् स्पर्शवदन्त्याऽवयविभिन्नत्वचिशेषणोपादानम्, व्यापकधर्मस्व व्याप्यधर्मणाऽन्यथासिद्धः, अन्यथाऽकारणेऽपि स्वरूपयोग्यत्वकल्पनापत्तेः । ततश्च तमसो जन्यद्रव्यत्वाऽभ्युपगमे तत्समवायिकारणीभूताऽवयवेषु स्पदवित्त्वकल्पनापत्तिरिति शङ्काशयः ।।
प्रकरणकृत्तनिराकरोति - मैवमिति । तत्र = तमोद्रव्यसमवायिकारणीभूताऽवयवेषु, स्पर्शवत्त्वस्य इष्टत्वात् । ततश्च मिष्टमिष्टं वैद्योपदिष्टश्चेति न्यायापातः ।
इदञ्च स्पर्शबदनन्त्याऽवयवित्यस्य जन्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वमभ्युपगम्योक्त-मित्याह - वस्तुत इति ! तेन = स्पर्शबदनन्त्यावयवित्वेन रूपेण अनारम्भकत्वं - जन्यद्रव्यसमवायिकारणतानवच्छेदकत्वम् । अत्र हेतुद्वयमाचष्टे - स्पर्शवत्वादेः चिशेष्यविशेपणभाचे विनिगमनाविरहादिति । स्पर्शवत्त्वे सत्यनन्त्याऽक्यवित्वं जन्यद्रव्यसमचायिकारणतावच्छेदकमाहोस्वित्
नहीं होने से वह प्रतीति प्रामाणिक ही है। मगर उक्त रीति से तब 'तमो न नष्टं' यह प्रतीति भी प्रामाणिक होने लगेगी। अनः अन्धकार को आलोकसंसर्गाभावसमुदायात्मक नहीं माना जा सकता - यह फलित होता है ।
* अकारातयत. स्पर्शयुक्त ही है - स्यादादी * स्यादतत्, इति । यहाँ अमुक नैयायिक विद्वानों का यह आक्षेप है कि -> "अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने पर स्पर्शवदवयव से आरभ्यत्व भी उसमें मानना होगा, क्योंकि स्पर्शवदनन्त्यावयवित्व द्रव्यारम्भकता का अवच्छेदक है । मतलर यह है कि जन्य द्रव्य का समवायिकारण स्पर्शविशिष्ट अनन्य अवयवी द्रव्य है। अन्य घटादि अवयवी किसी द्रव्य का समवायिकारण नहीं होने से प्रकृत में उसके व्यवच्छेदार्थ अचयरी का अनन्त्य विशेषण लगाया गया है। जन्य द्रव्य का समवायिकारणतावच्छेदक धर्म है स्पर्शवदनन्त्यावयवित्व । अतः अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने पर उसे स्पर्शविशिष्ट अनन्य अवयवी द्रव्य से आरब्ध मानना होगा । अतएव अन्धकार के समयायिकारणीभूत अवयवों में स्पर्शवत्व भी मानना होगा" <- किन्तु । यह भी अयुक्त है, क्योंकि अन्धकारस्वरूप जन्य अन्त्य अवयवी द्रव्य के समवायी कारण अवयव में स्पर्शवत्व हमें अभिमत होने से अन्धकार में स्पर्शचदक्यवजन्यल का आपादन इष्टापनिस्वरूप ही है। अन्धकार एवं उसके अवयव जैनदर्शन में पौद्गलिक माने गये हैं एवं पुगलमात्र में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श आदि गुण सर्वदा रहते ही हैं। * स्पार्थवदन्त्यावयवित अन्धकारमाथिकारणतावरछाक नहीं हो सकता - स्यादादी #
वस्तुतः इति । वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तो स्पर्शवदनन्त्यावयक्त्विरूप से जन्य द्रव्य समवायिकारणता ही नामुमकिन है । इसका कारण यह है कि स्पर्शवत्वादि जैसे विशेषण हो सकता है ठीक वैसे ही विशेष्य भी बन सकता है । मतलब कि जन्यम्पसमचायिकारणतावच्छेदक स्पर्शवत्त्वे सति अनन्य अवयवित्ल है या अनन्य अवयवित्वे सति स्पर्शवत्व है ? इस
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३८१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ५ अनन्त्यावयवत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वम्
हात्, अनन्त्याऽवयवित्वस्य द्रव्यसमवायिकारणत्वपर्यवसितस्य कारणतानवच्छेदकत्वाच्च । अथ द्रव्याऽसमवायिकारणं द्रव्यं अन्त्याऽवयवितद्भेदश्चाऽभावत्वेन प्रतीयमानत्वादतिरिक्त एव, न तु द्रव्यसमवायिकारणत्वमेव । स एव चात्र कारणतावच्छेदक इति चेत् ? ा, द्रव्यसमवायिकारणतापरिचयं विनाऽनेनाऽपि रूपेण कारणताया दुर्बहत्वात् । * जयलता
अनन्त्याऽवयवित्वं सति स्पर्शवत्त्वं ? इत्यत्र विनिगमकाभावात् । आदिपदेन अन्त्याऽवयविभिन्नत्वे सति स्पर्शवदवयवित्वमुतत् स्पर्शवदवयवित्वे सति अन्त्यावयविभिन्नत्वं तथा । इत्यस्य ग्रहणम् । कारणतावच्छेदकधर्मविनिगमकाभावात्तादृशकार्यकारणभावा सम्भव इति भावः ।
अस्तु तर्हि अनन्त्यावयवित्वस्यैव जन्यद्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वभित्याशङ्कायां सत्यां हेत्वन्तरमाह - अनन्त्यावयवत्वस्य द्रव्यसमवायिकारणत्वपर्यवसितस्य कारणतावच्छेदकत्वाचेति । समवायिकारणतावच्छेदकत्वाऽसम्भवाचेत्यर्थः । अयमनिप्रायः अलगाववापिकाः समनयत्येनैकत्वम् । अत एव जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नसमवायसम्बन्धाबच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्ना अन्त्यावयवित्वावच्छिन्नसमवायिकारणताकल्पनभयुक्तम्, दर्शितसमवायिकारणतावच्छेदक-समवायिकारणतयोरैक्येन ज्ञप्तों आत्माश्रयप्रसङ्गात्, अवच्छेद्यावच्छेदकयोर्भिन्नत्वनियमात्, अप्रसिद्धेनाऽप्रसिद्धज्ञापनायोगात् । अत एव मुक्तावलीकृतां कार्यं विहाय संयोगस्य समवायिकारणतावच्छेदकतया द्रव्यत्वजातिसिद्धिकल्पान्तरानुसरण| मप्युपपद्यते इति विभावनीयं न्यायविद्भिः ।
ननु ब्रयसमवाथिकारणीभूतस्य द्रव्यस्य भावत्वेन प्रतीतिर्भवति, अनन्त्यावयवित्वस्य तु अन्त्यावयविभिन्नत्वपर्यवसितस्याभावत्वेन प्रतीतिर्भवति । समनैयत्येऽपि विरुद्धधर्माध्यासान्तयोरतिरिक्तत्वमेव । अतः समवायिकारणत्वानन्त्यावयविवयोऽभेदः । न च समनियतयोरैक्यमिति नियमांऽपि प्रामाणिकः, अप्रयोजकत्वात् । घट-तदभावा भावयोरयतिरिक्तत्वस्यैव मयाऽभ्युपगमात् । एतेन द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदककोटी समवायिकारणतात्मकस्यानन्त्याऽवयवित्वस्य प्रवेशादात्माश्रय इत्यपि प्रत्युक्तम्, द्रव्यसमवायिकारणतातिरिक्तस्यैवाऽनन्त्यावयवित्वस्य तत्कुक्षी प्रवेशादित्याशयेन नव्यनैयायिकः शङ्कते अथेति । स एव = द्रव्यसमवायिकारणतातिरिक्तः अन्त्याऽवयविभेद एव च अत्र जन्यद्रव्यस्य स्पविदनन्त्यावयव्यारभ्यत्वस्थले, कारणतावच्छेदकः = द्रव्पराभवायिकारणतावच्छेदकः । शेषञ्चावतरणिकायामेव भावितम् ।
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प्रकरणकार : तन्निराकुरुते नेति । द्रव्यसमवायिकारणतापरिचयं = जन्यद्रव्यत्वावनिसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतानिरूपितसमवायिकारणतास्वरूपावबोधं विना अनेन = अन्त्यावयविभिन्नत्वावच्छिन्नत्वेन, अपि रूपेण कारणतायाः
प्रकृते द्रव्यसमवायिकारणताया, दुर्ग्रहत्वात् = दुर्ज्ञेयत्वात् । अस्तु द्रव्यसमवायिकारणताया अन्त्याऽवयविभेदातिरिक्तत्वं तथापि तत्स्वरूपानवबोधेऽन्त्यावयविभेदः किभ्वरूपाया: कारणताया अवच्छेदकः स्यात् ? न च तत्स्वरूपमद्यावधि नव्येन विषय में विनिगमनाविरह = एकतरपक्षपातियुक्तिविरह होने से स्पर्शचदनन्त्यावयवित्व को जन्यद्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक नहीं माना जा सकता । दूसरी बात यह है कि अनन्त्य अवयत्री का मतलब है समवायी कारण अतः अनन्य अवयवित्व भी समवायिकारणतावच्छेदकस्वरूप फलित होगा । इस स्थिति में जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्न जन्यद्रव्यनिष्ठ कार्यता से निरूपित तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न समवायिकारणता के अवच्छेदकविधया अनन्य अवयवित्व का स्वीकार नहीं हो सकता, क्योंकि समवायिकारणता अनन्त्यावयवित्वस्वरूप होने से अनन्त्यावयवत्व ही अनन्यावयवित्व का अवच्छेदक बनेगा, जिससे ज्ञप्ति में स्पष्टरूप से error दोष प्राप्त है । अवच्छेदक धर्म कारणता का परिचायक ज्ञापक होता है, कारणता उससे परिचायित = ज्ञापित होती है । इसलिए अवच्छेदक धर्म अवच्छेद्य कारणता से भिन्न एवं प्रसिद्ध होना चाहिए । मगर यहाँ समवायिकारणतावच्छेदक और समवायिकारणता एक बन जाने से आत्माश्रय दोष प्रसक्त होता है । अतएव अनन्त्यावयवित्व जन्यद्रव्यनिरूपित समवायिकारणता का अवच्छेदक नहीं बन सकता है ।
न
गातिविशेष को द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना उचित
अथ इति । यहाँ नव्यनैयायिक मनीषिओं का यह कथन है कि द्रव्य के समवायिकारणीभूत द्रव्य अन्य अवयवी और उसके भेद से अतिरिक्त ही है । यद्यपि जहाँ जहाँ द्रव्यसमवायिकारणता रहती है वहाँ वहाँ अनन्त्याऽवयवित्व = अन्त्या5विभेद रहता है फिर भी द्रव्यसमवायिकारणता की भावत्वेन प्रतीति होती है और अन्त्यावयविभेद की अभावत्वेन प्रतीति होती है । विरुद्ध धर्म का अभ्यास होने से वे दोनों परस्पर भिन्न हैं । द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक अन्त्यावय
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૨૪
* नत्र्यमतं इन्द्रियात्रयत्रप्वनुद्भूतस्पर्शानभ्युपगमः *
किस, नव्यनैयायिकेन चक्षुरादीन्द्रियावयवेष्वनुद्भूतस्पर्शमनभ्युपगच्छता जातिविशेष एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वेनाऽभ्युपेयः । स तु तमस्यपि संभवतीति नानुपपत्ति: । च द्रव्यारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्यैव तत्राऽनुद्भूतस्पर्शोऽभ्युपगम्यतामिति वाच्यम्, अनन्ताबुद्भूतस्पर्शकल्पनामपेक्ष्य लघुभूतैकजातिविशेषकल्पनाया एवोचितत्वात् ।
ॐ जयलता
निरूपितम् । अतः तयोर्भिन्नत्वाऽभ्युपगमेऽपि न परस्य निस्तार इति स्याद्वाद्यभिप्रायः ।
प्रकरणकारः तमोद्रव्यत्वसाधनार्थमाचष्टे किचेति । नव्यनैयायिकेन चक्षुरादीन्द्रियावयवे अनुद्भूतस्पर्श मनभ्युपगच्छता त्वया जातिविशेष एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वेन द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकधर्मविधया, अभ्युपेयः । यद्यपि चक्षुराद्यवयवे प्राचीननैयायिकमते उद्भूतस्पर्शो नास्ति परन्त्वनुद्भूतस्पर्शोऽस्ति तथापि नव्यनैयायिकमतेऽनुद्भूतस्पर्शोऽपि तत्र नास्ति प्रमाणाभावात् । प्रकृते चाऽथवादी नव्यनैयायिक एव । तन्मतेऽपि स्पर्शवदनन्त्यावयवित्वस्यैव द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वम् । चक्षुराद्यवयवैः चक्षुरादीन्द्रियं जन्यते न च तन्मते तत्र स्पर्शोऽस्ति । अतः दर्शितकारणतायां व्यतिरेक'व्यभिचारों लब्धावकाशो दुर्निवारः । तदपाकरणाय चक्षुराद्यवयवसाधारणो जातिविशेष एव द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकधर्मविधया नव्येन स्वीकर्तुमुचितः । स = द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषः तु तमसि अवयवभूते अपि सम्भवति, तमः साधारणतादृशजातिविशेषकल्पनात् इति = तो : तमोऽवयवेषु तमसि वा स्पर्शविरहेऽपि नानुपपत्तिः = न तमसो द्रव्यत्वक्षतिः ।
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३८२
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न चैति । अस्य वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । द्रव्यारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्त्यैव तत्र = चक्षुरादीन्द्रियावयवेषु, अनुद्भूतस्पर्शः अभ्युपगम्यताम् । स्पर्शबद्द्रव्यस्यैव द्रव्यारम्भकत्वदर्शनाच्चक्षुरादीन्द्रियारम्भकेषु तदवयवेषु स्पर्शोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः । स चोद्भूतो न सम्भवति, तदाश्रयस्पार्शनापत्तेः द्रव्यस्पार्शनं प्रति उद्भूतस्पर्शस्यैव कारणत्वात् । अत: पारिशेषन्यायेन चक्षुरादीन्द्रियावयवस्पर्शस्याऽनुद्भूतत्वं कल्प्यते । यदि च तत्राऽनुद्भूतस्पर्शोऽपि न स्यात्, गगनादिवत् द्रव्यारम्भकत्वमपि न स्यात् । अतो द्रव्यारम्भकत्वेन अन्ततोगत्वानुद्भूतः स्पर्शः कल्पनीय एवेति शङ्काशयः । प्रकरणकृत्तन्निराकरोति अनन्तानुद्भूतस्पर्शकल्पनां = अनन्तेषु चक्षुराद्यवयवेषु पृथक्पृधगनन्तानां अनुद्भूतस्पर्शानां कल्पनां, अपेक्ष्य लघुभूतैकजातिविशेषकल्पनाया: लघुभूतस्यैकस्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वेन जातिविशेषस्य कल्पनाया, एवोचितत्वात् । चक्षुराद्यवयवेषूक्तजातिविशेषकल्पनयैव द्रव्यारम्भकत्वोपपत्तावनन्तानुद्भूतस्पर्शकल्पनाया अन्याय्यत्वादिति जातिविशेषस्यैव तमश्चक्षुराद्यवयवसाधा
विभेद ही है, जो उससे अतिरिक्त है । अतएव उसको अवच्छेदक मानने में ज्ञप्ति में आत्माश्रय दोष का अवकाश नहीं है" - मगर यह कमन भी अयुक्त है, क्योंकि द्रव्यसमवायिकारणता और अन्त्याऽवयविभेद को परस्पर से अतिरिक्त मानने पर द्रव्यसमवायिकारणता के स्वरूप का ज्ञान न होने से अन्त्यावयविभेद किंस्वरूप द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक बनेगा ? अतः उक्त रूप से द्रव्यसमवायिकारणता का ज्ञान मुश्किल है। इसके अतिरिक्त बात यह है कि प्रतिवादी नव्यनैयायिक चक्षु आदि इन्द्रिय के अवयवों में अनुद्भुत स्पर्श का भी अंगीकार नहीं करते हैं फिर भी उनसे चक्षु आदि इन्द्रिय का आरम्भ होता है । अतः स्पर्शचद् अनन्य अवयवी में स्पर्शवदनन्त्यावयवित्व नहीं होने से उसे द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना संगत नहीं है, किन्तु जातिविशेष को ही द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक मानना युक्त है । चक्षु आदि इन्द्रिय के अवयवों में स्पर्शवदनन्त्याऽवयवित्व न होने पर भी जातिविशेष होने से उक्त कार्य कारणभाव में व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं होगा । अतः नव्य नैयायिक को भी जातिविशेष को ही द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक मानना युक्त है । वह जातिविशेष जैसे चक्षु आदि इन्द्रिय के अवयवों में रहता है ठीक वैसे ही अन्धकार के अवयव में भी रहता है । अतः अन्धकार के अवयवों से अन्धकार की उत्पत्ति हो सकती है । अतः अन्धकार एवं अन्धकार के अवयवों में स्पर्श को न मानने पर भी अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने में कोई दोष संभवित नहीं है, क्योंकि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष से युक्त अन्धकारावयव से वह जन्य है । यहाँ यह शंका हो कि के अवयवों में उद्भूत स्पर्श न होने पर भी अनुद्भूत स्पर्श का अंगीकार करना ही युक्त है, अन्यथा उनमें द्रव्यारम्भकत्व
'चक्षु आदि के अवयवों में या अन्धकार
=
द्रव्यसमवायिकारणत्व ही अनुपपन्न होगा; क्योंकि घटादि के अवयवों में स्पर्श होने पर ही उनसे घटादि का आरम्भ होता है, यह देखा गया है। अतः चक्षु और अन्धकार के अवयवों में अनुद्भूत स्पर्श का स्वीकार करना ही होगा ' <- तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त अवयवों में अनन्त पृथक् पृथक् अनुद्भूत स्पर्श की कल्पना करने में गौरव है । इसकी अपेक्षा एक जातिविशेष की कल्पना करना ही उचित है, क्योंकि इस कल्पना में लाघव है ।
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३८३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * घटत्वादिना द्रव्यप्रतिबन्धकताग्रोतनम् *
तादृशजाते रस्त्याऽवयविन्यप्यभ्युपगमान जलत्वादिना साहूकर्राम् । न तैतं घटादीनामप्यारम्भकत्वं स्यात्, घटत्वादिना घटादेर्दव्यं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् ।
* जयलता कै
रणस्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वं युक्तमिति समाधानाशयः ।
ननु जातिविशेषस्यैव द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वे जलत्वादिना साङ्कर्यं दुर्निवारम् । तथाहि कपाले तादृशजातिविशेषोऽस्ति जलत्वं च नास्ति, अन्त्यावयविनि जले जलत्वमस्ति तादृशजातिविशेषश्च नास्ति, तस्य द्रव्यानारम्भकत्वात् । परस्परत्र्यधिकरणयोः जलत्व-जातिविशेषयोरनन्त्यावयविनि जले समावेशाज्जलत्वादिना समं निरुक्तजातिविशेषस्य सङ्करप्रसङ्गेन जातिविशेषस्य न द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वं किन्तु स्पर्शवदनन्त्यावयवित्वस्यैव तत्त्वं कल्पयितुमुचितमित्याशङ्कादूरीकरणकृते आह - तादृशजातेरिति । द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक-जातिविशेषस्य, अन्त्याऽवयविनि जलादो अपि अभ्युपगमात् अपिशब्देनाऽनन्त्याऽवयविसमुच्चयः कृतः । न जलत्वादिना साङ्कर्यम् । आदिपदेन पृथिवीत्वादिग्रहः । जलत्वादिना जातिविशेषस्य वैयधिकरण्याऽसिद्धेर्न परस्पराऽसमानाधिकरणयोरेकत्र समावेशलक्षणसङ्करावकाशः, अन्त्यादवयविनि अनन्त्याऽवयविनि च जलादौ तादृशजातेः सत्त्वाऽभ्युपगमादिति भावः ।
ननु घटादावन्त्यावयविन्यपि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमे तु घटादेरपि द्रव्यारम्भकत्वं प्रसज्येत, तस्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकवत्त्वात् । न च तस्य द्रव्यारम्भकत्वं कस्यचिदप्यभिमतम् । न च महापटस्याऽन्त्यावयविन: खण्डपटारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्त्याऽन्त्याऽवयविन्यपि तादृशजात्यङ्गीकार उचित इति वाच्यम्, खण्डपटस्य महापध्वंसजन्यत्वेन महापदोपादानोपादेयत्वाऽभ्युपगमात् । अतो नान्त्याञ्चयविनि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जात्यभ्युपगमः प्रामाणिकः । एतेन जलत्वादिना साङ्कर्यनिवारणकृतेऽन्त्याऽवयविनि तादृशजात्यङ्गीकारो न्याय्य इत्यपि प्रत्याख्यातम्, न हि प्रयोजनक्षतिभयेन सामग्री कार्यं नाऽजयतीति उभयतः पाशरज्जुन्यायापात इत्याशङ्कानिराकरणायोपक्रमते न चेति । एवं = अन्त्याऽवयत्रिन्यपि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमे सति घटादीनामप्यारम्भकत्वं स्यात् = प्रसज्येत । तद्युक्तत्वमाविष्करोति
घटत्वादिना रूपेण घटादेः अन्त्याऽवयविन: द्रव्यं प्रति प्रतिबन्धकत्वादिति । समवायेन द्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येनाऽन्त्याऽवयविन: प्रतिबन्धकत्वमिति नियमो ऽस्माभिरङ्गीक्रियते । घटादिष्वन्त्याऽवयविषु द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजातेः सत्त्वेऽपि समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्येन तेषामेव प्रतिबन्धकत्वान्न घटादिषु समवायेन द्रव्यमुपजायते, प्रति
* द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक नाति में सांकर्य का निराकरण
तादृश इति । यहाँ यह शंका हो कि " जातिविशेष को द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानने पर जलत्व आदि जाति के साथ सांकर्य होगा । वह इस तरह अन्त्य अवयवी जल में जलत्व जाति है, मगर उपर्युक्त जातिविशेष नहीं है । कपाल में जातिविशेष है, मगर जलत्व जाति नहीं है । परस्पर व्यधिकरण जलत्व जाति एवं द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष दोनों ही अनन्त्य जल द्रव्य में विद्यमान है, क्योंकि वह जल है एवं अन्त्य अवयवी जल का समवायिकारण है । परस्पर व्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश होना ही सांकर्य है, जो कि जातिबाधक है । उक्त सांकर्य दोष के कारण ही द्रयसमवायिकारणतावच्छेदकविधया जातिविशेष का स्वीकार नहीं किया जा सकता' - तो यह भी नामुनासिव है, क्योंकि अन्त्य अवयवी में भी द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष का हम अंगीकार करते हैं। मतलब यह है कि जलत्व एवं उक्त जातिविशेप को परस्पर व्यधिकरण सिद्ध करने के लिए जो कहा गया था कि 'अन्त्य अवयवी जल में जलत्व जाति है, मगर द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष नहीं है वही असंगत है, क्योंकि उसमें दोनों ही जाति रहती हैं । अतः परस्परव्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेशस्वरूप सांकर्य दोष नामुमकिन है। यहाँ यह शंका हो कि 'अन्त्य अवयवी में द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष का स्वीकार करने पर तो घटात्मक अन्त्य अवयवी से भी अन्य द्रव्य की उत्पत्ति होने लगेगी, क्योंकि उसमें द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष विद्यमान है । अतः कपाल की भाँति घट में भी द्रव्यारम्भकत्व की आपति होगी" - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि घट आदि अन्त्य अवयवी में द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष होने पर भी घटत्वादि धर्म नवीन द्रव्य की उत्पत्ति की प्रतिबन्धकता का अवच्छेदक होने से उसके आश्रय घटादि से नूतन द्रव्य की आरम्भकता = समवायिकारणता की आपत्ति नहीं दी जा सकती । नवीन द्रव्य की उत्पत्ति के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से घट आदि द्रव्य को घटत्वादिरूप से प्रतिबन्धक मानने से ही घटादि अन्त्य अवयत्री द्रव्य से नवीन
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* वर्धमानोपाध्यायमतनिरसनम् *
३८४ तेन 'द्रव्यत्वं कार्याऽकार्यवृत्ति न कार्यतावच्छेदकं, जन्यद्रव्यत्वस्य जन्यमात्रवृत्तित्वेऽपि तदवच्छिमजनकतावच्छेदकजातेरनहगीकारः, जलत्वादिना साइकर्यादिति वर्धमानोक्तिः
=-* जयलता * अन्धकाभावस्याऽपि कारणत्वेन सामग्रीवकल्यात् । न च गौरवम्, फलाभिमुखत्वात् । अतो घटादिषु द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमेऽपि न दोष इति समाधानाभिप्रायः ।
नव्यन्यायप्रस्थापकगङ्गेशपुत्रवर्धमानमतनिराकरणार्थमुपक्रमते - एतेनेति । समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्येनाऽन्त्याऽवयविनः प्रतिबन्धकत्वकल्पनेनेति । अस्य चांपास्ते'त्यनेनाऽन्वयः । द्रव्यत्वं कार्याऽकार्यवृत्ति न कार्यतावच्छेदकमिति । एनेन समवायेन द्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन द्रव्यं कारणमिति कार्यकारणभावात् तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकारणतानिरूपिता या समवायसम्बन्धावच्छिन्ना द्रव्यनिष्ठा कार्यता सा किञ्चिद्भावच्छिन्ना कार्यतात्वादित्यनुमानेन कार्यतावच्छेदकधर्मविधया द्रव्यत्वजातिसिद्भिरिति प्रत्याख्यातम्, द्रव्यनिष्ठकार्यतावच्छेदकत्वं द्रव्यत्वस्य न सम्भवति, अन्यूनानतिप्रसक्तधर्मस्यवाऽवच्छेदकत्वनियमेन द्रव्यत्वस्य नित्यानित्यवृत्तितया कार्यताऽतिरिक्तवृत्तित्वात् । एवञ्च द्रव्यत्वावच्छिन्नकार्यत्वाऽप्रसिद्भया पक्षासिद्धेनोक्तानुमानसम्भवः । यद्यपि द्रव्यत्वस्यातिप्रसक्तत्वोपपादनाथाऽकार्यवृत्तीत्येव वक्तुमुचितं तथापि तस्य कार्यतावैयधिकरण्यप्रयुक्तावछेदकत्वाभावाऽ शकानिराकरणाय 'कार्याऽकार्यवृत्ती'त्युक्तमिति ध्येयम् ।
___अस्तु, तर्हि द्रव्यत्वस्याऽतिप्रसक्तत्वेऽपि जन्यद्रव्यत्वस्याननिप्रसक्ततया तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकारणतानिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यताया अवच्छेदकत्वमित्यादाङ्कायां वर्धमान आह - जन्यद्रव्यत्वस्येति । सामानाधिकरण्येन | जन्यत्वविशिष्टद्रव्यत्वस्य, जन्यमात्रवृत्तित्वेऽपि = जन्यद्रव्यदृत्तित्वे सत्यजन्यद्रव्याऽवृत्तित्वेन कार्यतानतिरिक्तवृत्तित्वेऽपि, नदबच्छिन्नजनकतावच्छेदकजातेः = जन्यद्रव्यत्वावच्छित्रकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकजाते: अनङ्गीकारः, कुतः ? इत्याह - जलवादिना साङ्कर्यादिति । जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्ननिरूपितकारणताया अवच्छेदकत्वं द्रव्यत्वेऽसम्भवि, तस्याऽन्त्यावयविन्यपि वृत्ते: अन्त्यावयविनि तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया असम्भवेन द्रव्यत्वस्य कारणताति
द्रव्य की उत्पत्ति का आपादन नहीं किया जा सकता । प्रतिबन्धक होने पर कार्य का जन्म कैसे हो सकता है ?
* वर्धमाज उपाध्याय के मत का निराकरण ** एतेन द्रव्य, इति । नव्यन्याय के प्रस्थापक गंगेश उपाध्याय के पुत्र वर्धमान उपाध्याय का यह कथन है कि -> 'द्रव्यत्व जाति कार्य और अकार्य में यानी नित्य और अनित्य में वृत्ति होने से अनन्त्य अश्यवी द्रव्य की कार्यतावच्छेदक नहीं बन सकती है । अवच्छेदक धर्म वह हो सकता है, जो अवच्छेद्य से अन्यून और अनतिरिक्त वृत्ति हो । द्वादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न समवायिकारणता से, जो अनन्य अवयरी में वृत्ति (= रहती) है, निरूपित समवायसम्बन्धावच्छिन्न कार्यता के आश्रयीभूत घटादि में एवं तादृश कार्यता के अनाश्रय गगनादि में भी द्रव्यत्व जाति रहती है । तादृश कार्यता से अतिरिक्तवृत्ति (=अधिकदेशवृत्ति) होने से द्रव्यत्व जाति नाश कार्यता की अवशेदक नहीं बन सकती। अगर जन्यत्वविशिष्टद्रव्यत्व को तादृश कार्यता का नियामक माना जाय तो भी जन्यद्रव्यत्वाच्छिन्न = सर जन्य द्रव्य की कारणता की अवच्छेदक जाति कोई भी नहीं हो सकती, क्योंकि उस जाति का जलत्व आदि जाति के साथ सांकर्य प्रसक्त होता है। आशय यह है कि जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न कार्यता से निरूपित कारणता के अरच्छेदकस्थिया द्रव्यत्व जाति का अंगीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्रव्यत्व अन्य अवयवी घटादि में भी रहता है, फिर भी वे समवाय सम्बन्ध से किसी द्रव्य का आश्रय नहीं बनते हैं, अन्य द्रव्य की समराय सम्बन्ध से उनमें उत्पत्ति नहीं होती है । इस तरह द्रव्यत्न तादृश कारणता को छोड़ कर भी घटादि में रहने से जन्यद्रव्यनिष्ठ कार्यता से निरूपित कारणता का अवच्छेदक नहीं हो सकता है। अतः अन्य अवयवी में न रहनेवाली जाति को ही तादृश कारणता का अवच्छेदक मानना होगा । मगर ऐसा होने पर जलत्वादि के साथ सांकर्य होगा। वह इस तरह-कपाल आदि द्रव्य घटादि का आरंभक होने से उसमें तादृश कारणतावच्छेदक जाति रहेगी, मगर वहाँ जलत्व जाति नहीं रहती है । अन्त्य जल अवयवी में जलत्व जाति रहती है, मगर उक्त कारणतावच्छेदक जाति नहीं रहती है। जलत्व जाति से व्यधिकरण उक्त कारणतावच्छेदक जातिविशेष अनन्त्य अवयवी जल द्रव्य में जलत्व की समानाधिकरण है, क्योंकि अनन्त्य जल अवयची अन्त्य जल अवयवी द्रव्य का आरम्भक होने से तादृशा कारणतावच्छेदक जातिविशेष का आश्रय होता है और वहाँ जलव जाति भी रहती ही है। इस तरह परस्पर न्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश होने से सांकर्य दोप प्रसक्त होता है। अतः अन्त्य अवयवी से व्यावृन जातिविशेष
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३८५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का. * मुक्तावली-मयूसकाग्मतयाः समालोचनम् * || अपास्ता ।
मूर्तत्वेनैव द्रव्यारम्भकत्वं, न च मनसोऽपि मूर्तत्वात् तदारभकत्वापत्तिः, मनोऽन्यमूर्तत्वेनैव तथात्वादियेके ।
== =.. -* जयलता है। रिक्तवृत्तित्वात् । एतेन -> 'जन्यरनेहजनकतावच्छेदकतया जन्यजलत्यजातेः सिद्धौ तदवच्छिन्नजनकतावच्छेदकतया जलत्वजातिसिद्धेः' - (मुक्ता. ३२० पृ. ) इति मुक्तावलीकारवचनं प्रतिक्षिप्तम् । यत्तु मुक्तावलीमयूखे सूर्यनारायणेन "सर्वस्मिन्नपि जले जलान्तरसंयोगेन बृहज्जलजननयोग्यतासत्वात जलस्याऽन्त्या वयवित्वानुपगमेनाऽदोषादि'' (मु.मयू. पृ.१०४) त्युक्तम् तदसत्, जलस्यान्त्याध्ययवित्वानुपगमे शरीरलक्षणस्य जलीयशरीरे व्याप्त्या पत्तेः । ततश्च जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्ननिरूपितजनकत्तावच्छेदकत्वमन्त्पावयविव्यावृत्तजातेरेवोपगन्तव्यम् । तथा च जलत्यादिना सार्यं दुर्निवारम । तथाहि घटारम्भकत्वात् कपाले जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकत्वेन सिद्धा निरुक्तजातिः वर्तते, जलत्वञ्च नास्ति । अन्त्या वयविनि जले जलत्वमस्ति, निरुक्तजाति स्ति । अनन्त्यावयविनि जले जलत्वं दर्शितजातिश्च वर्तेते इति परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोरेका समावेशलक्षणं साकर्य दुर्वारमिति वर्धमानाशयः ।
प्रागक्तयुक्त्याऽयमपि न समीचीनः । जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकजातेरन्त्यावयविन्यपि स्वीकारेण जलवादिना साङ्कर्यप्रच्यवात् । न चैवमन्त्यावयबिन्यपि समवायेन द्रव्यान्तरापत्तिरिति वाच्यम्, समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्यनान्त्याऽवयविनः प्रतिबन्धकत्वाऽगीकारेण तदयोगात । ततश्च जन्यदन्यत्वावच्छिन्ननिरूपितकारणतावच्छेदक द्रव्यत्वमेक्त्याशयः ।
अत्रैव साम्प्रतमेकेषां मतमाबेट्यति प्रकरणकार: - पूर्तत्लेटेनेति ! प्रकारेण दव्यत्वव्यवच्छेदः कृतः । द्रव्यारम्भकत्वं = द्रव्यसमवायिकारणत्वम् । द्रव्यसमवायिकारणताया मूर्त्तत्यावच्छिन्नत्वे मनस्यपि समवायेन द्रव्यान्तरमुत्पद्येत, तत्र मूर्तत्वस्य वृत्तित्वादित्याशकानिराकरणाय वदन्ति । न चेति । तदारम्भकत्वापत्तिः = द्रव्यान्तरसमवायिकारणत्वप्रसङ्गः । तदपाकरणाय व्याचक्षते - मनोऽन्यमूर्तत्वेनैव तथात्वात् = द्रव्यारम्भकत्यात् । मनोभिन्नत्वे सति मूर्त्तत्वस्य द्रव्यसमायिकारणतावछेदकल्लम् । मनसि विशेष्यसत्त्वेऽपि विशेषणविरहेण विशिष्टकारणत्वावच्छेदकाऽसत्त्वान्न तत्र समवायेन द्रव्यान्तरप्रसङ्गः । द्रव्यत्वं तु व्यापकत्वान्न द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकम्, अनतिरिक्तवृत्तित्वात्, अन्यधाऽकारणेऽपि स्वरूपयोग्यत्वकल्पनापत्तेरिति तदाशयः ।
को, सांकर्य के सबब, जन्यद्रव्यलावच्छिन्न की कारणता का अबछेदक नहीं माना जा सकता और द्रव्यत्त्व जाति अतिरिक्त वृत्ति होने से कारणतावच्छेदक नहीं हो सकती है' -
किन्तु अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ! हमने अभी ही बता दिया है कि तादृश जातिविशेष अन्त्य अवयवी में रहने पर भी समवाय सम्बन्ध से द्रव्य के जन्म के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्त्य अवयवी प्रतिबन्धक
आदि अवयवी में जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न की कारणतावच्छेदक जाति का अंगीकार करने से ही पूर्वोक्त रीति से सांकर्य का वारण मुमकिन है तथा उक्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धक भाव का अंगीकार करने से ही अंत्य अवयवी में समवाय सम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का बारण भी हो सकता है । अतः द्रव्यत्व को जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न का कारणतावच्छेदक मानने में कोई दोप नहीं है ।
र मनोभिल्लामूत्ति यसमतायिकातातरलेषक है - अगुका विद्वानों का मत हा
मूर्न, इति । यहाँ अमुक विद्वानों का यह कथन है कि द्रव्यारम्भकत्वावदक = द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक धर्म | मूर्नत्व धर्म ही है । कपाल, तन्तु आदि में मूर्तत्व धर्म होने की वजह ही वे घट, पट आदि के समवायिकारण हो सकते । हैं । यहाँ यह कहना कि -→ 'मूर्नत्व तो मन में भी रहता है । अत: कपालादि की भाँति मन में भी समवाय सम्बन्ध
से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होनी चाहिए' <- ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक धर्म केवल मूर्तत्व नहीं है, | किन्तु मनोभिन्नमूतत्व है । मन मूर्न जरूर है, मगर मनोभिन्न नहीं है। अपने से कोई भी पदार्थ भिन्न नहीं होता है । मन में मनोभिनत्व नहीं होने से मनोभिन्नत्वविशिष्टमूर्तत्व भी नहीं रहता है। विशेषणाभाप्रयुक्त विशिष्टाभाव होने से मन . दषियं पृ.३८३ ।
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* एकाऽपरपदसूचिताऽस्वरसविभावनम् * मूर्त्तत्वेनैव तथात्वम् । मनसि द्रव्यानुत्पत्तिस्तु विजातीयसंयोगरूपहेत्वन्तराऽभावादि
त्यपरे ।
रातु - द्रव्यारंभकतावच्छेदकतया पृथिव्यादिचतुष्वैव भूतत्वाख्यो जातिविशेषः कल्प्यते ।
जयलता कै
एके इत्येवं वदता स्वकीयाऽस्वरसोद्भावनं कृतम् । तद्वीजञ्चेदम् - मनोभिन्नत्वविशिष्टमूर्त्तत्वं तथा यदुत मूर्त्तत्वविशिष्ट मनोभिन्नत्वम् ? इत्यत्र विनिगमनाविरहात् । घटादावपि समवायेन द्रव्यान्तरप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वात् । अन्त्यावयविभिन्नत्वविशेषणोपादाने विशेष्यविशेषणभावे विनिगमकाभावात् महागौरवाच्चेति भावनीयम् ।
द्रव्यसमवायिकारणत्वस्थल एवापरेषां मतं व्याकरोति मूर्त्तत्वेनैवेति । एवकारेण द्रव्यत्व मनोभिन्नमूर्त्तत्वादेर्व्यवच्छेदः कृतः | तथात्वं = द्रव्यसमवायिकारणत्वम् । नहि मनसि व्यभिचार: किं पाणिपिधेयः ? इत्याशङ्कायामाह - मनसीति । मूर्त्तत्त्ववति । द्रव्यानुत्पत्तिः तु विजातीयसंयोगरूप हेत्वन्तराभावादिति । जन्यद्रव्याऽसमवायिकारणी भूतविलक्षणसंयोगविरहात् मनसि न समवायेन द्रव्यमुत्पद्यते, सामग्रीवैकल्ये कार्यत्पादपादनाऽयोगात् । ततश्च न गौरवादिदोषावकाशः । युक्तश्चैतत् सम्भवति क्लाता गुरुधर्मविशेषे सामान्यधर्मस्य कारणताद्यनवच्छेदकत्वात्, अन्यथा द्रव्यत्वमपि घटत्त्वावच्छिन्नजनकतावच्छेदकं प्रसज्येतेत्यपरेषामभिप्रायः ।
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'अपरे ' इत्यनेन प्रकरणकृता स्वकीयाऽस्वरसीद्भावनं कृतम् । तद्भीजचैवम्, मनसि विजातीयसंयोगलक्षणहेत्वन्तरविरहे मानाभावात्. यत्क्रियया घंटे आरम्भको मनसि चानारम्भकः संयोगों जनितः तत्क्रियाजन्यतावच्छेदाय तत्रोक्तवैजात्यस्याऽऽवश्यकत्वात् । न च मनोऽन्यमूर्त्तत्वेनैव तथात्वमिति वक्तव्यम्. गौरवात् । एवञ्च तादृशजातिकल्पने, विजातीयसंयोगकल्पने नोदनत्वादीनां तद्वैजात्यव्याप्यत्वकल्पने तदवच्छिन्नकारणताकल्पनेच महागौरवात् वरमतिशय एवाऽनतिप्रसक्तः द्रव्यजनकः कल्यत इति । मनसि सर्वदा विजातीयसंयोगविरहे च नित्यत्वे सति स्वरूपयोग्यस्य फलावश्यम्भाव इति नैयायिकराद्धान्तभङ्गस्तु परस्याधिकदोष इति दिक् ।
= द्रव्य
अत्रैव कस्यचिन्मतमपाकर्तु मावेदयति यत्त्विति । नदपमतमित्यनेनाऽस्यान्वयः । द्रव्यारम्भकतावच्छेदकतया समवायिकारणतावच्छेदकतया पृथिव्यादिचतुर्षु = पृथिवीजलतेजोवायुषु एवपदेनाकाशप्रभृतिव्यवच्छेदः कृतः, भूतत्वाख्यो " जातिविशेषः कल्प्यते = अनुमीयते । प्रयोगस्त्यम् पृथिव्यादिचतुष्कनिष्ठा समवायसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकार्यतानिरूपिता तादात्म्यसम्बन्धावच्छिना कारणता किञ्चिद्धर्मावच्छिन्न कारणतात्वात् कपालनिष्ठघटकारणतावत् । तादृशकारणताया गगनाद्यमें समवाय सम्बन्ध से अन्य द्रव्य की उत्पत्ति हो सकती नहीं है । कारणतावच्छेदक धर्म से शून्य से कार्योत्पाद का आपादन कैसे हो सकता है ?
३८६
* मूर्तत्व ही द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक
अपरमत )
नेत्र तथा इति । प्रकरणकार यहाँ अपर विद्वानों के अभिप्राय को बताते हैं कि 'मूर्त्तत्व ही द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक धर्म है, न कि मनोभिन्नमूर्त्तत्व, क्योंकि वैसा मानने में गौरव है। यहाँ यह शंका करना कि “मूर्त्तत्व को द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानने पर मन में भी समवाय सम्बन्ध से द्रव्य की उत्पत्ति होने की आपत्ति होगी, क्योंकि मन में मूर्त्तत्व रहता है" ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि मन में द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मूर्त्तत्व होने पर भी विजातीयसंयोगात्मक अन्य हेतु न होने की वजह ही मन में समवाय सम्बन्ध से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है । एक कारण से ही कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु सामग्री से ही कार्य का उत्पाद होता है । अतः मूर्त्तत्व को द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानने में कोई दोष नहीं है ।
-
द्रव्यारम्भकतावच्छेदक भूतत्वज्ञाति नहीं हो सकती
यत्तु इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन है कि द्रव्यारम्भकतावच्छेदक न तो त्रव्यत्व है, न तो मूर्त्तत्व किन्तु भूतत्व है । इसका कारण यह है भूतत्व जाति की सिद्धि ही द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकविधया होती है । द्रव्य का समवायिकारण पृथ्वी, जल, तेज और वायु होता है । अतः भूतत्व जाति भी इन चारों में ही रहेगी, न कि अन्य में भूतपद का शक्यतावच्छेदक भी भूतत्व जाति ही है । जहाँ जहाँ भूतत्व जाति रहती है, उसमें ही भूतपद का प्रयोग होता
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३८७ मध्यमस्याहादरहस्ये खण्डः-२ का. * तमःसाधारणभनवजातिकल्पनसम्पतिः
स एव च भूतपदशक्यतावच्छेदकः । आकाशे भूतत्वव्यवहारस्तु भाक्त एव इति तमोऽवयवानां न द्रव्याराभकत्वमिति मतं वदयालम, तम:साधारणस्यापि तस्य कल्पयितुं शक्यत्वात्, मनसोऽनतिरिक्तत्वनये भूत-मर्तपदयोः पर्यायत्वापत्तेश्च ।।
= =* जयल(II * - -- वृत्तितया गगनादिव्यावृत्ता भूतत्त्वजाति: तादृशकारणतावच्छेदकतया सिध्यति । स -- भूतत्वाख्यो जातिविशेषः, एव च भूतपदशक्यतावच्छेदकः = भूतपदनिरूपितशक्तिविषयताया अबच्छेदक: भूतपदप्रवृत्तिनिमित्तमिति यावत् ।
नन्वेवं सति गगने भूतपदप्रयोगस्योन्मत्तप्रलापत्वं प्रसज्येत यतो भूतत्वलक्षणं भूतपदप्रवृत्तिनिमित्तं नास्ति भूतपदञ्च तत्र । व्यवहियत इत्याशङ्कायामाचक्षते - आकाशे भूतत्वव्यवहारस्तु भाक्तः = गौण इति । पृथिव्यादिषु चतुधैव भूतपदप्रयोगः मुख्यः, गगने तुमचरितः, चित्रगते गवि गोपदप्रयोगवत् । एतेन गगने भूतपदप्रयोगविषयतया भूतत्वसिद्धिः प्रत्युक्ता, माणबके पि सिंहत्वसिद्धिप्रसङ्गात् । इति = भूतत्वजाते: पृथिव्यादिषु चतुधैव वृत्तित्वात्, तमोऽवयवानां पृथिव्यादिचतुष्कबहिर्भूतानां न द्रव्यारम्भकत्वं = तमोद्रव्यसमवायिकारणत्वम् । यद्यपि एतन्मते तमसोऽद्रव्यत्वेन तमोऽवयवानामप्यसिद्धि: तथापि अभ्युपगमवादेन तमोऽययवानगीकृत्य तमसो द्रव्यत्वप्रतिषेधार्थमिदमुक्तमिति द्रष्टव्यम्, परप्रसिद्भानुबादेन प्रसङ्गापादनस्य प्रसिद्धत्वात् ।
तदपमतमिति । तदेव समर्धयति - तमःसाधारणस्यापि = पृथियादिषु चतुर्चिब तमस्थप्यनुगतस्य, तस्य = भूतत्वयाभिधानस्य जातिविशेषस्य, कल्पयितुं - अनुमातुं, शस्यत्वात् । प्रयोगस्त्वेवम् - समवायसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकार्यतानिरूपिता तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्ना पृधिजलतेजोवायुतमोवृत्तिः समवायिकारणता किश्चिद्भर्मावच्छिन्ना कारणतात्वात् कपालनिष्ठघटकारणतावत् । दर्शितानुमानेन तमस्यपि भूतत्वजातिसिद्धी तमोऽवयवानां तमोद्रव्यारम्भकत्वं सुघटमिति भावः ।
यत्तूक्तं - 'पृथिव्यादिषु चतुर्वे भूतत्वारयो जातिविशेष' इति तत्राऽऽह - मनसोऽनतिरिक्तत्वनये = जीयानामणु. त्वमेव मनश्च न ततो भिन्नमिति तन्मते भूतमूर्नपदयाः पर्यायत्वापसेरिति । तत्समानार्धकपदान्तरेण तदर्थकथनात् भूतमूर्तपदयोः पर्यायत्वप्रसङ्गः । आकाशे भूतत्वजात्यनहगीकारात् मनसश्चातिरिक्तस्य विरहात भूतमूर्तपदाभ्यां पृथिव्यादिचतुष्कस्यैव प्रतिपादनात तत्पांयत्वं दुर्वारमित्यर्थः । नव्यनैयायिकैरपि अतिरिक्तं मनः नाभ्युपगम्यते, भातिका एव परमाणवो मनान्सि अनन्तधर्मिणामतिरिक्तायाश्च जाते; कल्पनापेक्षया क्लृप्तानामंत्र धर्मिणां ताद्रूप्येण हेतुत्वस्य युक्तत्वात, सुषुप्ती ज्ञानानुत्पत्तिनियमस्त्वदृष्टोपग्रहादिति तेषामभिप्रायात् । एतेन माध्यादिमतेऽस्त मनसोऽनतिरिक्तव्यम्, नैयायिकमते तु निरिक्तत्वाभ्युपगमान्न भूतमूर्तपदयोः पर्यायत्वापत्तिरिति प्रत्याख्यातम् । भूतमतपदा-पर्यायत्वोपपत्तयेऽपि मनसोऽनतिरिक्तत्वमतानुरोधेन गगने भूतत्वमुपगन्तव्यम् । एवञ्च पृधिचीजलतेजोवाय्वाकाशतमोद्रव्येषु भूतत्वं कल्पनामर्हति, सङ्कोचे मानाभावादित्यभिप्रायः ।
है । यद्यपि आकाश में भी भूतपद का प्रयोग होता है तथापि वह प्रयोग मुख्य नहीं है । आकाश में होने वाला भूतपद का प्रयोग गीण है । अतः आकाश में भूतत्व का व्यवहार भूतत्व जाति का साधक नहीं है। अन्धकार तो पृथ्वी आदि चतुष्टय से रहित है । अनः वह भूतत्वजाति से शून्य होता है। अतएव अन्धकार अवयवों से अन्धकार द्रव्य का आरम्भ नहीं हो सकता । द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जाति से रहित में समवाय सम्बन्ध से द्रव्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? अतः अन्धकार को द्रव्यात्मक नहीं माना जा सकता' - किन्तु यह कथन भी अविचारितरमणीय है, क्योंकि तर्कशस्त्र चलने पर वह धराशायी हो जाता है । वह इस तरह द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकविधया पृथ्वी आदि चार में साधारण = अनुगत भूतत्व जाति की कल्पना करने की अपेक्षा अन्धकार में भी साधारण = अनुगत भूतत्व जाति की कल्पना क्यों नहीं करते ? अन्धकार की वादबाकी करने की क्या जरूरत ? पृथ्वी आदि की भाँति अन्धकार में साधारण भूतत्व जाति की कल्पना करने से ही अन्धकार के अवयवों में अन्धकारात्मक द्रव्य की समवायिकारणता की उपपत्ति हो सकती है । अतः अन्धकार | को द्रव्य मामने में कोई दोष नहीं है । दूसरी बात यह है कि जो दार्शनिक मन को अतिरिक्त नहीं मानते हैं, किन्तु
आत्मा को ही अणु मान कर मन को अणु आत्मास्वरूप मानते हैं, उनके मतानुसार भूतपद और मूर्तपद पर्यायवाचक बन जायेंगे, क्योंकि आप पृथ्वी आदि चार को ही भूत मानते हैं और मन नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु को बे दार्शनिक नहीं मानते हैं। अतः भूतपद एवं मूर्तपद का वाच्या पृथ्वी आदि द्रव्यचतुष्क ही बनेगा । अतः भूतपद और मूर्तपद का प्रवृत्तिनिमित्न
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* विश्वनाथ-महादेव-नृसिंहप्रभृतिमतप्रकाशनम् * __आकाशे वेदादिप्रयुक्तभूतपदस्य मुख्यत्वाय बहिरिन्द्रयग्राह्यविशेषगुणजातीयगुणवत्वस्य गुरोरपि भूतपदशक्यतावच्छेदकत्वात्, अन्यथा पशुपदादेरपि गोत्वादिविशिष्ट एव शक्त्यापतेः।
=* जयलवा यत्तूक्तम् - 'आकाशे भूतत्वव्यवहारस्तु भाक्त एवेति तत्राऽऽह - आकाशे इति । सप्तम्यर्थो विषयत्वम् । वेदादि
भूतपदस्येति । वेदादो प्रयुक्तस्य आकाशविषयकस्य भूतपदस्येति भावः । मुख्यत्वाय = प्रधानत्वोपपत्तिकृते, बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणजातीयगुणवत्त्वस्य = मनोभिन्नेन्द्रियेण ग्राह्यो यो विशेषगुण: तत्सजातीयगुणवत्त्वस्य, गुरोः अपि भूतपदशक्यतावच्छेदकत्वात् = भूतपदनिरूपितशक्तिविषयताया अबच्छेदकत्वात् । अयमत्राभिसन्धिः भूतत्वं जानि: न सम्भवति मूर्तत्वेन समं साकर्यात्, भूतत्वं विहाय मनसि वर्तमानस्य मूर्तत्वस्य मूर्नत्वं विहाय गगने वर्तमानस्य भूतत्वस्य च पृथिव्यादिषु सत्त्वेन परस्परत्यधिकरणायोरेकत्र समावेशात् । किन्तु बहिरिन्द्रयग्राह्यविशेषगुणसजातीयगुणवत्त्वमेव भूतत्वम्, आत्मन्यतिव्याप्तिवारणाय 'बहिरिन्द्रये'ति । बहिरिन्द्रियग्राह्यस्य संयोगादिगुणस्य मनआदावपि सत्त्वात् 'विशेष'त्युक्तम् । 'बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वे'त्युक्तावननुगमदोषः इति 'जातीयगुणे' त्युपादानम् । साजात्यञ्च तादृशविशेषगुणत्वेन बोध्यम् । तेन नात्मादावतिव्याप्तिः । यद्यप्युत्पत्तिणावच्छेदेन घटादी सृष्टिप्राककालावच्छेदेन गगने च तादृशगुणवत्त्वं नास्ति तथापि समवायेन तादृशगुणसम्बन्धित्वमित्यत्र तात्पन्नाव्याप्तिः । न च समवायेन स्पर्शसम्बन्धित्वमेव भूतत्वमस्तु, लाययात्, गगने तूपचारेणैव भूतपदप्रयोगादिति वाच्यम्, वेदादावपि गगनविषयकभूतपदोपलम्भात्, वेदादी लक्षणाया अनङ्गीकारात्तन्मुख्यत्वोपपत्तये तत्राऽपि भूतत्वस्यावश्यकत्वात्, गौरतस्य फलाभिसरणलेगा दोषात् । ____ मुक्तावलीकारस्तु -> "पृधिव्यप्तेजोवावाकाशानां भूतत्वम् । तच्च बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वम् । अत्र ग्राहात्वं लौकिकप्रत्यक्षस्वरूपयोग्यत्वं बोध्यम् । तेन 'ज्ञातो घट' इति प्रत्यक्ष ज्ञानस्याऽप्युपनीतभानविषयत्वात्तद्वति आत्मनि नातिव्याप्तिः । न वा प्रत्यक्षाविषयरूपादिमति परमावादावव्याप्तिः, तस्यापि स्वरूपयोग्यत्वात्, महत्त्वलक्षणकारणान्तरा सन्निधानाच न प्रत्यक्षत्वम् । अथवा आत्मावृत्तिविशेषगुणवत्वं तत्त्वम्' <- (मुक्ता. पृ. २४१, का, २६) इत्याह । अत्र कल्पान्तर प्रदर्शनप्रयोजनं तु -> 'चक्षरिन्द्रियादिगतरूपादिविदोपगणानामनद्भुतत्वेन बहिरिन्द्रिग्रहागायोग्यचक्षुरादायव्यासेाधवाच' -(मु. दिन. पृ. २४१) इति महादेवः प्राह ।
नृसिंहशास्त्री तु -> 'समवायेन शब्दस्पर्शान्यतरसम्बन्धित्वं समवायघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्धेन शब्दस्पर्शान्यतर. धेत्वं, एतदन्यतरत्वं पृथिव्यादिगगनान्तान्यतमत्वरूपं वा भूतत्वं' - (मुक्ता.प्र. पु. १०८) इत्याचष्टे ।
ननु दर्शितभूतत्वस्य गुरुत्वान्न भूतपदाक्यातावच्छेदकत्वं सम्भवतीत्याशङ्कायामाह - अन्यथेति । गुरोः शक्यतानबच्छेदकत्वे, पशुपदादेरपि गोत्वादिविशिष्ट एव शस्त्यापत्तेः = शक्तताप्रसङ्गात् । एवकारेण 'लोमवल्लागूलबति' इत्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । अथं भावः पशुत्वं न जाति: उच्चे: श्रवत्वादिना साकर्यात् किन्तु लोमवल्लाङ्गलबत्त्वलक्षण: सखण्डोपा
एक ही बनेगा। जिन पदों का प्रवृत्तिनिमित्त एक ही होता है, वे पद पर्यायवाचक कहलाते हैं। इसलिए अभिन्न पदप्रतिनिमित्त राले भूतपद और मूर्तपद में पर्यायत्व की आपत्ति आयेगी ।
गुरुधा भी शक्यतावच्छेतक हो सकता है - स्यातापी आकाशे. इति । पृथ्वी आदि चार में भूतत्व जाति मानने वाले विद्वानों ने जो कहा था कि --> 'आकाश में भूतत्त्व जाति नहीं रहती है। इसलिए आकाश में होने वाला भूतपद का प्रयोग गौण है" - वह भी युक्त नहीं है। इसका कारण यह है कि वे विद्वान् वेदादि को प्रमाण मानते हैं। तथा वेदादि में तो अनेक बाद आकाशात्मक अभिधेय में भूतपद का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । वेदादि में आकाश में जो भूत पद का प्रयोग किया गया है, उसे गीण तो नहीं माना जा सकता । अतः उसके मुख्यत्व की उपपत्ति के लिए आकाश में भी भूतत्व का अङ्गीकार करना उचित है । भूतपद के शक्यतावच्छेदकस्वरूप भूतत्व को जातिस्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब मूर्तत्व जाति के साथ सांकर्य प्रसक्त है। किन्तु भूतत्व अखण्ड उपाधिस्वरूप है जिसका बहिरिन्द्रियग्राह्य विशेषगुण के सजातीय गुणिकचरूप निर्वचन हो सकता है । पृथ्वी आदि में बहिरिन्द्रिय प्राण आदि से ग्राह्य गन्धादि विशेषगुण के सजातीय विशेष गुण गन्धादि रहने से उनमें
त्वस्वरूप भूतत्व रहता है। यहाँ भूतत्व का जो निर्वचन किया गया है, वह अन्धकार में भी अबाधित है, क्योंकि उसमें नील रूप आदि विशेपगुण रहते हैं, जो बहिरिन्द्रियग्राह्य विशेषगुण नील रूपादि के सजातीय है। अतः भूतत्व को
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३८५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. गुरुधर्मस्यापि शक्यतावच्छेदकलविवारः * 13D% 3D%
3DD-3DD स्वास्तु एकत्वनिष्ठ एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेष: कल्य्यते । स चा:त्याऽवयव्येकत्वव्यतिरिक्त एवेति
= = ==* ायलता - | धिरेब । तदेव च पशुपदशक्यतावच्छेदकम् । यदि च गुरुधर्मस्य शक्यतावच्छेदकत्वं नोपेयते तदा लोमवल्लागूलवति पशुपदाक्ति: न स्यात किन्त लाघवेन गोत्वादिविशिष्ट एव । न चैवमस्तीति गरोरपि शक्यतावच्छेदकत्वमभ्यपेयमेव । ततो गरोरपि व्यावर्णितस्वरूपस्य भूतत्वस्य भूतपदशक्यतावच्छेदकत्वमुपगन्तव्यम् । तस्य च तमोऽवयवेष्वपि सत्त्वान्न तेषां द्रव्यारम्भकत्व गुतिः । न चैवं मुंगेर योदकत्ववादो आहन्येतेति वाच्यम्, पशुपदाद्यनुरोधात् नैयायिकैरपि शक्यतावच्छेद| काद्यतिरिक्तस्थल एब तादृशनियमस्योपगमादिति दिक् ।
स्वतन्त्रास्त्विति । आहुरित्यनेनाऽस्याइन्वयः । एकत्वनिष्ठः = एकत्वसळ्यासमवेतः, एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषः = द्रव्यसमवायिकारणतावच्छे दकी भूत: एकत्लत्व विशेषलक्षणो जातिविशेष:, कल्प्यते = अनुमीयते । 'या या कारणता सा सा किश्चिद्धबिछिन्ने ति च्याप्तिबलेन समवायसम्बन्धावन्निद्रव्यमायबृत्तिकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकविधया एकत्ववृत्तिः एकत्वत्वविशेषो-नुमीयते । सिद्धो धर्म एको नित्यश्चेदसति बाधके तदा लाघवमिति न्यायेन स च जातिस्वरूप एव सिध्यति । न चैकत्वत्यविशेषस्त्वेकत्वसङ्ख्यायां वर्तते समवायेन घटादि द्रव्यं तु कपालादी वन्त इति वैयधिकरण्यात्कंध कार्यकारणभावः सम्भवेत् ? इति वक्तव्यम्, जातिविशेषस्य समवायेंनैकत्ववृनित्वेऽपि स्वसम - वायिसमवायसम्बन्धेन कपालादी वर्तमानत्वात् । तस्यैवात्र द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धत्वेन विवक्षितत्वात । एतेनैकत्वसमवेतस्यैकत्वत्वविशेषस्य द्रव्यारम्भकतावच्छेकत्वे एकत्वसन्याया द्रव्यसमवायिकारणत्वं प्रसज्येतेति मुग्धाशड़का परिहता, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः ।
नन्वर्य घटादेरपि द्रव्यारम्भकत्वं प्रसज्यत, स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेनेकत्वत्वविशेषस्य तत्र वर्तमानत्वात् । एतेनाऽन्त्यावयविनो द्रव्यारम्भकत्वस्य कुत्रा "यदृष्टचरत्वान्न तदापादनं सम्भवतीति प्रत्युक्तम्, सत्यां सामय्यां कार्योत्पादस्याऽवश्यंभावनियमात् । एतेनाऽन्त्याऽधयबिनो द्रव्यानारम्भकल्यनियमान्नतत्प्रसङ्ग इत्यपि प्रत्याख्यातम्, प्रयोजनक्षतेरकिञ्चित्करत्वात् । न । हि प्रयोजनक्षतिभिया सामग्री कार्य नार्जयतीत्याशड़कायामाचक्षते . स चेति । द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक एकत्वसमवेतो जातिविशेषश्चेति । अन्त्यावयन्येकत्वव्यतिरेक्त एवेति । अन्त्यावयबिसमतैकत्वसङ्ख्याव्यावृत्तः तदसमवेत इति यावत् । एकत्वत्वविशेषस्याऽन्त्यावयविसमवेतैकत्वसङ्ख्यायामसमवेतत्वादेव स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेन नाऽन्त्यावयविवृत्तित्वं सम्भवति । द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने पर भी अन्धकार के अवयवों से अन्धकार का आरम्भ हो सकता है । यहाँ यह कहना कि
- 'भूतत्व को बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणसजातीयगुणवत्त्वस्वरूप मानने पर भूतपद का वह शक्यतावच्छेदक नहीं बन सकता, क्योंकि लघुधर्म ही शक्यतावच्छेदक होता है' <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गुरु धर्म भी शक्यतापच्छेदक हो सकता है, अन्यथा पशुपद का शक्यतावच्छेदक लोमबल्लांगुलबत्त्व कैसे हो सकेगा ? क्योंकि वह भी गीत्यादि की अपेक्षा गुरुभूत है। लघुभूत धर्म को ही शक्यतावच्छंदक मानने पर तो पशुपद की भी शक्ति गोत्वादि से विशिष्ट में ही सिद्ध हो जायेगी और तब पशुपद का शक्यतावच्छेदक गोत्वादि होने लगेगा । मगर ऐसा नहीं है। लोमनलांगुलवत्व गुरुधर्म होने पर भी पशुपद का शक्यतावच्छेदक होता है, वैसे ही वहिरिन्द्रयग्राह्यविशेषगुणजातीयगुणवत्त्व गुरु धर्म होने पर भी भूतपद का शक्यतारच्छेदक हो सकता है । निष्कर्षः- अन्धकार को जन्य द्रव्य माना जा सकता है ।
स्रवति नातिविशेष. द्रव्याम्भकतापलेदप - स्वतन्त्रमत स्वत, इति । अमुक स्वतन्त्र विद्वानों का यह कथन है कि > 'द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति न तो द्रव्यत्व है, न । तो मूर्नत्वादि है, किन्तु एकत्वसंख्या में रहने वाली जाति विशेप ही द्रव्यारम्भकतावच्छेदक है । कपालगत एकत्व में तादृश जातिविशेप होने से घट का आरम्भक कपाल होता है । यद्यपि तादृश जाति समवाय सम्बन्ध से कपाल में नहीं अपितु कपालगत एकत्व संख्या में रहती है। कारणतावच्छेदक धर्म तो कारण में रहना चाहिए । अतः आपाततः तादृश जाति को न्यारम्भकतावच्छेदक नहीं मानी जा सकती तथापि स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से तादृश जाति कपाल में भी रह सकती है, क्योंकि स्व = एकत्वगत तादृशजाति, के आश्रय एकत्व संख्या का समवाय कपाल में रहता है । अतः स्वाश्रयसमवावसम्बन्ध से तादृश जाति को द्रव्यारम्भकतारच्छेदक मानने में कोई दोष नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि --> 'घटादि अन्य अवयवी में भी एकत्व संख्या रहने से ताश एकत्वगत जाति स्वाश्रयसमवायसम्बन्धरूप समवायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध से
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* स्वतन्त्रमतनिराकरणम् * न तत्तदन्त्यावयवित्वेनाऽनन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावकल्पनागौरवमित्याहुः । तर, ताहशजातेर्जन्यैकत्वत्वेन समं साकर्यादित्यपरे ।
= * गयलता* = एतेन घटादेव्यारम्भकत्वप्रसङ्गः प्रत्युक्तः, समवायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदकसंसर्गेण समन्नायिकारणतावच्छेदकाभावक्तो द्रव्यारम्भाऽयोगात् । एकत्वत्वविशेषस्याऽन्त्यावयव्येकत्वसमबेतत्वोपगमे तु घटादीनामनारम्भकत्वरक्षणाय तत्तदन्त्यावयवित्वेन द्रव्यप्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकत्वेनाऽनन्तप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावग्रसङ्गात् । एतादृशगौरवस्य पूर्वमेवोपस्थितत्वेन न तत्र जातिविशेष: कलप्यते इति न गौरवमित्याशयमाविष्कुर्वन्ति - इति = उक्तहेतोः, न तत्तदन्त्यावयवित्वेन अनन्तप्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनागौरवमिति । घटे समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्येन घटस्य प्रतिबन्धकत्वं, पटे समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्मयेन पटस्य प्रतिबन्धकत्वमित्याद्यनन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावकल्पनागौरव घटादिसमवेतैकल्ये एकत्वत्वविशेषस्या नभ्युपगमेनैव परिहतम् । न चान्त्यावयविसमवेतम्यगावृत्तिरेकचनविदों को मिला ? इति वाच्यम्, धर्मिग्राहकप्रमाणादेव तल्लाभात्, ‘समवायसम्बन्धावच्छिन्नद्रश्यनिष्ठकार्यतानिरूपिता तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नानन्त्यावयविवृत्तिकारणता किश्चिद्भर्मावच्छिन्ना कारणतात्वात्' 'इत्यनुमानेनैवाऽन्त्यावयविममवेतैकत्वासमवेतस्यैव तस्य सिद्धेरिति तेषामाशयः ।
अपरे स्वतन्त्रमतभागकुर्वन्ति - तन्नेति । 'अपरे' इत्यनेनाऽस्पाइन्वयः । तादृशजातेः = अनन्त्यावयविमानसमवेतैकत्यसंख्यासमवेतकत्वत्वविशेषरूपाया स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेन द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदिकाया जातेः, जन्यैकत्वत्वेन = जन्यैकत्वसङ्ख्यासमवेतैकत्वत्वसामान्येन, समं साङ्कर्यादिति । तथाहि घटादी जन्येऽन्त्यावयविनि या एकत्वसङ्ख्या साऽपि जन्येति तत्र सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टैकत्वत्वजातिर्वर्त्तते परं द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वविशेषो नास्ति, स्वतन्त्रैः तादृशजातेरन्त्यावयव्येकत्वन्यात्तत्वाऽभ्युपगमात् । परमाणोव्यारम्भकत्वेन तद्गतैकत्वसङ्ख्यायां द्रव्यारम्भकतावच्छेदक: एकत्वत्वविशेषोऽस्ति परं जन्यकत्वत्वजाति स्ति; परमाणोरिव तद्गतैकत्वस्यापि नित्यत्वेन सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टेकत्वत्वाऽयोगात् । द्वयणुघट आदि में रहने से घटादि में भी कपालादि की भाँति समवाय सम्बन्ध से द्रव्य उत्पन होगा' <- तो यह असंगत है, क्योंकि द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष अनन्त्य अवयवी में रहनेवाली एकत्व संख्या में ही रहती है, न कि अन्य अवयवी में रहनेवाली एकत्व संख्या में । घटपत एकत्वसंख्या में तादृश जातिविशेष समवायसम्बन्ध से नहीं होने से वह स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से घटादि अन्त्य अवयवी में भी नहीं रह सकती । अतः घटादि में समवायसम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का अवकाश नहीं है। अंत्य अवयवी में रहनेवाली एकत्व संख्या में द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति समवाय सम्बन्ध से नहीं रहती है . यह मानना उचित भी है, क्योंकि ऐसा न मानने पर तत् तत् अन्त्य अवयवी को समवायसम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का प्रतिवन्धक मानना होगा । तत् तत् अन्य अनंत अवयवित्व को प्रतिबन्धकतावच्छेदक मानने पर अनन्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करनी होगी, जिसमें अत्यंत गौरव है। इसकी अपेक्षा अन्त्य अवयवी में विद्यमान एकत्व संख्या में इन्यारम्भकतावच्छेदक जातिविझेप को न मानना ही उचित है, क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त अनन्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना अनावश्यक बन जाती है। स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष का अन्त्य अवयवी में अभाव होने से ही अन्त्य अवयवी में समवायसम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का अवकाश नहीं है। समवायिकारणतावच्छेदक धर्म से शून्य में समवेत कार्य की उत्पत्ति का अवकाश नहीं है । समवेत ऐसे कार्य की उत्पनि समवायिकारणतावच्छेदक धर्म से शून्य में नहीं होती है । अतः अन्न्याक्यविगत एकत्व में अवृत्ति (=व्यावृत्त व्यतिरिक्त) और अनन्त्यावयविगत एकत्व में समवेत जातिविशेष || को ही स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना मुनासिब है।
स्वतन्त्रमत में सांकर्य दोष - अपर विदान तन्नः इति । उपर्युक्त स्वतन्त्रमत के खिलाफ. अन्य नैयायिक मनीपियों का यह कथन है कि -> 'अन्यत्यावपवियत एकत्व संख्या से व्यावृत्त और अनन्त्यावयविगत एकत्वसंख्या में समवेत जातिविशेष (=एकत्वत्वविशेष) को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में सांकर्य दोष उपस्थित होने से उक्त कार्य-कारणभाव को मान्य नहीं किया जा सकता । वह सांकर्य जन्य एकत्वत्वजाति के साथ इस तरह प्रसक्त होता है। जन्यकत्वत्वजातिपद का अर्थ है केवल जन्य एकत्वसंख्या में रहने वाली एकत्वत्वजातिविशेष। घटगत जन्य एकत्वसंख्या में जन्यैकत्वत्वजाति है, मगर द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष नहीं है, क्योंकि घट द्रव्यानारम्भक होने से तद्गत एकत्वसंख्या में द्रव्यारम्भकतावन्तछेदकीभूत जातिविशेष का अंगीकार स्वतन्त्रमतानुसार नहीं किया गया है, यह | अभी ही उपर्युक्त कथन से स्पष्ट किया गया है। परमाणुगत एकत्वसंख्या नित्य होने से उसमें जन्यैकत्वत्वजाति नहीं रहती
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३५१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः १ - का.५ *जन्यैकत्वत्वस्वरूपविचार:* या 'जन्यैकत्वत्वं तादृशजातिव्याप्यं भिन्नमेवाऽभ्युपेयते । न च तादृशजातेरेव
* जयलवा. .. ...... कादिगतैकत्वे तु सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टकत्वत्वं द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वविदोषश्च स्त इति साङ्कर्यम् । यद्यपि सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टेकत्वत्वस्य जातिलं न सम्भवति, विशिष्टस्य जातित्वाऽयोगात् तथापि जन्यैकत्वसङ्ख्या - मात्रबृत्तिजातरित्येवं विवक्षायां दोषाभावात् । यतोऽत्र साङ्कयम्, अत , त्याचयविसमवेतैकत्वव्यावृत्तैकत्वत्वविशेषस्या:नन्त्यावयव्यकत्वसमवेतस्य द्रव्यारम्भकत्वापच्छेकत्वकल्पनं नाहति । तरपान्त्यावविगत कल्यवृत्तित्वे तु दर्शितानन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभानगौरवमनिवार्यमवेति ज्याघ्रतटीन्यायावात इति स्वतन्त्रमतप्रतिक्षेपिनामपरेषामभिप्रायः ।
यदि विति । अस्य चान्ग्रे 'इति विभाव्यत' इत्यनेनान्वयः । जन्यैकत्वत्वं = जन्यैकत्वसङ्ग्यामात्रवृनि बैजात्यं, तादृशजातिव्याप्यं = द्रव्यारम्भकतावच्छेदकैकत्वत्तविशेषल्याप्यं, भिन्नं = अन्त्यावयविगतकत्वनिष्ठकत्वत्वातिरिक्तं, एवं अभ्युपेयते स्वतन्त्रैरिति शेषः । एवञ्च न साड़कर्यावकाशः । तथाहि घटादिगत्तैकत्वे द्रव्यारम्भकतावच्छेदकीभूतैकत्वत्वविशेषस्या:
। जन्यकत्वत्वविशेषस्यापि तवा भाव:, व्यापकाभावस्य थाप्याभावसाधकत्वात् । यच्चैकत्वत्वं घटादिगते कले वर्तत तन्नानन्त्यावयविगतकत्ये द्रव्यारम्भकतावच्छेदककत्वत्समवायिनि वर्तते किन्तु तदतिरिक्तैकत्वत्वं द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकैकत्वत्वविशेषज्याप्यमेव वर्तत इति न परस्परन्यधिकरणयोरेकत्र समावेशलक्षणस्य सकरस्याबकाशः । ततश्चान्त्याध्ययविगतैकत्वाऽवृत्येकत्वत्वव्यापकोऽन्त्यावरविसमवेतकत्वाऽसमवेत एकत्यसमवेतो जातिविशेष एकल्यत्व विशेषलक्षण: स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेन द्रव्यसमवायिकारणतावछंदक इत्यभ्युपगमे दोपलेशाऽवकाशो नास्तीति स्वतन्त्राणामभिप्रायः ।
___ ननु जन्यैकत्वत्वजात्या सह द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजाते: साङ्कर्यनिरासकृते भवद्भि जन्यैकल्यत्यजाते: नानात्वमुषकलायकत्वनिष्ठद्रन्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषव्याप्यत्वं तत्रागीकृतम् । परं नाध्यमेव पन्धा विद्यते साकर्या पाकरणकृते; एकत्वनिष्ठदव्याराम्भकतावच्छेदकजातेनानात्वमभ्युपगम्य तत्र जन्यैकत्वत्वजातिव्याप्यत्वकल्पनाया अपि साकर्यनिराकरणप्रवणत्वादित्याशङ्कापराकरणायोपक्रमनो - न चेति । विनिगमकाभात्र इत्यनेनाऽस्याउन्धयः । तादृशजातेरेव नानात्वेनेति । एकत्व
है, मगर व्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्यविशेष जाति रहती है, क्योंकि परमाणु द्वथणुकद्रव्य का आरम्भक होता है । इस तरह परस्परल्यधिकरण ऐसी जन्यैकत्वत्वजाति एवं द्रघ्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेप कपालादिगत एकत्वसंख्या में रहती हैं। अत: परस्परब्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश होने से जन्यैकत्वजाति के साथ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष का सांकर्य प्रसक्त होता है । इसलिए अन्त्यावयविगत एकत्वसंख्या में असमवेत ऐसी द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष का स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतएव उससे घटित कार्यकारणभाव भी, जो स्वतन्त्र विद्वानों की ओर से बताया गया है, मान्य नहीं किया जा सकता' । यह अपर विद्वानों का स्वतन्त्र मनीपियों के प्रति आक्षेप है ।
*स्वतन्त्रमत का परिकार पदि, इति । उपर्युक्त सांकर्य दोप का निराकरण करने के लिए स्वतन्त्र मनीषियों की ओर से परिप्कार किया जा सकता है कि --> 'द्रव्यारम्भकत्वावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष की व्याप्य जन्यैकत्लत्वजाति की, जो अन्त्यवयविगत एकत्वसंख्या में विद्यमान जातिविशेप से भिन ही है, कल्पना करने से सांकर्य दोष का अवकाश नहीं है । आशय यह है कि घटादि में रहने वाली एकत्वसंख्या में समवेत जन्यैकत्वत्वजाति कपालादिगत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है, किन्तु उससे मित्र एकत्वत्वजातिविशेष कपालादिगत एकत्व में रहती है, जो कि द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठ जातिविशेष की व्याप्य है। घटादिगत एकल में द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेप नहीं होने से उसकी व्याप्य कपालादिगतेकत्वसमवेत एकत्वत्वविशेप जाति का न होना सिद्ध होता है, क्योंकि व्यापक का अभाव ब्याप्याभाव का व्याप्य होता है। इस तरह कपालगतैकत्व में समवेत एकत्वत्वजातिविशेष घटादिगत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है और घटादिसमवेत एकत्वसंख्या में समवेत जन्यकत्वन्च जाति कपालादिगत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है। अतः परस्परब्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश ही असिद्ध होने से जन्यैकत्वत्वजाति के साथ व्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेप के सांकर्य दोष का उद्भावन करना नामुनासिब है । अतः एकत्वनिष्ठ जातिविशेष को स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में कोई दोप नहीं है।
द्रत्यारम्भकतावच्छेदक एरपत्यविशेष को अनेक माजजे में गौरत.* न च ता, इनि । यहाँ यह शंका हो सकती है → 'जन्यैकत्वत्व जाति के साथ एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक ||
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*साइयविचारः *
नानात्वेन तद्व्याप्यत्वे विनिगमकाभाव:, यत: तज्जातेर्नानात्वे व्यभिचारभिया तदवच्छिन्नजन्यतावच्छेदिकाऽपि नाना जाति: कलया ।
* जयलता
निष्ठाया
द्रव्यारम्भकत्वावच्छेदकजातेरंबाऽनेकविधत्वाङ्गीकारसम्भवेनेति । एवकारेण जन्यैकत्वत्वजातेर्नानात्वकल्पनाव्यवच्छेदः कृतः । तद्व्याप्यत्वे = जन्यैकत्वमात्रवृत्तिजातिव्याप्यत्वाऽभ्युपगमे विनिगमकाभावः = विनिगमनाविरह इति । तद्युक्तत्वदर्शनार्थं विनिगमकमावेदयन्ति स्वतन्त्राः यत इति । तज्जाते: एकत्वनिष्ठद्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातेः नानात्वे अनेकविधत्वकल्पने, व्यभिचारभिया व्यतिरेकव्यभिचारभयेन तदवच्छिन्नजन्यतावच्छेदिका = द्रव्यारम्भतावच्छेदकजातिविशेषावच्छिन्ननिष्ठकारणतानिरूपिताया कार्यताया अवच्छेदिका अपि नाना जातिः कल्प्येति । अयमाशय: द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातेर्नानात्वोपगमे एकैकस्य द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वे व्यतिरेकव्यभिचारात् तत्कूटस्य चैकत्राऽवर्तमानतया कारणतावच्छेदकत्वासम्भवात्तृणारणिमणिन्याययेन नाना कार्यतावच्छेदकजातिः कल्पनीया । तथाहि नित्यैकत्वद्वृत्तिजात्यवच्छिन्ननिरूपितकार्यताया अवच्छेदिका यशुकत्वजातिः, अनित्यैकत्वनिष्ठजात्यवच्छिन्ननिष्ठकारणतानिरूपितकार्यताया अवच्छेदकं त्र्यणुकत्वादिघटत्वपटत्वादिपर्यन्तजात्यन्यतमत्वं त्र्यणुकाद्यन्त्यावयविपर्यन्तवृत्तिवैजात्यं वा । एतेन द्वयागुकस्याऽनित्यैकत्ववृत्तिजात्यवच्छिन्नमृते व्यणुकादेर्नित्यैकत्वनिष्ठजात्यवच्छिन्नं विनोत्पत्तेर्व्यतिरेकव्यभिचारो द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातेर्नानात्वकल्पने दुवरि इति प्रत्युक्तम्, नानाकार्यकारणभावाभ्युपगमात् ।
=
३५२
=
न चैकत्वनिष्ठनानाकारणतावच्छेदकजात्यवच्छिन्ननिरूपितकार्यतावच्छेदकनानाजातिकल्पतेऽपि निस्तारः, जलत्वादिना कार्यतावच्छेदकजातिसाङ्गकर्यस्य दुर्वारत्वात् । तथाहि पार्थिवद्वयणुके नित्यैकत्वगतजात्यवच्छिन्ननिरूपितकार्यतावच्छेदिका द्रयणकत्वजातिरस्ति परं जलत्वं नास्ति, जलीयत्र्यणुके जलत्वमस्ति परं तादृशद्व्यणुकत्वं नास्ति । जलीययणुके च जलत्वं तादृशइयकत्वञ्च स्त इति परस्परव्यधिकरणयोरेकत्र समावेशात्साङ्कर्यम् । तदपाकरणाय नित्यैकत्ववृत्तिजात्यवच्छिन्नकार्यताजाति के सांकर्य का निवारण करने के लिए जन्येकत्वत्व जाति को अनेकविध मान कर जन्येकत्वत्वजातिविशेष को द्रव्यारम्भकताबच्छेदक जाति का व्याप्य माना गया था, ठीक वैसे ही सांकर्य निवारणार्थ जन्यैकत्वत्वजाति के स्थान में एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को ही अनेकविध मान कर द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष को ही जन्येकत्वस्वजाति का व्याप्य माना जा सकता है। इसमें कोई बाध नहीं है। ऐसा मानने पर भी सांकर्य का निराकरण हो सकता है। दिखेये, परमाणुगत एकत्वसंख्या में रहने वाली द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति द्व्यणुकादि अनन्त्य अवयवी में समवेत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है और जो द्रव्यारम्भतावच्छेदक जातिविशेष द्व्यणुकादिगत एकत्व संख्या में समवेत है वह अणुगत एकत्वसंख्या में अवर्तमान है । दोनों अलग अलग हैं । अतः घटादिगत एकत्व संख्या में समवेत जन्येकत्वत्व जाति के व्यधिकरण परमाणुगत एकत्व में समवेत इन्यारम्भकतावच्छेदक जाति का ह्रयणुकादिगत एकत्वसंख्यास्वरूप एक धर्मी में समवेत द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति का द्व्यणुकादिगत एकत्वसंख्यास्वरूप एक धर्मी में समावेश की सम्भावना नहीं है। अतः उपर्युक्त सांकर्य के निवारणार्थ जन्येकत्वत्वय को अनेकविध मान कर जन्यैकत्वत्वजातिविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठ जाति का व्याप्य माना जाय या द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठ जाति का व्याप्य माना जाय ? दो पक्ष में से एक भी पक्ष में साधक या बाधक युक्ति न होने से दोनों का स्वीकार करना होगा या एक का भी स्वीकार नहीं हो सकता । इसलिए स्वतन्त्रमतपरिष्कार नामुनासिव
हे" <
यतः इति । मगर यह कथन भी असंगत है। इसका कारण यह है नित्य एकत्व में रहनेवाली एवं अनन्त्य अवयविगत अनित्य एकत्व में रहनेवाली दो द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष का स्वीकार करने पर व्यभिचार का प्रसंग होगा । द्व्यगुण की उत्पत्ति अनित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन के बिना ही होती है, क्योंकि परमाणु गतएकत्व में अनित्यैकत्ववृत्ति तादृश जातिविशेष नहीं है । एवं त्र्यणुकादि घटादिपर्यन्त द्रव्य की उत्पत्ति नित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन्न के बिना ही होती है, क्योंकि द्व्यणुकादि कपालपर्यन्त में रहने वाली एकत्वसंख्या में नित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष का अभाव होता है । अतः कारणतावच्छेदकावच्छित्र के बिना ही द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि की उत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार दोप होगा । इसका निवारण करने के लिए दोनों द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्ववृत्ति जातिविशेष से अवच्छिन्न कारण द्रव्य का जन्यतावच्छेदक जाति अलग अलग माननी होगी । वह इस तरह, नित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन्न (विशिष्ट) का कार्यतावच्छेदक द्व्यणुकत्व है और अनित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकता
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३९३ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का. * नव्यानां स्वतन्त्रमते सम्मतिः *
सापि च जलत्वादिना सङ्कीर्यमाणा जलत्वादिव्याघ्या नाना स्वीकार्यति बहुतरजातिकल्पनागौरवम्, एकत्वनिष्ठजातेस्तळ्याय्यत्वे त्वेकत्वजन्यतावच्छेदकं जातिन्दयमेव स्वीक्रियत इति लाघवमिति' विभागते, तदा स्वतन्त्रमतमपि सम्यगिति तु तव्याः ।
=--* जयलता है वच्छेदकट्यणुकत्यजाते: नानात्वं जलत्यादिव्याप्यत्वञ्च कल्पनीये । ततश्च न सङ्करप्रसङ्गः, जलत्वं विहाय पार्थिवद्रुयणुके वर्तमानस्य व्यणुकत्वस्य जलीयद्रयणुकेऽवर्तमानत्वात्, जलत्वव्याप्यद्वयणुकत्वस्येव तत्राऽभ्युपगमात् । एतेन जलीयद्वयणुके पृथिवीत्वं विहाय वर्तमानस्य द्वयणुकत्वस्य पावित्र्यणुके द्वयणुकत्वं विहाय वर्तमानस्य पृथिवीत्वस्य पार्थिवद्र्यणुके समावेशात्सङ्कर इत्यपि निरस्तम्, जलीयद्यगुके पृथिवीत्वाऽभावे सति तद्व्याप्यवेजात्यस्य यशुकत्वस्याऽसम्भवात्, तदतिरिक्तस्य जलत्वन्यायद्यणुकत्वस्यैव तत्राभ्युपगमात् । परमेतादृशकल्पनायां महागौरवमित्याशयेन त्र्याचक्षते - साऽपि चेति । द्विविधजन्यतावच्छंदकजातिरपि च, जलत्वादिना सङ्कीर्यमाणा जलत्वादिल्याप्या नाना प्रत्येकं चतुर्विधा, स्वीकार्येति बहुतरजातिकल्पनागौरवं = दशबिध-जातिकल्पनागौरवम् । तथाहि नित्यैकत्वगतजातेरनित्यैकत्वगतजातेस्नदवच्छिन्नजन्यतावच्छेदिकाया जलवादिचतुष्कव्याप्याया:प्रत्येकं चतुर्विधाया जातेश्च कल्पनमिति द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजाते नात्वकल्पने दशविधजातिकल्पनागौरवम ।
स्वतन्त्रमते त जन्यैकत्वनिष्ठजाते नात्वं द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिव्याव्यत्वं चेति कल्पनात्र दशविधजातिकल्पनागौरवमित्याशयेन बदन्ति - एकत्वनिष्ठजातेः = जन्यकत्वनिष्ठकल्लत्वविषजाते:, तस्याप्यत्वे = द्रव्यारम्भकतावच्छेदककविधजातिव्याप्यत्वाड़गीकार, त एकत्वजन्यतावच्छेदकं जातिद्वयं = अनन्त्यावयविगतकत्वनिष्ठजातिविशेषोऽन्त्यावयविगतकत्व! निष्ठजातिविशेषश्चेति जातियं. एव स्वीक्रिकयने इति दशविधजात्यकल्पनात लाघवमिति = कारणताद्यवनडेदकलाघवमिति, विभाज्यते स्वतन्त्रैः तदनुसारिभिवा, तदा स्वतन्त्रमनमपि सम्यगिति तु नव्याः प्रवदन्तीति शेषः ।
बच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन्न का जन्यतावटेदक त्र्यणुकत्व, चतुरणुकत्व आदि से लेकर घटत्व पर्यन्त यानी अन्त्य अवयविगत घटत्व-पटत्त्वादि जातिपर्यन्त । इस तरह का कार्यकारणभाव मानने पर व्यतिरेक व्यभिचार का निवारण हो सकता है, क्योंकि व्यणुकत्वावच्छिन्न के प्रति अनित्यैकत्वगत जातिविशेष से अवच्छिन्न कारण ही नहीं है और त्र्यणुकत्वादि घटत्वपटत्वपर्यन्त जाति से अवच्छिन्न के प्रति नित्यैकत्ववृत्ति जातिविशेष से अवच्छिन्न कारण ही नहीं है। अकारण के बिना स्वकारणसन्निधान से कार्य की उत्पत्ति होने पर व्यतिरेक व्यभिचार का उद्भावन नहीं किया जा सकता । मगर द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को अनेकविध मानने पर तदवच्छिन्न से निरूपित कार्यता के अवच्छेदकविथया अनेक जाति की कल्पना का गौरव होगा । इतना ही नहीं, जलत्वादि जाति के साथ सांकर्य भी प्रसक्न होगा। वह इस तरह, पार्थिव व्यणुक में नित्यैकत्वगत जातिविद्रोप से अवच्छिन्न का कार्यतावच्छेदक पणुकत्व जाति है, मगर जलव जानि नही है । त्यणुक जल में जलत्व जाति है मगर तादृश व्यणुकत्व जाति नहीं है । जब कि जलीय इयणुक में जलत्व जाति एवं तादृशा यणुकत्व जाति भी रहती है । अतः जलत्व जाति के साथ नित्यैकत्ववृत्ति जातिविशेप से अवच्छिन्न की कार्यतावच्छेदक द्यणुकत्व जाति का सांकर्य होगा। अत: इस सांकर्य के निवारणात अनेकविध कारणतावच्छेदक जानि से अवच्छिश्न से निरूपित कार्यता की अनेकविध अवऋदक जाति को भी जलत्वादिव्याप्यरूप में अनेकविध माननी होगी। मतलब कि नित्यैकत्वगत कारणतात्रछेदक जाति से अचच्छित्र की कार्यता का अवच्छेदक द्वयणुकत्व भी जलवादि जाति का व्याप्य अनेकविध है । पार्थिव द्वयणुक में जो कार्यतावच्छेदक जाति व्यणुकत्व है, वह पृथ्वीत्व की व्याप्य है न कि जलत्य की तथा जलीय द्रव्यणुक में जो कार्यतावच्छेदक व्यणुकत्व जाति है, वह जलत्व जाति की व्याप्य है न कि पृथ्वीत्व की । अतः उपर्युक्न सांकर्य का अवकाश नहीं होगा । वे परस्पर व्यधिकरण ही होने से एकत्र समाविष्ट नहीं हो सकती । मगर एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को अनेकविध मानने पर तदवच्छिन्त्र की जन्यतावच्छेदक जाति को भी अनेकविध मानना होगा, उनमें से प्रत्येक को जलत्वादि की व्याप्य अलगअलग माननी होगी । इस तरह अत्यन्त गौरव होता है। जब कि एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को एकविध मान कर उसकी व्याप्य जन्यैकत्वत्वजातिविशेप मानने पर एकत्वगतजन्यतावच्छेदक दो जाति की ही कल्पना करनी पड़ती है, अत्यावयविगत एकत्वसंख्या में समवेत जन्यैकत्वत्वजानिचिशेप और अनन्न्यावयविगत एकत्व में समवेत जन्यैकत्वत्वजातिविशेष । इस पक्ष में लाघव होने से नित्य और अनित्य एकत्व में समवेन द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेप को अनेकविध नहीं मानी जा • सकती। अतः जन्यैकत्वत्व को द्विविध मानने में एवं जन्यैकत्वत्वविशेष को, जो अनन्त्यावयविगत एकत्व में समवेत है, ही
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*जन्यभावमात्रस्य ससमवायिकारणत्वाऽनियम: *
एतन्मते विजातीयसंयोगस्यापि जन्यद्रव्यं प्रति पृथकारणत्वाऽकल्पनाल्लाघवम् । जन्यभावमाप्रस्य ससमवायिकारणकत्वनियमस्त्वसिन्दः, सिन्दौ वा तत्र द्रव्यत्वेनैव तथात्वमस्त्विति
= = = ==* जयलता. * अत्रैव प्रकरणकार: स्वकीयमांसलमीमांसोन्मेषमाविर्भावयति - एतन्मत इति । स्वतन्त्रमते, विजातीयसंयोगस्यापि = द्रव्यारम्भकविलक्षण्यावयवसंयोगस्यापि, जन्यद्रव्यं = जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नं, प्रति पृथकारणत्वाऽकल्पनात् = अवयवविलक्षणसंयोगत्वेन रूपेण कारणत्वस्याऽनभ्युपगमात, लाघवं = कारणतावच्छेदकधर्मलाघवम् । जन्यद्रव्यं प्रति स्वावयवानां स्वावयबविजातीयसंयोगस्य च कारणत्वेऽपि कारणतावच्छेदकं न द्रव्यत्वादि विजातीयसंयोगत्वं वा किन्त्वेकत्वत्वमेव । समबायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धाः स्वाश्रयसमवायो समवायिकारणतावच्छेदकताबच्छेदकसंसर्गश्च स्याश्रयसामानाधिकरण्यं एकत्वत्वस्य तेन सम्बन्धेन यथाक्रममवयवेष्ववयव विजातीयसंयोगे च वर्तमानत्वात् । सामानादिकरण्यमपि समवायेन बोध्यं, तेन न कोऽप्यतिप्रसङगः । समवापिकारणतावच्छेदकसम्बन्धः तादात्म्यसंसर्गोऽसमवायिकारणताबच्छेदकसम्बन्धश्च समवाय:, तेन न देशाऽनियमप्रसङ्ग । तथाहि द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठो जातिविशेषः स्वाश्रयसमवायेन कपालादी वर्तते, कपालादेः स्वपदप्रतिपाद्यैकत्वत्वाश्रयैकत्वसड़ख्यासमवायित्वात, स्वाश्रयसामानाधिकरण्येन च कपालद्वयविलक्षणसंयोगादी वर्तते, तस्यैकत्वत्वाश्रयैकल्लसङ्ख्याधिकरणकपालादिसमवेतल्यात् । कपालादौ तादात्म्येन कपालादेः समवायेन कपालद्वयसंयोगादेश्च वर्तमानत्वात् तत्रैव समवायेन घटादेरूत्पत्ति: न त्वन्यजेत्येवं जन्यद्रव्योत्पादनियमसम्भवेनैकत्वत्वेन रूपेणैव समबायिकारणत्वमसमवापिकारणत्वञ्चति कारणतावच्छेदकधर्मलाघवमिति भावः ।।
ननु समवायेन जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न प्रति स्वाश्रयसमवायेनैकत्वत्वविशिष्टस्य तादात्म्येन समवायिकारणत्वं स्वाश्रयसामानाधिकरण्येनैकत्वत्वविशिष्टस्य च समनायेनाऽसमबायिकारणत्वमित्येवंकल्पना न युक्ता, स्वतन्त्रमते तादृशकत्वत्वस्याऽन्त्याचयविसमतेतैकत्वा समवेतत्वाऽभ्युपगमेनाऽन्त्यावविना घटादेः समवायिकारणत्वाऽसम्भवेन तद्गतगुणादेः ससमवायिकारणकत्वनियमो व्यान्येत । न चेदं दृष्टमिष्टं वा, जन्यभावमात्रस्य ससमवायिकारणकत्वनियमात्, अन्यथा घटादेरपि कपालादिकमृते उत्पत्तिप्रसङ्गादित्याशङ्कायामाह - जन्यभावमात्रस्य = जन्यत्त्वे सति भावत्वावच्छिन्नस्य, ससमवायिकारणकत्वनियमस्तु असिद्धः = विपक्षबाधकतर्कशून्यः अप्रसिद्धोनम्युपगतो वेति । कपालनाशोत्तरं घटनाशात् तदुत्तरं तद्गतगुणादिनाशात् जन्य- । भावस्य समवायिकारणं बिना क्षरमेकमवस्थितिप्रसिद्धः, असमवायिकारणनाशस्य हेतुत्वमते च कपालादिनाशोत्तरमसमवायिकारणनाशे सत्येव घटादिनाशाऽभ्युपगमेन निरधिकरणस्य घटादेः क्षणद्वयमवस्थितिप्रसिद्धेः तदेव बहुतरक्षणमपि निरधिकरणस्य जन्यभावस्या ध्वस्थाने बाधका भावान्न तादृशनियमोऽभ्युपेयत इति भावः ।
___ अभ्युपगम्याह - सिद्धौ वेति । तत्र -- जन्यभावत्वावच्छिन्नस्य ससमवायिकारणकननियमे । द्रव्यत्वेनैवेति । जन्यद्रव्यत्वेन, पवकारेण जन्यभावत्वत्र्यवच्छंदः कृतः । ततश्च जन्यद्रव्यत्वावच्छिनस्य तथात्वं = ससमवायिकारणकत्वमित्येव नियम:
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द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेप का ब्याप्य मानने में लाघच ही विनिगमक , पक्षपाती है" <- ऐसा विचारविमर्श करने पर तो स्वतन्त्रमत ही युक्तिसंगत है, ऐसा नव्य नैयायिकों का कथन है ।
स्वतन्त्रमत में लायव * तन्मते, इति । प्रकरणकार स्वतन्त्रमत के प्रति अपने विचार को व्यक्त करते हुए कहते है कि । स्वतन्त्रमत में अवयवविजातीयसंयोग की बिजातीयसंयोगत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना अनावश्यक है, क्योंकि एकत्वत्वविशेष जाति ही असमवायिकरणतावच्छेदक भी हो सकती है। कपालादि अवयव में चिजातीयसंयोगस्वरूप च्यासमवायिकारण रहता है और वहाँ एकत्वत्वविशेष का आनय एकत्व गुण भी रहता है। अत: विजातीय संयोग में तादृश एकत्वत्वजातिविशेष स्वाश्रयसामानाधिकरण्यसम्बन्ध से रह सकती है। स्व एकत्वत्वविशेप, उसके आश्रय एकत्व गुण का सामानाधिकरण्य विजातीयसंयोग में रहता है। अत: एकत्वत्वविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में लायव है । यद्यपि अन्त्याचयविगत एकत्वसंख्या में द्रव्यारम्भकता. अवच्छेदक जाति नहीं रहती है। अतः स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से एकत्वत्वविशेप के आश्रय को समचायिकारण मानने पर अंत्यावयी घटादि समवायिकारण नहीं बन सकते । अतः घटादिगत गुण, क्रिया में ससमवायिकारणकत्व = समवायिकारणजन्यत्व या समवायिकारणसहितत्व अनुपपत्र बन जायेगा। नियम तो यह है कि जन्य भावमात्र ससमरायिकारणक ही होता है। इस
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३५. "यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.. * निभान्यं पदनिचार:* न तदनुरोधेन द्रव्यनिष्ठजातिविशेषकल्पनसिति विभाव्यम् ।
-* जयलIld ... ... ........ - अस्तु इति हेतोः न तदनुरोधेन = अन्त्यावयविसमवेतगुणाद्यनुरोधेन, द्रव्यनिष्ठजातिविशेषकल्पनं = द्रव्यनिष्टतया वैजात्यकल्पनम् । जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नस्य ससमवायिकारणकत्वनियमाऽभ्युपगमेन घटादिगतगुणाद्यनुरोधेन घटादिवृत्तिवेजात्यं न तत्समबायिकारणतारच्छेदकतया कल्पनीयम् । एतेन बटादिगुणाधन्यथानुपपत्त्या घटादेः समवायिकारणत्यसम्पादनाय अन्त्यावयविगतकत्वे एकत्वत्व विशेषजाति: कल्पनीया । तथा च जन्यद्रव्यं प्रति तत्तदन्त्यावयवित्वेनाऽनन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावकल्पनागौरवम् । घटादी वा वजात्यकल्पनेऽधिकजातिकल्पनागौरवम् । तदकल्पने न जन्यभावत्वावच्छिन्नस्य ससमवाधिकारणकत्वनियमभङ्ग इति कल्पनाशस्त्रत्रयी त्र्यम्बकनेत्रत्रितयीव बीकत इत्यपि पराकृतम्, तत्र जन्यद्रव्यत्वविरहेण ससमवायिकारणकत्वाइवश्यम्भावाभावात् । यद्वा तत्र = जन्यभावमात्रे, द्रव्यत्वेनैव तधात्वं = समवायिकारणत्वमित्यर्थः । जन्यद्रव्यमात्रवृनिवजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वसमवाविसमवायेन एकत्वत्वविदोषेणाऽन्त्यावयव्येकत्वासमवेतेन समचाविकारणता, जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजा त्यावच्छिन्नं प्रति द्रव्यत्वेन समवायिकारणतेत्यगीकारोऽस्तु । एतेन अन्त्यावयविनिगुणादेराकस्मिकत्वप्रसङ्गोऽपि प्रत्युक्तः, अन्त्याययविनि जन्यभावसमवायिकारणतावच्छेदकी भूतद्रव्यत्वस्य सत्त्वादिति न तदनुरोधेन = अन्त्यावयविगुणाद्यन्यथानुपपत्त्या, द्रव्यनिष्ठजातिविशेषकल्पनमित्येवं व्याख्यान्तरं द्रष्टव्यम् । इत्थश्च तमोऽवयवेषु यदेकत्वं वर्तते तत्र द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषस्य वर्तमानत्वेन न तमो न्योत्पादानवकाश इति स्वतन्त्रमतानुसारेणापि तमसो द्रन्यत्वं निराबाधमिति प्रकरणकाराशयः ।
वस्तुनस्तु अन्त्यावयञ्येकत्वासगवेतस्यैकत्यसमवेतस्य जातिविशेषस्य स्वाश्रयसमवायेन द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वं च युक्तम्, गगनादरपि द्रव्यारम्भकत्वप्रसङ्गात्, गगनसमवेतैकत्वे द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषस्य समवेतत्वात् । न च तस्य विभुद्रन्यकन्या समवेतत्वाइन्युसनमान दोष वाच्यम्, तथापि भनसो द्रव्यारम्भकल्यप्रसङ्गात् । न च निरवयवद्रव्यैकल्वे तस्या नभ्युपगमात्र दोष इति वक्तव्यम्, 'पार्थिवादिपरमाणूनां द्रव्यारनारम्भकत्वासङ्गात् । एतेनानन्त्यावयबिगतकत्वमात्रबृत्तित्वमपि तस्य प्रत्युक्तम् । न च मनोऽन्यनिरचयबद्रव्यान्त्यावयविगतकत्वा समवेतत्वे सत्येकत्वसमवेता यो जातिविशेष: तस्यैव द्रव्यारम्भकतावदकत्वमिति वक्तव्यम, तथापि जन्यगणादिकं प्रति जन्मभावं प्रति वा पृथकारणकलपनाया आवश्यकत्वेन नानाकार्यकारणभावगौरवस्याऽव्याहतत्यात्, तादृशजातिविशेषकल्पनं पुनरधिकर्मवेत्यादिसूचनार्धं 'विभाज्यमि'त्युक्तमिति तु ध्येयम् ।
साम्प्रतमुयोगित्वात श्रीनयोदयविजयविरचितः अन्धकारभाववादः प्रददर्यंत । तथाहि -
निपम का भंग ही एकत्यत्यजातिविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में बाधक है तथापि नादृश नियम में कोई प्रमाण न होने से वह नियम ही हमें अमान्य है। इसलिए उक्त नियम का भंग अंत्यावयविगत एकत्व में अवृति एकत्वत्वविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में बाधक नहीं हो सकता । यदि उक्त नियम को मान्य करना हो तो भी जन्यभावमात्र के स्थान में जन्यद्रव्यमात्र को ही ससमवायिकारणक मानना चाहिए । मतलब कि 'जो जो जन्य द्रव्य है, यह वह समवाधिकारणयुक्त ही होता है' इत्याकारक नियम को प्रसिद्ध-प्रामाणिक मानना चाहिए । घटादि में रहने वाले जन्य गुण क्रिया तो द्रव्य से भिन्न है । अतः उसे समवायिकारणसहित मानने की कोई आवश्यकता भी नहीं रहती है और उक्त नियम के भंग का भी कोई प्रसंग नहीं है । अथवा जन्यभावमात्र के प्रति द्रव्यत्वरूप से समवायिकारणता का स्वीकार करने पर भी घटादि में उत्पन्न होने वाले गुणादि की उत्पत्ति का निर्वाह हो सकता है, क्योंकि घटादि में द्रव्यत्व रहता ही है । जन्यभावमात्र के प्रति द्रव्यत्वरूप से समवायिकारणता का स्वीकार करने का दूसरा लाभ यह है कि अन्त्य अवयवी द्रव्य में गुण, क्रिया की कारणतावच्छेदक जातिचिशेप की कल्पना भी अनावश्यक रहती है। घटादि में उत्पन्न होने वाले गुण, क्रिया के प्रति द्रव्यगन जाति की तत्कारणतावडेदकविधया कल्पना का गौरव भी स्वतन्त्र मत में अप्रसक्त है। इसलिए एकत्वसमवेत जातिविशेष को ही द्रव्यारम्भकतावदक मानना युक्त है, न कि द्रव्यसमवेत जातिविशेष को । ऐसा स्वतन्त्रमतानुसार विचार करने पर अन्धकार द्रव्य की उत्पत्ति का निर्वाह हो सकता है, क्योंकि अन्धकार के अवयव में स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से एवं तादृशावयवसंयोग में स्वाश्रयसामानाधिकरण्यसम्बन्ध से न्यारम्भकतावदक एकन्यत्त्वजातिविशेष विद्यमान है। अतः स्वतन्त्रमतानुसार अन्धकार | को द्रन्य माना जा सकता है ऐसा विभावन - विमर्श करना चाहिए । निष्कर्ष - अन्धकार च्यात्मक है ।
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* अन्धकारवादसंवादः
--- -* गयलता है। जल्पन्त्यनल्पसंकल्पाः केचित् कर्कशतार्तिकाः । ध्वान्तमत्यन्ताऽसदंशं तेजसामिति निश्चितम् ।।१।। तन्न तथ्यं ततस्तस्य तथात्वेऽध्यक्षतः सदा । सर्वत्र ग्रहणं नृणां स्यात् त्रैकालिकताऽस्य चत् ।।२।। यथाऽऽलोकस्य सत्त्वेनान्धकारोऽध्यनतो ध्रुवम् । गृह्यते न ततस्तस्मिन् स्यात् त्रैकालिकता मता ॥३॥ तदप्यचारुवचनं यत् तैर्यत्नादुदीरितम् । यतो यो यदभावः स्यात् स तस्मिन् सति नेक्ष्यते ।।४।। तद् यथैकयटे नाव्यन्यकम्भानामभावता । प्रत्यक्षा तैजसकेन स्यात् तथाऽन्यत्विषामसी ||५|| अतस्तरणितेजों शैरन्यो (द्) द्योतासदंशता । प्रत्यक्षतस्तमोरूपा नृभिर्नो गृह्यते कथम् ॥६॥ अधैकसूर्यालोकोऽपि विपक्षोऽन्यत्वेिषां ततः । तमोऽत्पन्ताभावरूपं न स्यालोचनगोचरम् ।।७।।
एवं च ब्रुवतां तेषां कश्चिदेवं बदत्यपि । प्रत्यक्षस्तेजसा नासाबन्धकारो गुणाश्रयः ||८|| कथं चैवं नैक: कुम्भोऽन्यकुम्भाभाववैर्यभूत् । तथा च स्याद् घटाभावो लक्ष्यस्तेषां न चक्षुषा ॥९|| ___ अपि चैकार्कालोकांशैराक्रान्ते जगतीतले । तेभ्यो भिन्नस्वभावानामभावस्तेजसां भवेत् ||१०|| सोजस्ति प्रतीतः सर्वेषां प्रत्यक्षाचारचाक्षुषात् । परं सकः समस्तीति तद् वक्त्तव्यं संयुक्तिभिः ॥११॥ __ अत्र नु प्रागभावादेः प्रवेशस्य विमर्शनम् । श्वपाकस्पर्शवत् त्याजयं तद् यन्नाङ्गीकृतानुगम् ॥१२॥ अस्तु वा तत् तथापि स्यात् तस्मात् तेषां हि हितम् । यस्मादत्रैतदनेहो ग्रहणान्यत्यपदोपमम् ॥१३॥
अथाभ्युपगतः पूर्वं सोऽसौ चेदत्र सूत्रितः । अनारतं तमस्तर्हि विशदं स्याद् दिनेङ्गिनाम् ।।१४।। न चाभावेन सर्वांसां भासां स्यात् तमसो ग्रहः । इति बान्यं यतः कृष्णरात्री तारकतेजसि ॥१५|| अन्धकारो दृशा ग्राह्यो पथार्थः पुरुषादिकः । अन्यवासोऽपि भाभायं भवेद् दृगविषयी विशाम् ।।१६।।
तथा च तैरभ्युपेता भावस्याभावरूपता । ततोऽभूदिच्छतां तेषामायं मूलव्ययोदय: ॥१७॥ प्रकाशेन प्रभातायां विभायाँ यथेक्षणात् । ध्वान्तं तनुभृतां ग्राह्यं तथा घस्त्रेऽस्तु तद्ग्रहः ॥१८॥
दिवसे च क्वचित्तेजोमिश्रितं गृह्यते ततः । प्रत्यक्षेण प्रतीतं तत् तथाभूतं सतामपि ।।१९।।
तस्मात् सर्वत्र यत्र स्याद् द्युतीनामसदंशता । तन्मते तिमिराकारा तत्र तासां कथं न सा ॥२०॥ अपि च कचिदु(द्) द्योतान्यन्ताभावो विभा विना । कृष्णस्तस्यां च दृग्ग्राह्यो कृष्णोऽप्यस्तीति कौतुकम् ॥२१||
अधात्युत्कट (१व) - के न तमोऽभावरूपभृत । भवेद् विशा दृशा ग्राह्यमित्यत्रोत्तरमुत्तमम् ।।२२।। इति चेत् तर्हि नो तस्मिँस्तादृशे रूपवत्तमः । दृग्ग्राह्यमित्यपि व्यक्तुं - वक्त्तुः का वाक्यवक्रता ।।२३।।
भाभाववत्तमोभावः प्रत्यक्षेण प्रवर्ततं । परं चतुर्श्वभावेषु तैः स्थितिः क्यास्य कल्पिता ||२४|| प्रत्यक्ष भ्रान्तमेवेदमिति चेत् तर्हि तैः परैः । अर्चिषां प्रतिषेधेऽपि तत् तथा कथितं न किम् ।।२५||
किञ्च रूपावारकाद्य अहीना इह हेतरः । तदा हिताहिता एते पूर्वाचार्यः प्ररूपिताः ॥२६॥ ज्ञेयास्ते तत्कृतग्रन्धाधुक्त्याडम्बरबन्धुराः । वक्र (कत्र) - बक्तृ - वचोवृक्षव्यूहप्रध्वंससिन्धुराः ॥२७।। अधालोकं विना नृणां नेत्रेण ग्रहणात् तमः | अभावरूपं विख्यातं ततस्ते हेतबो हताः ॥२८॥ प्रागभावदयो भावा भणिता नात्र शोभनाः । भूछायेष्वभ्युपेता तदत्यन्ताभावता भवेत् ||२९|| उपायोऽयमपि प्रौढः पण्डितपर्षदि । युक्त्तयुक्त्तिचियुक्त्तत्वात् प्रतीप: स्यात् तदीप्सिते ||३०||
__ यतस्तैजसरूपत्वादालोकापेक्षयेक्षणात् । ग्राह्यतास्त्वन्धकाराणामनपादादिदर्शने ||३१|| तथा चासिद्धविद्धत्वात् तदुक्तो हेतुरातुरः । अतः पूर्वगुरूपनाः स्युर्हेतवस्तेऽनुपद्रवाः ॥३२॥ हेतावन्यालोकाकूते कथिते विद्युदादिभिः । व्यभिचारो दु:स्वभावो भ्राजते भीषणो भृशम् ।।३३||
साध्यासाध्य-सधकल्वे स्यादसी सदृशः सदा | अतः प्रकरणसमदोषदुष्टस्तु तन्मते ||३४|| अयं हेतुरित्यकान्तः सकल: शकलीकृतः । कथं करोति संक्रान्तं तत् स्वान्तेषु समीहितम् ||३५||
आत्रालोकाभावरूपो दृष्टान्तोऽपि चयः श्रुतः । स तु तेषामपि मते पाण्डित्यापोहपोषकः ॥३६।। अथास्तु हेतुर्व्यतिरेक्यसी नः पटश्च दृष्टान्ततया पटिष्ठः । तथाऽप्यनैकान्तिकताङ्गनाऽस्य संसर्गरङ्गानिवृत्तिमेति ॥३७॥
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३९७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.
वादिदेवमूखिचनातिदेवाः
= = जयतता *
द्रव्यं विभाइन्यन्नयनप्रतीतं निरीक्षणीयं किरणेन नृणाम् ।
अस्तीति चेत् तर्हि तमो शुणिश्वप्येवं विकल्पः क्रियते कथं न ।।३८|| अथ द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणम् । भासंयोगो न च प्रोक्त्ताद् वैरूप्यं धाम्नि बाधते ॥३९॥ संयोगोऽभ्युदितो विभा-गगनयोः सोऽपि प्रभायां स्थितस्तस्यालोचनगोचरत्वचने स्यात् साधनं भूस्पृशाम् । इत्यं यत् कपटात् पटुप्रकटन तेषां तु तत्प्रोज्झितघ्रागल्भ्यप्रतिपादकं किमपरं प्रोक्तं भवेद् भासुरम् ॥४॥
किमसाबंशुसंयोगश्च(अ) क्षुपा गृह्यते न वा । प्रधा:पेशल: पक्षोप्रतीत्यैब पराहतः ||४|| पुर:स्थो न पुष्टोऽसौ यादृशा नेक्ष्यते विभा । तथा च स्यात तया नार्थसार्थग्रहणसंकथा ॥४२||
अथागृहीत: संयोगः कलशाम्बकयोर्यथा । प्रकाशकः करीरस्य तधावापि निरूप्यते ।।४३|| जैनानां वचनं नेदं मान्यं यत्रेत्र-कुम्भयोः । संयोगो नाङ्गीकृतो नास्ति तैरध्यक्षविरोधतः ||४||
कश्चित् कुयुक्त्या कथितोडम्बकस्य सङ्गः स्वकान्ते; कलीन साकम् ।
तथापि ते दर्शितदोषदीप्तिं कदाप्यपाकर्तुमकोविदाः स्युः ॥४५॥ अपि चालोक-घटयोः संयोगो नादतो दशा । कलदास्य व्यञ्जक: स्याद् वैपरीत्यमिति स्थितम् ॥४६।। रोचिषां चापि नैतेषां भाषया चक्षुषा ग्रहः । तथा च सर्वदा सन्तु ते तमोबाधिताम्बकाः ॥४७॥ अत आलोकसंयोगो प्लेविषय न य: । कुमादिनाक्षावे.गौ हेतुः स्यादिति निश्चितम् ॥४८॥
दुग्ग्राहातायां न हि हेतुरिच्छेत् संयोग आलोकगदो ग्रुतेश्चेत् ।
सोऽस्यास्तदा नेत्यपि कोशपानप्रत्यायनीयं पठनं परेषाम् ।।४।। प्रपश्चोऽपचयेनापि त्विषोऽत्यन्तासदंदाताम् । ध्वान्ते वक्तुं न शक्त्ताः स्युः स्वबुद्भिबलिनोऽपि च ॥५०|| अस्तु वा तैजसाऽत्यन्ताभावता तमसः परम् । नास्याग्निरूपात् तैरुक्त्तान्नेवादनुभवो भवेत् ॥५१|| अन्यथा तस्य स भवेत् प्रदीपपटलादपि । उभयात्राबिशेषेण यतैरु(द) द्योतता श्रिता ।।५२|| ____ अथाम्बकमनुद्भूतरूपसंसर्गसुन्दरम् । अतस्तैजसाकारमन्धकारप्रकाशकम् ॥५३|| दीपपेटकमुद्भूतरूपभूषणभासुरम् । भूच्छायाऽभिव्यञ्जकं तत्र स्यात् तन्नोक्तदोषता ||४|| इति चेत् तर्हि संतप्ततैल-तोयहताशनात । अयस्त ध्वान्तप्रतिभावानां प्रतिभासता ॥५५|| तस्वीकृतौ तु तेहिं नियूँढा प्रहमूदता । तथा च तेन रक्षन्ति दक्षशिक्षा स्वचेतसि ॥५६॥
यथाऽनुद्भूतरूपाढचे नेत्राग्नावस्ति योग्यता । तप्ततैलादिवह्रौ न सा भूछायादिभासने ॥५७॥ तदप्यसज्जतोऽतेजोलक्षणा श्रूणमीक्षणम् । गृह्णाति योग्यतासङ्गं कधं न तिमिरादिकम् ॥५८|| अत एव देवसूरिप्रमुखैः पूर्वसूरिभिः । विपश्चिद्भिः परैश्वास्मिन् बहिरूपमपाकृतम् ।।६।।
तमपकाशकान्यथान्नुपपत्त्यादिहेतुभिः । अपि तैरेव नयने निषिद्धानिलरूपता ॥६॥ अध रूपादिषु पञ्चसु मध्ये रूपस्य संवकारस्य । व्यञ्जकद्रव्यादम्बक (२३) भग्निद्रव्यं सतां सिद्धम् ॥६२|| तदकान्तं हेतुरसी ततः स्यसाध्यस्य साधको नयाः । अतमोन्यञ्जकरूपोपाधि-व्याधिव्यथान्यग्र: ।।६३।।
वीरैस्तु पूर्वगुरुभिर्विम्बितो बुद्धिबाणतो बहुधा । हेतुरयं तदुपायो विज्ञयस्तत्कृतग्रन्धैः ॥६४|| तथाप्युपायं ग्रन्थस्थं कश्चित् शृण्वन्तु पण्डिताः । गन्धस्यापि व्यञ्जकोऽस्ति दीपो दृष्टान्ततोदितः ॥६५॥ हेतुस्ततोऽसौ संजात: समक्षेभ्यः पराङ्मुखः । तेजसत्वं कुतो नेत्रे विधातुं धावति ध्रुवम् ॥६६॥
अध प्रदीपोडगुवदिर्गन्धसिद्भिनिबन्धनम् । इति चेत् तर्हि लालाऽपि रसोन्तदे पटुर्भवेत् ॥६७|| तथा च स्याद् रूपादिषु पञ्चस्वित्यादिसाधनात् । रसानायां पयोरूपं कथं वाच्यं विपश्चिताम् ॥६८||
चक्षुर्न तैजसं तेजोव्यञ्जकेन सुहेतुना । विद्यते नात्र दीपेन व्यभिचारपराभवः ||६९|| बेदमरत्नं निजाकारमेकं व्यञ्जयति स्फुटम् । तेजसां व्यञ्जकेनेति तत्त्वं हेतौ तु चिन्तितम् ।।७०।।
तथापि दीपे स्वर्णानां बहूनां व्यञ्जकत्वतः । स एव दर्शितो दोष इत्याकूतकथा वृथा ||७१|| सिद्धं स्वर्णं यतोऽतेजो हेतुभिवतादिभिः । उपपन्या तथा रूपं तच्चोक्तं तर्ककौतुकैः ।।७२।।
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* तमसो द्रव्यवस्थापनम् *
=-=* जयलाता है इति प्रपश्वतस्तेषां हेतोः कुशलता कधम् । तदेते हस्तविन्यस्ततुण्डास्तिष्ठन्तु चिन्तया ॥७३।।
अथ स्वर्णमरिद्रव्यायोगेऽत्यन्ताग्निसंगमे । नोच्छिद्यमानद्रवताश्रयेण स्यादपार्थिवम् ।।७४।। पारिशेषात् त संसिद्धं सुवर्णं तैजसं सताम् । ततस्तेजोव्यञ्जकत्वेहेतुर्वैरी निवारितः ||५|| तयुक्तं यतो हाहा हेतुनाऽनेन हाटकम् । तन्मतेऽप्यनिग्नरूप न पानीयपरमाणुवत् ||६||
त्यक्त्वाऽत्र हेतस्त विशेषणानि नाच्योऽन्यथा स्यात तदपिटनाऽस्य । तथा च हेम्नो न हि बन्धुराङ्गो धनञ्जयाभाव उदीरितोऽसौ ।।७७||
न ताम्ररूप्यत्र सुमुख्यधाती विचक्षणानां व्यभिचारचिन्ता ।
अस्मिन् यतोऽनेन सुहेतुतैवाहुताशनत्वं भवति प्रतीतम् ।।७८|| यतथ पारिशेष्यादित्यादि गदितं सुन्दरं न तत् । काप्यग्नाचनुभूता न कैरपि द्रवता यतः ||७९।। अध रूपोपलम्भेन तस्मिन् साखीकृतेति चेत् । तर्हि तेन तब रसो गुणो नाङ्गीकृतः कथम् ॥८॥
प्रोक्त्तप्रकारतो हेतुस्तेजोव्यञ्जकलक्षणः । बाधबन्धनसंबन्धबन्ध्यः स्यात् साध्यसाधकः ।।८१|| वैरोचनं काञ्चनं चेत तर्हि तस्य कथं भवेत् । नागकं भूषणं चापि न ह्येतत् तेन तेजसम् ॥८२|| वर्तन्ते युक्त्तयो बढ्योऽम्बकेऽग्नित्वक्षतौ परम् । एतावानेव विस्तारः सूरिणाऽनरिणा कृतः ॥८॥ ते (अ) ध्वान्तं दीधितेवंसं चेदूचुस्तर्हि ते चुधैः । कयाचिदनया रीत्याऽवगन्तव्या तिरस्कृताः ||८|| प्रागभावादिरूपं ते तेजसस्त महत्यपि । वक्तुं व्यक्त्ता न युक्त्या स्युस्तन्नैतन्मतमुत्तमम् ||८५||
स्थित्युत्पत्ति-विपत्तिरूपपटुतापुष्टं तमः पुद्गलद्रव्यं रूपनिबन्धनादपि बुधैः संस्थापितं पर्षदि । नासिद्धादिकदूषणे प्रवणता स्यादस्य तस्मिन्निदं संसिद्धं सुतरां यतो मतिमतां सञ्चाक्षुषाऽध्यक्षतः ॥८६॥
अधान्धकारो बिबिधीविदिग्धैर्युक्त्योक्त्त आरोपितनीलरूपः ।
तस्मादसिद्धेन विरुद्धमेतत्र साधनं साधयति च साध्यम् ।।८७|| अत्रेयं प्रतिक्रिया -
अभावे येन केनापि रूपारोपो न चक्षुषा । गृहीतस्तेन निर्बाधं निबन्धनमिदं बभी ||८८|| अथो यथा दर्पणादौ विद्यते बदनभ्रमः | भूछायेऽपि भवेत् पुंसां तथा रूपगुणस्य सः ॥८॥ रूपभ्रान्तिरन्धकारे तैरुक्त्ताऽस्मानिदर्शनात् । परं न सा भासुरेति भासते प्रतिभाभृताम् ॥९॥ रम्यः क्रियापरिमाणरूपप्रभतिहेतभिः । प्रतिबिम्ब यतो जैन व्यत्वेन विनिश्चितम् ।।९.१||
स्पर्शः सतां तु स्फुरति प्रतीतो रूपादपि ध्वान्तगुणिन्ययोबत् ।। तथापि तस्मिन्नतिवक्रवाक्यैः स्पर्शाऽसदंश कृदुशो दिशान्ति ||९२|| स्पोऽत्र शीतः कथमन्यथा स्युः पान्धाः प्रतप्तास्तपनस्य तापात् ।
वक्तार एवं रजनीतिमिस्खे जातानि गात्राण्यथ शीतलानि ।।२३।। अथान्धकारपटलोपेतेऽपवरकादिके । गेहरत्ने समानीते तम:स्तोमोऽस्ति तत्र न ॥९॥ पूर्वविद् गृह्यते तत्र कथं शैत्यं त्वचा यतः । सत्ता नैमित्तिकस्यापि न निमित्तासदंशतः ॥१५॥ कार्य-कारणवैशिष्ट्यमुद्दिश्यैतत् प्रकाशितम् । अन्यथा दण्डनाशेऽपि कुम्भस्य स्यादभावता ॥९६।। तदुक्तं त्यक्त्तकृण्णाकारास्तामसपुद्गलाः । तत्र सन्तीति तत्संस्थं शैत्यं संप्राप्यते त्वचा ॥१७॥ यथा क्वचिदभेदस्य भासैर्वा तैस्सहाम्भसः । शैत्यं ग्राह्यं तथाऽत्रापि प्रध्वरा तत्प्ररूपणा ॥९८॥ तथोग्राग्न्यादिसंसर्गा?त्यं संतमसे स्थितम् । न हि स्यादङ्गिनां ग्राह्यं यथा तत्तोयसंगतम् ।।९९|| द्रव्ये स्वरूपवैचित्र्यं चिन्त्यमानं विपश्चिताम् । निमित्तानां विचित्रत्वाद् स्याद् त्यमोहनिवृत्तये ॥१०॥
प्रमाणतोऽपि स्फुटरूपताया आपादनादप्रतिषेधसौधे ।। ध्यातोऽन्धकारो विबुधैरधा(३८)न्ध्यैः सदा स्थितस्रासितसाध्वसान्ध्यैः ॥१०१॥
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३५९ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ . का.५
* तमसः पृथिवीत्वापत्तिनिरास: *
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__ इत्थर तमसो भावत्वेऽनुमानमप्याहुः तमो भावरूपं धनतरनिकरलहरीप्रमुखशब्दयंप|| दिश्यमानत्वात् आलोकवदि'त्यादि ।
ननु तमसो नीलरूपवत्वे पृथिवीत्वमेव स्थानातिरेक इति ? त, रूपपरावृत्ति=-=-=- = - = -* जयलता *
स्थिराजजेनेत्यमथोपदिष्टादस्मात् प्रकारात् परपक्षबाधः । __ बादं बभूवैव ततः परेषां कथं कृतार्थः स्वमनोरथः स्यात् ? ||१०|| पेशलपटूपपत्त्या पुण्याय परे पराकृता इत्यम् । अविगानगुणस्मरणैर्यः श्वचारुतरचरणैः ॥१.३|| तार्किकसभासुरेन्द्राः जयन्तु ते विजयदेवमुनिचन्द्राः । बुधऋद्धिविजयगुरव: श्रीतपगणासाधुसुरतरवः ।।१०४|| श्रीमण्डपाचलेऽस्मिन् मुदा जिहांगीरसाहिना दत्तम् । महातपेति विशदं बिभ्राणं बन्धुरं बिरुदम् ।।१५।।
नन्दान्तरिक्ष-ऋषि-रात्रिपतिप्रमाणे (१७०५) । वर्षे सितरेभ्यतनयेन नयोदयेन । युक्त्तेः पधः कुमतकूटविनाशकोऽयं यो दर्शितो भवतु ध्रुववत् स्थिरः सः ॥१०६||
इत्यन्धकारभाववादः || प्रत्यक्षेणैव तमसो द्रव्यत्वसिद्धावपि प्रत्यक्षेणाऽऽकलितमप्यर्थमनुमानेन बुभुत्सन्ते तर्करसिका' इतिवचनेन प्रमाणसम्प्ल- | ववादिमनोरञ्जनार्धं प्राचां जैनाचार्याणां श्रीरत्नप्रभसूरिप्रभृतीनामनुमानप्रयोगं प्रकरणकार आदर्शयति - इत्यञ्च तमसो भावत्वेऽनुमानमप्याहरिति । स्पष्टमुस्तानुमानम् । आदिपदेन 'तमो भावरूपं घटाद्यावारकत्वात् काण्डपटवत्, नाभावरूपं तमः प्रागभावाद्यस्वभावत्वात्, व्योमवदिति, भावरूपं तमः उत्पत्तिमत्त्वे सत्यनित्यत्वात् घटवदि' (स्या. रत्ना. ५१८) त्यादिनि स्याद्वादरत्नाकारोक्तानि तत्वार्थावृत्त्याधुक्तानि चानुमानानि ग्राहयाणि ।
शकते - नन्विति । चेदित्यनेनान्वयः । तमसो नीलरूपरत्त्वे = निरुपाधिकनीलरूपाश्रयत्वे, पृथिवीत्वमेव स्यात्, एवकारफलं कण्ठत आह - नातिरेकः इति । तधाहि न तावन्नीलरूपस्य तमसः तोयादिभावसम्भवः; तोयतेजसो: सितत्वात् पवनादीनावारूपत्वात् । ततश्च पारिशेषन्यायेन तमसः पृथिवीत्वमेव स्यात्, न तु पृथिवीतरद्रव्यत्वमिति शङ्काशयः ।
ननु नीलरूपवत्त्वेन तमसः पृधिनीत्वे कदाचित् तत्र घटादाविव रूपपरावृत्तिरपि स्यात्, अन्यता सुवर्णस्यापि पीतरूपवत्वेन पृधिवीत्वं प्रसज्येत । न च स्वर्णस्य पृथिवीत्वे गन्धवत्त्वप्रसङ्गो बाधक इति वाच्यम्, तमस्यपि तस्य जागरुकत्वादिति | सुवर्णवत् तमस्यपि रूपपरावृत्तिप्रयोजकस्य पृथिवीत्वस्याऽभाव एवोपगन्तव्य इत्याशयेन प्रकरणकार: तन्निराकरोति - नेति ।
प्राचीन जैनाचार्य का तमोभावत्वसाधक ॐ इत्थं. इति । रत्नप्रभरि आदि प्राचीन जैनाचार्यों ने अन्धकार में भावत्व की सिद्धि करने के लिए अनुमानप्रयोग भी रत्नाकरायतारिका आदि ग्रन्थों में बताये हैं । वह इस तरह - अन्धकार भावात्मक है, क्योंकि घनतर, निकर, लहर आदि शब्द से वह व्यवहार्य है, जैसे आलोक । आलोक नैयायिकादि मत में भावात्मक ही है तथा जैसे 'यहाँ अत्यन्त आलोक है, यह आलोक का निकर-समूह है, प्रकाश की लहर' इत्यादि व्यवहार होता है, ठीक वैसे ही 'यहाँ अत्यन्त धना अँधेरा है, तगो निकरं, तमो लहरी' इत्यादि व्यवहार भी होता है। अत: आलोक की भाँति अन्धकार भी भावात्मक ही है। समान व्यवहार होने पर भी एक को भावात्मक मानना और दूसरे को अभावात्मक मानना इसमें कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। अत: दानों में भावत्व का अंगीकार करना चाहिए । भावात्व यहाँ द्रव्यत्वरूप में अभीष्ट है । अतः उक्त अनुमान प्रमाण से अन्धकारात्मक पक्ष में द्रव्यत्वस्वरूप साध्य की सिद्धि हो सकती है।
___ अन्धकार पृथ्वी नहीं है ननु तम. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है -> "अन्धकार में नील रूप का स्वीकार करने पर अन्धकार पृथ्वीस्वरूप ही होगा, क्योंकि पृथ्वी को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नील रूप नहीं रहता है" <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि | अन्धकार को पृथ्वी मानने पर पाक से उससें रूप की परावृत्ति होनी चाहिए । मगर अन्धकार के नील रूप की परावृत्ति नहीं होती है। अत: रूपपरावृत्तिप्रयोजक पृथ्वीत्व का तम में स्वीकार नहीं किया जा सकता । यह ठीक उसी तरह उपपन हो सकता है जैसे तैजस चूल्य में पृथ्वीत्व का अभाव । स्फुटिक, मणि आदि द्रव्य के रूप में पाक से भी रूप का परावर्तन
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* लघुस्याद्वादरहस्य-न्यायकणिकासंवादः
प्रयोजक पृथिवीत्वाभावस्य तेजसीव तमस्यपि तवाऽपि दुरपह्नवत्वात् ।
नन्वेवं नीलवायिकारणतावच्छेदकपृथिवीत्वाभाववति तमसि नीलमाकस्मिकं स्यादिति चेत् ? न, उभयसाधारणजातिविशेषस्यैव नीलसमवायिकारणतावच्छेदकत्वात्, विजातीयानुष्णाशीतस्पर्शस्येव विजातीयनीलस्यैव पृथिवीत्वं जनकतावच्छेदकमित्यप्याहुः ।
* जयलता
तवापि नैयायिकस्यापि । लघुस्याद्रादरहस्ये चात्र 'दाहपयोजक पृथिवीत्वाभावस्य जले इव तमस्यपि तानपलपनीयत्वात् (ल.स्या.रह. पू. १८) इत्येवं पाठः प्रकरणकारेण लिखितः ।
ननु सुवर्णवत्तमसि पृथिवीत्वाऽभाबोपगमे स्वर्णरूपवत् तमोरूपप्योपाधिकं स्यात् । एतेन कालिन्दीसलिलस्येव तमसः कालिमा न परोपधानात्, अनुपहितस्य कदाचिदपि स्वाभाविकरूपान्तशालिनः तमसोऽनुपलब्धेः, क्षेत्रसमुद्धृतस्येव कालिन्दीवारिणः स्वाभाविकस्वच्छ धवलस्येति प्रत्युक्तम्, स्वर्णपीतरूपस्याऽपि तद्वदेव निरुपाधिकत्वापत्तेः, तमस्यपि शुक्लेतररूपस्याकस्मिकत्वापत्तेश्वेत्याशयेन कश्चिच्छङ्कते नन्विति । नीलमाकस्मिकं स्यादिति, नीलत्वावच्छिन्नं प्रति पृथिवीत्वेन हेतुत्वातच्छून्ये तमसि नीलरूपोत्पादात्तदाकस्मिकत्वं प्रसज्येति शङ्काशयः ।
=
४००
तमपाकुर्वन्ति नैति । उभयसाधारणजातिविशेषस्यैवेति । पृथिवीतमः साधारणवैजात्यस्येति । एवकारेण पृथिवीमात्रवृत्तिजातिव्यवच्छेदः कृतः । नीलसमवायिकारणतावच्छेदकत्वादिति । समवायसम्बन्धावच्छिन्न-नीलत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकधर्मत्वादिति । ततश्च तमोनीलरूपोत्पत्तेः स्वसमवायिकारणतावच्छेदकावच्छिन्नसमवधानकालीनत्वान्नाऽऽकस्मिकत्वप्रसङ्गः, तमस्यपि तत्समवायिकारणतावच्छेदकजातेरङ्गीकारात् । 'तर्हि पृथिवीत्वं कस्य कारणतावच्छेदकं स्यात् ? इत्याशङ्कायां व्याचक्षते विजातीयानुष्णाशीतस्पर्शस्येवेति । वायुष्यावृत्तानुष्णाशीतस्पर्शस्येव, विजातीयनीलस्यैव = तमोव्यावृत्तनीलरूपस्य एवकारेणोभयसाधारणनीलरूपव्यवच्छेदः कृतः, पृथिवीत्वं जनकतावच्छेदकं = समबायिकारणतावच्छेदकम् । नीलविशेषे एवं पृथिवीत्तमसोः समवायिकारणत्वं अनुष्णाशीतस्पर्शविशेष इव वायुपृथिव्योः, अन्यथाऽनुष्णाशीतस्पर्शत्वावच्छिन्नं प्रति पृथिवीत्वेन समवायिकारणत्वादनुष्णाशीतस्पर्शवतो बायोः पृथिवीत्वापत्तेः । आहुरिति । वाचस्पतिमिश्रादय इति शेषः । तदुक्तं न्यायकणिकायां नापि पार्थिवं तमः, तद्गुणानां गन्धादीनामभावात् । ननु तथैव गन्धादिव्याप्तं कृष्णमपि रूपं तनिवृत्तावसदित्युक्तम्' । 'तत्किं पवनेऽनुष्णाशीतस्पर्शोऽसभेव ? गन्धादिव्याप्तस्य तस्य पृथिव्यामुपलब्धेः पवने च तेषामभावात्' । 'पाकजस्य स्पर्शस्य गन्धादिव्याप्तत्वम्, अयन्त्वपाकजः स्पर्शो वायवीय' इति चेत् ? न, इहापि साम्यात् । न हि तमसोऽपि कालिमा पाकजः । प्रत्यक्षच्चोभयत्राऽपि समानम् । तमः परमाणवश्च पार्थिवादिपरमाणव इव यणुकादिक्रमेण महान्तं तमोऽवयविनं पार्थिवमारभन्ते । तच्च रूपविशेषे सत्यनेकद्रव्यत्वान्महत्त्वाद्रा चाक्षुषमिति न तदुत्पत्त्यनवक्लुतिः । न च तस्य दिवाऽऽरम्भसम्भवः शाश्वितकविरोधे सति तेजसि । न जातु स्पर्शवगवन्मुद्गरादिधाते परिपंथिनि कुम्भारम्भाय भवन्ति मुदवयवाः विभ्रति वा कुम्भमारब्धमिति । अत एव हि दिवाऽपि निरस्ततमसि गिरिगुहायामारभन्त एब' (न्या. क.पू. ५५ ) इत्यादि ।
-
नहीं होने से नैयायिक विज्ञान उसमें पृथ्वीत्व जाति का अभ्युपगम नहीं करते हैं उसी तरह अन्धकार में भी रूप का परावर्तन नहीं होने से पृथ्वीत्व के अभाव का नैयायिक महाशय अपलाप नहीं कर सकते ।
नन्वेवं इति । यहाँ यह शंका हो कि
'अन्धकार में नील रूप का इकरार और पृथ्वीव जाति का इन्कार करने पर वहाँ नील रूप की उत्पत्ति आकस्मिक हो जायेगी, क्योंकि नीलरूपत्वावच्छिन के प्रति पृथ्वीत्व जाति समवायिकारणतावच्छेदक है और अन्धकार में पृथ्वीत्व न होने पर नील रूप की उत्पत्ति का आप स्वीकार करते हैं । स्वसमवायिकारणतावच्छेदक धर्म से शून्य समवेत कार्य का उत्पन्न होना ही उसकी आकस्मिकता है । बैसा मानने पर तो पृथ्वीत्वशून्य अन्धकार की भाँति जलादि द्रव्य में भी नील रूप की उत्पत्ति होन लगेगी - तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि नील रूप का समवायिकारणतावच्छेदक पृथ्वीत्व नहीं है, किन्तु अन्धकार और पृथ्वी उभय में रहनेवाली जातिविशेष ही है । वह जातिविशेष तो अन्धकार में भी रहती है, इसलिए वहाँ नील रूप की उत्पत्ति हो तो भी कोई दोष नहीं है । स्वसमवायिकारणतावच्छेदकावच्छिन में ही नील रूप की उत्पत्ति होने से अन्धकारनीलरूप में आकस्मिकता का अवकाश नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि
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४०१ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का. * स्वणे पृथिवीत्वाङ्गीकार*
अवयवनीलादिनैवाऽवयोवनीलोपपत्तो पर्थिवीत्वन न तत्समवायिकारणत्वम्, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयवनीलादिमति रूपादौ नीलानुत्पत्तिस्तु जन्यसन्मात्रसमवायिकारणतावच्छेदकीभूतद्रव्यत्वाभावादेवेति तवैकदेशिनाऽपि स्वीकाराच्च ।
= = = =* जयलता *. - यचोक्तं 'स्वर्णपीतरूपस्यापि तद्वदेव निरुपाधिकत्वापत्तेरि ति तत्तथैव, स्वर्णस्य स्वनये पृथिवीत्वस्येचाऽङ्गीकारात् । न चैवमत्यन्तानलसंयोगेन तद्वपपरावत्तिप्रसङ्गो दर्निवार इति वाच्यम, वज्रवत स्वर्णादरपि रूपाऽपरावृत्तावपि पथितवीत्वस्य प्रतिक्षेपाऽयोगात् । तस्य तैजसत्वं तु कदाचिद् भास्वरशुक्लरूपरोपलम्भप्ररागात् । न च तस्य पृथिवीत्वे गन्धवत्त्वप्रसङ्गो बाधकः, अनुत्कटत्वेनापि तदुपपनेरिति दिक् ।
युक्त्यन्तरेण तमसः पृधिवीत्वमपाकरोति - अवयवनीलादिनैवेति । एवकारेण पृथिवीत्व विशिष्टावयवनीलादिव्यवच्छेदः कृतः । अवयविनीलोत्पत्ती = अबयविनीलाद्यपपत्तिसम्भावनायां, पृथिवीत्वेन रूपेण न तत्समवायिकारणत्वं = अवयविनीलादिसमवायिकारणत्वम् । समवायेनाऽवयविनि नीलादिरूपं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वरसम्बन्धेनाऽवयवनीलादे: कारणत्वेनाचयविनीलोत्पादनिर्वाह तादात्म्येन पृथिवीत्वेन पृथिव्याः समाविकारणत्वा कल्पनात ।।
ननु अवयवनीलरूपं यथा स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयविनि वर्तते तथा स्वस्मिन्नपि वर्तते स्वस्य = अवयवनीलरूपस्य समवायिनि = अवयवेवयविन इव स्वस्याऽपि समवेतत्वा विशेषात् । ततश्चात्ययविनीवाऽवयवनीलरूपेऽपि नीलरूपोत्पत्तिः प्रसज्येत । तदपाकरणाय समवायेन नीलरूपं प्रति तादात्म्येन पृधिन्याः सभवायिकारणत्वस्याऽऽवश्यकत्वादित्याशङ्कापराकरणायाऽह-स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेने । स्वपदेनाऽवयवनीलादिग्रहणम् । अवयवनीलादिमति रूपादौ = अबयवनीलादौ, नीलानुत्पत्तिः = नीलादिरूपाद्यनुत्पादः तु जन्यसन्मात्रसमचायिकारणतावच्छेदकीभूतद्रव्यत्वाभावादेवेति । समवायसम्बन्धावच्छिन्न-जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्यावच्छित्रकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावछिन्नसमवायिकारणतावच्छेदकधर्मस्य दव्यत्वस्य चिरहादेव, उपपद्य इति शेषः । अवयवनीलरूपस्य स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन स्वस्मिन् सत्त्वेऽपि समवाविकारणतावच्छेदकताच्छेदकीभूतसमबायसम्बन्धेन जन्यसन्मात्रवृत्तिबजात्यावच्छिन्ननिरूपितसमवायिकारणतावच्छेदकस्य द्रव्यत्वस्य विरहादेव तत्र नीलरूपं नोपजायते, समवायेन जन्यभावमात्र प्रति तादात्म्येन द्रव्यस्य सभवायिकारणत्वात् । एलेनाऽ. वयवनीलादिनवाऽवयविनीलाधुतात्तिकल्पने जन्यभावमात्रस्य ससमवापिकारणत्वनियमो व्याहन्ये तेत्यपि परास्तम् । तवैकदेशिना = नैयायिकैकदेशीयेन, अपि स्वीकाराचेति । ततश्चाऽन्धकाराययवनीलरूपादेवावयवितमोनीलरूपोत्वादसम्भवे तमसि पृथिवीत्व
3E
जन्य पृथ्वी और वायु दोनों में अनुप्ण अशीत स्पर्श उत्पन्न होता है फिर भी अनुप्ण अशीत स्पर्श का समवाषिकारणतावच्छेदक न तो पृथ्वीत्व है न तो वायुत्व है, किन्तु विजातीय (=पाकज) अनुष्ण अशीत स्पर्श का ही समवायिकारणतावच्छेदक पृथ्वीत्व है। ठीक वैसे ही विजातीय नील रूप का ही पृथ्वीव समवायिकारणतावदक है और विजातीय नील रूप का समस्त्व समवायिकारणतावच्छेदक है। अतः अन्धकार में तमस्त्वावशिवकारणतानिरूपित कार्यता वाले विजातीय नील रूप की उत्पत्ति होने में कोई दोप नहीं है - ऐसा भी अनेक विद्वानों का कथन है।
(वसाप से नीलाकारणता अनावश्यक - जैयायिकएकदेशीय अवयधनी. इति । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी विचारणीय है कि अवयवी में नीलरूप की उत्पत्ति अवयव के ; नील रूप से ही मुमकिन है, तो फिर पृथ्वीत्वेन रूपेण नीलसमवायिकारणता की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है? कपाल में नील रूप है वही स्वसमचायिसमवेतत्व सम्बन्ध से अवयवी घट में नील रूप को उत्पन्न करेगा । स्व = कपालनीलरूप, उसका समवायी = कपाल, उसमें समवेत है घट । अतः स्वसभवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से कपालनीलरूप घट में रहेगा और वहाँ समवाय सम्बन्ध से नील रूप उत्पन्न होगा। इस तरह कार्य-कारणभाव मुमकिन होने से पृथ्वीत्व को नीलरूपसमवायिकारणतावच्छेदक मानने की कोई जरूरत नहीं है। हाँ यह शंका हो सकती है कि → 'कपालादि अवयव का नील रूप जैसे स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से घट में रहता है, ठीक वैसे ही अपने में भी उसी सम्बन्ध से रह सकता है, क्योंकि स्व = पालादि का नील रूप, उसका समवायी कपालादि, उसमें घट की भाँति कपालादिनीलरूप भी समवेत है । अत: घट की भाँति कपालादिनीलरूप में भी रूप की उत्पत्ति होने लगेगी। इसके निराकरणार्थ पृथ्वीत्व को नील रूप का समवायिकारण१. जन्यसत्तायाः सामानाधिकरण्यन जन्यत्वविशिष्टसत्तारूपत्वात, विशिष्टस्य च जातित्वाऽसम्भवादित्धमुक्नम् ।
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* स्वभावविशेषस्य नीलनियामकत्वम् * एवञ्च 'नासालोक: किन्त्वन्धकार' इति व्यवहारोऽपि समर्थितः । न ह्ययं 'नात्र घट: किन्तु तदभाव' इतिवत् समयितुं शक्यते 'नाबालेक: किन्त्वन्धकारतदभावावि'ति व्यवहारान्तरस्यापि दर्शनात् ।
* जयला कल्पनाया अनावश्यकत्वात्, तमः परमाणुनीलरूपस्य नित्यत्वादेव न तत्र कारणगवेषणम् । ततश्च तमोद्रव्यस्य नीलरूपवत्त्वेऽपि नैयायिकैकदेशिमतानसारेणापि न पधिवीवप्रसङग इति निष्कर्षः ।
___ अथ नीलजनकविजातीयतेजःसंयोगस्य जलादावपि सम्भवात् तत्र नीलानुत्पत्तये नीलत्वादच्छिन्नं प्रति पृथिबीत्वेन समवापिकारणत्वमावश्यकमिति चेत् ? न, तथापि उपस्थितविजातीयनीलत्वावच्छिन्नं प्रत्येव तद्धेतत्वौचित्यात् । न च विजातीयनीलत्वात्रच्छिन्नं प्रति प्रथिव्याः समवायिकारणत्वावश्यकवे नीलत्वावच्छिन्नं प्रत्येव तद्धेतुत्वमस्त्विति वक्तव्यम, व्याएकधर्मस्य व्याप्यधर्मेणाऽन्यथासिद्धेः, इतरथाऽनुत्पाद्येऽपि तत्कार्यकल्पनाप्रसङ्गात् । मम तु स्वभावविशेषस्यैव नीलनियामक त्वादिति दिक् ।
___ एवञ्चेति । तमस आलोकाभावभिन्नत्वे चति । 'नात्रालोकः किन्त्वन्धकार' इति व्यवहारः = शब्दप्रयोगः अपिशब्देन तादृशोध: सगृहीतः, समर्थितः स्यात, अन्यथा पुनरुक्तिप्रसङ्गेन तादृशप्रयोगानुपपत्तेः 'नालोक' इत्यनेनैवोक्तस्यान्धकारस्य पुनः 'अन्धकार' पदेन प्रतिपादनात् । न च 'नात्र घटः किन्तु तदभाव' इति व्यवहारवत् 'नात्रालोकः किन्तु तम' इतिव्यवहारस्य विवरणपरतयोपपत्तिः सम्भवतीति वक्तव्यम् , तादृशविवरणपरतां विनाऽपि स्वारसिकतादृशप्रयोगदर्शनात् । अत्रैब दोषान्तरमाविष्करोति - न हीति । अग्रे 'समर्थयितुं शक्यत' इत्यनेनाऽस्याऽन्वयः । अयं = 'नात्रा लोकः किन्त्वन्धकार' इति व्यवहारः, 'नात्र घटः किन्तु तदभावः' इतिवत् = इतिप्रयोगवत, विवरणपरतया समर्थयितुं शक्यते । हेतुमाह - 'नात्राऽऽलोकः किन्त्वन्धकारतदभावावि ति व्यवहारान्तरस्यापि दर्शनात् । अन्धकारस्याऽऽलोकाभावत्वे 'अन्धकारतदभावी' 'आलोकाभावान्धकारौं' इति इन्द्रसमासो न स्यात्, भिन्नपदार्थवाचकयोरेवेतरेतरद्वन्द्वसम्भवात्, आलोकाभावान्धकारतावच्छेदक मानना जरुरी है' <- तो यह भी नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि जन्य भावमात्र के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से उच्य समवायिकारण है । कपालादि अवयव के नील रूप के जन्यभाव का समवायिकारणतावच्छेदक द्रव्यत्व नहीं होने से उसमें समवाय सम्बन्ध से नीलरूप की उत्पत्ति का अनकाश नहीं है। यह तो नैयायिक एकदेशी विद्वानों को भी मान्य है। अतः इसी रीति से भी अन्यकार को पृथ्वी मानने की आवश्यकता नहीं है । अन्धकार के अवयव के नील रूप से ही अवयवी अन्धकार में नील रूप की उत्पनि हो सकती है, क्योंकि अवयवी तम में स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्ध से अन्धकारावयवनील रूप रहता है और अवयवी अन्धकार में जन्यभावमात्र का समवापिकारणतारच्छेदक द्रव्यत्व भी रहता है। अतः नील रूप होने से ही अन्धकार अवयविद्रव्य को पृथ्वी मानने की आवश्यकता नहीं है। यह फलित होता है।
___* व्यवहारविशषष से अन्त में आलोकाभावविभतत्व की सिन्द्रि
गनुश्च. इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर 'यहाँ आलोक नहीं है, किन्तु अन्धकार है' यह व्यवहार भी अनुपपन्न हो जायेगा । 'आलोक नहीं है। इससे ही आलोकाभावात्मक अन्धकार की सिद्धि होने से पुनः आगे 'किन्तु अन्धकार है' यह कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तब पुन:क्ति दोप प्रसक्त होता है । उक्त व्यवहार से ही आलोकाभाव से भिन्न अन्धकार की सिद्धि होती है। यहां यह कहा जाय कि -> "जैसे लोक ' में यह व्यवहार होता है कि 'यहाँ घट नहीं है, किन्तु घट का अभाव है' यहाँ पूर्वोत्तर अंश में पुनरुक्ति दोष नहीं है, क्योंकि 'घट का अभाव है' यह अंश 'घद नही है' इस पूर्व भाग का विवरणपरक है। ठीक वैसे ही 'यहाँ आलोक नहीं है, किन्तु अन्धकार है' इस व्यवहार में भी उत्तर भाग से पूर्व भाग का विवरण अभिप्रेत है । अतः पुनरुक्ति दोष का अवकाश नहीं है" <- तो यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि विवरणपरक मान कर उक्त व्यवहार का समर्थन करने पर भी 'यहाँ आलोक नहीं है, किन्तु अन्धकार और आलोकाभाव है' इस व्यवहार की उपपनि नहीं हो सकती है । रमका कारण यह है कि 'अन्धकारतदभावी' = 'अन्धकारालोकाभावी' इत्याकारक द्वन्द्ध समास भिन्न पदार्थ के वाचक अनेक पट में ही हो सकता है। जो पदार्थ अभिन्न होते हैं, उनके वाचक पद में कभी भी इतरेतर द्वन्द्व समास नहीं होता है . किन्तु एकशेष समास होता है अतः अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर 'नात्रालोकः किन्तु आलोकाभावान्धकारौ'
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४०३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * व्यवहारबलेनान्धकारम्प नालोकाभावरूपता **
यत्तु अन्धकारस्थालोकाभावत्वे 'अन्धकारे नालोक' इति प्रयोगो न स्यादिति केनचिदुक्तं वतु मोधम्, 'घटाभावे घटो नास्तीतितत् तदपपत्तेः । एवं सति 'अन्धकारेऽन्धकार' इति प्रयोगपत्तिस्तु स्यादेव । न ह्यन्धकारत्वमालोकाभावत्वादिदानीमतिरिक्तमायुष्मन्त: सगिरन्ते ।
=- =*गायलता. *--...=योरनतिरिक्तत्वे 'आलाकाभावान्धकारी' इत्यम द्विवचनानुपपत्तेः, अपकृष्टालोकसत्त्वेऽपि च तमोव्यवहारात् । न चात एव 'उस्कृष्टालोकाभावोऽन्धकार इति वाच्यम्, तदुत्कर्षप्रतियोग्यपकर्षशालितयैव तमसि द्रव्यत्वसिद्भेक्तत्वात् । ___यत्त्विति । अस्य 'तत्तु मोबमि' त्यनेनाऽन्वयः । अन्धकारस्य = अन्धकारपदप्रतिपाद्यस्य, आलोकाभावत्वे = महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाभावत्वाभ्युपगमे, 'अन्धकारे नाऽऽलोक' इति प्रयोगः न स्यात्, आधाराधेयभावस्य भेदत्र्याप्यत्वात्, भेदज्यावृत्ती तव्याप्यस्याइसम्भवात्. अन्यधा 'विन्ध्याचले विन्ध्याचल' इत्यस्यापि प्रसङ्गात् । ततश्चोपदर्शितप्रसिद्धाधारधेयभावान्यधानुपपत्त्या तमसः तादृशालोकाभावभिन्नत्वमभ्युपेयम् । प्रयोगस्त्येवम् आलोकाभावान्धकारी भिन्नी परस्पराधाराधेयभावप्रतीतिविषयत्वात् घटभूतलवदित्याशयः ।
नयायिक प्रत्युक्तवचनं न बाधकमित्याशयेन प्रकरणकृदाह - तत्तु मोघमिति । 'घटाभावे घटा नास्ती' तिवत्, तदु. पपत्तेः = 'अन्धकारे नालोक' इतिप्रयोगनिवाहात । अभादाधिकरणकाभावस्य लाघवादधिकरणा घटो नास्तीतिप्रयोगः ताददाबोधश्चाभ्युपगम्यते तद्वदेवान्धकारस्थाऽऽलोकाभावत्वेऽभावाधिकरणकाभावस्य चाधिकरणस्वरूपत्वेऽपि 'अन्धकारे नालोक' इतिव्यवहारः आधाराधेयभावावगाहितादृशबोधश्चापपत्स्येते इति नैयायिकेन वक्तुं युज्यत इति नायं पर्यनुयोगाई इति भावः ।
तर्हि कीदृशी आपत्तिरालोकाभावन्धकारवादिमते संभवेदित्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह - एवं सत्ति = अभावाधिकरणकाभावस्याऽभावात्मकल्वेऽपि तत्राऽऽधाराधेयभावाभ्युपगमे सति, 'अन्धकारेऽन्धकारः' इतिप्रयोगापत्तिः तु स्यादेव । कथं ? इत्याशङ्कायामाह - न हीति । 'अन्धकारे नालोक' इत्यत्रोत्तरभागेन प्रतिपाद्यादालीकाभावादन्धकारस्याऽभिन्नत्वात् परमते 'नालोक' इत्यत्र स्थाने अन्धकारपदनिवेशेऽर्थ भेदाभावात् 'अन्धकारेऽन्धकार' इतिपदप्रयोगप्रसको दुवारः इति भावः ।
....... इस व्यवहार की विवरणपरतया उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः उक्त प्रसिद्ध व्यवहार के बल से अन्धकार को आलोकाभाव से भित्र मानना आवश्यक है, यह फालित होता है ।
पत्तु. इति । आलोकाभावात्मक अन्धकार का स्वीकार करने वाले नैयायिक आदि मनीषियों के खिलाफ अन्धकार को द्रव्यात्मक मानने वाले कतिपय विद्वानों का यह आक्षेप है कि -> "अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर 'अन्धकार में आलोक नहीं है। यह प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि अन्धकारपदका अर्थ आलोकाभाव ही होने से वहाँ आलोकाभाव i: = अन्धकार का आदेयविधया भान नहीं हो सकता । अभिन्न पदार्थ में आधार-आधेयभाव की प्रतीति नहीं होती है। अतः 'अन्धकारे नालोकः' इस व्यवहार से अन्धकार और आलोकाभाव में भेद की सिद्धि होती है' <- किन्तु यह आक्षेप निष्फल है, क्योंकि 'घटाभावे न घटः' इस व्यवहार की भाँति उक्त शाब्द व्यवहार का उपपादन हो सकता है । आशय यह है कि घटाभाव में रहने वाला बटाभाव लाघव सहकार से घटाभावस्वरूप ही है, उससे भिन्न नहीं है। फिर भी 'घटाभाव में घर है या नहीं ?' इस प्रश्र के उत्तररूप में 'घटाभाव में घट नहीं है। ऐसा कहा जाता है। आधार और आधेय में अभेद होने पर भी यहाँ आदार-आदेयभाव का व्यवहार एवं ज्ञान होता है ठीक वैसे ही अन्धकार और आलोकाभाव में अभेद होने पर भी 'अन्धकारे न आलोकः' इत्याकारक व्यवहार एवं प्रतीति का समर्थन नैयायिक आदि विद्वानों की ओर से किया जा सकता है । अतः अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने में उक्त आक्षेप नामुनासिब है। हाँ, नैयायिक आदि के प्रति यह आपत्ति दी जा सकती है कि -> 'आलोकाभावस्वरूप अन्धकार मानने पर 'अन्धकार में अन्धकार है' यह प्रयोग दुर्वार होगा, क्योंकि 'घटाभाचे घटाभावः' यह प्रयागे नैयायिकामतानुसार आधार-आधेय में अभेद होने पर भी होता है वैसे 'अन्धकारे अन्धकार:' यह प्रयोग भी होना चाहिए, क्योंकि अन्धकार तो उसके मतानुसार आलोकाभावस्वरूप अनिष्ट आपत्ति का उद्भावन करना चाहिए । यही परवादी के अप्रामाणिक तत्व का खण्डन करने की प्रसिद्ध-प्रामाणिक पद्धति है -
ueld में 'अन्धकारे sukuli' प्रतीति अमत्व का प्रसंग ।
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तकंबलेनान्धकारस्य भावरूपतासमर्थनम *
४०४
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अधैतादृशसमभिव्याहारस्य शाब्दबोधाजनकत्वानेयमापतिः, जायमानप्रतीते: प्रमात्वं त्वभिमतमेवेति चेत् ? तथापि 'अन्धकारे नान्धकार' इति प्रतीतेर्भमत्वं स्यात् ।
=== जयलता * परः शकते - अथेति । 'चेदि'त्यनेनास्यान्वयः । एतादृशसमभिन्याहारस्य = सप्तम्यन्तान्धकारपदाव्यवहितोत्तरलविशिष्टप्रथमान्तान्धकारपदत्वलक्षणस्य प्रथमान्तान्धकारपदाव्यवहितपूर्वत्वविशिष्टसप्तम्पन्तान्धकारपदत्वस्वरूपस्य समभिव्याहारस्य, शाब्दबोधाऽजनकत्वात् - अव्युत्पन्नत्वात्, न इयमापत्तिः = 'अन्धकारेऽन्धकार' इति ब्यबहारपत्तिः । न ह्यव्यत्पन्न प्रयुञ्जन्ते प्रामाणिका: । तथापि केनचित्तथाप्रयोगे कृते किं तादृशाराधारधेयभावप्रतातिर्नवोपजायते यदुत तादृशप्रतीतेर्जायमानत्वेऽप्यप्रमात्वमिति विमलदलसमयिकल्पयुगली समुन्मिलति । आझे बाधः, तथाविधालानिलिकलाना बालानां ततो जायमानाया: प्रतीतेरानुभविकत्वात् । नापि द्वितीयः, तदभाववति तत्प्रकारकत्वानवगाहित्वात्, अन्यथा 'अन्धकारे नालोक' इतिप्रयोगान्जायमानप्रतीतेरप्यप्रमात्वनसङ्गादित्याशङ्कायां पर आह - जायमानप्रतीतेः = 'अन्धक गादालानां जायमानायाः प्रतीतेः, प्रमात्वं = तदति तत्प्रकारकत्वं, तु अभिमतमेवेति ।
प्रकरणकारोऽभ्युपगम्य दोषान्तरमाह - तथापीति । उपदर्शितसमभिव्याहारस्याव्युत्पन्नत्वेऽपि, 'अन्धकारे नान्धकार' प्रतीतेः प्रमत्वं स्यादिति । 'अन्धकारे नान्धकारः' इति शब्दप्रयोगस्योपदर्शितसमभिन्याहारशून्यत्वेन व्युत्पन्नत्वं, नम दोपसन्दानात् । ततश्च ‘अन्धकारवृत्तिः अन्धकाराभाव' इतिप्रतीतिर्भवितुमर्हति । यद्यपि संयोगेन जलमिव घटो घटबृत्तिः सम्भवति परमन्धकारे संयोगेनाऽन्धकारो न वर्तते । अत एवं प्रयुञ्जन्ते लौकिका अपि 'अन्धकारे नान्धकारः' । परन्तु नैयायिकमते अन्धकारमुद्दिश्याइन्धकाराभावविधानस्य न प्रमात्वं सम्भवति, अन्धकारस्याऽऽलोकाभावरूपत्वेन तदभावस्यालोकात्मकत्वात्, अभावे च संयोगेन द्रन्यस्याइसम्भवात् । ततश्रालोकाभावलक्षणेऽन्धकारे आलोकात्मकस्यान्धकाराभावस्यावगाहित्वेनोपदर्शितप्रतीतेर्नैयायिक्रमतानुसारेण तदभावबद्रिशेष्यकतत्तकारकत्वादप्रमात्वप्रसङ्गस्य दुरित्वम् । न चेष्टापत्तिरिति वाच्यम्, स्वारसिकसार्वलौकिकप्रतीतेभ्रमत्वकल्पनाऽयोगात्, अन्यथा शून्यवादि विजयेततराम् । ..
किञ्च, आलोकप्रतियोगिकाभावमात्रं न तमोव्यवहारविषयः, एकालोकवत्यप्यालोकान्तराभावात् । न वालोकसामान्याभावः तथा, असम्भवात् । न च महदुद्भूतानाभिभूतरूपवदालोकसामान्याभावस्य तधात्वम्, आलोकवत्यपि सम्बन्धान्तरेण तदभावात् । न च संयोगसम्बन्धावच्छिन्नतदभावः तथा, आलोकेऽपि तत्सत्त्वात् । न चालोकान्यवृत्तित्वविशिष्टतदभावस्य तत्त्वं, अन्धकारेऽन्धकारापत्तेः । न चालोकान्यद्रव्यवृत्तित्वविशिष्टः स तथेति वक्तव्यम्, त्वदात्मन्ययि तत्प्रसङ्गात् । एतेन
अर्थता. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह बचाव किया जाय कि > "अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर भी 'अन्धकारे अन्धकारः' इत्याकारक वाक्यप्रयोग की आपत्ति हमारे मत में अप्रसक्त है, क्योकि सप्तमी विभक्ति वाले अन्धकार पद की अन्यचहितांतर में प्रथमान्त विभिक्त वाला अन्धकारपदल या प्रथमान्त विभक्ति वाले अन्धकारपद की अव्यवहित पूर्व में सप्तमी विभक्ति वाला अन्धकारपदत्व स्वरूप समभिव्यवहार शान्द चोध का जनक नहीं है। शान्दबोधाजनक समभिन्यवहार से घटित वाक्य का विद्वान लोग प्रयोग नहीं करते हैं। इसलिए 'अन्धकारे अन्धकारः' इत्याकारक वाक्यप्रयोग का आपादन करना असंगत है। हाँ, कोई अज्ञ पुरुष 'अन्धकारे अन्धकारः' इस वाक्य का अनजान में प्रयोग कर बैठे तर उस वाक्य से होने वाला जो शान्द बोध है, वह तो प्रमात्मक ही है, क्योंकि आलोकाभावरूप अन्धकार में आलोक का अभाव रहता है ही, जो प्रथमान्त अन्धकारपद का यहाँ प्रतिपाद्य है । अन्धकार में विद्यमान आलोकाभाच का अवगाहन करने से उक्त प्रतीति को भ्रम तो कैसे माना जाय ? इसलिए आलोकाभावस्वरूप अन्धकार के स्वीकार में कोई दोष नहीं है" <- तो यह नैयायिककथन भी अयुक्त है, क्योंकि उपदर्शित समभिव्यवहार से घटित वाक्य तो शाब्दबोध का जनक होगा ही, क्योंकि यहाँ सप्तमी विभक्ति वाले अन्धकारपद की अव्यवहित उत्तर में प्रथमान्त अन्धकारपद नहीं है, किन्तु 'न' अव्ययपद है । अत: उपदर्शिन शान्दवोधाऽजनक समभिव्याहार से अपटित होने के सबब 'अन्धकारे नान्धकारः' इस वाक्य को शाब्दबोध का जनक मानना होगा । लोक भी उपर्युक्त वाक्य का बिना किसी हिचकिचाहट के प्रयोग करते हैं। अतएव वह वाक्य प्रमाण भी है । अतः उससे होने वाली शाब्दी प्रतीति भी प्रमात्मक ही है । मगर नैयायिकमतानुसार उस वाक्य से होने वाली प्रतीति भ्रमात्मक हो जायेगी। इसका कारण यह है कि नैयायिकमतानुसार अन्धकार आलोकाभावात्मक है और अभाव में कभी भी संयोग सम्बन्ध से द्रव्य नहीं रहता है। संयोग सम्बन्ध से द्रव्य का अधिकरण द्रव्य ही होता है। उक्त बाक्य के उत्तरार्ध 'नान्धकार:' का अर्थ है आलोकाभाव का अभाव । अभावप्रतियोगिक अभाव प्रथमाभाव के प्रतियागिस्वरूप होने
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४०५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * तमस्त्वस्य जातिलसमर्थनम् *
__ 'अभावचाक्षुषमात्रं प्रति आलोकाधिकरणसन्निकर्षस्य हेतुत्वादालोकं विना वीक्ष्यमाणस्य | तमसो नाऽभावत्वमिति वचनीयं तु न वचनीयम्, आलोकसत्वे प्रतियागिसत्वविराधिन्या
आलोकाभावग्राहकानुपलब्धैरवाभावात, आलोकाधिकरणसन्निकर्षस्य प्रत्युत तदाहपरिपन्धित्वात् ।
== ==* गयलता. * = 'संयोगाद्यन्यतमसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक तादृशालीकाभाव एक एव, अन्धकारत्वञ्च भाववृत्तित्वविशिष्टालोकाभावत्वम्, तेन न 'अन्धकारेऽन्धकार' इति प्रयोगापत्तिः, न वा 'अन्धकारे नान्धकार' इतिप्रतीतर्भमत्वम्' इत्यपि प्रत्युक्तम् । न च कदाचिदालोकसंसर्गववृतित्वविशिष्टः स तधेति वक्तव्यम्, यत्र कदाप्यालोकसंयोगो नास्ति तत्रापि घोरनरकादादे तच्छ्रवणात्, अवतमसे यावदालोकाभावविरहाच । किञ्चैतादृशघटकाप्रतिसन्धानेऽपि तमस्त्वप्रतिसन्धानात घटत्वयत् जातिरूपमेवैतद् न्याय्यमिति तात्पर्यम् ।
____ अभावचाक्षुषमात्रं - अभावविषयकचाक्षुषप्रत्यक्षल्यावच्छिन्नं प्रति आलोकाधिकरणसन्निकर्पस्य = आलोकेन सहाभावाधिकरणसंसर्गास्य, हेतुत्वात्, आलोक बिना वीक्ष्यमाणस्य तमसो नाभावत्वमिति । अन्धकारस्यालोकाभावत्वे आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नान्धकाराधिकरणचक्षुःसन्त्रिकर्षमृते तच्चाक्षुषं न स्यात् । न चैवमस्तीति तमसो नालोकाभावात्मकत्वं सम्भवतीति वचनीयं = गर्हणीयं तु न वचनीयं = वक्तव्यम् । अब हेतुमाह - आलोकसत्त्वे = अन्धकारप्रतियोगिसत्त्वे, प्रतियोगिसत्त्वविरोधिन्या = प्रतियोगिनः सत्त्वं विरोधि यस्याः सा तस्याः, कस्याः ? इत्याह - आलोकाभावग्राहकानुपलब्धेः = आलोकाभारस्वरूपाऽन्धकारविषयकग्रहजनिकाया योग्यानुपलब्धः, एव अभावात् = विरहात् । प्रतियोगिसत्त्वप्रसञ्जनप्रसञ्जितप्रतियोगित्वरूपाया योग्यानुपलब्धेः अभावग्राहकत्वात्, प्रतियोगिसत्त्वे तस्या एव विरहान नालोकसत्त्वेऽन्धकारस्याऽऽलोकाभावात्मकस्य चाक्षुषं सम्भवति, विषयस्यापि स्वगोचरचाक्षुषे हेतुत्वात्, सामान्यसामग्रीसमरहिताया एव विशेषसामग्र्याः कार्यजनकत्वनियमात् । यदुक्तं 'अभावचाक्षुषमात्र प्रत्यालोकाधिकरणसन्निकर्षस्य हेतुत्वादिति तत्राह - आलोकाधिकरणसन्निकर्पस्येति । प्रकृते आलोकाभावाधिकरणेन सहालोकसत्रिकर्षस्य, प्रत्युत्त तद्ग्रहपरिपन्थित्वात् = आलोकासे आलोकाभावाभाव आलोकात्मक फलित होता है। अतः 'अन्यकारे नान्धकारः' इस वाक्य से होने वाली प्रतीति का आकार नैयायिक के मतानुसार 'लोकाभाववृत्तिः आलोकः' ऐसा होगा । अभाव में संयोगसम्बन्ध से वस्तुतः द्रव्यमात्र नहीं रहता है । अतः आलोकशून्य आलोकाभाव में आलोक का अवगाहन करने से उक्त प्रतीति भ्रमात्मक हो जायेगी । मगर शिष्ट लोक में तादृश प्रतीति का प्रमात्वेन व्यवहार होता है। अतः नैयायिक के माथे पर उपर्युक्त प्रतीति के प्रमत्व का कलंक | कथमपि दूर नहीं हो सकेगा ।
* आलोकसता आलोकाभावज्ञान की विरोधी है * अभावचा. इति । नैयायिक के खिलाफ कतिपय अन्य विद्वानों का यह पर्युनुयोग है कि - "अभावविषयक सभी चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति आलोक और अभााधिकरण का सन्निकर्ष हेतु है । भूतल में घटाभाव का चाक्षुष प्रत्यक्ष तभी हो सकता है, यदि घटाभावाधिकरणीभूत भूतल के साथ आलोक का सम्बन्ध (संयोग) हो । घने अंधेरे में भूतल में घटाभाव का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है। अतः अन्धकार भी यदि अभायात्मक है, तब तो अन्धकार का चाक्षुष प्रत्यक्ष भी आलोकाभावात्मक अन्धकार के अधिकरणीभूत भूतल के साथ आलोक का संसर्ग नहीं होने पर नहीं हो सकता । बिना कारण के कार्योत्पाद कैसे मुमकिन हो सकता है ? मगर वस्तुस्थिति यह है कि अन्धकार का जब जब चाक्षुप साक्षात्कार होता है, तब तर अन्धकार के अधिकरण में आलोक का सम्बन्ध नहीं होता है। आलोक के बिना ही अन्धकार का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने से अन्धकार को अभावात्मक कैसे माना जा सकता है ?" <- मगर यह प्रश्न नामुनासिब है । इसका कारण यह कि अभाव के ज्ञान की जनक योग्यानुपलब्धि है। योग्यानलब्धि का अर्थ यह है कि 'यदि यहाँ प्रतियोगी होता, तो जरूर उपलब्ध = ज्ञात होता' ऐसा आरोप जिस प्रतियोगी में मुमकिन हो । जैसे घटाभावचाक्षुप के प्रति योग्यानुपलब्धि कारण है, क्योंकि भूतलादि में आलोकादि होने पर 'यदि यहाँ घट होता, तो अवश्य उपलब्ध होता' ऐसा आरोप किया जा सकता है । पिशाच आदि अतीन्द्रिय पदार्थ के अभाव का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है, क्योंकि 'यदि पिशाच यहाँ होता तो जरुर उपलब्ध होता' ऐसा आरोप नामुमकिन है । मगर जब घटादि प्रतियोगि विद्यमान होता है, तब योग्यानुपलब्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि तब घटादि का ही चाक्षुप हो जाने से 'यदि यहाँ घटादि होता तो जरूर उपलब्ध होना' ऐसा आरोप नहीं किया जा सकता।
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* आलोकं बिना वीक्ष्यमाणस्य तमसो द्रव्यत्वम् *
ननु तमसो द्रव्यत्वे प्रौढालोकमध्ये सर्वतो धनतरावरणे सति तमो न स्यात्, तेजोऽवयवेन तत्र तमोऽवयवानां प्रामनवस्थानात्, सर्वतस्तेजः सङ्कुले चाऽन्यतोऽप्यागमनासम्भवा
* गयलता
भावात्मकान्धकारचाक्षुषविरोधित्वात् । अतो नाभावचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्यालोकाधिकरणसन्निकर्षस्य हेतुत्वं किन्तु आलोकाभावेतराभावचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रतीति फलितार्थ: । ततश्वालोकं विना वीक्ष्यमाणस्य तमस आलोकाभावत्वे न किञ्चित् क्षुण्णमिति नैयायिकेन वक्तुं शक्यत एवेति न नैयायिकं प्रत्युपदर्शिताक्षेपः कर्तुं युज्यत इति प्रकरणकृदाशयः ।
वर्धमानोपाध्यायमतं निराकर्तुमुपदर्शयति नन्विति । तमसो द्रव्यत्वे = जन्यद्रव्यत्वे अभ्युपगम्यमाने, प्रोढालोकमध्ये प्रकृष्टशलोकसंयुक्तदेशमध्ये, सर्वतो धनतरावरणे निविsपिधाने सति तमो न स्यात् कुतः ? इत्याह - तेजोऽवयवेन समं तत्र प्रकृष्टालोकसंयुक्तदेशमध्यभागे तमोऽवयवानां प्रागनबस्थानात्, तेजोऽवयवानां तमोऽवयवानाञ्च परस्पर परिहारविरोधान्महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकदेशे सर्वतः तादृशतेजोऽवयवानां सत्त्वेन तत्रान्धकारावयवानामसम्भवात् तत्र घटादेः पराङ्मुखकरणदशायां घटाद्यन्तः तमोऽवयव्यारम्भो नैव भवितुमर्हति । न हि सामग्रीमृते कार्योत्पत्तिः सम्भवति । 'माऽस्तु प्रकृष्टालोकसंयुक्तदेशे प्रागन्धकारावयवानामवस्थानं परं घटादेः पराङ्मुखकरणदशायामन्यतः तमोऽवयवानामागमनं भविष्यति । तैरेव तदानीमन्धकारावयव्यारम्भो भवतु किं नश्छिन्नं ? इत्याशङ्कायामाह - सर्वतस्तेजः सङ्कुले सर्वतो महदुद्भूतानभिभूतरूपवत्तेजोव्याप्ते च देशमध्ये अन्यतः = अन्यदेशात् अपि आगमनासम्भवात् । सर्वतो जलसङकीर्णे देशेऽन्यतः तेजोऽवयवानामित्र सर्वतः प्रकृष्टालाक सम्भित्र देशऽन्यस्मादन्धकारावयवानामागमनमसम्भवीति न तदानीं तमोऽवयव्यारम्भोऽपि सम्भवी । अतः तमसो द्रव्यत्वं न कल्पनामर्हतीति वर्धमानस्य तात्पर्यम् ।
=
४०६
=
प्रस्तुत में आलोकाभाव की ग्राहक (= ज्ञानजनक) योग्यानुपलब्धि भूतलादि में तब हो सकती है यदि भूतलादि में आलोक की अनुपस्थिति है । वहाँ आलोक की सत्ता होने पर तो आलोकाभाव की ग्राहक योग्यानुपलब्धि ही नामुनकिन हो जायेगी, क्योंकि आलोकात्मक प्रतियोगी की सत्ता होने पर उसीका चाक्षुष हो जाने से 'यदि यहाँ आलोक होता तो जरूर उपलब्ध होता' ऐसा आरोप ही नहीं हो सकता है। आलोक की उपस्थिति आलोकाभावग्राहक योग्यानुपलब्धि की विराधी प्रतिबन्धक है । अत: आलोक का भूतलादि के साथ सम्बन्ध होने पर तो आलोकाभाव का चाक्षुष ही नहीं हो सकता, क्योंकि वह आलोकाभावविषयक ज्ञान का विरोधी है। अतः 'आलोक के बिना ही अन्धकार का चाक्षुष होने से उसे आलोकाभावात्मक कैसे माना जा सकता है ?' यह कथन निर्युक्तिक है । अतः उपर्युक्त पर्यनुयोग आलोकाभावात्मकान्धकारवादी नैयायिक के मत में बाधक हो सकता है ?" यह यहाँ महोपाध्यायजी का तात्पर्य फलित होता है । अन्धकार आलोकाभावात्मक नहीं है, इस वस्तुस्थिति को अन्य प्रमाण - तर्क आदि से सिद्ध की जा सकती है यह एक अलग बात है ।
ॐ वर्धमान उपाध्याय का मंतव्य
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ननु तम इति । नव्य न्याय की नीव डालने वाले गंगेश उपाध्याय के सुपुत्र वर्धमान उपाध्याय अन्धकार को जन्यद्रव्यात्मक मानने वाले वादी के खिलाफयह युक्ति बताते हैं कि "यदि अन्धकार जन्य द्रव्य होता - तब तो मध्याह काल में प्रौढ आलोक वाले देश में पट, शराब आदि निविद द्रव्य को पराङ्मुख करने के पर उसके भीतर अन्धकार उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृष्ट आलोक के अवयव के साथ अन्धकार के अवयव एक देश में नहीं रह सकता हैं। प्रकृष्ट आलोक जैसे अन्धकार का विरोधी है, ठीक वैसे ही प्रकृष्ट आलोक के अवयव भी अन्धकार के अवयन के विरोधी होते हैं । विरोधी होने पर अन्धकार अवयव प्रीड आलोक से व्याप्त देश में नहीं रह सकते हैं । अतएव वहाँ अन्धकार स्वरूप अवयवी की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है । बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यहाँ यह कथन कि <'प्री आलोक के मध्य में निविड आवरण आने पर अन्धकार के परमाणु अन्य स्थान से वहाँ आकर अन्धकारात्मक अवयवी का प्रारम्भ करेंगे । अतः पहले से वहाँ अन्धकार के अवयवों की उपस्थिति नहीं होने पर भी पश्चात् अन्य स्थान से आगत अन्धकार के अवयवों से अवयविस्वरूप अन्धकार का आरम्भ होगा' - भी इसलिए निराधार है कि भूतलादि अधिकरण चारों ओर से प्री प्रकाश से व्याप्त होने पर अन्य स्थान से भी वहाँ अन्धकार के अवयवों का आगमन नामुमकिन है । प्रबल विरोधी जब तक रहेगा तब तक दुर्बल की उपस्थिति कैसे हो सकती है ? क्या नदी में अग्रि के अवयव का अवस्थान मुमकिन है ? अतः प्रकृष्ट प्रकाश के मध्य में घटादि निविड द्रव्य को पराङ्मुख करने पर अन्धकारस्वरूप अवयवी द्रव्य का
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४.७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का.५ * तेजःपुद्रलानामन्धकारत्वेन परिणमनम् * दिति चेत् ? मैवं वादीः, घनतरावरणसाचियेन तेज:पुद्रलानामेव तत्र तमस्त्वेन परिणमनात्। न हि नियताराम्भवादिनो वयं, येन तेजोऽवयवैस्तिमिरारम्भो न शक्येत वक्तुम ।
'नीलरूपं तमः' इति कन्दलीकारवचनं तु नादरणीयम्, निराश्रयस्य रूपस्यासम्भवात्, ताहशनियताश्रयस्य चानुपलभ्यमानत्वात् ।
== =* जयलता * प्रकरणकृत्तत्प्रत्याचष्टे - मैवं चादीरिति । मापदयोगादकारलोपः । यद्रव्यं यद्रव्यध्वन्सजन्यं तत्तदुपादानोपादेयमिति नियमात् तेजोऽवयविध्वंसजन्यस्य तमसः तेजोऽवयवोपादेयत्वान्न तदा तमोऽवयव्यारम्भाऽसम्भवो नैयापिकनियमानुसारेणाऽपीत्याशयेन प्रकरणकृदाह - धनतरावरणसाचिन्येन = निश्छिद्रपिधानसाहाय्येन, तेजःपुद्गलानामेव = तेजोऽवयव्युपादानानां, एवकारेण तमोऽवयवव्यवच्छेदः कृतः । तत्र = घनतरावरणमध्ये, तमस्त्वेन परिणमनात् । तेजोऽवयवानां कथं तमोऽवयव्यारम्भकत्वं, तमसि तेजस्त्वविरहात्, सजातीयैरेवाययवैः सजातीयावयव्यारम्भकत्वनियमादित्याशङ्कायामाहम - न हि नियतारम्भवादिनो बयमिति । यदि नियतारम्भवादोऽस्माभिरङ्गीकृतः स्यात्, न स्यात् तदा तेजोऽवयवैरन्धकारारम्भः । न चैवमिति तेजोऽवयः प्रागवस्थितस्तिमिरारम्भो बक्तुं शक्यत एव । न च निपतारम्भवादस्य सर्वथाऽनभ्युपगमे एकान्तवादप्रसङ्ग इति वक्तव्यम्, स्याद्वादिभिरस्याभिः पुद्गलत्वेन नियतारम्भबादस्य पुद्गलत्वव्याप्यपृथिवीत्वादिना चानियतारम्भवादस्याऽगीकारात्। पुद्गलत्वव्याप्यजात्या अपि नियत्तारम्भवादस्य प्रामाणिकत्वे तु निशायां समुद्रे बडवानलारम्भः कथं सगच्छेततराम् । जलावयवैः तिमिरावयवैश्च साकं तेजोऽवयावानां प्रागनवस्थानात्, सर्वतो जलतिमिरसङ्कुले चान्यतोऽपि तेजोऽवयबानामागमनाऽसम्भवात् । तत्राऽदृष्टविशेष-घर्षणादिसाचिव्येन जलावयचरेब पानसारम्भो कागला गुगन्तव्य : न च जलान्त:पातिभिरनलावयवैरेव तदानी बडवानलारम्भ इत्युद्गारणीयम्, आलोकान्त:पातिभिः तिमिरावयवैरेव घनतरावरणमध्ये तिमिरारम्भ इत्यस्याऽपि सुक्चत्वात् । सत्कार्यवादनिराकरणे नियतारम्भवादस्य निराकृतत्वान्नदानीं तन्निरासेऽस्मदीयत्नः, मृतमारणवनिरर्थकत्वात् ।
व्योमशिवमतं निराकर्तुमुपक्रमते - 'नीलरूपं तम' इति । आरोपितस्य नीलरूपस्य तन्मते तमस्त्वात् । तदयुक्त - त्वमादर्शयति - निराश्रयस्य रूपस्याऽसम्भवादिति । भूतलादावेवालोकविरहदशायां नीलरूपारोपात् भूतलादेरेब तदाश्रयत्वमस्त्वित्याशङ्कायामाह - तादृशनियताश्रयस्य चानुपलभ्यमानत्वादिति । क्वचिद्भूतले क्वचित्पते क्वचिच्च गुहायां तत्प्रतीते: नियताश्रयकत्वं तस्य न सम्भवति । न च पृथिवीत्वेनैव तदनुगमसम्भवान्नैष दोष इति वक्तव्यम्, जलादावपि तमःप्रत्ययात् । न चालोकाभाववत्त्वेनैवारोपितनीलरूपाधिकरणानुगमोऽपि सम्भवति, आलोकपरमाणु-तप्तजल-सुवर्णादावपि तम:प्रतीतेरुदयात् । न च मदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकशून्यत्वेन तदधिकरणानुगमोऽस्विति वाच्यम्, तथापि तत्र पीतरूपाचारोपप्रसङ्गात्, नीलि| द्रव्योपरक्तेषु वस्त्रादिषु तमोव्यवहारप्रसङ्गाच्च । न चारोपे सति हि निमित्तानुसरणं न तु निमित्तमस्तीत्यारोप इति नियमात्र | आरम्भ नामुमकिन है । इसलिए अन्धकार हो द्रव्यात्मक नहीं माना जा सकता है" <
तेज:परमाणु से अन्धकारारम्भस्वीकार - वर्धमानमनिरास मैर्व. इति । प्रकरणकार श्रीमद्जी कहते हैं कि वर्धमान उपाध्याय का उपर्युक्त कथन अन्धकारद्रव्यवादी स्यावादी के मत में बाधक नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि प्रकृष्ट आलोक से संयुक्त स्थान में घटादि को पराङ्मुख करने पर उसके भीतर आलोकपरमाणु ही अन्धकार के स्वरूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे महापट के अवयव तंतु खण्ड पट के स्वरूप में परिणत होते हैं वैसे प्रकृष्ट आलोक के अवयव का अन्धकारात्मना परिणाम हो सकता है। यहाँ यह शंका करना कि -> "तैजस अवयवों से तो तैजस अवयवी का आरम्भ हो सकता है, अन्धकारात्मक अवयवी का नहीं" <- ठीक नहीं है, क्योंकि हम स्पाद्वादी है, नियतारम्भवादी नैयायिक नहीं । अतः तेजस परमाणु से तैजस अवयरी का ही आरम्भ हो सकता है. ऐसा एकान्त हमें मान्य नहीं है । जैसे सहकारी विशेष के सान्निध्य से गोबर से भी विच्छ आदि की उत्पत्ति होती है, ठीक वैसे ही निरिड आवरण के सहकार से तैजस परमाणु से भी तिमिर की उत्पत्ति हो सकती है। अतः अन्धकार को द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं है।
कन्दलीकारमतरखण्डन नीलरूपं. इति । न्यायकन्दलीकार का मत यह है कि > 'अन्धकार दुसरा कुछ नहीं है, किन्तु आरोपित नील रूप
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* शिवादित्य शेषानन्त-पक्षधरमिश्रमतनिरासः *
तस्मा द्रव्यत्वमेव सकलप्रमाणसिद्धं न्याय्यमित्यधिकमनया दिशा स्वधियाऽभ्यूहनीयम् । 'यथात्थ भगवन्नि' त्युक्त्या च भगवद्द्वचनेऽप्रामाण्यशङ्काकलङ् कलेशाऽसम्पर्क सूचना * जयलता
दोष इति वक्तव्यम्, तथापि 'तमो नीलं न नीलिमे 'ति प्रत्ययानुपपत्तेः, 'इह महानन्धकार' इति प्रतीते भ्रमत्वापत्तेः' 'गुणे शुक्लादय: पुंसि' (अ.को. १/५/१७) इत्यमरकोशवचनेन शुक्लादिपदजन्यशुक्लत्वाद्यवच्छिन्नमुख्यविशेष्यताकशाब्दबोधे पुलिङ्गकशुक्लादिपदशक्तिज्ञानजन्योपस्थितेर्हेतुत्वेन 'नीलस्तम' इतिप्रयोगप्रसङ्गाच्च । न च नीलस्य तमोविशेषणत्वमेव, अनुक्तलिङ्गविशेषणपदानाञ्च विशेष्यलिङ्गताया औत्सर्गिकत्वाद् नीलपदे क्लीबत्वमिति वाच्यम्, नीलस्य सामान्यतया विशेष्यत्वात्, विशेषणविशेष्यभावे कामचारभिधानस्य परस्परव्यभिचारितदुभयविषयत्वादिति । तस्मात्तमसो द्रव्यत्वमेव सकलप्रमाणसिद्धं न्याय्यमिति ।
-> 'नीलोरोपविशिष्टतेजः संसर्गाभावस्तम इति शिवादित्यवचनमपि अविचारितरमणीयम्, नीलारोपाद्यग्रहेऽपि तमस्त्वग्रहात् तादृशतमस्त्वावच्छिन्नधर्मिकनीलारोपाsयोगाच्च ।
शेषानन्तवचनमपि न मनोहारि,
→ तेजः प्रतियोगिका भावेनैव तमोव्यवहार:, तत्र तत्तेजोज्ञानं प्रतिबन्धकमिति <| स्पष्टगौरवात् व्यवहर्तव्यज्ञाने सति सत्याञ्चच्छायां व्यवहारेऽधिकानपेक्षणाम् ।
४०८
-> 'उद्भूतानभिभूतरूपवत्तेजः सामान्याभावो न तमः, तेजोध्वंसप्रागभावाधिकरणे तत्सामान्याभावासत्त्वेन तमः प्रतीत्य. नुपपत्ते:, किन्तु तादृशतत्तत्तेजोव्यक्तीनां विशेषाभावसमुदाय एवान्धकारपदार्थ' - इति पक्षधर मिश्रमत्तमपि न चारु, प्रकृष्टालोकेऽपि रूपादी संयोगेनालोकाभावसत्त्वादन्धकारव्यवहारापत्तेः, 'इदं तम' इति प्रतीतावपि तत्र भावत्वाभावत्वसंशयात्, ध्वंसप्रागभावयोः स्वप्रतियोग्यत्यन्ताभावविरोधित्वे मानाभावाच्च ।
यत्तु 'संयोग- संयुक्तसमवायादिनानासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकनानालोका भावनिष्ठं तमस्त्वमप्यखण्डमेकमेव, तेन न 'प्रकृष्टालोकेऽपि रूपादी संयोगेनालोकाभावसत्त्वादन्धकारव्यवहारापत्तिः, न वा नानालोकभावेष्वनुगततमोव्यवहारानुपपत्तिः, न वा 'इदं तम' इति प्रतीतावपि तत्र भावाभावत्वसंशयानुपपत्तिः, इदन्त्वावच्छेदेन तमस्त्वग्रहेऽपि आलोका भावत्वाऽग्रहादि 'ति मतं तदपि न रमणीयम्, तथा सति तत्रोत्कर्षायकर्षाऽसम्भवादन्धतमसावतमसादिविशेष प्रत्ययानुपपत्तेः । न च तमस्त्ववदन्धतमसत्वादेरप्यखण्डोपाधित्वमेवेति वाच्यम् पूर्वोक्तरीत्याऽन्धकारेऽन्धकारापत्तेर्दुवारत्वात्, महागौरवकलङ्किततादृशक्लिष्टकल्पनापेक्षयाऽतिरिक्ततमोद्रव्यकल्पना या एव न्याय्यत्वाचेत्याशयेनाह अधिकमनया दिशा स्वधियाऽभ्यूहनीयमिति । तच्चाऽस्माभिस्त्रैव तत्तस्थले लेशतो दर्शितमेवेति तमोद्रव्यत्ववादः ।
एतद्वचः प्रकाशाद् ध्वान्तेऽभावत्वभ्रमः तमः । विलीयतां परेषां तु स्यां कृतार्थस्तदा ह्यहम् ||१|| 'यथात्थे' त्यादिकं स्पष्टम् ।
ही अन्धकार है" - किन्तु यह मन्तव्य भी अनादरणीय है, क्योंकि निराश्रय रूप न्यायमत में असम्भावित है । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि 'भूतल में नील रूप का आरोप होने से भूतल ही आरोपित नील रूप का आधार है', <- क्योंकि आरोपित नील रूप का आश्रय निश्चित नहीं है। कभी भूतल में तो कभी पर्वत में तो कभी गुफा में नील रूप का भान होने से नील रूप का नियत आश्रय अनुपलभ्यमान है । अतः भूतल आदि को ही नील रूप का आश्रय नहीं माना जा सकता है । किन्तु स्वाभाविक नील रूप के आश्रय के स्वरूप में ही अन्धकार द्रव्य का स्वीकार करना उचित है, जो प्रकृष्ट आलोक की विद्यमानता में नहीं रहता है । सकल प्रमाण से अन्धकार में द्रव्यत्व ही सिद्ध होता है । अतः अन्धकार द्रव्यात्मक मानना ही न्याय्य है । इस सम्बन्ध में अधिक विचार भी किया जा सकता है। यहाँ जो कुछ बताया गया है, वह तो दिग्दर्शनमात्र है। इसी दिशा में अपनी बुद्धि से वाचकवर्ग स्वयं विचार करें इस बात की सूचना देकर प्रकरणकार महामहोपाध्यायजी महाराज अन्धकारवाद को समाप्त करते हैं ।
* रागद्वेषशय के बिना सत्यवचन असंभवित
यथात्म इति । कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने वीतरागस्तोत्र के अष्टम प्रकाश की पाँचवी कारिका के उत्तरार्ध में कहा है कि 'हे भगवंत ! आपने जैसा कहा है वैसा मानने पर कोई भी दोष प्रसक्त नहीं है । इस
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४०९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का,५ * भवानीपती मानाभावप्रदर्शनम् * || स्वस्याऽसाहाराणी भक्तिरातिश्चक्रे तत्रभवद्रिः । राग-न्देषाद्यविद्याबन्धकीसम्पर्ककलकि
तानांपरेषां वचसि प्रामाण्याऽभ्युपगमो हि महामोहगहनविजृम्भितम, राग-व्देषाभावं विनाऽवितथवचनस्य कार्यस्याऽसम्भवात् ।
ननु वेदकर्तुरेव पुरुषधौरेयस्य वच: प्रमाणं, तस्यैव सर्वज्ञत्वात् । मैवम्, तत्प्रणेतरि भवदभिमते भवानीपतावेव मानाऽभावात् । न च 'कार्य सकर्तृकं कार्यत्वादि'त्यनुमानमेव |
== =* गयलता *. ईरोडमण्डनं श्रीवासूपूज्यस्वामिनं नत्वा । भवानीपतिकर्तृले मानाभावः समर्थ्यते ।।१।। घुग्णाक्षरन्यायेनैकान्तवादिवचने क्वचिद्विसम्बादाऽदर्शनेऽपि न तत्रौत्सर्गिक प्रामाण्यम्, बचनबैतथ्यसम्पादकरागादिपरवशपुरुषनिसृतत्वादिति गिरी समाकर्ण्य सकर्णी नैयायिक: प्रत्यवतिष्ठते - नविति । वेदकर्तुः = प्रमाणत्वेन महाजनपरिगृहीतानां वेदानां कर्तुः, एव पुरुषधीरेयस्य बचः प्रमाणम्, हेतुमाह - तस्य = पुरुषधुरिणः एव सर्वज्ञत्वादिति । प्रथमैवकारेण द्वादशांगीकर्तुः द्वितीयैवकारेण च जिनेश्वरस्य व्यवच्छेदः कृतः ।
स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे - मैचमिति । तत्प्रणेतरि = वेदरचयितरि, भवदभिमते = नैयायिकाभिमते, भवानीपती = त्रिलोचने, एव मानाभावादिति । बोधादिभिः वेदानामष्टकादिनिर्मितत्वाभ्युपगमाद् ‘भवदभिमत' इत्युक्तम् । तत्र मानाभावश्चैवम्, न तत्र बहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षं प्रमाणं, अणुपिद्रव्यत्वेन बाह्यप्रत्यक्षाऽविषयत्वात् । नापि मानसं, परात्मनः परेण मनसा प्रत्यक्षवारणायात्ममानसं प्रति परात्मन्यावृत्तविजातीयमन:संयोगत्वेन कारणत्वाऽभ्युपगमात् । नाप्यनुमान प्रमाणम्, ईश्वरस्या प्रत्यक्षतया तस्य केनचिल्लिङ्गेन सहचारदर्शनाभावेन व्याप्तिग्रहाभावात् । न वोपमानं मानं, तुत्तुल्यास्या परस्या:भावेन सादृश्यज्ञानाऽसम्भवात्, अन्यथा ईश्वरत्वव्याहतेः । नापि शब्दः प्रमाणं, श्रुतीनामीश्वरोच्चरितत्वेनैव प्रामाण्यस्य बक्तव्यतया तत्रैश्वर एव सन्देहेन श्रुतिप्रामाण्यस्यापि सन्दिग्धत्वादिति भवदीष्टचतुर्विधप्रमाणाऽगोचर ईश्वरे कथं सर्वज्ञत्वाभ्युपगमस्य समीचीनत्वमिति स्याद्वाद्यभिसन्धिः ।
उदयनाचार्यसंदृश्धेश्वरसाधकप्रथमानुमानं प्रतिक्षेप्तमुपक्षिपति . न चेति । कार्य सकर्तृकं कार्यत्वात् घटवदिति गम्यते,
जाप काये
५
वचन से महनीय श्रीकलिकालसर्वज्ञ आचार्यश्रीने जिनवचन में अप्रामाण्य की शंका के कलंक के अंश से भी रहितत्व की सूचना देकर जिनेश्वर के प्रति अपनी असाधारण भक्ति का आविर्भाव किया है। जिनक्चन के प्रति अप्रामाण्य के निश्चिय की बात तो दूर हो, लेश शंका भी कुमारपालप्रतिबोधक आचार्यश्री के दिल में नहीं है। यही सर्वोत्कृष्ट भक्ति है। पुरुषविश्वास से वचनविश्रास । यद्यपि कुतीथिको को भी अपने अपने दर्शन के प्रणेता के वचन में अट्ट विश्वास है मगर वह महामोह का महा विलास है, दूसरा कुछ नहीं, क्योंकि वह राग द्वेष-अविद्या आदि दोष की परम्परा से कलंकित एकान्तवादी पुरुष के वचन में, जिस में प्रामाण्य की गन्ध भी नहीं है, प्रामाण्य के स्वीकारात्मक है। भला ! जो स्वयं राग-द्वेष के विषचक्र में फँसा है, उसका वचन प्रामाणिक कैसे हो सकता है ? राग-द्वेष-अज्ञान के अभाव के बिना अविसंबादी वचनस्वरूप कार्य ही असंभवित है । धुणाक्षरन्याय के कुछ अविसंवादी पचन उनके मुँह से कदाचित् नीकल पड़े, वह एक अलग बात है। मगर उनके वचन के ऊपर प्रामाण्यमुद्रा नहीं लगाई जा सकती । क्या नकली घडी भी दिन में दो दफे सबा समय नहीं बताती है ? जिनेश्वर भगवान में तो असत्य वचन का कारण राग-द्वेष आदि ही नहीं है, फिर वे असत्य क्यों बोले ? अत: जिनवचन में अप्रामाण्य नामुमकिन है। चाहे चाँद से आग की वर्षा क्यों न हो, चाहे सूर्य पश्चिम दिशा में उदित क्यों न हो.? मगर तीन काल में जिनवचन में अप्रामाण्यलेश भी असम्भव है।
ॐ ईश्वरतण्डन ॐ ननु वे. इति । जिनेश्वर भगवंत का ही बचन प्रामाणिक है, यह सुन कर नैयायिक आग बबूला होकर बोलता है कि -- 'वेदकर्ता प्रधानपुरुष का ही वचन प्रामाणिक है, क्योंकि वही सर्वज्ञ है । वेदकर्ता शङ्कर भगवान के वेदवचन को ही प्रमाण मानना चाहिए' <- मगर यह कथन अप्रामाणिक है, क्योंकि वेदकर्ता के स्वरूप में आपको अभिमत भवानीपति शंकर में ही कोई प्रमाण नहीं है । शंकर की सत्ता का कोई प्रमाण ही नहीं होने से उसके वचन में प्रामाण्य की घोषणा करना बन्ध्यापुत्र के आभूषण की योषणा के समान है। यहाँ नैयायिक की ओर से इस अनुमान से ईश्वर की सिद्धि की जाय कि -> "कार्य सकर्तृकं कार्यत्वात्, यटक्त् - इस अनुमान से पर्वत आदि कार्य में सकर्तृकत्वरूप साध्य की सिद्धि
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* शरीरजन्यत्तस्योपाधिकत्वविचारः* तत्र मानं, शरीरजन्यत्वरूपसन्दिग्धोपाधिनस्तत्वात् ।
==..---..---- जगलता * इत्तयनुमानमेव । एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थः । तत्र = महेशे, मानं = प्रमाणम् । यत् यत् कार्य तत् तत् सकर्तृकं यथा घटः । यत्सकर्तृकं न भवति, न तत्कार्यमपि भवति गगनवत् । न तावदयं हेतुरुद्धताऽसिद्धातासिद्धसीकोत्तरीगरीयस्तरदुस्तरकटाक्षलक्षविक्षेपविक्षेपितः, सद्भूतानुभवसिद्धाविनाभावित्वसिद्धधर्माधिकरणविद्यासिद्धत्वात् । नापि दुर्धरविरुद्धतोद्भूततर्कवितर्केन्धनकार्कझ्यावरुद्धता, विचक्षणाक्षीणक्षोदक्षमाध्यक्षनिर्णीतविपक्षव्यावृत्तिव्याप्तिशक्तिप्रकोपपावकाहुतीभूतप्रत्यर्थिपक्षत्वात् । नाष्यनैकान्तिकाक्रान्तविषमविषधरीविषावेगविधुरीभूतताऽप्याशङ्कनीया, विपक्षनिर्णीतव्यावृत्तिम लक्षितिरुहायतच्छायासु सुखनिषण्णत्वात् । नापि कालात्ययावदिष्टतादुष्टदोषदन्दशूकदष्टत्वं निष्टकनीयम्, अवाधितपक्षप्रयोगपक्षाधिराजपक्षान्तरविश्रान्तत्वात् । नाप्यस्य हेतुनरेश्वरस्प ! प्रकरणसमतातङ्काकान्तत्वमुद्भावनीयं, एतत्प्रतिपन्धिसमर्धानुमानाभावातपत्रपवित्रप्रभुताप्राप्तसाम्राज्यसुगभत्वात् । न च शरीरा- : जन्यत्वेन कजन्यत्वसाधकेन सातिपक्षतोद्भावनीया, शरीरपदनिवेशानावश्यकत्वात् अप्रयोजकत्वाञ्चेति नैयायिकाशयः ।
तदपक्षेपार्थं प्रकरणकृदाह - शरीरजन्यत्वरूपसन्दिग्धोपाधिग्रस्तत्वादिति । अन्यत्र गतो धर्मोऽन्यत्रोपचर्यमाण उपाधिरभिधीयते यथा जपाकुसुमसंसर्गादारुण्यशून्ये स्फटिकशकले रुणत्वं प्रतीयते तधौपाधौ वर्तमानं व्याप्यत्वं तच्छ्न्ये हेतो विज्ञायते । इति स्वाऽभावानुमापितसाध्याभाववद्वृत्तित्वमुद्भाच्य हेतौ त्र्यप्तिदूरीकरणेनोपार्दूषणत्वम् । तल्लक्षणञ्चेदम्, साध्यव्यापकत्वे सति साधनाज्यापकत्वमिति । प्रकृतानुमाने शरीरजन्यत्वमुपाधिः, तस्य घटीदी साध्यव्यापकत्वात्, अङ्कुरादौ साधनाव्यापकत्वाचा | न चाङ्कुरादौ सकर्तृकत्वरूपसाध्यसन्देहेन उपाधेः साध्यव्यापकत्वसंशयान्नोपाधित्वनिश्चय इति वक्तव्यम्, तथापि सन्दिग्धोपाधित्वस्य दुर्वारत्वात् । न चोपाधिनिश्चये सत्यतेब हेतौ सोपाधिकत्वहेतुना व्यभिचारनिश्चयः सम्भवति । ततः वानुमितिग्रतिबन्धः । उपाधिसन्देहे तु व्यभिचारसन्देह एव भवति । न च तेन व्याप्तिज्ञानप्रातिरोधः सम्भवति, व्यभिचारनिश्चयत्वस्यैव व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वादिति वाच्यम्, उपाधिसन्देहे व्यभिचारसन्देहस्याऽऽवश्यकत्वात्, व्याप्यत्वज्ञानं प्रति लाघवेन व्यभिचारज्ञानसामान्यस्य प्रतिबन्धकत्वात, व्याप्यसंशयेन व्यापकन्देहस्याऽऽवश्यकत्वात्सन्दिग्धोपाधित न चोपाधिसन्देहाऽऽहितो व्यभिचारसन्देहः पक्षातर्भावनैवाङ्गीकरणीयः, घटादी साध्यनिश्चयेन साध्यसन्देहासम्भवात् । स च न व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकः, पक्षान्तविन व्यभिचारसन्देहस्य तदप्रतिबन्धकत्वात्, अन्यथाऽनुमितेः पूर्वं सर्वत्रैव पक्षे साध्यन्देहसम्भवेन तत्र च हेतोर्निश्वयादनुमानमात्रोच्छेदप्रसङ्गात् । तस्मात्साध्याभावांशे निश्चयात्मकं वृत्तित्वांशे च संशयनिश्चयसाधारणं व्यभिचारज्ञानं प्रतिबन्धकमित्यास्थेयम् । प्रकृते च तादृाव्यभिचारसन्देहासम्भवात्कथं सन्दिग्धोपाधेर्दूषकत्वमिति वक्तव्यम्, पक्षतत्समयोरपि व्यभिचारसंशयस्य प्रतिबन्धत्वात् । पक्ष उद्देश्यतावच्छेदकावच्छिन्नः तत्समस्तु तद्भिन्नत्वे सति साध्यसन्देहाक्रान्तः । न चैवमुक्तरीत्याऽनुमानमात्रोच्छेदापत्तिरिति वाच्यम्. धूमो यदि वहिव्यभिचारी स्यात् तर्हि बह्निजन्यो न स्यादित्यनु
होगी। मगर पर्वत आदि के कर्ता के स्वरूप में आमजनता का स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः अन्ततो गत्वा पर्वतादि के कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि होगी" <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त अनुमान का कार्यत्वस्वरूप हेतु शरीरजन्यत्वस्वरूप संदिग्ध उपाधि से ग्रस्त है। जो साध्य का व्यापक हो और हेतु का अव्यापक हो उसे उपादि कहते हैं । यहाँ साध्य है सकर्तृकत्व = कर्तृजन्यत्व और हेतु है कार्यत्व । जहाँ जहाँ कर्तृजन्यत्व रहता है, वहाँ वहाँ शरीरजन्यत्व रहता है यह घट, पट आदि में देखा गया है । अतः शरीरजन्यत्व सकर्तृकत्वरूप साध्य का व्यापक है । एवं कार्यत्व के आश्रय अंकुरादि में शरीरजन्यत्व का अभाव होने से वह कार्यत्वरूप साधन का अव्यापक भी है। अतः उपाधिग्रस्त होने के कारण प्रस्तुत अनुमान से वादी के अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि -> 'अंकुरादि में सकर्तृकल का संदेह है किन्तु शरीरजन्यत्व का अभाव निश्चित है । अतः शरीरजन्यत्व में सकर्तृकत्वरूप साध्य की व्यापकता का निश्चय नहीं हो सकने से शरीरजन्यत्व उपाधि नहीं हो सकता' <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि निश्चित उपाधि न होने पर भी अंकुरादि द्वारा शरीरजन्यत्व में साध्यव्यापकता का संदेह होने से संदिग्धोपाधि का होना आवश्यक है। यहाँ यह कहना कि <- 'संदिग्धोपाधि के व्यभिचार के सन्देह से हेतु में साध्यव्यभिचार का सन्देह ही हो सकता है, न कि निश्चय तथा व्यभिचारसंशय व्याप्तिज्ञान का विरोधी नहीं होने से हेतु में साध्यनिरूपित व्याप्ति का निश्चय हो कर अनुमिति के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती' <- भी ठीक नहीं है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान के प्रति व्यभिचारनिश्चयत्वरूप से व्यभिचारज्ञान को प्रतिबन्धक मानने में गौरव है । लायव की दृष्टि से व्यभिचारज्ञानत्वरूप से ही व्यभिचारज्ञानत्व-रूप से ही न्यासिज्ञान का
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१११ मध्यमस्याबादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * कार्य प्रति कन्चेन कारणत्वनिश्रयविचारः
अथ नाथमा दोषः, कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति कर्तृत्वेन कारणत्वनिश्चयात् लाघवतर्कावतारदशायां तत्प्रयुक्तव्यभिचारसंशयस्याऽप्रतिबन्धकत्वादिति चेत् ? न, कार्यत्वं हि ध्वंस
-----* जयलता है | कूलतर्केण व्यभिचारसन्देहस्याऽसम्भवात् । अत एवानुकूलतर्कविरहदशायां पक्षेतरत्वं सन्दिग्धोपाधिरित्यभिधानमपि सङ्गच्छते । -प्रकृते चानुकूलतर्कविरहात् नोक्तानुमानेन नैयायिकाभिमतसिद्धिरिति स्याद्वाद्यभिप्रायः ।
स्वपक्षे लाघवतर्कावतारेण परः सन्दिग्धोपाधेः प्रकृतेऽदोषत्वमुद्भावयति - अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्यान्वयः । न अयं = शरीरजन्यत्वलक्षणसन्दिग्धोपाधिः अत्र सकर्तृत्वसाध्यक-कार्यत्वहेतुकानुमाने दोषः । कथं ? इत्याशङ्कायां पर आह - कार्यत्वावच्छिन्नं = कार्यमानं प्रति कर्तृत्वेन रूपेण कारणत्वनिश्चयादिति । प्रकृते कार्यत्व-सकर्तृकत्वाभ्यां फल-फलबद्भावनिश्चयादित्यर्थः । ततश्चांकुरादी कार्यत्वे सत्यपि सकर्तृकत्वतं न स्यात्तर्हि कार्यत्वावच्छिन्नं कर्तृजन्यं न स्यादित्याकारक. लाघवतर्कावतारदशायां तत्प्रयुक्तव्यभिचारसंशयस्य = उपाधिसंशयप्रयुक्तव्यभिचारसन्देहस्य, अप्रतिबन्धकत्वात् = सकर्तृकत्वनिरूपितकार्यत्वनिष्ठव्याप्तिनिश्चयाउप्रतिबन्धकत्वात् । अनकलतर्कानवतार एव सन्दिग्धोपाधेयभिचारसंशयाधायकत्वम, अन्यथा पक्षेतरत्वोपाधिशङ्कया प्रसिद्धानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् । सन्दिग्धोषाधेः सत्त्वेऽपि लाघवतर्कावतारे व्यभिचारसंशयस्यैवानुत्थानमित्यत्र नैयायिकतात्पर्यादुक्तानुमानेन कर्तृत्वाश्रयविधेयश्वरसिद्धिरिति भावः ।
अत्र कार्यस्य घटादे: सकर्तकत्वसिद्धयांऽशत: सिद्धसाधनम । न च पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यसिद्भेरुदश्यत्वान्नाय दोष इति वाच्यम्, तथापि सकर्तृकत्वं यदि कर्तृसाहित्यमा तदाऽस्मदादिना सिद्धसाधनस्य दुरित्वात् । न च कर्तृजन्यत्वं साध्यं सम्भवति, अनन्तकृतीनां जनकतावच्छेदकत्वे गौरवात् । नापि स्वोपादानगोचरागरोअज्ञानचिकीर्षाकृतिजन्यत्वं तत्, स्वत्वघटितत्वेनाननुगमात्, उपादाना परोक्षज्ञानत्वादेर्गुरुत्वेन जनकतानवच्छेदकत्वाच्च । अनेन प्रत्यक्षजन्यत्वेच्छाजन्यत्वादे: साध्यतायामदोषः । अदृष्टाऽद्वारा जन्यत्वस्य विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नकारणताप्रतियोगिकसमवायावंच्छिन्नजन्यत्वस्य वा साध्यत्वान्नाऽदृष्टजनकाऽस्मदादिज्ञानजन्यत्वेन सिद्धसाधनमर्धान्तरं वेति प्रत्युक्तम्, पक्षतावच्छेदकहेत्वोरैक्यप्रसङ्गश्च दुर्वार एव । न च 'कार्यत्वं साध्यसमानाधिकरणमिति सहचारग्रहेऽपि' कार्य सकर्तृकमिति बुद्धेरभावान्नार्य दोष इति वाच्यम्, तथापि 'कार्यतावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणता सकर्तृकत्वावच्छिन्ने त्यभ्युपगमेऽवच्छेदकावच्छेद्ययोरैक्येनाऽऽत्माश्रयप्रसङ्गात् । न च ध्वंसप्रतियोगित्वरूपस्य कार्यत्वस्याऽवच्छेदकत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपकार्यत्वस्य चाऽवच्छेद्यत्वमिति न तयोरेक्यमिति वाच्यम्, विनि| गमकाभावेन प्रागभावप्रतियोगित्वादेरग्यवच्छेदकत्वसम्भवेन व्यभिचारवारणाय नानाकार्यकारणभावकल्पने गौरवापातेन लाघवतर्काडवताराऽसम्भवात् सन्दिग्धोपाधिप्रसयुक्तन्यभिचारसंशयेन सकर्तृकत्वनिरूपितकार्यत्ववृत्तिव्याप्तिनिश्चयविघटनादनुमितेः प्रतिरोधस्य
प्रतिबन्धक है । अतः व्यभिचारसंशय से भी ब्याप्तिनिश्चय का प्रतिबन्ध हो जाने के कारण संदिग्धोपाधिकत्व का भी अनुमानविरोधित्व अपरिहार्य है।
लागत तर्क सहकार से ईश्वरसिद्धि - जैयायिक V अथ ना, इति । यदि नैयायिक विद्वानों की ओर से यह कहा जा सकता है कि -> "शरीरजन्यत्वस्वरूप संदिग्ध उपाधि उपर्युक्त्त अनुमान में दोषात्मक नहीं है । इसका कारण यह है कि कार्यमात्र के प्रति कर्तृत्वरूप से कारणता निश्चित = प्रमाणसिद्ध है । कार्यतानिरूपिन कारणता के अवच्छेदकविधया कर्तृत्व का स्वीकार करने में लायव है, शरीरत्व को मानने में गौरव है . इस लाघव तर्क का अवतार होने पर कार्यत्व हेतु में शरीरजन्यत्वात्मक संदिग्ध उपाधि से व्यभिचार का संशय हो कि . 'कर्तृजन्यत्वच्यापक शरीरजन्यत्वशून्य पर्वतादि में कर्तृजन्यवराहित्य होने पर भी कार्यत्व हेतु मुमकिन है' . तो वह उपर्युक्त अनुमिति में प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, क्योंकि लाघव तर्क से ही तादृश व्यभिचार के संदेह का प्रतिरोध हो जाता है । अतः कार्यत्व हेतु से क्षिति आदि के कर्ता के स्वरूप में ईश्वर की सिद्धि हो सकती है, उक्त संदिग्ध उपाधि का उद्भावन अकिंचित्कर है । लायच तर्क न होने पर ही संदिग्ध उपाधि से अनुमिति का प्रतिबन्ध हो सकता है" <--
* कार्यरत षड्वित होने से नैयायिकमत में लायवतर्क नामुमकिन * न, का. इति । किन्तु विचार करने पर नैयायिक से दर्शित लायब तर्क नामुमकिन है। इसका कारण यह है कि
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कार्यत्वस्वरूपनिर्वचनम् *
प्रतियोगित्वं प्रागभावप्रतियोगित्वं अ ( न ?) वच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण 'कालवृत्त्यन्ताभावप्रतियोगित्वं, "स्वानधिकरणीभूतकालवृत्यत्मन्ताभावप्रतियोगित्वं, "कालवृत्यन्योऽन्याभावप्र
* जयलता
सुरगुरुणाऽपि निराकर्तुमशक्यत्वादित्याशयेन स्याद्वादी नैयायिकमसमपनोदयति नेति । कार्यत्वं प्रकृते हेतुभूतं सकर्तृ'कत्वावच्छिन्न जनकतानिरूपितजन्यतावच्छेदकीभूतं वा कार्यत्वं हि प्रध्वंसप्रतियोगित्वं प्रध्वंसनिष्ठनिरूपकतानिरूपितप्रतियोगित्वम् । ध्वंसस्य कार्यत्वेऽपि प्रध्वंसाऽप्रतियोगित्वात्कल्पान्तरमाह प्रागभावप्रतियोगित्वं प्रागभावनिरूपितप्रतियोगित्वं तच्च ध्वंसेऽप्यस्तीति नाव्यापिता कालादिवारणाय प्रागिति असम्भववारणाय ' प्रतियोगी 'ति ।
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४१२
दीधितिकारादिभिः प्रागभावस्यानभ्युपगमाद् गत्यन्तरमाह - अवच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण कालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमिति । जन्यमात्रस्य यत्किश्चित्कालावच्छेदेन वृत्तित्वात्तदितरकालावच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण कालाऽवृत्तित्वेन स्वानभिकरणकालाबच्छिन्नंविशेषणतासम्बन्धावच्छिन्नात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाल्लक्षणसमन्वयः । तथापि परमागो: स्वानधिकरणदेशावच्छेदेन कालेऽत्यन्ताभावसत्त्वादतिव्याप्तिरि' त्यस्वरसादन्यमतमाह स्वानधिकरणीभूतकालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमिति । परमाण्वादेः स्वानधिकरणदेशावच्छेदेन काले वृत्तित्वेन कालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽपि कालस्य स्वानधिकरणत्वविरहात् स्वानाधिकरणकालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावान्नातिव्याप्तिः । न चैवं घटादेरपि कार्यत्वमुच्छिद्येत, महाकालस्य घटाद्यधिकरणत्वेन स्वानधिकरणकालाऽप्रसिद्धेरिति बेगराज्यम्, काल्पना करनाऽभिमतत्वात् अन्यथा 'स्वानधिकरणीभूते' त्यस्य वैयssत्तेः । ततश्च कालिकविशेषणत्तासम्बन्धेन खण्डकालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कार्यत्वमित्यत्र तात्पर्यमिति फलितार्थ: । न च तद्ध्वंसादिसत्त्वे कथं तदत्यन्ताभावस्य तत्र सत्त्वमिति वाच्यम्, ध्वंसादेः स्वप्रतियोग्यत्यन्ताभावविरोधित्वे मानाभावात् । नवीननैयायिकनयानुसारेण प्रकृतनिर्वचनमिति भावनीयम् ।
अत्रैवाऽन्यमतमाह- कालवृत्त्यन्यन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकस्वावच्छिन्नाधिकरणतात्वमिति । यः कश्चिदनित्यपदार्थ : स्वप्रागभावाधिकरणकाले स्वध्वंसाधिकरणकाले च नास्तीति तादृशकालवृत्तिस्तद्वदन्योन्याभावो भवत्येव यस्य प्रतियोगिताया अवच्छेदकेन स्वेन अनित्य पदार्थेनावच्छिन्नयाः = समानाधिकरणाया अधिकरणताया निरूपकत्वतं कार्यत्वमित्यर्थः । भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वञ्चान कालिकसम्बन्धावच्छिन्नं ग्राह्यम् । तेन सम्बन्धान्तरावच्छिन्नावच्छेदकताकप्रतियोगिताकनित्पपदार्थ
कार्यत्व ही एकविध नहीं है किन्तु अनेकविध है । अतः कार्यत्वावच्छिन्न सकल कार्य से निरूपित कारणता का अवच्छेदक कर्तृत्व भी अनेकविध हो जाता है, न कि एकविध । (१) घटादि भाव कार्य में रहने वाला कार्यत्व प्रध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप है । जो भाव उत्पन्न होता है, उसका कभी न कभी ध्वंस जरूर होता है । अतः उसमें ध्वंस की प्रतियोगिता रहती है। | अतः भाव कार्य में रहने वाला कार्यत्व ध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप है । (२) मगर घटादि की भाँति घट आदि का ध्वंस भी कार्य है । अतः कार्यत्व का लक्षण उसमें रहना आवश्यक है । ध्वंस का कभी भी ध्वंस नहीं होना । अतः ध्वंसप्रतियोगिता घटस आदि में नहीं रहेगी, फिर भी वहाँ कार्यत्व रहता है । इसलिए ध्वंस में प्रागभावप्रतियोगित्वस्वरूप कार्य मानना होगा । घटध्वंस का प्रागभाव होता है । अतः प्रागभावनिरूपित प्रतियोगिता घटादि के ध्वंस में रह सकती है । वही कार्यत्व है । (३) नव्य नैयायिक कार्यत्व को अवच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से काल में रहने वाले अत्यन्ताभाव की प्रतियोगितास्वरूप मानते हैं । उनका यह आशय है कि नित्य पदार्थ काल में सर्वदा रहता है, उसका अत्यन्ताभाव काल में नहीं रहता है । जब कि कार्य = जन्य पदार्थ काल में अमुक भाग में रहता है, अमुक काल में उसका अत्यन्ताभाव भी रहता है। सावच्छिन्नकालिकविशेषणता सम्बन्ध से जन्य पदार्थ का काल में अत्यन्ताभाव भी रहने से अवच्छिनकालिकविशेषणतासम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताक कालवृत्ति अत्यन्ताभाव से निरूपित प्रतियोगिता जन्य पदार्थ में रहती है, वही कार्यत्व है। जैसे सोमवार को घट उत्पन्न हुआ और मंगलवार को नष्ट हुआ ऐसी स्थिति में मंगलवारावच्छिन कालिकविशेषणता सम्बन्ध से काल में वह घट नहीं रहता : है अतः तादृशसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक घटात्यन्ताभाव काल में रहेगा और उसकी प्रतियोगिता तद्घट में रहेगी, बही तदुद्घटनिष्ठ कार्यत्व है । नव्य नैयायिक ने ध्वंस और अत्यन्ताभाव में विरोध को मान्य नहीं किया है। अतः उनके मतानुसार काल में घटध्वंस और घटात्यन्ताभाव भी रह सकता है । (४) अन्य विद्वानों का यह अभिप्राय है कि स्वानधिकरण काल में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्व ही कार्यत्व है । स्व = घटादि कार्य । जैसे प्रलयकाल घटादि जन्य द्रव्य का अनधिकरण होने से प्रलयकालवृत्ति अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता घटादि में रहती है, वही कार्यत्व है । नित्य पदार्थ में कभी भी कालवृत्ति अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता नहीं रह सकती, क्योंकि नित्यपदार्थानधिकरणीभूत काल ही अप्रसिद्ध है । अतः
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४१३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५
*बहत्स्याद्वादरहस्यमंवादः *
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तियोगितावच्छेदकस्वावच्छिमाधिकरणताकत्वतं यावत्कालवृत्तिभिमत्वं वा न तदवच्छिता
-- ---* जयलता --- वदन्योन्याभावमादाय न परमावादावतिव्याप्तिः; नित्यपदार्थस्य सर्वदा कालिकसम्बन्धेन काले सत्त्वेन कालिकावच्छिन्नाबच्छेदकताकप्रतियोगिताकनित्यपदार्धवदन्योन्याभावस्य कालनिरूपितवृनित्वशून्यल्वात् । तदघटध्वंसदशायां 'इदानीं कालो न तद्घटाधिकरणक:' 'तद्घटध्वंसविशिष्टकालो न कालिकेन तट्यटविशिष्टः' इत्यादिप्रतीत्या प्रसिद्धस्य कालवृत्तेः तद्घटाधिकरणकप्रतियोगिकभेदस्य तद्घटविशिष्ट मंदस्य च या प्रतियोगिता तदवच्छेदकेन स्वेन = तद्धटन अवच्छिन्ना = समानाधिकरणा या कालवृत्त्यधिकरणता तन्निरूपकत्वं तदुघटे व्याहतमेवेति भवति तत्र लक्षणसङ्गतिः । स्वपदेन विवक्षितकार्यग्रहणम् । परमाग्वादे हणवारणाय 'कालवृत्त्यन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदके ति स्वविशेषणम् ।।
कालविशेषावच्छेदेनैकस्मिन्नेव काले यो यदभावश्च वर्तते तस्यैवापदर्शिताधिकरणाताकत्वरूपस्य कार्यत्वस्य सम्भवः । दर्शितकार्यत्वस्य गुरुत्वाशङ्कायां कल्पान्तरमाह - यावत्कालवृत्तिभिन्नत्वं वेति । यावत्कालवृत्तिः परमाण्वादिः तद्भिन्नत्वञ्च घटादाविति भावः । न च यावत्कालवृत्तेः परमाणोः भेदस्य मनसि सच्चादतिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, यावत्कालवृत्तितावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदस्य विवक्षितत्वात्, मनसि यावत्कालवृनित्वस्य सत्त्वेन तदवच्छिन्नभेदाऽयोगादन्योन्याभावस्य स्वप्रतियोगितावच्छेदकव्यधिकरणत्वात् । न चान्त्यपक्षचतुष्टये प्रागभावेऽतिव्याप्तिरिति वाच्यम्, सावच्छिन्नकालवृत्तिपदार्थस्य कार्यत्वनये प्रागभावस्यापि लक्ष्यत्वात् । अत एव वृहत्स्याद्वादरहस्ये 'प्रागभावप्रतियोगित्वस्य पर्यवसितस्य तस्य प्रागभावेऽन्याप्तेश्व' (बृ. स्या.१. श्लो.१ टीका) इत्याभिधानं घटते । तस्याऽलक्ष्यत्वनये तु चरमपक्षचतुप्के 'सत्त्वे सतीति विशेषणं देयमिति न दोषः ।
प्रकृते कार्यत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपं न ग्राह्यम्, पक्षवृत्तिकार्यत्वस्य पक्षात्मकतया अनुगमकरूपाभावेन च सपक्षावृत्तित्वादसाधारण्यापत्तेः । अत एव पक्षताबच्छेदकत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपकार्यत्वस्येत्यपि प्रत्युक्तम्, स्वरूपसम्बन्धरूपकार्यताव्यक्तीनां तत्तद्व्यक्तिमात्रपर्यवसितत्वेनानुगतपक्षतावच्छेदकबिरहात् । न च अन्यतमत्वेनानुगतीकृतानां पक्षतावच्छेदकत्वमिति वाच्यम्, तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नभिन्नत्वरूपस्यान्यतमस्यानुगमकत्वे महागौरवात् । नृसिंहस्तु -> 'स्ववृत्तिमहाकालान्यत्व-कालिकविशेषणत्वो भयरसम्बन्धेन सत्तावत्त्वमेव कार्यत्वं सर्वत्राऽनुगनं हेतुः । महाकालव्यावर्तनाय स्ववृत्तिमहाकालान्यत्वस्य सम्बन्धकोटी निवेशः । स्ववृत्तित्वं तद्वत्त्वञ्च देशिकविशेषणतया बोध्यम् । परमाण्वादिवारणाय कालिकदिशेषतासम्बन्धनिवेश' (म.प्र.पू. ४१) इत्याह ।
'आद्यक्षणसम्बन्धित्वं कार्यत्वमि'त्यन्ये । 'नियतपश्चाद्भावित्वं कार्यत्वमि' त्यपरे । 'कृतिसाध्यत्वे सति कृत्युद्देश्यत्वं कार्यत्वमिति कश्चित् । 'अभूत्वा भावित्वं कार्यसमिति तु प्राञ्चः । कृतियोग्यत्वे सति अलौकिकत्वं कार्यत्वमिति मीमांसकाः। 'कारणत्वाभिमतवस्त्वभिन्नत्वमिति वेदान्तिनः । 'उपादानक्षणजन्यत्वं कार्यत्वमिति सौगताः । 'आविर्भावः कार्यत्वमिति
अतिव्याप्ति दोष का अवकाश नहीं है। (५) अन्य मनीपियों का यह कथन है कि कालवृत्ति अन्योन्याभाव के प्रतियोगितावच्छेदकीभूत स्व से अवच्छिन = 'समानाधिकरण अधिकरणता का निरूपकत्व ही कार्यत्व है। जैसे घटप्रागभावविशिष्ट या घटध्वंसविशिष्ट कालविशेष में घटादि कार्य से विशिष्ट काल का भेद रहता है। उसके प्रतियोगितावच्छेदक घट से अवच्छिन्न = समानाधिकरण अधिकरणता का निरूपकत्व घट में रहता है, वहीं घटनिष्ठ कार्यत्व है । परमाणु आदि नित्य पदार्थ से विशिष्ट काल का काल में भेद नहीं रहता है। अतः परमाणु आदि कालवृत्ति भेद की प्रतियोगिता का अपच्छेदक ही नहीं हो सकता । अतः परमाणु में तादृश अधिकरणता का निरूपकत्व नामुमकिन है । जो स्वयं काल में रहता हो और कालविशेष में उसका अभाव भी रहता हो उसी में दर्शित अधिकरणता का निरूपकत्व रहता है । अतः तादृश कार्यत्व नित्य पदार्थ में नामुमकिन है। स्वपद से यहाँ जन्य भाव घट आदि अभिमत है। (६) अन्य प्राज्ञ पुरुषों का यह मन्तव्य है कि कार्यत्व यावत्कालवृत्तिभिन्नत्वस्वरूप है। संपूर्ण काल में परमाणु आदि नित्य पदार्थ रहते हैं, मगर घटादि जन्य पदार्थ संपूर्ण काल में नहीं रहते हैं, क्योंकि अमुक काल में उसका अभाव भी रहता है। अतः घटादि जन्य पदार्थ में यावत्कालवृत्तिभिन्नत्व रहेगा । वही तनिष्ठ कार्यत्त्व है। इस तरह नैयायिक विद्वानों ने ही कार्यन्व को अनेकविध माना है, तब अनेकविध कार्यत्व से अवच्छिन्न की कारणता का अवच्छेदक कर्तृत्व भी एक नहीं हो सकता । जब कि इस तरह कार्यत्वावच्छिन्न के प्रति कर्तृत्वेन कारणता मानने पर भी अनेकविध कर्तृत्व के स्वीकार का गौरव अपराहत ही है। कार्यत्व भिन्न भिन्न होने पर उससे अवच्छिन्न भी भित्र भिन्न होगा, अवच्छेदक भिन्न होने पर अवभिन्न एक कैसे हो सकता है ? अवच्छिन्न भिन्न भिन्न होने पर उससे निरूपित कारणता कैसे एक हो सकेगी। निरूपक विलक्षण होने पर तत्रिरूपित कारणता भी भिन्न होगी। कारणता अलग अलग होने पर
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* 'यद्विशेषयोः..... न्यायस्याऽप्रामाणिकत्वम् * | जनकतावच्छेदकं कर्तृत्वमेकम् । घटादी कुम्भकारादीनां तादूप्येण हैतुतावश्यकत्वे सामा- 1 न्यतः कर्तृत्वेन तथात्वे मानाभावात् । यदिवशेषयो'रित्यादिन्यायस्याऽप्रामाणिकत्वात् ।
= = = =* गायलवा * साङ्ख्याः । 'परिणामविशेषः कार्यत्वमिति तु स्याद्वादिनो वयम् । इत्थञ्च कार्यत्वस्य नानात्वेन तदवच्छिन्ननिरूपितकारण
दकीभूतकर्तत्वस्याऽपि नानात्वाऽऽपातेन कार्यत्व-कर्तत्वाभ्यां कार्य-कारणभावाङ्गीकारे लाघवतर्कावतारासम्भवेन सन्दिग्धोवाधिप्रयुक्तव्यभिचारसंशयेन कार्यत्वनिष्ठव्याप्तिगोचरनिश्चयविघटनानानुमितिसम्भव इत्याशयेन प्रकरणाकृदाह- न तदवच्छिन्नजनकतावच्छेदकं = नानाकार्यत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकीभूतं कर्तृत्वं एकं सम्भवतीति शेषः ।।
वस्तुतः कर्तृत्वेन कार्यतावच्छिन्ननिरूपितकारणतावच्छेदकत्वमपि नास्ति ताद्रूप्येणैव कुलालादेः घटादिकर्तृत्वादित्याशयेनाऽह- घटादी कुम्भकारादीनां तादूप्येण = घटादिजननपरिणामपरिणतत्वेन, हेतुतावश्यकत्वे = हेतुत्वक्लृप्ती, सामान्यतः = ब्यापकधर्मतः, तथात्वे = कारणत्वे, मानाभावात् = प्रमाणविरहादिति । अयं भावः कुलालादेः घटजननपरिणामपरिणतत्वे सत्येवेतरकारणसाकल्यदशायां घट उत्पद्यते न तु शराबजननपरिणामपरिणतत्वे सतीति तधात्वेनैव कुलालादेः घटादिकारणत्वम् । एवं कुविन्दादेः पटजननपरिणामपरिणतत्त्वेनैव पटकारणत्वं न तु कर्तृत्वेन, अन्यथा कुलालादेरपि पटकारणत्वं प्रसज्येत । एतेन कार्यत्वं यदि कृतिजन्यत्वत्र्यभिचारि स्यात् तदा कृतिजन्यतावच्छेदकं न स्यादित्यनुकूलतर्कसत्त्वान्न दोष इति प्रत्युक्तम्, कृतित्वेन कार्यत्वेन कार्यकारणभावे मानाभावेनोक्ततर्कानवतारात् । न चाऽन्वयव्यतिरेकावेब मानमत्रेति वक्तव्यम्, कुलालकृतिसत्वे घटः तदभावे च घटाभाव इति विशिष्यवाऽन्वयव्यतिरेकग्रहात् विशिष्यैव कार्यकारणभावग्रहात् सामान्यतः कृतित्वकार्यत्वाभ्यां हेत-हेतमद्भाचे मानाभावात् ! न च विशेषतः कार्य-कारणभावग्रहेऽपि 'यद्विशेषयो' रित्तिन्यायेन सामान्यतः कार्यकारणभावग्रह इति वाच्यम्, उक्तन्याचे मानाभावेन सामान्यतः कार्यकारणभावासिद्धेरित्याशयेन प्रकरणकृहदाह- यद्विशेषयोरित्यादिन्यायस्येति । यद्विशेषयोः कार्य-कारणभावोसति बाधक तत्सामान्ययोरपि' इति : चाक्षुषं प्रति रूप स्पार्शनं प्रति स्पर्शः कारणम् । बहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षसामान्ये न रूपं न वा स्पर्शः कारणं, प्रभावाप्योः प्रत्यक्षे व्यभिचारात् । नापि गुणः कारणं, अतिप्रसङ्गात् । नापि रूपस्पर्शान्यतरत्कारणं, तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नभिन्नत्वरूपस्या-न्यतरत्वस्याऽपि गुरुत्वात, विनिगमनाविरहेण गुरुतरकारणताद्वयप्रसाञ्चेति न्याये सति बाधक इत्युक्तम् । अप्रामाणिकत्वादिति । न च कार्याभावस्य कारणाभाषप्रयोज्यतानियमेन कार्य प्रति कृतित्वेन कारणताऽनङ्गीकारे कार्याभावः
उसका अवच्छेदक कर्तृत्व भी पृथक् पृथक् होगा । अतः लाघब तर्क के अवतार से 'कार्य सकर्तृकं कार्यत्वात्' - इस अनुमान में शरीरजन्यत्वस्वरूप संदिग्ध उपाधि से प्रयुक्त व्यभिचार संदेह का प्रतिरोध नहीं हो सकता, क्योंकि उपर्युक्त रीति से लाधर तर्क ही नामुमकिन है। अतः कार्यत्व हेतु से पर्वतादि के कर्ता के स्वरूप में शंकर भगवान सिद्ध नहीं हो सकते ।
कुम्हारादि में ताप्य से हेलुता - स्यादादी ४ घटादी. इति । इसके अतिरिक्त बात यह भी ध्यातव्य है कि एक ही कुलाल दंड, चक्र, चीवर, मिट्टी आदि सामग्री समान होने पर भी कभी घट बनता है, तोकभी शराव, तो कभी खिलौना बनाता है । यह तभी उपपन्न हो सकता है, यदि कुम्हार ज्ञानात्मना घट, शराब, खिलौना आदि के साथ तद्प हो जाय । घटज्ञानपरिणत कुम्हार से घट की, शराबज्ञानपरिणत कुम्हार से शराब की और खिलौनाज्ञानपरिणत कुम्हार से खिलीने की उत्पत्ति होती है। अतः घटादि के प्रति कुम्हार आदि की तद्रूप से हेतुता माननी आवश्यक है । अतः अवश्य क्लुप्त नाप्य को छोड कर कर्तृत्व रूप से कारणता का स्वीकार करने में कोई प्रमाण नहीं है । तथा ताप्य तो एक नहीं है । घट के प्रति घटज्ञानात्मना, पट के प्रति पटज्ञानात्मना इत्यादि जो परिणामविशेष है, वही ताप्य है, जो एक नहीं है, अलग अलग है । अतः तादूप्य से कारणता का नैयायिक महाशय स्वीकार करें तो भी लाघव तर्क का अवतरण नामुमकिन है । अतः कार्यत्व हेतु में शरीरजन्यत्वस्वरूप संदिग्ध उपाधि से प्रयुक्त व्यभिचार संशय का निवारण नामुमकिन है । अतः तथाविध ताप्य के आश्रयविधया भी महेश्वर की सिद्धि नहीं | हो सकती है।
यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "तत् तत् परिणामविशेष से तत् तत् कार्य की कारणता का निर्णय विशेष कार्यकारणभाव का निश्चय है। विशेष कार्य-कारणभाव से सामान्य कार्यकारणभाव का निर्णय होता है। जैसे नील घट और नील कपाल, पीत घट और पीत कपाल, रक्त घट और रक्त कपाल के बीज कार्य-कारणभाव निश्चित होने
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४१५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ *शरीरलायनापेक्षया सग्राहकलापवस्य न्याय्यत्वम् * श समवायेन जन्यसत्त्वावच्छिन्नं प्रति विशेष्यतयोपादानप्रत्यक्षस्य हेतुत्वादस्तु व्दद्य
* जयललता * किंप्रयोज्य: ? इतिप्रश्ने तत्तत्कृत्यभावकूटप्रयोज्य इत्युत्तरकरणे गौरवभिया सामान्यतः कार्यकारणभावस्याऽवश्यमङ्गीकर्तव्यत्वात् । तथा च कार्याऽभावः किम्प्रयोज्यः ? इति प्रश्ने कृत्यभावप्रयोज्य इत्युत्तरकरणे लाघवम् । तच कृतित्वस्य कारणतावच्छेदकत्वमृते न सम्भवति, कारणतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नाभावस्यैव कार्यतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नाभावप्रयोजकत्वात् । तथा चैतल्लाघवमेव प्रकृतन्यायबीजमिति वाच्यम्, कारणतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नाभाव एव कार्याभावे प्रयोजक इति न नियमः, किन्तु स्वरूपसम्बन्धरूपप्रयोजकत्वं प्रतीत्यनुरोधेन लघ्यनतिप्रसक्तधर्मावच्छेदेन कल्प्यत इत्येव नियमः । तथा च लाघवादेव कारणतानवच्छेदककृतित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य कार्याभावप्रयोजकत्वं कृतित्वेन कार्यत्वेन च हेतु-हेतुमद्भावं विनाऽपि सूपपादमेव । न च घटत्व-पटत्व-कुलालकृतित्व-कुविन्दकृतित्वाद्यवच्छिन्नानन्तकार्य-कारणभावे गौरवनिश्चयरूपचाधकसत्त्वात् कार्यत्व-कृतित्वाभ्यामेक एव कार्यकारणभावः कल्प्यत इति वक्तव्यम्, तन्तुवायकृतिसत्त्वे घटोत्पादवारणाय विशेषत्तोऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां घटत्वकुलालकृतित्वादिना विडोषकार्य-कारणभावानामावश्यकत्वेन तादृशान्वयव्यतिरेकग्रहै। कार्यत्व-कृतित्वाभ्यां सामान्यकार्यकारणभावकल्पनेऽपि तादृशगौरवस्यावश्यमङ्गीकरणीयत्वात् । एतेन प्रवृत्ताविव घटादावपि ज्ञानादेरन्वय-व्यतिरेकाभ्यां हेतुत्वसिद्धेः तत्र घटत्व- पदत्वादीनामानन्त्यात्कार्थत्वमेव साधारण्यात कार्यतावच्छेदकम, शरीरलाघवापेक्षया सग्राहकलाघवस्य न्याय्यत्वात, कृतस्तु 'तद्विशेषयोरि ति न्यायात्सामान्यतोऽपि हेतुत्वमिति प्रत्युक्तम्, कार्यत्वस्य कालिकेन घटत्व-पटत्वादिमत्त्वरूपस नानात्वात, ध्वंसव्यावत्यर्थं देयस्य सत्त्वस्य विशेषण आवे विनिनानादिरहेगा निगरवार नियोशापावकटेनैव सामान्याभावो पपत्ती अतिरिक्तसामान्याभावे मानाभावेन 'यद्विशेषयोरि' त्यादिन्यायस्याऽत्यन्ताऽयुक्तत्वात्, अन्यथा करणस्याऽप्येकस्य सिद्ध्यापत्तेरित्यत्र प्रकरणकृतः तात्पर्यम् ।
नैयायिकी युक्त्यन्तरेणेश्वरं साधयति- अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्यान्वयः । समवायेन जन्यसत्त्वावच्छिन्नं प्रतीति । जन्यसत्वञ्च सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टसत्त्वं, विशिष्टस्य च न जातित्वमिति समवायसम्बन्धावच्छिन्न-जन्यसन्मा वैजात्यावच्छिन्न-कार्यताविशिष्टमात्रं प्रतीत्यर्थः । विशेष्यतया = स्वविशेष्यताऽऽख्यविषयतासम्बन्धेन उपादानप्रत्यक्षस्य = समवेतकार्यसमवायिकारणविशेष्यका परोक्षज्ञानस्य, हेतुत्वात् = हेतुत्वनिश्चयात् । यथा समवायेन घटादिकरणीभूते कपाले
पर घट सामान्य और कपाल सामान्य के बीच कार्य-कारणभाव का निश्चय होता है। अथवा अवयविरूप और अवयवरूप, अवयविरस और अवयवरस, अवयविगन्ध और अवयवगन्ध, अवयविस्पर्श और अवयवस्पर्श के बीच विशेष कार्यकारणभाव का निश्चय होने पर अवयविगुण और अवयवगुण के बीच सामान्य कार्यकारणभाव का निश्चय होता है। इस तरह घट और घटपरिणाम, पट और पटपरिणाम के बीच विशेष कार्यकारणभाव का निणर्य होने पर भी कार्यसामान्य और परिणामसामान्य के बीच (सामान्य) कार्य-कारणभाव निश्चित किया जा सकता है। इसलिए कार्यत्वावच्छिन्न के प्रति परिणामात्मना कारणता का निर्णय मुमकिन होने से तादृश परिणाम सामान्य (-ताप्य सामान्य) के आश्रयविधया तो पार्वतिपति की सिद्धि हो सकती है । नादृश कार्यकारणभाव में लायब होने से कार्यत्व हेतु में शरीरजन्यत्वस्वरूप सन्दिग्ध उपाधि से प्रयुक्त व्यभिचारसंशय का प्रतिरोध होने से तादृश अनुमिति होने में कोई दोष नहीं है" <- तो यह नैयायिककथन नामुनासिब है, क्योंकि 'विशेष कार्य और . विशेष कारण के बीच कार्य-कारणभाव निश्रित होने पर सामान्य कार्य और सामान्य कारण के बीच कार्यकारणभार होता है। इस नियम में कोई प्रमाण नहीं होने से उसका स्वीकार नहीं हो सकता है। अप्रमाणिक नियम के आधार पर ईश्वर की सिद्धि कैसे की जा सकती ? यदि उक्त नियम को प्रामाणिक माना जाय तब तो द्रव्य और जन्यभाव के बीच ही हेतु-हेतुमद्भाव की सिद्धि होने से तन्तु और पट, कपाल और पट के बीच विशेष कार्य-कारणभाव का व्यवहार और बुद्धि || अप्रामाणिक बनने की आपत्ति आयेगी ।
___ * ट्यणुगोपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वरसिदि जामुमकिन *
अथ सम. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाता है कि -> "समवाय सम्बन्ध से जन्य सत्तावान् के प्रति विशेप्यतासम्बन्ध से उपादानविशेष्यक प्रत्यक्ष हेतु है, यह प्रसिद्ध कार्य-कारणभाव है। समवायसम्बन्ध से यद, जो कि जन्यसत्तावान् है, कपाल में उत्पन्न होता है, वहाँ कपालबिशेप्यक कुलालप्रत्यक्ष विशेप्यता सम्बन्ध से रहता है । यदि कुम्हार को कपाल का प्रत्यक्ष न हो तो वह घट को कैसे उत्पन्न कर सकता ? इस तरह द्वयणुक आदि कार्य भी जन्यसत्तावान् है।
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*यणुकादावुपादानप्रत्यक्षस्याऽकारणता * णुकादिजनकग्रत्यक्षाश्रयतयेश्वरसिन्दिरिति चेत् ? ल, अन्यस्योपादानप्रत्यक्षे सत्यप्यन्यस्य कार्यानुत्पत्तेश्चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्वादिना हेतुत्वे व्दयणुकादानुपादान प्रत्यक्षस्याऽहेतुत्वात् ।
-* जयलता. * विशेष्यतासम्बन्धेन दर्तमानस्योपादानभूतकपालसाक्षात्कारस्याश्रयत्वं कुलाले तथा समवायेन व्यणुकाधिकरणीभूते परमाणौ विशेष्यतया वर्तमान्सय परमाणुविशेष्यकसाक्षात्कारस्याश्रयविधयेश्वरसिद्धिरित्याशयेनाह-बचणुकादिजनकप्रत्यक्षाश्रयतया = व्यणुकत्र्यणुकजनकस्य परमाणु-द्वयणुकविशेष्यकप्रत्यक्षस्याश्रयविधया, ईश्वरसिद्धिः = अस्मदादिविलक्षणपुरुषविशेषसिद्भिः, परमाणवाद्यदर्शिनामस्मदादीनां द्वचणुकाद्युपादानप्रत्यक्षाश्रयत्वबाधेन पारिशेषन्यायादस्मदादिविलक्षणस्य पुरुषमुख्यस्येश्वरप्रतिपाद्यस्य तदाश्रयत्वेन सिद्धिरित्यत्र नैयायिकाकूमत् ।
स्याद्वादी तदपहस्तयति - नेति । अन्यस्य = मैत्रादेः, उपादानप्रत्यक्षे = घटाधुपादानविशेष्यकसाक्षात्कारे सत्यपि अन्यस्य = चैत्रादेः, कार्यानुत्पत्तेः = घटादिकार्यानुत्पादात् । समवायेन चैत्रीयघटाद्यधिकरणत्वेनाऽभिमते कपालादौ विशेष्यतासम्बन्धेन कपालादिविशेष्यकस्य मैत्रादिसमवेतस्य प्रत्यक्षस्य सत्त्वेऽपि चैत्रीयघटानुत्पादेनाऽन्वयव्यभिचारान्नायं कार्य-कारणभायो युक्तो येन तबलात्पारिदोषन्यायेनेश्वरसिद्भिः स्यादिति स्याद्वाद्यभिप्रायः ।
ननु जन्यसन्मात्रबैजात्य-समवायिकारणप्रत्यक्षत्वाभ्यां सामान्यतः कार्य-कारणभावाभ्युपगमेऽपि विशेष्यतया कुलालसमवेतोपादानप्रत्यक्षसत्त्वे पटोत्पत्तिवारणाय विशेषतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां घटत्व-पटत्व-कपालगोचरकुलालप्रत्यक्षत्व-तन्तुविशेष्यक
शेषकार्यकारणभावाऽभ्यपगमानोपदर्शितान्बयव्यभिचाराबकाशः, समवायेन चेत्रीयघट प्रति स्वविशेष्यता सम्बन्थेन कपालधर्मिकचैत्रीयप्रत्यक्षस्य हेतत्वादिति नैयायिकाऽशङ्कायामाह. चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्वादिना हेतत्वे = चैत्रीयघटादिकारणत्वे नैयायिकेनाऽभ्युपगम्यमाने इति गम्यते । अत्र दोषमाह- द्वयणुकादाविति । आदिपदेन त्र्यणुकादिग्रहणम् । उपादानप्रत्यक्षस्य = परमाण्वादिविशेष्यकसाक्षात्कारस्य, अहेतुत्वात् = हेतुत्वाऽसम्भवादिति । विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नोपादानप्रत्यक्षत्वारच्छिन्नकारणतानिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकधर्मत्वस्य परेण जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्ये एव स्वीकारेण द्ववणुकत्वादेस्तदसम्भवान्न समवायेन द्ववणुकत्वाद्यवच्छिन्ने विशेष्यतया उपादानप्रत्यक्षसामान्यस्य कारणत्वं सम्भवति । न च समवायेन चणुकादौ विशेष्यतयेश्वरीयोपादानप्रत्यक्षस्य हेतुत्वसम्भवः; अन्योन्याश्रयकलङ्कस्य दुःप्रक्षालनीयत्वापत्तेः, ईश्वरसिद्धी सत्यां व्यणुकादावीश्वरीयोपादानप्रत्यक्षकारणत्वसिद्धेः, तत्सिद्धौ चेश्वरसिद्धेरिति । चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्वादिना तु व्यणुकादिकारणत्वा सम्भव एव, सम्भवे वा कृतमीश्वरेण । न चैवं चणुकादौ जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्यस्योपादानप्रत्यक्षप्रयोज्यत्वेऽपि
वह समवाय सम्बन्ध से परमाणु आदि में उत्पन होता है। अतः पणुकादि के कारण परमाणुआदिविशेप्यक प्रत्यक्ष भी विशेष्यतासम्बन्ध से परमाणु आदि में रहना चाहिए, क्योंकि कार्यतावच्छेदकसम्बन्ध से कार्याधिकरणविधया अभिमत में कारणताचच्छेदक-सम्बन्ध से कारण के रहने पर ही कार्य की उत्पत्ति हो सकती है। मगर परमाणु आदि विशेष्यक प्रत्यक्ष आमजनता
को तो नहीं हो सकता । अतः आमजनता से विलक्षण पुरुषविशेष को ही परमाणुआदिविशेष्यक प्रत्यक्ष का आश्रय मानन || चाहिए । वह पुरुषविशेष ही ईश्वर है । अतः समवायसम्बन्धावच्छिन्न-व्यणुकत्वापच्छिम कार्पता से निरूपित विशेप्यतासंसर्गावच्छित्रपरमाणुप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न कारणता के अधिकरणीभूत परमाणुप्रत्यक्ष के आश्रयविधया त्रिलोचन ईश्वर की सिद्धि हो सकती है"
नान्य. इति । मगर यह नैयायिककथन भी ईश्वरसाधक नहीं हो सकता । इसका कारण यह है मैत्र को तन्तुविशेप्यक 'इमे तन्तवः' इत्याकारण प्रत्यक्ष होने पर भी चैत्र से पट की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः केवल उपादानप्रत्यक्षत्वरूप से जन्य भाव पदार्थ के प्रति कारणत्व की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि उपर्युक्त अन्चय व्यभिचार तादृश कार्यकारणभाव के निश्चय का विघटक है । अत चेत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्व आदि रूप से ही जन्य भाव की कारणता का स्वीकार करना होगा। अर्थात् समवायस म्बन्ध से चैत्रीय पट के प्रति विशेष्यता सम्बन्ध से चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष (= तन्तुविशेप्यक साक्षात्कार) हेतु है, समवाय सम्बन्ध से मैत्रीय पट के प्रति विशेष्यता सम्बन्ध से मैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष हेतु है.... इत्यादि रूप में कार्यकारणभाव का स्वीकार करना उचित है। तब अन्वय व्यभिचार का निवारण हो सकता है। मगर उपादानप्रत्यक्ष के विशेषणविधया चैत्र, मैत्र आदि प्रसिद्ध व्यक्तियों का ही निवेश हो सकता है, न कि अप्रसिद्ध ईश्वर का । अतः द्वयणुक आदि के उपादान परमाणु आदि का प्रत्यक्ष ईश्वरीयोपादानप्रत्यक्षत्वरूप से तो द्वयणुकादि जन्य भाव कार्य का कारण नहीं हो सकता । अप्रसिद्ध का विशेषणविधया निवेश अदृष्ट है । तथा अन्य व्यभिचार दोष की वजह इयणुक आदि जन्य भाव के प्रति उपादानप्रत्यक्षत्वरूप
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४१७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड:-२ का.५
* उपादानप्रत्यक्षकारणतामीमांसा *
अस्तु वा लाघवादुपादानप्रत्यक्षस्य स्वजन्यकृतिविशेष्यत्वसम्बन्धेनैव हेतुत्वम् । न च चैत्रकृतेरप्यन्तत: कालोपाधितयाऽपि मैत्रोपादानप्रत्यक्षजन्यतयाऽतिप्रसङ्गः, सामानाधिक
* जयलता * द्वयणुकत्वादेराकस्मिकत्वप्रसङ्गभिया तदाश्रयजनकोपादानप्रत्यक्षाश्रयत्वेनेश्वरसिद्धिरिति वक्तव्यम्, अस्मन्नय बिनसापरिणामप्रयो. ज्यत्वेन तदाकस्मिकत्वाच्यत्वात् ।
प्रौहिवादेन प्रकरणकृदाह- अस्तु वेति । लाघवात् = कारणतावच्छेदकधर्मबाहुल्यमच्यवप्रयुक्तलाघवात्, उपादानप्रत्यक्षस्य स्वजन्यकृतिविशेष्यत्वसम्बन्धेनैवेति ण्वकारेण स्वविशेष्यत्तासम्बन्धव्यवच्छेदः कृतः । समवायेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्याबच्छिन्न प्रति हेतुत्वम् । सम्बन्धकुक्षिप्रविष्टजन्यपदं प्रयोज्यपरं, ज्ञानस्येच्छाजनकत्वात, चिकीर्षायाः कृतिजनकत्वात् । कृते सम्बन्धकुक्षी निवेशेन चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षे सति मैत्रीयप्रयत्नादुपादेयोत्पत्त्यतिप्रसङ्गानवकाशः । कृती कारणत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वेन लाघवञ्च । य इष्टसाधनत्वादिना जानाति स चिकीर्षति यतते नियमेन कपालप्रत्यक्षजन्यचिकीर्षया कपाल. विशेष्यककृतिजननदशायामेव घटोपादानगोचरकुलालसमवेतप्रत्यक्ष स्वजन्यजन्यकृतिविशेष्यतासम्बन्धेन कपाले वर्तते तदैव तत्र समवायेन घटोऽपि जायत्त एवेति कृत्यनुत्पादावस्थायामुपादानप्रत्यक्षे सत्यपि कार्यानुत्पादे प्यन्वयव्यभिचारानवकाशः, कारणतावच्छेदकसम्बन्धेनोपादाने कारणस्यैवाऽसत्त्वादिति भावः ।
ननु 'जन्यानां जनकः कालः' (कारि.४५) इति वचनात् मैत्रीयकपालप्रत्यक्षकाले या तन्तुगोचरचैत्रीयकृतिः भविष्यत्ति तं प्रति घटोपादानविषयकमैत्रीयप्रत्यक्षकालस्य कारणत्वं तादृशकालोपाधिनया मैत्रसमवेतकपालप्रत्यक्षस्याऽपि कारणत्वमिति तन्तुविशेष्यकचैत्रसमवेतकृतेः कालोपाधितया कपालगोचरमैत्रसमवेतप्रत्यक्षजन्यतया समवायन चैत्रीयपटं प्रति स्वजन्यकृतिविदोष्यतासम्बन्धन कपालगोचरमैत्रसमवेतप्रत्यक्षस्याऽपि कारणत्वं प्रसज्येत । न च कालोपाधितया जन्यजनकभावस्य न प्रामाणिकत्वमिति वाच्यम्, सूर्योदयसमये एव भुआनस्य भुजिक्रियां प्रति कालविशेषणतया सूर्योद्गमस्य हेतुत्वस्याउनपलपनी- ! यत्वात्. अन्यथा ततः प्रागपि भोजनं प्रसज्येतेति नोक्तसम्बन्धेनोपादानप्रत्यक्षस्य कारणत्वं घटामश्वतीत्याशङ्कामरा क्षिपति - न चेति । शङ्काग्रन्धस्य भावितत्वात्स्पष्टत्वमेव । अतिप्रसङ्गनिराकरणाय हेतुमाह - सामानाधिकरण्यप्रत्यासत्त्येति । से तो उपादानप्रत्यक्ष हेतु ही नहीं हो सकता । अतः तादृश उपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविश्या ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। कारण असिद्ध होने पर कारणश्रय की कैसे सिद्धि हो सकती है ? अतः ईश्वर की कल्पना केवल कल्पना है, न कि वास्तविकता।
उपादानप्रत्यक्षकाता में लायत अस्तु वा. इति । अथवा उपादान प्रत्यक्ष को उपादेय का कारण माना जा सकता है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने में लापन है। लाघव यह है कि उपादान प्रत्यक्ष को जन्य भाव का कारण मानने पर इच्छा, प्रयत्न का कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में निवेश करने से ही अन्वयव्यभिचार का वारण हो सकता है । वह इस तरह - उपादान के प्रत्यक्ष से उपादानविशेप्यक प्रयत्न उत्पन्न होता है । उपादानप्रत्यक्ष के बिना तद्विशेप्यक प्रयत्न नहीं होता है। अतः उपादानविशप्यक प्रयत्न के प्रति उपादानप्रत्यक्ष कारण होता है। उसी उपादान में समचाय सम्बन्ध से उपादेय उत्पन्न होता है । अतः समवाय सम्बन्ध से कार्य के प्रति उपादानप्रत्यक्ष स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध सं हेतु कहा जा सकता है। उदाहरणरूप से कपालप्रत्यक्ष स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध से कपाल में रहेगा और वहाँ समवाय सम्बन्ध से घट उत्पन्न होता है। मगर जब तक कुम्हार कपाल में प्रयत्न नहीं करता है, तब तक स्वजन्यविशेप्यतासम्बन्ध से कपालप्रत्यक्ष कपाल में नहीं रहता है, क्योंकि स्व = कपालप्रत्यक्ष से कपालविशेप्पक प्रयत्न उत्पन्न ही नहीं हुआ है। इस तरह से उपादानविशेष्यक प्रयत्न का कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में प्रवेश करने से स्वतन्त्र कारणता से स्वीकार का गौरव भी अप्रसक्त है तथा चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष होने पर मैत्रीय प्रयत्न से उपादेय की उत्पत्ति के अतिप्रसङ्ग की भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष से मैत्रीय उपादानविष्यक प्रयत्न जन्य नहीं होने से स्वजन्यकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष प्रयत्न उपादान में नहीं रहता है । अत: चैत्रीयत्व आदि का उपादानप्रत्यक्ष के विशेषणविषया निवेश करने का गौरव भी अनावश्यक है । अतः स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध से उपादान प्रत्यक्ष को समवाय सम्बन्ध से उपादेय का कारण मानना युक्त है।
* ईश्वरप्रत्यक्षा में स्वमन्यप्रयत्नविशेष्यतासम्बन्ध से कारणता नामुमकिन * न च चैत्र, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि ->"समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति ।
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* जन्यताविशेषप्रकाशनम् *
४१८ रण्यप्रत्यासत्या जन्यताया विवक्षितत्वात् । तथा चेश्वरप्रत्यक्षस्थाऽनेन सम्बन्धेन न हेतु- । त्वमिति नोक्तयुक्त्येश्वरसिन्दिः । अपि चोपादानप्रत्यक्षाचतेन न हेतुत्व, तदनुमित्यादिनापि योगिनां मनोवहनाडयादी
== * गयलता * समवायघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्धेनेत्यर्थः । तेन न कालिकादिना सामानाधिकरण्यमादाय पूर्वदोषतादवस्थ्यम् । जन्यातायाः = उपादानकृतिनिष्ठप्रयोज्यतायाः, विवक्षितत्वादिति । मैत्रीयोपादानप्रत्यक्षस्य समवायेन मैत्राधिकरणकत्वाच्चैत्रीयकृतेश्च चैत्रसमवेतत्वेन तद्व्यधिकरणत्वान्न सामानाधिकरण्यसंसर्गेण मैत्रीयोपादानप्रत्यक्षजन्यत्वम् । स्वजन्यकृतिविशेष्यतासम्बन्धेन कपालगोचरमैत्रसमवेतप्रत्यक्षस्य चैत्रीयपटोपादानेऽवर्तमानत्वेन नीपर्शितातिप्रसङ्गावकाश इति प्रकरणकृदाशयः ।
"अस्त्वयमेव कार्यकारणभावः तथापीश्वरः सेत्स्यत्येव, यणुकोपादानप्रत्यक्षस्य द्वयणुकजनकस्याऽस्मदादिष्वसम्भवात तदाश्रयतयेश्वरपदप्रतिपाद्यस्य सिद्भिः | सिद्धो धर्म एको नित्यश्चेत्तदा लाधवमिति न्यायसहकारेणेश्वरीयज्ञानादौ नित्यत्वमेकत्वश्च भासत' इति पराशङ्कायामाह- तथा चेति । लाघवसहकारेणोक्तकार्यकारणभावसिद्धी चेति । ईश्वरप्रत्यक्षस्य - उपादानगोचरेश्वरसमवेतसाक्षात्कारस्य, अनेन = स्वजन्य कृतिविशेष्यत्वलक्षणेन, सम्बन्धेन न हेतुत्वं सम्भवति, तत्कृत्यादेः नित्यत्वाऽभ्युपगमेन सामानाधिकरण्यसम्बन्धेनेश्वरीयोपादानप्रत्यक्षजन्यत्वविरहेण स्वजन्यकृत्यसिद्धी तद्घटितसम्बन्धेनेश्वरीयोपादानप्रत्यक्षस्य कारणत्वाऽसम्भवान, न उक्तयुक्त्या = समवायेन जन्यसन्मानं प्रति उपादानप्रत्यक्षस्य हेतुत्वमिति युक्त्या, यणुकोपादानप्रत्यक्षाश्रयविधया ईश्वरसिद्धिः सम्भवति ।।
किञ्च यद्भर्मावच्छिने यदर्थिप्रवृत्तिः तद्धर्मावच्छिन्ने तत्यकारकज्ञानमात्रस्य हेतुत्वात्कथमीश्वरीयोपादानज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं ! सिद्धयेत ? इत्याशयेन प्रकरणकृदाह- अपि चेति । उपादानप्रत्यक्षत्वेन न हेतुत्वं = उपादानप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नत्वं समवायसम्बन्धावच्छिन्न-जन्यसन्मात्रवत्तिवेजात्यावच्छिन्नकार्यत्वनिरूपितकारणतायां नास्ति । हेतमाह - तदनमित्यादिनाऽपि = उपादानगोचरानुमित्यागमादिना:पि प्रणिधानाद्यर्थं योगिनां मनोवहनाडयादी प्रवृत्तिश्रवणादिति । योगिपदमुपादानानुमित्यादिना स्वजन्यकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से जन्यभावोपादानविशप्यक प्रत्यक्ष को कारण मानने पर तो चेत्रीय कृति से जन्य घट के प्रति मैत्रीय कपालप्रत्यक्ष में भी कारणता के स्वीकार का अतिप्रसंग आयेगा, क्योंकि चैत्रीपप्रयत्न जन्य होने से काल की उपाधि बनता है और जन्यभावमात्र के प्रति काल साधारण कारण होता है। अतः कालिक सम्बन्ध से मैत्रीय उपादनप्रत्यक्ष भी चैत्रीय प्रयत्न का कारण होगा । अत: चैत्रीय प्रयत्न में मैत्रीयउपादानप्रत्यक्ष से जन्यत्व रहने से क्षेत्रीय घटादि के प्रति स्वजन्यकृतिविशेष्यतासम्बन्ध से मैत्रीय कपालादिप्रत्यक्ष में कारणता के स्वीकार का अतिप्रसङ्ग होगा" <- तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जन्यता कालिकसम्बन्ध से नहीं अपितु समवायघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्ध से विवक्षित है। क्षेत्रीय कृति समवाय सम्बन्ध से चैत्र में रहती है। अतः सामानाधिकरण्यसम्बन्य से वह क्षेत्रीय प्रत्यक्ष से जन्य है, न कि मैत्रीय प्रत्यक्ष से । समवाय सम्बन्ध से मैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष की अधिकरणता चैत्र में नहीं रहती है। इस तरह समवायचटिन सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से मैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष से चैत्रीय उपादानप्रयत्न जन्य ही नहीं होने से उपर्युक्त अतिप्रसंग की सम्भावना नहीं है। अतः समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति स्वजन्यकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से जन्यभावोपादानप्रत्यक्ष को कारण माना जा सकता है। मगर यह सिद्ध होने पर ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नैयायिक के अभिमत ईश्वरप्रत्यक्ष में स्वजन्यप्रयत्नविशेष्यतासम्बन्य के कारणता ही नामुमकिन है। नैयायिक के मतानुसार ईश्वर के प्रत्यक्ष की भाँति ईश्वरीय प्रयत्न भी नित्य ही है । जब कि ईश्वरसमवेतप्रत्यक्षजन्यत्व ही ईश्वरीय प्रयत्न में नहीं है, तब समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति ईश्वरप्रत्यक्ष स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध से कारण कैसे हो सकेगा ? उपर्युक्त सम्बन्ध से ईश्वरप्रत्यक्ष में जन्यभाव की कारणता ही नामुमकिन होने से समवाय सम्बन्ध से इयणुक के प्रति स्वजन्यप्रयन्नविशेप्यतासम्बन्ध से कारणीभूत परमाणुप्रत्यक्ष की एवं उसके आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि भी उपयुक्त नैयायिकयुक्ति से नहीं हो सकती। अतः 'समवाय से जन्यसन्मात्र के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से जन्यसत्पदार्थ के उपादान का प्रत्यक्ष कारण है - यह नैयायिकीय युक्ति भी ईश्वरसाधक नहीं हो सकती है।
उपादानप्रत्यक्षपेत कारणता हो असिन्द - स्थादादी अपि चा, इति । वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तब तो समराय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति उपादानप्रत्यक्ष | में कारणता ही असिद्ध है, क्योंकि उपादान की अनुमिनि आदि से भी उपादानप्रयत्न हो सकता है और उपादेय भी उत्पन्न
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४१९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ कर. ५
* महेवप्रत्यक्षस्यासिद्धता
प्रवृत्तिश्रवणात् । तथा चेश्वरप्रत्यक्षमप्यसिद्धमेव बोध्यम् । न च तस्यानुमित्यादिरूपत्वे परामर्शादिजन्यतावच्छेदककोटौ जन्यत्वनिवेशे गौरवमिति तद्भेदे सिदे पारिशेष्यात्प्रत्य
* जयलता
कार्यं कुर्वतामुपलक्षणम् । अनलपरमाण्वाद्यपरोक्षज्ञानविकलानामङ्गनादीनामपि तदनुमित्यादिना अनलादी शतशः प्रवृत्तेर्दर्शनात् अस्थिमज्जामांसाद्युपादानगोचरप्रत्यक्षज्ञानरहितानामपि गर्भस्थ बालादीनां नदपरोक्षज्ञानेन सहस्राशः तत्र प्रवृत्तेरुपलम्भात् नोपादानसाक्षात्कारत्वंन कारणत्वं कल्पनामर्हति । तथा च = उपादानप्रत्यक्षत्वेन कारणत्वासिद्ध्या च समवायेन चणुकादिकार्यं प्रति कारणविया ईश्वरप्रत्यक्षं परमाण्वादिगोचरेश्वरसमवेतप्रत्यक्षं कारणतावच्छेदकधर्मविधया च तत्र प्रत्यक्षत्वं,
असिद्धमेव बोध्यम् ।
पराशङ्कां निराकर्तुमाह- न चेति । तस्य = द्व्यणुकाद्युपादानगोचरज्ञास्य, अनुमित्यादिरूपत्वे आदिपदेनोपमितिशाबोधग्रहणं, परामर्शादिजन्यतावच्छेदककोटी = परामर्श-सादृश्यज्ञानपदज्ञाननिष्ठकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदककुक्षी, जन्यत्वनिवेशे गौरवमिति । समवायेन जन्यसन्मात्रं प्रति उपादानज्ञानस्य हेतुत्वाऽभ्युपगमेन सिद्धं द्व्यणुकाद्युपादानज्ञानं यद्यनुमिर्तिस्वरूपं स्यात् तदा परामर्शजन्यतावच्छेदकमनुमितित्वं न स्यात् किन्तु जन्यानुमितित्वं स्यात्, अनतिरिक्तवृत्तित्वात् । यदि हि तदुमितिरूपं स्यात् तर्हि सादृश्यज्ञानकार्यतावच्छेदकमुपमितित्वं न स्यात्, ईश्वरीयोपमितेर्नित्यत्वेनोपमितित्वस्य सादृश्यज्ञाननिरूपितकार्यतातिरिक्तवृत्तित्वात् किन्तु जन्योपमितित्वमेव तथा स्यात् । यदि च तच्छाच्दबोधात्मकं स्यात्तर्हि पदज्ञानत्वाबच्छिन्नकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वं शाब्दबोधत्वस्य न भवेत् नित्यवृत्तिधर्मस्य कार्यतानवच्छेदकत्वनियमादिति जन्य - शाब्दबोधत्त्वस्यैव तत्त्वं वाच्यमिति गौरवभिया ईश्वरसमवेतस्य द्व्यणुकाद्युपादानगोचरज्ञानस्यानुमित्यादिभिन्नत्वं सिध्यति । ततः पारिशेषन्यायात्तस्य प्रत्यक्षत्वसिद्धिरित्याशयेन पर आह- तद्भेदे = अनुमित्यादिभेदे सिद्धे पारिशेष्यात् ईश्वरीयज्ञाने प्रसक्तानुमितित्वोपमितित्वशाब्दबोधत्वानामनुभवत्वसाक्षाद्रचाप्यानां प्रतिषेधात् शिष्यमाणे प्रत्यक्षत्वे सम्प्रत्ययात् तत्र प्रत्यक्षत्वसिद्धिः । न च तस्य स्मृतित्वमेवास्थिति वाच्यम्, अनुभवजन्यतावच्छेदककोटौ स्मृतित्वं विहाय जन्यस्मृतित्वोपगमे गौरवादिति तस्य प्रत्यक्षत्वमेव युक्तमिति शङ्काशयः ।
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हो सकता है । यह तो नैयायिक को भी अवश्य स्वीकार्य होगा, क्योंकि योगी पुरुष मनोवाहक नाडियों की अनुमिति कर के उनमें प्रवृत्ति करते हैं, समाधि लगाते हैं - यह नैयायिकसम्प्रदाय में भी सुना गया है। जादूगर भी पेंडा, बरफी आदि के उपादान का प्रत्यक्ष किये बिना ही अपने मंत्र के बल से पेंडा आदि का निर्माण करता है । अरे 1 पामर लोग भी अनि के परमाणु आदि उपादान का प्रत्यक्ष किये बिना ही अग्नि को उत्पन्न करते हैं । अतः परमाणु आदि का ईश्वरप्रत्यक्ष भी असिद्ध ही है । अतः परमाणुप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती ।
न त इति । यहाँ नैयायिक की ओर से कहा जाय कि “योगी की भाँति ईश्वर का भी परमाणुविषयक ज्ञान अनुमितिस्वरूप माना जाय तब तो परामर्श की कार्यतावच्छेदक कोटि में जन्यत्व का भी निवेश करने का गौरव होगा, क्योंकि अनुमितित्व को ईश्वरीय अनुमिति में भी रहेगा, जहाँ परामर्श की कार्यता नहीं रहती है। कार्यता की अतिरिक्तवृत्ति धर्म कार्यता अवच्छेदक कार्यता का नियामक कैसे हो सकता है ? अतः परामर्शजन्यतावच्छेदक जन्यानुमितित्व मानना होगा । इस तरह ईश्वर का परमाणु आदिविषयक ज्ञान उपमिति आदिस्वरूप होगा, तो सादृश्यज्ञानादि का जन्यता अवच्छेदक उपमितित्व आदि न हो कर जन्योपमितित्व आदि धर्म मानना होगा । ईश्वरज्ञान को प्रत्यक्षात्मक न मानने पर परामर्शादि की कार्यतावच्छेदककोटि में जन्यत्व का निवेश करने का गौरव उपस्थित होता है, क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान तो नित्य होता है। इस गौरव दोप के सबब ही नित्य ईश्वरीय परमाणु आदिविषयक ज्ञान अनुमिति, उपमिति, शाब्दबोधस्वरूप नहीं माना जा सकता । प्रसक्त का प्रतिषेध होने से तथा वह ज्ञान होने से पारिशेष न्याय से ईश्वरीय ज्ञान में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि होती है । अतः ईश्वर के ज्ञान को प्रत्यक्षस्वरूप ही मानना उचित है । अतः परमाणुआदि के प्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि हो जायेगी" - तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि ईश्वरज्ञान को प्रत्यक्षात्मक मानने पर भी इन्द्रियादि की जन्यतावच्छेदक कोटि में जन्यत्व के निवेश का गौरव तो अव्याहत ही है । इन्द्रिय का जन्यतावच्छेदक केवल प्रत्यक्षत्व नहीं हो सकता, क्योंकि कार्यताशून्य नित्य ईश्वरप्रत्यक्ष में भी वह रहता है । इन्द्रियकार्यता से अतिरिक्तवृत्ति होने की वजह प्रत्यक्षत्व इन्द्रिय का कार्यतावच्छेदक नहीं हो सकता । अतः जन्यप्रत्यक्षत्व को ही इन्द्रिय का कार्यतावच्छेदक मानना होगा । अतः ईश्वर के ज्ञान को प्रत्यक्षस्वरूप मानने पर भी कार्यतावच्छेदककोटि में जन्यत्व के निवेश का गौरव तो अपरिहार्य ही बनता है। हाँ,
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* सम्भतितर्कवृत्तिसंवाद*
क्षत्वसिद्धिः, एवमपीन्द्रियादिजन्यतावच्छेदककोटौ जन्यत्वप्रवेशे गौरवस्य तुल्यत्वात् । किञ्च सकलकार्यजनक नित्यैकप्रत्यक्षसिद्धावपि नेश्वरसिद्धिः, गुणस्य साश्रयकत्वव्याप्तौ मानाभावात्,
* जयलता *
प्रकरणकारोऽभ्युपगमवादेन तन्निराकरोति एवमपीति । द्र्यणुकाद्युपादानगोचरेश्वरीयज्ञाने प्रत्यक्षत्वाऽभ्युपगमेऽपि इन्द्रयादिजन्यतावच्छेदककोटी इन्द्रिय- वासविकर्ष-वादिनिका निरूपितायाः कार्यताया अवच्छेदकत्वकुक्षौ जन्यत्वप्रवेशे गौरवस्य तुल्यत्वादिति । न ही वरीयोपादानज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वे इन्द्रियादिजन्यतावच्छेदकं प्रत्यक्षत्वं सम्भवति नित्यानित्यवृत्तितथा तस्य कार्यतानवच्छेदकत्वात् किन्तु जन्यप्रत्यक्षत्वस्यैव तत्त्वं परेण वाच्यम् । तथा च कार्यतावच्छेदकशरीरे जन्यत्वनिवेशस्तु | सम एव । न च मया जन्य प्रत्यक्षमात्रवृत्तिवैजात्यस्यैवेन्द्रियादिकार्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमान्न दोषः जन्यत्वादेः तत्परिचायकत्वादिति वाच्यम्, अतिरिक्त बैजात्यकल्पने गौरवात् मम जन्यानुमित्यादिमात्रवृत्तिवैजात्येऽपि परामर्शादिजन्यतावच्छेदकत्वस्य सुवचत्वात् । ततश्चानुमितित्वादिना विनिगमनाविरहान तस्य प्रत्यक्षत्वसिद्धिरिति स्याद्वाद्याशयः ।
४२०
किञ्च, उपादानप्रत्यक्षस्य लौकिकस्य हेतुत्वात्कथमीश्वरे तत्सिद्धिः ? अस्तु वा तस्य प्रत्यक्षत्वं तथापि निराश्रयमेव | तदस्तु । दृष्टविपरीतकल्पनभिया तु नित्यज्ञानादिकमपि कथं कल्पनीयम् ? अभिहित श्रायमेवाऽर्थः →>> 'बुद्धिश्वेश्वरस्य यदि नित्या व्यापिकेवाऽभ्युपगम्यते, तदा संवाऽचेतनपदार्थाधिष्ठात्री भविष्यति इति किमपरतदाधारेश्वरपरिकल्पनया ?' <- इतनादिना सम्मतिटीकायामपीत्याशयेन प्रकरणकारो महेश्वरमुन्मिलयितुमभ्युपगमवादेन प्राह- किश्वेति । कार्य स्वोपादानप्रत्यक्षजन्यं कार्यत्वादित्यनुमानेन प्रकृते सकलकार्यजनकनित्यैकप्रत्यक्षसिद्धावपि नेश्वरसिद्धिः ।
ननु नित्यैकप्रत्यक्षसिद्ध सत्यामस्मदादिषु तद्वाधेन तदाश्रयविधयेश्वरसिद्धिरवश्यम्भाविनी, गुणत्वस्य साश्रयकत्वव्याप्यत्त्वात् । प्रयोगश्चैवं विवादास्पदीभूतं प्रत्यक्षं सायकं गुणत्वात्, घटनीलरूपवदित्याशङ्कायां प्रकरणकार : प्राह- गुणस्य 'साश्रयकत्वव्याप्तौ मानाभावादिति । स्वसमवायिकारणनाशानन्तरमेव गुण्णानां नाशाभ्युपगमात् क्षणमेकमनन्तानां गुणानां निर. धिकरणत्वात्तादृशव्याप्ती व्यभिचारेण मानाभावः । अनन्तानां गुणानां क्षणमेकमिव नित्यस्यैकस्य प्रत्यक्षस्यानन्तक्षणं निराश्रयत्वे बाधकाभावान्नेश्वरसिद्धिः ।
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पहले परामर्शादि की कार्यतावच्छेदक कोटि में जन्यत्र के निवेश का गौरव होता था, अब वह इन्द्रियादि की कार्यतावच्छेदक कोटि में प्रसक्त होता है; मगर कार्यतावच्छेदककोटि में जन्यत्व के प्रवेश का गौरव तो ज्यों का त्यों ही बना रहता है । अतः ईश्वरी परमाणु आदिगोचर ज्ञान भी प्रत्यक्षात्मक माना जाय या अनुमिति आदिस्वरूप ? इस समस्या का समाधान नैयायिक की ओर से नहीं दिखाया जा सकता । अत: परमाणु आदिस्वरूप उपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर की सिदिध नहीं हो सकती है - यह उपर्युक्त विचार से फलित होता है ।
* गुण में साश्रयकत्वव्याप्ति अप्रामाणिक *
कि इति । दूसरी बात यह है कि सकल कार्य के जनक एक नित्य प्रत्यक्ष को नैयायिक येन केन प्रकारेण सिद्ध करे तो भी उसके बल से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "नित्य प्रत्यक्ष की सिद्धि होने पर तो ईश्वर की सिद्धि उसके आश्रय के रूप में हो ही जायेगी, क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष गुण है और गुणमात्र आश्रित ही होता है - यह व्याप्ति है । जैसे उष्णस्पर्श गुण का आश्रय वह्नि होता है वैसे नित्य प्रत्यक्षात्मक गुण का आश्रय कोई न कोई तो होना ही चाहिए। उसका आश्रय जो होगा उसीको हम ईश्वर कहते हैं" तो यह नैयायिक उक्ति भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'जो जो गुण होता है वह साश्रयक = पराश्रित ही होता है' इस व्याप्ति में ही कोई प्रमाण नहीं है। घटना के बाद घटगुण का नाश होता है यह तो नैयायिक का ही सिद्धान्त है । अतः उस नियम
के अनुसार ही, विना घट के, घटगुण एक क्षण तो रहता ही है । उसमें गुणत्व होने पर भी साश्रयकत्व = घटाश्रितत्व नहीं है । अतः गुणत्व साश्रयकत्व का व्याप्य नहीं हो सकता है । आश्रय के बिना भी जैसे अनंत गुण एक क्षण रहते हैं, वैसे एक नित्य प्रत्यक्ष सदा के लिए = अनंत क्षण तक निराश्रित रह सकता है । उसमें कोई हर्ज नहीं है । अतः नित्य प्रत्यक्ष की सिद्धि होने पर भी ईश्वर की तो सिद्धि कथमपि नहीं हो सकती ।
ऋगीवात्मा में ही नित्यज्ञानाश्रयता मुमकिन- स्याद्वादी
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४२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५
खण्डनवण्डखायसंवादः * भावे वा जीवात्मान एव तदाश्रया भवन्तु किं शिपिविष्टकल्पना-कष्टेन ?
अध जीवात्मनां तदाश्रयत्वे शुक्त्यादौ रजतादिधमः कदापि न स्यात्, तत्र रुजताभावधियः सदा सत्वादिति चेत् ? ज, प्रतिबन्धकतावच्छेदककोटाववश्यनिवेशनीयस्य चैत्रीयत्वा
-* गयलता 3-- ---- = ननु मास्तु जन्यगुणत्वस्य साश्रयकत्यव्याप्यत्वं व्यभिचारदर्शनात्, परं नित्यगुणत्वस्यैव साश्रयकत्वव्याप्यत्वमस्तु, जलीयपरमाणुरूपादो तथैव दर्शनादित्यतो नित्यप्रत्यक्षाश्रयविधयेश्वरसिद्धिः स्यादेवेति नैयायिका शङ्कायां प्रकरणकार आह- भावे वेति । तादृशव्याप्ती मानसत्तो नि । इदमाममा प्रष्टया, शिल्पस्यक्षरूपे पक्षे व्यभिचारशका निवर्तकानुकूलतर्कविरहेणाऽययोजकत्वान्नेयं व्याप्तिः प्रामाणिक । तदुक्तं खण्डनखण्डखाद्ये हर्षेणाऽपि -> "यावच्चाऽव्यतिरेकित्वं शतांशेनापि शङ्यते । विपक्षस्य कुतस्तावद्धेतोर्गभनिकाबलम् । (खं.सं.खा. ) इति ।।
जीवात्मान एव तदाश्रयाः = नित्यैकप्रत्यक्षस्य आश्रयाः, भवन्तु । एक्कारफलमाह- किं शिपिविष्टकल्पनाकष्टेन = तदाश्रयविधया त्रिनेत्राभ्युपगमायासेन सृतम् । तादृशव्याप्तेः स्वीकारे पि 'कार्यस्वोपादानगोचराउपरोक्षज्ञानजन्य कार्यत्वादि'त्यनुमानेन लाघवसहकृतेन नित्यकप्रत्यक्षसिद्धावपि जीवात्मनामेव तदधिकरणत्वसम्भवान्न तदर्थमीश्वरकल्पना युक्तिमतीति प्रकरणकृदभिसन्धिः ।
नैयायिकः शङ्कते- अथेति । 'चेदि त्यनेना स्यान्वयः । जीवात्मनां चैत्रमैत्रायात्मनां, तदाश्रयत्वे = सकलकार्यजनकनित्यैकप्रत्यक्षाश्रयत्वे, चैत्रमैत्रादीनां शुक्त्यादी रजतादिभ्रमः कदापि न स्यात्, तत्र = शुक्त्यादी विषयतया रजता. भाववत्ताधियः = रजताद्यन्योन्याभावप्रकारिकाया बाधबः सदा सत्वादिति । तदभाववनाबद्रे तद्वत्ताधीप्रतिबन्धकत्वात शुक्त्यादी रजतत्वाद्यत्यन्ताभावधीसत्त्वे तत्र रजतत्वादिप्रकारकधीन भवेत । न चैवमस्तीति चैत्रादिजीवात्मस नित्यैकप्रत्यक्षकल्पना नौचितिमहतीति तदाश्रयत्वं पार्वतिपतावेवोपगन्तव्यमिति नैयायिकाशयः ।।
नन विषयतासम्बन्धेन तद्वत्ताधियं प्रति विषयतया तदभाववत्ताबडे: प्रतिबन्धकत्वाऽभ्यपगमे त मैत्रस्य शरत्यादी रजतत्वाद्यभावप्रकारकज्ञाने सति चैत्रस्याऽपि तत्र विषयतासम्बन्धेन रजतादिभ्रमो न भवेत कार्याधिकरणीभतशक्त्यादी विषयतासंसर्गण मैत्रीयरजतत्वाद्यत्यन्ताभावप्रकारकधीसत्त्वात् । प्रतिबन्धकाभावमृतेऽपि कार्यो पलम्भेन व्यतिरेकव्यभिचारान्नैतादृशः प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावो घटामञ्चति । किन्तु विषयतया चैत्रीयतद्वत्ताज्ञान प्रति विषयतया चैत्रीयबाधबोधस्य प्रतिबन्धकत्वं वाच्यम् । शुक्त्यादी विषयतया मैत्रीयबाधीसत्त्वेऽपि चैत्रीयबाधज्ञानविरहात्तत्र चैत्रीयरजतत्वादिप्रकारकज्ञानोत्पाद व्यभिचाराऽयोगात् । परन्त्येवं प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावाङ्गीकारे जीवात्मसु नित्यैकप्रत्यक्षस्य सकलकार्यजनकस्य सत्त्वेऽपि तेषां शुक्त्यादौ रजतत्वादिभ्रमः सम्भवत्येय, चैत्रीयादिबाधबुद्धेस्तेषु विरहादित्याशयेन प्रकरणकृत्तन्मतमतङ्गजं विदारयति - नेति । प्रतिवन्धकतावच्छेदककोटी = बाधधीनिष्ठप्रतिबन्धकताया अवच्छेदककोटी उपदर्शितरीत्या अवश्यनिवेशनीयस्य = अवश्यक्लृप्तस्य चेत्रीयत्वादेरेव
भाव वा, इति । यदि गुणत्व में पराश्रितत्व की व्याप्ति को नयायिक मनीषी कथमपि सिद्ध करे तो भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नित्य प्रत्यक्ष (केवलज्ञान) का आश्रय जीवात्माएँ ही बन सकती है, परमात्मा की तदाश्रयविधया कल्पना करने का कष्ट हम क्यों उठायें ? जीवात्मा ने क्या अपराध किया है कि उनमें नित्य ज्ञान की कल्पना करने से आप नैयायिक महाशय हिचकिचाहट महसूस करते हैं ? यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → “जीवात्मा को ही नित्य प्रत्यक्ष का आश्रय माना जाय, तो फिर सीप आदि में चाकचिक्यादि की बदौलत रजतादि का भ्रम जीवात्मा को कदापि नहीं हो सकेगा, क्योंकि नित्य प्रत्यक्ष के आश्रय जीवात्मा में सीप आदि पुरोवर्तिपदार्थ में रजताभावप्रकारक बुद्धि सदा के लिए रहती ही है । 'नेदं रजतं' ऐसी रजतान्योन्याभाषप्रकारक बुद्धि-प्रत्यक्ष होने पर 'इदं रजतं' ऐसा भ्रम कैसे हो सकता ? मगर जीवात्मा को ऐसे भ्रम अरों की संख्या में होते हैं - यह तो सर्वजनविदित ही है। अतः जीवात्मा को नित्य प्रत्यक्ष का आश्रय नहीं माना जा सकता, किन्तु ईश्वर को ही" <- तो यह नैयायिकोक्ति भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि केवल रजतत्वाभाव या रजतान्योन्याभाव की बुद्धि रजतभ्रम की प्रतिबन्धक नहीं हो सकती । मैत्र को सीप में रजतत्वात्यन्ताभाव की बुद्धि होने पर भी चैत्र को 'इदं रजतं' इत्याकारक भ्रम होता है। अतः चेत्रीय रजतभ्रम की प्रतिबन्धकतावच्छेदककुक्षि में चेत्रीयत्व का निवेश करना आवश्यक है । तब प्रतिबध्यप्रतिरन्यकभाव इस तरह होगा - क्षेत्रीय रजतभ्रम के प्रति चैत्रीय रजताभावबुद्धि प्रतिबन्धक है, मैत्रीय भ्रम के प्रति मैत्रीय शधबुद्धि प्रतिबन्धक है इत्यादि । इस तरह
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देरेव तत्राऽभावात् । अवच्छेदकतया चैत्रादिविशिष्टत्वं हि तत्, न च तन्नित्यज्ञाने सम्भवतीति ।
*
=
=
जयलता
नित्यैकप्रत्यक्षे अभावात् ।
तत्र =
I
ननु चैत्रादिजीवात्मस्वेव नित्यैकप्रत्यक्षाङ्गीकारे कथं न तत्र चैत्रीयत्वादिकं, येन प्रतिबन्धकतावच्छेदकविशिष्टस्य विषयतया शुक्त्यादी विरहः स्यात् ? इत्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह- अवच्छेदकतया स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासम्बन्धेन, चैत्रादिविशिष्टत्वं चैत्रादिशरीरविशिष्टत्वं हि तत् प्रतिबन्धकीभूतबाधबुद्धिनिष्ठं चैत्रीयत्वादिकम् । न च तत् = निरुक्तसम्बन्धेन चैवादिशरीरवैशिष्ट्यं नित्यज्ञाने चैत्रादिजीवात्मवृत्तितयाऽभ्युपगम्यमाने, सम्भवाति । अयमन्त्राभिसन्धिः अनित्यज्ञानं विभावात्मनि शरीरावच्छेदेनोत्पद्यते इति नैयाधिकराद्धान्तः । अत एव सर्वेषामात्मनां विभुत्वेऽपि न शरीरेतरावच्छेदेन ज्ञानप्रतीति: । चैत्रीयबाधधीश्चैत्रीयशरीरावच्छेदेन चैत्रात्मनि वर्तते । स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासंसर्गेण च चैत्रशरीरं तस्यां वर्तते, स्वस्मिन् चैत्रशरीरेनिष्ठया अवच्छेदकतया निरूपिताया अवच्छेद्यताया तद्वाधबुद्धी सत्त्वात् । निरुक्तसंसर्गेण चैत्रशरीरविशिष्टा बाधधीरेव चैत्रीय वाधबुद्धिरित्यनुच्यते । परमेवं नित्यज्ञाने वक्तुं न पार्यते, तस्य निरबच्छिनत्वेन शरीरस्य तदवच्छेदकत्वाऽसम्भवात् । नित्यैकप्रत्यक्षस्य चैत्रादिजीवात्मवृत्तित्येऽपि निरुक्तसम्बन्धेन चैत्रादिशरीरविशिष्टत्वविरहात् न तस्य भ्रमप्रतिबन्धकत्वम् । इत्थञ्च चैत्रादिजीवात्मनां भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदकविशिष्टशून्यत्वेन भ्रमोत्पादो निराबाधः । न च भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदककुक्षिप्रविष्टं चैत्रीयत्वादिकं नावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतया चैत्रादिशरीरविशिष्टत्वं गौरवात्, किन्तु स्वसमवेतत्वसम्बन्धेन चैत्राद्यात्मवत्त्वमेव । तच चैत्रादिजीवात्मवृत्तिनित्यैकप्रत्यक्षेऽपि सम्भवतीति रज्ज्वादौ सर्पादिभ्रमो ऽनुत्थानपराहत एव जीवात्मसु नित्यप्रत्यक्षाभ्युपगमे इति वाच्यम्, तर्हि नानाजीवात्मसु एव व्यासज्यवृत्ति नित्यैकप्रत्यक्षमभ्युपगम्यतां, स्वमात्रनिष्ठपर्याप्तिनिरूपकत्वसम्बन्धेन चैत्रवत्त्वादेरेव बाधबुद्धिनिष्ठप्रतिबन्धकतावच्छेदककुक्षौ निवेशोऽस्तु । न चोक्तसंसर्गेण चैत्रवत्त्वादेर्बाधबुद्ध निवेशोऽन्यत्राऽसम्भवीति नात्रैवं तत्प्रवेशी युक्तो गौरवादिति वाच्यम्, 'द्वित्वं द्वयोरेव पर्याप्तमितिप्रतीत्या पर्याप्तिसम्बन्धेन घटपदयोर्द्वित्ववत् 'देवदत्तज्ञानं देवदत्ते एवं पर्याप्तमित्यबाधितानुभवबलेन पर्याप्तिसम्बन्धेन लौकिकदेवदत्तीयबाधबुद्धेर्देवदत्तवृत्तित्वोपगमात् स्वमात्रनिष्ठपर्याप्तिनिरूपकत्वसंसर्गेण बाधबुद्धेर्देवदत्तविशिष्टत्वाद् देवदत्तीयभ्रमप्रतिबन्धकत्वसम्भवादित्यपि विभावनीयम् ।
1
=
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भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदकदेह में चेत्रीयत्व, मैत्रीयत्व आदि का निवेश करना आवश्यक है। मगर नित्य प्रत्यक्ष में भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदक चैत्रीयत्व आदि नहीं रहता है । इसका कारण यह है कि बाध बुद्धि में रहने वाले चैत्रीयत्वादि का मतलब है अवच्छेदकतासम्बन्ध से चैत्रादिविशिष्टत्व । नैयायिक के मतानुसार हमारा ज्ञान शरीरावच्छेदेन आत्मा में उत्पन्न होता है रहता है और प्रत्येक आत्मा नैयायिकमत में विभु द्रव्य है । अत: चैत्रीय ज्ञान का मतलब है अवच्छेदकता सम्बन्ध चैत्रविशिष्ट ज्ञान यानी स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपिताऽवच्छेद्यतासम्बन्ध से चैत्रवशरीरविशिष्ट ज्ञान । स्व = चैत्रशरीर, जो चैत्रात्मनिष्ठ चैत्रात्मसमवेत
=
ज्ञान का अवच्छेदक है। मैत्रसमवेत बाधज्ञान (= 'नेदं रजतं' इत्याकारक ज्ञान) में चैत्रशरीर स्वनिष्ठावच्छेद-कतानिरूपित अवच्छेद्यतासम्बन्ध से नहीं रहता है। अतः चैत्र को 'इदं रजतं' इत्याकारक भ्रम 'सकता है। इस तरह जब प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव सिद्ध होता है, तब नित्य प्रत्यक्ष 'इदं रजतं इत्यादि भ्रम का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि नित्य ज्ञान नैयायिकमतानुसार शरीरावच्छेदेन आत्मा में नहीं रहता है । नित्य ज्ञान निरखच्छिन होता है, संपूर्ण आत्मा में वह रहता है। ईश्वर का नित्य प्रत्यक्ष नैयायिक के मतानुसार ईश्वर में शरीरावच्छेदेन नहीं रहता है, क्योंकि ईश्वर को शरीर ही नहीं होता है, किन्तु वह परमात्मा में निरवच्छिन्न होता है, संपूर्ण परमात्मा में रहता है। इसी सिद्धान्तानुसार चैत्र, मैत्र आदि जीवात्मा में रहने वाला नित्य प्रत्यक्ष भी निस्वच्छिन्नवृत्तिताक होगा, चैत्रादि का शरीर नित्य प्रत्यक्ष का अवच्छेदक नहीं हो सकता । अतः चैत्रादि जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष में स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासम्बन्ध से चैत्रादिशरीर नहीं रह सकते । इस तरह जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूत चैत्रादिशरीर से शून्य होने से 'इदं रजतं इत्यादि भ्रम का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । अतः चैत्रादि जीवात्मा में नित्य प्रत्यक्ष रहने पर भी जवात्मा को भ्रम होने में कोई हर्ज नहीं है । निष्कर्ष :- जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष भ्रमप्रतिबन्धक नहीं है ।
* जीवात्मा में जित्य प्रत्यक्ष मानने में लाघव *
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४२३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * सामान्यलक्षणस्याऽप्रामाणिकत्वम्
तो व जीवात्मवृत्तित्वेऽनेकात्मसम्बन्धकल्पनागौरवात् एकेश्वरकल्पना लघीयसीति वाच्यम्, त्वया तत्र जीवात्मनां स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्धः कल्पनीयः, मया तु समवायमात्रमिति लाघवात् ।
अथैवमेतस्य 'नित्यमेकमनेकसमवेतं सामान्यमिति सामान्यलक्षणप्राप्तौ गुणत्वव्याघात * जयलता
न चेति । 'वाच्यमि' त्यनेनाऽस्यान्चयः । सकलकार्यजनकनित्यैकप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वे अभ्युपगम्यमाने जीवात्मनां नानात्वेन तत्र अनेकात्मसम्बन्धकल्पनागौरवात् एकेश्वरसम्बन्धकल्पनैव लघीयसीति तस्य त्रिलोचनसमवेतत्वमेवाऽस्त्विति तदाश्रयविधया महेश्वरसिद्धिः निराबाधेति नैयायिकाकूतम् । परपक्षे गौरवोद्भावनेन प्रकरणकृत् तस्य जीवात्मवृत्तित्वं लाघवसहकारेण साधयति त्वया = नैयायिकेन तत्र = नित्यप्रत्यक्ष शशिशेखरसमवेतत्वेनाऽभ्युपगते जीवात्मनां स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्धः कल्पनीयः = अवश्यकल्प्य इति । स्वपदेन जीवात्मनां ग्रहणम् । तत्संयुक्तश्च तेषामेव शरीरं तेन संयुक्तं महेश्वरे समवेतं नित्यप्रत्यक्षमिति जीवात्मानः तत्र नित्यैकप्रत्यक्षे स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायेन सम्बध्येस् । विभूनां संयोगानभ्युपगन्तृनये स्वसंयुक्तसमवायेन जीवात्मनामीश्वरसमवेतनित्यप्रत्यक्षेऽसम्बद्धत्वात् द्वितीयसंयुक्तपदोपादानम् । जीवात्मनां महेश्वरस्य नित्यैकप्रत्यक्षस्य च परेणोपगमात् त्रिनेत्रस भवेतनित्यप्रत्यक्षे जीवात्मनामुक्तगुरुभूतसम्बन्धकल्पनाया आवश्यकत्वेन गौरवम् । मया = नित्यैकप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्ववादिना तु जीवात्मनां तत्र नित्यप्रत्यक्षे समवायमात्रं स्वसमवेतत्वमेव केवलं कल्पनीयं यद्वा पूर्वोक्तरीत्या पर्याप्तिनिरूपकत्वसंसर्गमात्रं कल्पनीयमिति प्रत्युत ईश्वरवाद्यपेक्षया लाघवात् नित्यप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वमेव युक्तम् । न च त्वया तत्र धूर्जटेः स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसंसर्गस्य स्वसंयुक्तसंयुक्तपर्याप्तिसम्बन्धस्य वा कल्पने तुल्यगौरवमिति वाच्यम्, नित्यप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वोपपत्तावीश्वरस्यैवाऽप्रसिद्धेः नित्यप्रत्यक्षे तत्सम्बन्धकल्पनाया अनुत्थानपराहतत्वान्न गौरवमिति विशेषः ।
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परः शङ्कते अथेति । 'चेद्रि' त्यनेनाऽस्थान्वयः । एवं नित्यैकप्रत्यक्षस्य नानाजीवात्मसमवेतत्वोपगमे एतस्य = नित्यैकप्रत्यक्षस्य 'नित्यमेकमनेकसमवेतं सामान्यमिति सामान्यलक्षणप्राप्ताविति । अनेकसमवेतत्वं संयोगादीनामप्यस्त्यत उक्तं नित्यमिति । विभुद्रव्यसंयोगाऽङ्गीकर्तृनये नित्यसंयोगेष्वतिव्याप्तिवारणाय 'एकमित्युक्तम् । नित्यत्वे सति समवेतत्वं गगन
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न च जी. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "हमारे मत में ईश्वर एक होने से नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वर में वृत्ति मानने पर एक ईश्वरसम्बन्ध की कल्पना करनी होगी, जो लघुभूत है। जीवात्मा तो अनन्तर होने से नित्य प्रत्यक्ष को प्रत्येक जीवात्मा में वृत्ति मानने पर उसके अनंत जीवात्मसम्बन्ध की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त है । अतः लाघव - सहकार से नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वरनिष्ठ मानने में लाघव है । अतः पराश्रितत्त्वनिरूपित गुणत्वनिष्ठ व्याप्ति के बल से और लायब- सहकार से नित्य प्रत्यक्ष के आधारविवया ईश्वर की सिद्धि निराबाध है" <- तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि नित्य प्रत्यक्ष को अनंतजीवात्मवृत्ति मानने पर प्रत्येक जीवात्माओं में नित्य प्रत्यक्ष के साथ केवल एक समवाय सम्बन्ध की ही कल्पना है, न कि अनेक सम्बन्ध की। जब कि नित्य प्रत्यक्ष को परमात्मवृत्ति मानने पर प्रत्येक जीवात्मा का नित्य प्रत्यक्ष में एक समवाय सम्बन्ध नहीं, किन्तु स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध कल्पनीय होगा । स्व = जीवात्मा से संयुक्त जीवात्मशरीर से संयुक्त ईश्वरात्मा में नित्य प्रत्यक्ष समवेत होने से जीवात्मा का ईश्वरवृत्ति नित्य प्रत्यक्ष के साथ स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध की कल्पना करनी होगी जो गौरवग्रस्त है । विभु द्रव्य का विभु द्रन्य में संयोग प्राचीन नैयायिक ने नहीं माना है, क्योंकि 'अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः ' यह संयोग का स्वरूप है । नित्य विभु द्रव्य सदा प्राप्त ही होते हैं । अतः विभु विभु के बीच संयोग नहीं होता है। उसके मुताबिक स्वसंयुक्तसमवाय नहीं कह कर स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध का उल्लेख किया है। जीवात्मा और परमात्मा के बीच जीवात्मा के शरीर द्वारा सम्बन्ध हो सकता है । नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वरवृत्ति मानने पर जीवात्मा का नित्य प्रत्यक्ष के साथ स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध की अत्यन्त गुरुभूत कल्पना करने की बजाय नित्य प्रत्यक्ष को जीवात्मवृत्ति मान कर उन दोनों के बीच केवल समवाय सम्बन्ध की कल्पना करने में लाघव है। इस तरह गौरवदोष के सबर भी ईश्वरात्मा की कल्पना नहीं की जा सकती यह तात्पर्य है ।
जीवात्मवृत्ति नित्य प्रत्यक्ष में बाधक का निराकरण
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=
अथैव इति । यहाँ नैयायिक का यह कथन कि
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·
" नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वरात्मा में वृत्ति न मानकर अनन्त जीवात्मा
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* नित्यप्रत्यक्षाननुव्यवसायोपपादनम् *
इति चेत् ? किमिदं लक्षणं तव वेदः, येन तदुच्छेदे खेदः १
रातु
'चैत्रस्य मैत्रस्य वा तदाश्रयत्वं ?' इत्यादिविनिगमनाविरहादेकस्येश्वरस्यैव तदाश्रयत्वं युक्तमिति ← तल, सकलजीवात्मवृत्तित्वेऽपि बाधकाभावात् । अथैवमस्मदादीनां तत्प्रत्यक्षं कुतो न भवति ? इति चेत्,
* जयलता
परिमाणादीनामप्यस्तीति 'अनेक' त्युक्तम् । नित्यत्वे सत्येकत्वे सत्यनेकवृत्तित्वं घटात्यन्ताभावादावप्यस्तीत्यतो वृत्तित्वसामान्यं बिहाय समवेतत्वग्रहणम् । नित्यैकप्रत्यक्षस्य नानाजीवात्मसमवेतत्वे तत्रोक्तसामान्यलक्षणप्राप्तौ सत्यां तस्य जातित्वाऽपातेन गुणत्वव्याघातः प्रसज्येत । नित्यैकप्रत्यक्षं गुणरूपं न स्यात् किन्तु जातिरूपमेव, तल्लक्षणाक्रान्तत्वात् । अत एव तस्य नानाजीवात्मवृत्तित्वं कल्पनां नार्हतीति नैयायिकाभिप्रायः । प्रकरणकुदाह- किमिदं दर्शितं लक्षणं सामान्यलक्षणं तव नैयायिकस्य वेदः, येन कारणेन तदुच्छेदे = सामान्यलक्षणोच्छेदे खेदः १ उपदर्शितसामान्यलक्षणस्यैवाऽप्रामाणिकत्वेन न तत्प्राप्ती नानाजीवात्मवृत्तिनित्यैकप्रत्यक्षस्य जातित्वप्रसङ्गो न वा गुणत्वव्याघातः तत्प्रामाण्ये वा भूतत्त्व- कलशत्व-जातित्वविशेषत्वादी साकयदेरिव 'प्रत्यक्षं गुण' इत्यादिप्रतीतिप्रतीतस्य गुणत्वस्याऽपि जातिबाधकत्वोपगमे क्षतिविरहात् ।
यत्त्विति । ‘तन्ने’त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । सकलकार्यजनक नित्यैकप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वेऽभ्यगम्यमाने चैत्रस्य मैत्रस्य वा जीवात्मनः तदाश्रयत्वं == नित्यप्रत्यक्षाश्रयत्वं ? इत्यादिविनिगमनाविरहादिति । आदिपदेन नित्यैकप्रत्यक्षे चैत्रवृत्तित्वं मैत्र- वृत्तित्वं वा ? चैत्रस्य जगत्कर्तृत्वं मैत्रस्य वा ? इत्यादिविनिगमनाविरह्ग्रहः । तस्येश्वरसमवेतत्वाऽभ्युपगमे तु नैतादृशविनिगमनाविरह इति एकस्येश्वरस्यैव तदाश्रयत्वं नित्यैकप्रत्यक्षाधिकरणत्वं युक्तमिति । एवकारेण जीवात्मव्यवच्छेदः कृतः । प्रकरणकृत्तन्निराकरोति तन्नेति । नित्यप्रत्यक्षस्य सकलजीवात्मवृत्तित्वेऽपि बाधकाभावात् लाघवतर्केण नित्यप्रत्यक्षस्यैकत्वे पर्याप्तिसम्बन्धेनैव निखिलजीवात्मवृत्तित्वमस्तु भ्रमोच्छेदस्तु पूर्वोक्तरीत्या निवारणीय इति प्रकरणकाराभिप्रायः ।
=
=
परः शङ्कते अथेति । 'चेदि' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । एवं नित्यैकप्रत्यक्षस्य सकलजीवात्मनिष्ठत्वे सति अस्मदादीनां जीवात्मनां तत्प्रत्यक्षं नित्यप्रत्यक्षस्याऽनुव्यवसायात्मकं मानसप्रत्यक्षं कुतः हेतोः न भवति ? 'अयं घटः' इत्यादिज्ञानेऽस्मदादिषु सति 'मया घटो ज्ञातः', 'अहं घटं जानामि', 'अहं घटज्ञानवान्', 'एनं घटत्वेन ज्ञातवानहमि' त्याद्याकारकानुव्यवसायरूपेण मानसप्रत्यक्षेण घटज्ञानं प्रत्यक्षं भवति, अनुव्यवसायेनैव व्यवसायस्य तद्विषयस्य च निश्वयात् । अतः नित्यैक
=
४२४
=
में समवेत मानने पर तो नित्य प्रत्यक्ष जातिस्वरूप हो जायेगा, क्योंकि जो एक हो, नित्य हो और अनेक में समवाय सम्बन्ध से रहता ही वह जातिपदार्थ बनता है । अतः एक नित्य प्रत्यक्ष को अनेक जीवात्मा में समवेत मानने पर उसमें गुणत्व का व्याघात होगा और फिर भी उसे गुणस्वरूप माना जाय तो जाति के उपर्युक्त लक्षण का उच्छेद हो जायेगा" <भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'एकं नित्यं अनेकसमवेतं सामान्यं' ऐसा सामान्यलक्षणप्रतिपादक वचन वेदवचन नहीं है, जिसकी बजह उसके उच्छेद में नैयायिक को खेद करना आवश्यक हो । मतलब कि सामान्य का उपर्युक्त लक्षण अप्रामाणिक होने से उसके मुताबिक एक नित्य प्रत्यक्ष में, जो प्रत्येक जीवात्मा में समवेत है, गुणत्व का व्याघात नहीं हो सकता । अतः एक नित्य प्रत्यक्ष का जीवात्मा आश्रय हो सकता है ।
यत्तु इति । अन्य मनीषियों का यह अभिप्राय है कि
“एक नित्य प्रत्यक्ष का आश्रय जीवात्मा मानने पर चैत्रात्मा को उसका आश्रय मानना या मैत्र को या जैत्र को ? इस समस्या का कोई समाधान प्राप्त नहीं होता है । अतः इस विनिगमनाविरह् दोप की बदौलत एक परमात्मा को ही नित्य प्रत्यक्ष का आश्रय = समवायी मानना युक्त है। मतलब कि विनिगमकाभाव से भी सकलकार्यजनक एक नित्य प्रत्यक्ष के आश्रयविधया महेश्वर की सिद्धि हो सकती है" यह मन्तव्य भी निराधार प्रतीत होता है, क्योंकि एक नित्य प्रत्यक्ष को सकल जीवात्मा में वृत्ति कोई बाधक नहीं है । अतः विनिगमनाविरह दोष तो अनुत्थानपराहत है ।
८
किन्तु विचार करने पर
=
समवेत मानने पर भी
अम इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह आक्षेप है कि "यदि नित्य प्रत्यक्ष सकल जीवात्मा में समवेत हो तो हम भी जीवात्मा होने से हमारे में भी वह जरूर समवेत होना चाहिए । तब तो जैसे हमें घटज्ञान का साक्षात्कार होता है कि 'अहं घटज्ञानवान्', 'मया घटो ज्ञातः ', ' अहं घटं जानामि' ठीक वैसे ही 'अहं सर्वं जानामि', 'मया सर्व ज्ञातं', 'अहं सर्व साक्षात्करोमि ऐसा नित्य प्रत्यक्ष का भी साक्षात्कार - अनुव्यवसाय होना चाहिए । मगर तथाविध अनुव्यवसाय नहीं होता
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__५२५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *नित्यप्रत्यक्षे लौकिकविषयितायाः सत्त्वमसत्त्वं वा ? *
लौकिकविषयिताऽभावात, निर्विकल्पकवत् । न्दित्वजनकतावच्छेदिका लौकिकवियिता तत्र बाढमस्त्येवेति चेत् ? किं तावता ? इन्द्रिय सन्निकर्षादिजन्यतावच्छेदिकाया एव तस्याः प्रत्यक्षतायां तन्मत्वादित्येके । IT = = * जयलवा
- | प्रत्यक्षस्यास्मदादिवृत्तित्वेऽस्माकं 'परमाण्वादयो मया साक्षात्कृताः', 'अहं परमाण्वादिकं जानामि', 'अहं परमाण्वादिगोचरसाक्षात्कारवान्,' "एतान् परमाणुत्वादिभिरहं ज्ञातवानि' त्याद्याकारकेणाऽनुव्यबसायेन नित्यप्रत्यनगोचरं मानसप्रत्यक्षं स्यात् । न चैवं भवतीति न तस्य जीवात्मवृत्तित्वं श्रद्धातुमर्हतीति अथाशयः ।
तत्समाधानमाविष्करोति - लौकिकविपयिताऽभावादिति । इन्द्रिय सन्निकर्षप्रयोज्यविषयतानिरूपितविषयित्वपिरहानाऽस्मदादीनां स्ववृत्तिनित्यैकप्रत्यक्षगोचरानुव्यवसायो भवति । तस्य नित्यत्वेन तद्दोचरे इन्द्रियसभिकर्षप्रयोज्यविषयता नास्ति । अत एव तत्र तादृशविषयतानिरूपितविषयिताऽपि नास्ति । अतो न तदनुव्यवसायो भवितुमर्हति । 'सर्वेषामेव ज्ञानानामनुव्यवसायविषयत्वेन नाऽत्रोदाहरणं दयितुं पार्यत' इत्याशङ्कायामाह- निर्विकल्पकवदिति । निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्याऽस्मदादिवृत्तित्वेऽपि
अस्मदादीनां तत्प्रत्यक्षं यथा न भवति तथैवाऽस्मद्वृत्तिनिर्दकप्रत्यक्षस्याऽपि प्रत्यक्षं न भवति । प्रकृते दृष्टान्तदाान्तिक। योरनुव्यवसायाऽयोग्यत्वान्दो साधर्म्यं बोध्यम् ।
___कश्चिच्छङ्कते- द्वित्वजनकतावच्छेदिका = द्वित्वसंख्यानिष्ठजन्यतानिरूपिताया जनकताया अबच्छेदिका, लौकिकविपयित्ता | तत्र = नित्यैकप्रत्यक्षे बाढमस्त्येवेति । उदयनादिमते द्वयणुकपरिमाणनिकायाः सङ्ख्याया एकत्वाऽन्यसङ्ख्यालेनाऽपेक्षाबुद्धिजन्यत्वात् तादृशबुद्धौ द्वित्वजनकतावच्छेदकीभूतलौकिकविषयिताया अवश्यमङ्गीकार्यत्वात्तदभावेन नितारपत्यक्षत्वोपपादनं न घटामञ्चतीति शङ्काशयः । तत्समाधान केषां विदुषां मतेनानिष्करोति - किं तावता ? इति । ज्ञानप्रत्यक्षतायां | न द्वित्वजनकतावच्छेदकीभूताया लौकिकविषयिताया नियामकत्वं, इन्द्रियसनिकर्पादिजन्यतावच्छेदिकायाः = इन्द्रियसन्निकर्षविषयादिनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यत्वस्याऽवच्छेदकीभूतायाः एव तस्या = लौकिकवियितायाः प्रत्यक्षतायां = अनुव्यवसायनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतायां ज्ञाननिष्ठायां तन्त्रत्वात् = नियामकत्वात् । नित्यैकप्रत्यक्षे व्यणुकपरिमाणजनकद्वित्वसङ्ख्यानिरूपितजनकत्वस्यावच्छेदकीभूताया लौकिकविषयितायाः सत्त्वेऽपि विषयेन्द्रियसन्त्रिकर्षादिजन्यतावच्छेदिका लौकिकविषयिता नास्ति, तस्य नित्यत्वेनेन्द्रियसन्निकर्षाद्यजन्यत्वात् । तदभावादेव न तस्य जीवात्मवृत्तित्वेऽपि जीवात्मनामस्मदादीनां प्रत्यक्षमित्येकेषामाकूतम् । है। इससे ही यह फलित होता है कि नित्य प्रत्यक्ष प्रत्येक जीवात्मा में समवेत नहीं है, अपितु परमात्मा में समवेत है" <- मगर यह वचनप्रहार भी निराधार है, इसका कारण यह है कि उसी ज्ञान का हमें साक्षात्कार होता है, जिस ज्ञान में लौकिक विपयिता होती है। 'अयं घटः' इत्याकारक बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में लौकिक विपयिता होने से उसका 'अहं यहं जानामि' इत्यादि रूप से साक्षात्कार = अनुव्यवसाय हो सकता है । मगर नित्य प्रत्यक्ष में लौकिक चिपयिता नहीं है । अतः उसका 'अहं सर्व जानामि' इत्यायाकारक मानस प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। जैसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का मानस प्रत्यक्ष = अनुव्यवसाय नहीं होता है, ठीक वैसे ही नित्य प्रत्यक्ष के अननुव्यवसाय = मानसाऽप्रत्यक्ष की उपपत्ति हो सकती है।
इन्द्रिय सन्निकर्षजन्यतावच्छेदक लौतिकविषयिता प्रत्यक्ष नियामक - अन्यमत
द्वित्व, इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन है कि → "नित्य प्रत्यक्ष में भी लौकिकविषयिता का स्वीकार करना आवश्यक है। इसका कारण यह है कि दो परमाणु के नित्य प्रत्यक्ष से परमाणुद्वय में द्वित्व संख्या उत्पन्न होती है। द्वित्वजनकतावच्छेदक तो लौकिकविषयित्ता ही होती है । अतः परमाणुद्वय में द्वित्व संत्र्या के जनक नित्य साक्षात्कार में लौकिकविषयिता का स्वीकार करना आवश्यक है। यह ठीक उसी तरह उपपन हो सकता है, जैसे द्वित्वसंख्याजनक घटपटविषयक अपेक्षाबुद्धिस्वरूप ज्ञान में द्वित्वकारणतावच्छेदकीभूत लौकिक विषयिता का जैसे नैयायिक विद्वानों ने स्वीकार किया है, ठीक वैसे ही परमाणुद्वयविषयक नित्य प्रत्यक्ष में भी द्वित्वसंख्याजनकतावच्छेदकीभूत लौकिक विषयिता का स्वीकार किया जा सकता है, अन्यथा परमाणुद्वय में द्वित्व की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। इस तरह नित्य प्रत्यक्ष में भी लौकिकविषयिता सिद्ध होती है, तब 'उसमें लौकिक विपयिता के नहीं होने से उसका मानस साक्षात्कार नहीं होता है' यह नहीं कहा जा सकता। अतः प्रत्येक जीवात्मा में नित्य प्रत्यक्ष को समवेत मानने पर उसका मानस साक्षात्कार होना अनिरार्य है।"- मगर इसके समाधान में अमुक नैयायिक यह कहते हैं कि ->"नित्य प्रत्यक्ष में लौकिक विषयिता, जो द्वित्वादिसंख्याजनकतावच्छेदक
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* अस्वरसीज विभावनम् *
ताप्येण तदविषयस्याऽहेतुत्वान्न तत्प्रत्यक्षमित्यतये । 'विषयतया प्रत्यक्षमात्रकारणीभूतगुरुत्वाधन्यतमभेदाभावादि'त्रापरे ।
-= -=- =* नायलता * अत्रेवाऽन्येषां मतमाह- ताद्रूप्येण = विषयात्मना तद्विपयस्य = नित्यप्रत्यक्षगोचरस्य परमावादेः, अहेतुत्वात् = नित्यप्रत्यक्षाऽजनकत्वात् न तत्प्रत्यक्षं = नित्यैकप्रत्यश्नगोचरोऽनुव्यवसायात्मको मानससाक्षात्कारः इत्यन्ये मनीषिणो ब्याचक्षते । 'अयं घट' इत्याद्यनित्यप्रत्यक्ष घटात्मना घटस्य कारणत्वम् । तस्य विषयविधया घटजन्यत्वेन 'मया ज्ञातो घटः' 'अहं घटं जानामी' त्याद्याकारको नुव्यवसायो भवति । ज्ञानप्रत्यक्षे ताद्रूप्येण स्वविषयजन्यत्वस्यैव नियामकत्वात् जीवात्मवृत्तिनित्यप्रत्यक्षे ताद्रूप्येण स्वविषयजन्यत्वस्य बिरहादेव न तन्मानससाक्षात्कार इति निर्गलितार्थः । अन्य इत्यमेनाऽस्वरसप्रदर्शनमं कृतम् । निर्विकल्पप्रत्यक्षे ताद्रूप्येण विषयजन्यत्वस्य सत्त्वेऽपि न तदनुज्यवसायो भवति । न च ताद्रूप्येण स्वविषयजन्यत्वे सति वैशिष्ट्यावगाहित्वस्मैव ज्ञानप्रत्यक्ष नियामकत्वमस्तु, निर्विकल्पके तु विशेष्याऽभावप्रयुक्तविशिष्टाभावात्र प्रत्यक्षमिति वाच्यम्, एवं सति विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहेणाऽतिगौरवात. विशेष्यस्यैव नियामकत्वसम्भवे व्यर्थविशेषणघटितत्वेन व्याप्यत्वासिद्भयापत्तेः । न च विशेष्यस्यैव नियामकत्वमस्तु लाचवात्, अवश्यक्लृप्तत्वाच्चेति वाच्यम्, तथा सति जीवात्मवृत्तिनित्य- | प्रत्यक्षगोचरानुव्यबसायस्य वज्रलेपायमानत्वप्रसङ्गात, तस्य वैशिष्ट्यावगाहित्यात् ।
अत्रवाऽपरेषामभिप्रायमाह- विषयतया प्रत्यक्षमात्रकारणीभूतगुरुत्वाद्यन्यतमभेदाभावात् न जीवात्मवृत्तिनित्यप्रत्यक्षस्य मानससाक्षात्कार इति शेषः । इदमत्र तत्त्वम्, विषयतासम्बन्धेन प्रत्यक्षत्वावन्छिन्नं प्रति स्वरूपसम्बन्धेन गुरुत्वादृष्टपरमाणुपिशाचादिभेदस्य हेतुत्वनियमः । यथा स्वरूपसम्बन्धेन गुरुत्वाद्यन्यतमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदवति घटे विषयतासम्बन्धेन घटप्रत्यक्षं जायते । गुरुत्वादी स्वरूपसम्बन्धेन गरुत्वाद्यन्यतमत्वस्य सत्त्वेन तदवच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदविरहान्न तत्र विषयता
है, सिद्ध होने से क्या ? इतने से ही नित्य प्रत्यक्ष का मानस साक्षात्कार का आपादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्वित्वजनकतावच्छेदकीभूत लौकिकविषयितामात्र ज्ञानप्रत्यक्ष में नियामक नहीं है । ज्ञान के प्रत्यक्ष में तो इन्द्रियसन्निकर्यादि जन्यतावच्छेदकीभूत लौकिकविषयता ही नियामक है। जो प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियसत्रिकर्ष से जन्य होता है, उसमें रहने वाली लौकिकविषयिता इन्द्रियसन्निकर्ष की जन्यतावदक होती है । तादृश लौकिक विषयिता के आश्रयीभूत ज्ञान का ही मानस साक्षात्कार हो सकता है जैसे 'अयं घटः' इत्याकारक लौकिक व्यवसाय ज्ञान का 'अहं घटं जानामि' इत्यागाकारक मानस प्रत्यक्ष । मगर नित्य प्रत्यक्ष तो जन्य ही नहीं होने से इन्द्रियसन्निकर्पादि की जन्यतावच्छेदकीभूत बिलक्षण लौकिक विषयिता उसमें नहीं रहती है। अतएव उसके मानस साक्षात्कार का आपादन नहीं किया जा सकता। आपादक से शून्य में किसके बल पर अनिष्ट आपादन किया जाय ? अतः नित्य प्रत्यक्ष को प्रत्येक जीवात्मा में समवेत मानने पर भी उसके मानस साक्षात्कार का अनिष्ट प्रसंग अप्रसक्त है ।" <
ताट्रायण, इति । अन्य विद्वान प्रत्येक जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष के मानस साक्षात्कार के निवारणार्थ यह कहते हैं कि → "जिस ज्ञान का विषय ताप्य से हेतु होता है, उस ज्ञान का प्रत्यक्ष हो सकता है । जैसे घटचाक्षुष के प्रति घट घटात्मना हेतु होने से 'अयं घटः' इस चाक्षुप का 'अहं घटं पश्यामि' इत्याकारक अनुव्यवसाय = मानस साक्षात्कार होता है । जीवात्माओं में समवेत नित्य प्रत्यक्ष के प्रति परमाणु आदि विषय परमाण्वादिरूप से विषयविधया हेतु ही नहीं होते हैं। अतः प्रत्येक जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष के मानस साक्षात्कार की आपत्ति नहीं दी जा सकती। अतः नित्य प्रत्यक्ष के आश्रयरूप में ईश्वरात्मा की कल्पना करनी उचित नहीं है।' <
* गुरुत्वादि अन्यतमभेद ही प्रत्यक्ष का नियामक - मतविशेषनिस्पप * विषयतया, इति । अपर विद्वानों का यह वक्तव्य है कि . 'विषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष के प्रति स्वरूपसम्बन्ध से गुरुत्व आदि अन्यतम का भेद कारण होता है। आदि पद से अदृष्ट (पुण्य, पाप) नित्य प्रत्यक्ष आदि का ग्रहण अभिमत है । गुरुत्व, पुण्य, पाप आदि का कभी प्रत्यक्ष. नहीं होता है । अतः जो गुरुत्वादि से भिन्न हो उसीका प्रत्यक्ष होता है। जैसे घटप्रत्यक्ष विषयतासम्बन्ध से घट में उत्पन्न होता है और स्वरूपसम्बन्ध से तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक मुरुत्वायन्यतमत्वावच्छिमप्रतियोगिताक भेद भी घट में रहता है। घट गुरुत्व, पुण्य, पाप आदि से भिन्न ही होता है। यहाँ कार्यताअवच्छेदकसम्बन्ध विषयतासम्बन्ध है । उपर्युक्त भेदनिष्ट कारणता का अवच्छेदक स्वरूप सम्बन्ध है। गुरुत्व आदि में विषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि गुरुत्व में तादात्यसम्बन्धावच्छिन-गुरुत्वाद्यन्यतमत्वावच्छिनप्रतियोगिताक भेद स्वरूप
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४२७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * स्याद्वादध्वान्तमार्तण्डखण्डनम् ।
संयोगत्वावच्छेदेन द्रव्यस्य हेतुताग्रहात्, अजसंयोग इव ज्ञानत्वाद्यवच्छेदेनाऽऽत्मादिहेतुताग्रहात नित्यज्ञानादिकमपि न सिध्यतीत्यपि कश्चित् ।
-- - -- जयलता E - = - सम्बन्धेन प्रत्यक्षं जायते । विषयतासम्बन्धावच्छिन्न-प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपित-स्वरूपसम्बन्धावच्छिन्नकारणताश्रयीभूतभेदप्रतियोगिताकुक्षी नित्यप्रत्यक्षस्याऽपि निवेशेन तत्र तादृशान्यतमत्वस्य सत्त्वेन प्रतियोगितावच्छेदकन्यधिकरणीभूतभेदस्य प्रत्यक्षकारणस्य विरहान्न विषयतासम्बन्धन प्रत्यक्षं तत्रोत्पत्तुमर्हति, सामग्र्यभावे कार्यानुत्पादात् । न इत्यश्च नित्यैकप्रत्यक्षस्य सकल
जनकस्य जीवात्मवृत्तित्वेऽपि न तन्मानससाक्षात्कारप्रसङ्ग इति फलितम् । अपर इत्यनेन प्रकरणकृता स्वकीयाऽस्वरसोद्भावन कृतम् । जीवात्मनां नित्यप्रत्यक्षाश्रयत्वसिद्धी प्रत्यक्षकारणीभूतभेदप्रतियोगिताकुक्षो नित्यप्रत्यक्षनिवेशसिद्धिः, तत्सिद्धी च सत्यां | बाधकविरहेण जीवात्मनां नित्यप्रत्यक्षाश्रयत्वसिद्भिरित्यन्योन्याश्रयकवलितत्वात्प्रकृतसमाधानस्येति तबीजम् ।
नित्यप्रत्यक्षानभ्युपगन्तुः कस्यचिन्मतमत्रव प्रकरणकृदावेदयति - संयोगत्वावच्छेदेन द्रव्यस्य हेतुताग्रहात् = समवायसंसर्गावच्छिन्नसंयोगत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न-द्रव्यत्वावच्छिन्नकारणत्वनिश्चयात, अजसंयोगः = नित्यसंयोगः इव ज्ञानत्वाद्यवच्छेदेनात्मादिहेतुताग्रहात् = समायसम्बन्धारच्छिन्न-ज्ञानत्वेच्छात्वकृतित्वाद्यवच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादाम्यादिसम्बन्धावच्छिन्नात्मत्याद्यवच्छिन्नकारणताया निश्चयातू, नित्यज्ञानादिकं = नित्यज्ञानचिकीर्षादिकं अपि न सिध्यति । समवायेन संयोगमात्रं प्रति द्रव्यसमवायिकारणत्वनिश्चयात् यधा कार्यतावच्छेदकीभूतसंयोगत्वविशिष्टे नित्यत्वाश्योगेन नित्यसंयोगी नास्ति तथा समवायेन बानत्त्वाद्यवच्छिन्नं प्रति आत्म-तन्मनःसंयोगादेतत्वनियमात कार्यतावच्छेदकीभतज्ञानत्वाद्याश्रये नित्यत्वाइसम्भवेन नित्यज्ञान-नित्यचिकीर्षा-नित्यकतयो न सेद्धमर्हन्ति । नित्यज्ञानादेरेवाग्रसिद्धौ तदाश्रयचिन्ता वन्ध्यापुत्रपितृशद्भि तुल्या प्रतिभातीति तात्पर्यम् । __यत्तु स्याद्वादध्यान्तमार्तण्डे नृसिंहेण -> "आध्याभावेन मध्याभावानुमाने यदि तत्र किमप्युपाध्यन्तरमागच्छेत् तदा पूर्वोद्भावित उपाधिरनुपाधिमन्तव्य इति हि दार्शनिकाना सम्प्रदायः । अनेन नियमेन वादिनदर्शितोपाध्यभावेन साध्याभावानुमानाकारोऽयमस्ति यत्, ‘क्षित्यकुरादिकं कर्चजन्यं शरीरा:जन्यत्वात, खादिवत्' इति । अत्र प्रागभावाऽप्रतियोगित्वमुपाधिः । तस्य कर्चजन्येषु खादिषु साध्यव्यापकत्वं शरीराऽजन्यषु क्षित्यादिषु च साधनाऽव्यापकत्वमरत्येवेति कृत्वा सिद्धान्त्यनुमाने प्रदर्शितः 'शरीरजन्यत्वमुपाधिरनुपाधिरेव <-- (स्या.वा.मा. ) इत्युक्तं तत्तु तत्प्रदर्शितनियमेनेव कवलितम्, प्रागभावा:प्रतियोगित्वलक्षणोपाध्यभावेन साध्याभावानुमानाकारोऽयमस्ति यदुत ‘क्षित्यकुरादिकं कर्तृजन्यं प्रागभावप्रतियोगित्वात् घटादिवदिनि । अत्र प्रायोगिकत्वमुपाधिः । तस्य घटादिषु कर्तृजन्येषु साध्यज्यापकत्वं द्वयणुकारण्याङ्कर-शैलादिषु प्रागभावप्रतियोगिषु साधनाऽव्यापकत्वमस्त्येवेति कृत्वा पूर्वोक्तानुमाने प्रदर्शितः प्रागभावाऽप्रतियोगित्वलक्षण उपाधिरनुपाधिरेवेति मन्तव्यम् । ततश्च
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सम्बन्ध में नहीं रहता है । भेद स्वप्रतियोगितावच्छंदक धर्म का व्यथिकरण होने से गुरुत्वाद्यन्यतमत्व के अधिकरण गुरुत्व • में नहीं रह सकता। इसी तरह परमाण्वादिविषयक नित्य प्रत्यक्ष में, जो कि प्रत्येक जीवात्मा में समवेत है, भी गुरुत्वाद्यन्यतमत्व | रहता है, क्योंकि गुरुत्वपदोत्तरवर्ती आदि शब्द से नित्य प्रत्यक्ष का ग्रहण अभिमत है। नित्य प्रत्यक्ष में उक्त भेदप्रतियोगितापच्छेदक | के रहने से उक्त भेद नहीं रह सकता, जो कि षियतासम्बन्ध से प्रत्यक्षमात्र का हेतु है। अतएच नित्य प्रत्यक्ष में विपयतासम्बन्ध से मानस प्रत्यक्ष नहीं उत्पन्न हो सकता यानी प्रत्येक जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष का मानस साक्षात्कार नहीं हो सकता। अतः नित्य प्रत्यक्ष के आश्रयविधया जीवात्मा की कल्पना करने में कोई दोष नहीं है। अतएच ईश्वर की सिद्धि नित्य प्रत्यक्ष के अधिकरणविधया नहीं हो सकती - यह फलित होता है ।
* जित्य सानादि जामुमकिन - मातविशेष * संयोगत्वा. इनि ! किसी विद्वान् का यह मन्तव्य है कि -> 'संयोगत्वावच्छेदेन यानी संयोगमात्र के प्रति द्रव्य समवायिकारण होने से कोई भी संयोग नित्य नहीं होना है, ठीक वैसे ही ज्ञानत्वादिअवच्छेदेन यानी ज्ञानादिमात्र के प्रति आत्मा समवायी कारण होने से कोई ज्ञान, इच्छा या प्रयत्न निन्य नहीं हो सकता । कार्यतावच्छेदकीभूत ज्ञानत्वादि धर्म ईश्वरसमवेत ज्ञानादि में रहता है, फिर उसे अकार्य = नित्य कैसे माना जा सकता है ? अतः नित्य ज्ञानादि ही असिद्ध होने से उसके आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि कैसे की जा सकती है ? जो ज्ञान सिद्ध होगा, वह अनित्य ही होगा, जिसका आश्रय जीवात्मा हो सकता है। अतः जीवात्मा से विलक्षण परमात्मा की कल्पना अप्रामाणिक है' <- ।
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* स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञानस्य प्रवर्तकत्वम्
वस्तुतः कृतेरपि चेष्टादिव्दारा विलक्षणसंयोगं प्रत्येव हेतुता न तु घट मात्रं प्रत्यपि, मानाभावात् । न चैवं कुम्भकारादेः स्वकृतिसाध्यताज्ञानं विना घटादी प्रवृत्तिः कथं १ इति वाच्यम्, स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञानस्यैव तत्र प्रवर्तकत्वात् । 'स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोग* जयलता
न प्रागभावप्रतियोगित्वलक्षणकार्यत्वावच्छिन्ने सकर्तृकत्वसिद्धिः ।
अस्तु वा यथाकथञ्चित् कार्यमात्रे सकर्तृत्वसिद्धिः । तथापि सकर्तृकत्वं यदि प्रत्यक्षजन्यत्वरूपं तदा घटादी बाधः, प्रत्यक्षमेच्छाजनकत्वेन तत्राऽन्यथासिद्धत्वात् । अत एव चिकीर्षाजिन्यत्वलक्षणमपि तन सम्भवति, तस्या अपि कृतावेव हेतुत्वात् । अनेन ज्ञानस्य चिकीर्षाद्वारा कृतिजनकत्वमित्युक्तावपि न क्षतिः, तथापि घटादौ प्रत्यचजन्यत्वाऽसिद्धेः । 'अस्तु तर्हि कृतिजन्यत्वमेव सकर्तृकत्वं कृतेः चेष्टादिद्वारा घटादिजनकत्वात् । न हि व्यापारेण व्यापारिणोऽन्यथासिद्धिरिति तैया विकाशङ्कायां प्रकरणकृदाह- वस्तुत इति । कृतेरपि किमुत ज्ञानादेः ? इत्यपिशब्दार्थः, चेष्टादिद्वारा आदिपदेन पूर्वावयवविभागपूर्वसंयोगनाशग्रहणम्, विलक्षणसंयोगं कपालद्वयादिविजातीयसंयोगं प्रत्येव हेतुता न तु घटमात्रं घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रत्यपि, कुतः ? मानाभावादिति । कृतेः चेष्टादिद्वारा विजातीयसंयोगजनने एवोपक्षीणत्वेन घटादिकं प्रत्यन्यथासिद्धेः वदत्वाद्यवच्छिन्नजनकत्वे प्रमाणाभावादित्यर्थः ।
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=
४२८
परकीयशङ्कामपहस्तयितुमुपक्षिपति न चेति । वाच्यमित्यनेनाऽस्यान्वयः । एवं कृतेः घटत्वाद्यवच्छिन्नजन्यतानिरूपितजनकत्वशून्यत्वे सति कुम्भकारादेः स्वकृतिसाध्यताज्ञानं = स्वसमवेत कृतिनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यताबोधं विना घटादी प्रवृत्तिः = घटाद्युद्देश्यकप्रवृत्तिः, उद्देश्यकत्वस्य सप्तम्यर्थत्वात् कथं स्यात् ? यद्धर्मावच्छिन्नोद्देश्यकं प्रवर्तनं तद्धर्मे स्वप्रयत्नजन्यतावच्छेदकत्वज्ञानस्य तद्धर्मावच्छिन्ने स्वप्रयत्नजन्यत्वज्ञानस्य वा प्रवर्त्तकत्वनियमात् । न हि कोऽपि मेद्यानयने प्रवर्त्तते तत्र स्वकृतिसाध्यत्वावबोधस्य विरहात् । ततश्च घटादेः कृत्यजन्यत्वे तत्र स्वकृतिसाध्यत्वज्ञानविरहेण कुलालादिप्रवृत्तिः नैव स्यादिति तदन्यथानुपपत्त्या कृतेः घटादिजनकत्वमकामेनाऽपि व्यवहारानुपातिना ऽभ्युपगन्तव्यमिति शङ्काशयः ।
प्रकरणकृत्समाधत्ते स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञानस्यैवेति । एवकारेण स्वकृतिसाध्यताज्ञानस्य व्यवच्छेदः कृतः । तत्र - घटादी, कुलालादीनां प्रवर्त्तकत्वात् । इदमत्र प्रकरणकृत आकूतम् साध्यं नाम साक्षात् जन्यं प्रयोज्यं नाम साक्षात् परम्परया वा जन्यम् । स्वकृतिसाध्यताज्ञानस्यैव प्रवर्त्तकत्वाभ्युपगमे स्वकृत्या परम्परया जन्यत्वज्ञानस्य व्यवच्छेदः भवति । न चैतावासकांचे किमपि कारणमस्ति बाधकाभावात् । अतः स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञानस्यैव प्रवर्त्तकत्वमङ्गीकार्यम् । युक्तञ्चैतत्, अन्यथा कृषिवलादीनां कृष्यादी प्रवृत्तिः कथं घटामश्चेत् ? न हि तत्र तेषां स्वकृतिसाध्यताज्ञानमस्ति । स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञानं तु घटाद कुम्भकारादेः बाढमस्ति घटादेः कपालद्वयविजातीयसंयागादिजन्यत्वात् । अतो न कुलालादेः घटादौ प्रवृत्त्यनुपपत्तिः ।
परः शते स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेन कुलालादिकृतिग्रहणं तत्प्रयोज्यः कपालादिसमवेतो
* कुलालादिप्रयत्न विज्ञातीयसंयोग के प्रति ही कारण - स्याद्वादी वस्तुत इति । वस्तुस्थिति तो यह है कि ज्ञानजन्य इच्छा से जन्य प्रयत्न भी चेष्टा के द्वारा विलक्षणसंयोग के प्रति ही हेतु है, न कि घटमात्र के प्रति भी, क्योंकि घटमात्र के प्रति भी हेतुता के स्वीकार में कोई प्रमाण नहीं है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि 'विलक्षण संयोग मात्र के प्रति ही कृति चेष्टा के द्वारा कारण होने पर घटादि के उद्देश्य से कुम्हार आदि प्रवृत्ति कैसे करेंगे ? स्वकृतिसाध्यताप्रकारक ज्ञान प्रवर्तक होता है । कुम्हार के प्रयत्न से विजातीय संयोग साध्य होने पर उद्देश्य से कुम्हार प्रवृत्ति करेगा, मगर घट तो कुम्हारप्रयत्न से साध्य = जन्य नहीं होने से घटोद्देश्यक कुम्हार प्रवृति नहीं हो सकती' ८ मगर यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि घटादि में स्वकृतिसाध्यताज्ञान कुम्हार आदि को नहीं होने पर भी स्वकृतिप्रयोज्यताज्ञान तो होता है। कुम्हारादि के प्रयत्न से चेष्टाद्वारा विजातीयसंयोग (= कपालद्वयविलक्षणसंयोगआदि) जन्य होता है और विजातीय संयोग से घटादि जन्य होता है। अतः घटादि कुम्हारादि के प्रयत्न से जन्य नहीं होता है, किन्तु प्रयोज्य होता है । साक्षात् हेतु को कारण कहते हैं और साक्षात् या परम्परया से हेतु को प्रयोजक कहते हैं । अतः घटादि के प्रति कुम्हारादि का प्रयत्न प्रयोजक है । कुम्हारादि को स्वप्रयत्न में घटादिप्रयोजकता का ज्ञान होने से घटादि के उद्देश्य से कुम्हारादि की प्रवृत्ति हो सकती है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि “कुम्हारादि
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४२९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * कुलालकृतघंटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वम् *
सम्बन्धेत घटादौ कुम्भकारादिकृतेर्हेतुत्वेऽपि बाधकामाव' इति चेत् ? न, दण्डावयवस्याऽप्येवं घटं प्रति हेतुतापत्तेः । 'तनावश्यक्लुप्ते'त्याद्यन्यथासिन्देः न हेतुत्वमिति यदि, तदाज्ञाऽपि तुल्यम् ।
= =* जयलता * विलक्षणसंयोगो घटाद्यसमवायिकारणल्वेनाभिमतः, तादृशासम्बन्धेनेति । घटादी कुम्भकारादिकृतेः हेतुत्वेऽपि बाधकाभाव इति । समवाचन घटादिकं प्रति स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगेन कुलालादिकृतेः हेतुत्वमिति कार्य-कारणभावोपगमेऽपि न किञ्चिद्राधकमस्ति, कार्य-कारणसामानाधिकरण्यनिर्वाहात् । एतेन कृतेः चेष्टादिद्वारा विजातीयसंयोगत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुता न तु घटत्वावच्छिन्नं प्रत्यपीति प्रत्युक्तम् ।
प्रकरणकारः तन्निराकुरुते- नेति । दण्डावयवस्याऽपीति । एवं = स्वप्रयोज्यभ्रमणवत्त्वसम्बन्धेन, घटं प्रति हेतुता. पत्तेरिति । यथा कुलालकृतिः चेष्टादिद्वारा विजातीयसंयोगं सम्पादयति यः समवायेन कपाले वर्तते तथा दण्डावयवा अपि दण्डद्वारा भ्रमिक्रियां सम्पादयन्ति; या समवायेन कपाले वर्तते । ततश्च समवायेन घटं प्रति यधा स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगेन कुलालकृतेः हेतुत्वं तथैव समवायेन घटं प्रति स्वप्रयोज्यभ्रमिसक्त्त्वसम्बन्धेन दण्डावयबानामपि कारणत्वं सम्भवति ।
तत्र = दण्डावयवेषु, 'अवश्यक्लृप्ते' त्याद्यन्यथासिद्धेः' = 'अवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिन एव कार्यसम्भबे तद्भिनमन्यथासिद्धमि'त्यन्यथासिद्धृत्वग्रस्तत्वात्, न हेतुत्वं = घटकारणत्वमिति यदि नैयायिकेन विभाज्यत इति शेषः । प्रकृतकार्यनिरूपितलधुनियतपूर्ववृत्तित्ववद्भिन्नत्वं प्रकृतकार्यनिरूपितान्यधासिद्धत्वमिति लक्षणं बोध्यम् । दण्डावयवत्वापेक्षया दण्डत्वस्य कारणतावच्छेदकल्वे लाघवाद् स्वजन्यभ्रमिमवत्त्वसम्बन्धेन दण्डादेव घटसम्भवे तद्भिन्नानां दण्डावयवानां घट प्रत्यन्यथासिद्धत्वं, स्वसमवेतजन्यभ्रमिमत्त्वसंसर्गेण दण्डावयवानां घटकारणत्वे सम्बन्धगौरवाच न तद्धेतृत्वसम्भव इति यदि परेण विभाव्यते, तदा अत्र = कुलालकृतेः घटकारणत्वमते, अपि तुल्यं = समसमाधानमिति प्रकरणकारेणोच्यते । तथाहि घटं प्रत्यवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिनः कपालद्धय विजातीयसंयोगादेव घटसम्भवे तद्भिन्न-कुलालकृतेः बट प्रत्यन्यथासिद्धत्वम् । विजातीयसंयोगस्य कारणत्वे समबायस्य कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वं, कुलालकृतेः कारणत्वं तु स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगस्य कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्व
को स्वकृतिसाध्यतासम्बन्ध से विलक्षणसंयोग के प्रति कारण मानना और घटादि के प्रति प्रयोजक मानना इसकी अपेक्षा कुम्हारादि की कृति को स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्ध से घटादि का हेतु मानना उचित है । स्व : कुलालादिप्रयत्न, उससे प्रयोज्य कपालद्वयादिविजातीयसंयोग कपालादि में रहता है । कुलालादिप्रयत्न स्वप्रयोज्यविलक्षणसंयोगसम्बन्ध से कपालादि में रहेगा । अतः समवाय सम्बन्ध से घटादि भी वहाँ ही उत्पन्न होगा। इस तरह कुलासादिकृति घटादि की जनक हो सकती है, तो फिर घटादि में कुलालादि की स्वकृतिसाध्यताज्ञान से प्रवृत्ति होने में क्या बाथ है १ अतः 'कुलालादि स्वकृतिप्रयोज्यत्वज्ञान | से घटादि के उद्देश्य से प्रवृत्ति करते हैं। यह मानना ठीक नहीं हे" <
कुलालादिप्रयत्न घटादि के प्रति अन्यथासिन्द ने, दण्डा, इति । तो यह नैयायिकवक्तव्य भी नामुनासिब है; क्योंकि कुलालादिकृति को स्वप्रयोज्यविजातीयरयोगसम्बन्ध से घटादि का कारण - जनक माना जाय, तर तो दण्डावयव को भी घट का हेतु मानने की आपनि आयेगी, क्योंकि स्वप्रयोज्यभ्रमणवत्वसम्बन्ध से दण्डाचयच भी घट का कारण कहा जा सकता है। स्व = दण्डावयव, वह दण्ड द्वारा भ्रमि क्रिया को उत्पन्न करता है । तथा वह भ्रमण क्रिया समवाय सम्बन्ध से कपाल में रहती है। अतः दण्डावयव स्वप्रयोज्यभ्रमित्त्वसम्बन्ध से कपाल में रहेंगे और समवाय सम्बन्ध से घट भी कपाल में उत्पन्न होता ही है। अतः कुलालादिप्रयत्न की भाँति दण्डावयव भी घट का हेतु हो सकता है। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "दण्डावयव तो घट के प्रति अन्यथासिद्ध है, क्योंकि घट के प्रति अवश्यक्लप्त दण्ड से ही यट की उत्पत्ति सम्भवित है।।<-- तो यह समाधान कुलालप्रयत्न में
भी समान है। घट के प्रति अवश्य कल्पनीय कपालद्वयविजातीयसंयोग से ही घट की उत्पत्ति सम्भावित है, तो कुलालादिप्रयत्न | घट के प्रति अन्यथासिद्ध हो जायेगा । घट के प्रति कपालद्वयधिजातीयसंयोग में कारणता अवश्य क्लुप्त है, क्योंकि केवल कुलालादिप्रयत्न से ही घट उत्पन्न नहीं होता है किन्तु कुलालप्रयत्न से कपालद्वयविलक्षणसंयोग उत्पन्न होने के बाद ही घट उत्पन्न होता है । इस तरह कुलालप्रयत्न में घटकारणता की कल्पना करने पर भी कपालयविजातीयसंयोग में यटकारणता मानना आवश्यक है और उसीसे घटोत्पाद का निर्वाह हो सकता है, तब कुलालप्रयत्न में क्यों घटकारणता का अंगीकार
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* दण्डकार्यतावच्छेदकस्य खण्डघटादिन्यावृत्तत्वम्
अथैवं दण्डस्यापि घटं प्रति हेतुता न स्यात्, खण्डघटादों व्यभिचारादिति चेत् ? न तज्जन्यतावच्छेदकस्य घटत्वस्य स्वर्णघटादेरिव खण्डघटादेरपि व्यावृत्तत्वात् । कपालजन्यतावच्छेदकस्यैव दण्डजन्यतावच्छेदकत्वमुचितमिति चेत् ? बाधकसत्त्वे किमौचित्यचिन्तासन्तापेन १
* जयलता
मिति सम्बन्धकृतगौरवदोषान्त कुलालकृतेरुक्तसम्बन्धेन घटहेतुत्वसिद्धिरित्यपि सुवचमिति प्रकरणकृदाशयः ।
परः शङ्कते अथेति । 'चेदि' त्यनेनाऽस्यान्वयः । एवं = कुलालकृतेः घटं प्रति प्रयोजकत्वं न तु हेतुत्वमित्येवं । स्वीकारे, दण्डस्यापि कुलालकृतेरिव घटं प्रति हेतुता न स्यात् दण्डमृतेऽपि खण्डघटादेर्जायमानत्वेन खण्डघटादी व्यभिचारात् व्यतिरेकव्यभिचारात् । घटस्य किञ्चिदशांपगमे विजातीयसंयोगनाशे घटनाशो भवति तदनन्तरं खण्डघटो दण्डं विनैव जायत इति व्यतिरेकव्यभिचारात् दण्डस्यापि घटकारणत्वं न स्यात् । अपिशब्देन कुलालचक्रादेः समुच्चयः कृतः ।
=
४३०
प्रकरणकृत् तन्निराकुरुते नेति । तज्जन्यतावच्छेदकस्य दण्डचक्रादिनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यताया अवच्छेदकीभूतस्य, घटत्वस्य स्वर्णघटादेरिव खण्डघटादेरपि सकाशात् व्यावृत्तत्वादिति । यथा दण्ड-चक्रादिकं विनैव सौवर्ण- राजत ताम्रघटादेः जायमानत्वेन दण्ड-चक्रादिजन्यतावच्छेदकीभूतं घटत्वं ततो व्यावृत्तमेवेति परेणोपगम्यते तथैव तत् खण्डघटादितोऽपि व्यावृत्तमेव । खण्डघट - सौवर्णघटाद्यवृत्ति घटत्वं दण्ड- चक्रादिजन्यतावच्छेदकमिति न व्यतिरेकव्यभिचारावकाशः ।
परः शङ्कते - कपालजन्यतावच्छेदकस्यैव दण्डजन्यतावच्छेदकत्वमुचितमिति । दण्डचक्रादिजन्यस्यैव घटस्य कपालजन्य - त्वेन कपालनिष्ठसमवायिकारणतानिरूपितायाः कार्यताया अवच्छेदकस्यैव दण्ड-चक्रादिनिष्ठजनकतानिरूपिताया जन्यताया अब च्छेदकधर्मत्वं न्याय्यं लाघवात् । खण्डघटस्याऽपि कपालजन्यत्वेन कपालकार्यतावच्छेदकीभूतस्य घटत्वस्य खण्डघटवृत्तित्वसिद्ध दण्ड- चक्रादिजन्यतावच्छेदकीभूतस्य घटत्वस्याऽपि तत्र सिद्धिः, तयोरैक्यादिति दण्ड- चक्रादिजन्यतावच्छेदकीभूत घट त्वस्य स्वर्णघटादेर्व्यावृत्तत्वेऽपि न खण्डघटादितो व्यावृत्तत्वं युक्तमिति पराभिप्रायः ।
अत्र प्रकरणकृत्समाधत्ते बाधकसत्त्वे व्यतिरेकव्यभिचारलक्षणबाधकप्राप्ती, किमौचित्यचिन्तासन्तापेन ? तेनाऽलमित्यर्थः । दण्डादि - कपालयोः जन्यतावच्छेदकैक्ये लाघवेऽपि खण्डघटादेः दण्डादिकं विनैव जायमानत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारप्राप्ती दण्डादिजन्यतावच्छेदकीभूतस्य घटत्वस्य खण्डघटादितो व्यावृत्तत्वमभ्युपगम्यते, बाधकसत्त्वे कार्य कारणभावस्यैव विघटनेन किया जाय ? निष्कर्ष दण्डावयव की भाँति कुलालकृति भी घट के प्रति अन्यथासिद्ध है।
* दण्ड भी घटविशेष का ही कारण है- स्याद्वादी
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अथैवं इति । नैयायिक का यह वक्तव्य कि " इस तरह विचार किया जाय तो दण्ड भी घट का हेतु नहीं हो सकेगा, क्योंकि खण्ड घट की दण्ड के बिना ही उत्पत्ति होती है। निश्छिद्र घट उत्पन्न होने के बाद जब घट का कोई कंकड़ घट से अलग हो जाता है तब सच्छिद्र घट यानी खण्ड घट उत्पन्न होता है या मगर तब दण्ड अनुपस्थित होता है। बिना दण्ड के ही खण्ड घट की उत्पत्ति होती है। अतः दण्ड भी पटमात्र के प्रति व्यतिरेक व्यभिचार से अन्यधासिद्ध = अकारण हो जायेगा" < भी असंगत है, क्योंकि दण्ड भी सभी घट के प्रति कारण ही नहीं है। सुवर्णघट ताम्रघट आदि की उत्पत्ति बिना दण्ड के ही होती है । अतः दण्ड के जन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व स्वर्ण घट, ताम्र घट आदि से व्यावृत्त मानना आवश्यक ही है । तब तो यही कल्पना करनी उचित है कि दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्वविशेष सौवर्ण घट आदि की भाँति खण्ड घट में भी नहीं रहता है। इस तरह खण्ड घट में दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्वविशेष नहीं होने से बिना दण्ड के खण्ड घट उत्पन्न हो तो भी दण्ड में व्यतिरेक व्यभिचार प्रसक्त नहीं होगा । स्वकार्यतावच्छेदकधर्मशून्य की अपने बिना उत्पत्ति हो यह व्यतिरेक व्यभिचार का स्वरूप नहीं है। अतः दण्ड को घटविशेष का कारण मानने में कोई दोष नहीं है । यहाँ नैयायिक की और से यह कहा जाय कि "कपालजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व तो खण्ड घट
में भी रहता हैं, मगर आप स्याद्वादी उसमें दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व नहीं मानते हैं । यह उचित नहीं है, क्योंकि इसमें गौरव है । इसकी अपेक्षा कपालजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को ही दण्ड का जन्यतावच्छेदक मानना मुनासिव है" <- तो नैयायिक की यह औचित्यचिन्ता भी निरर्थक है, क्योंकि लाघवगौरव के औचित्य का तब अवसर आता है, जब कोई बाधक न हो । बाधक होने पर लाघव का औचित्य अकिञ्चित्कर होता है । खण्ड घट में दण्ड का उपर्युक्त व्यतिरेक
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४३१ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * परद्रव्यस्य नियतोऽकारणत्वम् *
वस्तुतो दण्डादेः प्रयोजकत्वेऽपि न क्षतिः, अनात्यन्तिकत्वात, घटादौ निश्चयत: स्वद्रव्यस्यैव हेतुत्वात् । अत एव दिकपालघटादेरपि कपालान्तरसंयोगेन त्रिकपालघटोत्यत्ति: । न हि तत्र तदानीं कुम्भकारादयो व्याप्रियमाणा दृश्यन्ते ।
___ अथ नेदं युक्तं, घटं पति घरजलकविजातीयसंयोगं प्रति च कपालत्वेनैव हेतुत्वादिति ! H----.-...----. -- * जयललता - - -- || कार्यताबन्दकलाघवस्याऽकिश्चित्करत्वात् । न च गौरवं दोषः, फलाभिमुखत्वेन तस्याऽदोषत्वात् । ततश्च खण्डित-सौवर्णराजतादियटभिन्नं घट प्रति दण्ड-चक्रादेः कारणत्वमिति फलितम् ।
इदञ्च व्यवहारनयमनुरुध्योक्तम् । निश्चयनयमतेन तु दण्डादेः न घटहेतुत्वमिति स्वाशयमविर्भावयति प्रकरणकारः - वस्तुत || इति । दण्डादेरिति । आदिपदेन कुलाल-तत्कृति-चक्र-धीवरादेर्ग्रहणम् । घटं प्रति प्रयोजकत्वे अङ्गीक्रियमाणे अपि न क्षतिः
= व्यतिरेकव्यभिचारानबकाशः, तस्य अनात्यन्तिकत्वात् = अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्तित्वाभावेनाऽकारणत्वात् । तदपि कुतः ? इत्याशङ्कायामाह- घटादौ निश्यतः = निश्चयनयमवलम्च्य स्वद्रव्यस्य = मृदादेः, एव हेतुत्वात् दण्डादेः घटाद्यपेक्षया || परद्रव्यत्वेनाकारणत्वमित्यर्थतो लभ्यते । प्रयोजकमृते कार्योत्पादे विद्धांसो न व्यतिरेकन्यभिचारमामनन्ति । अतो दण्डादेः | प्रयोजकत्वाम्भ्युपगमे व्यतिरेकव्यभिचारानवकाशः । निश्चयनयाभिप्रायस्तु ग्रन्थान्तरादवसातव्यः ।
अत एवेति । दण्ड-चक्र-चीवर-कुलालादीनां घटं प्रति प्रयोजकत्वं मृदादेश्च कारणत्वमित्यभ्युपगमादेवेति । द्विकपालघटादेः सकाशात् अपि कपालान्तरसंयोगेन त्रिकपालघटोत्पत्तिरिति । स्वद्रव्यस्यैव हेतुत्वकल्पने इयमुपपद्यते, यतो न हि || तत्र त्रिकपालघटोत्यादस्थले, तदानीं = त्रिकपालघटोत्पादाऽव्यवहितपूर्वक्षणे, कुम्भकारादयः = कुलालचक्रचीवरदण्डादायः, व्याप्रियमाणाः = व्यापारं कुर्वन्तो दृश्यन्ते । कुलालादीनामपि घटं प्रति कारणत्वे तु प्रकृते व्यतिरेकव्यभिचारस्य दुर्निवारत्व| मायुष्मतः ।
___ परः शङ्कते- अथेति । नेदं युक्तं = कपालान्तरसंयोगेन द्विकपालघटादितः रिकपालघटोत्पादकल्पनं न सङ्गतम् ।। कुतो हेतोः ? इत्याशङ्कायामाह- घटं प्रति = समवायसम्बन्धेन घटत्वावच्छिन्ने प्रति, घटजनकविजातीयसंयोगं प्रति = बटाऽसमवायिकारणीभूतकपालद्वयविजातीयसंयोगत्वावच्छिन्न प्रति, च कपालत्वेनैव हेतुत्वात् = कपालत्वावच्छिन्नस्य कारण
-MAI
व्यभिचार ही दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को खण्ड घट में मानने में बाधक है । अतः कपालजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को एवं दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को भिन्न भिन्न मानना ही उचित है। निष्कर्ष :- दण्ड घटमात्र का नहीं, अपितु घटविशेष का कारण है।
वस्तुतः दण्ड घर का कारण जहीं, प्रयोजक है - स्यादादी । वरततो द. इति । वस्तुस्थिति तो यह है कि दण्ड घटविशेप का भी कारण नहीं है, किन्तु घटसामान्य का प्रयोजक है. ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि दण्ड घट के प्रति अत्यन्त आवश्यक = कारण नहीं है। निश्यत: तो घटादि में स्वद्रव्य = मृदादिद्रव्य ही हेतु है । पर द्रव्य में निश्चय नय से कारणता ही नहीं होती है । दण्ड तो घट का स्वद्रव्य नहीं है । अतः दण्ड में निश्चयतः घटकारणता नहीं है। हाँ, दण्ड को घर का प्रयोजक कहने में कोई क्षति नहीं है । निश्चय नय से घट का कारण मृद् द्रव्य ही है, उससे व्यतिरिक्त दण्ड, चक्र, चीवर, कुलाल आदि तो प्रयोजक है । इसीलिए तो द्विकपाल यट में कपालान्तर का संयोग होने पर त्रिकपालवाले घट की उत्पत्ति की उपपत्ति हो सकती है। कुम्हार, दण्ड, चक्र आदि का कोई भी व्यापार नहीं होता है, फिर भी दो कपाल बाला घट जब गीरता है तब तीसराकपाल उत्पन्न होता है और उसके संयोग से दरारवाले तीनकपाल वाले घट की उत्पत्ति द्विकपालवाले घट से होती है। उसके अनुरोध से दण्ड, चक्र, चीवर, कुम्हार, उसके ज्ञान आदि को घट का प्रयोजक मानना युक्त है, न कि कारण | इस परिस्थिति में ईश्वर की सिद्धि कैसे हो सकती है। क्योंकि ईश्वर या ईश्वरज्ञान आदि में कारणता ही असिद्ध है - यह उपर्युक्त विचारशृंखला से ध्वनित होता है।
uc में भी कचिकपालत्त साक्षात् रहता है - स्यादादी । अध ने. इति । यहाँ यह नैयायिक उदार कि -> "दो कपाल बाले घर से ही कपालान्तर संयोग से तीन कपालवाले
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* बिकपालघटे कश्चिकपालत्वस्वीकारः* चेत् ? न, कश्चित्कपालत्वस्यापि तत्र स्वीकारात् । अत एव 'कपालमयो घट' इति । प्रतीति: । न हि इयं 'अयस्पिण्डस्तेजोमय' इतिवदुपपत्स्यते, साक्षात्सम्बन्धे बाधकामा- .
=-=-=-=* जयलता. * त्वनियमादिति । एवकारेणाऽन्ययोगव्यवच्छेदः कृतः, प्रकृते द्विकपालघटस्य त्रिकपालघटहेतुत्वव्यवच्छेदः ज्ञेयः । घटः कपालं कपालविजातीयसंयोगं च विना न भवितुमर्हति, विजातीयसंयोगश्च कपालं विना न भवितुमर्हति, कपालत्वस्य तत्कारणतावच्छेदकत्वात् । ततश्च कपालान्तरसंयोगेन सहकृताद् द्विकपालघटात् त्रिकपालपटो न भवितुमर्हति, द्विकपालघटे घटत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकस्य कपालत्वस्य विरहात्, अन्यथा तदाकस्मिकत्वप्रसङ्गात् । अतः कपालत्रिकादेव विजातीयसंयोगोत्पत्त्यनन्तरं त्रिकपालघटोत्पाद उपगन्तुमर्हतीति शङ्काभिसन्धिः ।
प्रकरणकृत् प्रत्याचष्टे - नेति । कथश्चिकपालत्वस्यापीति । अपिशब्देन प्रतीतघटत्वादेः परिग्रहः । तत्र = द्विकपालघटे स्वीकारादिति । द्विकपालघटे 'इदं कपालमि' तिव्यवहारप्रयोजकीभूतस्य कपालत्वस्याऽसत्त्वेऽपि घटत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकीभूतस्य कपालत्वस्य सत्त्वेन ततो विजातीयसंयोगस्य घटस्य चोत्पादेऽपि व्यतिरेकव्यभिचारानवकाशः । कारणतावच्छेदकावच्छिन्नादेव कार्योत्पत्तेराकस्मिकत्वप्रसङ्गोऽपि नास्ति । 'परं द्विकपालघटे कथं कपालत्वसिद्धिः ?' इत्याशङ्कायामाह- अत एवेति । तत्र घटे स्यात् कपालत्वस्य सत्त्वादेव । 'कपालमयो घटः' इतिप्रतीतिः उपपद्यते । यथा मृत्त्वस्य घटे सत्त्वादेव 'मृण्मयो घट' इतिप्रतीतिर्भवति तथैवाऽपेक्षितकपालत्वस्य तत्र सत्वादेव 'कपालमयो घट' इति प्रतीतिर्भवितुमर्हति । प्रकृते परम्परासम्बन्धपराकरणार्थं प्रकरणकारः प्रक्रमते- न हीति । इयं = 'कपालमयो घट' इति प्रतीतिः। तेजस्त्वस्य समवायेनाऽपस्पिण्डे विरहेऽपि स्वसमवायिसंयोगसम्बन्धेन तत्र वर्तमानत्वात् 'अयस्पिण्डस्तेजोमय' इतिवत् = तादृशप्रतीतिवत्, उपपत्स्यते । कुतो हेतोः ! इत्याह- साक्षात्सम्बन्धे = समवायेऽपृथग्भावे वा सम्बन्धे स्वीक्रियमाणे, बाधकाभावात् = दोषाभावात् । अयोगोलकस्य शीतलीभवने तत्र तेजोमयत्वप्रतीतेः विरहात् न समवायन तत्र तेजस्त्वं स्वीकर्तृमर्हतीति स्वसमवायिसंयोगलक्षणपरम्परासम्बन्धेन तत्र तेजस्वमङ्गीक्रियते, स्वस्य = तेजस्त्वस्य समवायिना = तेजसा तस्य संयुक्तत्वात् । समवायेन तत्र तेजस्वोपगमे तु पूर्वमिव पश्चादपि तादृशप्रतीतिप्रसङ्गस्यैव बोधकत्वम् । न च प्रकृते
घट की उत्पत्ति की कल्पना युक्त नहीं है, क्योंकि घट और घटजनक विजातीयसंयोग के प्रति कपालत्वेन कपाल कारण होता है । घट के प्रति कपाल तादात्म्यसम्बन्ध से कारण होता है और घदजनक (= घटासमवायिकारण) विजातीय संयोग के प्रति भी वह तादात्म्यसम्बन्ध से कारण होता है। दो कपाल वाले घट में कपालत्व ही नहीं होने से उससे कपालान्तर के संयोग से तीन कपाल बाले घट की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। एवं तीन कपाल वाले घट के जनक = असमवायी कारण तीनकपालसंयोग की भी उत्पत्ति तीन कपाल के बिना कैसे हो सकेगी ? कपालान्तरसंयोग से दो कपाल वाले घट को तीन कपालबाले घट का जनक मानने में उपर्युक्त कार्य-कारणभाव का भङ्ग ही बाधक है" <- भी नामुनासिब है, क्योंकि द्विकपाल वाले घट में हम स्याद्वादी कथंचित्कपालत्व का भी स्वीकार करते हैं । इसलिए तो 'कपालमयो घटः' इत्याकारक प्रतीनि होती है । यहाँ यह कहना कि -> "जैसे अग्नि से अतितप्त लोहपिण्ड में भी 'अयस्पिण्डः तेजोमयः' इत्याकारक प्रनीनि होती है। मगर क्या इससे अग्नित्व लोइपिण्ड में सिद्ध हो सकता है ? अग्नित्व तो समवायसम्बन्ध से अग्नि में रहता है, जो कि लोहपिण्ड से संयुक्त है । अत: लोहपिण्ड में वह्नित्व समवाप से नहीं, बल्कि स्वसमवायिसंयोगसम्बन्ध से रहने की वजह 'अग्निमयो लोपिण्डः' यह प्रतीति होती है, यह माना जाता है । ठीक वैसे ही कपालत्व भी द्विकपाल वाले घट में समवायसम्बन्ध से नहीं, बल्कि स्वसमवायिसमवेतत्वनामक परम्परासम्बन्ध से रहेगा, जिसकी वजह 'कपालमयो यटः' यह प्रतीति होती है" <- भी असंगत है, क्योंकि कथञ्चित्कपालत्व और घट के बीच साक्षात् सम्बन्ध के स्वीकार में कोई बाध नहीं है। लोहपिण्ड जब गीत हो जाता है, तब 'अग्निम्पो लोइपिण्ड:' यह प्रतीति नहीं होने से वहाँ समवाय से वहित्व को नहीं माना जा सकता मगर घर के रहते हुए तो सदा के लिए 'कपालमयो घटः' यह प्रतीति हो सकती है। इसलिए कथञ्चितकपालत्व का घट में साक्षात् सम्बन्ध मुमकिन है। जहाँ साक्षात् सम्बन्ध मुमकिन हो वहाँ परम्परा सम्बन्ध की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि तब निरर्थक गौरव दोष प्रसक्त होता है । इसलिए समुचित तो यही है कि निर्दोपता
और लायब होने की वजह साक्षात् सम्बन्ध से ही कथञ्चित्कपालत्व घट में रहता है, यह माना जाय । घटकारणतावच्छेदकीभूत कश्चित्कपालत्व घट में कारणतावच्छेदकसम्बन्ध से होने की वजह दो कपाल वाला घट कालान्तर के संयोग से तीन कपाल वाले घट को उत्पन्न कर सकता है, भले कपालत्व को घटमात्र की कारणता का अवच्छेदक माना जाय । घट में कथञ्चिकपालव
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५३३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * आरभ्याऽऽम्भवादस्य स्वीकर्तव्यत्त्वम् * वात् । चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्तमेव पटानुत्पत्तौ पूर्व-पूर्वीक्रयाया वैय_प्रसगेनाऽऽरभ्यारम्भवादस्यैव युक्तत्वात् । एवं सति 'पदे पट' इतिप्रतीति: स्यादिति चेत् ? तर्हि पटत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपक
* जयलता * द्विकपालघटे समवायेन कपालत्वस्याऽभ्युपगमे किञ्चिद्बाधकमास्त, सति बटे सर्वदा 'कपालमयो घट' इतिप्रतीतेः जायमानत्वात् । साक्षात्सम्बन्धसम्भवे परम्परासम्बन्धकल्पनाया अन्याय्यत्त्वात्, गौरवात् ।
___ वस्तुतः स्वनये 'एतानि कपालान्येव घटतया परिणतानी तिप्रतीत्याऽवयवावयविनोः स्यादभेदसंसर्गो यथा सिध्यति तथैव 'वह्निपरिणतोऽयोगीलक' इतिप्रतीत्या तदानीं तयोरपि कथञ्चिदभेद इष्ट एव । तदुक्तं प्रवचनसारे ‘परिणमदि जेण दव्वं तत्काल तम्मयत्ति पणत्तं' (प्र.सा.१/८) इति । इयांस्तु विशेषो यत् - स्वावयवावयविनोरेकप्रदेशभावेनाऽभेदोऽनयोस्त्वेकावगाहताभावेनेति पूर्वमुक्तमेव ।
ननु कथञ्चित्कालत्वस्य घटवृत्तित्वे तु तयोः स्यादभेदः प्राप्तः । न चेष्टापत्तिरिति वक्तव्यम्, कपालोत्पत्तिसमये एव घटोत्पत्त्यापनेरिति चेत् ? मैवम्, तदानीं कपालाऽभिन्नत्वेन रूपेण घटस्पोत्पादे बाधकाभावात् । न चान्त्यसमये एव घट | उत्पद्यते न च त्वचरमसमयेऽपीति वाच्यम्, तथा सति मृदानयन-मर्दन-पिण्डविधान- चक्रारोपण-भ्रमणादिपूर्वपूर्वक्रियाया वैयर्थ्यांपत्तेः । न चोत्पन्नस्य पुनरुत्पत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, स्यात्कपालाभिन्नत्वेन रूपेण घटस्य तदानीमुत्पन्नत्वेऽपि घटत्वेनाऽनुत्पन्नत्वात् । एवमेव पटस्थलेऽपि वक्तव्यमित्याशयेन प्रकरणकृदाह- चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्तमेवेति । एवकारेणाञ्चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्तक्षणव्यवच्छेदः कृतः । पटानुत्पत्ती = अचरमतन्तुकत्वेन रूपेण पटस्याऽनुत्पत्ती, पूर्व-पूर्व क्रियायाः = द्विचरम-विचरमादितन्त्वातान-वितानादिक्रियायाः, वैयर्थ्यप्रसङ्गेन आरभ्यारम्भवादस्य = आरभ्यत्वेनाऽभिमतस्य प्रतिकर्म प्रतिक्षणं च कथश्चिदारम्भ इति बादस्य एव युक्तत्त्वादिति । एतेन द्वितन्तुकपटात् तन्त्वन्तरसंयोगेन त्रितन्तुकपटोत्पत्तिरपि व्याख्याता ।
परः शकते- एवं सतीति । द्वितन्तुकपटादेव तन्त्वन्तरसंयोगेन वितन्तुकपटोत्पादाभ्युपगमे सति, त्रितन्तुकपटस्य द्वित| न्तुकपटजन्यत्वेन 'पटे पट' इतिप्रतीतिः स्यात्, समवायिकारणस्यैव स्वकार्याधिकरणत्वादिति शङ्काशयः । प्रकरणकृत् समाधत्ते i - तीति । पटत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपकतावच्छेदकत्वं = पटत्वेनाऽवच्छिन्नाया आधेयताया यो निरूपको धर्मी तनिष्ठाया
| होने से ही उसमें तीनकपालवाले घट का जनक विजातीय संयोग भी उत्पन्न हो सकता है । इस तरह कुलाल, दण्ड, चक्र, चीवर आदि के बिना भी घट की उत्पत्ति मुमकिन होने से कुलालादि को भी घटत्वावच्छिब का कारण न मान कर घर का प्रयोजक मानना ही उचित है । इस तरह घटादि कार्य स्वइन्य से जन्य होने के सबब उपादानविशेप्यक प्रत्यक्ष आदि से साध्य नहीं है . यह सिद्ध होने से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती है, यह उपर्युक्त विचारधारा का निष्कर्ष है।
ॐ यमाणे कडे' सिद्दान्त से ज्यारम्भताद चरम. इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अवयवविजातीयसंयोग को कार्यजनक मानने वाले नैयायिक विद्वानों के मतानुसार चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्त पटात्मक कार्य उत्पत्र नहीं होता है। मगर ऐसा मानने पर पूर्व-पूर्व क्रिया व्यर्थ होने का प्रसंग उपस्थित होता है, क्योंकि पूर्वकालीन क्रिया बीत जाने पर भी पट अनुत्पन्न ही है। पूर्वकालीन क्रिया में निरर्थकता की आपत्ति को दूर करने के लिए यही मानना उचित है कि तत् तत् क्षण में जो आरभ्यमाण है, वह उसी क्षण में उत्पन्न हो जाता है । जैसे सप्ततन्तुप्रवेश के समय सप्ततन्तुक पर आरभ्यमाण है और वह उसी समय उत्पन्न हो जाता है । अष्टतन्तुप्रवेश के समय अष्टतन्तुक पट आरभ्यमाण है और वह उसी समय उत्पत्र हो जाता है। ऐसा मानने पर पूर्व-पूर्व क्रिया के वैफल्य का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित नहीं होता । अतः चरमनन्तुप्रवेश के समय तत्संख्याकतन्तुक पट आरभ्यमाण है और वह उसी क्षण में उत्पन्न हो जाता है । उस क्षण के पूर्व वह आरभ्यमाण ही नहीं होने से पूर्व-पूर्व क्रिया के होने पर भी उसकी उत्पत्ति नहीं होती है एवं पूर्व-पूर्व क्रिया के नैफल्य का दोष भी प्रसक्त नहीं होता है, क्योंकि पूर्व-पूर्व क्रिया से आरभ्य | तत् तत् पट की उत्पत्ति तत् तत् क्षण में हो चुकी है। अतः आरभ्य आरम्भबाद ही युक्त है । यहाँ यह शंका हो कि
-> "पटात्मक कार्य का अपने कारण तन्तु से अभेद मानने पर तो जैसे 'तन्तौ पट:' यह प्रतीति प्रामाणिक होती है ठीक वैसे ही 'पटे पटः' यह प्रतीति भी प्रामाणिक हो जायेगी, क्योंकि अधिकरणविधया प्रतीयमान तन्तु से अभित्र पट का तन्तु के स्थान में उल्लेख या प्रवेवा निरावाध रूप से हो सकता है। अतः 'पटे पटः' यह प्रतीति प्रामाणिक होने लगेगी"
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* विशेषावश्यकभाष्यसंवादः **
तावच्छेदकत्वं तन्तुत्व एव कल्पयतः तव का हानिः ?
अत्र चार्थे 'करामाणे कडे' इति सिद्धान्तसारोऽपि प्रमाणमिति ध्येयम् ।
* जयलता है
=
निरूपकताया अवच्छेदकधर्मत्वं, तन्तुत्वे एव कल्पयतः तव नैयायिकस्य का हानिः ? अत्रेदं तत्त्वम् यथा परेण 'घटध्वंसे घटो नास्ती' तिप्रतीतिबलेन सिद्धो वटध्वंसाधिकरणको घटात्यन्ताभावी लाघवाद घटध्वंसात्मकाधिकरणस्वरूप एव न त्वतिरिक्तः परं 'घटध्वंसे घटो ध्वस्त' इत्यप्रत्ययात् घटध्वंसस्य घटात्यन्ताभावत्वेन रूपेण स्वात्मनि सत्त्वेऽपि घटध्वंसत्वेन तत्राऽसत्त्वमङ्गीक्रियते । तयोरैक्येन घटध्वंसस्य वटध्वंसत्वावच्छिन्नाधिकरणताया निरूपकत्वेऽपि तादृशनिरूपकताया अवच्छेदकत्वं घटात्यन्ताभावत्वे एव परेणीपगम्यते । तथैव प्रकृतेऽचरमतन्तुकपटस्य चरमतन्तुकपटाधिकरणीभूततन्त्वभिन्नत्वेनोभयोः पटत्वावच्छिन्नाधेयताया निरूपकत्वेऽपि तादृशनिरूपकताया अवच्छेदकता त्वया प्रतीतिबलेन तन्तुत्वे एव कल्पनीयेति न पटे पट इति प्रतीत्यापत्तिः, पटत्वस्य पदत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपकतानवच्छेदकत्वादिति । एतेन घटे घट' इतिप्रतीत्यापत्तिरपि ! प्रत्युक्ता, घटत्वावच्छिन्न- समवायसम्बन्धावच्छिन्नाया आधेयतायाया निरूपकता धर्मिनिष्ठा तदवच्छेदकत्वस्य घटत्वेऽनभ्युपगमात् विशिष्टसत्तायाः शुद्धसत्तानतिरिक्तत्वेऽपि सत्तावद्गुणनिष्ठाधिकरणतानिरूपकतायाः सत्तानिष्ठाया अवच्छेदकत्वस्य गुणकर्मान्यत्ववि| शिष्टसत्तावेऽनभ्युपगमवदिति भावनीयमवहितमानसैः ।
अत्र चार्थे = आरभ्यारम्भवादे, 'कयमाणे कडे' इति सिद्धान्तसारः नैश्वयिकसिद्धान्तरहस्यं अपि प्रमाणमिति । इदमत्राकूतम् प्रतिसमयं विभिन्नान्येव कार्यामि समारभ्यन्ते निष्पाद्यन्ते च स्वकारणकाल-निष्ठाकालयोरेकत्वात् । अतीतभविष्यत्क्रियाक्षणी तु न कार्यकारको विनष्टानुत्पन्नत्वेनाऽसत्त्वात् व्याघ्रशृङ्गवत् । तदसत्त्वेऽपि कार्योत्पत्तिरभ्युपगम्यते तर्हि क्रियारम्भात् प्रागपि कार्योत्पादः प्रसज्येत, क्रियाऽसत्त्वाऽविशेषात् । न च क्रियोपरमे कार्यं भवति न तु क्रियासद्भावे तस्याः स्वोत्पत्तावेव व्यग्रत्वादिति वाच्यम्, कारणीभूताभावप्रतियोगित्वेन क्रियोत्पादस्य प्रतिबन्धकत्वापत्तेः । न च तर्हि क्रियाकालस्प कथं दीर्घत्वं घटस्य प्रथमसमय एवोत्पन्नत्वादिति वाच्यम्, प्रतिसमयोत्पन्नानां परस्परविलक्षणस्वरूपाणां शिवक-स्थास - कोशकुशूलादिकार्यकोटीनां क्रियाकाल-निष्ठाकालयोरेकत्वेन प्रतिप्रारम्भसमयनिष्ठा प्राप्तानामेव दीर्घक्रियाकालोपलम्भात्, घटस्तु पर्यन्तसमय एवारभ्यते तत्रैव च निष्पद्यत इति न तस्य दीर्थो निर्वर्तनक्रियाकालः । तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये -> 'पइसमउपण्णाणं परीप्परविलक्खाणं सुबहूणं । दीहो किरियाकालो जइ दीसड़ किं त्थ कुंभस्स ? || अभारंभ अन्नं किह दीसउ जह घडो पडारंभे । सिक्कादओ न कुंभो किह दीसए सो तदद्वार ? || अंते चित्र आरद्धो जइ दीसह तम्मि चेव को दोसो ? | अयं व संपड़ गए कह कीरउ कह व एस्सम्मि ? || पइसमयकज्जकोडीनिरवेक्खो घडगयाहिलासो सि । पइसमयकज्जकालं धूलमई ! घडम्मि लासि । ( वि. आ. भा. २३१५ / २३१८) इति । इदञ्च निश्वयनयप्रधानभावेन बोध्यम् ।
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=
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नगमनयानुगृहीतनिश्चयनयेन तु प्रतिसमयं शिवक-स्थासाद्यभिन्नत्वेन रूपेण घटो जायत एव । अत एव कुलालादीनामाघक्षणे 'अहं घटं करोमीत्याद्यनाहार्यस्वारसिकानुभवोऽपि सङ्गच्छते । अत एव क्रियावैयर्थ्यप्रसङ्गोऽपि न सावकाशः, विद्यमाने हि वस्तुनि पर्यायविशेषाधानद्वारेण कथञ्चित्करणक्रियादिसाफल्योपपत्तेः । सर्वथा असति तु नेदं सम्भवति । प्रस्थक<- तो यह नामुनासिब है, क्योंकि पटत्वावच्छिन्न पट में रही हुई आधेयता की निरूपकता का अवच्छेदक तन्तुत्व धर्म है, न कि पटत्व ऐसी कल्पना नैयायिक करे तो भी कोई दोष नैयायिक के मतानुसार नहीं हो सकती है । मतलब यह है कि तन्तु में पट रहता है । पट में तन्तु की आधेयता रहती है । तन्तु पटनिष्ठ आधेयता का निरूपक है । मगर तन्तु पेट का तन्तुत्वेन रूपेण आधार है। और पटत्वेन रूपेण पट तन्तु में आधेय है । अतः पट में पटत्वावच्छिन्न आधेयता आयेगी, जिसका निरूपक तन्तु या तन्तु से अभिन्न पट है, मगर तादृश आधेयता की निरूपकता का अवच्छेदक तन्तुत्व है, क्योंकि तन्तुत्वरूप से तन्तु पट का आधार है । 'पटे पटः ' इस प्रतीति में तो पटत्वावच्छिच पटनिष्ठ आधेयता की निरूपकता के अवच्छेदकविधया पटत्व का भान हो रहा है । अतः यह प्रतीति प्रामाणिक नहीं है, किन्तु 'तन्तौ पट: ' यह आधाराधेयभावाबगाही प्रतीति प्रामाणिक है, भले ही तन्तु और पट में कथञ्चिदभेद क्यों न हो ? पटत्व और तन्तुत्व तो एक नहीं है। जैसे नैयायिक मत में विशिष्टसत्ता शुद्ध सत्ता से अभिन्न होने पर भी गुणनिष्ठ अधिकरणता की निरूपकता की अवच्छेदकता सत्तात्व में है, न कि विशिष्टसत्तात्य (गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तात्व) में । इसी तरह यह भी संगत हो सकता है । आरभ्यआरम्भवाद में 'कयमाणे कडे' यानी क्रियमाण कार्य उसी समय कृत होता है यह सिद्धान्तसार भी प्रमाण = साक्षी है
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४३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ - का.५ * रामरुद्रभट्टमतापाकरणम् *
तेल - खण्डपटादादेव कुम्भकारादिकृतेरभावात् खण्डघटाधुत्पादकत्वे नैवेश्वरसिन्दिरिति - शितिकृतमतमपासतम्, एवं सति घटत्वावच्छिन्नं प्रति कुम्भकारत्वादिनाऽपि हेतुत्वविलयापतेः, विजातीयकृतिमत्त्वेन तथात्वे पुनरीश्वरासिन्दः ।
--* जयलता *दृष्टान्तानुसारेण भावनीयमिदं तत्त्वं निश्चयनयानुसारिभिरित्यादिसूचनार्धं ध्येयमित्युक्तम् ।
एतेनेति । कुलालकृतिदण्डादिजन्यतावच्छेदकीभूतघटत्वस्य खण्डघटादिव्यावृत्तत्वेनेति । अस्य 'अपास्तमि'त्यनेनाऽन्वयः । खण्डघटादावेवेति ! गायबच्छेनार्गक अनारहिापूर: बन्धेन कुम्भकारादिकृतेरभावात्, खण्डघटाग्रुत्पादकत्वेन एव इश्वरसिद्धिरिति । यो विशेषयोः कार्य-कारणभावोऽसति बाधके स तत्सामान्ययोरपी तिन्याये मानाभावेन कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति न कृतेर्हेतुत्वम् । घटत्वाद्यबच्छिन्ने कुलालादिकृतित्वेन वाऽपि न हेतुत्वं, खण्डघटायुत्पत्तिकाले कुलालादिकृतेरसत्त्वात् । किन्तु घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति कृतेहेतुत्वम् । अतः खण्डघटाद्युत्पत्तिकालपूर्व कृतेरावश्यकत्वे कुलालादिकृतेरसत्त्वेन तदाश्रयतया लाघवसहकृतपारिशेषन्यायादतिरिक्तकेश्वरसिद्धिरिति दीधितिकृन्मतं = रघुनाथशिरोमणिमतम् ।
प्रकरणकारः तन्निरासे हेत्वन्तरमाह- एवं सति = घटत्वाद्यबच्छिन्नं प्रति कृतित्वेन हेतुत्वाभ्युपगमे सति, घटत्वावच्छिन्नं = घटमात्र, प्रति कुम्भकारत्वादिनाऽपि हेतुत्वविलयापनेः = कारणतोच्छेदप्रसङ्गात्, कृतित एव घटोत्पादे कुलालादेस्न्यथासिद्धत्वेनाऽकर्तृत्वप्रसङ्गादिति यावत् । विजातीयकृतिमत्त्वेन = घटानुकूलकृतिमत्त्वेन रूपेण तथात्वे = घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वाऽभ्युपगमे, कुलालादिव्यक्तेः कर्तृत्वसम्भवेऽपि, पुनः ईश्वरासिद्धेः, कुलालादेः स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन खण्डघटात्पत्तिकालऽपि सत्त्वात् । एतेन -> 'खण्डघटं पक्षीकृत्य कुलालादिकृतिजन्यत्त्वसाधने जीवरूपलालकृतेबांधादीश्वर
मर्थस्यैव कलालल्वेन तादशकलालत्वस्येश्वरेऽपि स्वीकारसम्भवात् । अत एव 'नमः कलालेभ्य' इति श्रुतिरपि सङ्गच्छते' <- (मु.रा.रू.पृ.४६) इति रामरुद्रभट्टवचनं प्रत्युक्तम् ।
यह भी ध्यातव्य है।
* दीधितिकारमनिरास * एतेन ख, इति । ईश्वर की सिद्धि के लिए दीधितिकार रघुनाथशिरोमणि का यह मन्तव्य है कि -> "घटसामान्य के प्रति कुलाल की कृति, पटसामान्य के प्रति कुविन्द की कृति = यत्न कारण है। मगर खण्ड घट की उत्पत्ति कुलालकृति के बिना और खण्ड पट की उत्पत्ति कुविन्दकृति के बिना ही होती है। मगर उपर्युक्त कार्य-कारणभाव तो प्रामाणिक ही है। अतः उक्त कार्य-कारणभाव के अनुरोध से खण्ड घटादि के कारणविधया ईश्वरीय प्रयत्न की सिद्धि होती है । मतलब कि खण्ड घटादि का कर्ता ईश्वर है । इस तरह खण्डघटादिकर्ता के स्वरूप में ईश्वर की सिद्धि होती है" - मगर इसका निराकरण तो -> 'कुलालादि की कृति का जन्यतावच्छेदकीभूत घटत्वादि सौवर्ण घट आदि की भाँति खण्ड घट आदि से भी ब्यावृत्त है' <- इस पूर्वोक्त कथन से ही हो जाता है। दूसरी बात यह है कि खण्ड घटादि के कर्ता के स्वरूप में ईश्वर का स्वीकार करने पर तो घटत्वावच्छिन = यावत् घट के प्रति कुम्भकारत्व रूप से हेतुता का भी विलय हो जायेगा। जिस नियम के आधार पर दीधितिकार ईश्वर की सिद्धि कर रहे हैं, उसी नियम का भंग ईश्वर की कल्पना से हो जाता है। अतः खण्ड घटादि के कर्तृविधया ईश्वर की कल्पना अप्रामाणिक है। यहाँ दीधितिकार की ओर से यह कहा जाय कि -> "घटत्वावचिन के प्रति कुम्भकारत्वेन हेतुता नहीं है, किन्तु विजातीयकृतिमत्त्वसम्बन्ध से हेतुता है। मतलब कि घटनिष्ट घटत्वावच्छिन्न कार्यता से निरूपित कारणता का अवच्छेदक धर्म कुलालच नहीं, अपितु विजातीयकृतिमत्त्व है । कुविन्दादि | में असमवेत ऐसी घटजनक कृति = यत्न का सूचन करने के लिए विजातीयत्व का कृति के विशेषणविधया ग्रहण किया है। तादृश विजातीयकृतिमत्त्व का आश्रय खण्ड घटोत्पत्तिस्थल में कुलाल नहीं हो सकता है, क्योंकि बिना कुलाल के खण्ड घट की उत्पत्ति होती है। अतः तादृश विजातीयकृतिमत्त्व के अधिकरणविधया ईश्वर की सिद्धि हो जायेगी और विजातीयकृतिमत्त्व में घटत्वावच्छिन्न कार्यता से निरूपित कारणता की अवच्छेदकता का राध = भंग भी नहीं होगा। इस तरह सौंप भी न मरे और लाठी भी नहीं टूटे" - तो यह कथन भी अप्रामाणिक है, क्योंकि विजातीयकृतिमत्त्व को घटकारणतावच्छेदक मानने । पर भी ईश्रर की सिद्धि नहीं हो सकती है। खण्ड घट के कारणतावच्छेदक विजातीयकृतिमत्त्व का अधिकरण चैत्र आदि । भी हो सकता है, जो घट को गिराता है। अतः विजातीयकृतिमत्त्व के आश्रयविषया ईश्वर की कल्पना नहीं की जा सकती।
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* वादमहार्णवे घटे खण्डवपर्यायाभ्युपगमः *
अथ कृतिमत्त्वेनैव घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वं, स्वकृतिविशेष्यत्वथ कारणतावच्छेदकसम्बन्धः, तत्र दण्डादेरपि स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन हेतुत्वाच्च नातिप्रसङ्ग इति चेत् ? न, आत्मत्वादिनापि तथात्वे स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वादेश्व सम्बन्धत्वे विनि* जयलता
वस्तुतस्त्वत्राऽस्माभिः तत्र घटेऽखण्डत्वपर्यायनिवृत्तौ खण्डत्वपर्याय एवं स्वीक्रियते । युक्तञ्चैतत्, प्रत्यभिज्ञोपपत्तेः, तत्र सादृश्यादिदोषेण भ्रमत्वकल्पने गौरवात् । अत एव पाकेनाऽपि नान्यघटोत्पत्तिः, विशिष्टसामग्रीवशाद् विशिष्टवर्णस्य घटादेः द्रव्यस्य कथञ्चिदविनाशेऽप्युत्पत्तिसम्भवादिति व्यक्तं बाद महार्णवे ।
ननु कृतिमतः कुलालादेर्न स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वं गौरवात्, किन्तु स्वकृति - विशेष्यत्वसम्बन्धेनैव । खण्डवाद्युत्पत्तिसमये कुलालादेः स्वकृतिविशेष्यतासम्बन्धेन कार्याधिकरणेऽसत्त्वात्तत्कारणतयेश्वरसिद्धिः, 'लाघवतर्कादिना नित्यस्य व्यापकस्यैकस्पेश्वरस्य स्वकृतिविशेष्यतासंसर्गेण कार्याधिकरणे सत्त्वेन प्रकृतकार्य कारणभावोपपत्तेरितीश्वरवादिमतमुपदर्शयति- अधेति । 'चेदित्यनेनाऽस्यान्वयः । कृतिमत्त्वेनैवेति । एवकारेण कृतित्वादेर्व्यवच्छेदः कृतः । समवायेन घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वं स्वकृतिविशेष्यत्वच कारणतावच्छेदकसम्बन्धः कृतिमनिष्ठ कृतिमत्त्वावच्छिन्नकारणताया अवच्छेदकः संसर्गः स्वपदेन कृतिमतः कुलालादेर्ग्रहणम् । कपालेषु तदीयकृतिनिरूपितविशेष्यतायाः सत्त्वेन तेन सम्बन्धेन कुलालादेः तत्र सत्त्वं समवायेन च बटोऽपि तत्रैवोत्पद्यत इतिकार्य कारणभावसङ्गतिः । खण्डघटाद्युत्पत्तिस्थले कारणतावच्छेदकीभूतसम्बन्धघटकस्वपदेन कुलालादेर्ग्रहणं न सम्भवति, खण्डघटादिसमवायिकारणी भूतकपालादी कुलालादिकृतेर्विशेष्यत्वविरहात् । अतः तत्र स्वपदेनाऽस्मदादिविलक्षणपुरुषधौरेयस्य ग्रहणात् खण्डघटादिकर्तृत्वेनेश्वरसिद्धिरित्यभिप्रायः परस्य ।
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४३६
I
ननु खण्डघटादेः कर्तृत्वेनेश्वरसिद्धावपि दण्डादिकं विनैव तदुत्पत्तेर्व्यतिरेकव्यभिचारस्य दुर्वारत्वमित्याशङ्कायामीश्वरवादी गदति तत्रेति । घटत्वाद्यवखिने दण्डादेरपि आदिपदेन चक्रचीवरादिग्रहणम्, स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेति । अनेन स्वजन्यभ्रमिवत्त्वसम्बन्धादेर्व्यवच्छेदः कृतः । हेतुत्वाच नातिप्रसङ्गः = न व्यतिरेकव्यभिचारावकाशः । पूर्वकपालतद्विजातीयसंयोग| सत्त्वं नूतनकपाल-तद्विलक्षणसंयोगानुत्पादात् खण्डघटजनकयोः नवीनकपाल-तद्विजातीयसंयोगयोः पूर्वकपाल-तद्विलक्षणसंयोगनाशजन्यत्वं तयोश्च नाशयोः स्वप्रतियोगिजन्यत्वं तत्प्रतियोगिनोश्च दण्डादिजन्यत्वमिति खण्डघटजनककपालद्वयविजातीयसंयोगस्य कपालनिष्ठस्य पूर्वदण्डादिप्रयोज्यत्वम् । अतः समवायेन खण्डघटं प्रति स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगवत्त्वसम्बन्धेन नवीनकपालवृत्तेः दण्ड- चक्रादेर्हेतुत्वमव्याहतमेवेति न व्यतिरेकव्यभिचारावकाशः । अत एव खण्डघटं प्रतीश्वरकृतेरित्रेश्वरीयदण्ड-चक्रादिकल्पनमप्यनावश्यकमिति महेश्वरवादिनो नव्यनैयायिकस्याकूतम् ।
प्रकरणकृत्तन्निराकुरुते- नेति । आत्मत्वादिनाऽपीति । आदिपदेन प्रत्यक्षवत्त्वादेर्ग्रहणम् । तथात्वे प्रति हेतुत्वे, स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वादेवेति । आदिपदेन स्वचिकीर्षाविशेष्यत्वादेः परिग्रहः । सम्बन्धत्वे
=
= घटत्वाद्यवच्छिभं कारणतावच्छेदक
कृतित्वेन कारणता का स्वीकार मुनासिब
अथ कृ. इति । यदि यहाँ यह कहा जाय कि “घटत्वावच्छिन का कारणतावच्छेदक धर्म कृतिमत्त्व ही है, मगर चैत्रीय कृति से मैत्रीय घट की उत्पत्ति के अतिप्रसङ्ग का वारण करने के लिए स्वकृतिविशेष्यता का कारणतावच्छेदकसम्बन्धविधया ग्रहण किया जाता है। स्वपद से चैत्रादि का ग्रहण करने पर स्वकृति की विशेष्यता कपाल में आयेगी, जिसमें समवाय संबंध से चैत्रीय घट उत्पन्न होता है । इस तरह दण्डादि भी घट के प्रति स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोग सम्बन्ध से हेतु है । दण्ड भ्रमिक्रिया के द्वारा कपालद्वयविजातीयसंयोग को, जो घट का असमबायी कारण है, उत्पन्न करता है । अतः कपालद्वयविजातीयसंयोग दण्ड से प्रयोज्य बनता है, जो समवाय सम्बन्ध से कपाल में रहता है । अतः दण्ड आदि भी स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्ध से कपाल में रहेगा जहाँ समवाय सम्बन्ध से, जो घटनिष्ठ कार्यता का अवच्छेदक नियामक सम्बन्ध है, घट उत्पन्न होता है । इस तरह दण्ड आदि में भी घटकारणता सिद्ध होती है और खण्ड पट की कृतिनिष्टकारणता के अवच्छेदक सम्बन्ध के घटक स्वपद से ईश्वर का ही ग्रहण किया जा सकता है । इस तरह ईश्वर की सिद्धि की जा सकती है" <
न आ. इति । तो यह वक्तव्य भी निराधार है, क्योंकि घटत्वाद्यवच्छिन्न के प्रति स्वकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से कृति को कारण मानना या स्वप्रत्यक्षविशेष्यतासम्बन्ध से आत्मा को हेतु मानना ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है । आत्मत्वेन आत्मा भी स्वप्रत्यक्षविशेष्यतासम्बन्ध से कपाल में रह सकता है, क्योंकि स्व आत्मा के कपालप्रत्यक्ष की विशेष्यता कपाल
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४३७ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का. * व्याप्यधर्मसन्चे व्यापकधर्मेण न हेतुता *
गमनाविरहात् । विजातीयकृतिमत्वेनैव व्यापकधर्मेण कार्यमा सकर्तृकत्वनियमस्याऽप्रामाणिकत्वेन लाघवात्कृतित्वेनैव वा हेतुत्वौचित्याच्च ।
* जयलता * सम्बन्धत्वे विनिगमनाविरहादिति । अस्तु दण्डादेः स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगेन घटत्वाधवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वं परं समवायेन
शेष्यत्वसम्बन्धेन कतिमत्त्वेन रूपेण कलालादेतत्त्वं स्वीकतं न यज्यते. तब स्वप्रत्यबविशेष्यत्वसंसर्गेणाss. त्मत्वेन रूपेण कुलालादेर्हेतुत्वभित्यस्यापि सुवचत्वात् । आत्मत्वेन कुलालः स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वसंसर्गेण कपाले वर्त्तते तत्रैव च समदायेन घटो जायत इत्युपदर्शितकार्य-कारणभावस्याऽपि सम्भवात् नैयायिकोक्तहेतु-हेतुमद्भावे विनिगमनाविरहः । न च तर्हि स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वसम्बन्धेनाऽऽत्मत्वेन रूपेण घदमात्रं प्रति हेतुताऽस्तु । एबमपीश्वरः खण्डघटाद्यनुरोधेन सेत्स्यत्तीति वक्तव्यम्, प्रकृतेऽपि समचायेन घटमात्र प्रति स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वसम्बन्धेनाऽऽत्मत्वेन रूपेण हेतुत्वं यदुत उपादानप्रत्यक्षवत्त्वरूपेण ? इति विनिगमनाविरहात् । एवं उपादानचिकीर्षामत्त्वेन रूपेण स्वचिकीर्षां विशेष्यत्वसंसर्गेण तद्धेतुत्वमाहोस्वित् जीवत्वरूपेण ? इत्यादिविनिगमनाविरहस्याऽपि प्रदर्शिताखिलफल-फलबद्भावविघटने बद्धकक्षल्वान्नेकोऽपि कार्य-कारणभावः सम्भवति, यद्रलेन खण्डघटायुत्पत्त्यनुरोधेनेश्वरः सिध्येत् ।
ननु ‘कार्य सकर्तृकं कार्यत्वादि'त्यनुमाने विजातीयकृतिमज्जन्यत्वमेव साध्यं, कार्यत्व-विजातीयकृतिमत्त्वाभ्यामेव कार्यकारणभावाभ्युपगमादिति पराऽऽशङ्कायां प्रकरणकृदाह-विजातीयकृतिमत्त्वेनैव व्यापकधर्मेण कार्यमात्रे = कार्यत्वावच्छिन्ने सकर्तृकत्वनियमस्य अप्रामाणिकत्वेनेति । व्याप्यधर्मेण कार्य-कारणभावसम्भवे व्यापकधर्मेण न कार्य-कारणभाव; कलप्यते, अन्यथासिद्धेः, अन्यथा घटत्वावच्छिन्नं प्रति दण्डत्वेनेव द्रव्यत्वादिना पि कारणत्वापत्तेः । तदुक्तं -> 'अगृहीतन्यभिचारकल
याप्यधर्मान्तरसत्त्वे व्यापकरूपेण न कारणत्वं अन्यथासिद्धेः' -- । ततश्च सौवर्ण-खण्डघटादिव्यावृत्तघटत्वावच्छिन्नं प्रति कुलालकृतित्वेनैव कारणत्वमिति नोपदर्शित कार्य-कारणभावः प्रामाणिकः । यदि च लाघवगर्भितेन 'यो यद् विशेषयोः कार्यकारणभाव...' इत्यादिन्यायेन विजातीयकृतिमत्त्वलक्षणव्यापकधर्मेण कारणताऽभ्युपेयते तदा कृतित्वेनैव तदुपगम उचितः लाघवादित्याशयेन प्रकरणकृदाह- लाघवात् कृतित्वेनैव वा हेतुत्वौचित्याचेति । समवायेन कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति कृतित्वेन कृतेः कारणत्वमिति सामान्यकार्य-कारणभावः स्वीकर्तृ युज्यते कारणतावच्छेदकधर्मलाघबादिति भावः । न चैवमपि खण्डघटाद्युत्पत्त्यनुरोधेन सज्जनककृत्याश्रयविधया भवसिद्धिरिति राच्यम्, गुणस्य साश्रयकत्वव्याप्ती मानाभावस्य पूर्वमुक्तत्वात् । न च वेदान्तिनयानुसारेण भवतामेवं वक्तुं न युज्यत इति वाच्यम्, तथाऽपि तत्र कुलालकृतेरेव स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन हेतुत्वसम्भवात्।
त स्वविशेष्यतासम्बन्धेनैव कतेर्जनकत्वमस्त. स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन तथात्वेत गौरवमिति वक्तव्यम तथापि स्वप्रयोज्यसम्बन्धेनैव तद्धेतुत्वसम्भवात् । न च विशेष्यतात्वस्य कृतिनिष्ठकारणतावच्छेदकसम्बन्धतावच्छेदकत्वमाहोस्वित्
में रहती है। ऐसा कार्य-कारणभाव भी मुमकिन है। इसमें कोई बाधक नहीं है। मगर इसके अंगीकार से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती है। खण्ड यट आदि के कर्ता के स्वरूप में आत्मा की सिद्धि होगी, न कि परमात्मा की । मतलब कि || रिनिममनाविरह दोष की वजह प्रतिवादी से प्रतिपादित उपर्युक्त कार्य-कारणभाव मान्य नहीं हो सकता, जिसके फलस्वरूप में प्रतिवादिसम्मत महेश्वर की प्रसिद्धि हो सके ।
विजा. इति । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि विजातीयकृतिमत्त्व धर्म व्यापक है = सामान्य है। व्यापक धर्म से कारणता का अंगीकार करने पर अकारण में भी स्वरूपयोग्यता के स्वीकार का निप्प्रामाणिक गौरव उपस्थित होता है। अतः कार्यमात्र के प्रति विजातीयकृतिमत्त्व से सकर्तकत्व = कर्तजन्यत्व का नियम अप्रामाणिक है । इसकी अपेक्षा तो यही मुनासिब है कि कृतित्वस्वरूप लघु धर्म को ही कार्यमात्र का कारणतावच्छेदक माना जाय । मतलब कि 'कृति स्वविशेष्यतासम्बन्ध से कार्यमात्र का कारण है' - इत्याकारक लघु कार्यकारणभाव समुचित होने से खण्ड घटादि के कारणविधया कृति की सिद्धि होगी, न कि ईश्वर की, ज्योंकि उक्त कार्य-कारणभाव में किसी भी घटक के द्वारा ईश्वर का तो क्या आत्ममात्र
या गया है। तथा 'गुणमात्र साश्रयक ही होता है। यह नियम भी पूर्वोक्त युक्ति से अप्रामाणिक होने से खण्ड घटादि के जनक प्रयत्न के आश्रयविधया भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि तादृशनियम को प्रामाणिक मान भी लिया जाय तो भी जीवात्मा में ही तथाविधप्रयत्नाधिकरणता संभावित होने से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती - यह तात्पर्य है।
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* कार्यमात्रस्य कृतिजन्यत्यनियमानङ्गीकारः *
जन्यसत्त्वावच्छ्निं प्रति कृतित्वेन हेतुत्वेऽप्यभावकर्तृत्वाऽसिद्धेश्वरे जगत्कर्तृत्वं नियुक्तिकम् । कार्यत्वं तु न कार्यतावच्छेदकं, कार्यतावच्छेदकसम्बन्धस्यैकस्याऽसत्त्वात् ।
ॐ जयलता
प्रयोज्यत्वस्येत्यत्र विनिगमकाभावान्न स्वप्रयोज्यसम्बन्धेन कृतेः कारणत्वसम्भव इति वक्तव्यम् सकलविशेष्यवृत्तित्वे सति तदितरावृत्तित्वलक्षणस्य विशेष्यतात्वस्य गुरुत्वात् । न च साक्षात्परम्परया वा जन्यत्वरूपे प्रयोज्यत्वेऽपि तुल्यगौरवमिति वाच्यम्, तथापि तव विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहस्याधिकत्वात् तस्यातिरिक्तत्वे सप्तपदार्थविभागातिक्रमप्रसङ्गादिति दिक् ।
अभ्युपगमबादेनाऽऽह- जन्यसत्त्वावच्छिन्नमिति । जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्यावच्छिन्नमित्यर्थः । तेन सामानाधिकरण्येन जन्पत्वविशिष्टसत्त्वस्य गुरुतेवेन कार्यतानवच्छेदकत्वोक्तावपि न क्षतिः । कृतित्वेन हेतुत्वे = कृतित्वावच्छिन्नकारणत्वाभ्युपगमे, अपि । किमुत तदनङ्गीकारे इत्यपिशब्दार्थः । समवायेन जन्यसन्मात्रं प्रति विशेष्यतया कृतेः कारणत्वाऽङ्गीकारेऽपि, अभावकर्तृत्वाऽसिद्धेः ध्वंसकर्तृत्वाऽसम्भवात् ईश्वरे जगत्कर्तृत्वं निखिलजन्य पदार्थकर्तृत्वं, निर्युक्तिकं अप्रामाणि कम् । ध्वंसस्य जन्यत्वेऽप्यभावत्वेन जन्यसन्मात्रवृत्निवैजात्यलक्षणकार्यतावच्छेदकशून्यत्वेन न कृतेः तज्जनकत्वं सम्भवति । एतेन कार्य विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नकृतिनिष्ठजनकतानिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छिन्नजन्यताशालि प्रागभावप्रतियोगित्वादिति प्रत्युक्तम्, पक्षतावच्छेदकाक्रान्ते ध्वंसे विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नकृतिनिष्ठजनकतानिरूपित समबायसम्बन्धावच्छिन्न जन्यत्वलक्षणसाध्यस्य विरहेण बाधात् । न च सत्त्वविशिष्टजन्यत्वस्यैव ध्वंसव्यावृत्तस्य पक्षतावच्छेदकत्वोपमात्र दोष इति वाच्यम्, हेत्वधिकरणे ध्वन्से उक्तसाध्याभावेन व्यभिचारात् । न च हेतोः सत्त्ववैशिष्ट्येन विशेषणान्न दोष इति वाच्यम्, एवं सति महेश्वरे ध्वन्सकर्तृत्वासिद्धया जगत्कर्तृत्वबाधात्, विशेषणविशेष्यभावे विनिगमकाभावेन गौरवाच्च । एतेन विशेष्यता- समवायाभ्यां कश्विद्धेतुहेतुमद्भावः अन्यस्तु विशेष्यता- विशेषणताभ्यामिति ध्वंसेऽपि कृतिजन्यत्वसिद्धिः सम्भवत्येवेति प्रत्युक्तम्, उपादानत्वाऽख्यविशेष्यतासम्बन्धेनैव | कृतेः कारणत्वस्याऽङ्गीकरणीयतया ध्वंसस्योपादानविरहेण तं प्रत्युक्तविशेष्यतासम्बन्धेन कारणत्वासम्भवाच्च । एतेन कार्यमात्रस्य कृतिजन्यत्वप्रवादोऽपि प्रत्युक्तः व्यय कृषिजन्य मानाभावेन तादृशप्रवादस्य निर्युक्तिकत्वादिति नेश्वरे जगत्कर्तृत्वे मानमिति निहिताभिप्रायः ।
H
=
४३८
1
अस्तु तर्हि ध्वंसानुरोधेन कार्यत्वमेव कृतिनिष्टकारणतानिरूपितकार्यताया अवच्छेदकमित्याशङ्कायामाह- कार्यत्वं तु न कार्यतावच्छेदकमिति । यद्यपि कार्यत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वेऽवच्छेद्यावच्छेदकयोरैक्येनात्माश्रयदोषः तथापि स्फुटत्वात्तदुपेक्ष्य दोषान्तरमाह- कार्यतावच्छेदकसम्बन्धस्य एकस्याsसत्त्वादिति । समवायस्य भावकार्यं प्रति विशेषणत्याश्चाभावकार्यं प्रति कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वेन तदितकार्यकारणभावभेदप्रसङ्गेन गौरवादित्यनुपदमेव विस्तरतो विभावितमेव । ' तर्हि कालिकसम्बन्ध -
ॐ अभावकर्तृत्वबाध से ईश्वर में जगत्कर्तृत्व नामुमकिन
जन्य इति । इसके अतिरिक्त यह भी ध्यातव्य है कि नेयायिक विद्वान् ईश्वर को जगत्कर्ता मानते हैं, जिसकी सिद्धि के लिए वे जन्यसन्मात्र के प्रति विजातीयकृतिमत्त्वेन हेतुता का स्वीकार करते हैं। मगर उपर्युक्त लाघवसहकार से जन्यसत्त्वावच्छिन्न = सकल जन्य भाव पदार्थ के प्रति स्वविशेष्यतासम्बन्ध से प्रयत्न को कारण मान भी ले तो भी इससे जन्य भावमात्र की जनक कृति की सिद्धि होगी, मगर घटध्वंस, पटध्वंस आदि जन्य अभाव पदार्थ के जनक प्रयत्न की सिद्धि उक्त कार्य कारणभाव से नहीं हो सकती, क्योंकि ध्वंस में कृतिजन्यतावच्छेदक धर्म जन्यसत्त्व या जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्य ही नहीं रहता है । अतः जन्य भाव के जनक प्रयत्न के आश्रयविधया नैयायिक ईश्वर की सिद्धि करे तो भी ईश्वर में अन्य अभाव = ध्वंस का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होगा । जगत के घटक ध्वंस का कर्तृत्व ईश्वर में नहीं है, तो जगत्कर्तृत्त्व ईश्वर में कैसे सिद्ध होगा ? यदि ईश्वर में जगत्कर्तृत्व की सिद्धि करने के लिए नैयायिक की ओर से उपर्युक्त कार्य कारणभाव में यह परिष्कार किया जाय कि" समवाय सम्बन्ध से कार्य के प्रति स्वविशेष्यतासम्बन्ध से प्रयत्न कारण है । प्रयत्नजन्यतावच्छेदकीभूत कार्यत्व तो ध्वंस में भी रहता है। अतः ध्वंसजनक प्रयत्न की भी सिद्धि होगी, जिसका आश्रय ईश्वर हो जाने से ईश्वर में जन्य भाव की भाँति स का भी कर्तृत्व सिद्ध होगा । फलतः ईश्वर में जगत्कर्तृत्व की सिद्धि होगी" <
* कार्यत्व कार्यतावच्छेदक नहीं हो सकता
कार्यत्वं तु. इति । मगर यह वक्तव्य भी अप्रामाणिक हे । कृतिनिरूपित कार्यता की अवच्छेदक कार्यता नहीं हो सकती,
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४३९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ५
* रामरुद्रभट्टमतनिरासः
कालिकादिसम्बन्धेन तथात्वे तु मानाभाव इत्यप्याहुः ।
अथ द्यावापृथिव्योर्गुरुत्वादिपतन सामय्यां सत्यामपि यदीयधारणानुकूलप्रयत्नेन पतनप्रतिबन्ध: स एव भगवान् भवानीपतिः सिध्यति । तथा च श्रुतिरपि 'एतस्य चाक्षरस्य * जयलता
स्यैव कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वमस्तु तस्य जन्यभावाभावसाधारणत्वादिति न नाना कार्य कारणभावगौरवमित्याशङ्कायामाहकालिकादिसम्बन्धेन तथान्ये === जन्यजनकभावाऽभ्युपगमे तु मानाभाव इति । एतेन विशेष्यतया कृतेरधिकरणे कपाले कालिकेन घटो घटध्वंसचोपजायतेति न समवाय विशेषणतान्यतरसम्बन्धस्य कार्यतावच्छेदकत्वमिति निरस्तम्, द्व्यणुकपार्थिब-परमाणुपाकजरूपादेः कृतिजन्यत्वाऽभावप्रसङ्गात् विशेष्यतया कृत्यधिकरणे परमाण्वादी कालिकेन द्वयणुकादेरवर्तमानत्वात् । एतेन 'कालनिष्ठप्रत्यासत्त्यैव कार्यमा प्रति कृतः कारणत्वस्योपगन्तव्यत्वादिति' (मु.रा.रु. पू. ४१ ) इति रामरुद्रभट्टवचनमपि प्रत्याख्यातम् शब्दादेः कालिकेन गगनादाववर्त्तमानत्वेन कार्यत्वस्य कृतिजन्यतानवच्छेदकत्वात्, महेश्वरे शब्दादिकर्तृत्वबाधेन जगत्कर्तृत्वाऽसिद्धेः । न च द्वणुकादेः कालिकेन स्वस्मित्रेवोत्पत्तिरित्युद्गीरणीयम्, तदुत्यादपूर्वं विशेष्यतया कृतेः तत्राऽसस्भवेनाऽऽकस्मिकोत्पादप्रसङ्गात् । यत्र तत्र वा कालिकेन कार्योत्पादे देशनैयत्यमङ्गप्रसङ्गः इति न कालिकविशेषणतयाः कृतिनिष्ठविशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यताय अवच्छेदकसम्बन्धत्वं सम्भवति । न च दैशिकविशेषणताप्रत्यासत्त्या कार्यमात्रं प्रति कृतेर्विशेष्यतासम्बन्धेन हेतुत्वमिति वाच्यम्, ध्वंसस्योपादानविरहेण तं प्रति उपादानत्वाभिधानविशेष्यतासंसर्गेण कृतेः कारणत्वाऽसम्भवादित्युक्तत्वादिति विभावनीयम् ।
ननु यदि महेश्वरो न स्यात् तर्हि गुर्योः स्वर्गलोक - मनुष्यलोकयोः पतनं स्यात् । न च तद्भवतीति तत्र प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया आवश्यकत्वात् तत्पतनप्रतिबन्धकीभूतधारणानुकूलप्रयत्नाश्रयविधयैव त्रिपुरारिसिद्धिरित्याशयेना उदयनानुसारी परः शङ्कते - अधेति । 'चेदित्यनेनाऽस्यान्त्रयः । द्यावापृथिव्योरिति । यथा पतत्रिसमवेतस्य धारणानुकूल प्रयत्नस्य पतनप्रतिबन्धकीभूतस्य सत्त्वात् वे डयमानपक्षिशारीरस्य तत्संयुक्तफलादेश्व गुरुत्वेऽपि पतनं न भवति तथा द्यावापृथिव्योः गुरुत्वेऽपि पतनं न भवति, तत्र कस्यचित् धारणानुकूलप्रयत्नेन भवितव्यम् । स च प्रयत्नोऽस्मदीयो न भवितुमर्हतीति पारिशेषन्यायादीश्वरस्य सिद्धिरिति निर्गलितार्थः । अत्रैव बृहदारण्यकवचनं प्रमाणयति - एतस्येति । साम्प्रतं तत्र 'एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गाि
क्योंकि अवच्छेय और अवच्छेदक में अभेद होने से आत्माश्रय दोष होगा । दूसरी बात यह है कि कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध भी एक नहीं हो सकता है । कपाल में घटात्मक कार्य समवाय सम्बन्ध से रहता है और पटध्वंसस्वरूप कार्य स्वरूप सम्बन्ध से रहता है। कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध के भिन्न होने से उससे घटित कार्य कारणभाव भी भिन्न हो जायेगा । फलतः अनेक कार्य कारणभाव के अंगीकार का गौरव होगा। एक कार्य-कारणभाव की सिद्धि के लिए ईश्वरवादी की ओर से यह कहा जाय कि "हम कालिक सम्बन्ध को ही प्रयत्ननिष्ठ कारणता से निरूपित कार्यता का अवच्छेदक सम्बन्ध मानते हैं । कालिक सम्बन्ध से तो घटात्मक कार्य और ध्वंसस्वरूप कार्य कपाल में रह सकता है । अतः कार्य कारणभाव में लाघव होगा" तो यह वक्तव्य भी अप्रामाणिक है, क्योंकि कालिक सम्बन्ध को कार्यतावच्छेदक मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अतः उपर्युक्त कार्य कारणभाव को मान्य नहीं किया जा सकता, जिसके फलस्वरूप में ईश्वर में जगत्कर्तृत्व की सिद्धि हो सके
ऐसा भी अमुक विद्वानों का कथन है ।
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नैयायिक
अथ द्या. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि “ जिस द्रव्य में गुरुत्व होता है, उसका पतन पानी नीचे की ओर गमन अवश्य होता है, यदि स्थानविशेप में उसको रोक रखनेवाला कोई पदार्थ न हो । रोकनेवाले पदार्थ को ही पतन का प्रतिबन्धक कहा जाता है । जैसे कोई पक्षी आकाश में उड़ता है और अपनी चोंच में काष्टखण्ड, तृण, फल आदि को रखता है । उनमें गुरुत्व होता है, पक्षी के शरीर में भी गुरुत्व होता है, फिर भी उनका पतन नहीं होता है । इसका कारण यह है कि पक्षी का गुरुतर शरीर पक्षी की आत्मा में विद्यमान प्रयत्नविशेष से धारित रहता है एवं पक्षी के चोंच में रहे हु गुरुत्वविशिष्ट फलादि का भी पक्षी के प्रयत्नविशेष से पतन नहीं होता है । ठीक इसी तरह चुलोक और पृथ्वीलोक भी गुरुतम होने पर भी नीचे नहीं गीरते हैं । यदि पतनप्रतिबन्धक कोई पदार्थ नहीं होना, तब तो गुरुत्वरूप पतनकारण होने से अवश्य उसका अधोगमन होना चाहिए । अतः मानना चाहिए कि किसी के प्रयत्नविशेष
* लोकपतनाभाव से ईश्वरसिद्धि
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* वृहदारण्यकवचनसमीक्षणम्
प्रशासने गार्गी ! द्यावापृथिवी विधृते तिष्ठत' (बृहदा. ३/८/९ ) इति चेत् ? न, तत्प्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूतधारणानुकूलत्वस्य तत्कृताविव तज्ज्ञानादावपि सम्भवेन विनिगमनाविरहात् । तादृशकृतेर्घटादावपि सत्त्वेन घटादिपतनस्याऽप्यनापत्तेश्च । घटादिभेदविशिष्टविशेव्यतासम्बन्धेन प्रतिबन्धकतयाऽनतिप्रसङ्गे तु लाघवात् घटादिभेदस्यैव तत्त्वौचित्यात् ।
* जयलता
सूर्याचन्द्रमसौ विद्युतौ तिष्ठतः, एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! द्यावापृथिव्यां विधृते तिष्ठतः, एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि : निमेषा मुहूर्त्ता अहोरात्राभ्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा इति विधृताः तिष्ठन्ति एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! प्राच्योऽन्या नद्यः स्पन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः प्रतीच्योऽन्या यां यां च दिशमनु, एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवा दव पितरोऽन्वायत्ता: (बृ.उप. ३ / ९) इत्येवं सम्पूर्णः पाठः समुपलभ्यते ।
प्रकरणकृत्तदपास्यति नेति । तत्प्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूतधारणानुकूलत्वस्य = द्यावापृथिवीपतननिष्ठया प्रतिबध्यतया निरूपिताना. प्रतिबन्धकपूतस्य पारगुकूलत्वस्य तत्कृताविव ईश्वरसमवेत प्रयत्न इव तज्ज्ञानादावपि = त्रिलोचनसमवेतज्ञानचिकीर्षयोरपि सम्भवेन प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभावे विनिगमकाभावेन प्रतिबध्यलक्षणकार्य प्रतिबन्धका भावलक्षणक्रारणयोः फल-फलवद्भावेऽपि विनिगमनाविरहात् 'यदीयधारणानुकूलप्रयत्नेन द्यावापृथिव्योः पतनप्रतिबन्धः' इति नैयायिकोक्तिरसङ्गतेति भावः । दोषान्तरमाह - तादृशकृते: = द्यावापृथिवीपतननिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकी भूतधार'गानुकूलत्वविशिष्टेश्वरीयप्रयत्नस्य, स्वनिष्ठविशेष्पितानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन पृथिव्यादाविव घटादावपि सत्त्वेन घटादिपतनस्याऽपि अनापत्तेः = असम्भवप्रसङ्गात् घटादौ समवायेन पतनक्रियाया अनुत्पत्तिप्रसङ्गादिति यावत् प्रतिबन्धकसत्त्वं साम|ग्रीवैकल्येन कार्योत्पादाऽयोगात् । एतेन धारणानुकूलज्ञानचिकीर्षाकृतीनां स्वातन्त्र्येणाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां पतनप्रतिबन्धकल्पकल्प| नाऽपि प्रत्युक्ता, गौरवाच ॥
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=
=
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ननु तादृशकृतेः न स्वविशेष्यतासम्बन्धन प्रतिबन्धकत्वं किन्तु घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासंसर्गेण तत्त्वम् । चन्द्रादी घटादिभेदस्य धारणानुकूलेश्वरीयकृतिनिरूपित्तविशेष्यतायाश्च सत्त्वेन तादृशकृतेः घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन तत्र सत्त्वान्न तत्यतनम् | बटादेः तादृशकृतिविशेष्यत्वेऽपि घटादिभिन्नत्वविरहेण तत्र तादृशः घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेनाऽसत्त्वान्न तत्पतनानुपपत्तिः प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतिबन्धकस्य विरहादिति पराशङ्कायामाह - घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन धारणानुकूलेश्वरीयकृतेः प्रतिबन्धकतया प्रतिबन्धकताकल्पनया, अनतिप्रसङ्गे घटादिपतनानुपपत्तिवारणे तु लाघवात् घटादिभेदस्यैव तत्त्वौचित्यात् = पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनाया न्याय्यत्वात् । कालिकेन प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धघटकीसे उनका धारण किया जा रहा है । धुलोकादि को मनुष्यादि तो अपने प्रयत्न से धारण नहीं कर सकते, क्योंकि वे असमर्थ है। जिसके प्रयत्न से ब्रह्माण्ड आदि का पत्तन नहीं होता है, वह ईश्वर से अन्य कोई नहीं हो सकता । अतः ब्रह्माण्डधारणानुकूल प्रयत्न के आश्रयविधया भगवान् भवानीपति शंकर सिद्ध होते हैं । वेद भी ईश्वर को ही युलोक पृथ्वीलोक आदि का भारक बताता है । जैसे 'एतस्य च अक्षरस्य प्रशासने गार्गी ! द्यावापृथिवी विद्युते तिष्ठत:' इस वेदवाक्य में गार्गी नामक महिला को सम्बोधित कर के यह कहा गया है कि कभी भी अपने स्वरूप से च्युत न होने वाले परमेश्वर के प्रशासन में युलोक और पृथ्वीलोक अपने स्थल में पतित न होते हुए स्थित है। अतः स्वर्गलोकादि के धारक महेश्वर ही है - यह वेदवाक्य से भी फलित होता है ।
** पृथ्वीलोकादि के पतनाभाव से ईश्वरसिद्धि नामुमकिन- स्याद्वादी
न तत्प्र इति । व्याख्याकार श्रीमद्जी महामहोपाध्यायजी उपर्युक्त नैयायिकमत को यह कह कर आयुक्त बताते हैं कि पृथ्वी आदि गुरुतम पदार्थ के पतन का प्रतिबन्धक केवल धारणानुकूल प्रयत्न नहीं हो सकता, मगर धारणानुकूल ज्ञान एवं धारणानुकूल चिकीर्षा भी पतनप्रतिबन्धक हो सकती है, क्योंकि पतनप्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूत धारणानुकूलत्व प्रयत्न की भाँति ज्ञानादि में भी मुमकिन है । अतः पृथ्वीलोक आदि के पतनाभाव में प्रयत्नविशेष को कारण = प्रयोजक मानना या ज्ञानविशेपादि को ? इस विषय में विनिगमनाविरह है । अतः पृथ्वीलोकादिपतनाभावनिमित्त कृतिविशेष के आश्रयविधया महेश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त दोष यह है कि यदि ब्रह्मांउपतनप्रतिबन्धकविधया कृतिविशेष की कल्पना करने पर तो तादृशकृति विशेष्यतासम्बन्ध से जैसे पृथ्वीलोक आदि में रहती है, ठीक वैसे ही घटादि पदार्थ में भी रहने
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४४१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ५ का ५ पृथिव्यादिपतनप्रतिबन्धवलेन नेश्वरसिद्धिः
वस्तुतः स्वभावाश्रयणस्यैव योग्यत्वाच्च । एतेन 'द्यावापृथिव्योः धृतिः कस्यचित् * जयलता
भूतवैशिष्ट्यविवक्षणे तु पुनः बटादिपतनानापत्तेः । दैशिकविशेषणतया वैशिष्ट्योपगमेऽपि घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतायाः पतनप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धत्वं यदुत स्वविशष्यताविशिष्टघटादिभेदस्येत्यय विनिगमनाविरहस्याऽनिराकार्यत्वात् । न च स्वविशेयता यदादिभेदो भयसंसर्गेण प्रतिबन्धकत्वाऽङ्गीकारे न क्षतिरिति वाच्यम्, प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धकुक्षिनिविष्टेन क्लुसेन घटादिभेदेनेव द्यावापृथिव्याद्यपतनोपपत्ती अक्लृप्तेश्वरीयधारणानुकूल प्रयत्ने गुरुतरोक्तसम्बन्धेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनायां गौरवात्, घटादिभेदेनैव तदन्यथासिद्धेश्व । न च घटत्व पटत्वाद्यवच्छिन्नानन्तभेदानां तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवेण लाघवात्कृतिविशेषस्यैव तत्त्वमस्त्विति वाच्यम्, घटपटादिसमूहप्रतियोगिव भेन तदोषतादवस्थ्यं, घटेऽपि | तादृशभेदस्य सत्त्वात्, न हि घटी घटपटमठादिकूटात्मको भवतीति वाच्यम्, घटपदाद्यन्यतमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन प्रतिबन्धकत्वविवक्षणात् । घटे घटपदाद्यन्यतमत्त्वस्य सत्त्वेन तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावाऽसम्भवात्, भेदस्य स्वप्रतियोगिताबच्छेदकव्यधिकरणत्वनियमादिति न द्यावापृथिव्यादि - पतनप्रतिबन्धकाश्रयविवया शिवसिद्धिरित्यत्र प्रकरणकृतः तात्पर्यम् ।
प्रकृते तदन्यत्वे सति तदन्यत्वे सति तदन्याऽन्यत्वरूपस्याऽन्यतमत्वस्य प्रतिबन्धकतावच्छेदकधर्मकोटी प्रवेशेन गौरवमित्यस्वरसं हृदि निधाय प्राह वस्तुत इति । स्वभावाश्रयणस्यैव योग्यत्वाचेति । द्यावापृथिव्याद्यनुगतस्वभावस्यैव पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनाया योग्यत्वाचेत्यर्थः । एवकारेण धारणानुकूलकृत्यादेर्व्यवच्छेदः कृतः । स्वभावविशेषेणैव तत्पतनाभावोपपत्ती न नीलकण्ठसिद्धिरित्याकूतम् । एतेन स विश्वकृत् स हि सर्वस्य कर्ता' (बृ.उप. ४/५/१३), 'वैशान्तान् पुष्करिणी नवन्तीः सृजते स हि कर्ता' (बृ.उप.४ / ३ / १० ) इति बृहदारण्यकोपनिपवचने निरस्ते, 'न तस्य कार्य करणं च विद्यते' (श्वे. उप. ६/८) इति वेताश्वतरोपनिपवचनविरोधप्रसङ्गान् ।
से घटादि का भी पृथ्वीलोकादि की भाँति पतन नहीं होगा । पतनप्रतिबन्धक होने पर पतन कैसे हो सकता है ? यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि " केवल विशेष्यतासम्बन्ध से धारणानुकूल प्रयत्न को हम प्रतिबन्धक नहीं मानते हैं किन्तु घटादिभेदविशिष्टविशेप्यतासम्बन्ध से धारणानुकूल प्रयत्न को हम प्रतिबन्धक मानते हैं । पृथिवीलोक, सूर्य, चन्द्र आदि में घटादिभेद एवं प्रयत्नविशेष की विशेष्यता दोनों रहने से ईश्वरीय धारणानुकूल प्रयत्न घटादिभिन्नत्वविशिष्टविशेष्यतासम्बन्ध से पृथ्वीलोक, सूर्य आदि में रहेगा, जिनका पतन नहीं होता है । घटादि पदार्थ में यद्यपि तादृशप्रयत्न की विशेष्यता रहती है, मगर घटादिप्रतियोगिक भेद नहीं रहता है। अतः सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्ध से तादृशप्रयत्न पदादि में नहीं रहता है। अतः घटादि के पतन का कभी भी नहीं होने का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित नहीं होगा । प्रतिबन्धकतावच्छेदक सम्बन्ध से प्रतिबन्धक न होने पर कार्योत्पाद का प्रतिबन्ध कैसे हो सकता है ?" -
* स्वभावविशेष हो पतनाभाव में जियागक - स्याद्वादी
तु लाथ इति । तो यह नैयायिककथन भी नामुनासिब ही है, क्योंकि ईश्वरीय धारणानुकूल प्रयत्न को पटादिभेदविशिष्ट विशेष्यतासम्बन्ध से पतन का प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा उचित यही है कि प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीर में प्रविष्ट घटादिभेद को ही पतन का प्रतिवन्धक माना जाय, क्योंकि ऐसा मानने में लाघव है । नैयायिकमत में गुरुतर प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्ध की कल्पना का गौरव है, जो घटादिभेद को प्रतिबन्धक मानने पर अप्रसक्त है । युलोक आदि में पटादिभेद के रहने से उसका पतन नहीं होता है । घटादि में घटादिभेद नहीं रहने से उनका पतन हो सकता है । प्रतिबन्धक न होने पर उसके पतन का प्रतिरोध कौन करेगा ? इस तरह पतन और घटादिप्रतियोगिक भेद में प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव की उपपत्ति हो जाने से प्रतिबन्धकाश्रयविधया महेश्वर की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? वस्तुस्थिति तो यह है कि अत्यंत लाघव से गुलोक - पृथिवीलोक आदि में अनुगत स्वभाव को ही पतन का प्रतिबन्धक मानना मुनासिव है। सूर्य, चन्द्र आदि गुरुतर होने पर भी उनमें पतनप्रतिबन्धक स्वभावविशेष होने की वजह उनका पतन नहीं होता है । घट, पट आदि में पतनप्रतिबन्धक स्वभावविशेष नहीं होने से पतनसामग्री से घटादि का पतन हो सकता है । इस तरह प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव की संगति होने पर ईश्वर की सिद्धि कैसे हो सकती है ? क्योंकि उक्त प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव या कार्यकारणभाव के शरीर में कृति प्रयत्न का निवेश ही नहीं किया गया है, जिसके आश्रयविधया शिवजी की सिद्धि हो सके। एतेन इति । यहाँ नैयायिक मनीषी ईश्वर की सिद्धि करने के लिए यह अनुमान प्रयोग करते हैं कि "युलोक और
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* पृथिव्यादिधृतरदृष्टजन्यत्रम् * प्रयत्नजन्या धृतित्वात, अस्मदादिजन्यघटादिधतिवाद'त्यनुमानादीश्वरसिद्धिरित्यपि निरस्तम्, पतनप्रतिबन्धकविलक्षणसंयोगारूयधृते: द्यावापृधिव्योरिवेश्वरप्रयत्नवशाद घटादावप्युत्यत्यापत्तेः । 'अदृष्टविशेषात्तत्रैव धृति न्योति चेत् ? तर्हि अदृष्टविशेष एव तत्प्रतिबन्ध
= == =* जयलता -- - एतेनेति । द्यावापृथिव्याद्यनुगतस्वभावस्यैव रतनप्रतिबन्धकत्वीचित्येनेति । अस्याङ्ग्रे 'निरस्तमि'त्यनेनाऽन्वयः । धावापृथिव्यो तिरिति । पक्षनिर्देशोऽयत् । कस्यचित् प्रयत्नजन्येति । अनेन कृतिजन्यत्वं साध्यमित्युपदर्शितम् । हेतुमाह- धृतित्वादिति । अस्मदादिजन्यघटादिधृतिवदिति दृष्टान्तप्रदर्शनम् । यधाऽस्मदादिहस्तादिवृत्तेः गुरोः घटादेः धृतिरस्मदादिप्रयत्नजन्या तथैव द्यावापृथिव्योः धृतेरपि कृतिजन्यत्वेन भवितव्यम् । तादृशधृतिजनककृत्याश्रयत्वमस्मदादिषु न सम्भवतीति पारिशेषन्यायेन दर्शितानुमानात ईश्वरसिद्धिरिति नैयायिकाभिप्रायः ।
द्यावापृथिन्योः धृते स्वभावविशेषजन्यत्वेन तं प्रति कृतेरन्यथासिद्धत्वात्कालात्ययापदिष्टत्वं धृतित्वहेतोः तथापि प्रकरणकारोऽभ्युपगमवादेन दोषान्तरमाविष्करोति - पतनप्रतिबन्धकविलक्षणसंयोगाख्यधृतेः = प्रतननिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकताश्रयीभूताया विलक्षणसंयोगात्मिकाया धृतेः, समवायसम्बन्धेन द्यावापृथिव्योरिव ईश्वरप्रयत्नवशाद् = विभु-समर्थसोमेश्वरकृतिवशाद् घटादावपि उत्पत्त्यापत्तेः । ततश्च द्यावापृधिन्योरिव घटादेरपि कदापि पतनं न स्यात् । न चैवमिति न तत्कृतेः तादृशधृतिजनकत्वं सङ्गतिमङ्गतीत्याशयः स्याद्वादिनः ।
नयायिकः शङ्कते- अदृष्टविशेषात् तत्र = द्यावापृथिन्योः एव धृतिः न अन्यत्र = वटादौ महेशकृतिवशात् समवायेन | विलक्षणसंयोगलक्षणधृतेरुत्पत्तिः । अदृष्टस्य कार्यमा प्रति साधारणकारणत्वेन नातिरिक्तकार्य-कारणभावकल्पनापत्तिर्न वा घटादेः पतनानुपपत्तिप्रसङ्ग इति नैयायिकाशयः । स्याद्बादी समाधत्ते- तीति । तत्कृतेदृष्टविशेषेण द्यावापृथिव्योरेव समवायेन विलक्षणसंयोगलक्षणधृतेरुत्पादकत्वकल्पनायां, अदृष्टविशेष एव तत्प्रतिबन्धकत्वेन = द्यावापृथिवीपतनप्रतिबन्धकविधया, आद्रियतां पृथ्वीलोक की धृति (= पक्ष) किसीके प्रयत्न से जन्य है क्योंकि वह धृति है। जो जो धृति होती है वह सब प्रयत्नजन्य होती है । जैसे हमारे हाथ में रहा हुआ = धारित घट आदि पदार्थ जिस धृति से युक्त है, वे हमारे धारणानुकूल प्रयत्न से जन्य है। घुलोकादि की धृति भी धृतित्वविशिष्ट होने से किसीके प्रयत्न से जन्य होनी चाहिए । वह प्रयत्न जिसका है वह हम तो नहीं हो सकते । हमारा वह सामर्थ्य कहाँ कि सूर्य, चन्द्र आदि को हम धारण करें ? वह दिन कहाँ कि हमें ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो ? उसका श्रेय तो महादेवजी को ही देना चाहिए, जो अपने प्रयत्न से दिन-रात सूर्य-चन्द्र आदि को धारण कर रहे हैं। इस तरह ईश्वर की सिद्धि होती है" <- मगर नैयायिक महाशय ! अब पछताये होत क्या ? जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ! सूर्य, चन्द्र आदि में स्वभावविशेष ही ऐसा रहता है, जो उन्हें पतित नहीं होने देता । स्वभावविशेप से ही उनकी धृति जन्य है - यह हम स्याद्वादी अभी ही निवेदित कर चुके हैं। इस स्थिति में घुलोक आदि की धृति में प्रयत्नजन्यत्वस्वरूप साथ्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? अतः धृतित्व हेतुत्व बाधित = बाधदोष से ग्रस्त होता है । अतः साध्यघटकीभूत कृति के आश्रयविधया शंकरजी की सिद्धि नहीं हो सकती । दूसरी रात यह है कि ईश्वर के प्रयत्न से जैसे युलोक और पृथ्वीलोक में पतनप्रतिबन्धक विलक्षणसंयोगस्वरूप धृति उत्पत्र होती है ठीक वैसे ही घट आदि में भी तादृश धृति उत्पन्न होने की आपत्ति | आयेगी, क्योंकि ईश्वर तो आपके मत में विभु एवं सर्वशक्तिमान है । चुलोक आदि की भाँति घटादि में भी ईश्वरीय प्रयत्न से धृति उत्पत्र होने की आपत्ति का इष्टापत्तिविधया स्वीकार नैयायिक की ओर से नहीं किया जा सकता, क्योंकि तब चुलोकादि की भाँति पटादि का भी पतन नहीं हो सकेगा। इसका कारण यह है कि धृनि संयोगविशेषात्मक है जो पतनक्रिया में प्रतिबन्धक है। यहाँ यह नैयायिककथन कि -> "महेश्वर तो सर्वशक्तिमान् है, मगर क्या करें ? जीवों का अदृष्ट = भाग्य = पुण्यपाप ही ऐसा है कि ईश्वरीय प्रयत्न से विजातीयसंयोगात्मक ति युलोक आदि में ही उत्पन्न होती है, न कि घटादि में । अदृष्ट भी कार्यमात्र का साधारण कारण है । अतः महेश भी उसका अतिक्रमण कर के घटादि में स्वप्रयत्न से धृति को उत्पन्न । नहीं करते । अतः घट आदि का कभी भी पतन नहीं होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है" <
E अदृष्टविशेष से ही धुलोकादिति की उपपत्ति - ___ तईि. इति । यह भी इसलिए नामुनासिब है कि धुलोकादि की धृति के प्रति ईश्वरीय कृति को कारण मानने पर | भी जीवों के अदृष्टविशेष को कारण मानना नैयायिक महाशय के मतानुसार भी आवश्यक ही है, तो फिर अदृष्टविशेप को
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१३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५
योगशाखसंवादः * || तत्वेनाऽऽद्रियतां किमतिरिक्तकृतिकल्पनया, किं वा धृतेः प्रतिबन्धकत्वकल्पनया ?
___ धृते: पतनप्रतिबन्धकत्वमन्यत्र क्लुप्तं नाऽदृष्टस्य, धृतित्वावच्छिनं प्रति च कृतित्वेन हेतुत्वमवधृतमिति जगत्पतनप्रतिबन्धकधृतिजनकैककृतिसिन्दिरिति चेत् ? त, एवं
* गयलता है नैयायिकेन, कि अतिरिक्तकृतिकल्पनया = अक्लृप्तनंदीश्वरप्रयत्नकल्पनया सृतम् । किं = अलं वा धृतेः प्रतिबन्धकत्वकल्पनया = द्यावापृधिन्योः पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनया । अयं समाधानाशयः समवायन पतनक्रियां प्रति समयायेन धृते: प्रतिबन्धकत्वकल्पनं, समवायेन धृति प्रति विदोष्यतया कृतेः कारणत्वकल्पनं तत्रापि घटादी धृत्यनुत्पत्तये दृष्टविशेषस्य कृतिसहकारिकारणत्वमित्यादिक्लिष्टकल्पनाऽपेक्षया बरमदृष्टविदोषस्यैव द्यावापृथिव्याः पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनं, लाघवात् । एतेन पतनाभावावच्छिन्नेश्वरप्रयत्नस्य धृतिजनकत्वमित्यपरास्तम् तादृशज्ञानेच्छाभ्यां विनिगमनाविरहात, क्लृप्तजातीयस्या दृष्टस्यैर ब्रह्मा
धारकत्वकल्पनाचित्यात् । तदुक्तं योगशास्त्र मूलकाररपि -> निरालम्बा निराधारा विश्वाधारा वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र धर्मादन्यन्न कारणम् ।। (यो.शा.४/९८) इति । न चाऽऽत्माऽविभुत्ववादिनः सम्बन्धानुपपत्तिरिति वक्तव्यम्, असम्बद्भस्यापि तत्कार्यजननशक्तस्य तत्कार्यकारित्वात, अयस्कान्तस्याऽसम्बद्भस्यापि लोहाडकर्षकत्वदर्शनात । अदृष्ट
। अदविशेषस्यानभ्युपगमे तु, जगदीशप्रयत्नस्य व्यापकत्वेन समरेऽपि झरपातानापत्तेः । ततश्च लाघवादृष्टविशेषस्यैव ब्रह्माण्डादिपतनप्रतिबन्धकत्वमभ्युपगन्तव्यम् । शिवऽदृष्टानभ्युपगमाज्जीवात्मनामेव तादृशाऽदृष्टविशेषाश्रयत्वेन नोमापतिसिद्धिलेशगन्धलेशोऽपि ।
परः शकते अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । धृतेः पतनप्रतिवन्धकत्वं अन्यत्र = घटादिषतने क्लुप्त = प्रमाणसिद्धं, नादृष्टस्य । अरमदादिधृतौ सत्यां घटादेरपतनं तदसत्त्वे च तत्पननमित्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां धृतेः पतनप्रतिबन्धकलं सिद्धम् । न चैवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामष्टस्य पतनप्रतिबन्धकत्वं सिद्धमिति माइष्टविशेषस्य द्यावापृथिव्योः पतनप्रतिबन्ध. कत्वकल्पनं युक्तम्, दृष्टहान्यदृश्कल्पनादोषप्रसङ्गात् । धृतित्वावच्छिन्नं = समवायेन विलक्षणसंयोगलक्षणधृतिमात्रं, प्रति च कृतित्वेन हेतुत्वं = विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्न-कृतित्वावच्छिन्नकारणत्वं अवधृतं = अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निश्चितं इति नाs. निरिक्ककार्यकारणभावकल्पनागौरवम् । एतत्कार्य-कारणभावबलादेव लाघवसहकृतात जगत्पतनप्रतिबन्धककृतिजनकैककृतिसिद्धिरिति तादृशनित्यैककृत्याश्रयविषया चन्द्रशेखरसिद्धिः गौरवपरिहारश्चेति नैयायिकाशयः ।
प्रकरणकृत्तमपाकुरुते - नेति । एवं सति = अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां धृतिमात्रं प्रति कृतेः हेतुत्वाऽङ्गीकारे सति,
ही ब्रह्मांडादि के पतन का प्रतिबन्धक मानना उचित है, क्योंकि अदृष्टविशेष और ईश्वरीय कृति दोनों को ब्रह्माण्ड आदि की धृति का कारण मानना और धृति को ब्रह्माण्ड आदि के पतन में प्रतिवन्धक मानना- इस कुसृष्टि कल्पना की अपेक्षा मुनासिव तो यही है कि लाघव से अवश्यक्तृप्त अदृष्टविशेप को ही ब्रह्माण्ड आदि के पतन का प्रतिबन्धक माना जाप । अतिरिक्त | अप्रामाणिक ईश्वरीय प्रयत्न की और धृति में पतनप्रतिरन्धकता की कल्पना करने का कष्ट क्यों अपने शिर पर ऊठाना ?
# ईश्वर को शारीसी मानने की आपत्ति अथ धृ. इति । यहाँ यह नैयायिक कधन कि -> "ति पतन की प्रतिवन्धक है, यह तो अन्यत्र पद, पट आदि की धृति में प्रसिद्ध एवं आवश्यक है । जब तक चैत्रादि घट आदि को धारण करता है, तब तक उनका पतन नहीं होता है । अतः पतनप्रतिवन्धकना धृति में घटादि के पतनाभाव के अनुरोध से सिद्ध है । इसीलिए जब चैत्रादि घट आदि को पारण नहीं करता है, तब उनका शीघ्र ही पतन होता है । अन्वय-व्यतिरेक से धृति में पतनप्रतिबन्धकता सिद्ध है । मगर अदृष्ट में अन्चय-व्यतिरेक से धृति में पननप्रतिबन्धकता सिद्ध नहीं है । अदृष्ट होने पर घटादि का अपतन और अदृष्ट नहीं होने पर घटादि का पतन होता है, यह अन्वय-व्यतिरेक से मिद नहीं है । तब जीवों के अदृष्ट को ब्रह्माण्ड आदि के पतन का प्रतिबन्धक कैसे माना जा सकता है ? अतः धृति को ही ब्रह्माण्ड आदि के पतन का प्रतिवन्धक मानना मुनासिब है। एनं धृतिमात्र के प्रति कृति कारण है, यह भी अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध है। इस तरह कृति में भी धृतिकारणता कल्पनीय नहीं है, अवश्यक्लप्त है। इस परिस्थिति में हमारे मत में गौरख कहाँ ? प्रसिद्ध प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव और कार्य-कारणभाव ही लाघवसहकार से जगत् के पतन में प्रतिबन्धक धृति के जनक एक प्रयत्न को सिद्ध करता है, जिसका आश्रय होने का श्रेय ईश्वर को ही दिया जा सकता है । अतः ब्रह्माण्डपतनप्रतिबन्धक धृति के कर्ता के स्वरूप में महेश्वर का अंगीकार करना
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* महेशशरीरविमर्शः *
सति शरीरस्याऽपि धृतित्वावच्छिन्नं प्रति हेतुतावधारणात् तादृशशरीरस्याऽपि सिध्दयापत्तेः ! अथ अस्तु परमाणूनामेवेश्वरप्रयत्नाधीनचेष्टावतां सर्वेषामेव वेश्वरशरीरत्वमिति चेत् ?
मयलता कै
| शरीरस्यापि अन्वयव्यतिरेकाभ्यां समवायेन श्रुतित्वावच्छिन्नं प्रति हेतुतावधारणात् महेश्वरे तादृशशरीरस्यापि श्रुतिनिष्ठजन्यतानिरूपितजनकताविशिष्टशरीरस्यापि सिद्ध्यापतेः अन्यथा अर्धवैशप्रसङ्गात् । एतेन विशेषान्वय - व्यतिरेकाभ्यां कर्तृत्वेन कार्यसामान्ये पत्र हेतुहत्यारा बाध इत्यपि प्रत्युक्तम् शरीरचेष्टयोरप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यसामान्यहेतुत्वात्तयोरपि नित्ययोगीश्वरे प्रसक्तेः ।
किश्च प्रवृत्तिविशेषे चिकीर्षान्चय- व्यतिरेकाविव प्रवृत्तिविशेषे द्वेषान्वयव्यतिरेकावपि दृष्टौ दुःखद्वेषेण तत्साधनद्वेषं तन्नाशानुकूलप्रवृत्तेः कण्टकादी दर्शनात् । न च जिहासयैव द्वेषान्यथासिद्धिरिति वक्तव्यम्, तद्धेतोरस्तु किं तेन ? इति न्यायेन द्वेषस्य तद्धेतुत्वौचित्यात्, अन्यथा द्वेषपदार्थ एव न स्यात्, 'द्वेष्मी' त्यनुभवे क्वचिदनिष्ठसाधनताज्ञानस्य क्वचिच्चाऽनिष्टत्वज्ञानस्यैव द्वेषपदेना तथाऽभिलापात् । एवञ्च कार्यसामान्ये द्वेषस्याऽपि हेतुत्वसिद्धी नित्यद्वेषोऽपि महेशे सिद्धयेत् । अथ' द्वेषवतः संसारित्वप्रसङ्ग' इति चेत् । चिकीर्षावितोऽपि किं न सः १ न च ' द्वेष चिकीर्षयोस्तत्र समानविषयत्वे करणाकरणप्रसङ्गः, भिन्नविषयत्वं च तत्कार्यं न कुर्यादेव, इति बाधकाद् द्वेषकल्पना त्यज्यते' इति वाच्यम्, एवमुत्तरकालोपस्थितबाधकेन तद्भाश्रोपगमे नित्यज्ञानादिकल्पनागौरवादिबाधकेन महेश्वरस्यापि त्यागप्रसङ्गात् ।
ननु प्रदर्शितरीत्या घटादेः कुलालादिचेष्टायाश्चाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां हेतुत्वसिद्धी 'यद्विशेषयो' रित्यादिन्यायेन कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति चेष्टान हेतुत्वावश्यकत्वात् द्व्यणुकाद्युत्पत्तिपूर्वं चेष्टानुरोधेन महेशे नित्यशरीरमप्यभ्युपगम्यत एव चेष्टाश्रयत्वस्यैव शरीरत्वात् । न चेश्वरेऽतिरिक्तशरीरकल्पनागौरवम्, क्लृप्तपरमाणूनामेव तच्छरीरत्वाऽभ्युपगमात् । एवश्वेश्वरकृतिजन्यचेष्टावद्भिः परमाणुभिरेव तच्छरीरभूतः तत्तत्कार्याणामुत्यत्तिः, परमाणुक्रियायां चेष्टात्वरूपवैजात्याऽङ्गीकारात् शरीरलक्षणेऽन्त्याऽवयविवाsनिवेशाच न परमाणूनां शरीरत्वाऽनुपपत्तिरित्याशयवतामुदयनानुयायिनां मत निराकर्तुमावेदयति अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । अस्तु परमाणूनामेवेति । एवकारेणाऽतिरिक्तशरीरप्रतिषेधः कृतः । ईश्वरप्रयत्नाधीनचेष्टावतां ईश्वरवृत्तिकृतिजन्यचेष्टाश्रयणाम् । ईश्वरसम्बन्धस्य सर्वेष्वेव परमाणुषु अविशेषेणैव सत्त्वात् 'इदमेवेशशरीरमिति नियमाध्योगात्कल्पनान्तरमाह- सर्वेषामेव वेति । 'परमाणूनामि' त्यत्रानुवर्तते । केचित्तु 'परमाणव एव प्रयत्नवदीश्वरात्मसंयोगाधीनचेष्टावन्त ईश्वरस्य शरीराणी' ति वदन्ति । 'वायुपरमाणव एव नित्यक्रियावन्तस्तच्छरीराणि अत एव तेषां सदागतिमत्त्वमित्यपरे ।
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नत्र इति । भी इसलिए मान्य नहीं किया जा सकता कि जैसे अम्बय व्यतिरेक से धृतिमात्र धृतित्वावच्छिन यावत् धृति के प्रति प्रयत्न में कारणता सिद्ध है, ठीक वैसे ही शरीर में भी तत्कारणता प्रसिद्ध है । आत्मा बिभु होने पर भी यत्र तत्र धृति उत्पन्न नहीं होती है, किन्तु संयोगादि से जहाँ शरीर होता है वहीं समवाय से विलक्षणसंयोगात्मक धृति उत्पन्न होती है । चैत्रीय शरीर भूतल में होने पर पर्वतस्थ पद में धृति उत्पन्न नहीं होती है । चैत्रशरीरसंयुक्त घट में ही वृति उत्पन्न होती है । घटादि के साथ शरीर साक्षात् सम्बद्ध हो या परम्परा से वह अलग बात है । इस तरह धृतिमात्र के प्रति अन्वयव्यतिरेक से शरीर में कारणता सिद्ध होने से ईश्वर में धृतिजनक कृति की भाँति शरीर की भी कल्पना करनी होगी। ऐसा होने पर ईश्वर शरीरी हो जायेगा और लाघव सहकार से वह शरीर भी नित्य मानना होगा।
परमाणु ईश्वरशरीर नहीं हो सकते - स्याद्वादी
अथ अ. इति । यहाँ नैयायिक का यह वक्तव्य कि -> "ईश्वर में नित्य कृति की भाँति नित्य शरीर का भी हम अंगीकार करते ही हैं । नित्य परमाणुओं को छोड़ कर ईश्वर का अन्य शरीर क्या हो सकता है ? नित्य परमाणुओं को ईश्वरशरीर मानने का कारण यह है कि ईश्वर के प्रयत्न के अनुसार ही नित्य परमाणुओं में चेष्टा उत्पन्न होती है। आत्मप्रयत्न के अनुसार जिसमें चेष्टा उत्पन्न हो उसे ही शरीर कहते हैं। अतः नित्य परमाणुओं में शरीर का लक्षण भी मुमकिन होने से शरीरलक्षणानुसार उन्हें ईश्वरशरीर मानने में कोई दोष नहीं है । ईश्वरीयप्रयत्नानुसार चेष्टा करने वाले परमाणुओं को या सभी परमाणुओं को हम ईश्वरशरीर मानते हैं" - भी इसलिए नामुनासिब है कि अनन्त परमाणुओं में ईश्वरीयशरीरत्व
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४४० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * अतिरिकेश्वरकल्पने गौरवम् *
न, अनेकेषु तेषु शरीरत्वकल्पनया महागौरवात, क्लुप्तपरमाण्वादिषु एव शरीरत्वकल्पनयोपपत्तौ अतिरिक्तशरीराऽकल्पने जीवात्मस्वेव नित्यकृत्यादिकल्पनया निर्वाहेतिरिक्तस्वराऽसिन्देर्वजलेपायमानत्वाच्च । ____ 'सर्गादौ' व्यवहारप्रयोजकतया ईश्वरसिन्दिः, प्रतिसर्ममनन्तानां मन्वादीनां कल्पने
---- -* जयलता * प्रकरणकृत् तन्मतमपास्यति नेति । अनेकेषु = अनन्तेषु, तेपु = परमाणुषु, शरीरत्वकल्पनया = चेष्टाश्रयत्वकल्पनया, महागौरवात् लाघवेनाऽतिरिक्तमेकं शरीरमभ्युपगन्तव्यम् । अतोऽनन्तपरमाणूनामीश्वरशरीरत्वकल्पनमयुक्तमित्यर्थः ।
ननु परमाणूनामनन्तत्वेऽपि प्रमाणसिद्धत्वेन क्लुप्तत्वात् परमाणुत्वस्य च पृथिवीत्वादिना सार्येण जातित्वाऽयोगात् चेष्टाश्रयत्वरूपं शरीरत्वमस्माभिः तत्रैवाऽभ्युपगम्यते । धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी'तिन्यायात नातिरिक्तशरीरकल्पनम् । अतिरिक्तस्यैकस्येशशरीरस्य महत्त्वे पाषाणान्तर्वर्तिभकशरीरोत्पादकत्वानुपपत्तिः, तस्य पाषाणप्रवेशाऽसम्भवात् । अणुत्वे तु दूरस्थकार्योत्पादकत्वानुपपत्तिः, तस्य तदसम्बद्भत्वादिति नैयायिका शङ्कायां प्रकरणकृदाह- क्लृप्तपरमाण्वादिष्विति । आदिशब्देन गगनपरिग्रहः, आकाशशरीरं ब्रह्म' ( ) इतिश्रूने: कैश्चित् 'आकाशः शिवशरीरमि' त्यभ्युपगमात् । एवकारेणा निरिक्तशरीरव्यवच्छेदः कृतः । शरीरत्वकल्पनया उपपत्ती = व्यणुकादिसमुत्पादसङ्गती सत्यां अतिरिक्तशरीराऽकल्पने = महेशस्याऽतिरिक्तस्य शरीरस्य नैयायिकेन अकल्पने, तु लाघवात् जीवात्मस्वेव नित्यकृत्यादिकल्पनया ब्रह्माण्डादिपतनप्रतिबन्धकधृत्यादेः निर्वाहे = निर्वाहसम्भवे अतिरिक्नेश्वराऽसिद्धेः वज्रलेपायमानत्वाचेति । एकस्याऽऽत्मनः सर्वदा:नेकशरीरधारकत्वादर्शनेन महेश्वरस्या सर्वदाऽनन्तशरीरधारित्वकल्पनाया अन्याय्यत्वाच ।
. किञ्च क्लुप्तपरमाण्वादिष्वेवेश्वरशरीरत्वकल्पने क्लृप्तघटादिस्वरूपेष्वेव संसर्गत्यकल्पनया समवायोऽपि स्वातन्त्र्येण परस्य कथं सिद्धयेत् ?
ननुक्तभूतिबलेन गगनस्यैव तच्छरीरत्वमस्त्विति चेत् ? मैवम्, विभुद्रव्याणां परस्परसंयोगस्य त्वयाऽनुपगतत्वेन तस्य तच्छरीरत्वाः सम्भवात, असंयुक्तस्य शरीरत्वेऽतिप्रसङ्गात् । न च स्वसंयुक्तसंयोगेनेश्वरस्य गगनसम्बद्भत्वान्नाऽयं दोष इति वाच्यम् तथाप्यदृष्टाभावेन भगवतः शरीरपरिग्रहस्यैवाइसम्भवात्, अन्यथा प्रदर्शितसम्बन्धस्य कालादिसाधारण्येन कालादेरपि तच्छरीरत्वे विनिगमनाविरहात् । न च 'आकाशशरीरं ब्रह्म' - इति श्रुतेरेव विनिगमकत्वमिति वाच्यम्, युक्तिविरहे तस्या अकिञ्चित्करत्वात् । अस्तु वा तस्यां प्रामाण्यं यथाकथञ्चित्तधापि अन्याऽदृष्टेन गगनात्मकशरीरपरिग्रहे चैत्राऽदृष्टाकृष्टं शरीरं मैत्रोऽपि परिगृह्णीयात् । न च प्राण्यदृष्टेन घटाद्युत्पत्तिवत् भगवतः तत्परिग्रहोऽपि सम्भवेदिति वाच्यम्, घटादावतधात्वेऽपि तदीयशरीरे तदीमाऽदृष्टत्वेनैव हेतुत्वात, अन्यथा मुक्तात्मनामपि तत्परिग्रहप्रसङ्गः, अविशेषात् । महादेवस्य तादृशशरीरपरिग्रहे नित्यसुखदुःखादेरपि स्वीकाराप्रसङ्गात् । न च निरवयवशरीरत्वान्न नित्यसुखादेः प्रसङ्ग इति वाच्यम्, एवं सति नित्यज्ञानादेरपि तत्र विलयप्रसङ्गात् । एतेनाऽदृष्टविरहेण न तत्र सुखाद्यापत्तिः, सुखादे: नित्यत्वे मानाभावादित्यपि प्रत्युक्तम्, ईन्द्रियादिविरहेण ज्ञानादेरण्यपलापप्रसङ्गात्, ज्ञानादेर्नित्यत्वे मानाभावादित्यस्यापि सुवचत्वात् । दृष्टेष्टातिलङ्घनेन स्वाधिष्ठातरि भोगाऽजनकशरीरप - रिग्रहे किं तस्य वेदादिप्रणयनेन ? सृतं वा तत्र नित्यज्ञानादिनेति दिक् ।
परः प्रकारान्तरेणेश्वरसिद्धिमाबंदयति - सदाविति । सुष्टे: प्रारम्भे व्यवहारप्रयोजकतया = घटादिव्यवहारं प्रति प्रयो
की कल्पना करने में महागीरच है । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि क्लृप्त परमाणुओं में ही शरीरत्व की कल्पना करने से धृतिजनक कृति की उपपत्ति हो जाने से नैयायिक अतिरिक्त एक शरीर की कल्पना ईश्वर में नहीं करते हैं, क्योंकि ऐसा मानने में लाघव है; मगर हम स्याद्वादी यह कहते हैं कि यदि लाघवसहकार से ही नैयायिक महाशय ईश्वर के अतिरिक्त शरीर की, जो क्लृप्त - प्रमाणसिद्ध परमाणुओं से भिन्न हो, कल्पना नहीं करते हैं तब तो क्लुप्त = प्रमाण से उभयमत में सिद्ध जीवात्माओं में ही नित्य प्रयत्न आदि की कल्पना करना नैयायिक के लिए मुनासिब है। जीवात्माओं में नित्य प्रयत्न आदि की कल्पना करने से भी ब्रह्माण्डादिपतनप्रतिवन्धक धृति की उपपत्ति हो सकती है तब लायब तर्क से ईश्रर ही असिद्ध हो जायेगा, क्योंकि अतिरिक्त ईश्वर की कल्पना करने में भी गौरव ही है। इस तरह नैयायिक ज्यों ज्यों ईश्वर को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, त्यों त्यों ईश्वर की असिद्धि ही दृढ चमती है ।
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*सर्गादिकल्पनाप्रामाणिकी *
गौरवादि'त्यपि मनाम, सदिरेवाऽसिन्दः । ___ > 'एतान्युपादानान्येतदघटस्येति प्रत्यक्षं घटजनकमन्वेषणीयं, तच्चेश्वरं विना न इति ईश्वरसिन्दिरपत्यूहा <- इति पुनतिमतदम्, एवं सत्यनीहशस्य कुम्भकारोपादानप्रत्यक्षस्य
==जयलता * जकतया ईश्वरसिद्धिः । न च मन्वादीनामेव सर्गारम्भे जायमानानां तत्तद्व्यवहारप्रवर्तकत्वमस्ति, अलं शशिधरकल्पनयेति वाच्यम्, प्रतिसर्ग अनन्तानां मन्वादीनां कल्पने गौरवात् । लाघवेनेकेश्वरस्य सर्गप्रथमव्यवहारप्रवर्तकतया सिद्धिरिति पराशयः ।
प्रकरणकार आह- इति वक्तव्यं मन्दम् । कुतः ? इत्याह- सईदेरेवासिद्धेरिति । सर्गस्य प्रारम्भस्यैवाऽसिद्धेः, इदानीमिव सर्वदा पूर्व-पूर्वव्यवहारेणैवोत्तरोत्तरव्यवहारोपपत्तेः । एतेन मास्तु कार्यत्वं कृतेः कार्यतावच्छेदकं तथापि घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति कृते: कारणतया सर्गाद्यकालीनघटादिकं पक्षीकृत्यं सकर्तृकत्वसाधने जीवानां बाधादीश्वरसिद्धिरित्यपि प्रत्युक्तम्, पक्षस्य पक्षतावच्छेदकशून्यत्वेनाऽऽश्रयासिद्धेः । एतेन 'घटादिव्यवहारः स्वतन्त्रपुरुषप्रयोज्यः व्यवहारत्वात्, आधुनिककल्पितलिप्यादिव्यवहारवदित्यनुमानादीश्वरसिद्धिरित्यपि प्रत्युक्तम्, पूर्वपूर्वकुलालादिनैवाऽन्यथासिद्धेः । न च प्रलयेन तद्विच्छेदानेवमिति वाच्यम्, प्रलयानभ्युपगमात् । एतेन ब्रह्माण्डनाशः प्रयत्नजन्यः नाशत्वात् पाट्यमानपरनाशवदित्यपि प्रत्युक्तम्, आश्रयासिद्धेः । न च ब्रह्माण्डं नाशप्रतियोगि जन्यभावत्वात् घटवदित्यनुमानेनैव तन्नाशसिद्धिरिति वाच्यम्, अहोरात्रस्याऽहोरात्र
वव्याप्यत्वेन तदसिद्धेरिति विभावनीयम् ।
खण्डनार्थमत्र प्रकारान्तरेणेश्वरसिद्धिमावेदयति- "एतानि उपादानानि एतद्धटस्य' इति प्रत्यक्ष घटजनकं अन्वेषणीय कर्तुः विशेषत उपादानोपकरणाद्यभिज्ञत्वात् । तच = दर्शितोपादानप्रत्यक्षञ्च, ईश्वरं विना न सम्भवति, तस्यैव कात्स्न्येनोपादानवेत्तृत्वादिति तदाश्रयविधया ईश्वरसिद्धिपत्यूहेति । एतान्युपादानानि तद् घटस्यैतटस्य वे'ति विशेषतोऽज्ञाने कर्तुरुपादानविशेषे प्रवृत्तिर्न सम्भवतीति तदाश्रयविधया महेशसिद्धिरिति तदाशयः ।
प्रकरणकारः स्वाभिप्रायमाह- इति = एवंविधं बक्तव्यं, पुनः अतिमन्दं, कुतः ? इत्याह- एवं सति = विशेषत उपादेयोपादानप्रत्यक्षस्य कार्यजनकत्वाऽङ्गीकारे सति, अनीदृशस्य = दर्शितप्रकारभिन्नस्य, कुम्भकारोपादानप्रत्यक्षस्य =
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-
___ सर्गादि अप्रामाणिक - स्यादादी * सांदी. इति । प्राचीन नैयायिक का यह कथन है कि --> "घट, पट आदि अर्थ में घर, पट आदि शन्दों के प्रयोगात्मक व्यवहार के प्रथम प्रवर्तकरूप में ईश्वर की सिद्धि होती है, क्योंकि सृष्टि होने के बाद आद्य व्यवहार का प्रवर्तक अन्य मनुप्य तो नहीं हो सकते । उन्हें तत् तत् पद की शक्ति का ज्ञान नहीं होने से वे कैसे सृष्टि के आय व्यवहार के प्रवर्तक हो सकते हैं ? यहाँ यह शंका हो कि - 'सभी सृष्टि में मनु आदि भिन्न भिन्न प्राज्ञ व्यक्तिओं का जन्म होता है । अतः वे ही सृष्टि के प्रथम व्यवहार के प्रवर्तक हो सकते हैं। उसके लिए अतिरिक्त ईश्वर की कल्पना अनावश्यक है' - यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न भिन्न अनन्त सृष्टि में मनु आदि अनन्त व्यक्तिओं की कल्पना करने में गौरव है। इसकी अपेक्षा तो यही मुनासिब है कि सभी सृष्टि में एक मात्र ईश्वर को आद्य व्यवहार का प्रवर्तक माना जाय, क्योंकि ऐसा मानने में लाघव है" <
मन्दं. इति । मगर प्रकरणकार का यह कहना है कि उक्त रीति से ईश्वर की कल्पना उचित नहीं होती, क्योंकि सृष्टि का प्रारम्भ ही किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है। किन्तु यही कल्पना उचित प्रतीत होती है कि जैसे इस समय के व्यवहार अपने पूर्व पूर्व व्यवहारों से ही संपन्न होते हैं ठीक उसी प्रकार सम्पूर्ण समय के व्यवहार अपने पूर्व व्यवहारों से ही सम्पन्न होते हैं। ऐसा मानने पर कोई आद्य व्यवहार सिद्ध नहीं होने से आयव्यवहार के प्रवर्तक की कल्पना की संभावना ही समाप्त हो जायेगी।
एता. इति । ईश्वरवादी अन्य विद्वानों का यह अभिप्राय है कि -> "उपादान का प्रत्यक्ष उपादेय का जनक होता है। मगर उपादान में प्रवृत्ति के लिए विशेषतः उपादान-उपादेयभाव का ज्ञान कारण होता है, अन्यथा उपादानकारणविशेप में उपादेयविशेष के लिए प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जैसे 'ये कपाल इस घट के उपादानकारण हैं' इत्याकारक प्रत्यक्ष घट का जनक होता है । मगर ऐसा प्रत्यक्ष ईश्वर के बिना अन्य किसीको नहीं हो सकता, क्योंकि तर घट अनुत्पन्न होने से 'इस घट के ये उपादान हैं। ऐसा प्रत्यक्ष प्राकृत जन को नहीं हो सकता । अतः घटजनक उपर्युक्त प्रत्यक्ष के आश्रयविधया
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४४७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड:-२ का.
विधिविकसंवादः *
घटहेतुताऽनापत्तेः ।
किश्वेश्वरस्य सर्वज्ञत्वेऽपि मानाभावः, उपादानप्रत्यक्षस्य कार्यमा प्रति हेतुतया तज्ज्ञाने द्रव्यविषयकत्वमाप्रस्यैव सिब्दः । न च 'य: सर्वज्ञः स सर्वविदित्यादिश्रुतिरेव तस्य सर्व
=* जयलता * कुलालसमवेतस्योपादानसाक्षात्कारस्य, घटहेतुताऽनापत्तेरिति । एतानि उपादानानि घटस्ये' तिप्रत्यक्षस्य कुलाले सम्भवेऽपि 'एतान्युपादानानि एतद्रटस्ये स्येवम्बिधस्य प्रत्यक्षस्य कुलाले सम्भवः अर्थसमाजग्रस्तस्यैतद्रदत्वयं कार्योत्पादानन्तरमुपलब्धेः तत्पूर्व ज्ञातुमशक्यत्वात्, तदुत्तरं तज्ज्ञाने सत्यपि तस्याऽकिश्चित्करत्वात, कार्यस्योत्पन्नत्वात्तदानीमिति कुलालस्याऽपि घटकर्तुत्वमुच्छिद्येतेति नैतन्मतस्य युक्तत्वमिति भावः ।
ईशमभ्युपगम्य महादेववादिमते दोषान्तरमाह- किश्चेति । ईश्वरस्य सर्वज्ञत्वेऽपि मानाभाव इति । कुतः ? इत्याहउपादानप्रत्यक्षस्य कार्यमानं = केवलं कार्यं प्रति हेतुतया तज्ज्ञाने = ईश्वरीयप्रत्यक्षे, द्रव्यविषयकत्वमात्रस्यैव सिद्धेरिति । द्रव्यस्यैव कार्यमा प्रति समवायिकाणाहन् । सामानवासियतिरिससिद्धेः, कारणाभावात्, मानाभावाच । विधिविवेके मण्डनमिश्रेणाऽपि -> "किमेते (= कलालादयः) स्वकार्यस्य निरवशेषोपकरणवेदिनः ? क वा ? न ताबदशेषोपकरणवेदिनः ते, अदष्टस्यापरिज्ञानात । नाऽपि सम्प्रदानप्रयोजनविशेषवेदिनः. तस्याऽनेकस्यापि सम्म वात् तन्मात्रज्ञाने न सर्वज्ञतासिद्भिः । बालोन्मत्तादयश्च सर्वकार्याणां न प्रयोजनादिवेदिनः । साध्यं चेत् कर्तृत्वं, कथमनन्तर्भावितसर्वज्ञत्वं हेतुमन्तरेण सेद्भुमर्हन्ति ?' <- (वि.वि.पृ.१५०) इत्युक्तम् । कुलालादिनिदर्शनेनेश्वरस्य तदुपकरणादिमात्रज्ञानं स्यात् । न व तन्मात्रज्ञाने सर्वज्ञतासिद्धिः, कतिपयज्ञो हि तथा सतीश्वरः स्यादिति भावः ।
श्रुतिप्रमाणस्य खण्डनार्थमाह- न चेति । 'मानमि' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । 'यः सर्वज्ञ' इति । सामान्यरूपेण सर्वविषयकज्ञाननित्यर्थः । सामान्यरूपेण सर्वविषयकज्ञानवत्त्वं जीवानामपीत्यत आह- स सर्वविदिति । विशेषरूपेणाऽपि सर्व| विषयकज्ञानवानित्यर्थः । श्लोकश्चैवं मुण्डकोपनिषदि 'यः सर्वज्ञः स सर्वविद् यस्य ज्ञानमयं तपः । तस्मादेतद् ब्रह्म नाम रूपमन्नं
-
।
ईश्वर की सिद्धि हो सकती है" <
अतिमंदं. इति । प्रकरणकार श्रीमद्जी उपर्युक्त मन्तव्य को यह कह कर अत्यन्त तुच्छ बताते हैं कि ऐसा मानने घर तो कुलाल आदि भी घट आदि के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि कुलालादि का जो प्रत्यक्ष है वह 'ये कपाल घट का उपादानकारण हैं।' इत्याकारक होता है, न कि 'ये कपाल इस घद का उपादानकारण हैं' इत्याकारक । अतः उक्त कार्यकारणभाव को मान्यता देने पर तो कुलालादि भी घट आदि के कर्ता नहीं हो सकते, कुम्हारादि का प्रत्यक्ष भी घटादि का हेतु नहीं हो सकेगा। मगर कुलालादि घटादि के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध होने से उपर्युक्त जन्य-जनकभाव को मान्य नहीं किया जा सकता । इस तरह जन उपदर्शित कार्य-कारणभाव ही अप्रामाणिक- असिद्ध है, तब उस पर आधारित ईश्वरसिद्धि कैसे हो सकेगी ? न रहेगा गाँस, न बजेगी बांसुरी !
ईश्वर में सर्वज्ञता असिद्ध - स्यादादी किचे. इति । ययपि विचार करने पर उपर्युक्त रीति से किसी भी प्रकार से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती है, फिर भी यदि इयणुकादि के उपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर का अंगीकार अभ्युपगमवाद से किया जाय तो भी ईश्वर सर्वज्ञ नहीं हो सकता, क्योंकि उसे जगत्कर्ता मानने के लिए उपादानस्वरूप तव्य के प्रत्यक्ष का आश्रय मानना आवश्यक है, क्योंकि कार्य मात्र के प्रति द्रव्य ही उपादान कारण होता है । ईश्वर को द्रव्यविषयक प्रत्यक्ष का अधिकरण मानने पर भी उसमें जगत्कर्तृत्व की उपपत्ति हो सकती है तब क्यों उसके प्रत्यक्ष को गुणादिविषयक भी माना जाय ? अनावश्य कल्पना करने में केवल गौरव है, फायदा कुछ भी नहीं । इस परिस्थिति में ईश्वर द्रव्यज्ञाता हो सकेगा, न कि सर्वज्ञ । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि -> " ईश्वर में सर्वकता की सिद्धि 'यः सर्वज्ञः स सर्ववित्' इत्यादि श्रुति से ही होती है"<क्योंकि वेदवचन से प्रतिपाय पदार्थ की जब तक तर्क, अनुमान आदि से सिद्धि नहीं होती तब तक हजारों वेदवचन भी वाद में वस्तुसिद्धि के लिए असमर्थ है । युक्ति आदि का सहारा मिलने पर ही श्रुति = वेदवचन को स्वीकृति दी जाती है, अन्यथा सभी वादी अपने अपने आगमों के अनुसार अपने मन-पसंद पदार्थ की सिद्धि करने में समर्थ हो जायेगे । तब तो भारी गरबड़ हो जायेगी ।
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* युनिविकलश्रुतेरसाधकता* ज्ञत्वे मानमः युक्तिविरहे श्रुतिसहसस्याऽप्यकिचित्करत्वात् । न चेन्द्रियादिजन्यताऽभावेन तज्ज्ञाने नियतविषयताऽभावे सिदे तस्य सर्वज्ञत्वं सेत्स्यतीति वाच्यम्, इन्द्रियादिजन्यताऽभावेऽपि लाघवादिना तत्र नियतविषयताया एव सिम्देः । यादृच्छिकनियमकल्पनाया अप्रयोजकत्वात् ।
* जयलता च जायते ।। (मु.उप.१/५) । आदिपदेन 'सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्तिः । अनन्तशक्तिश्च विभोविधिज्ञाः षडन्तरङ्गाणि महेश्वरस्य' ।। ( ) इत्यादेः परिग्रहः । तस्य = ईश्वरपदप्रतिपाद्यस्य, सर्वज्ञत्वे मानमिति । अत्र प्रकरणकृत प्रतिविधत्ते- यक्तिविरहे श्रतिसहस्रस्याऽपि अकिञ्चित्करत्वात् । युक्तिमसहमानायाः श्रतेरप्रामाणिकत्वादिति न तत्सर्ववतत्वसिद्धिरित्यर्थः । एतेन त्वमेव सर्वज्ञः' (त्रि.वि.म.उप.१/१) इति त्रिपादविभूतिमहानार
नारायणोपनिषद्वचनं, 'सर्ववेद्यः सर्वज्ञः' (ना.परि.९/२०) इति नारदपरिवाजकोपनिषद्वचनं, 'सर्वविद् य' (श्वे.उप.६/१६) इति श्वेताश्वतरोपनिषद्वचनं च निरस्तम् ।
न चेति । अस्य 'वान्यमि'त्यनेनाऽन्वयः । इन्द्रियादिजन्यताऽभावेन = इन्द्रियादिनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यताया || विरहेण, तज्ज्ञाने = महादेवसाक्षात्कारे नियतविषयताऽभावे = प्रतिनियतगोचरत्वविरहे सिद्धे, तज्ज्ञानस्य सर्वविषयकत्वसिद्धया तस्य = महादेवस्य सर्वज्ञत्वं सेत्स्यतीति । यदि हि तज्ज्ञानमिन्द्रियादिजन्यं स्यात्, तर्हि महत्त्वशून्यातीन्द्रियपदार्थविषयं न स्यात् । न चैवमस्ति । तज्ज्ञानस्येन्द्रियाद्यजन्यत्वात् । तदुक्तं नारदपरिवाजकोपनिषदि -> 'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति विश्वं न हि तस्याऽस्ति वेत्ता, तमाहुरयं पुरुषं महान्तम् ।। (९/१६) । प्रयोगस्त्येवं महेश्वरज्ञानं सर्वगोचरं, इन्द्रियाचजन्यत्वात्, व्यतिरेके अस्मदादिघटप्रत्यक्षमुदाहरणमिति पराकूतम् ।।
प्रकरणकारः तन्निराकरणायाऽऽह- इन्द्रियादिजन्यताऽभावेऽपि = इन्द्रियादिनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यत्वाऽभावेऽपि, लाघवादिना आदिपदन हेत्वभाव-प्रमाणाभावादिग्रहः, तत्र = ईश्वरज्ञाने नियतविषयतायाः = उपादानमात्रनिष्ठविषयतानिरूपितविषयितायाः एव सिद्धेः । तत एव घटादिकार्यकर्तृत्वोपपत्तेः । तदुक्तं धर्मकीर्तिनाऽपि प्रमाणवार्तिके 'सर्वं पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते ? ।। (प्र.वा.१/३३) इति । एतेन महेशज्ञानं सविषयकं इन्द्रियाद्यजन्यत्वादिति प्रत्युक्तम्, यादृच्छिकनियमकल्पनायाः = यथाकथञ्चिद्व्याप्तिकल्पनायाः अप्रयोजकत्वात् = विपक्षबाधकतर्कशून्यत्वात् । एतेन जगद्वैचित्र्याऽन्यथानुपपत्त्या तस्य सर्वज्ञत्वसिद्धिरित्यपि प्रत्युक्तम्, तत्सार्वयं विनाऽपि जगद्वैचि-त्र्यस्य शुभाशुभकर्मपरिपाकवशेनोपपद्यमानत्वात् । तस्य सर्वज्ञत्वे तु विसंवादि-विगीतवेदादिप्रगेतृत्वं न स्यात् ।
किञ्च महेशज्ञानस्य सर्वविषयकत्वे विषयतासम्बन्धेन तत् गुणादावपि स्यात् । अतः तत्र घटादेरुत्पत्तिवारणाय समवायेन जन्यसन्मानं प्रति तादात्म्येन द्रव्यस्य कारणताऽपि स्वीकर्तव्या स्यात् । तस्य द्रव्यमात्रविषयकत्वे तु नोपदर्शितप्रधक्कारणताकल्पनाया आवश्यकत्वम्, तज्ज्ञानस्य विषयतासम्बन्धेन द्रव्यमात्रवृत्तित्वेनैवाइनतिप्रसङ्गादित्याशयेन प्रकरणकृदाह- तज्ज्ञानस्य
न चे. इनि । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "यदि ईश्वर का ज्ञान इन्द्रिय आदि से जन्य होता तब तो उसमें नियत विषयता होती जैसे इन्द्रियजन्य ज्ञान में अतीन्द्रियगोचरता नहीं होती। मगर ईश्वर का ज्ञान तो नित्य है, इन्द्रियादि से अजन्य है, तब उसके ज्ञान में नियत विषयता कैसे होगी । अतः इन्द्रियादि से अनियम्य विषयताशाली ईश्वरप्रत्यक्ष सर्वविषयक ही मानना होगा, जिसके फल में ईश्वर सर्वज्ञ बन जायेगा" - तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि ईश्वरज्ञान इन्द्रियादि से अजन्य होने पर भी उसमें लाघव से नियत विषयता = वन्यमात्रविषयकत्व ही मानना उचित है, गुणादि. विषयकता की जगदीशप्रत्यक्ष में कल्पना करने में गौरव है । इन्द्रियादि से जन्यता में सर्वविषयकत्व की न्याप्ति की मनमानी कल्पना में कोई प्रयोजक तर्क नहीं है । ईश्वरज्ञान इन्द्रियादि से अजन्य होने पर भी सर्वविषयक न हो तो क्या दोष है ? इस समस्या का समाधान नैयायिक की ओर से नहीं बताया जा सकता। इसलिए इन्द्रियादिजन्यत्वविरह हेतु से ईश्वरीय ज्ञान में सर्व विषयकता की सिद्धि हो सकती नहीं है।
* ईश्वरज्ञान को गुणादिविषयक न मानने में लाया तज्ज्ञानस्य, इति । यहाँ यह शंका करना कि -> "ईश्वरज्ञान को सर्वविषयक न मान कर केवल द्वन्यविषयक मानने
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४४९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. ५ * ईशज्ञानस्य गुणादिविषयकत्वमसिद्धम् *
तज्ज्ञानस्य गुणाद्यविषयकत्वे लाघवं द्रव्यत्वेन जन्यसत्त्वेन पृथक्कारणत्वाऽकल्पनात् । 'गुणादावुपादानप्रत्यक्षविरहेणैव जन्यसदनुत्पत्ते 'रित्यप्येके । तच्चिन्त्यम्, तथापि कुलालाघुपादानप्रत्यक्षस्य गुणादौ सत्त्वेन द्रव्यत्वेन जन्यसत्वेन कार्य-कारणभावस्याऽऽवश्यक* जयलता ॐ
= जगन्नाथसाक्षात्कारस्य गुणाद्यविषयकत्वे अभ्युपगम्यमाने सति लाघवं कुतः ? इत्याह- द्रव्यत्वेन जन्यसत्त्वेन जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजात्येन पृथक्कारणत्वाऽकल्पनादिति । तज्ज्ञानस्य द्रव्यमात्रविषयकत्वे विषयतासम्बन्धेन गुणाद्यवृत्तित्वेन गुणादौ समवायेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्यावच्छिन्नोत्पादवारणाय समवायसम्बन्धावच्छिन्न- जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजात्यावच्छिन्नकार्यतानिरूपित तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतायां द्रव्यत्वावच्छिन्नत्वाऽकल्पनेन लाववात् समवायेन जन्यसन्भात्रं प्रति विषयतया | ज्ञानस्य कारणत्वमित्यवश्यक्लृप्तकार्य कारणभावेनैव तद्वारणसम्भवादिति । एतेन ईश्वरज्ञानीयविषयतायां सङ्कोचे मानाभाव इत्यपि | प्रत्युक्तम्, लाघवेनैव तत्सिद्धेः, तस्य सर्वविषयकत्वे प्रयोजनाभावाच ।
=
अत्रैवकेषां मतमाह गुणादी विषयतासम्बन्धेन उपादानप्रत्यक्षविरहेण एवं तत्र समवायेन जन्यसदनुत्पत्तेः जन्यसदुत्पादापादानाऽसम्भवात् । समवायेन जन्यसन्भात्रं प्रति विषयतया प्रत्यक्षस्य न कारणत्वं किन्तूपादानप्रत्यक्षस्यैव । त गुणादौ नास्ति, गुणादौ कस्यचिदप्युपादानत्वाऽभावात् । सामग्रीवैकल्यादेव न तत्र जन्यसदुत्पादप्रसङ्गः । अतः शम्भुप्रत्यक्षस्य सर्वविषयकत्वेऽपि न जन्यसन्मात्रं प्रति तादात्म्येन द्रव्यस्य पृथक्कारणत्वकल्पनाया आवश्यकत्त्वमितीश्वरस्य सर्वज्ञत्वं | बायकाभावेनैव सेत्स्यतीति पराशयः ।
अत्र स्वकीया स्वरसप्रदर्शनार्थं प्रकरणकृदाह- तचिन्त्यमिति । चिन्ताबीजमेव प्रदर्शयति तथापीति । गुणादी विषयतया ईश्वरीयस्योपादानप्रत्यक्षस्याःसत्त्वेऽपीत्यर्थः किं इत्याह कुलालाघुपादानप्रत्यक्षस्य 'इदं नीले कपालं घटोपादानमित्याद्याकारकस्य या 'इदं कपालं कपालनीलरूपस्योपादानमित्याद्याकारकस्य कुलालादिसमवेतस्योपादानगोचरसाक्षात्कारस्य, विषयतासम्बन्धेन गुणादौ = कपालनीलरूपादौ सत्त्वेन तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकी भूतेन द्रव्यत्वेन समवायसम्बन्धावच्छिनकार्यतावच्छेदकीभूतेन जन्यसत्त्वेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्येन कार्य कारणभावस्य = हेतुहेतुमद्भावस्य गुष्णादी समवायेन जन्यसदुत्पादनिवारणकृते आवश्यकत्वात् = अवश्यमङ्गीकार्यत्वात् परेण । इत्थञ्च तत्प्रत्यक्षस्य सर्वविषयकत्वे
=
=
=
में लाघव क्या है ? जिसकी वजह आप उसे गुणादिविषयक मानने में हिचकिचाहट करते हैं ? - ठीक नहीं है, क्योंकि ईश्वरज्ञान को गुणादिविषयक भी मानने पर विपयतासम्बन्ध से वह गुणादि में भी रहेगा । ऐसा होने पर गुणादि में भी समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् पदार्थ उत्पन्न होने लगेगा, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् के प्रति विघयता सम्बन्ध से ज्ञान कारण होता है । इस आपत्ति का निवारण करने के लिए समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से द्रव्य को कारण मानना होगा । गुणादि द्रव्यात्मक नहीं होने से वहाँ समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् की उत्पत्ति नहीं होगी । इस तरह ईश्वरज्ञान को सर्वविषयक मानने पर जन्य सत् के प्रति द्रव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना करनी होगी। जब कि ईश्वरज्ञान को द्रव्यमात्रविषयक मानने पर जन्य सत् पदार्थ के प्रति इव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना अनावश्यक बनती हैं, क्योंकि ईश्वरप्रत्यक्ष विषयतासम्बन्ध से केवल द्रव्य में ही रहता है, जहाँ सभी जन्य सत् = द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं । अतः गुणादि में जन्य सत्तावान् पदार्थ की उत्पत्ति होने की कोई संभावना ही नहीं है, जिसके निवारणार्थ जन्यसत्त्व और द्रव्यत्व से स्वतंत्र कार्य कारणभाव की कल्पना आवश्यक हो । अतः इस लाघव से भी ईश्वरज्ञान को उपादानद्रव्यमात्रविषयक मानना ही उचित है । इस परिस्थिति में ईश्वर सर्वज्ञ कैसे हो सकेगा ?
गुणादा. इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन है कि " समवाय सम्बन्ध से जन्य सत्तावान् के प्रति विषयता सम्बन्ध से केवल प्रत्यक्ष कारण नहीं है, किन्तु उपादान प्रत्यक्ष ही कारण है । गुणादि तो किसीका भी उपादान कारण नहीं है, क्योंकि केवल अन्य ही उपादान कारण होता है । अतः गुणादि में विषयतासंबंध से उपादानप्रत्यक्ष रहता ही नहीं है, तब उसमें जन्य भाव की उत्पत्ति के निवारणार्थं द्रव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना की क्या आवश्यकता है ? अतः ईश्वरप्रत्यक्ष को सर्वविषयक मानने पर भी जन्यभाव और द्रव्य के बीच पृथक् कार्य कारणभाव की कल्पना अनावश्यक है । उपादानप्रत्यक्ष तो विषयतासम्बन्ध से केवल अन्य में ही रहता है" ← मगर यह अयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि ईश्वरीय प्रत्यक्ष को सर्वविषयक मान कर समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति विपयता सम्बन्ध से उपादानप्रत्यक्ष को कारण मानने पर भी कुलालादि का
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* ईशाऽसिद्धी विशेषावश्यकभाष्य-तत्त्वसङ्ग्रहसंचादः * | त्वात् । द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतया प्रत्यक्षत्वेन हेतुतयैवाऽनतिप्रसगे तु तज्ज्ञानस्य गुणादि-(?)विषयकतायामप्येतल्लाघवाऽप्रच्यवात् । अधिकमन्यत्र बोध्यम् ।
--.... = = * जयलता * ----= | प्रदर्शितपृथक्कारणत्वकल्पनागौरवस्य वज्रलेपायितत्वाल्लाघवेन तस्य द्रव्यमात्रविषयकत्वमेवाऽभ्युपगन्तव्यमिति न महेशस्य सर्वज्ञत्त्वं ।। सिद्धिसीधमध्यास्त इति प्रकरणकृदभिसन्धिः ।
___ ननु महेशस्य सर्वज्ञत्वेऽपि न द्रव्यत्व-जन्यसन्मात्रवेजात्याभ्यां पृथक्कारणताकल्पनाया. आवश्यकत्वम्, समवायेन जन्यसन्मान प्रति द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन उपादानप्रत्यक्षस्य कारणत्वाऽङ्गीकारेणेव गुणादौ समवायेन जन्यसदुत्पादापत्न्योगात्, द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयताप्रत्यासत्त्या उपादानप्रत्यक्षस्य गुणाद्यवृत्तित्वादिति । न च महेशप्रत्यक्षे लौकिकविषयिताविरहात् कथमुक्तकार्य-कारणभावसम्भव इति वाच्यम्, भगवत्साक्षात्कारसाधारण-साक्षात्कारत्वावच्छिन्नविषयताऽतिरिक्तलौकिकरिमालायां मानाभानादिनि नैपकिझाग प्रमगादाह- द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयत्तयेति । अनेन कारणतावच्छेदकसम्बन्धप्रदर्शन कृतम् । प्रत्यक्षत्वेनेति । अनेन कारणतावच्छेदकधर्मो दर्शितः । हेतुतयैव = कारणताभ्युपगमेनैव, अनतिप्रसङ्गे = गुणादी जन्यसदुत्पादनसङ्गनिरासे नैयायिकेन कर्तव्ये तु तज्ज्ञानस्य = शिवप्रत्यक्षस्य गुणाद्यविषयकतायां अभ्युपगम्यमानायां अपि एतल्लाघवानच्यवात् = द्रव्यत्व-जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्याभ्यां पृथक्कारणत्वाऽकल्पनस्वरूपलाघवस्य सत्त्वात्, प्रत्युत कारणतावच्छेदकसम्बन्धशरीरे द्रव्यनिष्ठत्वाऽनिवेशेनाऽधिकलाघवम् । वस्तुतस्तु इन्द्रियसन्निकर्ष-दोषविशेषादिनियम्यलौकिकविषयतानिरूपितविषयिताऽपि भवननाधज्ञाने नैव सम्भवतीति ध्येयम् । अधिकं अन्यत्र = स्याद्वादकल्पलताऽटसहस्रीतात्पर्यविवरणादी बोध्यमिति ।
प्राश्चस्तु महेश्वरस्याऽखिलजगत्कर्तृत्वेऽभ्युपगम्यमाने शास्त्रागां प्रमाणेतरज्यवस्थाविलोप: स्यात् । तथाहि सर्व शास्त्रं ! प्रमाणं ईश्वरप्रणीतत्वात्, इतरतत्प्रणीतशास्त्रवत् । प्रतिवाद्यादिव्यवस्थाविलोपश्च सर्वेषामेवेश्वरादेशविधायित्वेन तत्प्रतिलोमाचरणानुपपत्तेरिति प्राहुः । प्रमाणयन्ति च ईश्वरो जगत्कर्ता न भवति निरुपकरणत्वात, दण्ड-चक्र-चीवराद्युपकरणरहितकुलालवत् ११॥ अत्रैव पक्षे व्यापित्वात, व्योमवत् ।२। एकत्वात् तद्वत् ।३। अशरीरत्वात् मुक्तात्मवत् ।४। ईश्वरो जगनिमित्तं न भवति निष्क्रियत्वात् खवत् ।। इति । तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये -> उपगरणाभावाओ निचेट्ठाऽमुत्तयाइओ वा चि । ईसरदेहारंभे वि तुझ्या वाऽणवत्था वा || <– (वि.भा.१६४२) इति । जगदपप्लवकरणस्वैरिणः पश्चादपि कर्तव्यनिग्रहानसुरादींस्तदधिक्षेपकृतोऽस्मदादींश्च सृजतः तस्य नित्यैकसकलगोचरप्रत्यक्षाश्रयत्वमपि कथं सङ्गच्छते । न च सन्निवेशविशिष्टत्वादिहेतोः तत्कतरि नित्यैकसकलगोचरविज्ञानसिद्धिरिति वाच्यम्, सौधवल्मीकादी व्यभिचारात् । तदुक्तं तत्त्वसङ्ग्रहे शान्तरक्षितेन ->
सन्निवेशविशिष्टत्वं यादृग्देवकुलादिषु । कर्तर्यनुपलब्धेऽपि यदृष्टौ बुद्धिमद्गतिः ।। तादृगेव यदीक्ष्येत तन्वगादिषु धर्मिषु । युक्तं तत्साधनादस्माद् यथा भीष्टस्य साधनम् ।। अन्नयन्यतिरेकाभ्यां यत्कार्यं यस्य निश्चितम् । निश्चयस्तस्य तद्दष्टाविति न्यायो व्यवस्थितः ।।
उपादानप्रत्यक्ष विषयता सम्बन्ध से गुणादि में भी रह सकता है, क्योंकि 'यह कपाल कपालनीलरूप का उपादान कारण है, 'यह नीलकपाल नील घट का कारण है' इत्याद्याकारक कुलालादिनिष्ट उपादानप्रत्यक्ष में गुण भी विषय होने से वह विषयता सम्बन्ध से कपालनीलरूप आदि गुण में भी रहेगा। अतः गुणादि में जन्य भाव की उत्पत्ति के निवारणार्थ समवाय से जन्य भाव के प्रति तादात्म्य से द्रव्य को कारण मानने की आवश्यकता होगी । फलतः द्रब्यत्व से पृथक् कारणता की कल्पना का गौरव होगा । इस गौरव के निवारणार्थ ईश्वरप्रत्यक्ष को द्रव्यमात्रविषयक मानना ही मुनासिब है।
द्रव्यनिष्ठ. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि ->"ईश्वरप्रत्यक्ष को सर्वविषयक मानने पर भी गुणादि में जन्य भाव की उत्पनि के निवारणार्थ जन्य भाव और द्रव्य के बीच स्वतन्त्र कार्य-कारणभाव की कल्पना का गौरव नहीं है, क्योंकि हम समवाय सम्बन्ध से जन्यभावात्मक कार्य के प्रति द्रव्यनिष्ठ लौकिक विषयता सम्बन्ध से प्रत्यक्ष को कारण मानते हैं। उपदर्शित रीति से कुलालादि का प्रत्यक्ष गुणादि में विषयता सम्बन्ध से रहता है, किन्तु द्रव्यनिष्ठ लौकिक विषयता सम्बन्ध से वह गुणादि में नहीं रहता है, क्योंकि द्रव्यनिष्ट लौकिकविषयता गुणादि का ब्यधिकरण सम्बन्ध है । लौकिक विषयता का द्रव्यनिष्ठत्वविशेषण लगाने से वह प्रत्यक्ष इस सम्बन्ध से केवल द्रव्य में ही रहेगा । अतः ईश्वर को सर्वविषयक प्रत्यक्ष का आश्रय मानने पर भी द्रव्यनिष्ट लौकिक विषयता को कारणतावच्छेदकसम्बन्ध मानने से ही गुणादि में जन्य भाव की उत्पत्ति
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४५१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * मीमांसकानामतिमोत्योपदर्शनम् * 'राधे'त्यस्योत्तरवाक्योपात्तत्वेन 'तथे त्यस्य शा(?)ब्दस्य नाऽपेक्षा, 'साधु चन्द्रमसि]
--..-== =* जयलता * = = सन्निवेशविशेषस्तु नैवामीषु तथाविधः । तनुतर्वादिभेदेषु शब्द एव तु केवलः ।। तादृशः प्रोच्यमानस्तु सन्दिग्धव्यतिरेकताम् । आसादयति इल्मीके कुम्भकारकृतादिषु ।। (त.सं.६१/६५) नित्यैकबद्भिपूर्वत्वसाधने साध्यशन्यता । व्यभिचारश्च सौधादेर्बहुभिः करणेक्षणात || (त.सं.८१) तथाहि सौधसोपानगोपुराट्टालकादयः । अनेकाऽनित्यविज्ञानपूर्वकत्वेन निश्चिताः ॥ अत एवायमिष्टस्य विधातकृदपीष्यते । अनेकाऽनित्यविज्ञानपूर्वकत्वप्रसाधनात् ।। (त.सं.१३/१४) इत्यादि ।
मीमांसकास्तु ईश्वरानङ्गीकर्तारोऽपीश्वराङ्गीकर्तृवत् स्वस्वग्रन्थादौ मङ्गलमासेनिरे तच्चातिचित्रम् । तथाहि कुमारिलभट्टः श्लोकवार्तिके --> विशुद्धज्ञानदेहाय, त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे । श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे || - (श्लो.वा.१) इति लिखितवान् । पार्थसारथिमिश्रोऽपि न्यायरत्नमालादौ --> 'आनन्दममृतं ज्ञानमजं साक्षिणमीश्वरम् । ब्रह्म सर्वमसर्वञ्च वन्दे ! देवं हरिं प्रभुम् ॥ - इत्युक्तवान् । भट्टशङ्करोऽपि मीमांसासारसङ्ग्रहे → 'नत्वा गणेशवाग्रामगुर्वङ्क्रीन् भट्टशङ्करः'
- इति गदितवान् । वाचस्पतिमिश्रोऽपि न्यायकणिकारम्भे -> 'परामृष्टः क्लेशः कथमपि न यो जातु भगवान् ।<इति कधितरान् । लौगाक्षिभास्करोऽपि अर्थसङ्ग्रहप्रारम्भे -> 'वासुदेवं रमाकान्तं नत्वा' - इति प्रणीतवान् । श्रीकृष्णयज्वा अपि मीमांसापरिभाषायां 'सूर्यनारायणं वन्दे देवीं त्रिपुरसुन्दरीमित्याख्यातवान् । मीमांसान्यायप्रकाशे आपदेवोऽपि -> 'वन्दे ! गोबिन्दं भक्तवत्सलमि'त्यूचिवानिति कति ब्रूमः ।
वस्तुतस्तु भगवत उपास्यत्वे न जगत्कर्तृत्वं तन्त्रं किन्तु रागद्वेषाऽज्ञानाद्यकविताऽऽत्मविशुद्धिरेव । न हि वयमीश्वरं निराकुर्मः, किन्तु तत्र यत्परः जगत्कर्तृत्वकलङ्कमापादितं तदेवेति नाऽस्माकं नास्तिकत्वकलङ्कदूषितत्वम् । एतेन स्पाद्वादिनस्तु नास्तिकाः ईश्वराऽनभ्युपगन्तृत्वादिति प्रत्युक्तम्, प्रत्युत परेषामेव महामोहविलसितत्वं यदीश्वरे संसारित्वनिबन्धनं कर्तृत्वमारोप्यते । तदुक्तं पारमात्मिकोपनिषवृत्तावपि -> 'कर्तृत्वं नाम यत्तस्य स्वातन्त्र्यं परिबृंहितम् । ८- (पा.उप.२ वृ.) इति दिक् ।
अहो महान् प्रमादोऽयमीशे कर्तृत्वकल्पना । कर्मादितोऽन्यथासिद्धेातृत्वमेव सम्मतम् ||१||
ननु यथाशब्दस्य तथाशब्दसापेक्षत्वात् मूलकारिकायां यधाशब्दग्रहणे तथाशब्दग्रहस्याऽण्यावश्यकत्वात्, अन्यथा न्यूनताप्रसङ्गादित्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह - 'यथे' त्यस्य शब्दस्य उत्तरवाक्योपात्तत्त्वेन 'तथे' त्यस्य शब्दस्य नाऽपेक्षेति । यदि हि पूर्ववाक्ये कारिकायां यथाशब्दस्योपादानं स्यात्, स्यादेव तर्हि तस्य तधाशब्दसापेक्षता । न चैवमस्तीति न तस्य तथाशब्दसापेक्षतेति न न्यूनतादोषः । 'सापेक्षपदस्य पूर्ववाक्योपादानत्वं न तत्र तन्त्रमि'त्याशङ्कायां काव्यप्रकाशसंवादमाह - साध्विति ।
के अनिष्ट प्रसंग का निवारण हो सकता है" - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ईश्वरप्रत्यक्ष को गुणादिविषयक न मानने पर भी द्रव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना नहीं करने का लाधब तो रहता ही है। ईश्वरप्रत्यक्ष को केवल द्रव्यविषयक मान कर भी पृथक् कारणता की कल्पना अनावश्यक बनती है, तब क्यों उसे सर्व विषयक मानने का व्यर्थ कष्ट उठाये १ प्रत्युत ईश्वरप्रत्यक्ष को केवल द्रव्यविषयक मानने पर कारणताअवच्छेदकसम्बन्ध के शरीर में द्रव्यनिष्ठत्व विशेषण के निवेश का भी गौरव नहीं होगा । अतः लायव सहकार से यह फलित होता है कि ईश्वरीय प्रत्यक्ष केवल द्रव्यविषयक ही है, न कि सर्वविषयक । इस पक्ष में समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति लौकिक विषयता सम्बन्ध से प्रत्यक्ष कारण है, इत्याकारक लघु एक कार्य-कारणभाव का सामान्यरूप से स्वीकार किया जाता है। अतः तादृश द्रव्यविषयक प्रत्यक्ष के अधिकरण ईश्वर में सर्वज्ञता की कैसे सिद्धि होगी ? ईश्वर सर्वज्ञ नहीं होने से तत्प्रणीत वेदादि में प्रामाण्य का निश्चय भी कैसे हो सकेगा ? फलतः वेदादि में भी प्रामाण्य प्रमाण से सिद्ध नहीं होगा । अतः मूलकार श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने कारिका में जो कहा है कि - है भगवंत ! आपने जिस तरह पदार्थ का निरूपण किया है, वैसा मानने पर तनिक भी दोष नहीं है', वह यथार्थ ही है . यह वनित होता है।
यथे. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "यथाशब्द तथाशब्द की अपेक्षा रखता है, जैसे यत् शब्द तत् । शब्द की अपेक्षा रखता है ठीक वैसे ही । मूलकार ने कारिका में 'यथात्थ भगवन्' ऐसा कहकर यथा शब्द का ग्रहण किया
है । अतः तथाशब्द का भी ग्रहण करना आवश्यक है। मगर तथाशब्द का ग्रहण नहीं किया है । अतः न्यूनता दोष प्रसक्त | होता है" - परंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि जहाँ यथा, यत् आदि शब्द का पूर्व वाक्य में ग्रहण किया जाता है, वहाँ
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*** न्यायसिद्धान्तम अरीटीका शक्तिवादसंवादः *
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पुष्करैः कृतं मीलितं यदभिरामताधिके' (काव्यप्रकाश ७/१८८) इत्यादी तथादर्शनात् । ननु सर्वमिदं सर्वज्ञसिद्धावेव शोभते, तत्रैव च किं मानं ? इति चेत् ?
जयलता *
तथादर्शनादिति । यत्तदो: नित्यसापेक्षत्वेऽपि प्रकृते यत्पदस्योत्तरवाक्योपात्तत्वेन न तच्छब्दस्याऽपेक्षेतिदर्शनादिति । तद्वदेवाऽत्रापि बोध्यम् । तदुक्तं प्रकरणकृतैव न्यायसिद्धान्तम अरीशब्दखण्डटीकायां तच्छब्दजन्यबुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिन्ने यत्पदशक्तिः, उत्तरवाक्यस्थयत्पदेनाऽपि तत्पदाक्षेपात् अनाक्षेपे तत्र पृथक्शक्तिः । एवं यच्छब्दजन्यबुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिन्ने तत्पदशक्ति: प्रक्रान्ताद्यर्थंकतत्पदेनापि यत्पदाक्षेपात् अनाक्षेपे तत्रापि पृथक्शक्ति: । अत एव मिभैरवान्तरवाक्योद्देश्यविषये तत्पदमित्युक्तम् । अत्रानाक्षेपपक्ष एव युक्त: 'साधु चन्द्रमसि पुष्करैः कृतं मीलितं यदभिरामताधिके' इत्यादी प्रथमपादजन्यबोधादेव यत्पदेनोद्देश्यबोधेऽनुपदमाह वाक्यार्थबोधात् । आक्षेपे तु पुनस्तत्पदयोगेन प्रथमपादजन्यबोधकल्पने गौरवात्' - (न्या. सि. मं.टी. पृ.२७) इति । अत्र कृतमितिपदोपस्थाप्यव्यापारस्य मीलितपदोपस्थाप्ये मीलनेऽभेदसम्बन्धेनान्वयो भवति । 'मीलनाsभिन्नव्यापारकतृणि पुष्कराणी' त्यन्वयबोध: | स्वापेचयाऽभिरामताधिके चन्द्रमसि उदयं प्राप्ते सति पुष्करैः = कमलैः यद् मीलितं तत् साधु कृतमित्युदाहरणार्थ: । गदाधरस्तु शक्तिवादे तच्छदजन्यप्रतिपत्तिपूर्वमपि तत्प्रतिपाद्यतया वक्तुरभिसन्धिः प्रकरणादिना सुग्रह इति न तच्छदजन्यप्रतीतेः यत्पदशक्तिग्रहेऽपेक्षा । इयञ्च व्युत्पत्तिः प्रक्रम्यमाणपरामर्शकयच्छब्दस्य 'चैत्र: समागतो यस्तत्रावलोकित इत्यादी चैत्रादिदेनानुपस्थापितस्य यच्छब्देन बोवनात् । अत्र एवं 'साधु चन्द्रमसि पुष्करैः कृतं मीलितं यदभिरामताधिके' इत्यादी तत्पदाऽसत्त्वेऽपि न दोष:, पूर्वप्रक्रान्तस्य कृत पदोपस्थाप्यव्यापारस्यैवाऽभेदेन मीलनान्वयितया यच्छब्देन बोधनात् - (श. बा. पृ. २६० ) इति व्याचष्टे ।
इत्थञ्च गौतमीयाभिमते भवानीपतावेव मानाभावात् यथाकथञ्चित्तदभ्युपगमेऽपि तत्र सर्वज्ञत्वाऽसम्भवात् परेषां वचसि प्रामाण्याऽभ्युपगमस्य मोहविजृम्भितत्वात् मूलकारैः यथात्थ भगवन्नित्युक्त्या यज्जिनेन्द्रवचनेऽप्रामाण्यशङ्काकलङ्कलेशाऽसम्पर्कसूचनं कृतं तत्साध्विति
मीमांसकादिः शङ्कते - नन्विति । सर्व इदं = जिनेन्द्रवचनेऽप्रामाप्यलेशराहित्यसूचनादिकं सर्वज्ञसिद्धावेव शोभते । तत्र = सर्वज्ञे एव किं मानम् ? न तावत् प्रत्यक्षम् अनुपलब्धेः, नाऽप्यनुमानं लिङ्गाऽदर्शनात्, नाऽपि आगमः तेषां विभिन्नत्वात् नाप्युपमानं तत्सादृश्याऽज्ञानात्, नाप्यर्थापत्तिः तमृतेऽपि सर्वार्थोपपत्तेरित्यनुपलब्धिप्रमाणगोचरत्वं सर्वज्ञस्य । तदुक्तं लोकवार्तिके कुमारिलेन -> सर्वज्ञो दृश्यते तावत्रेदानीमस्मदादिभिः । दृष्टौ न चैकदेशोऽस्ति लिङ्ग वा योनुमापयेत् || अनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते || अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽज्ञैः प्रतीयते । प्रकल्येत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ? || सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता । कथं तदुभयं सिद्धचेत्, सिद्धमूलान्तरादृते ।। असर्वज्ञप्रणीतान्तु वचनान्मूलवर्जितात् । सर्वज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यात् किं न जानते १॥ सर्वज्ञसदृशं
वे शब्द तथा तत् आदि शब्द की अपेक्षा रखते हैं । मगर जहाँ उत्तर वाक्य में या वाक्य के उत्तरार्ध में यथा, यत् आदि शब्द का ग्रहण किया जाता है, वहाँ तथा तत् आदि शब्द की अपेक्षा नहीं होती है। यहाँ 'यथा' शब्द का उत्तर वाक्य में ग्रहण किया गया है । अतः वह ' तथा ' शब्द की अपेक्षा नहीं रखता है । यह ठीक उसी तरह संगत होता है जैसे
'साधु चन्द्रमसि पुष्करैः कृतं मीलितं यदभिरामताधिके' इस वाक्य के उत्तरार्ध में 'यत्' शब्द का ग्रहण होने से वह 'तत्' शब्द की अपेक्षा नहीं रखता है । उदाहरण वाक्य का अर्थ यह है कि 'अपनी अपेक्षा अधिक मनोहरता अभिरामतावाले चन्द्र का उदय होने पर कमलों ने जो मीलन ( बंद होने का काम किया वह बहुत अच्छा किया' । यहाँ उत्तरार्ध में 'यत्' शब्द का ग्रहण होने से 'तत्' शब्द अपेक्षित नहीं है । अतः न्यूनतादोष की शंका निराधार प्रतीत होती है। इसलिए मूलकार श्री ने कारिका के उत्तरार्ध में जो कहा है कि 'हे भगवंत 1 आपने जैसा पदार्थ का प्ररूपण किया है उसमें कोई दोष नहीं है' वह यथार्थ ही है
यह सिद्ध होता है ।
A
-
सर्वज्ञसिद्धि में प्रमाण
ननु स इति । यहाँ यह भी आक्षेप करना कि 'श्रीजिनेश्वर भगवंत के वचन में प्रामाण्य का अटूट विश्वास रखना तब उचित महसूस होना, यदि वह सर्वज्ञ हो, क्योंकि असर्वज्ञ के सभी वचन में नितांत प्रामाण्य नहीं माना जा सकता। मगर श्रीजिनेश्वर भगवंत की तो बात दूर रहो, इस जगत में कोई भी सर्वज्ञ ही नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वज्ञता में कोई प्रमाण ही नहीं है । प्रत्यक्षादि प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होने से श्रीजिनेश्वर भगवंत में सर्वज्ञता के दल
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४५३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ *सर्वज्ञसिद्धी प्रमाणम् *
शा, तुल्यायामप्यध्ययनादिसामन्यां समानाभ्यासशालिनोः व्दयोरपे बुन्दौ तारतम्यदर्शनात् विचित्रज्ञानं प्रति विचित्रज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणता कल्यते । न चाऽदृष्टविशेषस्यैव तथात्वमस्तु किमनेन ? इति वाध्यम्, सति प्रतिबन्धकेऽदृष्टसहसस्याकिश्चित्करत्वात, अदृष्टवैजात्यस्याऽनन्यथासिन्दत्वादेश्च कल्पने गौरवात,
* जयलता * कश्चिद्यदि पश्येम सम्प्रति । उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम् ॥ उपदेशो हि बुद्धादेर्धर्माऽधर्मादिगोचरः । अन्यथाऽप्युपपद्येत सर्वज्ञो यदि नाऽभवत् ।। सजाजीय प्रमाणैनु न गातीपाइलम् । दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ।। प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राऽभावप्रमाणता ॥ (मी.श्लो.वा.) इति । तस्मानास्ति सर्वज्ञ इति न जिनेन्द्रबचने सर्वज्ञप्रणीतत्वमूलकं प्रामाण्यं संघटेतेति पूर्वपक्षसक्षेपः ।
अत्र यद्यपि शक्यते एवं प्रतिविधातुं यदुत -> 'स्वसम्बन्धि यदीदं स्याद् व्यभिचारि पयोनिघे: । अम्भःकुम्भादिसङ्ख्यानैः सद्भिरज्ञायमानकैः ॥ सर्वसम्बन्धि तद्वोद्धं किश्चिद्बोधैः न शक्यते । सर्वबोधोऽस्ति चेत् ? कश्चित्तद्बोद्धा किं निषिध्यते ।। सर्वसम्बन्धि सर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भनम् । न चक्षुरादिभि: वेद्यमत्यक्षवाददृष्टवत् । नानुमानादलिङ्गत्वात् क्वार्थापत्त्युपमागतिः । सर्वज्ञस्याऽन्यथाभावसादृश्यानुपपत्तितः ।। सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यञ्च कथं मीमांसकस्य तत् । नापि वाच्यं त्वयैवं तदभावोऽनुपलब्धितः । प्रसाध्यते यतस्तस्य सर्वत्र ह्यप्रवृत्तितः ।। गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं येषामक्षानपेक्षया ।। तेघामशेषनृज्ञाने स्मृते तज्ज्ञापके क्षणे । जायेत नास्तिताज्ञानं मानसं तत्र नाऽन्यथा ।। न चाऽशेषनरज्ञानं सकृत्साक्षादुपेयते । न क्रमादन्यसन्तानप्रत्यक्षत्वाऽनभीष्टितः । यदा च क्वचिदेकत्र भवेत्तन्नास्तितागतिः । नैवान्यत्र तदा साऽस्ति क्यैवं सर्वज्ञनास्तिता । <- तथापि प्रकारान्तरेण प्रकरणकृत् समाधत्ते - शृष्विति । तल्यायामप्यध्ययनादिसामग्रयामिति । आदिपदेनाऽध्यापक-पुस्तकादिपरिग्रहः । तथापि तुल्यमभ्यासमर्वतोर्विज्ञानतारतम्यमुपपद्यतेत्याह - समानाऽभ्यासशालिनोरिति । बुद्धी तारम्यदर्शनादिति । यदि ज्ञानं प्रति ज्ञानावरणकर्मणः प्रतिबन्धकत्वं न स्वीक्रियेत तदा प्रदर्शितज्ञानवैचित्र्यं नोपपद्येत । तदन्यथाऽनुपपत्त्या ज्ञानावरणस्य कर्मणः ज्ञान प्रति प्रतिबन्धकत्वमुन्नीयते । न चैवमस्मदादीनामिदानी ज्ञानमेव नोपजायेत, ज्ञानावरणकर्मसत्त्वादिति वाच्यम्, विचित्रज्ञानोत्पादाऽन्यथान्नुपपत्त्या विचित्रज्ञानाबरणक्षयोपशमस्प प्रतिबन्धकाभावविधया विचित्रज्ञानं प्रति कारणत्वमनुमीयते । न चाऽवधारणशक्त्यादिवैचित्र्यादेव ज्ञानतारतम्योपपत्तिरिति वाच्यम्, तद्वैचित्र्यस्याऽपि ज्ञानावरणक्षयोपशमवैचित्र्यप्रयोज्यत्वात्, 'तरेतोरस्तु किं तेन ?' इतिन्यायेन ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमवैचित्र्यस्यैव ज्ञानवैचित्र्यहेतुत्वौचित्यात् ।
ननु विचित्रज्ञानं प्रति विचित्रज्ञानावरणक्षयोपशमस्य हेतुत्वाऽपेक्षया अदृष्टविशेषस्यैव तत्त्वौचित्यात्, कारणतावच्छेदकधर्मलाघबादिति शकामपाकर्तुमुपक्रमते न चेति । 'वाच्यमि' त्यनेनाऽन्वयः । अदृष्टविशेषस्यैवेति । एवकारेण ज्ञानाबरणकर्मक्षयोपशमव्यवच्छेदः कृतः । तथात्वं = तद्धेतुत्वं, अस्तु, किं = अलं, अनेन = ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमकल्पनेन, अदृष्टे ज्ञानावरणत्वाख्यविशेषधर्म कल्पयित्वा तत्क्षयोपशमे प्रतिबन्धकाइभावविधया तत्कारणत्वकल्पने गौरवादिति लाघवात् अदृष्टविशेषस्यैव तथात्वौचित्यादिति शङ्काशपः ।।
__ प्रकरणकृत् तनिरासे हेतूनाह - सति प्रतिबन्धके अदृष्टसहस्रस्य अकिञ्चित्करत्वात् = ज्ञानजननेऽसमर्थत्वात्,
पर उसके सभी वचन में प्रामाण्य का निश्चय करना भी असंगत है' -निराधार है, क्योंकि सर्वज्ञ की सिद्धि में अनुमानादि प्रमाण विद्यमान है। आप कान खोल कर सुनो, समकक्ष अभ्यास वाले दो व्यक्ति के पास अध्ययन, अध्यापक, पुस्तक, परिश्रम, पाउपरावर्तन, लेखन आदि बाह्य सामग्री समान होने पर भी उनकी बुद्धि में तरतमभाव होता है । एक की बुद्धि तेज होती है, तो दूसरे की मन्द । ज्ञान की बाह्य सामग्री समान होने पर भी उनके ज्ञान में विचित्रता क्यों ? फल में वैचित्र्य होने की वजह सामग्री में भी वैचित्र्य का अभ्युपगम करना आवश्यक है। बाह्य सामग्री तो समान होने से अभ्यन्तर सामग्री में ही वैचित्र्य मानना होगा । वह होगा ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम में वैचित्र्य । प्राज्ञ व्यक्ति के ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अधिक एवं उसकी अपेक्षा मंद बुद्धिवाले के ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम न्यून है - ऐसा ही मानना होगा । मतलब कि ज्ञान के प्रति ज्ञानावरण कर्म को प्रतिबन्धक और उसके विलय (क्षयोपशमादि) को प्रतिबन्धकाभाव के स्वरूप में ज्ञान के प्रति कारण मानना होगा । ऐसा होने पर ही ज्ञानप्राप्ति की बाह्य सामग्री समान होने पर भी ज्ञानावरण कर्म
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* प्रतिबन्धकसत्त्वंऽदृष्टस्याऽकिञ्चित्करत्वम्
पुण्य-पापरूपे तत्र साङ्कर्येण वैजात्याऽसिध्देश्व । एवञ्च ज्ञानावरणस्य क्षयोऽपि क्षयोपशमेन लिगेन क्वचिदनुमेयः ।
* जयलता *
=
प्रतिबन्धका भावस्यापि कारणत्वेन तदा सामग्रीवैकल्यात् । दर्शितज्ञानतारतम्याऽन्यथानुपपत्त्या ज्ञानावरणस्य तत्प्रतिबन्धकत्वे सिद्धे तत्सत्त्वे नाऽदृष्टविशेषेण ज्ञानमुत्पत्तुमर्हति । किञ्चादृष्टसामान्यस्य न तद्धेतुत्वं सम्भवति, अतिप्रसङ्गादिति विजातीया - दृष्टस्यैव तत्त्वं वाच्यं, अदृष्टवैजात्यं च तत्कारणतावच्छेदकत्वं कल्पनीयमिति त्वन्मते गौरवमित्याह - अदृष्टवैजात्यस्य ज्ञानकारणीभूताऽदृष्टनिष्ठस्य ज्ञानकारणतावच्छेदकत्वेन अदृष्टनिष्ठजातिविशेषस्य, अदृष्टविशेषे ज्ञानं प्रति अनन्यथासिद्धत्वादेः अनन्यधासिद्धज्ञाननियतपूर्ववर्तित्वरूपकारणत्वस्य च त्वया कल्पने कल्पनीये गौरवात् । 'अस्तु गौरवं, तस्य फला'भिमुखत्वेनाऽदोषत्वादित्याशङ्कायां दोषान्तरमावेदयति- पुण्यपापरूपे तत्र अदृष्टविशेषे, साङ्कर्येण = पुण्यत्वादिना सङ्करेण, वैजात्याऽसिद्धेः देः = तस्य जातित्वाऽयोगात् च । तथाहि मिथ्याज्ञानजनकाऽदृष्टविशेषे ज्ञानकारणतावच्छेदकधर्मोऽस्ति पुण्यत्वं च नास्ति, सुखादिजनकादृष्टे पुण्यत्वमस्ति ज्ञानजनकतावच्छेदकधर्मश्च नास्ति । तदुभयञ्च तत्त्वज्ञानजनकाऽदृष्टविशेषेऽस्तीति साङ्कर्यं पुण्यत्वेन समम् । अत एव तस्य जातित्वं न सम्भवतीति न तदवच्छिन्नज्ञानकारणताकलपनाया युक्तत्वम् । न चोपाधिसाङ्कर्यस्येव जातिसाङ्कर्यस्याऽपि न दोषत्वं दोषत्वे वा तादृशनानाजातिकल्पनमस्त्विति वाच्यम्, तनानात्वकल्पने गौरवात् । न च तस्य फलमुखत्वेनाऽदोषत्वमिति वक्तव्यम्, तथापि कार्यतावच्छेदककोटावव्यवहितोत्तरत्वाऽनिवेशे व्यभिचारात् न चास्तु तन्निवेशोऽपीति वाच्यम्, नानाकार्य कारणभावकल्पने महागौरवात् । न च तर्हि तस्योपाधित्वमेवास्तु इति वाच्यम्, अनिर्वचनात् । न च तस्याऽखण्डोपाधित्वकल्पनात्राऽयं दोष इत्युद्गीरणीयम्, तथापि ज्ञानतारतम्याऽनुपपत्तेः कारणाविशे'पादित्यकामेनाऽपि ज्ञानावरणक्षयोपशमस्यैव ज्ञानकारणत्वमभ्युपगन्तव्यम्, तद्वैचित्र्ये ज्ञानवैचित्र्योपपत्तेरिति विभावनीयं प्राज्ञः । नन्वस्तु ज्ञानावरणक्षयोपशमस्य ज्ञानहेतुत्वं तथापि कथं सर्वज्ञसिद्धि: ? इत्याशङ्कायामाह एवश्चेति । प्रदर्शितरीत्या च ज्ञानावरणस्य कर्मणः क्षयोऽपि = केवलज्ञानहेतुरपि, क्षयोपशमेन लिङ्गेन हेतुना क्वचित् = पुरुषविशेषे, अनुमेयः । तदुक्तं अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे 'दोषावरणयोनिः क्वचिदात्मनि निशा
आंतंशयवतीत्वात् । या
४५४
<
=
H
अदृष्टसामान्य
के क्षयोपशम के वैचित्र्य से ज्ञान में वैचित्र्य = तारतम्य की उपपत्ति हो सकती है । यहाँ यह कहना कि -> 'ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को प्रतिबन्धकाभावविधया कारण मानने की अपेक्षा यही मानना मुनासिब है कि अदृष्टविशेष = कर्मविशेष ही ज्ञान का कारण है, क्योंकि ऐसा मानने पर कारणतावच्छेदक धर्म अदृष्टविशेषत्व = अदृष्टवृत्ति वैजात्य होगा, जो ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमत्व की अपेक्षा लघु है' - भी असंगत है, क्योंकि ज्ञान के प्रति ज्ञानावरण कर्म प्रतिबन्धक होने से प्रतिबन्धक की उपस्थिति में हजारों अदृष्ट भी कार्य के जनक नहीं बन सकते । दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि को तो ज्ञान का कारण नहीं माना जाता किन्तु अदृष्टविशेष को ही कारण मानना होगा । अतः ज्ञानकारणतावच्छेदकविधया अदृष्टवैजात्य की कल्पना करनी होगी । तथा अदृष्टविशेष में ज्ञानकारणता उभयमत में सिद्ध नहीं होने से उसमें अनन्यधासिद्ध नियत पूर्ववर्तित्व की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है । वास्तव में तो अदृष्ट में ज्ञानकारणतावच्छेदक जातिविशेष की सिद्धि ही नहीं हो सकती, क्योंकि अदृष्ट पुण्य-पापात्मक होने से नगत जाति के साथ तादृश वैजात्य = ज्ञानकारणतावच्छेदकीभूत जातिविशेष का सांकर्य होता है। वह इस तरह, मिथ्याज्ञान के जनक अदृष्टविशेष में ज्ञानकारणता अवच्छेदक क्षित जाति रहती है किन्तु पुण्यत्व धर्मत्व जाति नहीं रहती है । यश, कीर्ति, सुख आदि के जनक अदृष्ट में = धर्मत्व जाति रहती है किन्तु ज्ञानकारणतावच्छेदक जाति नहीं रहती है । परस्परव्यधिकरण पुण्यत्व = धर्मत्व जाति और पुण्यत्व ज्ञानकारणतावच्छेदक विवक्षित जाति दोनों ही सम्यक् ज्ञान तत्त्वज्ञान के जनक अदृष्ट में रहती है। इस तरह परस्परव्यधिकरण धर्म का एकत्र समावेश होने से प्रसक्त सांकर्य दोष की वजह अदृष्टगत ज्ञानकारणतावच्छेदकीभूत वैजात्य = जातिविशेष का स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः प्रतिबन्धकाभावविधया ज्ञानावरणक्षयोपशम को ही ज्ञान का कारण मानना उचित है, न कि अदृष्टविशेष को - यह सिद्ध होता है । इस तरह जब ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में ज्ञानकारणता सिद्ध होती है तब पुरुषविशेष में ज्ञानावरण कर्म के क्षय का भी अनुमान हो सकता है । तथाहि - ज्ञानावरण कर्म की संपूर्ण हानि हो सकती है, क्योंकि उसमें तरतमता होती है। जिस हानि में तरलमता होती है वह संपूर्ण भी हो सकती है, जैसे सुवर्ण में मल आदि की आंशिक = तरतमभाववाली हानि होती है, तो कभी संपूर्ण हानि भी होती है । ठीक वैसे ही हमारी आत्मा में ज्ञानावरण कर्म की आंशिक तरतमभाववाली हानि होती है, तो किसी पुरुषविशेष में उसकी संपूर्ण हानि होनी चाहिए । मतलब कि ज्ञानावरण कर्म का संपूर्ण क्षय भी सिद्ध होता है । जिस पुरुषविशेष में ज्ञानावरण का संपूर्ण ड्रास
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४५५ मध्यमस्याद्वादरहरये खण्डः २ का ५
* अष्टसहस्रीविवरणसंवादः *
न चाsप्रयोजकत्वं, मूलोच्छेदे कार्योच्छेदाऽवश्यम्भावात् । क्षयश्च स्वसमानाधिकरणतज्जातीयपर्यायप्रागभावाऽकालीन: तत्पर्यायध्वंसो
* जयलता
हानिरतिशायिनी सा क्वचिन्निः शेषा भवति यथा कनकपाषाणादौ किकालिकादिबहिरन्त मंलहानिरिति प्रयोगोऽत्र द्रष्टव्यः । | अत्रातिशायिनीलमाश्रयभेदव्यापारप्रयुक्ताऽल्पाऽल्पतर- बहु- बहुतरप्रतियोगित्वम् - ( ( अ.स.वि.प्र.९२ ) इति । एतेन यत्राऽप्यतिशयो दृष्ट:, स स्वार्धानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टी स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता । येऽपि सातिशया दृष्टा: प्रज्ञामेधादिभिनराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ प्राज्ञोऽपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोऽपि सन् । स्वजातीरनतिक्रामन्नतिशेते परान्नरान् ॥ एकशास्त्रविचारेषु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रेणैव लभ्यते । ज्ञात्वा व्याकरणं दूरं बुद्धि: शब्दाऽपशब्दयी | प्रकृष्टतेन नक्षत्रतियोगि चन्द्रार्कग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति । तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्ग देवताऽपूर्व प्रत्यक्षीकरणे क्षमः || दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोल्लुत्य गच्छति । न च योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ ( मी.ओ. वा. ) इति कुमारिलप्रलापः परास्त: । तदुक्तं योगबिन्दीज्ञां ज्ञेये कथमज्ञः स्वादसति प्रतिबन्धने । दाह्येऽदिहको न स्यादसति प्रतिबन्धने || <- (४३२) इति । इतरसकल कारणसमवधानेऽसति प्रतिबन्धक कार्यात्यादस्य न्याय्यत्वादित्याशयेन प्रकृतं प्रयोजकत्वशङ्कामपास्यति न चाऽप्रयोजकत्वमिति । अस्तु ज्ञानावरणक्षय: मास्तु सकलार्थविषयः साक्षात्कार:, तर्हि को दोष: ? इत्यप्रयोजकत्वं प्रकृते नास्तीत्यर्थः । कुतः १ इत्याह- मूलोच्छेदे यावत्प्रतिबन्धकात्यन्तक्षये, कार्योच्छेदाऽवश्यम्भावात् प्रतिबन्धकीभूतज्ञानावरणकार्यभूताऽज्ञानत्वावच्छिन्नध्वंसस्याऽवश्यम्भावनियमात् । अत एवाक्षानपेक्षा यथाऽञ्जनादिसंस्कृतचक्षुष आलोकाऽनपेक्षा । अक्षापेक्षा | हि ज्ञाने विषयस्पष्टत्वार्थम् । तच संपूर्णज्ञाने ज्ञानावरणक्षयादेवेति तस्याऽक्षानपेक्षत्वेऽपि न क्षतिः । विशदतरकार्य - सिद्धावप्रतीयमानमपि कारणं कल्पनीयं न पुनरप्रतीयमानकल्पना भयात्कार्यवैशद्यमपह्नोतुमुचितम्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । एतेन 'न प्रत्यक्षं चक्षुरादिजन्म तावत्सवर्धिषु तेषां विषयनियमात् किञ्चिदेव हि वर्तमान सम्बद्धञ्च तद्विषयो न सर्वेऽर्था' (वि.वि. १.८२ ) इति विधिविवेककृद्वचनमपि प्रत्युक्तम्, अनुक्तोपालम्भदानात् ।
क्षयपदार्थ प्ररूपयति-क्षयश्चेति । स्वसमानाधिकरणतज्जातीयपर्यायप्रागभावाऽकालीनः तत्पर्यायध्वंस इति । स्वसमानाधिकरणो यः स्वप्रतियोगिजातीयपर्यायप्रतियोगिकप्रागभावः तत्कालीनभिन्नः पर्यायविशेषप्रतियोगिको ध्वंसः क्षय इत्यर्थः । पर्यायविशेषध्वंस: क्षय इत्युक्ती तु अस्मदादीनामपि सर्वज्ञत्वाऽऽपत्तिः, प्रतिसमयमस्मदादिषु ज्ञानावरणकर्मणां नश्यमानत्वात् । अतः 'स्वप्रतियोगिजातीयपर्यायप्रागभावाऽकालीने 'त्युक्तम् । तेन यत्किश्चित्प्रतियोगिकप्रागभावाऽकालीनत्वमादायाऽपि नातिप्रसङ्गः । तथापि त्रयोदशादिगुणस्थानवर्निनि ज्ञानावरणध्वंसेऽव्याप्तिः, अन्यजीववृत्तिज्ञानावरणप्रागभावसमानकाळीनत्वादित्यतः 'स्वसमानाधिकरण' इति प्रागभावविशेषणम् । स्वपदेन तादृशध्वंसस्योपादानम् । यदि च परण गौरवमुद्भाव्यते
होगा, उसका ज्ञान सर्वार्थगोचर होगा । यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि 'ज्ञानावरण कर्म का संपूर्ण क्षय हो तो भी क्या ? इससे ज्ञान में सर्वार्थविपयकता कैसे सिद्ध हो सकती है ?" - क्योंकि ज्ञानावरण कर्म ज्ञान का प्रतिबन्धक है । उसका आंशिक उच्छेद होने पर आंशिक ज्ञान होता है तो उसका संपूर्ण उच्छेद होने पर संपूर्ण ज्ञान भी जरूर होना चाहिए, तनिक भी अज्ञान की तब संभावना नहीं है, क्योंकि अज्ञान ज्ञानावरण का कार्य होने से ज्ञानावरण कर्म का मूलतः उच्छेद होने पर उसके कार्य अज्ञान का भी संपूर्ण उच्छेद हो ही जायेगा । बिना कारण कार्य कैसे अपना स्थान पा सकता है ? इसलिए ज्ञानावरण कर्म के संपूर्ण ह्रास से होने वाले ज्ञान को सर्वविपयक मानना आवश्यक है ।
* क्षयपदार्थप्ररूपणा
क्षयश्व इति । केवल ज्ञान के कारणीभूत ज्ञानावरणकर्मक्षय का स्वरूप बताते हुए प्रकरणकार श्रीमद्जी कहते हैं कि पर्यायविशेष का ध्वंस क्षय है । मगर वह ध्वंस अपने अधिकरण में रहने वाले स्वप्रतियोगिसजातीयप्रतियोगिक प्रागभाव का समानकालीन नहीं होना चाहिए । अभी हमारी आत्मा में जो ज्ञानावरण कर्म का ध्वंस होता है, वह ज्ञानावरणकर्मप्रतियोगिक प्रागभाव का, जो हमारी आत्मा में रहता है, समानकालीन है, न कि भित्रकालीन । अतः प्रदर्शित ज्ञानावरणकर्मक्षय का
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* योगसूत्रनिराकरणम्
४५६
न तु सर्वथाऽभावरूपः, तस्य क्वचिदपि स्यादादिभिरनभ्युपगमात् । तथा च यत्र सर्वज्ञानावरणविलयः, स एव भगवान् सर्वज्ञः सिध्यति ।
तालु ज्ञानस्य कथं सर्वविषयत्वं ? अतीतानागतयो: स्वरूपाऽभावेनोभयस्वरूपविषयताऽभावादिति चेत् ? न आलेख्याऽऽकाराणामिवाऽवर्तमानस्याऽपि वस्तुनो ज्ञेयाकाराणां ज्ञाने सम्भवात् ।
जै गयलता
तदा प्रतियोगिव्यधिकरणज्ञानावरणध्वंसो ज्ञानावरणक्षय इति प्रदर्शनीयमिति दिकू ।
ननु ज्ञानावरणत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावस्यैव लाघवेन तथात्वमस्त्वित्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह न तु सर्वथाऽभावरूप इति । कुतः ? इत्याह तस्य क्वचिदपि आत्मनि स्याद्वादिभिः अस्माभिः अनभ्युपगमादिति । एतेन क्लेशकर्मविपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' - (यो.सू.१ / २४ ) इति पतञ्जलिवचनमपि प्रत्युक्तम्, नित्यनिर्दोषपुरुषे मानाभावात् नित्यत्वे सति तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावभिन्नत्वरूपस्याऽत्यन्ताभावत्वस्य जन्याभावत्वलक्षणध्वंसत्वऽपेक्षया गुरुत्वाच्च । ध्वस्तदीयत्वस्यैवेश्वरत्वे तन्त्रत्वमिति यत्र आत्मनि सर्वज्ञानावरणविलयः = स्ववृत्तियावज्ज्ञानावरणध्वंसः, स एव आत्मा भगवान् सर्वज्ञ इति सिध्यति ।
असर्वज्ञवादी शकते नन्विति । 'चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । ज्ञानावरणक्षय-क्षयोपशमयोरेवं सिद्धत्वेऽपि ज्ञानावरणक्षयसंपाद्यस्य ज्ञानस्य कथं सर्वविषयत्वं अतीतानागतवर्त मानव्यवहितातीन्द्रियाद्यर्थगोचरत्वं अतीतानागतयोः वस्तुनो निवृत्ताजातत्वात् स्वरूपाऽभावेन निरुपाख्येयत्वेन, उभयस्वरूपविषयताऽभावात् = विज्ञानविषयोभयात्मक विषयत्वाऽसम्भवात् । विषयताया अतिरिक्तत्वे गौरवात् लाघवेन विषयविषयिस्वरूपत्वमेवेति तदन्यतराज्भाव उभयात्मकविषयताया एवासत्त्वात् कथं ज्ञानस्याऽतीतादिविषयकत्वं स्यात् ? न खल्वतीतोऽजातो वा शत्रुः सम्प्रति संतर्पयत्ति विवेकिनः नानागतः शङ्खचक्रवर्त्ती महासंपत्रिमित्तं विप्राननपानैरुत्थापयतीतिशंकाशयः ।
तन्निराकुरुतेनेति । आलेख्याकाराणां = आलेख्ये आकाराणां, इवाऽवर्त्तमानस्याऽपि वस्तुनः अतीतानागतपदार्थस्य ज्ञेयाकारणां ज्ञाने सम्भवादिति । यथा विद्यमानस्य पुरुषस्य आकारो लेप्यादौ वर्तते तथाऽविद्यमानस्य वस्तुनो
:
हम अभी आश्रय नहीं है । एक ज्ञानावरण कर्म का हमारी आत्मा में ध्वंस होने पर भी भावी काल में हम दूसरे ज्ञानावरण कर्म का अधिकरण बनने वाले हैं। अतः अभी हमारी आत्मा में ज्ञानावरण कर्म का प्रागभाव रहता है । अतएव हमारी आत्मा में रहने वाला ज्ञानावरणकर्मध्वंस तादृश प्रागभाव का भिन्नकालीन नहीं कहा जा सकता । मगर जिस पुरुषविशेष में भावी काल में ज्ञानावरण कर्म की अधिकरणता नहीं होने वाली है, उसी पुरुपविशेष में रहनेवाला ज्ञानावरणकर्मध्वंस ही स्वसमानाधिकरण ( ज्ञानावरणध्वंसाधिकरणवृत्ति) स्वप्रतियोगिसजातीय (ज्ञानावरणकर्म) प्रतियोगिकप्रागभावकालीन नहीं होने से ज्ञानावरणकर्मक्षयात्मक सिद्ध होगा । मगर क्षय का अर्थ सर्वथा अभाव यानी ज्ञानावरणकर्मात्यन्ताभाव ऐसा नहीं है, क्योंकि हम स्याद्रादी ने किसी भी आत्मा में दोषात्यन्ताभाव त्रिकालिeदोपशून्यत्व का अंगीकार नहीं किया है । मतलब कि ' अनादि काल से जिस आत्मा में दोप नहीं है, उसी आत्मा में सर्वज्ञता है' ऐसा हम नहीं मानते हैं, क्योंकि सभी जीव अनादि काल से दोष (= ज्ञानावरण कर्म) से युक्त होते हैं और बाद में रत्नत्रयादि की आराधना के बल से ज्ञानावरणकर्मक्षय द्वारा केवलज्ञान = संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करते हैं। जिस आत्मा में ज्ञानावरण कर्म का प्रदर्शित क्षय रहता है, वही सर्वज्ञ यानी केवलज्ञानी भगवंत है, यह सिद्ध होता है ।
अतीतविषयक प्रत्यक्ष मुमकिन
नंनु ज्ञा. इति । यहाँ यह समस्या मुँह फाड़े खड़ी रहती है कि 'अतीत पदार्थ विनष्ट होता है और अनागत पदार्थ अनुत्पन्न होता है, इसलिए उनका वर्तमान काल में कोई स्वरूप ही नहीं है । तब वे ज्ञान के विषय कैसे बन सकते हैं ? क्योंकि विषयता तो ज्ञान और विषय उभयात्मक होने से विषय न होने पर उभयात्मक विषयता भी नहीं हो सकती । इस तरह प्रत्यक्ष में अतीत अनागतवस्तुगोचरता नामुमकिन है, तो फिर त्रिकालवर्ती सब पदार्थ का विषयकत्व तो कैसे मुमकिन होगा ? अतः ज्ञानावरण के क्षय से सर्वविषयक ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती' - मगर इसका यह समाधान है कि जैसे अतीतादि पुरुष का आकार आलेख्य चित्र में होता है ठीक वैसे ही भवर्तमान = अतीतादि वस्तु का आकार
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४५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ - का.५ * दिगम्बरनयेन सर्वविषयकज्ञानसिद्धिः **
अथाऽऽलेख्ये न पुरुषाकारः, करचरणादिरूपस्य तस्य पुरुष एव भावात्, तत्र 'पुरुष' इति धीस्तु सादृश्यज्ञानदोषादिनिबन्धतत्वादधमरूव, तथा च ज्ञानेऽपि न ज्ञेयाकार इति चेत् ? न, न हि वयं ज्ञेयतदात्मानं आकारं ज्ञाने ब्रूमः, येन साकारवादपक्षनिक्षिप्तं दूषणं
= जयलता * ज्ञेयाकारा ज्ञानेऽपि सम्भवन्तीति नातीतादिगोचरत्वं प्रत्यक्षे बाधितुं शक्यते । यच्चोक्तं -> "विज्ञानविषयोभयात्मक विषयत्वं'
- तदसत् विषयताया ज्ञानरूपत्वे 'घटवद्भूतलमि' स्यादिज्ञाननिरूपितानां घटभूतलादिवृत्तिविषयतानामभेदापत्त्या तादृशज्ञानान्तरं 'बटप्रकारकज्ञानवानहमि' त्यादिप्रतीतिवद् 'भूतलप्रकारकज्ञानवानहमि'त्यादिप्रतीतिप्रसमात्, घटनिष्ठप्रकारत्वाऽऽख्यतज्ज्ञानस्वरूपविष्यताया व भूतलवृत्तित्वात, एवं 'घटपटावि' त्यादिसमूहालम्बनधियो भ्रमत्वापत्तिश्च । विषयस्वरूपत्वे च 'घटभूतलसंयोगा' इत्याद्याकारकसमूहालम्बनविशिष्टबुयोर्वेलक्षण्यानुपपत्तेरिति विज्ञानविषयाभ्यामतिरिक्तमेव विषयत्वमित्यनन्यगत्या स्वीकर्तव्यम् । अतो न विषयाःसत्त्वे तादृशज्ञानाकाराऽसम्भवः, योग्यताया एव तदाक्षेपकत्वात् । न च ज्ञानाकारता कथं सिद्धा ? इति वाच्यम्, घटत्वादिप्रकारतानिरूपितघटादिविशेष्यतास्थानाभिषिक्ताया घटाद्याकारतायाः 'सागारे नाणे हवई' इत्याधागमस्यारस्येनाऽभ्युपगतत्वात् । तथा च नाऽतीतादिगोचरताया निरूपकत्वसंसर्गेण ज्ञानेऽसम्भव इति फलितम् ।
परः शङ्कते- अधेति । 'चेदि' त्यनेनाऽस्यान्वयः | आलेख्ये = लेप्य-प्रतिमादी वस्तुतो न पुरुषाकारः, कुतः ? इत्याह - करचरणादिरूपस्य तस्य = पुरुषाकारस्य पुरुषे एव भावात् = सद्भावात् । 'तर्हि आलेख्ये पुरुषबुद्भिः किंनिबन्धना किंरूपा च' ? इत्याशङ्कायामाह - तत्र = आलेख्ये, 'पुरुष' इतिथीः = पुरुषत्वप्रकारिका बुद्भिस्तु सादृश्यज्ञानदोषादिनिवन्धनात् = संस्थानादिसादृश्यधी-भेदाग्रहादिदोष-तादात्म्याऽऽरोपादिनिमित्तकत्वात्, भ्रमरूपा = तदभाववति तत्प्रकारकत्वाऽवगाहित्येन विपर्ययात्मिका एच । न तु प्रमेत्येवकारार्थ: 1 तत: किं ? इत्याशङ्कायां निगमयति - तथा चेति । यथालेख्य न पुरुषाकार तथा च, ज्ञानेऽपि न ज्ञेयाकारः अस्ति, तस्य ज्ञेयवृत्तित्वात्, अज्ञेयाकारेऽपि झाने ज्ञेयाकारत्वेन भानाद्भमत्वमेवेति नातीतानागतविषयकत्वं ज्ञाने सम्भवति । अतीतादिपुरुषीयकरचरणादिरूपझेयाकाराणां ज्ञानवृत्तित्वे योगाचारमतप्रवेशप्रसङ्गादिति प्रकृते निर्गलितशङ्काभिप्रायः ।
समाधत्ते - नेति । न हीति । 'बूम' इत्यनेनाइन्वीयते । ज्ञेयतदात्मानं = ज्ञेयात्मकं आकार = ज्ञेयाकारं ज्ञाने मः, येन कारणेन साकारवादपक्षनिक्षिप्तं = योगाचारमतप्रविष्टं, दूषणं दुरुद्धरं स्यात् । तर्हि कीदृशो ज्ञेयाकारो
भी प्रत्यक्ष ज्ञान में हो सकता है। इसमें कोई क्षति नहीं है। इसलिए ज्ञानावरणक्षय से सर्व विषयक ज्ञान की कल्पना यधार्थ ही प्रतीत होती है।
अथाले. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "चित्र में पुरुषाकार का जो दृष्टान्त बताया गया है, वही असिद्ध है, क्योंकि पुरुषाकार का मतलब है हाथ, पाँच आदि । तादृश पुरुषाकार तो वास्तविक पुरुषशरीर में होता है, न कि उसकी प्रतिमा, चित्र आदि में । प्रतिमा आदि में होने वाली 'यह पुरुप है' इत्यागाकारक बुद्धि तो भ्रमात्मक ही है, क्योंकि सादृश्यज्ञान, पुरुषभेदाऽग्रहात्मक दोष आदि की बजह वह बुद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए प्रतिमादि में पुरुषत्वप्रकारक बुद्धि के कर-चरणादिस्वरूप पुरुषाकार की सिद्धि नहीं हो सकती, दोपादि से अजन्य बुद्धि से ही पदार्थ की सिद्धि होती है। जैसे प्रतिमादि में पुरुषाकार नहीं होता है, ठीक वैसे ही ज्ञान में ज्ञेयाकार भी नहीं होता है। वह तो ज्ञेय विषय में रहता है । अत:
अतीतादि ज्ञेय पदार्थ का आकार ज्ञान में कैसे मुमकिन होगा, जिससे सर्वविषयक ज्ञान की सिद्धि हो सके ? अतः सर्वविषयक | ज्ञान की कल्पना अप्रामाणिक है, अन्यथा साकारवाद की आपत्ति आयेगी" -
ॐ ज्ञानात्मक ज्ञेयाकार का ज्ञान में स्वीकार ॐ न, न. इति । तो यह भी असंगत है, क्योंकि हम स्याद्वादी ज्ञेयतदात्मक = ज्ञेयाऽभिन्न आकार का ज्ञान में स्वीकार · नहीं करते हैं, जिसकी वजह साकारवाद की आपत्ति हो और उसकी वजह साकारयादमत = योगाचारपक्ष में प्राप्त दोष का
उद्धार भी हमारे पक्ष में मुश्किल हो । किन्तु हम तो ज्ञान में ज्ञानतदात्मक = ज्ञानाभिन्न आकार को मानते हैं । आशय यह है कि ज्ञान में रहने वाला झेयाकार यदि ज्ञेयाऽभित्र माना जाय तर तो बाह्य वस्तु का लोप, ज्ञानाद्वैत आदि अनेक दोष प्रसस्त होते हैं, जो साकारज्ञानबादी योगाचार बौद्ध के मत में प्रसक्त होते हैं। मगर हम ज्ञान में रहने वाले ज्ञेयाकार को ज्ञानाऽभिन मानते हैं। अतः ज्ञेय की झान में वृत्तिता के मूलक दोषपरम्परा प्रसस्त नहीं होती है। यह ठीक उसी
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* अनुमानसप्तकेन सर्वज्ञसाधनम् *
दुरुदरं स्यात् किन्तु ज्ञानतदात्मानम् । आलेख्येऽपि स्वतदात्मैव पुरुषाद्याकारी भासते न तु पुरुषादितदात्मा । अत एव 'इदमालेख्यं पुरुषाकारवन तु करचरणादिमदि 'तिप्रतीतिनिर्वहतीति दिगम्बराः ।
वस्तुतो ज्ञानस्य सर्वविषयत्वं स्वभाव एव प्रदीपादेवि सर्वप्रकाशकत्वं, तस्य च ज्ञेयाकारशब्दाऽवाच्यत्वेऽपि न क्षतिरिति वदन्ति । (श्लो. १ संपूर्णः )
ॐ जयलता
ज्ञानेऽभ्युपगम्यते ? इत्याशङ्कायामाह किन्तु ज्ञानतदात्मानं - ज्ञानाभित्र ज्ञेयाकारं ज्ञाने ब्रूम इत्यत्राऽप्यनुषज्यते । यदि | ज्ञेयात्मको ज्ञेयाकारो ज्ञाने स्वीक्रियेत तदा योगाचार मतप्रवेश- तत्प्रयुक्तदोषप्रसङ्गः स्यात् किन्तु ज्ञानात्मको ज्ञेयाकारी | ज्ञानेऽङ्गीक्रियत इति नातीतादिगोचरज्ञानाऽसम्भवी न वा ज्ञानाद्वैतमतप्रवेशप्रसङ्गः । पूर्वोक्तदृष्टान्तवैषम्यमाविष्करोति आलेख्येऽपि = प्रतिभाचित्रादावपि स्वतदात्मैव आलेख्यात्मक एव, पुरुषाद्याकारी भासते, न तु पुरुषादितदात्मा ज्ञेय| पुरुषादिस्वरूपः । अत्रैव किं विनिगमकं ? इत्याशङ्कायामाह अत एवेति । आलेख्यात्मकपुरुषाद्याकारस्यैवाऽऽलेख्ये मानादिति । इदं आलेख्यं प्रतिमादिकं पुरुषाकारवत् न तु करचरणादिमदि' तिप्रतीतिर्निर्वहतीति दिगम्बरा वदन्तीति शेषः । उक्तप्रतीतेरयोगव्यवच्छेदाऽन्ययोगव्यवच्छेदावगाहित्वादालेख्ये स्वात्मकः पुरुषाकारोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः पुरुषाद्यात्मकः पुरुषाद्याकारश्च व्यवच्छेद्य इति सिद्धी ज्ञानेऽपि ज्ञानात्मको ज्ञेयाकारः स्वीकार्य : ज्ञेयात्मकश्च शेषाकारो व्यवच्छेद्य इति सिद्धया क्षयीपशमादिना अतीतादिगोचरत्वमपि ज्ञाने सम्भवीति न ज्ञानस्य सर्वविषयकत्वमसिद्धमिति तेषामाकूतम् ।
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४५८
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ज्ञानस्य सर्वविषयकत्वं न ज्ञानावरणक्षयात् किन्तु ज्ञानस्वाभाव्यादेवेत्याशयेनाह वस्तुत इति । ज्ञानस्य सर्वविषयत्वं सर्वनिष्ठविषयतानिरूपितविषयिताशालित्वं स्वभाव एव, प्रदीपादेरिवेति । आदिपदेन सूर्यानलादिपरिग्रहः । यथा प्रदीपादिः स्वभावत एव सर्वप्रकाशक: तथापि कुड्यादिप्रतिबन्धके सति न व्यवहितान् प्रकाशयति तदपगमे तु तान् प्रकाशयत्येव तथैव ज्ञानमपि स्वभावत: सर्वविषयकं तथापि तत्तद्रोचरज्ञानावरणे प्रतिबन्धके सति न तत्तत्पदार्थान् गोचरीकरोति तद्विलये तु तान सर्वान् विषयीकरोत्येवेति नातीतादिविषयकत्वं ज्ञाने व्याहन्यत इति सर्वविषयकज्ञानाश्रये सर्वज्ञत्वं सिध्यत्येव । तस्य - सर्वविषयकत्वस्वभावस्य च ज्ञेयाकारशब्दाऽवाच्यत्वेऽपि न क्षतिरिति । अत्र 'ज्ञेयाकारशब्दवाच्यत्वेऽपि' इति यद्वा 'ज्ञेयाकारशब्दाद्वाच्यत्वेऽपीति शुद्धः पाठः स्यादिति सम्भाव्यते । तादृशज्ञानस्वभाव एव दिगम्बरैः ज्ञेयाकारशब्देन प्रतिपाद्यते तदा न दोष इत्यर्थः । ज्ञानस्य सर्वविषयकत्वस्वभावानभ्युपगमे तु 'तादृशो ज्ञेयाकारः कथं ज्ञाने एव न तु कृत्यादी ?' इत्यत्र विनिगमनाविरहात् तादृशस्वभावानङ्गीकारे तु 'ज्ञेयाकारो ज्ञानतदात्मको न तु कृत्यादि तदात्मक' इत्यस्य दिक्पटे: वक्तुमशक्यत्वादित्याशयः ।
प्रास्तु सर्वज्ञत्वसाधनार्थं अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चिताऽसम्भवद्बाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् |१| कश्विदात्मा सकलार्थसाक्षात्कारी तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् यद् यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययं तत् तत्साक्षात्कारि, यथाऽपगततिमिरादिप्रतिबन्धलोचनं रूपसाक्षात्कारि, सकलार्थग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धश्च कश्चिदात्मा तस्मात् सकलार्थसाक्षात्कारी । न चाऽयं विशेषणाऽसिद्ध हेतु:, आगम द्वारेणा दोषार्थग्रहणस्वभावस्यात्मनि प्रसिद्धत्वात् |२|
=
तरह उपपन्न होता है जैसे चित्रादि में चित्रात्मक पुरुषाकार रहता है। चित्र में भी पुरुषतदात्मक
पुरुषाऽभिन्न ऐसा पुरुषाकार
नहीं प्रतीत होता है, किन्तु चित्रतदात्मक प्रतिमा से अभित्र पुरुषाकार का भान होता है। अतएव 'यह चित्र पुरुषाकारवाला है, न कि कर चरणादिवाला' इस प्रतीति का निर्वाह होता है। इसलिए चित्रादि में स्वात्मक पुरुषाग्राकार को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता, किन्तु पुरुषात्मक पुरुपाकार को, जिसका हम चित्र में स्वीकार नहीं करते हैं, ही अप्रामाणिक माना जा सकता है ऐसा दिगम्बरसम्प्रदाय है ।
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वस्तुतो. इति । वस्तुस्थिति का जब विचार किया जाय तब तो जैसे प्रदीपादि का सर्वप्रकाशकत्व स्वभाव है, ठीक वैसे ही ज्ञान का सर्वविषयकत्व स्वभाव ही है। प्रदीप का ऐसा स्वभाव नहीं है कि वह घट का प्रकाशक हो और पट का प्रकाशक न हो। इसी तरह ज्ञान भी स्वभावतः सर्ववस्तुविषयक होता है। ज्ञान के सर्वविषयप्रकाशकत्व स्वभाव को ज्ञेयाकार शब्द से वाच्य माना जाय तो भी कोई क्षति नहीं है । अतः ज्ञानावरणक्षय से अनीतादिसर्वार्थगोचर ज्ञान की कल्पना करने में कोई दोष नहीं है ऐसा भी विद्वानों का मन्तव्य है ।
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४५९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * गुडशुण्ठीन्यायप्रदर्शनम्
ॐ नमः परमानन्दकलाकलितकेलये । श्रीशस्वेश्वरपार्श्वाय मत्प्रत्यूहनिवारिणे ॥9॥ पूर्वसूत्रितावष्टम्भाय दृष्टान्तमाहुः 'गुझे हो'ति ।
* जयलता
ज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं तर तमशब्दवाच्यत्वात् परिमाणतारतम्यवत् | ३ |, सर्वे पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् घटवत् |४|, अस्ति सर्वार्थसाक्षात्कारी अनुपदेशाऽलिङ्गाऽविसम्वादिविशिष्टदिग्देशकालप्रमाणाद्यात्मकचन्द्रादिग्रहणाद्युपदेशदायित्वात् ॥५॥ ज्ञानं क्वचिदात्मनि प्रकर्षवत् स्वावरणान्युत्कर्षे सति प्रकाशकत्वात् ॥६। समस्ति समस्तवस्तु विस्तारगोचरं विशदं प्रत्यक्षदर्शनं, तगोचरानुमानप्रवृत्तेः ॥ -- इत्यादि ब्याचक्षते ।
'अर्धा हि न विज्ञाने स्वाकारमर्पयन्ति किन्तु ज्ञानमेवार्थग्राहकत्वेन परिणमति । तत्परिणामश्व वस्तुनोऽनेकस्वभावात्, अन्यथाऽर्थपरिच्छेदानुपपत्तेः । न चातीताद्यर्थग्रहणप्रसङ्गः तेषामसत्त्वादिति वाच्यम्, सर्वथा सत्त्वाऽनभ्युपगमात्. सतः सर्वथाऽसत्त्वाप्राप्तेरसतश्चोत्पादानापत्तेः तदा तेषां वर्तमानत्वमेव । वर्तमाना एव हि भावाः तथापरिणामेनाऽतीतादिव्यपदेशभाजो भवन्ति, अन्यथा वर्तमानस्याऽप्यनुपपत्तिरिति भूत-भवद्-भविष्यत्सकलपदार्थविस्तारबोधकः सर्वज्ञोऽपि सुव्यव स्थित' - इत्यपि प्राहुः ।
ज्ञानावृतिक्षयप्राप्तके वलालोकशालिने । नमोऽस्तु सततं तस्मै, कारुण्यके लिशालिने || १ || वक्ष्यमाणग्रन्थभूमिकामारचयति पूर्वसूत्रिताऽवष्टम्भायेति । यदा तु नित्याऽनित्यत्वरूपते' त्यादिपूर्वकारिको क्तार्थदाय, दृष्टान्तमाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरय इति शेषः । निगदसिद्धोऽयं कण्ठ्योऽयमित्यर्थः । तथापि लेशतो व्याख्यायते यथैकाकी गुडः कफस्य = = कारणं स्यात्, हिरवधारणे, नागरं केवलं पित्तस्य कारणं निमित्तं स्यात् द्वयात्मनि द्वयोरेकीकरणन कृते गुडनागरभेषजे = गुडिकाविशेषे न दोषः अस्ति, प्रत्युत पुष्ट्यादिगुणः स्यात् । तदुक्तं भावप्रकाशे 'उन्मीलनी बुद्धिबलेन्द्रियाणां निर्मूलनी पित्तकफानिलानां (भा.प्र.प्र. खंड ) इति ।
क्षेमणो हेतु:
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-
=
एतत्कारिकाव्याख्यानं स्याद्वादकल्पलतायाञ्चैवम् -> 'अथोक्तदोषनिवृत्तिर्न जात्यन्तरनिमित्ता किन्तु मिथोमाधुर्य-कटुकल्वोत्कर्ष हानिप्रयुक्तेति चेत् १ न द्वयोरेकतरबलवत्त्वे एवाऽन्याऽपकर्षसम्भवात् तन्मन्दतायामपि मन्दपित्तादिदोषापत्तेश्व । एतेनेतरेतरप्रवेशादेकतरगुणपरित्यागोऽपि निरस्तः, अन्यतरदोषापत्तेः अनुभवाधाव | अथ मिलितगुशुण्डीक्षादेन नैकं द्रव्यमारभ्यते, विजातीयानां द्रव्यानारम्भकत्वात्, गुडत्व - शुण्ठीत्वसङ्करप्रसङ्गात् किन्तु कारणविशेषोपनीतरसविशेषवद् गुडशुण्ठीश्रोदसमाजादेव धातुसाम्याद् गुणदोषनिवृत्ती इति चेत् ? समुदितगुडशुण्ठीद्रव्यस्याप्येकपरिणतिभत एवोपलम्भात्, धातुसाम्ये रसविशेषवद् द्रव्यविशेषस्याऽपि प्रयोजकत्वात् द्रव्यादिवैचित्र्यादाहारपर्याप्तिवैचित्र्योपपत्तेः, अनेकान्ते साङ्कर्याऽसम्भवात्, | नृसिंहवदुपपतेः । अथ समुदितगुडशुण्ठीद्रव्यं प्रत्येकगुडशुण्ठीभ्यां विभिन्नमेकस्वभावमेव द्रव्यान्तरं न तु मिथोऽभिव्याप्यावस्थितो भयस्वभावं जात्यन्तरमिति चेत् ? न तस्य द्रव्यान्तरत्वे विलक्षणमाधुर्यकटुकत्वाऽननुभवप्रसङ्गात् एकस्वभावले दोषद्रयापदामा हेतुत्वप्रसङ्गात् उभयजननैकस्वभावस्य चानेकत्वगर्भत्वेन सर्वकत्वायोगात् एकया शक्त्योभयकार्यजननेऽतिप्रसङ्गात् विभिन्नस्वभावानुभवाच्च । तस्माद् माधुर्य-कटुकत्वयोः परस्परानुवेधनिमित्तमे वो भयदो षनिवर्तकत्वमादरणीयम् ।
ननु जात्यन्तरत्वेऽपि प्रत्येकदोपनिवृत्तिरिति न नियमः, पृथकृस्निग्धोष्णयोः पित्तकफकारित्ववत् समुदितस्निग्धोष्णस्याऽपि भाषस्य तथात्वादिति चेत् ? न, माषे स्निग्धोष्णत्वयोर्जात्यन्तरात्मकत्वाऽभावात्, अन्योन्यानुवेधेन स्वभावान्तरभावनिबन्धनस्यैव तत्त्वात् । अत्र च स्निग्धोष्णत्वयोः गुआफले रक्तत्व- कृष्णत्वयोरिव खण्डशो व्याप्त्याऽवस्थानात् जात्यन्तरात्मकस्निग्धोष्णत्वशालिनि
ॐ नम, इति । इस तरह सर्वज्ञसिद्धिपर्यन्त निरूपण कर के पचम कारिका की व्याख्या व्याख्याकार ने पूर्ण की है 1 यहाँ मध्यमंगल करते हुए प्रकरणकार श्रीमद्जी कहते हैं कि मेरे विघ्नों का निवारण करने वाले और परमानन्द की कला से युक्त क्रीडा वाले श्रीशंखेश्वर पावनार्थ भगवंत को नमस्कार हो ।
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* गुडशुण्ठीन्यायप्रदर्शन - श्लोक & **
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पूर्व इति । वीतरागस्तोत्रकार श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वर महाराजा ने अष्टम प्रकाश की पाँचवी कारिका में जो कहा था कि- ' वस्तु नित्यानित्य हो तब कोई दोष नहीं है...' इत्यादि, उसका समर्थन करने के लिए ६ठ्ठी कारिका में उसके अनुरूप | दृष्टान्त को वे ही बताते हैं 'गुडो हि... ' इत्यादि कह कर । कारिका का अर्थ यह है कि अकेला गुड कफ का कारण होता
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* स्यावादकल्पलता-नयरहस्प-धर्मसङ्ग्रहणीवृत्त्यादिसंवादः * गुडो हि कफहेतुः स्यात्, नागरं पित्तकारणम् । ब्दयात्मजि न दोषोऽस्ति, मुडनागरभेषजे ॥६॥
= =ॐ जयलता = च दाडिमे श्लेष्मपित्तोभयदोषाऽकारित्वमिष्टमेव, “स्निग्धोष्णं हृद्यं, श्लेष्मपित्तविरोधि च' इति वैद्यकवचनादिति ।
इदमिह तत्त्वम् । तद्भेदस्य तदेकत्वाऽभावादिनियतत्वेऽपि जात्यन्तरानात्मकस्यैव विलक्षणस्य तस्य तधात्वात्, विलक्षणगुडत्वस्य कफकारितानियतत्वात्र दोषः । एतेन मया भेदसामान्ये तनियमः कल्पनीयः त्वया तु जात्यन्तराऽनात्मके तत्रेति गौरवमिति निरस्तम्, प्रातिस्विकरूपेणैव तनियमोपपत्तेरिति दिगिति - (स्या.क.ल.स्त.७, श्लो.४८) बर्त्तते इति ध्येयम् ।
तदक्तं नयरहस्येऽपि -> 'एकैकपक्षोक्तदोषापतिस्तु जात्यन्तरत्वाऽभ्युपगमान्निरसनीया । दष्टा हि वैकल्यपरिहारेण तत्प्रयुक्तायाः परस्पराऽनुवेधेन जात्यन्तरमापनस्य गुडशुण्ठीद्रव्यस्य कफपित्तदोषकारिताया निवृत्तिः । 'नेयं जात्यन्तरनिमित्ता किन्तु मिधा माधुर्यकटुकत्वोत्कर्षहानिनयुक्ते'ति चेत् ? न, योरेकतरबलवत्त्व एवाऽन्याऽपकर्षसम्भवात्, तन्मन्दतायामपि मन्दपित्तादिदोषापत्तेश्च । एतेन इतरेतरप्रवेशादेकतरगुणपरित्यागीऽपि निरस्तः; अन्यतरदोषापत्तेः, अनुभवबाधाच्च । अथ समुदितगुडशुण्ठीद्रव्यं प्रत्येकगुडशुण्ठीभ्यां विभित्रमेकस्वभावमेव द्रव्यान्तरं न तु मिथोऽभिव्याप्याऽवस्थितोभयस्वभावं जात्यन्तरमिति | चेत् ? न, तस्य द्रव्यान्तरत्वे विलक्षणमाधुर्यकटुकत्वाननुभवप्रसङ्गात्, एकस्वभावत्वे दोषद्वयोपशमाऽहेतुत्वप्रसङ्गात् । उभयजननकस्वभावस्य चाऽनेकत्वगर्भत्वेन सर्वथैकत्वाऽयोगात्, एकया शक्त्योभयकार्यजननेऽतिप्रसङ्गात्, विभिन्मस्वभावानुभवाच्च । तस्मान्माधुर्य-कटुकत्वयोः परस्परानुवेधनिमित्तमेवोभयदोषनिवर्तकत्वमित्यादरणीयम् ।
___ ननु जात्यन्तरत्वेऽपि प्रत्येकदोषनिवृत्तिरिति नैकान्तः, पृथक् स्निग्धोष्णयोः कफपित्तविकारित्ववत् समुदितस्निग्धोष्णस्यापि माषस्य तथात्वादिति चेत् ? न, माषे स्निग्धोष्णत्वयोः जात्यन्तरात्मकत्वाऽभावात, अन्योन्यानुवेधेन स्वभावान्तरभावनिबन्धनस्यैव तत्त्वात् । अत्र च स्निग्धोष्णल्वयोर्गुआफले रक्तत्वकृष्णत्वयोरिव खण्डशो व्याप्त्याऽवस्थानात्, जात्यन्तरात्मकस्निग्धोष्णत्वशालिनि च दाडिमे शेष्मपित्तोभयदोषाकारित्वमिष्टमेव, 'स्निग्धोष्णं दाडिमें रम्यं, श्लेष्मपित्तविरोधि चेति वचनादिति सम्प्रदायः । यद्यपि जात्यन्तरत्वं न प्रत्येककार्याकारित्वेन नियतं भेदाभेदेन भेदाभेदत्र्यवहारात् तथापि विभिन्नधर्मयोरभिव्याप्य समावेश एवोक्तनिदर्शनम्' - (न.२. पृ.२९) इत्यादिकम् ।
तदुक्तं धर्मसङ्ग्रहणीवृत्ती --> "न गुडगुण्ठ्योर्माधुर्यं कुटुकल्वाननुविद्धं कटुकत्वं वा माधुर्यादेकान्ततः पृथग्भूतं । नाप्यनयोरेकरूपता किन्वितरेतरानवेधतो जात्यन्तरमिदम । अतः तदपभोगात कफादिदोषाभावः, अन्यथा केवलगुडगुण्ठ्यपभोगादिवतदुभयोपभोगादपि कफ-पित्तलक्षणदोषद्वयप्रवृद्धिः प्रसज्येत, स्वस्वभावानपगमात् । स्यादेतत् -> नैवेदं जात्यन्तरं, किं तर्हि ? माधुर्येण कुटुकल्वोत्कर्षहानिराधीयते कटुकत्वेन च माधुर्योत्कर्षहानिः । अतस्तत्र पित्तादिदोषाभाव इति ५तदप्ययुक्तम, उभयोर्मन्दतापत्तायपि तदुपभोगान्मन्दपित्तादिदोषसम्भवापने: । एतेन-इतरेतरप्रवेशतोऽन्यतरेकमाधुर्याद्यभ्युपगमोऽपि निरस्तो द्रष्टव्यः, तत्राप्येकतरदोषापत्तेः । अनुभवबाधा चैवं प्रसज्यते, यतोऽनुभूयते तत्राऽविगानेन माधुर्यं कटुत्वञ्चेति ।
अथोच्यते - प्रत्येकं गुडशुण्ठिभ्यामन्यैव एकरूपा जाति: गुशुण्ठिः कफपित्तलक्षणदोषद्वयोपशमनस्वभावा जन्यते । ततो | नेदमु भयात्मकं जात्यन्तरमिति । तदक्तं - 'तन्मूलमन्यदेवेदं गुडनागरसंज्ञितमिति' - तदप्यश्लीलम्, एकान्तकस्वभावायास्तस्याः कफ-पित्तलक्षणदोषद्वयोपशमकारित्वाऽयोगात । सा हि गडशष्ठिरेकतरस्मिन कफोपशमे पित्नोपशमे वा कात्स्न्येनोपयुक्ता सती कथमन्यत्रोपयुज्येत ? स्वभावान्तराभावात् । अथ इत्यम्भूत एव तस्या एकः स्वभावो येनोभयमुपशमयति तेनाऽयमदोष इति चेत् ? न, इत्थं चित्रतागर्भस्य स्वस्वभावस्य सर्वथैकत्वायोगात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गतो वस्तुव्यवस्थाविलोपप्रसङ्गात् । अतस्तत्र स्वभावनानात्वमवश्यमुररीकर्तव्यम् । तच्चानुभूयमानमा भुर्यकटुकत्वगुणेतरेतरानुवेधनिमित्तम्, अन्यथा माधुर्यकटुकत्वयोः स्वस्वभावानपगमेन स्वस्वकफादिदोषकारितापत्तेः' - (गा.३४१-पृ.२०७/८) इत्यादिकम् ।
___ तदुक्तं चन्द्रसेनसूरिभिरप्युत्पादादिसिद्धिप्रकरणे -> 'गुडनागरे गुडमाधुर्यशक्ति गरतीव्रताशक्त्या प्रतिहन्यते, नागरतीव्रताशक्तिश्वेतश्या । ततः प्रत्येकारिणतद्रव्यद्वयापेक्षया तदन्योन्यानुरन्धे गुडनागरसज्ञितं जात्यन्तरं तदुपतिष्ठते । जात्यन्तरात्मकत्वे च तस्य नज्जन्मा दोषो न भवति । भाषे तु स्निग्धशक्ति!ष्णशक्त्या प्रतिहन्यते, शीतशक्त्यैव विरोधोपलम्भादुष्ण
है और अकेली शुंठी भी पित्त को उत्पन्न करती है, मगर गुड-शुण्ठी के मिश्रण से बना हुआ औषय, जो उभयात्मक है, न तो कफ को उत्पन्न करता है और न तो पिन को, रल्कि दोनों दोष का निराकरण कर के बल, आरोग्य आदि का
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४६१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.६ * स्याद्रादं प्रत्यकान्तवाद्याक्षेपाः * निगदसिन्दोऽयं श्लोक: ।। (श्लो. ६ संपूर्ण:)
=--...... जयललताशक्तेः । एवं स्निग्धशक्त्याऽपि नोष्णशक्तिः प्रतिहन्तं शक्या । ततो पदि माष: स्निग्धोष्ण: कफपित्तकृत् स्यात् तदा किमनिष्टमापादितमस्माकम् ? यतः स्वभावभेदनिबन्धनमेतज्जात्यन्तरत्वं, न चात्र स्वभावभेद इति । 'शक्त्यपेक्षञ्च तत्कार्यमि'तीच्छता माषस्य कफपित्तकृत्त्वमुपलभ्य चित्रयोगिशक्तियोगित्वं स्वयमेव देवानाम्पियेणाऽभ्युपगतं भवतीति किमस्माकमेवमप्यनिष्टमजनि ? किञ्च, 'कुटुकाकटुक: पाके, वीhष्णश्चित्रको मतः । तदन्तीप्रभावात्तु विरेचयति सा नरम्' ।। तथा 'कषायमधुरं शाहि हात लघुदीपाम् : नियोग बाहिर हृद्यं, श्लेष्मपित्ताऽबिरोधि च ।। किश्चिदम्लं तु सङ्ग्राहि, किश्चिदम्लं भिनत्ति च । यथा कपित्य सङ्ग्राहि, भेदि चामलकं तधा || मूबोन्मिश्रा यन्त्रितात्मा हरिद्रा, सात्मीकुर्वन् हन्ति माषेन कुष्ठम् । तद्वत्पेयश्चित्रकः श्लक्ष्णपिष्टः, पिप्पल्येव पूर्ववन्मूत्रयुक्ता || इत्याद्यभिधीयते विद्वद्भिः । तथा च द्रव्यशक्तिवैचित्र्यं दृष्टमपलपितुमशक्यमेव" (उ.सि. पृ.१६५) इत्यादिकमिति भावनीयं सुधीभिः ।
षष्ठकारिकावतरणिकामवतारयति -> अथेति । विरोधशङ्कामिति । विरोधशङ्कानिरूपणं श्रीप्रभानन्दसूरिकृतविवरण चैवम - 'ननु नित्यानित्य-भेदाभेद-सत्त्वासत्त्व-सामान्यविशेषात्मकाभिलाप्यानभिलाप्यात्मके तत्त्वे मन्यमाने दुर्धर विरोधगन्धविधुरता धुरन्धरतां धारयति । तथाहि, . यदि भेदः तीभेदः कथं ? अभेदश्चेत्तर्हि भेदः कथं स्यादिति विरोध: श तथा यदि भेदस्याधिकरणं तभदस्य न भवेत्, अधाऽभेदस्य तर्हि भेदस्य न स्याच्छीतोष्णस्पर्शवत । न हि यदेव धूप-दहनादिकं शीतं
मपलभ्यते. तथाप्रतीतेरमावादिति वैयधिकरण्यम २। यथा येन रूपेण भेदस्तेनाभेदोऽपि. येनाभेदस्तेन भेदोऽपि स्यात इति व्यतिकरः, 'परस्परविषयगमनं व्यतिकर' इतिवचनात् ३। तथा येन रूपेण भेदस्तेन भेदोऽभेदोऽपि, येन चाइभेदस्तेनाऽभेदो भेदो पीति सड़करः 'सर्वेषां युगपग्राप्तिः सङ्कर' इतिवचनात् । तथा येन रूपेण भेदस्तेन भेदाभेदः, येन चाइभेदस्तेनापि भेदाभेदोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा सर्वमनेकान्तात्मकमित्यस्य विरोधानुषड्गात् । तथा च भेदाभेदावपि प्रत्येक भेदाभेदात्मको स्याताम् । तत्रापि प्रत्येक भेदाभेदात्मकत्वारिकल्पनायामनवस्था स्यात् । तथा केन रूपेण भेद: केन चाsभेद: ! इति संशय: (भेदाभेदात्मकत्वे वस्तुनो भेदात्मकमिदं भेदात्मक वा ? इति निर्णयाभावात् संशय:) ६) तथा भेदरूपमभेदरूपं वा दृष्टं वस्तु नाइभ्युपगम्यते, अदृष्टश्च भेदाभेदात्मकं परिकल्प्यत इति दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च स्यात् ७-८। तथा च परपरिकल्पितस्य वस्तुनो भाव एवं युक्तः । कि, कि नानावस्तुधर्मापेक्षया सर्वमनेकान्तात्मकं उत तन्निरपेक्षतया प्रत्येक सर्व वस्त्विति ? प्रथमपने सिद्धसाध्यता, द्वितीयपक्षेऽपि विरोधादिर्दोष: ५। किञ्च, किं क्रमेण सर्वमनेकान्तात्मकमभ्युपगम्यते योगपद्येन या ! प्रथमरक्षे सिद्धसाध्यता, द्वितीयपक्षे तु स एच दोष इति १०। किञ्च, अनेकधर्मान् वस्तु किमेकेन स्वभावेन मानास्वभावळ व्याप्नुयादिति ? योकेन तदा तेषामेकत्वं वस्तुनो वा नानात्वं स्यात्, एकस्यैकत्र(१)प्रबेशादिति । अथ नानास्यभावस्तर्हि तानपि नानास्वभावान् किमेकेन स्वभावेन व्याप्नुयात् नानास्वभावैर्चा ? । यद्येकेन तदा सर्वधर्माणामेकत्वं वस्तुनो वा नानात्वं स्यात् । अथ नानास्वभावस्तर्हि तानपि किमेकेन स्वभावेन नानास्वभावैर्वा च्याप्नुयादित्यादि सर्वं वक्तव्यं, अनवस्था च ११। किश्च यदि सर्व वस्त्वनेकान्तात्मकमभ्युपगम्यते, तर्हि जलादेरयनलादिरूपता, अनलादेर्वा जलादिरूपता भवेत् । तथा च जलाद्यर्थिनो जलादावनलाद्यनिश्चानलादी प्रवृनिर्न स्यात्, अन्योन्यविरुद्धधर्मस्यापि सद्भावात् । को हि नाम विवक्षितार्थे विवक्षितार्थक्रियाकारिरूपमिवाऽविवक्षितार्थक्रियाकारिरूपमुपलभमानो विवक्षितार्थक्रियार्थी तत्र प्रवर्नेत प्रेक्षापूर्वकारी ? न चैवम् । विवक्षितार्थे विवक्षितार्धक्रियाकारिण्येव विवक्षितार्थ क्रियार्थिनः प्रवृत्तिदर्शनात् १२। किञ्च प्रमाणमष्यप्रमाणं अप्रमाण प्रमाणं वा भवेत् । तथा च सर्वजनप्रसिद्धप्रमाणाऽप्रमाणव्यवहारबिलोपो भवेत् १३। शिश्च सर्वज्ञोऽप्यसर्वज्ञः स्यात् १४३ किञ्च सिद्भस्याप्यसिद्धत्वं स्यात् १५। किञ्च येन प्रमाणेन सर्वस्याउनेकान्तरूपता प्रसाध्यते, तस्य कुतो नैकान्तरूपतासिद्धिः ? यदि स्वतः, तर्हि सर्वस्यापि तथा भविष्यति, किं प्रमाणपरिकल्पनया ? अथ परतस्नीनवस्था १६। किञ्चानेकान्तबाधकं प्रमाणमस्ति । तथाहि - भेदाभेदादिको धर्मों नेकाधिकरणो परस्परविरुद्धधर्मत्वात, शीतोष्णस्पर्शवदिति । तस्मादेकान्तरूपमेव वरिवति स्थितम्' - (दी.स्तो.वि. पृ.७५/७७)
जनक होता है। ठीक वैसे ही पदार्थ को केवल नित्य या केवल अनित्य मानने पर जो अर्थक्रियाकारित्वाऽसम्भव आदि दोष प्रसक्त होते हैं, वे वस्तु को नित्यानित्योभयात्मक मानने पर प्रसक्त नहीं होते हैं। इस तरह अनेकान्तवाद का समर्थन मुड शुण्ठीउभयात्मक औषधविदोप आदि लोकप्रसिद्ध उदाहरण से भी किया जा सकता है। यद्यपि प्रकरणकार श्रीमद्जी ने इस कारिका
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*एकान्तवादिकृताक्षेपापाकरणं प्रभानन्दसूरिवचनैः * अथ नित्यानित्यत्व-भेदाभेद-सत्त्वाऽसत्व-सामान्यविशेषात्मकत्वा-मिलाप्यानलि- | लाप्यत्वादिधर्माणां स्वयं विरोधाशकामुदिधीर्षवोऽभिदधति -> व्दयमिति ।
-=-=-=-=* जयलता * ___ तादृशानुसन्धानविकलानामुपकाराय अत्र प्रकरणकारीयल्याख्यानिरूपणपूर्वं श्रीप्रभानन्दसूरिस्कृतविवरणस्थसमाधानवचनैरेवानन्तरोपदर्शितदोषनिराकरण क्रियतेऽधुना । तदुक्तं तैरतत्र -> 'एकस्मिन् पृथ्वी-पृथ्वीधरादौ वस्तुनि नित्यानित्यात्मकरूपं द्वयं न विरुद्धम् । न च विरोधोपलक्षितवैयधिकरण्यादिदोषकलुषम् । कथमिति चेदित्यत आह - असत्यमाणप्रसिद्धेः । किमपि न तत्प्रमाणं प्रामाणिकम्मन्यैः प्रमाणीक्रियते, येन विरोधादीनां सिद्भिः साध्यते । तथाहि यत्तावदुक्तम् 'विरोधो बाधक: स्यादि' ति, तदयुक्तम्, पर्यायरूपतया भेदोऽभ्युपगम्यते, द्रव्यरूपतया चाऽभेदः । तयोश्चैकत्र रूपरसयोरिव सत्त्वाइसत्त्वयोरिव वाऽविरोधसिद्धेः । प्रतीयमानयोश्च कथं विरोधो नाम । स ह्यनुपलम्भसाध्यः यथा वन्ध्यागर्ने स्तनन्धयस्य । ननु सत्त्वासत्त्वयोरिवेति दृष्टान्तोऽप्यसिद्ध इति चेत् ? तन्न, स्वद्रत्र्यक्षेत्रकालभावापेक्षया सत्त्वरूपस्य, परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया चा:सत्त्वस्यैकस्मिन् क्षणे सर्वस्य पदार्थस्य प्रत्यक्षादिबुद्धी प्रतिभासनात् । न खलु पदार्थस्य सर्वथा सत्त्वमेव स्वरूपम्, स्वरूपेणेव पररूपेणाऽपि सत्त्वप्रसगात् । नाप्यसत्त्वमेव, पररूपेणेव स्वरूपेणाऽप्यसत्त्वप्रसगात् । न च स्वरूपेण सत्वमेव पररूपेणाऽसत्त्वम्, पररूपेण वाऽसत्त्वमेव स्वरूपेण सत्त्वम्, तदपेक्ष्यमाणनिमितभेदात् । स्वद्रव्यादिकं हि निमिनमपेक्ष्य सत्त्वप्रत्ययं जनयति पदार्थः, परद्रव्यादिकं त्वपेक्ष्याऽसत्त्वप्रत्ययम इत्येकत्वद्वित्वादिसडल्यावदेकस्मिन्पदार्थे सत्चासत्त्वयोर्भेदः । न चैकस्मिन वस्तुनि वस्त्वन्तरमपेक्ष्य द्वित्वादिसङ्ख्या प्रकाशमाना स्वात्ममात्रा प्रेक्षकत्वसङ्ख्यातो नान्या प्रतीयते । नापि सा स्वरूपात् तत्त्वतो भिन्नैव, अस्याऽसङ्ख्येयत्वप्रसङ्गात् । सङ्ख्यासमवायात्तत्त्वमित्यप्ययुक्तम्, कथश्चित्तादात्म्यन्यतिरेकेण समवायस्याऽसम्भवात् । तस्मात् सिद्धो पेक्षणीयभेदात्सयावत् सत्त्वाऽसत्त्वयोर्भेदः । तथाभूतयोश्चाऽनयोरेकस्मिन् पदार्थे प्रतीयमानत्वात् कथं विरोधः ? यतो दृष्टान्तो न स्यात् । 'भ्रान्तेयं प्रतीतिरि'त्यपि मिथ्या, राधकस्याऽविद्यमानत्वात् । 'विरोध बाधक इत्यग्यसत्यम, इतरेतराश्रयानषङगात. सति हि विरोधे तेनाऽस्या बाध्यमानवाद भ्रान्तत्वम. ततश्च तद्विरोधसिद्धिरिति । विरोधश्चाऽविकलकारणस्यैकस्य भवतो द्वितीयसविधानेऽसत्त्वान्निश्चीयते, यथोष्णसन्निधाने शीतस्य । न च पर्यायरूपेण भेदस्य सन्निधाने द्रव्यरूपेणाऽभेदस्याभाव उपलभ्यते ।।
किचाउनयोर्विरोध: किं सहानवस्थानस्वभावः परस्परपरिहारस्थितिस्वभावा वध्यघातकस्वभावी वा ? तत्र न तावत्सहानवस्थानस्वभावो घटते, मृद्रव्यलक्षणे पदार्थे मृद्रव्यरूपतयाऽभेदस्य घटादिपर्यायरूपतया च भेदस्याऽध्यक्षबुद्धौ प्रतीयमानत्वात् । न च तथाप्रतीयमानयोरप्येकन तयोर्विरोधो युक्तः, रूपरसयोरपि तत्प्रसङ्गात् । परस्परपरिहारस्थितिस्वभावो विरोधो घटादी भेदाभेदयोः सत्त्वासञ्चयोर्वा रूपरसयोरिव सतोरेव नाऽसतो पि सदसतो: सम्भवति । वध्यघातकस्वभावोऽपि विरोधोऽहिनकुलयोरिव बलवदबलवतोः । न च भेदाभेदयोः सत्त्वाऽसत्त्वयोर्वा बलवदनलबद्भावो दृश्यते । न हि यथा नकुलेन बल-वता सर्वस्य विघात: क्रियमाणो दृश्यते तथा भेदेनाऽभेदस्याऽभेदेन च भेदस्य विघातो दृश्यते, तथाप्रतीतेरभावात् ।
भवतु वा कश्चिद्विरोध इति, तथाप्यसी सर्वथा कथञ्चिद्वा स्यात् ? न तावत् प्रथमपक्षो घटते शीतोष्णस्पर्शयोरपि प्रमेयत्वादिना विरोधाऽसिद्धेः । एकाधारत्वेन चैकस्मिन्नपि हि धूपदहनादिभाजने क्वचित् प्रदेशे शीतस्पर्शः क्वचिच्चोष्णस्पर्श प्रतीयत एव । अथाऽनयोः प्रदेशयोर्भेद एवेष्यते । भवतु नामानयोर्भेदः, धूपदहनाद्यवयविनस्तु न भेदः । न चाऽस्य शीतोष्णकी व्याख्या नहीं की है, क्योंकि यह कारिका अत्यन्त सरल है, संस्कृतभाषा के अभ्यासी को पढ़ने से ही इसका अर्थमोध हो सकता है, नथापि पाठकवर्ग की सुगमता के लिए हमने यहाँ संक्षेप में उक्त कारिका का लेशतः निरूपण किया है ।।६।।
सात लोक की व्यासया 8 मिलित गुड - शुण्ठी के दृष्टान्त से एक ही धर्मी को नित्यानित्य, भिन्नाभिन्न, सत्-असत्, अभिलाप्य-अनभिलाप्य माना जा सकता है। मगर यहाँ इस विरोधदोपविषयक शंका का कि -> "नित्यत्व और अनित्यत्व, भेद और अभेद, सत्त्व और असत्त्व, सामान्य और विशेष, अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व ये धर्म परस्पर विरोधी हैं। अतः जहाँ नित्यत्व हो उसमें अनित्यत्व, जिसमें अनित्यत्व हो वहाँ नित्यत्व, यत्र सत्त्व हो तत्र असत्त्व, जहाँ असत्त्व हो वहाँ ही सत्त्व आदि कैसे मुमकिन होगा ? परस्पर विरोधी होने से उनका एकत्र समावेश ही नहीं हो सकता है, तब वस्तुमात्र को नित्यानित्योभयात्मक, सदसटुभयात्मक
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४६३ मध्यमरयाद्वादरहस्ये खण्टः २ - का.* अनेकान्तवादे भेदाभेदादिविरोधादिनिराकरणम
ब्दयं विरुद्ध काऽसत्प्रमाणप्रसिद्धितः ।
विरूदवर्णयोगो हि दृष्टो मेचकतस्तुषु | ---.. .. .. :: : ----- -* जयलता *----- स्पधिारता नास्तीति वक्तुं युक्तम्। अध्यक्षविरोधात् । तस्मात्र सर्वधा भावानां विरोधी पटते । कथञ्चिद्विरोधस्तु सर्वभावेषु तुल्यो न बाधकः ।
यञ्चोक्तम् -> 'वैयधिकरण्यं स्यादिति' - तदप्यसत्यम्, निर्बाधं प्रत्यक्षबुद्धी भेदाभेदयोरेकाधिकरणत्वेन प्रतिभासनात् । न खलु तथाप्रतीयमानयोयधिकरण्यम्, रूपस्सयोरपि तासङ्गात् । उभयदोषोऽपि न घटते, प्रतीयमाने कथमुभयदोषो नाम ? नानादोषोऽपि न स्यात् । यथैव हि घटादो भेदोऽनुभूयते तथाऽभेदोऽपीति कथं नानात्वदोषः ? अत एव सङ्करन्यतिकरावर्षि न स्त: 1 भेदाभेदयोरेकस्मिन् पदार्थ स्वरूपेण प्रतीयमानत्वात् । पञ्चाक्तम् - 'अनवस्था स्यात्' तदप्यनुपपन्नम्, वस्तुन एवं भेदाभेदात्मकत्वाऽभ्युपगमात्, न पुनर्भेदाभेदयोर्धर्मयोः । पदार्थस्य तु भेदो धर्म एवाऽभेदस्तु धर्येवेति कथमनवस्था ? न चैकान्ताभ्युपगमो दोषाय, सम्यग्नयबिषयस्य भेदाभेदस्य च स्याद्वादिभिरभ्युपगतत्त्वात् । संशयोऽपि न युक्तः, भेदाभेदयो: स्वरूपेण प्रतीयमानत्वात्, एकस्मिन् भेदाभेदाऽप्रतीतो हि संशयो युक्तः, क्वचित् प्रदेशे स्थाणुपुरुषत्वाऽप्रतीतौ तत्संशयवत् । चलिता च प्रतीतिः संशयः । न चेयं चलिता । तथा दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च न स्यात्, भेदाभेदात्मकस्य वस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रमाणबुद्धौ प्रतीयमानत्वात् । तत एवाभावोऽपि न युक्तः ।
यच्चोक्तं --> नानावस्तुधर्माऽपेक्षया' - इत्यादि, तदसत्यम्, न खलु नानावस्तुधर्मापेक्षयकस्याऽनेकान्तात्मकत्वमङ्गीक्रियते, येन सिद्धसाधनं स्यात, अपि त्वेकस्यैव वस्तुनः स्वधर्मापेक्षया । न च तत्र विरोधादिदोषानुषङ्गः, तस्य प्रागेव निराकृतत्वात् । यच्चोक्तम् - 'क्रमेणे'त्यादि न तद्युक्तम्, क्रमेणाऽक्रमेण चाऽनेकान्तस्याऽभ्युपगतत्वात् । क्रमभाविधर्मापेक्षया हि क्रमेणाक्रमभाविधर्मापेक्षया चाऽक्रमेणेति । यहोक्तम्- 'अनेकधर्मान् वस्तु किमेकेन स्वभावेन व्याप्नुपान्नानास्वभावैः वा ? इत्यादि, तत्र नैकेन स्वभावेन नानास्वभावः वा भिन्नवस्तु भिन्नान् स्वभावान् स्वतो व्याप्नुयादिति जैनो मन्यते, किं तर्हि ? स्वस्वकारणकलापादनेकस्वभावात्मक मतमिति । पञ्चोक्तम् - जलादेरप्यनलादिरूपता स्यादित्यादि-तदपीष्टमेव प्रमाणस्य स्वरूपापेक्षया प्रमाणरूपतायाः पररूपापेक्षया चाप्रमाणरूपतायाः स्याद्वादिनामिष्टत्वात् । ततो न लोकप्रसिद्धप्रमाणाप्रमाणव्यवहारविलोप: स्यात्, उक्तन्यायेन प्रमाणाप्रमाणव्यवहारस्य लोके प्रमाणेऽपि सुप्रसिद्धत्वादिति ।
___यबोक्तं -> 'सिद्धोऽप्यसिद्धः स्यादि'त्यादि - तदपीष्टमेव । असर्वज्ञरूपेण सर्वज्ञस्याऽप्यसर्वज्ञताया अभ्युपगतत्वादिति, प्रकारान्तरेण तस्याऽसर्वज्ञता न सम्भवत्येव, प्रमाणाधनादिति । यच्चोक्तम् -> येन प्रमाणेन सर्वस्याऽनेकान्तरूपता प्रसाध्यते तस्य कुतोऽनेकान्तरूपतासिद्धिः स्यादित्यादि' - तत्रोन्यते, प्रमेयं हि द्विविधमचेतनं चेतनं च । तत्राऽचेतनं स्वपराध्यवसायविकलं न स्वस्यैकान्तरूपतामनेकान्तरूपताश्च परिच्छेत्तुमलम् । चेतनेन तत्राऽनेकान्तरूपता परिच्छिद्यते । चेतनं तु स्वस्या - ! प्यनेकान्तरूपतां परिच्छेदयितुं समर्थम् । न च तत्राऽपरं प्रमाणमपेक्ष्यते, येनाऽनवस्था स्यात् । तथा हि - चित्ररूपं वस्तु येन प्रत्यक्षेणानुमानेन वा परिच्छिद्यते तत् स्वरूपापेक्षयात्मनो भावं पररूपापेक्षया चाऽभावं परिच्छिनत्ति, अन्यथा यथावदसड़कीर्णस्वरूपस्य ग्राहकं न स्यात । न चैबम, व्यावृत्ताज्यावृत्तस्वरूपस्य प्रमाणस्य सिद्धरूपत्वादिति । यस्य तु कस्यचित् तत्रापि स्वदरागमाऽऽहितवासनावशादेकान्तसमारोपः, सोऽपि तस्य न्यायान्तरान्निराकर्तव्यः । तथाहि - धूमादिलिङ्गस्य यथा स्वसाध्यं प्रति गमकत्वम्, यथा साध्यान्तरं प्रत्यपि उतान्यथेति । यदि गमकत्वमेवाङ्गीक्रियते, तदा साध्यान्तरस्यापि तत एव सिद्भर्लिङ्गान्तरकल्पनावैफल्यं स्यात्, तत: सर्वस्याऽपि साध्यस्य सिद्धेरिति । उत्ताऽन्यथा तर्हि यथैकं लिङ्गं गमकत्वागमकत्वरूपेणाऽनेकान्तरूपम्, तथा सर्व वस्तु स्वपरकार्यकरणसामर्थ्यासामर्थेनाऽनेकान्तरूपमस्तु, विशेषाभावादिति ।
यदप्युक्तम् -> 'बाधकं प्रमाणमस्ति, भेदाभेदी नैकाधिकरणावि' त्यादि - तदप्यनुपपन्नम्, पक्षस्य प्रत्यक्षेण बाध्यमान
इत्यादि कैसे मानी जा सकती है ?" -निराकरण करने के लिए स्वयं मूलकार आचार्यदेवेश श्रीमद्जी 'द्वयं विरुद्धं...' इत्यादिरूप में ७वीं कारिका प्रदर्शित कर रहे हैं। कारिका का सामान्य अर्थ यह है कि नित्यत्व-अनित्यत्व आदि युगल धर्म परस्परविरुद्ध नहीं है, क्योंकि वे एक अधिकरण में रहते हैं। विरोधग्राहक प्रमाण प्रसिद्ध न होने से विरोध असिद्ध है, क्योंकि मेचक वस्तु = शबलवर्णवाली वस्तु में विरुद्ध वर्ण का योग प्रसिद्ध है ।
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* सप्तमश्लोकान्वयदिग्दर्शनम् * अत्र एका = एकस्मिन् वस्तुनि व्यं न विरुदमिति न व्याख्येयं, विरुदपदस्यैवैकाधिकरणाऽवृत्त्यर्थकत्वेन 'एका' इत्यस्य पुनरनन्वयाऽऽपत्ते:, विरुध्दे एकवृत्तित्वस्य बाधात्, अविरुदे तु तस्याऽविरुदत्वपर्यवसितस्याऽपि तेन रूपेणाऽसिषाधिषितत्वात्, अविरुदत्वप्रकारिकाया एव सिषाधयिषायाः सत्त्वात् ।
== . .= * जयलवा *----........ त्वातोश्च कालात्ययापदिष्टत्वात, अनुष्योऽग्निद्रव्यत्वाज्जलवदित्यादिवदिति । भेदाभेदयार काधिकरणयन
प्र तिभासनात् । न चाइनयोर्विरुद्धधर्मयोरपि सतो: कापि क्षतिरीक्ष्यते इति पर्यालोच्य स्तुतिकृदपि विरोधाभावमाह- '
दित्यादि । हिः = यस्मात् विरुद्भवर्णसम्बन्धो मेचकवस्तषु मिश्रवर्णपदार्थेषु दृष्टः, परं न नत्रैतद् दुषणकगघोषणान्यषणापि कर्तुं पार्यते । !! यदि तत्रापि वारिडेण्डेिमाडम्बरप्रचण्डपाण्डित्यपाटवनाट्यशील: प्रत्यक्षादिप्रमाणापपत्र कापि युक्ति: प्रस्मन्यत तदा वमप्यस्तु अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वात् जलवत् । अर्थतत्प्रत्यक्षबाधितपक्षानन्तरं निर्दिश्यमानत्वेन कालात्ययापदिष्टम् । आः ! परमबन्धा : पिब पीयूषयूषम्, वयमपि हस्तमुक्षिप्यवमेद वदामः - भेचकवस्तुवत्प्रत्यक्षोपपत्रेऽप्यनेकान्ते का कुयुक्तिनिरुक्तिप्रपञ्चचातुरी ? तस्माद् विरोधादिदृषणवारणगणाधर्षणीयः परां प्रौढरूढिं प्रपन्नोऽनेकान्तकेशरी' -(वी.स्तो.चि. पृ.७७/८१) इति तदीयव्याख्याप्रदर्शनमपि अनेन कृतं भवति ।
प्रकरणकृद् व्याख्यानयति - अत्रेति । प्रकृतकारिकायामिति । एकत्र = एकस्मिन् वस्तुनि द्वयं = नित्यत्वानित्यत्वादिद्वयं न विरुद्धं इति न व्याख्येयम् । कुतः ? इत्याह-विरुद्धपदस्यैव एकाधिकरणाऽवृत्यर्थकत्वेन - एकाधिकरणानिरूपितवृत्तित्वाभाववाचकत्वेन, 'एको' त्यस्य पदस्य अर्धस्य पुनः अनन्चयापत्तेः = कुत्राऽप्यन्वयासम्भवप्रसङ्गात् । 'विरुद्धपदार्थे एच तदन्चयोऽस्त्विति शङ्कायामाह - विरुद्ध = विरुद्धपदप्रतिपाद्ये एकाधिकरणनिरूपितवृतित्वशून्ये, ‘एको निपदार्थस्य एकवृत्तित्वस्य = एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वस्य बाधात् न तत्र तदन्वयः सम्भवति, अन्यथा 'अनलवान् अनलाभाववानि' त्यादावपि तथान्वयबोधप्रसङ्गात् ।
___ ननु न विरुद्धं = अविरुद्धम् । एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वशून्यभिन्ने अविरुद्धपदप्रतिपाद्ये 'एकत्रे तिपदार्थस्य एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वस्याऽविरुद्धत्वलक्षणस्य त्वन्चयो न बाधितः । तथा च न ‘एको'त्यभिधानार्थस्याऽनन्वयप्रसङ्ग इत्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह- अविरुद्धे = अविरुद्धपदार्थे तु तस्य = 'एकत्रे'तिपदार्थस्य, अविरुद्धत्वपर्यवसितस्य = एकाधिकरणनिष्ठाधारतानिरूपिताधेयत्वलक्षणाऽविरुद्धत्वपदार्थपर्यवसन्त्रस्य, अन्वययोग्यत्वे अपि तेन रूपेण = अविरुद्धपदार्थवृत्तित्वेन रूपेण, असिपाधयिपितत्वात् = साधयितुमनभिमतत्वात् । कुत इदमज्ञायि भवद्भिरित्याशङ्कायामाह् - अविरुद्धत्वप्रकारिकाया एव सिपाधयिपायाः सत्त्वादिति । इदमत्राऽभिसंहितम् - उद्देश्य-विधेयभावस्थले उद्देश्यतावच्छेदकधर्मविधेययोभिन्न- त्वमेव भवति, अन्यथा 'वहिमान वहिमानि' त्यादावप्युद्देश्यविधेयभावप्रसङ्गात् । सिषाधयिषायां प्रकारीभूतस्यैव विधयत्वनियमात प्रकते अविरुद्धत्वस्यैव बिधेयत्वमिति नाविरुद्धस्योद्देश्यत्वं भवितुमर्हति, उद्देश्यतावच्छेदकस्यैव विधेयत्वाऽऽपातात् । न चैवं भवति विधेयस्योद्देश्ये सिषाधयियितत्वेनोद्देश्यतावच्छेदकस्यापि तदभिन्नस्याऽसिद्धत्वप्रसङ्गात् । न ह्यप्रसिद्धमुद्दिश्य किञ्चिद् विधीयते प्रतिषिध्यते दा, बन्ध्यापुत्रमुद्दिश्य श्यामत्वादेरपि विधेयत्वादिप्रसङ्गात् । इत्थश्च 'एकत्रे'तिपदार्थस्याविरुद्धत्वफलितस्य न विरुद्धे न दाऽविरुद्धेऽन्वयो भवितुमर्हतीति तदनन्वयप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वात् 'एकत्र दूर्य न विरुद्धमिति न
* उद्देश्यतावरलेक और विधेश मिा होते हैं * अत्र. इति । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस कारिका के पूर्वार्ध का ऐसा अर्थ नहीं लगाना कि 'एक वस्तु में दो धर्म विरुद्ध नहीं है, क्योंकि ऐसा व्याख्यान करने पर 'एकत्र' पद के अर्थ का कहीं भी अन्वय नहीं हो सकेगा। इसका कारण यह है कि 'एकत्र' पद का अर्थ है एकाधिकरणवृत्तित्व । इसका विरुद्ध'पद के अर्थ में तो अन्वय = सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि विरुद्ध पद का अर्थ है एकाधिकरण में अवृत्ति । एक अधिकरण में नहीं रहने वाले पदार्थ में एक अधिकरण से निरूपित वृत्तिता = आधेयता अर्थ का सम्बन्ध बाधित होने से 'एकत्र' पदार्थ का विरुद्धपदार्थ में अन्वय नहीं हो सकेगा। यदि 'न विरुद्धं' का अर्थ अविरुद्ध कर के उसमें एकत्र' पदार्थ का अन्वय किया जाय तो वह भी मुनासिब नहीं है, क्योंकि यद्यपि 'एकत्र पदार्थ एकाधिकरणवृत्तित्व अविरुद्धत्व अर्थ में पर्यवसित - फलित होने से अविरुद्धपदार्थ में अन्वय योग्य है
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४६५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का.७ * एकत्र निन्यानिन्यादिप्रतीतेः सार्वजनीनत्वम् * किन्तु ब्दयं न विरुदं = न परस्परानधिकरणाधिकरणकम् । तत्र हेतुगर्भ विशेषणमाः ‘एको'ति, एकाश्रयवृत्तित्वं तदर्थः । न चाऽयं हेतुरसिब्दः, एकौत घटादौ नित्यानित्यादिप्रतीते: सार्वजनीनत्वात् । मनु नेयं प्रमा तत्र विरोधवाहकप्रमाणपरम्परासत्वेन विषयबाधात् । न च धमाद वस्तु
=* जयलवा *-..... -- | व्याख्यामहति ।
तह किम्स्वरूपं तव्याख्यानं ? इत्याशड़कायामाह - किन्विति । पक्षमाह - द्रयमिति । नित्यानित्यत्वादियग्ममिति तदर्थ इति वक्ष्यति । साध्यं निर्दिशति - न विरुद्धं = न परस्परानधिकरणाधिकरणकमिति । परस्परानधिकरणनिष्ठाधिकरणतानिरूपकभिन्नत्वं साध्यम् । तत्र = तत्सिद्धौ, हेतुगर्भ = हेतुघटितं, विशेषणमाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरपादा इति शेषः । 'एकत्रे'ति एकाश्रयवृत्तित्वं = एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वं तदर्थः = विशेषणवाचकपदार्थः । प्रयोगश्चात्रैवम् - द्वयं न परस्परानधिकरणाधिकरणकं एकाधिकरणवृत्तित्वात् रूपरसयोरिव । न च अयं = एकाधिकरणवृत्तित्वलक्षण: हेतुः असिद्धः = स्वरूपासिद्धिदोषग्रस्तः पक्षतावच्छेदकीभूतवैमत्याधिकरणतावच्छिन्ननिरूपितवृत्तित्वशून्य इति यावत् संशयतात्पर्यम् । तदपाकरणे हेतुमाह - एकत्रैवेति । एवकारेण भिन्नाधिकरणव्यवच्छेदः कृतः । घटादी धर्मिणि नित्यानित्यादिप्रतीतेः = नित्यत्वाऽनित्यत्व-भेदाभेदादिप्रकारकधियः सार्वजनीनत्वात् । तथा च नित्यत्वानित्यत्वादियुग्मे एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वसिद्धी न स्वरूपासिद्धिकवलितत्वे हेतोरिति नाम ।
___ननु न इयं = 'घटो द्रश्यत्वादिना नित्यो घटत्वादिना चाऽनित्य' इत्यादिस्वरूपा प्रमा । प्रदर्शितप्रतीतेरामात्वसाधनार्थ हेतुमाह - तत्र = नित्यत्वानित्यत्त्व-भेदाभेद-सत्त्वासत्त्वादिधर्मयुग्मे, विरोधग्राहकप्रमाणपरम्परासत्त्वेन तस्या विषयबाधादिति । नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुग्मे एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वाऽवगाहित्वस्य बाधादित्यर्थः । ततः किं ? इत्याह - न
तथापि तादृश अन्वयत्रोध यहाँ इसलिए नहीं स्वीकार्य हो सकता कि अविरुद्धत्यरूप से अविरुद्ध पदार्थ को सिद्ध करना यहाँ ग्रन्धकार को अभिमत नहीं है । आशय यह है कि यहाँ ग्रन्थकार की इच्छा अबिरुद्धत्वप्रकारक है, सिसाधयिषा का प्रकार = विधेय अविरुद्धत्व है और यहाँ अविरुद्धपदार्थ में उसका अन्वय करने का मतलब यह होगा कि अविरुद्धपदार्थ को उद्देश्य करके अविरुद्धत्व का विधान करना । मगर ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि तब उद्देश्यतावच्छेदक और विधेय एक बन जाने से तादृश अन्वयत्रोध नहीं हो सकता । प्रसिद्ध को उद्देश्य बना कर अप्रसिद्ध का विधान किया जाता है और उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञात होने पर ही उद्देश्य प्रसिद्ध हो सकता है। मगर विधेय को ही उद्देश्यतावच्छेदक बनाने पर विधेय अप्रसिद्ध होने से । तदभिन्न उद्देश्यतावच्छेदक भी अप्रसिद्ध बनेगा, फलतः उद्देश्य ही अप्रसिद्ध हो जायेगा, तब तादृश विधान कैसे हो सकेगा ? अन्यथा 'घटो घटः' इत्यादि वाक्यप्रयोग भी शिष्ट बनने की आपत्ति आयेगी ।
किन्नु. इति । इसलिए सातवीं कारिका के प्रथम पाद का व्याख्यान ऐसा करना चाहिए कि नित्यत्वानित्यत्वादि दो धर्म विरुद्ध = परस्परानधिकरणाधिकरणक नहीं है। कारिका में दर्शित 'एकत्र' ऐसा 'द्वयं' का विशेषण हेतुगर्भित है, जिसका अर्थ है एकाधिकरणवृत्तित्व । अतः अनुमानप्रयोग इस तरह होगा कि नित्यत्व-अनित्यत्व आदि दो धर्म परस्पर के अनधिकरण में रहने वाले होते नहीं हैं, क्योंकि वे एकाधिकरण में रहते हैं। यहाँ दो धर्म पक्ष है, परस्पर के अनधिकरण में अवृतित्व साध्य है और एकाधिकरणवृत्तित्व हेतु है । एकाधिकरण में रहनेवाले दो धर्म परस्पर के अनधिकरण में ही रहे यह तो कैसे मुमकिन हो सकता है ? यहाँ यह शंका करना कि → “नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्म में, जो पक्ष है, एक अधिकरण • से निरूपित वृत्तिता ही नहीं होने से हेतु स्वरूपासिद्धि दोप से कलंकित है, तब उसके द्वारा स्वाभीष्ट साध्य की सिद्धि ': कैसे हो सकती है -
एक धर्मी में जित्यत्वाऽनित्यत्वोभयप्रतीति प्रामाणिक एकत्र, इति । भी नामुनासिब है, क्योंकि एक ही घट आदि धर्मी में नित्यत्त्व और अनित्यत्व, भेद और अभेद आदि युगल की प्रतीति सभी लोगों को होती है। 'घट मृत्व, इयत्व आदि रूप से नित्य है और घटत्व आदि रूप से अनित्य = नाशप्रतियोगी है' इत्यादि प्रतीति तो सर्वजनप्रसिद्ध है, जिससे एक ही धर्मी में नित्यत्व-अनित्यत्व आदि । होती है। यहाँ यह संका नहीं करनी चाहिए कि -> "यह प्रतीति प्रमा नहीं है किन्तु भ्रमात्मक है । यह प्रतीति भ्रमात्मक
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* अनेकान्तवादे विरोधपरिहारप्रकारः *
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सिद्धिरित्याशङ्कायामभिदधति असदिति, अत्र विरोध इति शेषः । सत्पदच भावपरम् । तथा च विरोधे प्रमाणसिदे रसत्त्वादेक वृत्तित्वं निराबाधमिति हार्दम् । न हि जलानलयोरिव तयोर्विरोध: साक्षादनुभूयते, रूपरसयोरिव प्रत्युतैकवृत्तित्वस्यैवाऽऽनुभविकत्वात् । न वा छायातपयोरिव परस्परपरिहारेण वर्तमानत्वं, एकदैवानुभवात् । नाऽपि घट- तदभावयोरिवैकज्ञानानन्तरमज्ञायमानत्वं, नित्यत्वादिज्ञाने सत्यप्यनित्यत्वादेर्ज्ञानात् । स्वभावतो विरोधाभिधानं तु स्ववासनामात्रविजृम्भितम् ।
* जयलता
च भ्रमाद् वस्तुसिद्धिः, अतिप्रसङ्गात् । दर्शितप्रतिश्रमत्वां ततो नित्यानित्यत्वादिद्वन्द्वे एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वसिद्धिरिति स्वरूपासिद्धिदोषस्य वज्रलेपायमानत्वमेवेति आशङ्कायां सत्यां श्रीहेमचन्द्रसूरिप्रवरा अभिदधति असदिति । सत्पदच असच्छब्दघटकीभूतं सत्पदञ्च, भावपरं = सत्त्वविषयकबोधजननेच्छयोच्चरितम् । तथा च = सप्तम्यन्तविरोधपदाध्याहारे सत्पदस्य सत्त्वे लक्षणायाञ्च विरोधे प्रमाणसिद्धेरसत्त्वात् = नित्यत्वाऽनित्यत्वादिविरोधविषयकप्रमाणसिद्ध्यभावात्, नित्यत्वानित्यत्वादियुगललक्षणे पक्षे एकवृत्तित्वं एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वलक्षणं लिङ्गं निराबाधं = न स्वरूपासिद्धं इति हार्दम् । विरोधविषयकप्रमाणसिद्धच भावमेव प्रकरणकृत् समर्धयति न हीति । शेषं सुगमम् । वध्यघातकभाव - परस्परपरि हारसहानवस्थानलक्षणप्रसिद्धविरोधाऽसम्भवेऽपि नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुगले स्वभावत एव विरोधो भविष्यतीत्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह् – स्वभावतः तत्र विरोधाभिधानं तु प्रसिद्धप्रत्यक्षतर्कादिप्रतिकूलत्वेन स्ववासनामात्रविजृम्भितं = एकान्तवादाऽहितमिथ्यासंस्कारवृन्दविलासमात्रम् । इत्थञ्चाञ्च प्रमाणेन विरोधाऽसिद्धी न हेतोरेकाश्रयवृत्तित्वलक्षणस्य स्वरूपासिद्धत्वं, येन नित्यानित्यत्वादी परस्परानधिकरणाधिकरणकत्वाभावासिद्धिः स्यादिति तात्पर्यम् ।
-
=
=
-
होने का कारण यह है कि नित्यत्व- अनित्यत्व आदि धर्म में विरोधग्राहक प्रमाणों की परम्परा विद्यमान होने से उक्त प्रतीति का विषय बाधित होता है । विरोध का मतलब यह है कि एक अधिकरण में अवृत्तित्व । नित्यत्व- अनित्यत्व आदि धर्म में एकाधिकरणवृत्तित्त्वाऽभाव का प्रमाण से भान होने पर एकाधिकरणवृत्तित्व की प्रतीति के विषय का बाध होने से वह भ्रमात्मक सिद्ध होती है । भ्रम मे से तो नित्यत्व-अनित्यत्व आदि युगलधर्म में एकाधिकरणवृत्तित्व की सिद्धि नहीं की जा सकती" - क्योंकि विरोधगोचर प्रमाण ही असिद्ध है । कारिका में जो 'असत्' शब्द है उसका घटक सत्शब्द भावपरक है यानी सत्त्व का बोधक है । अतः असत्पद का अर्थ असत्त्व = अविद्यमानता होगा। 'बिरोधे' पद का अध्याहार करने पर समुदित अर्थ यह होगा कि विरोधविषयक प्रमाणसिद्धि अविद्यमान होने से नित्यत्व-अनित्यत्व आदि युगल धर्म में हेतु 'एकत्र' = एकाश्रयवृत्तित्व निराबाध है । अतः स्वरूपासिद्धि दोष का अवकाश नहीं है । जैसे एक धर्मी में अग्नि और पानी के बीच विरोध का साक्षात् अनुभव होता है, वैसे नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्मों के बीच विरोध का साक्षात् अनुभव नहीं होता है, बल्कि जैसे रूप और रस में एक ही घट आदि धर्मी से निरूपित वृत्तिता का भान होता है वैसे नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म में भी घट आदि एक धर्मी से निरूपित वृत्तिता का भी भान स्वरसतः होता है। नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म में छाया और प्रकाश की भाँति परस्परपरिहारनामक विरोध भी नहीं है, क्योंकि एक ही काल में वे एक धर्मी में प्रतीत होते हैं। एक काल में एक अधिकरण में रहने वाले धर्म में परस्परपरिहार विरोध नहीं होता है । यहाँ नित्यत्व और अनित्यत्व के बीच, घट और घटाभाव की भाँति, एक ज्ञान के बाद अज्ञायमानत्वात्मक विरोध भी नहीं है। मतलब यह है कि भूतल में घटज्ञान होने के बाद अनन्तर क्षण में वहाँ घटाभाव का भान नहीं होता है और वहाँ घटाभाव का भान होने पर अव्यवहित उत्तर क्षण में वहाँ घट का बोध नहीं होता है। अतः घट और घटाभाव परस्पर विरोधी कहे जाते हैं । मगर नित्यत्व और अनित्यत्व के लिए ऐसी बात नहीं है । घटादि में द्रव्यार्थादेश से द्रव्यत्वादिना नित्यत्व का ज्ञान होने पर भी पर्यायार्यादेश से घटत्वादिना अनित्यत्व का अबाधितरूप से ज्ञान होता है । इसलिए नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म में घट और घटाभाव आदि की भाँति विरोध का उद्भावन नहीं किया जा सकता। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि -> 'नित्यत्व और अनित्यत्व के बीच स्वभावतः विरोध है' - क्योंकि ऐसा कहना केवल अपने दर्शन एकान्तबाद से आहित वासना का ही विलास है । इसमें कोई तर्क या तथ्य नहीं है। विरोध का दूसरा कोई प्रकार ही नहीं है, जिसके अनुरोध से एक धर्मी में नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म के रहने पर विरोध का उद्भावन किया जाय। वैसा करना अपनी बुद्धि की विडंबना है, दूसरा कुछ नहीं ।
प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थ... नियम में परिष्कार की आवश्यकता
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४६७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्त्रार्थबोधकत्वनियमविचारः *
अथ प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वनियमात् कथमसत्वे पञ्चम्यान्वय: इति चेत् ? त, तवापि 'तेषां मोहः पापान दाढत्य त:' (.सू.४/9/६) इति सूत्र अमुढस्येतरोत्पत्त्यभावादित्यर्थकरणेन निपाताद्यातिरिक्तस्थल एवं वस्तुत: प्रकृतित्वं नेकमिति विशिष्यैतदव्युत्पत्तिस्वीकारेऽत्र नेयं व्युत्पत्ति: किन्तु भिवेत्यपि, बोध्यम् । अथ उक्तयाऽनया दिशा नवयो दृष्टचर इति त ? तात्पर्यसत्त्वे किमदर्शनमात्रेण !
=* जयलता न नैयायिकः शङ्कते - अधेति । 'चेदित्यनेनाऽस्या न्चय: । प्रत्ययानां स्वादीनां प्रकृत्यर्यान्वितस्वार्थबोधकत्वनियमात = स्वप्रकृतिपदार्थांन्चितस्वार्थबोधजननव्युत्पत्तेः कथं असत्वे - पञ्चमी विभक्त्यप्रकृतिभूताऽसत्पदार्थे, पञ्चम्यान्वयः = प्रमाणप्रसिद्धिप्रकृतिकपञ्चम्यर्थस्यान्वयः प्रमाणप्रसिद्धयसत्त्वादित्यन्वयबोधः प्रदर्शितनियमविरोधान्नैव स्वीकर्तुं युज्यत इति पराभिप्रायः ।
प्रकरणकृत्तत्रिराकरुते - नेति । तब = नैयायिकस्य अपि 'तेषां मोहः पापीयान नामूढस्येतरोत्पत्ते' रिति सूत्रे = न्यायसूत्रचतुर्थाध्यायसूत्रे, 'अमूढस्येतरोत्पत्त्यभावादित्यर्थकरणेनेति । प्रदर्शितसूत्रे 'तेषां = रागद्वेषमोहाना रागमोहयोर्देषमोहयो; मध्ये मोहः पापीयान् = बलवद्वेषविषयः, अमूढस्येतरोत्पत्त्यभावादि' त्यों व्याख्यातः । अत्र पञ्चमीविभक्तिप्रकृतिभूतमुत्पत्तिपदं न तु नञ्पदं तथापि नजाभावेनाऽन्वितपञ्चम्यान्वयस्याऽभ्युपगतत्वेन न तादुनियमस्य सार्वत्रिकत्वं कल्पनामर्हति । प्रकृतव्याख्यानबलेन निपातायऑतिरिक्तस्थल एवैतनियमस्वीकारादिति । अमावस्य निपातार्थत्वेन तदन्वितपञ्चम्यर्धान्वयस्य तादृशव्युत्पनिविषयातिक्रान्तत्वान्नायं दोषः, प्रत्ययार्थे प्रकृतिनिपाताद्यतिरिक्तान्चियोऽव्युत्पन्न इत्येवोक्तनियमतात्पर्यात् ।। अत एव 'नानुपमृद्य प्रादुर्भावात' (न्या.सू. ४/१/) इत्पत्र न्यायसूत्रे अनुपमृद्य प्रादुर्भावाभावादित्यों व्यास्त्यातः । ईदृशे स्थले प्रकृत्यान्वितनार्थ-विभक्त्यर्थयोरन्वयस्वीकारात् । ततश्च प्रमाणप्रसिद्धव्यसत्त्वादिति न्यारल्यानं साध्वेव । पञ्चम्यर्धश्चात्र | ज्ञानज्ञाप्यत्वं यथा वह्निमान् धूमादित्यत्र धूमज्ञानज्ञाप्ययह्निमानितियत् ।
वस्तुतः प्रकृतित्वं नैकं अननुगतत्वादिति विशिष्य = विशेषरूपेण, एतद्व्युत्पत्तिस्वीकारे = परिष्कृतनियमाङ्गीकार, अत्र = असत्प्रमाणप्रसिद्भित इति स्धले, न इयं = 'प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्धबोधकत्वरूपा व्युत्पत्तिः किन्तु भिन्नैव - प्रकृत्यान्वितनञर्थ-विभक्त्यर्थान्वयनियमरूपैव इत्यपि बोध्यम् । ततश्च न प्रकृते क्षतिरित्यर्थः ।
परः शङ्कते-अथेति । उक्तया अनया - प्रकृत्पर्धान्वितनञर्थविभक्त्यर्धयोरन्वयनियमरूपया, दिशा नान्चयो दृष्टचरः प्रकृत्यातिरिक्तान्वितप्रत्ययार्थप्रकारकोऽन्वयः पूर्वमदृष्ट इति नायं सङ्गत इति शङ्काशयः । प्रकरणकारः समाधत्ते- तात्पर्यसत्त्वे
अध प्र. इति । यहाँ यह शंका की जाय कि -> "असतप्रमाणप्रसिद्धितः में पंचमी विभक्ति प्रसिद्धिपद के अन्यवहित उत्तर में होने से वह उसकी प्रकृति है, न कि 'असत्' पद । शाब्दबोधस्थलीय यह मर्यादा है कि प्रत्यय अपने प्रकृतिभूत पद के अर्थ से अन्चित :- युक्त ही अपने अर्थ के बोधक होते हैं । अतः पञ्चमी विभक्ति के अर्थ का अन्वय असत्पद के अर्थ असत्त्व में नहीं हो सकता, किन्तु स्वप्रकृत्तिभूत प्रसिद्धिपद के अर्थ में ही हो सकता है। मगर यहाँ तो 'विरोधविषय प्रमाण प्रसिद्धि नहीं होने से' ऐसा अर्थघटन किया गया है, जिस में असत्त्व = अभाव में पंचमी विभक्ति के अर्थ का अन्वय ज्ञात होता है, जो उपर्युक्त नियम के विरुद्ध होने से त्याज्य है" -- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'तेषां मोहः पापीयान् नामूढस्यतरोत्पत्तेः' इस न्यायसूत्र की व्याख्या ऐसी की गई है कि 'राग, द्वेष व मोह में मोहः पापिष्ट है, क्योंकि मोह से रहित को राग और द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती है । इस न्यायसूत्रव्याख्या में उत्पत्तिशन्न के उत्तर पंचमी विभक्ति के अर्थ में प्रकृतिभूत उत्पत्तिपद के अर्थ का अन्वय न मान कर अप्रकृतिभूत 'न'पद के अर्थ अभाव का अन्वय करने से उपर्युन नियम दुपित होने से निपातातिरिक्त स्थल में ही तादृश नियम का स्वीकार किया गया है। उक्त सूत्र में 'न'पद निपान है तथा 'असत्' पद में अनिपात है, जिसका अर्थ अभाव होता है । अतः अभावात्मक निपातार्थ से, जो प्रकृत में उभयत्र पंचमी विभक्ति के प्रकृति पद का अर्थ नहीं है, अन्चित पंचमी विभक्ति के अर्थ का भान होने में कोई बाथ नहीं है । परिष्कृत नियम के अनुसार तादृश व्याख्या मान्य हो सकती है। वास्तविकता नो यह है कि प्रकृति में रहा हुआ प्रकृतित्व भी एक नहीं है, इसलिए उपर्युक्त नियम का विशेषरूप से स्वीकार करना होगा, जो 'असन्प्रमाणप्रसिद्धितः' इस स्थल में प्राप्त नहीं है, किन्तु उससे भिन्न व्युत्पत्ति ही यहाँ प्राप्त है। अतः असत्व = अभाव में पंचमी विभक्ति के अर्थ
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:'. .....'."
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:
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*द्वयपदार्थविचारः* अन्यथा 'नामूढस्येतरोत्पत्ते'रित्यत्राप्येतत्यर्यनुयोगापातात् ।
ननु 'ब्दयं न विरुदमि'त्यत्र सिन्दसाधनं, रूपसादिब्दय(?या)विरोधे परस्याऽप्यविवादात् । व्दयसामान्ये विरुदभेदः पुनरसम्भवी गोत्वाश्वत्वयोरेव तदभावादिति चेत् ? न,
मा दयपदस्य forallनत्यत्वादियुग्मतात्पर्यकत्वात् ।। =========ायलता *=1 = तथाविधान्वयबोधजननप्रकारकवक्वेिच्छासत्वदशायां, किमदर्शनमात्रेण ? तेन सृतमित्यर्थः । विपक्षबाधमाह- अन्यथेति ।
अन्यत्राऽदृष्टचरत्वेन प्रकृत्यातिरिक्तार्यान्वितविभक्त्यर्थगोचरशाब्दबोधाऽनङ्गीकारे, नामूढस्येतरोत्पत्तेरित्यत्रापि, किमुत 'असत्प्र| माण्णप्रसिद्धित' इत्यत्रेत्यपिशब्दार्थः एतत्पर्यनुयोगापातात् = अदृष्टचरत्वप्रश्नप्रसङ्गादिति ।
अथ द्वित्वावच्छित्रस्य यस्य कस्यचित् पक्षत्वं तत्सामान्यस्य वा ? इत्येवं विकल्पयुगलमत्र समजम्भत इत्याशयेन परः शकते नन्विति । चेदित्यनेनाऽस्यान्वयः । प्रथमविकणे आह- 'द्वयं न विरुद्धमि त्यत्र सिद्धसाधनमिति । कुतः । इत्याह - रूपरसादिद्वयाऽविरोधे परस्य = प्रतिवादिनः अप्यविवादात = विप्रतिपत्त्यभावात । सिषाधयिषाविरहविशिष्टसिद्धेः सत्त्वेन पश्नताविरहान्न यत्किञ्चिद्वये विरुद्धभेदलक्षणसाव्यप्रकारकानुमितेः सम्भव इति पराशयः । द्वितीयविकल्पे आह-द्वयसामान्ये = द्वित्वावच्छिन्ने विरुद्धभेदः = अविरोधः पुनरसम्भरी, कुतः ? इत्याह- गोत्वाश्वत्वयोरेव तदभावात् = विरुद्भभिन्नत्वविरहात, एवकारोच्योगव्यवच्छेदार्थः । न हि गोत्वाधिकरणेऽश्वत्वं तदधिकरणे गोत्वं वा वर्तमानं कदापि केनाऽपि दृष्टमिष्टं वा । द्वित्वञ्चाऽत्राऽपेक्षाबुद्भिविशेषविषयत्वरूपं बोध्यं न तु सङ्ख्यागुणात्मकं, तेन रूपरसादी गोत्वाश्वत्वादी च गुणत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाल्यन्ताभावसत्त्वेऽपि न अतिः । विकल्पद्यविधुरितत्वेन न प्रकृतानुमितिसम्भव इति पराभिप्रायः ।।
प्रकरणकारस्तमपहस्तयति- नेति । अत्र = अनुमानप्रयोगे द्वयपदस्य पक्षप्रतिपादकस्य नित्यानित्यत्वादियुग्मतात्पर्य - कत्वात् = नित्यत्वाऽनित्यत्य-भेदाभेद सत्त्वासत्त्वादियुगलपरत्वात् । तथा च न परस्य सिद्धसाधनं, पक्षतावच्छेदकावच्छंदन तत्सामानाधिकरण्येन वा विरुद्धभेदस्य 'परेणाऽनङ्गीकृतत्वात् । न बाऽसम्भवः गोत्वाश्चत्वादियुग्मस्य पक्षानन्तर्भावात् । पक्षताबच्छेदकच प्रकृतविचारानुकूलविवादविषयत्वमित्यादिकं स्वयमहनीयम् ।
का अन्वय हो सकता है। यहाँ यह शंका करना कि -> 'आपने जो अन्वय बताया है, वह अन्यत्र इस रीति से नहीं देखा गया है, अतः उपदर्शित अन्वय कैसे मान्य किया जायेगा ?' -भी नामुनासिब है, क्योंकि अन्वयबोध तो तात्पर्य = वक्ता की इच्छा के अनुसार ही होता है। यहाँ पर 'विरोधविषयक प्रमाण प्रसिद्ध न होने से ऐसा मूलकार का तात्पर्य होने से उसके अनुसार ही अर्थघटन करना चाहिए । अन्यत्र तथाविध अन्वयबोध न होने से क्या ? तात्पर्य हो तो तथाविध अन्वयबोध हो सकता है। अन्यथा 'नामूढस्य इतरोत्पत्तेः' यहाँ भी यह समस्या तो होगी कि 'पंचमी विभक्ति के अर्थ का स्वप्रकृतिभिन्न 'न पद के अर्थ से अन्चित हो कर भान कैसे हो सकेगा ?' । इसलिए मानना चाहिए कि अन्यत्र अप्रसिद्ध भी अन्चयबोध नात्पर्य के बल से हो सकता है । अतः उपदर्शित व्याख्यान युक्त ही है - यह फलिन होता है ।
0 सि.साधनदोष का परिहार ननु दू. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "दो धर्म अविरुद्ध है यानी दो धर्म में अविरुद्धत्वात्मक साध्य को सिद्ध करने के लिए आपने उपर्युक्त अनुमान का प्रदर्शन किया है। मगर यहाँ तो सिद्धसाधन दोष होगा, क्योंकि रूप और रस आदि दो धर्म एक घट आदि अधिकरण में अविरुद्ध होते हैं, यह तो प्रतिवादी भी मानते हैं। अतः सिद्ध का ही साधन करने से उक्त अनुमानप्रयोग निरर्थक है, पिष्टषेपणतुल्य है। यदि सभी दो दो धर्म में अविरोध को साध्य बनाया जाय तो यह असंभव ही हो जायेगा, क्योंकि गोत्व-अश्रस्व आदि दो धर्म में ही अविरुद्धत्व = विरुद्धभेद = एकाधिकरणवृत्तित्व बाधित होता है । गोत्व गाय में रहता है और अबत्व अश्व में रहता है, न कि दोनों एक अधिकरण में रहते हैं । अतः न तो द्वित्वसामानाधिकरण्येन अनुमिति हो सकती है और न तो द्वित्वावच्छेदेन अनुमिति हो सकती है" -'तो यह नामुनासिब है, क्योंकि यहाँ 'द्वयं' शब्द से नित्यत्व-नित्यत्व, भेद-अभेद आदि युगल का ग्रहण करने का तात्पर्य है । अतः यहाँ प्रतिवादी नैयायिक आदि की ओर से सिद्धसाधन दोप का उद्भावन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनके मतानुसार एक धर्मी में नित्यत्व अनित्यत्व आदि पुगल धर्म का समावेश असिद्ध है । एवं असंभव दोष भी अप्रसक्त है, क्योंकि गोत्वअश्वत्व आदि धर्म में अविरुद्धत्व को सिद्ध करने का तात्पर्य ही नहीं है। अतः विवादास्पदीभूत नित्यत्व-अनित्यत्व आदि
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४६९ मध्यमस्पावादरहस्ये खबर, २ - का. * 'असत्रमाणप्रसिद्धत' इत्यस्य नानाव्याख्यानिरूपणम् *
नत्तसत्प्रमाणप्रसिदित इत्यत्र 'असच्च तत्प्रमाण 'ति न समासः, अयोग्यत्वात् ।। प्रमाणप्रसिन्देस्सदिति समासे तु असत्पदस्य पूर्वोपादानानुपपत्तिरिति चेत् ? अा केचित् - सतोऽभावोऽसदिति तत्पुरुषादसत्वमित्यर्थः, तत्र च पञ्चम्यान्वयः, सत्त्वे च प्रमाणप्रसिध्दरन्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । विभक्त्यन्तरावरुदप्रातिपदिकार्थे विभक्त्यन्तरार्थान्वय: कथ
... *जयलता समासासम्भव परः शङ्कते - नन्विति । अयोग्यत्त्वादिति । प्रमाकरणत्वस्य सत्त्वव्याप्यत्वेन प्रमाणेऽसत्त्वस्य तादात्म्येनासतो पाइन्वयी योग्यत्वान्न भवतीति न 'असच तत्प्रमाणश्चेति कर्मधारयसमाससम्भवः । तत्पुरुषसमासस्याऽप्यसम्भव - माह- प्रमाणप्रसिद्धेरिति समासे = तत्पुरुषसमासे, तु असत्पदस्य पूर्वोपादानानुपपत्तिः अव्ययीभावसमासादादेव पूर्वनिपातसम्भवात, तत्पुरुषे संख्यावाचकपदस्यैव पूर्वनिपातसम्भवात् । न च प्रकृते एवमिति न तत्पुरुषसमासस्य सम्भवः । द्वन्द्वादेरपि न सम्भव इति असत्प्रमाणप्रसिद्धित इत्यत्र कः समासः ? इति पर्यनुयोगस्य दुरुद्धरत्वमिति शङ्काशयः ।
अत्र समाधानबार्तायां, केचित् बिद्वांसो बदन्ति- सहोऽभावः = असदिति तत्पुरुषात् = षष्ठीतत्पुरुषसमासात, | असत्पदस्य असत्त्वमित्यर्थः । तत्र च = असत्त्वार्थे हि पञ्चम्पर्धान्वयः, असत्त्वप्रतियोगिनि सत्त्वे च प्रमाणप्रसिद्धेः अर्थस्य अन्वयः = सम्बन्धः, कुतः ? इत्याह-व्युत्पत्तिचिच्यात् = नियमविशेषात् । ततश्चाऽसत्प्रमाणप्रसिद्रितः इत्यस्य प्रमाणप्रसिद्धिसत्त्वप्रतियोगिकात्यन्ताभावादित्यर्थः ।
__नन्वेवं सति प्रमाणप्रसिद्धिपदार्थ षष्ठ्यर्थान्दयो न स्यात् तवाचकपदस्य पञ्चमीविभक्त्यवरुद्धृत्वादित्याशयेन कश्चिच्छङ्कतेविभक्त्यन्तरावरुद्धप्रातिपदिकार्थे = विभक्त्यन्तरेणावरुद्धस्य प्रातिपदिकस्य = नाम्नः अर्थ. विभक्त्यन्तरार्थान्वयः = विभक्त्यन्तरस्याऽर्थस्य सम्बन्धः कथं ? प्रातिपदिकार्थे स्ववाचकपदाऽज्यवहितोत्तरविभक्त्यर्धस्यैवाऽन्वय इति नियमान्न पञ्चमीविभक्त्यन्तप्रमाणप्रसिद्धिपदार्थे षष्ठीविभक्त्यर्थान्वयस्य युक्तत्वमिति शङ्काभिप्रायः ।
धर्म को पक्ष बनाने में कोई दोष नहीं है - यह फलित होता है।
K. 'असत्प्रमाणप्रसिदिवः' यहाँ समासविवार नन्यस. इति । 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' का अर्थ 'प्रमाण प्रसिद्धि का अभाव होने से ऐसा करने पर भी यह समस्या तो यहाँ मुँह फाड़े सड़ी है कि यहाँ किस प्रकार के समास का अंगीकार किया जाय ? क्योंकि 'असच तत्प्रमाणं च' अर्थात् 'असत् ऐसा प्रमाण' इत्याकारक विग्रहवाला कर्मधारय समास तो 'असत्प्रमाण' पद में नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह समास अयोग्य है । एक ओर प्रमाण बोलना और दूसरी ओर उसे असत् = अविद्यमान कहना यह कैसे हो सकता है? प्रमाण हो तो उसे असत् कैसे माना जा सकता है और असत् हो उसे प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? अतः कर्मधारय समास अयोग्य है। यदि यहाँ 'प्रमाणप्रसिद्धरसत्' यानी 'प्रमाणप्रसिद्धि से अविद्यमान' ऐसा विग्रह बाला पंचमी तत्पुरुष समास माना जाय तो 'असत् पद का पूर्वनिपात नहीं हो सकता, क्योंकि पंचमी नत्पुरुष समास उत्तरपद प्रधान है । मगर मूलकारश्री ने कारिका में असत्पद का 'प्रमाणप्रसिद्धितः' के पूर्व में ग्रहण किया है । अतः तत्पुरुष समास का भी अंगीकार नहीं किया जा सकता । इन्द्र, बहुव्रीहि, द्विगु, अव्ययीभाव आदि समास की तो कोई संभावना ही नहीं है। अतः 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' यहाँ किस समास को मान्य किया जाय ? यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता है ।
अत्र केचि. इति । यहाँ उपर्युक्त उलझन को हटाने के लिए अमुक विद्वानों का यह कथन है कि → "सतः अभावः = असत् ऐसा तत्पुरुष समास करने पर असत्व अर्थ प्राप्त होता है । सत् के अभाव का मतलब असत्त्व ही होता है। इस असत्व पदार्थ में प्रमाणप्रसिद्धितः पद में रही हुई पंचमी विभक्ति के अर्थ का अन्वय होगा । असत्व के घटक सत्त्व में व्युत्पत्तिविशेप से प्रमाणप्रसिद्धि का अन्वय होगा । अतः 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' का अर्थ होगा प्रमाण प्रसिद्धि की विद्यमानता = सत्ता नहीं होने से (नित्यत्वानित्यत्व आदि में एकाश्रयवृत्तित्व निराबाध है)। इस पर यह शंका हो कि -> 'प्रमाणप्रसिद्धितः में प्रमाणप्रसिद्धिप्रातिपदिक के उत्तर में पंचमी विभक्ति है और आपने 'प्रमाणप्रसिद्धि की सना नहीं होने से' ऐसा अर्थघटन कर के पंचमी विभक्ति से अवरुद्ध = आक्रान्त प्रमाणप्रसिद्धि पद के अर्थ में पष्ठी विभक्ति के अर्थ का अन्वय किया है। मगर ऐसा अन्वय नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो प्रातिपदिक अन्य विभक्ति से अवरुद्ध होता है उसके अर्थ में दूसरी विभक्ति के अर्ध का अन्वय नहीं हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'नामूढस्येतरोत्पतेः' यहाँ भी यह समस्या
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* एकत्राऽवच्छेदकमेदेन नित्यत्वानित्यत्वसमावेश:* | मिति चेत् । तुल्यमिदमन्या ।
अपरे तु 'अ'इति प्रतिषेधार्थको निपात:, 'अ-मा-नो-ना प्रतिषेधे' ( ) इत्यनुशासनात् । तथा च सत्प्रमाणप्रसिध्देरभावादित्यर्थः ।
परे तु सत्पदं भावपरं, विरोधस्येति शेषाच्च विरोधस्याऽसत्वे प्रमाणप्रसिध्देरित्यर्थः ।। तथाहि- नित्यानित्यत्वे न विरुध्दे, मिनावच्छेदेनैका विशेषदर्शिना प्रतीयमानत्वात् संयोग
==* जयलता और प्रतिबन्द्या समादधते - तुल्यमिदं दूषणं अन्यत्र = 'नामूढस्येतरोत्पत्तेरि ति न्यायसूत्रे । उत्पत्तिपदस्य पञ्चमीविभक्त्यन्तत्वेन तदर्थे षष्ठीविभक्त्यर्धस्याऽन्वयोऽपि कथं स्यात् ? तथा चाऽमूढस्येतरोत्पत्तेरभावादित्येवमन्वयोऽप्यनुपपन्नः । न चैवं परेणाऽपि स्वीक्रियत इति तादृशनियमे सङ्कोचस्याऽऽवश्यकत्वेन प्रदर्शितन्यायसूत्रव्याख्यानबत् 'असत्प्रमाणप्रसिद्भित' इत्यत्रापि तथाविधान्वयस्य प्रामाणिकत्वमिति तात्पर्यम् । । अत्रैवाऽन्यमतमावेदयति- अपरे विति । 'अ' इति शब्दः प्रतिषेधार्थकः = अभाववाचकः निपातः, 'अ-मा-नोना प्रतिपेधे' इत्यनुशासनादिति । तथा च = दर्शितानुशासनबलाच्च असत्प्रमाणप्रसिद्धित इत्यस्य सत्प्रमाणप्रसिद्धेरभावादित्यर्थः । तथा नसनासनिबंचनानपक्तिरित्यापरवामभिप्रायः ।
अत्रैव परेषां मतमाविष्करोति- पर इति । सत्पदं भावपरं = सत्त्वबोधजननेच्छयोञ्चरितं, विरोधस्येति शेषाञ्च - | प्रकृतोपयोग्यश्रुतपदकल्पनाच्च, असत्प्रमाणप्रसिद्धित इत्यस्य विरोधस्याऽसत्त्वे प्रमाणप्रसिद्धेः = विरोधाभावप्रमाणप्रसिद्धेः इत्यर्थः विरोधस्य प्रतियोगितासम्बन्धेनाइसत्त्वे. तस्य च विषयतासम्बन्धेन प्रमाणेऽन्वयः तस्याऽपि विषयतासम्बन्धेन प्रसिद्धावन्धयः । कथं तत्प्रसिद्धिः । इत्याशङ्कायां प्रदर्शितार्थदायाय वदन्ति - तथाहीति । नित्याऽनित्यत्वे इति पक्षनिर्देशः । साध्य - माहः न विरुद्ध इति । विरुद्धवाभावः साध्यम । भिन्नावच्छेदेनैकत्र विशेषदर्शिना प्रतीयमानत्वादिति हेतनिर्देशः । संयोग
ज्यों कि त्यों बनी रहती है, उत्पत्ति प्रातिपदिक = नाम पंचभी विभक्ति से अवरुद्ध है और उसके अर्थ का अन्वय पष्ठी विभक्ति के अर्थ में किया गया है, क्योंकि 'इतर की उत्पत्ति का अभाव होने से ऐसा अर्थघटन करने से स्पष्ट होता है कि उत्पत्तिपदार्थ में षष्ठी विभक्ति के अर्थ का अन्वय होता है, न कि पंचमी विभक्ति के, जो स्वाचकपद के अब्यवहित उत्तर में है, अर्थ का अन्वय । उक्त न्यायसूत्र में जैसे उपर्युक्त नियम का त्याग किया जाता है ठीक वैसे ही 'असत्प्रमाणप्रसिद्धिता' यहाँ भी प्रमाणप्रसिद्धि में पष्ठी विभक्ति के अर्थ का अन्वय भी हो सकता है। जो समाधान नैयायिक की ओर से 'नामूहस्येतरोत्पनेः' सूत्र की व्याख्या में किया जायेगा, वही समाधान 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' की व्याख्या में भी समान होगा । अतः उपदर्शित दिशा से व्याख्या करना संगत प्रतीत होता है"।
अपरे, इनि । यहाँ अन्य विद्वानों की यह राय है कि -> 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः में 'शब्द निपात है, जिसका अर्थ प्रतिषेध = अभाव है, क्योंकि 'अ-मा-नो-ना प्रतिपेधे' इस अनुशासन से 'अ' शब्द का अर्थ प्रतिषेध = अभाव है - यह प्राप्त होता है। इसलिए 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' का अर्थ होगा सत्प्रमाणप्रसिद्धि का अभाव होने से । इस तरह स्वप्रकृति के अर्थ से अन्चित अभाव और पंचमी विभक्ति के अर्थ में परस्पर अन्वय करने पर उपर्युक्त अर्थ फलित होता है - यह तात्पर्य है' -1
परे. इति । दुसरे मनीषियों का यह बक्तव्य है, कि सतपद भावपरक है यानी सत्शन्द का अर्थ सत्तावान् नहीं किन्तु सत्ता है । अतः असत्पद का अर्थ असत्त्व = अभाव । 'विरोधस्य' इस पद का अध्याहार करने पर अर्थ यह होगा कि विरोध के अभाव में प्रमाण प्रसिद्ध होने से अर्थात विरोधप्रतियोगिकाभावविषयक प्रमाण की प्रसिद्धि होने से नित्यत्व और अनित्यत्व आदि दो धर्म परस्पर अविरोधी हैं । यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि -> 'विरोधाभावविषयक प्रमाण कीन है ? उसका स्वरूप क्या है ?' - क्योंकि अनुमान प्रयोग से ही विरोधाभाव की सिद्धि होती है। वह इस तरह - नित्यत्वानित्यत्व दो धर्म परस्पर विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि वे विशेपदी पुरुष से एक धर्मी में भिन्न अवच्छेदेन प्रतीयमान हैं, जैसे संयोग और संयोगाभाव । एक ही वृक्ष में शाखाअवच्छेदेन कपिसंयोग और मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव की प्रतीति होने से वे परस्पर । विरुद्ध = परस्पर के अनधिकरण में ही रहने वाले नहीं है। ठीक इसी तरह एक ही घट में द्रव्यतावच्छेदेन नित्यत्व और | घटत्वा-वच्छेदेन अनित्यत्व प्रतीयमान होने से वे एक धर्मी में परस्परविरुद्ध नहीं है, यह सिद्ध होता है। विरोधग्राहक
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२७१ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्ड २ का ७ * सत्त्वासत्त्वविरोधपरिहारः *
तदभाववत् । विरोधग्राहकमनुमानादिकं त्वप्रयोजकत्वाद दुर्बलमिति भाव: ।
ननु भवतु प्रागुक्तदिशा नित्यानित्यत्व-भेदाभेदयोरेकत्र वृत्तित्वं, सत्त्वासत्त्वादीनां तु नैवमिति चेत् ? न, सत्यमिह न सत्ताजातिमत्वं, जात्यादिष्वपि तद्व्यवहारात् । नापि तया सहैकार्थवृत्तित्वं तदपेक्षया वृत्तित्वमात्रस्यैव तत्त्वौचित्यात्, 'अभाव: सन्' इत्य (पि) व्यवहाराच्च । अत एव न प्रामाणिकत्वं वर्तमानकालसम्बन्धित्वं वा तत्, अतीतघटेऽपि सत्त्वकै जयलता कै
तदभाववदिति दृष्टान्तनिर्देश: । यथैकत्रैव वृक्षे शाखावच्छेदेन कपिसंयोगः मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभावश्च प्रतीयेते इति न विरुद्धे तथैवैकत्र घटे द्रव्यत्वावच्छेदेन ध्वंसाप्रतियोगित्वलक्षणं नित्यत्वं घटत्वावच्छेदेन ध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणमनित्यत्वञ्च प्रतीयेते इति न परस्परविरुद्ध इति भावः । घटो घटत्वेन ध्वस्तो न तु द्रव्यत्वेनाऽपीति प्रतीतिस्तु प्रागुपदर्शितव समर्थिता चेति न पुनः तत्राऽस्माकं यत्नः । नित्यत्वानित्यत्वयोः विरोधग्राहकं अनुमानादिकं तु अप्रयोजकत्वात् = विपक्षबाधकतर्कादिशून्पत्वात, दुर्बलं विरोधसाधनायाऽकिञ्चित्करम् । एतेन बाध-सत्प्रतिपक्षादयो दोषाः प्रतिक्षिप्ताः ।
=
'परः शङ्कते- नन्विति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः | अभ्युपगमवादेनाऽऽह - भवत्विति । प्रागुक्तदिशा प्रथमकारिकाव्याख्यानां क्तरीत्या नित्यानित्यत्वभेदयोः युगलयोः एकत्र एकस्मिन् धर्मिणि वृत्तित्वं = समावेशः, सत्त्वासत्त्वादीनां = सत्त्वासत्त्व - सामान्यविशेषाभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वादियुगलानां तु नैवं = नैकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वमत्त्वं सत्ताजात्यादेः व्याप्यवृत्तित्वेन तदविरोधग्राहकप्रमाणप्रसिद्धिविरहादिति शङ्काशयः ।
प्रकरणकृत्तन्निराकुरुते - नेति । सत्त्वं = सत्त्वपदप्रतिपाद्यं इह प्रकृतविचारे न सत्ताजातिमत्त्वं अभिमतं कुतः ? इत्याहजात्यादिष्वपि सत्ताजातिशून्येषु तद्व्यवहारात् = सत्पदप्रयोगात् । 'जातिः सती, विशेषः सन्' इत्यादिनिराबाधव्यवहारप्रसिद्धेः तत्साधारणसत्त्वपदार्थकल्पनाया आवश्यकत्वान्न सत्ताजातिमत्त्वं सत्त्वपदप्रतिपाद्यम् । यदि च परेण जात्यादावव्याप्तिव्यपोहाय सत्तासामानाधिकरण्यं सत्त्वपदवाच्यमित्यभ्युपगम्यते तदाऽऽह नापीति । तया = सत्ताख्यजात्या, सह एकार्थवृत्तित्वं एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वं सत्त्वपदवाच्यं जात्यादेः सत्ताजातिमति वृत्तित्वेऽपि तदपेक्षया = सत्ताधिकरणनिरूपितवृत्तित्वापेक्षया लाघवेन वृत्तित्वमात्रस्यैव तत्त्वौचित्यात् = सत्त्वपदार्थत्वीचित्यात् । इत्थञ्च लाघवेन वृत्तित्वस्यैव सत्त्वपदार्थत्वाभ्युपगमेऽपि जात्यादिष्वपि सत्त्वव्यवहारोपपत्तेः न सत्तया सहकाधिकरणवृत्तित्वं तदर्थत्वेनाऽङ्गीकर्तुमर्हतीति भावः । दोषान्तरमाह- 'अभावः सन्' इत्यपि व्यवहाराच । सत्तया सहकाधिकरणवृत्तित्वस्य सत्त्वपदार्थत्वेऽभ्युपगम्यमाने तु जात्याद्यधिकरणका भावविषयकसत्त्वव्यवहारो न सम्भवति, जात्यादी सत्ताजातेरनङ्गीकारेण तद्वृत्त्यभावे सत्ताधिकरणनिरूपितवृत्तित्वविरहात् । न च समवायतादात्म्यान्यतरसम्बन्धेन सत्ताविशिष्टनिरूपितवृत्तित्वस्य तत्त्वमिति वाच्यम्, तथापि विशेषादौ यो घटाद्यभावः तद्गोचरसत्त्वव्यवहारानुपपत्तेः । अत एव न प्रामाणिकत्वं वर्त्तमानकालसम्बन्धित्वं वा तत् = सत्त्वं, अतीतघटेऽपि विनष्टघटेऽपि,
+
एकान्तवादिप्रदर्शित अनुमान आदि में प्रयुक्त हेतु आदि अप्रयोजक विपक्षाधकतर्कशून्य होने से दुर्बल है । अतः उनसे प्रदर्शित अनुमान में सत्प्रतिपक्ष दोष का उत्थापन नहीं किया जा सकता । इसलिए प्रदर्शित अनुमान प्रमाण से नित्यत्वअनित्यत्व, भेद - अभेद, सत्त्व असत्त्व आदि धर्म में परस्पर अविरोध की सिद्धि होती है। यह तात्पर्य है ।
-
=
भ. इति । यहाँ इस समस्या का कि
एक धर्मों में पूर्वोक्त रीति से भले नित्यत्व और अनित्यत्व तथा भेद और अभेद रहे मगर सत्त्व और असत्त्व आदि धर्म में तो एक धर्मी से निरूपित वृत्तिता नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें कोई प्रमाण नहीं है । जब कि तथाविध प्रमाण नहीं है तब सत्त्व असत्त्व आदि में एकधर्मिनिरूपित वृत्तिता कैसे सिद्ध होगी ?" <- यह समाधान है कि यहाँ सत्त्व का मतलब सत्तात्मकजातिमत्त्व नहीं है, क्योंकि जाति आदि में भी सत्त्व का व्यवहार होता है । सत्ता होने की वजह सत्पद का प्रयोग माना जाय तो 'जाति: सती, विशेषः सन्' इत्यादि व्यवहार नहीं हो सकेगा, क्योंकि उनमें सत्ता नहीं रहती है । सत्ता तो केवल द्रव्य, गुण, कर्म में ही रहती है। अतः सत्ताजातिमत्त्व को सत्त्वपदार्थ नहीं माना जा सकता । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि 'सत्त्वपद का अर्थ सत्ता जाति के अधिकरण में रहना यानी सत्ताअधिकरणवृत्तित्व है । वह तो जाति आदि में भी है, क्योंकि जाति में स्वयं सत्ता जाति न रहने पर भी जाति तो सत्ता के अधिकरण में रहती है । अतः जहाँ जहाँ सत्पद का प्रयोग होगा वहाँ सत्ता जाति के साथ एक अधिकरण की वृत्तिता अवश्य रहेगी, जो सस्वपद का अर्थ है' - क्योंकि सत्ता जाति के साथ एकाधिकरण में रहना =
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* व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावस्वीकारः * व्यवहाराच्च । किन्तु विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं सत्त्वं निषेधमुखप्रत्ययवेद्यत्वचाऽसत्वमिति ।। तदुभयमपि घटादौ स्व-परद्रव्यचतुष्टयावच्छेदेन प्रत्यक्षत एव प्रतीयते । प्रतीयन्ति हि पामरा अपि 'घटः कपाले सन्न तु तन्तुग्विति । अथ सत्ता जातिरेव प्रत्यक्षवेद्या योग्यत्वान्न तु विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं, अयोग्यपतित
---=-=-== * जयलता ----.-.......... ..... सत्त्वव्यवहाराच्च । तर्हि सत्त्वस्याऽसत्त्वस्य च किं स्वरूपं ययोरेकत्र वृत्तित्वसाधनार्थमयमुपक्रमः ? इत्याशङ्कायामाहकिन्विति । विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं = अस्तित्वप्रकारकज्ञानविषयत्वं, सत्त्वं = सत्त्वपदप्रतिपाद्यं, निषेधमुखप्रत्ययवेद्यत्वं = नास्तित्वप्रकारकधीगोचरत्वं चाऽसत्त्वं = असत्त्वपदावान्यमिति । तदभयं दर्शितविषयताद्वयं अपि एक द्रव्यचतुष्टयावच्छेदेन प्रत्यक्षत एव प्रतीयते, स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावावच्छेदेन सत्त्वं परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावावच्छेदेन चासत्त्वं अध्यक्षत एव ज्ञायते । तदेव समर्थयति · प्रतीयन्ति हि पामरा अपि 'घटः कपाले सन्न तु तन्तुध्विति । उपलक्षणात 'घटः काशीयत्वेन सन्न तु प्रथागीयत्वेने त्यादर्ग्रहणम् ।।
अत्र सोपयोगित्वात् लघुस्याद्वादरहस्यस्थपाठः दयते । तदुक्तं तत्र -> 'सर्वं हि वस्तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया सत् परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च न सत् । व्यवहरन्ति हि 'घटोऽयं मार्त्तत्वेन काशीयत्वेनाऽद्यतनत्वेन रक्तत्वेन चास्ति, न तु ग्रावीयत्वेन प्रयागीयत्वेन श्वस्तनत्वेन श्यामत्वेन चेति । नन्वेतादृशमसत्त्वं व्यधिकरणथर्मावच्छित्राभावपर्यवसन्त्रमिति चेत् ? किं तारता ? तादृशाभावे मानमेव नास्तीति चेत् ? न, 'घटत्वेन पटो नास्तीति प्रतीतेरेव तत्र मानत्वात् । यत्किञ्चिद्भर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं यत्र तृतीयान्ताल्लभ्यते तत्र प्रकारीभूततद्धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्यैव व्युत्पत्तिबललभ्यत्वात् । कथमन्यथा 'घटत्वेन कम्बग्रीवादिमानास्ती'त्यादिप्रतीतेरपि प्रामाण्यम् ? प्रत्यक्षे हि येन रूपेण प्रतियोगिनाइनुपलम्भः तद्धर्मावच्छिन्ना प्रतियोगिता संसर्गमर्यादया भासते, तादृशधर्म एव च तृतीयान्तेनोल्लिख्यते इति । घटास्तित्वञ्च प्रदेशपुञ्जपरिणमनरूपं मातत्वेन न विरुद्धम । न च समयकालस्याऽनवच्छेदकत्वाद् द्रव्यादिचतुष्टयदाधः, तत्र प्रतीतिबलात स्वस्यैब स्वास्तित्वावच्छेदकत्वात् । अथ यदेव स्वरूपेणाऽस्तित्वं तदेव पररूपेण नास्तित्वमिति द्वयमेव ताबनदर्शनीयमिति चेत् ? नयनमुन्मीलय, ग्रावत्वेन नास्तित्ववति पदादी कि मार्त्तत्वेनाऽस्तित्वमुपलब्धवानसि? मानव-मातभिन्नत्वाभ्यामस्तित्व-नास्तित्वयोः तथाप्यद्वैत
पलमे इति चेत् ? तत्किं तननिमित्तापेक्षाकृतविशेषं ज्ञातवानसि ? साहजिकभेदयाचा तु पृथग्द्रत्र्ययोरेवोचिता" - (ल.स्या.रह. पृ.१९) इति ।
परः शङ्कते - अथेति । अयोग्यघटितत्वेन चाक्षुषाद्ययोग्यप्रत्ययघटितत्वेन विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वस्यापि अयोग्यत्वात् = । चाक्षुषाद्ययोग्यत्वात् । ततः सत्ताजातिमत्त्वस्यैव सत्त्वपदार्थत्वमस्तु न तु विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वस्येति नैयायिकाभिप्रायः ।
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वृत्तित्व को सत्त्वपदार्थ मानने की अपेक्षा वृत्तित्व को ही सत्त्वपदार्थ मानना मुनासिब है, क्योंकि इसमें लाघव है । दूसरी बात यह है कि 'अभावः सन्' पानी 'अभाव विद्यमान = वृति है' ऐसा व्यवहार भी होता है। मगर अभाव में सर्वत्र सत्ता के अधिकरण में वृत्तिता का भान नहीं होता है । जाति आदि में भी घटाभाव आदि का भान होता है, मगर जाति में सत्ता जाति नहीं रहती है । अतः सत्त्वपद का अर्थ वृत्तित्वमात्र है, न कि सत्ता के साय एक अधिकरण में वृत्तित्वयह फलित होता है। इसलिए प्रामाणिकत्व या वर्तमानकालसंबन्धित्व को भी सत्त्वपदार्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि विनष्ट घट आदि में भी सत्व का व्यवहार होता है। अतीत घट आदि में प्रामाणिकत्व या वर्तमानकालसंबद्धत्व नहीं है, फिर भी वहाँ सत्त्व का व्यवहार होता है । इसलिए यही मानना उचित है कि विधिमुख ज्ञान से वेग्रता ही सत्त्वपदार्थ है और निषेधमुख ज्ञान से चेग्रता यानी निपथमुख ज्ञान की विषयता ही असत्त्वपदार्थ है । एक ही घट में स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाषाबच्छेदेन बिधिमुख प्रत्यक्ष की विपयता और परदून्य-क्षेत्र-काल-भावावच्छेदेन निषेधमुख प्रत्यक्ष की विपयता प्रसिद्ध ही है। आचाल-गोपाल यह प्रतीति प्रसिद्ध है कि 'घट कपाल (मिट्टी) में सत् है, न कि तंतु में' । इस प्रतीति से 'कपालादेन घट विधिमुख ज्ञान का विषय है और तंतुअवच्छेदेन निषेधमुख प्रतीति का विषय है। यह सिद्ध होता है। अतः एक ही प्रतीति से एक घट में सत्त्व और असत्त्व का निवेश मुमकिन है। अतः उन्हें परस्पर अविरोधी मानना चाहिए ।
अथ स. इति । यहाँ यह नैयायिक वक्तव्य कि -> "सत्ता जाति ही विधिमुख प्रत्यक्ष प्रमाण से वेद्य है, क्योंकि वह योग्य है । चिधिमुखप्रतीतिवेद्यत्व को प्रत्यक्ष से वेग नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह अयोग्य पदार्थ से घटित होने
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४७३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. * सामान्य-विशेशत्मकवस्तुसिद्धिः * | त्वेनाऽयोग्यत्वादिति चेत् ? न, योग्यताविशेषेण ताहशस्यापि क्वचित्कस्यचिद योग्यत्वात् ।
एवं सामान्य-विशेषात्मकत्वमपि । स्वभावादेव हि घटोऽनुवृत्तिधियं जनयति, न तदर्थमतिरिक्तसामान्यकल्पनमुचितम, यतः तदप्येकमेव सत् पटादौ कि नाऽनुवृत्तिधियं !! जनयेत् ? 'धर्मिताविशेषेण तत्र तनास्तीति चेत् ? धर्मिताविशेषेणैव तर्हि सामान्यस्थाsबुगतधीनियामकत्वं मन्वानस्तादात्म्येनैव तस्य तथात्वं किं नाऽभ्युपैषि, तवाऽन्योन्या
. _* जयलता = प्रकरणकारस्तन्निराकरोति - नेति । योग्यताविशेपेण = योग्यताविशेषबलेन त दृशस्यापि = अयोग्यघटितस्यापि क्वचित् कस्य। चित् पुरुषादेः विशेषज्ञस्य ज्ञातुं योग्यत्त्वात् । 'विनष्टचत्रस्याऽयं पुत्र' इत्यादी विदोषणस्याऽयोग्यत्वेऽपि तद्विशिष्टस्य योग्यत्वेन यथा कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं भवति तद्वदेव प्रकृतेऽपि बोध्यम् । एतेन सत्ताजातिशून्यत्वमेव प्रत्यक्षवेद्यं न तु निषेधमुखप्रत्य- । यवेद्यत्वं. तस्यायोग्यघाटतत्वेनाइयोपवादित्यपि परास्तम् ।
एवं = नित्यत्वानित्यत्वादिविरोधग्राहकप्रमाणप्रसिद्धिविरहात् वस्तुनो नित्यानित्यत्वाद्यात्मकत्वमिव सामान्य-विशेषान्मकत्वमपि निराबाधम् । परेण सामान्य-विशेषयोरतिरिक्तत्वस्वीकारात्तन्निरासकृते आह- स्वभाबादेव हि अवधारणार्थः घटोऽनुवृत्तिभियं = 'अयं घटः', 'अयं बट' इत्याद्याकारकान्वयबुद्धिं जनयति इति हेतोः न तदर्थ = अनुगतप्रतीति-निर्वाहाय. अतिरिक्तसामान्यकल्पनं = घटादिव्यतिरिक्तस्य घटत्वादिसामान्यस्य कल्पनं उचितम् । तदतिरेके बाधकमुपदर्शयति - यतः तदपि अनन्तव्यक्तिनिष्ठं तद्मिन्नं घटत्वादिसामान्यं अपि एकमेव स्वीकृतं सत् पटादी व्यक्ती किं नानुवृत्तिधियं जनयेत् ? जनयदेव, पदार्धान्तरभूतस्य घटत्वादिसामान्यस्य तत्सम्बन्धस्य च समदायरूपस्य परेण सर्वगतत्वैकत्वाभ्युपगमात ।
नन समवायस्यैकत्वन रूपरसादिसमवायवति पदादी घटत्वादिसमवायसत्वेऽपि समवायन न घटत्वादिमना, तदाधारताया घटादिस्वरूपत्वादिति नोक्तदोष इत्याशयेन पर आह- धर्मिताविशेषेण घटानुयोगिकत्वविशिष्टसमवायसम्बन्धेन तत्र = पटादौ, तत् = घटत्वसामान्यं, नास्तीति न तत्रानुगतधीरिति परेणोच्यते चेत् ! तदा प्रकरणकृदाह- धर्मिताविशेषेण सम्बन्धेन एव तर्हि सामान्यस्य अनुगतधीनियामकत्वं मन्वानो गौतमीयः त्वं तादात्म्येनैव संसर्गेण तस्य सामान्यस्य तथात्वं अनुगत - बुद्भिजनकत्वं किं नाभ्युपैपि ? विषयतासम्बन्धेनाऽनुगतधियं प्रति तादात्म्येन सामान्यस्य जनकत्वमुचितं न तु घटाउनुयोगिकत्वविशिष्टसमवायरूपेण धर्मिताविशेषसम्बन्धेनेति स्याद्रादिवक्तव्यार्थः । तत्साधकमाह- तब नैयायिकस्य अन्योन्याभाव
से अयोग्य है" ठीक नहीं है, क्योंकि अयोग्यघटित होने पर भी योग्यतावियोप की वजह विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्व भी कभी किसी के लिए योग्य होता है ।
Vतस्तु सामान्य-विशेषोभयात्मक है v ___ एवं सा, इति । जैसे वस्तु सत्यासत्त्वोभयात्मक है, ठीक वैसे ही सामान्य-विशेपउभयात्मक भी है। घट अपने स्वभाव | से ही अनुवृत्तिप्रत्यय = अनुगत बुद्धि को उत्पन्न करता है । हजारों घट में 'यह घट है', 'यह घट है' इत्याकारक अनुगन बुद्धि का निर्वाह घट के स्वभावविशेष से, जो घट से अभिन्न है, ही उपपन्न हो जाने से तदर्थ घट से अतिरिक्त नित्य जाति = सामान्य की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यटत्वादि सामान्य तो एक एवं नित्य है और उसका संबन्ध समवाय भी नित्य और सर्वगत है । अतः अनेक घट की भाँति पट आदि में भी अनुगन बुद्धि उत्पन्न होने की समस्या खड़ी होती है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "समवाय एक नित्य और व्यापक होने से घटत्वसामान्य का समवाय तो पट आदि में भी है, मगर घटानुयोगिक सम्बाय सम्बन्ध से घटत्ववत्ता वहाँ नहीं है, क्योंकि तादृशाधारता घटस्वरूप होने से पटादि में नामुमकिन है। इस तरह धर्मिताविशेष सम्बन्ध से घटत्वसामान्य पटादि में नहीं होने से पटादि में 'अयं घटः', 'अयं घटः' इत्यादि अनुगत बुद्धि होने की आपत्ति नहीं है" - तो यह भी नामुनासिर है, क्योंकि धर्मिताविशेष सम्बन्ध से अतिरिक्त सामान्य को अनुगत बुद्धि का नियामक मानने की अपेक्षा तादात्म्य सम्बन्ध से ही सामान्य को अनुगत बुद्धि का नियामक क्यों न माना जाय ? मतलब कि घट को ही सामान्यात्मक मान कर उसे ही 'अयं यदः', 'अयं घटः' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का नियामक मानना युक्त है । ऐसा मानने में लाभ यह है कि विषयता सम्बन्ध से होने वाली अनुगत बुद्धि के प्रति सामान्य में तादात्म्य सम्बन्ध से कारणता का स्वीकार होने से
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* अन्योन्याभावगर्भितकारणतायां लाघत्रम्
भावगर्भ व्याप्तिप्रवेशेन कारणतायां लाघवं किं न प्रतिसन्धत्से ?
अथ व्यक्तितादात्म्ये सामान्यमनेकं सत् सामान्यरूपतामेव जह्यादिति चेत् ? तर्छुपाधयोऽपि किं तन जघुः १ 'तेषामपि परम्परया जातिरूपतयैकत्वमिति चेत् ? तर्हि अत्राप्यपेक्षाबुदिविशेषविषयत्वरूपं सङ्ग्रहनयार्पणया सम्भवदेकत्वं कः प्रतिक्षिपति ?
* नयलता
गर्भव्याप्तिप्रवेशेन कारणतायां कारणताशरीरे लाघवं किं न प्रतिसन्धत्से ? अयं भावः भेदसम्बन्धेन कारणतास्वीकारे तदभाववदवृत्तित्वरूपाया व्याप्तेः स्वीकार: कर्तव्यः स्यात्, अभेदसम्बन्धेन तदङ्गीकारे तु तदन्याऽवृत्तित्वरूपाया व्याप्तेरभ्युपगन्तव्यत्वेन लाघवम्, तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका भाव भिन्नाऽभावत्वरूपात्यन्ताभावत्त्वाऽपेक्षया तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वरूपान्योन्याभावत्वस्य लघुशरीरत्वात् । अतः तादात्म्येनैव सामान्यस्य कारणत्वं युक्त, न तु समवायेन । ततश्च व्यक्त्यतिरिक्तसामान्याऽभ्युपगमस्याऽप्रामाणिकत्वमिति स्थितम् ।
परः शङ्कते अथेति । सामान्यस्य व्यक्तितादात्म्ये = व्यक्त्यभिन्नत्वं स्वीक्रियमाणं तु व्यक्तीनामनेकत्वेन तदभिन्नत्वात् सामान्यं अपि अनेकं सत् सामान्यरूपतां अनुगतबुद्धिजनकतां एवं जह्यात्, सामान्यस्य नानात्वप्रसक्त्या अननुगतत्वापत्तेरिति नैयायिकाभिप्रायः । समाधानावतरणिकायै प्रकरणकृत् पर्यनुयुङ्क्ते- तर्हति । उपाधयोऽपि अनेकत्वेनाननुगतत्वात् किं तत् = अनुगतबुद्धिजनकत्वं न जह्युः ? न ह्येकमेव चेष्टाश्रयत्वलक्षणं शरीरत्वमनेकशरीरेषु वर्तते न वा बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वस्वरूपं भूतत्वमेकमेव पृथिव्यादिषु वर्तते । तथापि तयानुगतबुद्धिजनकत्वमस्त्येव तद्वत् सामान्यस्य | व्यक्त्यभिन्नत्वेन नानात्वेऽप्यनुगतबुद्धिजनकत्वमुपपत्स्यत इति प्रकरणकृदभिप्रायः ।
=
परः स्वाशयमावेदयति तेषां उपाधीनां अपि परम्परया = परम्परासम्बन्धेन जातिरूपतया एकत्वमिति नानुगतधीजनकत्वानुपपत्तिः । प्रकरणकृदाह - तर्हीति । अत्र व्ययनिसानान् अपि अपेक्षा बुद्धिविशेषविषयत्वरूपं सङ्ग्रहनयार्पणया = सङ्ग्रहनयविवक्षया सम्भवदेकत्वं कः प्रतिक्षिपति ? दर्शितकत्वस्य व्यक्त्यात्मकसामान्येऽपि सम्भवेन नानुगतबुद्धिजनकत्वानुपपत्तिरित्यपि तुल्यम् ।
=
४७४
अन्योन्याभावगर्भित व्याप्ति का प्रवेश होगा, जो अत्यन्ताभावगर्भित व्याप्ति की अपेक्षा लघुभूत है। इस लाघव की वजह तादात्म्य सम्बन्ध से हे यदात्मक सामान्य को अनुगत बुद्धि का कारण मानना उचित है न कि समवाय सम्बन्ध से घटत्व को आशय यह है कार्य व्याप्य होता है और कारण व्यापक होता है । यदि समवाय सम्बन्ध से सामान्य को कारण मानने पर तदभाववदवृत्तित्वस्वरूप व्याप्ति अनुगतबुद्धिस्वरूप कार्य में माननी होगी। मगर तादात्म्य सम्बन्ध से सामान्य को कारण मानने पर तदन्यावृत्तित्वात्मक व्याप्ति उक्त कार्य में माननी होगी, जो लघुभूत है । व्याप्ति में तत् शब्द से सामान्य का ग्रहण अभिमत है और व्याप्यता अवच्छेदक सम्बन्ध विपयता है। सामान्यभिन्न में विपयता सम्बन्ध से अनुगत बुद्धि अवृत्ति होती है । निष्कर्ष : सामान्य और घट के बीच तादात्म्य सम्बन्ध है, न कि समवाय ।
अथ व्य इति । यहाँ नैयायिक को यह शंका हो कि 'सामान्य को व्यक्ति से अभित्र मानने पर तो घटादि व्यक्ति अनेक होने से तदभिन्न सामान्य भी अनेक हो जायेगा । तत्र तो वह अननुगत होने से सामान्यात्मकता का ही त्याग कर देगा | अतः सामान्य और व्यक्ति के बीच तादात्म्य सम्बन्ध मानने के बजाय समवाय सम्बन्ध मान कर उन्हें परस्पर भिन्न ही मानना चाहिए' <- तो इसके खिलाफ नैयायिक के सामने यह समस्या भी खड़ी हो जायेगी कि “उपाधि भी अननुगत होने की वजह अनुगतबुद्धिजनकता का क्यों त्याग न करेगी ? कम्बुग्रीवादिमत्त्वस्वरूप उपाधि अननुगत होने से 'कम्बुग्रीवादिमान् अयं', 'कम्बुग्रीवादिमान् अयं' इत्यादि अनुगत बुद्धि की जनकता उपाधि में कैसे मुमकिन होगी ? यदि इस समस्या का समाधान करने के लिए नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि “उपाधियाँ अननुगत होने पर भी परम्परासम्बन्ध से जातिस्वरूप होने से एकपने का त्याग नहीं करने से अनुगत ही हैं। अतः कम्बुग्रीवादिमत्त्वस्वरूप उपाधि से अनगुतबुद्धिजनकता उपपन्न हो सकती है" - तो स्याद्वादी की ओर से भी यह कहा जा सकता है कि सामान्य को घटादिव्यक्तिस्वरूप मानने पर भी संग्रह नय को प्रधान बनाने पर अपेक्षाबुद्धिविशेष की विषयतास्वरूप एकत्व तो अननुगत घटादिव्यक्तिस्वरूप सामान्य में भी मुमकिन है। इस तरह सामान्य अनुगत सिद्ध हो सकता है, तो फिर क्यों उसमें अनुगतबुद्धिजनकता नामुमकिन होगी या उसका कैसे त्याग होगा ? अतः सामान्य और व्यक्ति के बीच तादात्म्यसम्बन्ध मानने पर भी अनुगत बुद्धि की उपपत्ति
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४७५ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का. *न्यायनयसम्मतजातेरखण्डोपाधिनाऽन्यथासिद्भता *
एकत्वसङ्ख्यावत्वं तु जातो तवाऽपि नास्ति । 'अनेकस्य कथमेकत्वमिति चेत् । स्वभावादेवेति ब्रूमः ।
प्रधानुगतकार्यस्यानुगतकारणजन्यत्वनियमाद घटत्वावच्छिमबुब्दो घटत्वस्यानुगतस्यैव हेतुत्वौचित्यमिति चेत् ? न, लाघवेन व्यजकत्वानिमतानामुपाधीलामेव तत्त्वस्वीकारोचि
=... .....* जायलता *ननु व्यक्तिस्वरूपसामान्ये वर्तमानस्याऽपेक्षाबुद्भिविदोषविषयत्वरूपस्यैकत्वस्य गौणत्वेन न ततोऽनुगतधिय उपपत्तिरित्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह- एकत्वसङ्ख्यावत्त्वं तु जाती तब = नैयायिकस्य अपि नास्ति, जातेर्निर्गुणत्वात् । तद्वदेव प्रकृतेऽपि भावनीयम् ।
ननु सामान्यस्य व्यक्तितादात्म्ये व्यक्तीनामनेकत्वेन सामान्यस्याऽपि नामात्वप्राप्ती कथं तत्र दर्शि प्रामाण्यं सम्भवेदित्याशयेन परः शङ्कते- अनेकस्येति । तत्समाधानमिदं - स्वभावादेवेति वयं स्याद्वादिनो ब्रमः । व्यवहारनयेनाऽनेकस्यापि सतो वस्तुनः सङ्ग्रहनयग्राह्यस्वभावादकत्वमपि निराबाधम । अत एव स्याद्वादाविरोधेनैकत्रापि धर्मभेदोपरागेणकत्व-द्वित्वयोरविरोधमभिप्रेत्य 'एगे भवं दुगे भवमिति सोमिलप्रश्ने 'दबट्ठयाए एगे अहं नाणदंसणद्वयाए दुवे अहमिति (भग.सू.६४८) प्रत्युवाच परमेश्वरः । तत्र सङ्ग्रहनयाभिप्रायेण प्रधममुत्तरं द्वितीयञ्च व्यवहारनयाभिप्रायेणेति विभाव्यम् ।
अतिरिक्तसामान्ययादी नैयायिकः पुनराशते- अथेति । अनुगतकार्यस्य अनुगतकारणजन्यत्वनियमात् अन्यथा कार्याऽऽकस्मिकत्यापत्तः घटत्वावच्छिन्त्रबुद्धी = 'घटोऽयं चटोऽयमि'त्यनुगताकारप्रतीती, घटत्वस्य अनुगतस्येच प्रति घर्ट वर्त्तमानस्यैव विषयविधया हेतुत्वीचित्यम् । एतेनातिरिकानुगतसनादिसिद्धिरपि प्रदर्शिता सर्वत्रानुगताकारप्रतीतीनामेकविषयत्वौचित्यात् 'सत्सदि'ति 'द्रव्यमि' त्यादिप्रतीतिभिः सत्त्वद्रव्यत्वाद्यतिरिक्तानुगतसामान्यसिद्धेरिति गौतमीयाभिप्रायः ।
प्रकरणकृत्तन्निराकुरुते . नेति । अतिरिक्त-घटत्यादिसामान्य परिकल्प्या:पि सकलघटादिषु तज्ज्ञानार्थं कम्बुग्रीवादिमत्त्वादीनामुपाधीनां तद्व्यञ्जकत्वेन कल्पनावश्यकल्वे तु लाघवेन व्यञ्जकत्वाभिमतानां = जातिज्ञानजनकत्वेन योगाभीष्टानां, उपाधीनामेव तत्त्वस्वीकारीचित्यात = 'घटोऽयं. घटोऽयमित्याद्यनगताकारकप्रतीतिजनकत्वाइभ्युपगमस्य न्यायोचितत्वात्,
होने से उन दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध का स्वीकार करना ठीक नहीं है। यहाँ यह भी शंका करना कि > 'संग्रह नय की दृष्टि से अनेक व्यक्तिस्वरूप सामान्य में अपेक्षाबुद्धिविशेष की विषयताविशेषात्मक एकत्व तो गौण है, न कि मुख्य । अतः अनुगत प्रतीति का निर्वाह गीण एकत्व से कैसे हो सकता है ?' -नामुनासिब है, क्योंकि नैयायिकसंमत घटत्व आदि सामान्य में भी एकत्व संख्या मुख्य नहीं होने से उसको भी घटत्व आदि सामान्य में गौण एकत्व का ही स्वीकार करना होमा । नैयायिकमतानुसार केवल द्रव्य में ही एकत्व संख्या आदि गुण रहते हैं । अतः जाति = सामान्य में अनुगत प्रतीति का निर्वाहक एकत्व गौण ही मानने को उसे मजबूर होना पड़ता है। जैसे व्यक्ति से अतिरिक्त सामान्य में गीण एकत्ल होने पर भी अनुगत प्रतीति की उपपत्ति नैयायिक की ओर से की जाती है, ठीक वैसे ही स्याद्वादी की ओर से भी व्यक्तिस्वरूप सामान्य में अपेक्षाबुद्धिविशेषविपयतात्मक गीण एकत्व का संग्रह नय की दृष्टि से स्वीकार कर के अनुगत बुद्धि की उपपनि की जा सकती है। यहाँ यह प्रश्न हो की -> 'व्यक्ति तो अनेक है, तब व्यक्तिस्वरूप सामान्य में गौण एकत्व भी कैसे हो सकता है ?' - तो इसका समाधान यह है कि स्वभावविशेष से ही अनेक में भी एकत्व की कल्पना की जा सकती है, क्योंकि मंग्रह नय की दृष्टि से घट, पट आदि पदार्थ सत् होने से एक ही है।
यायिकांमत नाति अप्रामाPिM अथानु. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जा सकता है कि --> "अनुगत कार्य सदा अनुगत कारण |से उप होता है। इस नियम के बल से 'अयं घटः', 'अयं घटः' इत्याकारक घटत्वावच्छिन्नविषयक बुद्धिस्वरूप अनुगत
कार्य का अनुगत कारण होना चाहिए और वह सभी घट में अनुगत एक घटत्व जाति के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। इस तरह 'यह घट है', 'यह घट है' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का विषयविधया घटत्वात्मक अनुगत कारण जातिरूप में सिद्ध होता है । स्वयं एक होते हुए अनेक में रहने वाला ही अनुगत हो सकता है । अतः सामान्य = जाति व्यक्तिस्वरूप न हो कर उससे अतिरिक्त सिद्ध होता है"
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* अभावादिसाधारणजातिस्वीकारौचित्यावेदनम् *
४७६
त्यात्, अन्यथा प्रवृत्त्यादिजनकतावच्छेदकत्वेन कारणत्वादीनामप्यतिरेककल्पनापत्तेः । अथ व्यञ्जकमपि परम्परया सास्नात्वादिकमेवेति नोपाधिभिर्जात्यन्यथासिद्धिरिति चेत् ? तथाप्यनुमतधीनियामकतया सिध्यतः सामान्यस्याऽभावादिसाधारणस्यैव स्वीकर्तुॐ जयलता
यद्वा जातित्वाऽङ्गीकारौचित्यादित्यर्थः । एतेनानुगतकार्यस्यानुगतकारणजन्यत्वनियमो ऽपि प्रतिक्षिप्तः, उपाधीनामननुगतत्वेऽपि 'अस्मिन् घटत्वमस्मिन् घटत्वमित्यनुगताकारकधीजनकत्वस्य परेणापि स्वीकृतत्वात् । अत एव कम्बुग्रीवादिमत्त्वादीनामुपाधीनां परम्परया कम्बुग्रीवत्वादिजात्या अनुगतत्वेन समानाकारकप्रतीतिजनकत्वकल्पनापि प्रत्युक्ता व्यर्धगौरवात्, ऋजुगत्या सिध्यतोऽर्थस्य वक्रेण साधनाऽयोगात्, अन्यथा 'तद्धेतोरस्तु किन्तेन । इतिन्यायस्याऽप्रामाणिकत्वापत्तेः । प्रकरणकृद्विपक्षबाधमाचष्टेअन्यथेति । उपाध्यतिरिक्तजात्यङ्गीकारे, यद्वाऽनुगतकार्यस्यानुगतकारणजन्यत्वनियमाऽङ्गीकारे इत्यर्थः । प्रवृत्त्यादिजनकताबच्छेदकत्वेन कारणत्वादीनामप्यतिरेककल्पनापत्तेः । अयं भावः अनन्यथासिद्धत्वे सति कार्याऽव्यवहितपूर्ववर्तित्वरूपस्य कारणत्वस्य प्रतिकारणं भिन्नत्वेन प्रवृत्तित्वाद्यवच्छिन्नमनुगतकार्यं प्रति कारणत्वजात्यवच्छिन्नस्य हेतुत्वं स्वीकर्तव्यं स्यात् परेण अनुगतकार्यस्यानुगतकारणजन्यत्वस्वीकारात् । न चावच्छेदकावच्छेद्ययोरैक्यप्रसङ्गान्न तथास्वीकार इति वाच्यम्, उपाधिस्वरूपावच्छेद्यकारणत्वापेक्षया जातिस्वरूपावच्छेदकी भूतकारणत्वस्य भिन्नत्वसिद्धेरप्रत्यूहात् । एवञ्च कारणाव्यवहितोत्तरवर्त्तित्वरूपस्य कार्यत्वस्याऽभ्यननुगतत्वेन कार्यत्वजात्यङ्गीकारप्रसङ्गोऽपि दुर्निवारः । न चैवं परेणाऽपि स्वीक्रियत इति जातेरुपाधिभिरन्यथासिद्धिरिति निष्कर्षः ।
परः शङ्कते अथेति । जातेः व्यञ्जकमपि परम्परया = स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन सास्नात्वादिकं जात्यात्मकं एव । स्वपदेन सास्नात्वादिग्रहः, तत्समवायिनि सास्नादौ समवेता या गौः तस्यां सास्नात्वादि सामान्यं स्वसमवायिसमवेतत्वसंसर्गेण वर्तते तत्रैव च गोत्वसामान्यमपि व्यज्यते तेनेति नोपाधेः जातिव्यञ्जकत्वं किन्तु जातेरेवेति नोपाधिभिः जात्यन्यथासिद्धिः जातेश्चरितार्थत्वमिति नैयायिकाकूतः ।
यद्यपि परम्परासम्बन्धेन जात्यप्रतिसन्धानेऽप्यनुगतबुद्धेर्दर्शनान्नेदं युक्तं, व्यर्थगौरवात् तथापि एतद्दोषस्य वक्ष्यमाणवा त्साम्प्रतं प्रकरणकारोऽभ्युपगभवादेनाऽऽह - तथापीति । परम्परया जातेरेव जातिव्यञ्जकत्वाऽङ्गीकारेऽपि, अनुगतधीनियामकतया समानाकारकप्रतीतिजनकविधया सिध्यतः सामान्यस्य अभावादिसाधारणस्यैव स्वीकर्तुमुचित्वात् । एतेन सामान्य
=
=
न इति । मगर यह नैयायिकवक्तव्य भी नामुनासिव है। इसका कारण यह है कि अतिरिक्त घटत्व आदि व्यापक जाति का स्वीकार करने पर भी घट में ही घटत्व का भान होता है, न कि पट आदि में इसका निर्वाह करने के लिए 'कम्बुग्रीवादिमत्त्वस्वरूप उपाधि घटत्व जाति की व्यंजक = ज्ञानजनक है' ऐसा नैयायिक मनीषी मानते हैं। मतलब कि 'अयं घटः' इत्यादि समानाकारक प्रतीति के प्रति विषयविधया घटत्व जाति को कारण मानना और घटत्व के ज्ञान के प्रति विषयविधया कम्बुग्रीवादिमत्त्वस्वरूप उपाधि को, जो प्रत्येक घट में भिन्न-भिन्न होने से अननुगत है, कारण मानना - ऐसी दो कल्पना करने का गौरव होगा । इसकी अपेक्षा तो यही मुनासिव है कि उक्त उपाधि को ही जातिस्वरूप मान कर अनुगत प्रतीति का कारण = नियामक माना जाय, क्योंकि इस पक्ष में अतिरिक्त घटत्व की कल्पना अनावश्यक होने से लाघव है । यदि उपदर्शित रीति से लाघव प्राप्त होने पर भी उपाधि से अतिरिक्त जाति का स्वीकार किया जाय, तब तो प्रवृत्ति आदि की जनकता के अवच्छेदकविधया कारणत्व आदि अतिरिक्त पदार्थ की कल्पना करने का प्रसंग होगा, जो नैयायिक विद्वानों को भी मान्य नहीं है। अतः उपाधि से ही अनुगत प्रतीति का निर्वाह होने से उसके प्रति जाति अन्यथासिद्ध होती है । "जाति की व्यंजक उपाधि भी परम्परासम्बन्ध से जातिस्वरूप ही है । वह इस तरह सभी गाय में 'यह गाय है, यह गाय है' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का विपयविश्रया गोत्व जाति कारण है और 'इसमें गोत्व है, उसमें गोत्व है' इत्याकारक गोत्वजातिविषयक बुद्धि का कारण सास्नादिमत्त्व प्रत्येक गाय में भिन्न भिन्न होने पर भी उसमें सास्नात्व आदि अनुगत है । अतः गोत्व का व्यंजक परम्परासम्बन्ध से सास्नात्व आदि ही माना जाता है, जो कि जातिस्वरूप ही है । अतः उपाधि से जाति की अन्यथासिद्धि = चारितार्थता नहीं हो सकती" तो यह भी नामुनासिव है, क्योंकि अनुगत बुद्धि के नियामकविधया सिद्ध होने वाले सामान्य को अभावादिसाधारण मानना ही उचित है, क्योंकि 'यह अभाव है, यह अभाव है' इत्याकारक बुद्धि भी अनुगताकारवाली ही है। अतः
अथ व्य इति । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि
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४७७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * अखण्डोपाधिना जातेरन्यथासिद्धिः * मुचितत्वात्, अन्यथा कारणतावच्छेदकत्वादिनाऽप्यखण्डोपाधेरेव स्वीकारणोपाधिरेव | परम्परासम्बन्दो जातिरित्यस्थापि सुवचत्वात् ।
उपाधेः कारणताद्यवच्छेदकत्वे नानाविशेषणतानां कारणतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धत्वे गौरवात, जातेस्तथात्वे तु समवायस्यैकस्यैव तत्त्वे लाघवान्नाऽखण्डोपाधिनाऽपि जातिविलयापत्ति'रिति चेत् ? न, विशेषणताया अपि लाघवात्समवायवदेकस्या एव तवाऽभ्युपगन्तुं युक्तत्वात, नानात्वेऽपि विशेषणतात्वेन तासामनुगमसम्भवाच्च ।
===-=* जयलता * -------- ट्रव्यगुणकर्मवृत्त्येवेति प्रत्युक्तम्, 'अयं अभावोऽयमभाव' इत्याद्यनुगतप्रतीतेरपि सर्ववेद्यत्वात् । न चाऽभावत्वाऽखण्डोपाधेस्तत्रापि सत्त्वेन नानुगततादृशधियाऽनुपपत्तिरिति वाच्यम्, अन्यत्राऽप्यखण्डोपाधेरेव स्वीकारापातेन त्वदभिमतजातेर्विलयप्रसङ्गादित्याशयेन प्रकरणकृद्विपक्षबाधमाह- अन्यथेति । अभावत्वादिलक्षणारखण्डोपाधेरेबाऽभावादावनुवृनिधीजनकत्वाऽङ्गीकारे, कारणतावच्छेदकत्वादिनाऽपि अखण्डोपाधेरेव स्वीकारेण - अभ्युपगमसम्भवेन उपाधिरेव परम्परासम्बद्धः जातिरित्यस्यापि सुवचत्वात् । तथा चोपाधिभिर्जातरुपक्षीणत्वप्रसङ्गो दुर्निवार एवेत्याशयः ।
परः शङ्कते - उपाधेः कारणताद्यवच्छेदकत्वे तूपाथेः स्वरूपसम्बन्धेन वर्तमानत्वात् नानाविशेषणतानां कारणतावछेदकतावच्छेदकसम्बन्धत्वे = कारणताद्यवच्छेदकताया अवच्छेदकसंसर्गत्वाभ्युपगमे गौरवात् = तादृशसम्बन्धगौरवात् । न च सम्बन्धगौरवस्याऽदोषत्वान्न क्षतिरिति वाच्यम्, सति लयौ गुरौ तदकल्पनात् । सम्बन्धगौरवनिर्दोषत्ववादोऽपि सम्बन्धशारीरगौरवापेक्षयव, न तु नानासम्बन्धकल्पनागौरवापेक्षयाऽपि । प्रकृते तु स्वरूपसम्बन्धरूपाया विशेषणताया प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वेन नानाविशेषणतानां तधात्वे गौरवस्य निर्दोषत्वाऽयोगात् । अपि च जातेः = अतिरिक्तसामान्यस्य तथात्वे = कारणताद्यवच्छेदकधर्मत्वे तु समवायस्यैकस्यैव तत्त्वे = कारणताद्यपदकतावच्छेदकसंसर्गवे लाघवात् नाऽखण्डोपाधिनापि नातिनिलयापनि: = गनेम्न्यथा सिन्टन्तासङ्ग इति नैयायिकाभिप्रायः ।
___ गन्ध-रस-रूपादिप्रतियोगिपृथिवी-जल-तेजःप्रभृत्यनुयोगिभेदेऽपि यथा समबायो न भिद्यते तथैव विशेष्यादिभेदेऽपि विशेषणता न नानात्वमापद्यत इति त्वया स्वीकर्तुमुचितत्वान्न नानाविशेषणतानां कारगताधवच्छेदकतावच्छेदकसंसर्गत्वकल्पनागौरवप्रसङ्ग इत्याशयेन प्रकरणकृदुपदर्शितनैयायिकाभिप्रायमपाकरोति- नेति । विशेषणताया न्यादिकं विभावितार्थमेव । यदि व परो विशेषणतानां नानात्वमेव स्वीकुर्यात्तदाऽऽह- नानात्वेऽपि विशेषणतात्वेन तासां = विशेषणतानां अनुगमसम्भवाचन गौरवग्रसङ्गः ।
बिना पक्षपात के द्रव्य, गुण, कर्म की भाँति अभाव आदि में भी जाति का स्वीकार उचित है, अन्यथा कारणतावच्छेदकविधया भी अखंड उपाधि का ही स्वीकार कर के उपाधि ही परम्परासम्बद्ध जाति है . यह भी अच्छी तरह कहा जा सकता है।
उपाधि कारणतारक हो सकती है ] उपाधे, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि --> "अखंड उपाधि को कारणता आदि का अवच्छेदक मानने पर कारणतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्धविधया अनेक विशेषणता का स्वीकार करना होगा, क्योंकि अखंड उपाधि स्वाश्रय में समवाय सम्बन्ध से न रह कर विशेषणता सम्बन्ध = स्वरूपसंसर्ग से रहती है। प्रत्येक आश्रय का स्वरूप अलग-अलग होने से तादृश सम्बन्ध भी अनेक बन जाने से अनेकविध सम्बन्ध में कारणतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धत्व की कल्पना का गौरव होता है। जब कि जाति को कारणतावच्छेदक धर्म मानने पर कारणतावच्छेदकतावादक सम्बन्ध समवाय होगा, क्योंकि जाति = सामान्य स्वाश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहती है । इस पक्ष में केवल एक समवाय में कारणतावच्छेदकताबच्छेदक सम्बन्धत्व की कल्पना की जाती है, जो पूर्वोपदर्शित मत की अपेक्षा लघु है । अतः अखंड उपाधि से भी जाति का बिलय होने का कोई अनिष्ट प्रसंग नहीं है । इसलिए जाति का स्वीकार उचित है" -
न वि. इति । तो यह भी नामुनासिर है, क्योंकि आप नैयायिक महाशय जैसे रूपसमवाय, रससमवाय, गन्धसमवाय आदि को एक ही मानते हैं, भले ही रूप, रस, गन्ध आदि प्रतियोगी भिन्न भिन्न हो; ठीक वैसे ही विशेषणता को भी, विशेष्य अलग-अलग होने पर भी, एक माननी आपके लिए मुनासिब है। अतः कारणतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धत्व की नानाविध विशेषणता में कल्पना करने के गौरव को यहाँ अवकाश नहीं है। यदि विशेषणना को एकविध मान कर अनेकविध मान
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* अनुवृतिव्यानिनिपामकत्वविचारः * - किञ्च परम्परासम्बन्धेन जात्यप्रतिसन्धानेऽपि उपाधिभिरनुवृत्तिधीजननदर्शनात् स्वभावत |
एव घटादीनानुवृत्तिधीनियामकत्वमुचितम् । । अथैवमेतद्घदत्वेनापि घट: किं नानुवर्तेत ? स्वभावाऽप्रच्यवादिति चेत् ? न, प्रतिव्यक्ति तुल्याऽतुल्यपरिणतिरूपधर्मयोरेव स्वभावतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकत्वात् । धर्मी go: कायदातव्यावृत्युभयस्वभाव इति स्पष्टीभविष्यति व्याख्यान्तरे पुरस्तात् ।
अधैवमप्यूटर्वतासामान्ये मानाभाव:, अङ्गद-कुण्डलादी काचनत्वरूपतिर्यक्सामान्येनैव = = = = =* जयलता - ___ यत्तु ‘त्र्यअकमपि परम्परया सास्नात्वादिकमेवेति' (पृ.५७६) परेणोक्तं तत्राऽऽह- किश्चेति । परम्परासम्बन्धेन = स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन, जात्यप्रत्तिसन्धानेऽपि = गवादिषु सास्नात्वादिजातेरज्ञानेऽपि, उपाधिभिः = सास्नादिमत्त्वलक्षणैः ‘इयं गौरियं = गौरि'त्यनुवृत्तिधीजननदर्शनात् न जातेरनुगतधीनियामकत्वं न्याय्यं किन्तु स्वभावत एव घटादीनां गवादीनाञ्च अनुवृत्तिधीनियामकत्वमुचितमिति ।।
परः शङ्कते - अथेति । एवं = स्वभावत एव घटादीनामनुवृत्तिधीनियामकत्वे तु एतद्धटत्वेनापि रूपेण घटः किं नानुवर्तेत ? अनुवर्नेत एब, स्वभावाप्रच्यवात् = समानाकारकधीजननस्वभावाऽपरित्यागात्, अन्यथा मृगपतिशृङ्गसहोदरत्वप्रसङ्गः । न हि स्वभावो जातुचित् परावर्तते, तत्त्वहान्यापत्तेः ।
प्रकरणकारः तन्निराकुरुते- नेति । प्रतिव्यक्ति तुल्याऽतुल्यपरिणतिरूपधर्मयोः = समानाऽसमानपरिणामयोः एव स्वभावतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकत्वात् एतदटत्वस्याऽतुल्यपरिणामत्वेन न तेन रूपेण घटोऽनुवर्तते किन्तु घटत्वलक्षणसमानपरिणामेनैव । न च धर्मयोरेव स्वभावतस्तन्नियामकवे धर्मिणो घटादेस्स्वभावतस्तनियामकत्वाभिधानं कधं सङ्गच्छते इति वाच्यम्, धर्मधर्मिणोः कश्चित्तादात्म्याऽङ्गीकारेण तथावक्तुं सुचचत्वात् । न हि तयोः सर्वधा भेद उपलभ्यते । न चैवमपि धर्मिणोऽनुवृत्तिस्वभावत्वमेव ब्यावृत्तिस्वभावत्वमेव वा स्यात्, न तु तदुभयस्वभावत्वं, विरोधादिति वक्तव्यम्, विशेषात्मना व्यावृत्तस्यैव धर्मिणः स्वरूपेण सामान्यात्मनाउनुवृत्तस्योपलम्भन तयोः कथश्चिदविरोधादित्याशयेनाऽन्ह- धर्मीति ।
अनेकान्तवादिमते वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वम्, तत्र सामान्यमनुवृत्तिप्रत्ययाऽसाधारणहेतुर्वस्त्वन्शः । भवति खलु । भिन्नप्रदेशकनानाव्यक्तिविशेष्यकैकत्वप्रकारकप्रतीतौ तादात्म्येन तिर्यक्सामान्य हेतुः । एकप्रदेशकनानापर्यायव्यक्तिविशेष्यकैक| त्वप्रकारकप्रतीता च तादात्म्येनोव॑तासामान्यं हेतुरित्येतद्विविधमण्यनुवृत्तिप्रत्ययाऽसाधारणकारणम् । तदुक्तं परीक्षामुखे माणिक्य
लिया जाय तो भी विशेषणतात्व तो सभी विशेषणता में अनुगत होने से उसका विशेषणतात्वरूप से अनुगत हो सकता: है। अतः व्यभिचार का भी कोई अवकाश नहीं है। दूसरी बात यह है कि . घट में कंबुग्रीवादि को देख कर परम्परासम्बन्ध से कम्युग्रीवत्व आदि जाति का भान न होने पर भी 'यह घट है, वह यट है' इत्याकारक अनुगत बुद्धि उत्पन्न होती है, यह देखा गया है । इस तरह जाति का भान न होने पर भी अनुगत बुद्धि उत्पन्न होती है, तब तो यही मानना मुनासिब ।। है कि घटादि स्वभाव से ही अनुगत बुद्धि का नियामक है, क्यों अतिरिक्त घटत्व की कल्पना का कष्ट उठाया जाए ?
अथै. इति । यहाँ इस शंका का कि > 'घटत्वरूप से घट यदि अनुगत बुद्धि का जनक है, तो फिर एतद्घटत्वरूप से भी वह क्यों 'अयं श्रदः अयं घटः' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का जनक नहीं है ? क्योंकि स्वभाव का तो त्याग नहीं होता है" - समाधान यह है कि प्रत्येक घटादि व्यक्ति में तुल्य परिणाम और अतुल्य परिणामात्मक धर्म ही स्वभाव से अनुमत बुद्धि और व्यावृत्त बुद्धि का निवामक है, धर्मी घट आदि तो कथंचित् अनुवृत्ति और कथंचित् व्यावृत्ति उभय स्वभाव वाला होता है । एतद्घटत्त्व धर्म व्यावृत्ति का नियामक है, क्योंकि वह अतुल्यपरिणामात्मक धर्म है। अतः एक ही व्यक्ति तुल्य परिणाम से अनुगत बुद्धि का एवं अतुल्य परिणति से व्यावृत्त बुद्धि की जनक है - यह फलित होता है । इस विषप की अधिक स्पष्टता इस लोक के उत्तरार्ध की अन्य व्याख्या में आगे हो जायेगी।
* तिर्यसामान्य की भाँति ऊर्वतासामान्य वास्तविक *** ___अर्थव. इति । यहाँ इस शंका का कि -> "प्रतिव्यक्ति तुल्य परिणाम को अनुगत प्रतीति का नियामक मानने पर भी उचंतासामान्य की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है. क्योंकि कांचनत्वादिस्वरूप तिर्यक् सामान्य से ही अंगद, कुण्डल आदि
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४७९ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्ड: २ का ७ * तिर्यगूर्यतासामान्यस्थापनं परीक्षामुखसंवादः
'काञ्चनं काथनमित्यनुगतप्रतीतेर्निर्वाहादिति चेत् ? त्र, 'यदेव काचनमङ्गदीभूतं तदेव कुण्डलीभूतमित्यादिप्रतीतीनामेकाकारत्वस्योर्ध्वतासामान्यं विनाऽनुपपत्तेः, विसदृशपरिणतिषु तिर्यक् सामान्यानवकाशाच्च । किञ्च प्रतीतावनुगतत्वं
====
=
एकविषयनिष्ठापरविषयभेदानवच्छेदकावगाहित्वं,
->
नन्दिनाऽपि 'सामान्यं द्वेधातिर्यगूर्ध्वताभेदात् । सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्ड-मुण्डादिषु गोत्ववत् । पराऽपरविवर्त्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिष्विति - (प.मु. ८ / ३ - ४-५ सूत्र ) ।
अत्र पर: शङ्कते - अथेति । एवमपि समानाऽसमानपरिणामयोरेव स्वभावतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकत्वाऽङ्गीकारेऽपि, उतासामान्ये तिर्यक्सामान्याऽतिरिक्ते मानाभावः । तर्हि पराऽपरविवर्ताकलिते द्रव्ये कथं अनुगतबुद्धेः निर्वाह : ? इत्यादाङ्गायामाह- अङ्गद-कुण्डलादी काञ्चनत्वरूपतिर्यक्सामान्येनैव 'काञ्चनं काञ्चनमित्यनुगतप्रतीतेः निर्वाहात् = उपपत्तिसम्भवात् पराऽपराऽङ्गदकुण्डलादिपरिणामव्यापिद्रव्यात्मको र्ध्वतासामान्यकल्पनमनतिप्रयोजनम्, गौरबादिति शङ्काशयः ।
प्रकरणकारः तन्निराकुरुते - नेति । 'यदेव कावनमङ्गदीभूतं तदेव कुण्डलीभूतमित्यादिप्रतीतीनां एकाकारत्वस्य = अभिन्नद्रव्यावगाहित्तस्य तासामान्य अङ्गदकुण्डलपर्यायव्यापि द्रव्यं विना अनुपपत्तेः पूर्वद्रव्यनाशानन्तरं नवीनद्रव्यो| पादाभ्युपगमे एकप्रदेशकनानापर्यायविशेष्यकैकत्वप्रकारकप्रतीतेरसम्भवात् । न च पूर्वकाञ्चननाशानन्तरमभिनवकाञ्चनोत्पत्तिस्वीकारेऽपि काञ्चनत्वरूपतिर्य. काका मुशतिवाद, तथापि काष्ठ- दण्डस्य भस्मीभवने 'यदेव | काष्ठं दण्डीभूतं तदेव भस्मीभूतमिति प्रतीतेरेकाकारत्वस्यानुपपत्तेरित्याशयेनाह - विसदृशपरिणतिपु तिर्यक्सामान्यानवकाशाच । न हि प्रकृते काष्ठत्वस्य तिर्यक्सामान्यत्वं सम्भवति । इत्थञ्च विकार्य कर्मस्थलानुरोधेनाऽयन्ततो गत्वोर्ध्वतासामान्याभ्युपगमस्याssवश्यकत्वमिति फलितम् ।
किचेति । प्रतीतो
=
Gra
प्रतीतिवृत्ति अनुगतत्वं
में 'यह सुवर्ण है' इत्याकारक अनुगत प्रतीति हो सकती है" समाधान यह है कि जो सुवर्ण अंगद नामक आभूषण था, वही सोना अभी कुंडल बन गया है' इत्याकारक प्रतीतियों में एकाकारता = एकद्रव्यविपयकत्व की उपपत्ति ऊर्ध्वता सामान्य के बिना नामुमकिन है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि एक काल में विभिन्न व्यक्तियों में जो अनुवृत्ति बुद्धि होती है, वह प्रतिव्यक्ति समानपरिणतिस्वरूप तिर्यक् सामान्य की वजह होती है । जैसे शाबलेय, बाहुलेय आदि अनेक गाय में एक ही काल में 'यह गाय है, यह भी गाय है' इत्याकारक जो अनुवृत्ति बुद्धि होती है, वह सास्नादिमत्त्व आदि समानपरिणामात्मक तिर्यक्सामान्य की वजह होती है। मगर एक ही द्रव्य में भिन्न भिन्न काल में अलग-अलग पर्याय होते हुए भी जो एकाकार प्रतीति होती है, उसका नियामक कवंतासामान्य है । जैसे एक ही सुवर्ण पूर्व काल में बाजुबंध = कंगन स्वरूप था बाद में कुण्डल बनता है तब यह वही सुवर्ण है जो पूर्व में कंगन था और अभी कुण्डल बन गया है' ऐसी एकाकार प्रतीति होती है, वह कंगन आर कुण्डल पूर्वापरपर्यायच्यापक सुवर्ण द्रव्य की वजह ही हो सकती है । पूर्व कंगनपर्याय वाले सुवर्ण का नाश और कुण्डलपयांचा सुवर्ण की निष्पत्ति मानने पर दोनों में अभेदावगाहिनी प्रतीति नहीं हो सकती । इसलिए उता सामान्य का अंगीकार करना आवश्यक है । दूसरी बात यह है कि यदि तिर्यक् सामान्य से अतिरिक्त ऊर्ध्वता सामान्य का स्वीकार न किया जाय न काम की भस्म होने पर 'जो काष्ठ (= लकडा) दण्ड था, वही भस्म हो गया' इत्याकारक प्रतीति कैसे हो सकेगी ? तिर्यक् सामान्य का मतलब है तुल्य परिणाम । विसदृश परिणाम वाले द्रव्य में सदृशपरिणतिस्वरूप तिर्यक् सामान्य का अवकाश नहीं है । वहाँ तो दण्ड और भस्म स्वरूप पूर्वापर परिणाम के व्यापक पृथ्वी द्रव्यस्वरूप ऊर्ध्वतासामान्य का अंगीकार, इच्छा हो या न करना ही पड़ेगा । इसमें कोई अपील नहीं है ।
[ अनुगतत्व का निर्वचन []
MAY
एकविषयनिष्ठापरविषयभेदानवच्छेदकावगाहित्वमिति । समान
.
किश्व इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि प्रतीति में रहने वाला अनुगतस्त्र एकविपयनिष्ठ अपरविषयभेद की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक के अवगाहित्यस्वरूप है, जिसका निर्वाहक तिर्यक् सामान्य की भाँति ऊर्ध्वता सामान्य भी निराबाधरूप से है । आशय यह है कि शाबलेय, बाहुलेय, खण्ड मुण्ड आदि विविध गाय में 'यह गाय है, यह भी गाय है' इत्याकारक जो प्रतीति होती है; वह शाबलेय आदि गाय में रहे हुए बाहुलेय आदि गाय के भेद की प्रतियोगिता के
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व्य-गुणपर्यायसाधारणोवंतासामान्यस्वीकारः * | तन्निवाहकत्वञ्च तिर्यक्सामान्यस्येवोर्खतासामान्यस्याऽप्यक्षतमिति कि ।
___ रायपीहशोर्वतासामान्यत्वं चिरस्थायिनां गुणपर्यायाणामपि सम्भवति तथापि 'पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्खतासामान्यमि' (प्र.न.त.१/१) त्या द्रव्यपदं धर्मिपरमिति न कोऽपि दोषः ।
=* जयला कालीनेषु विभिन्नद्रव्येषु खण्ड-मुण्डादिषु 'अयं गौरयमपि गारि'ति प्रतीतेः खण्डनिष्ठमुण्डभेदानवच्छेदकीभूतगोत्वावगाहिन्या अनुगतत्वनिर्वाहकत्वं यथा तिर्यक्रम्गमान्यस्य तथैव मृत्पिण्ड-स्थास-कोश-शिवकादिषु एकद्रव्यपर्यायषु पूर्वापरकालभाविषु 'अयं मानों यमपि मार्त' इति प्रतीतेः मृत्पिण्डादिनिष्ठस्थासादिभेदनिरूपितप्रतियागितानवच्छेदकीभूतमृत्परिणः गावगाहिन्या अनुगत| त्वनिर्वाहकत्वं पूर्वापरपरिणामव्यापिमद्रव्यलक्षणोतासामान्यस्यापि निरावामिनि न तिसामान्यना नासामान्यस्याथासिद्धिरित्याशयेनाह- तनिर्वाहकत्वं च - निरुक्तानुगतत्वोपपत्त्यनुकूलत्वं हि सदशपरिणामलक्षणस्य तिर्यमामान्यस्येव उर्वतासामान्यस्याऽप्यक्षतमिति । अधिकं बुभुत्सुभिः पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूवंतासामान्य कट-कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति' (प्र.न.त.५/५.) इत्ति प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रन्याख्या द्रष्टव्या ।
यद्यपीति । 'तधापी त्यनेनाः स्याऽन्वयः । ईदृशोवतासामान्यत्वं = प्रतीतिनिष्ठानुगतत्वनिर्वाहकनिरुक्तीवंतासामान्यत्वं, चिरस्थायिनां गुणपर्यायाणां रूप-रसादि-मनुष्यत्व-देवत्वादिरूपाणां अपि सम्भवति नीलरूपनाशानन्तरं रक्तरूपांत्पादेऽपि रूपपरिणामाविनाशात् बालाद्यवस्थानाशानन्तरं युवाद्यवस्थोत्पादेऽपि मनुष्यपर्यायस्य तदुभयव्यापित्वात् । अत एव 'यदेव रूपं नीलतया परिणतमासीत् तदेव रक्तीभूतं' य एव मनुष्य बाल आसीत् स एव युबा जात' इत्याद्यकाकारप्रतीतेरप्युपपत्तिः । ततश्च पूर्वापरपरिणामव्यापिद्रव्यस्येव पूर्वापरपरिणामव्यापकगुणपर्यायाणामप्यूवंतासामान्यत्वं स्वीकर्तव्यं स्यात् । तथा च सूत्रविरोधः प्रसज्येतेति भावः । सनाधत्ते - तथापीति 'पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमवंतासामान्यमि'त्यत्र प्रमाणनयतत्त्वा. लोकालकारसूत्रे, संपूर्ण सूत्रञ्चन पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यं कटक-कङ्कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति । अत्र सूत्रे द्रव्यपदं धर्मिपरं द्रव्यपदस्य धमिमि लक्षणायाः स्वीकारात् न कोऽपि दोषः अपसिद्धान्तादिलक्षणः । एतेन 'ऊर्ध्वतासामान्य तु द्रव्यमेव (रत्ना,अब.७/६) इति रत्नाकराबतारिकावचनमपि व्याख्यातम् ।
स्वसम्प्रदायानुरोधेनैकन्येपर्वतासामान्येन अनेकद्रव्येषु च तिर्यक्सामान्येनानुगतप्रतीतिव्यवहारो प्रदर्श्य साम्प्रतं शुक्ला| म्बरांशरामणिः प्रकरणकार आशाम्बरसम्प्रदायानुरोधेन तदुपपत्तिमाह- दिगम्बरास्त्विति । तत्रये ह्यस्तित्वं द्विविध स्वरूपा
अवच्छेदक बाहुलेयत्व आदि का अवगाहन नहीं करती है, किन्तु तदनवच्छेदक सदृश परिणाम का अवगाहन करती है । तादृश अवगाहित्य ही प्रतीति में रहने वाला अनुगतत्व है, जिसका निर्वाहक शावलेय, बाहुलेय आदि गाय में रहा हुआ सदृशपरिणामात्मक तिर्यक्सामान्य है 1 इसी तरह एक ही सुवर्ण में, जो पूर्व में कंगनपरिणाम वाला था और अभी कुण्डलपरिणाम वाला है, होने वाली 'जो सुवर्ण कंगन था वही कुण्डल बना है' इत्याकारक प्रतीति भी कंगननिष्ट कुण्डलभेद की प्रतियोगिता के अवच्छेदक सुवर्णपरिणाम का अवगाहन करती है । तादृश अवगाहिता = विपयिता ही उस प्रतीति में रहा हुआ अनुगतत्व है, जिसका निर्वाहक कंगन-कुण्डलात्मक पूर्वापरपरिणाम में अनुगत - व्यापक सुवर्ण द्रव्यात्मक ऊर्वतासामान्य ही है न कि तिर्यक् सामान्य क्योंकि कंगन और कुण्डल सदृश परिणाम नहीं है किन्तु विसदृश परिणाम है। इस तरह फलित होता है कि प्रतीतिनिष्ठ निरुक्त अनुगतत्व की निर्वाहकता तिर्यक् सामान्य की भाँति ऊर्ध्वता सामान्य में भी अक्षत = निरावाध है । इस विषय ' में अधिक विचार भी किया जा सकता है, यह तो एक दिग्दर्शन है - इस बात की सूचना देने के लिए प्रकरणकार ने | दिक् शब्द का प्रयोग किया है। अधिक जिज्ञासु स्याद्वादात्नाकर आदि ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं।
.पा. इति । यद्यपि प्रतीति में रहने वाले निरुक्त अनुगतत्व का निर्वाहक ऊर्ध्वता सामान्य पूर्वापरपरिणामव्यापक द्रव्य की भाँति चिरस्थायी गुण एवं पर्याय में भी मुमकिन है तथापि 'पूर्वापरपरिणामसाधारणं इन्यं ऊर्ध्वतासामान्य' इस प्रमाणनयतत्वालोकालंकारसूत्र में उल्लिखित द्रव्यशब्द की धर्मी में लक्षणा अभिमत होने से तादृश द्रव्य की भाँति चिरस्थायी गुण एवं पर्याय का भी ग्रहण हो सकता है, क्योंकि वे भी पर्याय विशेष के धर्मी हैं एवं पूर्वापरपरिणाम में व्यापक = साधारण हो सकते हैं । अतः गुण, पर्याय का भी ऊर्खतासामान्यविधया ग्रहण होने से कोई दोप नहीं है ।
* दिगाप्रदायानुसार अनुगा प्यवहार की उपपत्ति
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४८१ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का.७ . अमृतचन्द्रव्याख्योपदर्शन*
दिगम्बरास्तु एकद्रव्येषु घटादिषु स्वरूपास्तित्वेनाऽनुगतव्यवहारः । स्वरूपास्तित्व पयार्यरुत्पाद-व्यय-धान्यैश्च द्रव्यस्य स्वभाव एव । तदक्तं 'सब्भावो हि सहावो.
जएहिं चित्तेहिंदव्चस्स सव्वकालं उम्पादन्वयधवत्तेहिं॥(प.सा.२/8) "इति। अयमर्थः द्रव्यादिचतुष्टयेन द्रव्यात्प्रथगनपलभ्यमानैः कर्त-करणाधिकरणरूपेण गणानां पर्यायाणाच स्वखपमुपादाय एवर्तमानपवृतियुक्तस्य दन्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तः गुणे: पर्यायैश्च यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । तथा द्रव्यादिचतुष्टयेन गुणेभ्यः पर्या
- - जयलता है। स्तित्वं सादृश्यास्तित्वञ्च । प्रथमं होकद्रव्येष्वनुगतधीव्यवहारकारणं द्वितीयञ्चानेकद्रव्येषु शाबलेयबाहुलेयादिषु अनुगतप्रतीतिप्रयोगकाराम । तत्संबादार्थ कुन्दकुन्दस्वामिरचितप्रवचनसारगाथामेवोपदर्शयति- सम्भावो इति । तत्सम्प्रदायावलम्बिव्याख्यानानुरोधेन तां विवृणोति • अयमर्थ इति । श्रोतृगामुपकाराय दृष्टान्तादिगभी दिगम्बरीयव्याख्यामेव वयं दर्शयामः ।
अब अमृतचन्द्रीयच्याख्या -> 'अस्तित्वं हि किल न्यस्य स्वभावः, तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकयैकरूपया वृत्त्या नित्यप्रवृत्तत्वाद् विभावधर्मबैलक्षण्याच्च भावभावबद्भावान्नानात्वेऽपि प्रदेशभेदाभाबाद्रव्येण सहकत्वमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एवं कथं न भवेत् ? तत्त द्रव्यान्तरागामिव द्रव्यगणपर्यायाणां न प्रत्येक परिसमाप्यते, यतो हि परस्परसाधितसिद्धियुक्तत्वात्तेषामस्तित्वमेकमेव, कार्तस्वरवत् । यधा हि द्रव्येण वा क्षेत्रण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात् । पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणाञ्च स्वरूपमुपादाय प्रवर्त्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य । कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपविश्च यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः । तथाहि द्रव्येण || वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्त्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैः गुणैः पर्यायश्च यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा पीततादिगुणभ्यः कुण्डलादिपर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्त्तमानप्रवृत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपयाँयैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधन| तया तेः निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तः गुणः पयायैश्च निष्यादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैः निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः । किञ्च यथाहि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कुण्डला गदपीतताद्युत्पादत्र्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्त्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैः कुण्डलाङ्गद-पीतताद्युत्पादत्र्ययध्रौव्ययंदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः । तथाहि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादन्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्त्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तरुत्पादव्ययध्रौव्यैर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कुण्डलाऽङ्गदपीतताद्युत्पादज्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तः कुण्डलाऽङ्गदपीतताद्युत्पादन्ययध्रीव्यनिष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वस्स्य
दिग. इति । यहाँ तक वेताम्बर जैनसम्प्रदाय के अनुसार प्रतीतिनिष्ठ अनुगतत्व के व्यवहार का निरूपण करने के पश्चात् अब प्रकरणकार श्रीमद्जी दिगम्बराम्नाय का निरूपण करते हैं । दिगम्बर जैन मनीषियों का यह मन्तव्य है कि - एक ही द्रव्य से निप्पन्न घट, कपाल, कपालिका आदि में जो अनुगत व्यवहार होता है कि - 'जो मिट्टी घट थी वही मिट्टी अब कपाल बन गई है। इसका नियामक स्वरूपास्तित्त्व है। स्वरूपास्तित्व का मतलब है अपने गुण-पर्याय एवं उत्पादव्यय-धौन्य से द्रव्य के सद्भावात्मक द्रव्यस्वभाव । इसका हवाला देते हुए प्रकरणकार कुंदकुंदस्वामी के प्रवचनसार की गाथा बताते हैं, जिसका शब्दार्थ है 'विविध गुण, पर्याय एवं उत्पाद-व्यय-ध्रीव्य से द्रव्य का सर्व काल में सद्भाव = सत्ता है वही द्रव्य का स्वभाव है । इसका भावार्थ यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से गुण एवं पर्याय, द्रव्य से पृथक् = भिन्न उपलब्ध नहीं होते हैं। जैसे कि घट से पृथक् पट आदि की उपलब्धि होती है, वैसे घट से पृथक् पटीय नीलरूपादि गुण एवं जलाहरणादि पर्याय की उपलब्धि नहीं होती है, क्योंकि द्रव्य भी कर्ता, करण, अधिकरणविधया गुण एवं पर्याय के स्वरूप १. सदमाना हि स्वभाची गुणः सह. पायश्चित्रैः । द्रव्यरूप सर्व कारगुत्पादश्ययधीयः ।।
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* जयसेनीयन्त्र्याख्योपदर्शनम्
येभ्यश्व पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्मादिरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणैः पर्यायैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैः निष्पादितं यदस्तित्वं स
स्वभावः ।
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एवं द्रव्यादिचतुष्टयेन द्रव्यात्पृथमनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृतियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पतियुक्तॐ जयलता है
मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभाव:, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वोत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैरुत्पादव्ययश्रीन्यैः निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया दितं पदलिप (प्रा.२/४, अ.व्या. पृ. ११५) इत्येवं वर्तते ।
=
=
अत्र जयसेनीयव्याख्या त्वेवम् 'सहावी हि स्वभावः स्वरूपं भवति हि स्फुटम् । कः कर्ता ? सभावो = सद्भावः शुद्धसत्ता शुद्धास्तित्वम् । कस्य स्वभावो भवति ? दव्वस्स = मुक्तात्मद्रव्यस्य । तच स्वरूपास्तित्वं यथा मुक्तात्मनः सकाशात्पृथग्भूतानां पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां शेषजीवानाञ्च भिन्नं भवति न च तथा कैः सह ? गुणेहिं सह पज्जेहिं केवलज्ञानादिगुणः किञ्चिदून चरमश (राकारादिस्वकीयपययश्च सह । कथम्भूतः ? चित्ते हिं सिद्धगतित्वमतीन्द्रियत्वमकायत्वमयोगत्वमवेदत्वमित्यादिबहुभेदभिन्नैः न केवलं गुणपर्यायैः सह भिन्नं भवति । उप्पादव्ययधुवत्ते हिं शुद्धात्मप्राप्तिरूपमोक्षपर्यायस्पोत्पादो रागादिविकल्परहितपरमसमाधिरूपमोक्षमार्गपर्यायस्य व्ययस्तथा मोक्षमार्गाधारभूतान्वयद्रव्यत्वलक्षणं श्रीव्यं चेत्पुक्तलक्षणोत्पादव्ययश्रीव्यैश्व सह भिन्नं न भवति । कथम् ? सव्वकालं = सर्वकालपर्यन्तं यथा भवति । कस्मात्तैः सह भिन्नं न भवतीति चेत् ? यतः कारणाद् गुणपर्यायाऽस्तित्वेनोत्पादव्ययश्रीव्यास्तित्वेन च कर्तृभूतेन शुद्धात्मद्रव्यास्तित्वं साध्यते, शुद्धात्मद्रव्यास्तित्वेन च गुणपर्यायोत्पादव्ययश्रीव्यास्तित्वं साध्यत इति । तद्यथा यथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सुवर्णादिभिन्नानां पीतत्वादिगुण- कुण्डलादिपर्यायाणां सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव सुवर्णस्य सद्भावः तथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परमात्मद्रव्यादभिन्नानां केवलज्ञानादिगुण-किश्चिदूनचरमशरीराकारादिपर्यायाणां सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यस्य सद्भावः । यथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः पीतत्वादिगुण - कुण्डलादिपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव पीतत्वादिगुण-कुण्डलादिपर्यायाणां स्वभावो भवति तथा स्वकीयद्रव्य क्षेत्रकालभावैः केवलज्ञानादिगुण - किश्विद्नचरमशरीराकारादिपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य मुक्तात्मद्रव्यस्य सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव केवलज्ञानादिगुण-किञ्चिदूनचरमशरीराकारादिपर्यायाणां स्वभावो ज्ञातव्यः । अथेदानीमुत्पादव्ययश्रीव्याणामपि द्रव्येण सहाभिन्नास्तित्वं कथ्यते । यथा स्वकीयद्रव्यादिचतुष्टयेन सुवर्णादभिन्नानां कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायविनाश- सुवर्णत्वलक्षणश्रीव्याणां सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव सुवर्णसद्भावः तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन परमात्मद्रव्यादभिन्नानां मोक्षपर्यायोत्पाद-मोक्षमार्गपर्यायव्यय-तदुभया धारभूत परमात्मद्रव्यत्वलक्षणश्रीत्र्याणां सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यस्वभावः । यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्यय सुवर्णत्वलक्षण| श्राव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव कटकपर्यायोत्पाद- कङ्कणपर्यायत्र्यय-तदुभयाधारभूत सुवर्णत्वलक्षणश्रीव्याणां सद्भावः तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन मोक्षपर्यायोत्पाद-मोक्षमार्गपर्यायव्यय-तदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षण
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को ले कर होने वाली प्रवृत्ति से युक्त होता है तथा गुण एवं पर्याय की निप्पत्ति भी द्रव्यास्तित्व से ही निप्पन्न है । इस | तरह अपने से अपृथग्भूत गुण एवं पर्याय से द्रव्य का जो अस्तित्व है, वही द्रव्य का मूलभूत स्वभाव है । जैसे द्रव्य से पृथक् = स्वतंत्र गुण पर्याय की उपलब्धि नहीं होती है ठीक वैसे ही द्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा गुण एवं पर्याय से स्वतन्त्र
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रहित केवल द्रव्य की भी उपलब्धि नहीं होती है, क्योंकि कर्ता-करण अधिकरणात्मना द्रव्य के स्वरूप को ले कर ही गुण एवं पर्याय की प्रवृत्ति होती है और ऐसे गुण पर्याय से ही द्रव्यनिप्पत्ति होती है। द्रव्य के मूलसाधनविधया गुण एवं पर्याय से जो द्रव्यास्तित्व निप्पन्न होता है, वही द्रव्य का स्वभाव है । जैसे द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा द्रव्य से पृथक् = शून्य गुण एवं पर्याय की उपलब्धि नहीं होती है, ठीक वैसे ही द्रव्यादि चतुष्क की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और श्रीव्य की भी अन्य से पृथक् उपलब्धि नहीं होती है, क्योंकि उत्पाद-व्यय- श्रीव्य के स्वरूप को ले कर ही द्रव्य की प्रवृत्ति का प्रारंभ होता है और द्रव्य के अस्तित्व से ही उत्पाद व्यय - ध्रीव्य की निष्पत्ति को अवकाश मिलता है। अपृथग्भूत उत्पादव्यय श्रीव्य से द्रव्य का जो अस्तित्व = सद्भाव है, वही द्रव्य का स्वभाव है। जैसे द्रव्यादिचतुष्क की अपेक्षा उत्पादादि
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४८३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड; २ - का. * मतभेदेन स्वरूपास्तित्व-सादृश्यास्तित्वविचारः *
रुत्पादव्ययधोव्यैर्य दस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । तथा द्रव्यादिचतुष्टयेन उत्पादव्ययधोव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्मादिरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तरुत्पादव्यय-धान्य: निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तेर्निध्यादितं यदस्तित्वं स स्वभाव इति । तच्च स्वरूपाऽस्तित्वमिति गीयते । परस्परकरम्बेितशक्त्या निष्पाद्यनिष्पत्तिमदभाववतामस्तित्वं स्वरूपास्तित्वमिति परमार्थः ।
अनेकद्रव्येष्वनुगतव्यवहारस्तु साहश्यास्तित्वेन । तदुक्तं - 'इह विविहलक्खणाणं लक्वणमेगं सदित्ति सव्वगदं । उदिसदा खलु धम्म जिणवरखसहेण पण्णतं' । (प्र.सा.२/१) इति ।
------ * गयतता *--....------- ध्रौव्येभ्यः सकाशादभित्रस्य परमात्मद्रव्यस्य सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव मोक्षपर्यायोत्पाद-मोक्षमार्गपर्यायव्यय-तभयाधारभूतमुक्तात्मन्यत्वलक्षणोध्याणां स्वभाव इति । एवं यथा मुक्तात्मद्रव्यस्य स्वकीयगुणपर्यायोल्पादव्ययश्रीन्यैः सह स्वरूपास्तित्वाभिधानमवान्तरास्तित्वमभिन्न व्यवस्थापितं तथैव समस्त शेषद्रव्याणामपि व्यवस्थापनीयमित्यर्थः (प्र.सा.ज.टी.२/४- पृ.११७) ।
एकद्रव्यपर्यायेषु स्वरूपास्तिल्वेनानुगतव्यबहारमुपपाद्यानेकद्रव्येषु तदुपपत्त्यर्थमाह-अनेकद्रव्येषु शाबलेय- चाहुलेयादिष्वेककालिकेषु अनुगतव्यवहारस्तु सादृश्यास्तित्वेनेति । अत्र प्रवचनसारगाथामाह- तदुक्तं- इहेति । अत्र तत्त्वप्रदीपिकावृत्तिरेवं -> 'इह किल प्रपञ्चितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो व्यावृत्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभूतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वद्रव्यागामस्तमितवैचित्र्यप्रपञ्च प्रवृत्य वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्यलक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेकं स्वल्वरबोद्भव्यम । एवं 'सदित्यभिधानं 'सदिति परिच्छेदनञ्च सर्वार्थीपरामर्श स्यात् । यदि पुनरिंदमेव न स्यालदा किश्चित्सदिनि किश्चिदसदिति किश्चित्सच्चाइसचेति किश्चिदवाच्यमिति च स्यात् । तत्तु विप्रतिषिद्ध| मेवाऽप्रसाध्यश्चैतदनोकहवत् । यधा हि बहूनां बहुविधानामनो कहानामात्मीयस्यात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावयम्भनात्तिष्ठन्नानात्वं, सामान्यलक्षणभूतन सादृश्योझासिनानोकहत्यनात्थापितमेकत्वं तिरियति । तथा बहूनां बहुविधानां द्रव्याणामात्मीयस्यात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना 'सदि' त्यस्य भावेनोत्थापितमेकल्यं तिरियति । तथा च तेषामनीकहानां सामान्यलक्षाणभूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्येनोत्यापितेनकत्वेन तिरोहितममि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपाऽस्तित्वावटम्भेनात्तिष्ठन्नानात्वमुचकास्ति, तधा सर्वव्याणामपि सामान्य लक्षणभुतेन सादृश्योद्भासिना 'सदित्यस्य भावनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भनोत्तिष्ठन्नानावमुचकास्ति' - (प्र.सा.अ.२/गा., अ.टी.पृ.११८) ।
अत्र तात्पर्यवृत्तिस्त्वेवं -> 'इहं विविहलक्वणाणं = इह लोके प्रत्येकसनाभिधानेन स्वरूपास्तित्वेन बिबिधलक्षणानां : भिन्नलक्षणानां चेतनाचेतनमूमनपदार्थानां, लक्वणमेगं तु एकमरखण्डलक्षणं भवति । किं ? कर्तृ सदि' ति = सर्वं सदिति
की द्रव्य से पृथक् उपलब्धि नहीं होती है, ठीक वैसे ही द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा उत्पाद-व्यय-धीव्य से स्वतंत्र - पृथक् = रहित द्रध्य की भी उपलधि नहीं होती है, क्योंकि काकरण- अधिकरणविषया द्रव्यस्वरूप को ग्रहण कर के ही उत्पाद-व्यय-ौन्य की प्रवृत्ति प्रवर्तमान होती है और ऐसे उत्पाद-व्यय-श्रीव्य से ही द्रव्य की निप्पत्ति का अस्तित्व होता है। इन्य के मूलसाधनविधया ऐसे अपृथग्भूत उत्पाद-व्यय-श्रीन्य से जो द्रव्यास्तित्व निप्पन्न होता है, वह द्रव्य का स्वभाव है, वही स्वरूपास्तित्वमब्द से अभिप्रेत है । इसका तात्पर्य यह है कि परस्परमिथित शक्ति से निप्पन्न होने वाली निप्पनि जिनमें होती है, उन भावों के आश्रय का जो अस्तित्व है वही स्वरूपास्तित्व है । इसी स्वरूपास्तित्व की वजह एक द्रव्य के विभिन्न पर्याय में अनगत व्यवहार होता है।
अनेकद्र, इति । जैसे विभिन्न काल की अपेक्षा विविध पर्याय वाले एक ही द्रव्य में अनुगत प्रतीति एवं व्यवहार होता है, ठीक वैसे ही एक काल में अनेक द्रव्य में भी अनुगत प्रतीति एवं व्यवहार होता है । प्रथम काल में स्वरूपास्तित्व नियामक बनता है, और द्वितीय स्थल में सादृश्यअस्तित्व नियामक होता है । एक ही काल में नील, पीत, रक्त आदि अनेक घट में 'यह घट है, यह भी घट है' इत्यादि अनुगत व्यवहार उनके सादृश्यास्तित्व से होता है। इस विषय में प्रवचनसार १. इहै. विविधलक्षगानां लक्षणमेकं सदिति सर्वगतम् । उपदिशाना रखलु धर्मं जिनवरधभण प्राप्तम् ॥
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* समलिनागा,व्यवहारविचार: * |
सादृश्यास्तित्वानामपि प्रतिव्यक्ति स्वरूपभेदात् स्वरूपास्तित्वानामिव नाऽनेक- | द्रव्यानुवर्तकत्वं स्यादिति चेत् ?
सत्र केचित् सत्यपि प्रतिव्यक्ति स्वरूपभेदाऽविशेधे सादृश्यास्तित्वेनैव अनेकद्रव्येष्वनुगतधी: ज तु स्वरूपास्तित्वेनेति स्वभावस्यैव विजृम्भितमित्याहुः । वस्तुत: स्वरूपास्तित्वं प्रतिव्यक्ति अनेकमेव । सादृश्यास्तित्वं पुनरेकमपीति भित्र
= = = =* जयलता. ==== महासत्तारूपम् । किमविशिष्टं ? सञ्चगयं = सङ्करव्यतिकरपरिहाररूपस्वजात्यविरोधेन शुद्धसङ्ग्रहनयेन सर्वगतं सर्वपदार्थव्यापकम् । इर्द केनोक्तम् ? उपदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं = धर्म वस्तुस्वभावसङ्ग्रहमुपदिशता खलु स्फुटं जिनवम्वृषभेण प्रज्ञप्तमिति । तद्यथा - यथा सर्वे मुतात्मानः सन्तीत्युक्ते सति परमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादभरितावस्थलोकाकाशप्रमित शुद्धाऽसव्येयात्मप्रदेशस्तथा किञ्चिदूनचरमशरीराकारादिपर्यायैश्च सङ्करब्यतिकरपरिहाररूपजातिभेदेन भिन्नानामपि सर्वेषां सिद्धजीवानां ग्रहणं भवति तथा 'सर्वं सत्' इत्युक्ते सङ्ग्रहनयेन सर्वपदार्थानां ग्रहणं भवति । अथवा ‘सेनेयं बनमिदिमि'त्युक्ते अश्वहस्त्यादिपदार्थानां निम्बाम्रादिवृक्षाणां स्वकीयस्वकीयजातिभेदभिन्नानां युगपद् ग्रहणं भवति तथा 'सर्वं सदि'त्युक्ते सति सादृश्यसत्ताभिधानेन महासत्तारूपेण शुद्धसङ्ग्रहनयेन सर्वपदार्थानां स्वजात्यविरोधेन ग्रहणं भवतीत्यर्थः <- (प्र.सा.२/५. ज.टी. पृ.११८) इति ।
पर शङ्कते- अथेति । अनेकद्रव्येष्वनुगतव्यवहारनिर्वाहकत्वेनाऽभिमतानां सादृश्याऽस्तित्वानामपि, किं पुनरनेकद्रव्याणां ? इत्यपिशब्दार्थः, प्रतिव्यक्ति = व्यक्ती व्यक्तौ स्वरूपभेदात्, स्वरूपास्तित्वानामिव नानेकद्रव्येष्वनुवर्तकत्वं स्यात् । तदननुगतत्वे चानेकद्रव्येष्वनुगतव्यबहारोऽपि कथं सङ्गच्छेत ? न हि यदेव सादृश्यास्तित्वं शाबलेये तदेव बाहुलेयादौ, अस्तित्वस्य स्वाश्रयरूपत्वेन तद्भेदेऽस्तित्वभेदस्य न्याय्यत्वात् । यदि च सादृश्यास्तित्वानुगतत्वविरहेऽपि तेनाऽनेकद्रव्येष्वनुगतव्यवहारः स्यात, तर्हि स्वरूपास्तित्वेनवैकद्रव्यपर्यायेष्विवानेकद्रव्येष्वनुगतव्यवहारोऽस्तु किं सादृश्यास्तित्वकल्पनया ! इत्यथाशयः ।।
आदी केषाञ्चिन्मतेन समाधानमाविष्करोति. अत्र केचिदिति । आहुरित्यनेनास्यान्वयः । सत्यपीति 1 तृणादी दाह्य - त्वाविशेषेऽपि ज्वलनस्यैव तदाहकत्वं न तु जलस्य, पावकादी दाहकत्वाविशेषेऽपि तृणादेरेव तद्दाह्मत्वं न त्वाकालादेरित्यत्र यथा तथास्वभावमहिमा तथैव प्रतिव्यक्ति शाबलेयवाहुलेयादी सादृश्यास्तित्वस्वरूपभेदाऽविशेषे सत्यपि सादृश्यास्तित्वेनै || अनेकद्रव्येषु शाबलेय-बाहलेय-खण्ड-मण्डादिष अनुगतधीः तथाविधव्यवहारश्च न त स्वरूपास्तित्वेन इति स्वभावस्यैव विजृम्भितम् । एतेनैकद्रव्येषु कधं न सादृश्यास्तित्वेनाऽनुगतधीन्यवहारो, कथं वाऽनेकद्रव्येषु स्वरूपास्तित्वेन नानुगतधीव्यवहारी '' इत्यपि प्रत्याख्यातम्, स्वभावस्याऽपर्यनुयोज्यत्वात् ।
प्रकरणकारेण आहुरित्यनेन स्वकीयाऽस्वरसोद्भावनं कृतम् । तद्बीजश्चैयं सत्येकान्तस्वभाववादिमतप्रवेश इति । अत एवाह- वस्तुत इति । स्वरूपास्तित्वं स्वद्रव्यात्मकत्वेन प्रतिव्यक्ति अनेक = भिन्न एव, सादृश्यास्तित्वं पुनः
पी -
1 सप, सा५५पापा .
में कहा गया है कि - "इस लोक में वस्तु धर्म के उपदेश देते हुए श्रीजिनवरवृषभ ने ऐसी प्ररूपणा की है कि विविध लक्षण वाले अनेक द्रव्यों में 'सत्' ऐसा एक लक्षण सर्वगत - सर्वद्रव्य में रहता है = सर्वद्रव्यसाधारण सादृश्य है" । इस की बजह विभिन्न द्रव्य में अनुगत व्यवहार होता है।
ॐ अनेक द्रव्य में सारयास्विप से ही अजुगत व्यवहार अर्थ, इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "जैसे स्वरूपास्तित्व प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग है, ठीक वैसे ही सादृश्यअस्तित्व भी प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न होता है । तर एक सादृश्यास्तित्व अनेक द्रव्य में कैसे अनुगत हो सकता है ? अननुगत होने से सादृश्यास्तित्व अनेक व्यक्तियों में अनुगत व्यवहार का जनक नहीं हो सकता है" -
अब के. इति । यहाँ अमुक विद्वानों का यह समाधान है कि स्वरूपास्तित्व की भाँति सादृश्यास्तित्व प्रतिव्यक्ति भिन्न स्वरूप वाला होने पर भी 'सादृश्यास्तित्व ही अनेक द्रव्यों में अनुगत बुद्धि एवं अनुगत व्यवहार का जनक है, न कि स्वरूपास्तित्व' इस विषय में उसका स्वभाव ही नियामक है । उसका स्वभाव ऐसा ही क्यों है ? ऐसा प्रश्न सावकाश नहीं है, क्योंकि वस्तुस्वभाव के विषय में प्रश्न नहीं किया जा सकता ।
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४८५ मध्यमस्याहादरहस्ये खण्डः २ - का.. * योगमते सादृश्यनिरुक्तिः * द्रव्यानुवर्तकमिति बोध्यम् ।
अत्र योगाः समिरन्ते । ननु सादृश्यं तद्धिमत्वे सति तदातधर्मवत्त्वम् । स्वस्मिन् स्वसाहश्यवारणाय 'तद्धिमत्वे सतीति | otel 'गगनं गगनाकारीम'त्यादावव्याप्तिः; उपमितिक्रियाऽनिष्पत्याउनन्वयस्थाऽलक्ष्यत्वात् । अत एवोपमेयोपमाया अताहश्या लक्ष्यत्वादेव न तत्राऽतिव्याप्ति: ।
.:.-....- गायतता * कश्चित्स्वद्रव्यव्यतिरिक्तत्वेन एकमपीति भिन्नद्रव्यानुवर्तकं = नानाद्रव्यानुगतमिति तेनैवानेकद्रव्येष्वनुगतधीव्यवहारौ न तु स्वरूपास्तित्वेनेत्येव बक्तुमर्हति येनैकान्तस्वभाववादिमतप्रवेशो न स्यादिति बोध्यम् ।
अत्र = सादृश्यास्तित्वेनानेकद्रव्येष्यनुगतधीच्यवहारसमर्थाने योगाः = नैयायिकाः सगिरन्ते -> नन्विति । आहुरित्यनेनास्यान्वयः । सादृश्य - सादृश्यपनातेवाद्यं नानिरिक किन्तु जन्मित्वे = उपमानभिन्नत्वे सति तद्वतधर्मवत्त्वं = उपमानवृत्तिधर्मवत्त्वम् । तद्गतत्वञ्चात्र न लक्षणघटक; गौरवात, असम्भवापत्तेश्च । किन्तु तादाधर्मस्योपमानोपमेयसाधारणत्वबोधनाय । सादृश्यघटकधर्मश्च क्वचिजातिस्वरूपो यथा 'घटसदृशः पटः' इत्यादी । क्वचिच्चोपाधिरूपः यथा गोत्वं नित्यं तथाऽश्वत्वमपीत्यादौ यथा वा चन्द्रसदृशं मुखमित्यादौ वर्तुलत्व-तेजस्वित्वाह्लादकत्वादि । स्वस्मिन् उपमेये स्वसादृश्यवारणाय = अतिव्याप्तिवारणाय तद्भिन्नत्वे सतीति विशेषणदानम् ; घटादा घटादिभेदविरहान्न 'घटो घटसदृश' इत्यादेः प्रसङ्गः । न च सादृश्यशरीरे तद्भिन्नत्वोपादाने 'गगनं गगनाकारमि' त्यादाविति 'गगनं गगनाकारं, सागरः सागरोपमः । रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिब ।। ( ) इति कारिका, अत्र अव्याप्तिः, गगनादी गगनादिप्रतियोगिक भेदविरहात् । अव्याप्तिनिरासे हेतुमाह- उपमितिक्रियाऽनिष्पत्त्येति । 'सादृश्यमुपमाभेद' इत्यालङ्कारिकसूत्रेण भेदघटितसादृश्यस्यैवीपमात्वप्रतिपादनाद् गगनादी गगनादिभेदासम्भवनोपमितिक्रियाजन्माच्योगात नात्रोपमालङ्कारः किन्त्वनन्वयालङ्कार एव । अनन्यस्य अलङ्कारस्य अलक्ष्यत्वात् तत्रोतसादृश्यलक्षणागतेन दूषणत्वं किन्तु भूषणत्वमेवेति ना:च्याप्तिः । अत्र महादेवस्त्वन्याप्तिनिराकरणाय -> 'तद्वृत्तिधर्ममात्रस्य तत्र विवक्षितत्वात. यगभेदविवक्षया भदसत्त्वाद्वा । अत एव युगभेदविवक्षायामिहोपमालङ्कारोऽन्यधानन्त्रयालङ्कार इत्युक्तमालारिक:' - (मु.दिन.पृ.७२) इत्याह । अत्र -> 'युगभेदविवक्षयति युगभेदप्रयुक्ततत्तद्युगविशिष्टगगनभेदविवक्षयेत्यर्थः । भेदसत्त्वाचेति गगने गगनभेदसत्त्वाचेत्यर्थः' - (मु.राम.पृ.७३) इति रामरुद्रो व्याचट ।
अत एवेति । यस्यामुपमितिक्रियानिष्पत्तिस्तस्या एव लक्ष्यत्वादेवेत्यर्थः । उपमेयोपमायाः अतादृश्याः = अनिष्यन्नो| पमितिक्रियाविलक्षणाया. लक्ष्यत्वादेव = उपमालक्ष्यतावच्छेदकाक्रान्तत्वादेव. न तत्र = उपमेयोपमायां अतिव्याप्तिः किन्तु
प्रकरणकार श्रीमद्जी का सुझाव यह है कि वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तो स्वरूपास्तित्व प्रतिव्यक्ति अलगअलग ही है, जब कि सादृश्यास्तित्व प्रतिव्यक्ति एक भी हो सकता है । अतएव अनेक द्रव्य में सादृश्यास्तित्व एक हो कर अनुगत हो सकता है, जिसकी वजह अनेक द्रव्य में सादृश्यास्तित्व की वजह अनुगत बुद्धि एवं व्यवहार हो सकता है ।
यायिकमा से ALERय की त्यास्या | . अत्र यी. इति । सादृश्यास्तित्व में अनेक द्रव्य में अनुगत बुद्धि एवं व्यवहार के समर्थन को जान कर नैयायिक मनीषी
यह कहते हैं कि सादृश्य तद्भिन्नत्ये सति तद्वतधर्मवत्त्वस्वरूप' है। जैसे 'मुख चन्द्रसदृश' यहाँ मुख में रहनेवाला चन्द्र का । सादृश्य चन्द्रभिन्नत्व होते हुए चन्द्रगत आहादकत्व आदि धर्म स्वरूप है। अपने में अपनी उपमा का निराकरण करने के लिए 'तद्भिन्नल्वे सति' ऐसे विशेषण लगाया गया है, अन्यथा चन्द्र में चन्द्रोपमा का अनिष्ट प्रसंग प्राप्त होता है; क्योंकि चन्द्र में । चन्द्रगत सौम्यत्व, वर्तुलत्व आदि धर्म अक्षत हैं । मगर सादृश्य के घटकविधया उपमानभेद का निवेश करने पर चन्द्र में चन्द्र की उपमा का प्रसंग नहीं होगा, क्योंकि चन्द्र में चन्द्रभेद नहीं रहता है। यहाँ यह शंका हो कि > 'सादृश्य के घटकविधया नड्रेट का निवेश किया जाय तो 'गगनं गगनाकार, मागरः सागरोपमः' इत्यादि स्थल में सादृश्यलक्षण की अव्याप्ति होगी, क्योंकि गगन में गगन का भेद या मागर में सागर का भेद नहीं रहता है" - तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यहाँ उपमान और उपमेय में भेद नहीं होने से उपमिति क्रिया की निप्पत्ति ही नहीं होने से यहाँ उपमा अलंकार नहीं है, किन्तु अनन्वय अलंकार है, जो सादृश्य के लक्षण का अलक्ष्य है। अलक्ष्य = लक्ष्येतर में लक्षण की प्रवृत्ति न होना दोष नहीं है, किन्तु गुण ही है। इसीलिए तो उपमेयोपमा में उपमिति क्रिया की निप्पत्ति होने से वह अनन्वय अलंकार सदृश नहीं है। अतएव
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* सादृश्यमीमांसायां मम्मद-दण्डि-रुद्रट-भोजप्रभृतिमतप्रकाशनम् * || मिथस्तयोरेवोपमानोपमेयत्वविवक्षामापादस्या अलहारान्तरख्यपदेशात्।
यत्तु प्राचा -> 'तद्धिमत्वे सति तगतभूयोऽसाधारणधर्मवत्त्वं सादृश्यम्' । पढादी घटसादृश्यवारणाय 'असाधारणे'ति, यत्किचिदसाधारणाधर्मवति तदवारणाय 'भूय' <-- इत्युक्त
=- =- =* जयलता * -- पमालक्षणसङ्गतिरेव । 'यदि च तस्या लक्ष्यत्वमेव तर्हि कुतस्तस्या अलङ्कारान्तरव्यवहः : इत्याशङ्कायामाहुः- मिथस्तयोः = परस्परमुपमानोपमेययोः एव उपमानोपमेयत्वविवक्षामात्रात् अस्याः = उपमेया ... या अलङ्कारान्तरव्यपदेशात् । तदुक्तं काव्यप्रकाशे मम्मटेन 'विपर्यास उपमेयोपमा तयोः ।९१। तयोः = उपमानापमययोः परिवृत्तिः अर्थाद् वाक्यद्वये इतरोपमानव्यवच्छेदपरा उपमेयेनोपमेति उपमेयोपमा । उदाहरणम् - कमलेव मतिर्मतिरिव कमला, तनुरिव विभा विभेव तनुः । धरणीव धृतिधृतिरिब धरणी, सततं विभाति बत यस्य ।। (का.प्र.सू.१३६ का.९१) इति । उपमाया उपमेयोपमायां वैवक्षिक एव भेदो न तु वास्तवः । अत एव दण्डि-रुद्रट-भोजादिभिरुपमेयोपमात्वस्योपमात्चव्याप्यत्वमभ्युपगम्यते । न चानन्वयादुपमेयोपमाया अभेदः, अन्योपमान्यवच्छेदस्योभयत्र साम्यादित्यारेकणीयम्. अनन्वये एकेनैव वाक्येन तद्व्यवच्छेदः क्रियते उपमेयोपमायां तु वाक्यद्वयेनेति विशेषात् । तदुक्तं काव्यप्रकाशे -> 'उपमानोपमेयत्वे एकस्यैवैकवाक्यगे अनन्वयः - (का, प्र.स.१३५ का.९.) इति । किञ्चानन्वये एकस्यैवोपमेयत्वमपमानत्वञ्च, उपमेयोपमायान्तुभयोरित्यपि तयोर्विशेषः । तदुक्तं काव्यानुशासने श्रीहेमचन्द्राचार्यः -> 'उभयोरुपमेयत्वे उपमानत्वे चोपमेयोपमा । एकस्यैवोपमानत्वोपमेयत्वेऽनन्वयः (का.अ. अ.६, सू.३) इत्यादिकं विभावनीयमलङ्काररसिकैः ।।
यत्चिति । उक्तमित्यनेनास्यान्वयः । प्राचा = प्राचीननैयायिकेन, तद्भिनत्वे सति तद्गतभूयोऽसाधारणधर्मवत्त्वं सादृश्यं = सादृश्यपदप्रतिपाद्यम् । तदेव समर्थयति - पटादौ घटसादृश्यवारणाय 'असाधारणे'ति धर्मविशेषणम् । असाधारण्यञ्च सकलपदार्थाऽवृत्तित्वेन बोध्यम् । एतेन पदार्धमात्रस्य पदार्थमात्रेणाऽपि समं सादृश्यं स्यात्, तद्गतप्रमेयत्व-वान्यत्यादिधर्मवत्वसत्त्वादिति प्रत्युक्तम्, प्रमेयत्वादेरसाधारण्या भावात् । तथापि घटभिन्नत्वेन सिंह-शृगालयोरपि सादृश्यं प्रसज्येतेत्याशङ्कायामाह- यत्किनिदसाधारणधर्मबति = घटभेदाद्यसाधारणधर्माश्रये सिंह-शृगालादो तद्वारणाय = सादृश्यापाकरगाय 'भूय' इति असाधारणधर्मविशेषणम् ।
वह लक्ष्य है। अतः वहाँ उपर्युक्त सादृश्यलक्षण की प्रवृत्ति हो तो भी अतिव्याप्ति दोप का अवकाश नहीं है। अलक्ष्य में लक्षण की प्रवृत्ति होने पर ही अतिव्याप्ति दोष का उद्भावन किया जाता है। यहाँ परस्पर उन दोनों में ही उपमान-उपमेयभाव की विवक्षा होने से उपमा अलंकार से अतिरिक्त उपमेयोपमा नामक अन्य अलंकार का व्यवहार होता है।
प्राचीजमत में दूषणोद्भावन [D यत्तुइनि | प्राचीन नैयायिक सादृश्यलक्षण बताते हुए कहते हैं कि --> "तद्भिनल होते हुए तगत अनेक असाधारण धर्मों का होना ही तत्सादृश्य है। तत्शन्द से उपमान का ग्रहण अभिमत है। जैसे 'मुखं चन्द्रसदृशं' यहाँ मुख उपमेय है और चन्द्र उपमान है । मुख में चन्द्र का भेद एवं चन्द्रगत आह्लादकत्व, वर्तुलत्व, तेजस्विता आदि अनेक असाधारण धर्म भी रहते हैं, वही मुस्त्रगत चन्द्रसादृश्य है । यदि सादृश्य का लक्षण केवल इतना ही बनाया जाय कि उपमानभिनत्व होते हुए उपमानगत अनेक धर्म उपमेय में हो वही सादृश्य है, तो फिर विजातीय घट-पट में भी सादृश्य रह जायेगा, क्योंकि पट में घटभेद एव घटगत प्रमेयत्व, वाच्यत्व आदि अनेक धर्म रहते हैं। इस आपत्ति के निवारणार्थ धर्मसामान्य न कह कर असाधारण धर्म का ग्रहण किया गया है। पट में वाच्यत्व, प्रमेयत्व आदि घट के साधारण धर्म रहते हैं, मगर असाधारण धर्म नहीं रहते हैं। अतः 'पदो घटसदृशः' इसकी आपत्ति नहीं है । यहाँ घट का असाधारण धर्म द्रव्यत्व पट में भी रहता है । अतः पुनः 'पटः घटसदृशः' इत्याकारक प्रयोग की आपत्ति आयेगी । इसके निवारणार्थ 'भूयः' यानी 'अनेक' ऐसा असाधारण धर्म का विशेषण लगाया गया है । घट के असाधारण = केवलान्वयिभिन्न द्रव्यत्व धर्म की पट में विद्यमानता होने पर भी घट के अनेक असाधारण धर्म पट में नहीं रहते हैं । अतः 'पटः घटसदृशः' इस प्रयोग का अनिष्ट प्रसंग नहीं होगा । अतः सादृश्य का घटक केवल धर्म नहीं है. किन्तु अनेक असाधारण धर्म हैं . यह फलित होता है" -
तत्र. इति । मगर विचार किया जाय तो प्राचीन नैयायिक का उपर्युक्त वक्तव्य भी नामुनासिब प्रतीत होता है । इसका il कारण यह है कि पट में भी कथंचित् यटसादृश्य धर्म का सादृश्यलक्षण में प्रवेश करना असंगत है। यंट की भाँति पट
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४८७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ७ * मुक्तावली - मञ्जूषा - दिनकरीयवृत्त्यादिसंवादः
राम, पटादेरपि कथचिद्घट] सादृश्यव्यवहारात् । तद्वाचकानां इवादिपदानां शक्तिस्तु भेदे वृत्तित्वे धर्मे च खण्डश एवेति लाघवाच्चन्द्रादिपदसमभिव्याहाराच्च चन्द्रादिभिनत्वलाभ: ।
* जयलता
तन = प्राचीननैयायिकोक्तं न सम्यक् । हेतुमाह- पटादेरपि कथविघटसादृश्यव्यवहारादिति । 'घट इव पटादिरपि रूपवानिति व्यवहारप्रसिद्धरिति । ततश्चासाधारणविशेषणस्याऽयुक्तत्वमिति फलितम् ।
मुक्तावलीकारस्तु सादृश्यमपि न पदार्थान्तरं किन्तु तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वम्, यथा चन्द्रभिन्नत्वे सति ! चन्द्रगताह्लादकत्वादिमत्त्वं मुखे चन्द्रसादृदयमित्याह - (मुक्ता. का. २ पृ. ७२) । ' अत्र भूयस्त्वं न विवक्षितं, एकधर्मेण | सादृश्यानुपपतेः भूयानतिशयितः तात्पर्यविषय इति' - (मुक्ता.मं.पू.७३) मञ्जूपाकारो व्याचष्टे | महादेवस्तु -> 'तद्भिन्नत्वे सतीति इदश्च सादृश्यनिरूपकेऽतिव्याप्तिवारणाय । अनुयोगितासम्बन्धविवक्षणे तु न देयमेव । तद्गतभूयो धर्मवत्त्वमिति । तत्राऽसाधारण्येन विद्यमाना ये भूयांसो धर्मास्तद्वत्त्वमित्यर्थः ' ← (मुक्ता. दि. पृ. ७२ ) इति व्याख्यातवान् । अब रामरुद्रस्तु -> यद्यपि घटभेदपटभेदादयो भूयांसो धर्मास्तत्र सम्भवन्त्येव, गोत्वाश्वत्वयोर्नित्यत्वरूपकधर्ममादाय सादृश्यमङ्गीकृत्यैवोक्तमिति भूयस्त्वोपादानमसङ्गतमेव तथापि प्रायां भूयधर्मेरव सादृश्यप्रतीतिरितितात्पर्यविषयार्थकमेव प्रकृते भूयः पदमिति ध्येयम् । 'नरोऽयं सिंहसदृश' इत्यादी तु घटभिन्नत्वादिर्न तात्पर्यविषयः किन्तु पराक्रमः । तस्यापि तथात्वे त्विष्टापत्तेः । तस्मादसाधारण्ये - नेत्यपि न देयम् । यथा घटो वाच्यस्तथा पटोऽपीति व्यवहाराच' <- (मुक्ता.रा.प्र.७२) इति प्रोक्तवान् ।
केचित्तु तद्गतत्वं न लक्षणे प्रचिन्तु चन्द्रभिनत् सति
चन्द्रश्यमिति रीत्या विशिष्यैव धर्माणां लक्षणे प्रवेशः । ते च धर्मा उपमानसाधारणा ग्राह्याः । तेन चन्द्रभिन्नत्वे सति केशादिमत्त्वं न चन्द्रसादृश्यमिति स्फोरणाय तद्गतत्वोत्कीर्तनमित्याहुः | तद्वाचकानां =
साहृदयवाचकानां इवादिपदानां आदिना तुल्यादिग्रहः, शक्तिस्तु भेदे वृत्तित्वे धर्मे च खण्डश एव, न तु चन्द्रादिभिन्नत्वविशिष्टचन्द्रादिवृत्त्याह्लादकत्वादिधर्मवत्त्वलक्षणसादृश्येऽखण्डा शक्तिः महागौरवात् । ' तर्हि मुखादाँ चन्द्रादिभेदः कथं प्रतीयेत ? तत्प्रतीती वा घटादेरपि भेदः किं न प्रतीयेत ?' इत्याशङ्काया गाह- लाघवात् उपस्थितिकृतलाघवात्, चन्द्रादिपदसमभिव्याहाराच चन्द्रादिवाचकपदसान्निध्याच्च चन्द्रादिभिन्नत्वलाभः भेदे चन्द्रादिप्रतियोगिकत्वबोधः । इत्थमेव चन्द्रादिनिरूपितत्वस्य वृत्तित्वे लाभ: । तात्पर्य सहकारेणाह्लादकत्व - तेजस्वित्वादिधर्मबोधः ।
=
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अथैवं सति 'चन्द्र इव मुखमाह्लादकमिति वाक्ये पोनरुक्त्यप्रसङ्गः, आह्लादकत्वरयेवपदेनैव लब्धत्वादिति चेत् ? अत्र पट्टाभिरामः ' इवपदेन साधारणधर्मत्वेनैवाह्लादकत्वबोधनेन पौनरुक्त्याभावात् । अयं तु विशेषः यत्र विशिष्य साधारणधर्मवाचकपदसमभिव्याहारोऽस्ति तत्र साधारणधर्मत्वेनैवाह्लादकत्वमिवादिर्बोधयति । यत्र तु स नास्ति सति तात्पर्ये आह्लादकत्वत्वेनैव बोधः, अन्यदा तु साधारणधर्मत्वेनैबाह्लादकत्वादिर्बोध्यते' (मुक्ता.मं.पृ.७५ ) इति समाधत्ते । आह्लादकपदं तात्पर्यग्राहकमिति न पुनरुक्तिरित्यन्ये ।
=
भी रूपवाला होने से रूप की अपेक्षा 'घट इव पट:' इत्यादि वाक्य का प्रयोग तो लोक में होता ही है । अतः अनेक असाधारण धर्म का सादृश्यलक्षण में प्रवेश करने से अव्याप्ति- नामक दोष का प्रसंग भी प्राचीन नैयायिक के मत में दुर्वार बन जायेगा ।
इषादिशब्द की खंडशः शक्ति
नैयायिक
तद्रा इति । उपर्युक्त मीमांसा से यह फलित होता है कि सादृश्य तन्नित्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्त्वस्वरूप है । इस सादृश्य के बाचक इव, तुल्य, सदृश आदि शब्दों की शक्ति सादृश्य के घटक भेद (= भिन्नत्व), वृत्ति और धर्म में खण्डश: है । यहाँ इस शंका का कि > "यदि भेद, वृत्ति और धर्म इन तीनों में इव आदि शब्द की खंडशः शक्ति मानी जाय तो 'मुखं चन्द्र इव' इत्यादि स्थलों में मुख में शब्द का भान हो सकेगा, मगर चन्द्रादि के भेद का ज्ञान कैसे हो सकेगा ? क्योंकि चन्द्रादिप्रतियोगिक भेद में इवपद की शक्ति का स्वीकार नहीं किया गया है" - समाधान यह है कि उपस्थितिकृत लाघव से एवं चन्द्रादिपद के समभिव्याहार से मुख में चन्द्रादिप्रतियोगिक भेद का लाभ हो सकता है । यहाँ मुख में घटादिप्रतियोगिक भेद का भान नहीं हो सकता है, क्योंकि तब घटादि की उपस्थिति = ज्ञान नहीं है, एवं तद्वाचक पद का सानिध्य भी नहीं है ।
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'पटो न घटसदृशः' इतिवाक्यविमर्श:*
४८८ अनवच्छिन्नविशेषणताया भेदसंसर्गत्वाच्च न कपिसंयोगवति कपिसंयोगवत्साहश्यापत्तिः ।।
अवं-> 'पटो न घटसहश' इतिधीन स्यात्, घटवृत्तिधर्मसामान्याभावस्य पटेउसम्भवात् । 'अनोपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्वविशिष्टधर्माभावबोधानायं दोष' इति
===* जयलता * ... - ननु 'चन्द्रसदृशं मुखमि' त्यत्र चन्द्रस्य प्रतियोगितासम्बन्धेन भेदे निरूपितत्वसम्बन्धेन च वृत्तित्वे तस्य तु स्वरूपसम्बन्धेन धर्मेऽन्वयमङ्गीकृत्य 'चन्द्रभिन्नत्वविशिष्ट-चन्द्रबृत्त्यालादकत्वादिधर्मवन्मुखमि'तिशाब्दबोधाभ्युपगमे तु शाखावच्छेदेन कपिसंयोगवति बृश्ते कपिसंयोगवत्सादृश्यप्रसङ्गो दुर्निवारः, वृक्षे मूलावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्धेन कपिसंयोगिभेदस्य वृत्तित्वादित्याशङ्कायामाहअनवछिन्नविशेषणतायाः = निरवचिन्नवृत्तिताकविशेषणतायाः भेदसंसर्गत्वात् च = सादृश्यघटकभेदनिष्ठवृत्तितावच्छेदकसम्बन्धत्वविवक्षणात् हि न कपिसंयोगवति चुनादी कपिसंयोगवत्सादृश्यापत्तिः । न हि वृक्षे निरवच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण कपिसंयोगिभेदो वर्तते, शाखायां तस्य कपिसंयोगित्वात् । एवञ्चान्योन्याभावस्याऽच्याप्यवृत्तित्वाऽङ्गीकारेऽपि न अतिः ।
परः शहते- अथेति । द्वितीयत्पदेन सहास्यान्वयः । एवं - सादृश्यलक्षणघटकधर्मविशेषणविधयाऽसाधारणत्वस्यानङ्गीकारे सति, 'पटो न घटसदृशः' इति धीन स्यात्, पटस्य प्रभिन्नत्वे सति वटवृनिप्रमेयत्वादिधर्मवत्त्वेन घटवृत्तिधर्मसामान्याभावस्य पटेसम्भवात । विशेषण-विशेष्योभयवति विशिष्टाभावस्य वक्तुमशक्यत्वेन विशिष्टवातियोगिक दस्याउ सत्त्वात् पटे घटसदृशभिन्नत्वप्रतीतिर्नब स्यादित्यधाभिप्रायः ।
कश्चित् समाधत्ते. 'अत्र = 'पटो न घटसदृश' इत्यादी उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्व विशिष्टधर्माभावबोधार नापं दोपः = न सादृश्योधानुपपत्तिसमः । उपमानभूतघटनिरूपितवृत्तित्वं आश्रयतासम्बन्धेन पटसाधारणे प्रमेयत्वादी धर्मे वर्तते किन्तु उपमानपदार्थतावच्छेदकघटत्वनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्वं घटत्वे एव वर्तते न तु प्रमेयत्वादी धर्मे । न हि प्रमेयत्वादिकं प्रकृते उपमानपदार्थतावच्छेदकं, तस्याऽतिप्रसक्तत्वात्, किन्तु घटत्वमेव तथा 1 उपमानात्मकघटपदार्थतावच्छेदकघटत्वनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्वविशिष्टो यो घटत्वधर्मः स तु नोपमेये पटे वर्तत इति तत्र घटसादृश्यविरहात् 'पटोन घटसदृश' इतिधीरनाक्लिनि मुग्धसमाधानाशयः ।
अनव. । यद्यपि 'उपमानभिन्नत्वे सति उपमानवृत्तिधर्मवत्व' को सादृश्य मानने पर शाखाअवच्छेदेन कपिसंयोग वाले वृक्ष में 'यह कपिसंयोगिसदा है' इत्याकारक वाक्यप्रयोग के प्रामाण्य की आपत्ति आ सकती है, क्योंकि 'वृक्ष शाखा में कपिसंयोगी है, न कि मूल में भी' इस प्रतीति से मूलावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से वृक्ष कपिसंयोगिभिन्नत्वविशिष्ट है । एवं उपमानगत कपि-संयोग भी वृक्ष में रहता है तथापि अनचच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से भेद की वृत्तिता का स्वीकार करने पर उपर्युक्त आपत्ति का परिहार हो सकता है, क्योंकि मूलावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से ही वृक्ष कपिसंयोगिप्रतियोगिक भेद बाला है न कि निरवच्छिन्नविशेषतासंसर्ग से । वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग होने से निस्वच्छिन्नविशेपणतासम्बन्ध से कपिसंयोगिभेद की वृक्ष में संभावना नहीं हो सकती है, अन्यथा तब 'वृक्षो न कपिसंयोगी' ऐसी प्रतीति के प्रामाण्य की आपत्ति आयेगी ।
शंका :- अथैवं. इति । यहाँ यह कहा जा सकता है कि सादृश्य को तद्भिबत्वे सति तवृत्तिधर्मवत्त्वात्मक मानने पर तो 'पटो न घटसदृशः' ऐसी बुद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि घटगत प्रमेयत्व-वाच्यत्व आदि धर्म तो पट में रहते ही हैं और घटभेद भी पट में रहता है। पट में घटभिन्नत्वे सति घटवृत्तिप्रमेयत्वादिधर्म रहने से 'पटो घटसदृशः' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए, न कि 'पटो न घटसदृशः' ऐसी प्रतीति । यदि यहाँ यह कहा जाय कि -> "सादृश्य के लक्षण का जो उत्तर अंश है 'उपमानवृत्तिधर्मवत्त्व' इसका अर्थ है उपमाननिरूपितवृत्तिताविशिष्टधर्मवत्त्व । यहाँ वैशिष्ट्य केवल आश्रयत्वसम्बन्ध से ग्राह्य नहीं है, किन्तु उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से ग्राह्य है। ऐसा मानने पर 'पटो न घटसदृशः' यह बुद्धि अनुपपन्न नहीं होगी, क्योंकि पट में जो वायत्यादि घटवृत्ति धर्म रहते हैं, उनमें उपमानपदार्थतावच्छेदकीभूतघटत्वनिष्ठाश्रयता. सम्बन्ध से घटनिरूपित वृत्तिता नहीं रहती है, किन्तु वाच्यत्वादिनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से या आश्रयत्वसामान्यसम्बन्ध से घटनिरूपितवृत्तितर रहती है। सिर्फ घटत्व धर्म ऐसा है कि जो घटात्मक-उपमानपदार्थतावच्छेदक होने की वजह उसमें रहने वाली घटनिरूपित वृनिता घटत्वनिष्ठाश्रयत्वसंसर्ग से रह सकती है। मगर वह घटत्व धर्म पट में नहीं रहता है, भले ही निरवच्छिचविशेषणतासम्बन्ध से घटभेद पट में रहता हो । सादृश्य के विशेप्य अंश के विरह से घटसादृश्य पट में नहीं रहता है। अतः 'पटो न घटसदृशः' इत्याकारक बुद्धि एवं व्यवहार निरावाध हो सकता है" - तो यह भी असंगत है, क्योंकि उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से उपमाननिरूपितवृत्तिताविशिष्ट ऐसे धर्म का उपमेय में भान मानने पर तो 'घटः पटसदृशः' ऐसी बुद्धि, जो स्वारसिकतया
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४८९ मध्यमस्यावादरहस्पे खण्डः २ - का. * 'घटो न पटसदृशः' इनिधिय इष्टत्वम् *
चेत् ? न, एवं सति 'घट: पटसहश' इति बुन्दयनापतेरिति «- येत् ? न, 'घढो न पटसहश' इति बुन्दयनापत्तेरिष्टत्वात्, अनिष्टत्वे वा धर्मपदं घटत्वादिपरं बोध्यम् । एवमपि घटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वाऽसिन्दः कथं तदभावबोध इति चेत् ? ल ह्या विशिष्टस्याभावबोध:
- == =* गयलता * अथवादी तन्निराचष्टे - नेति । एवं = उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्धन उपमाननिरूपितवृत्तित्वविशिष्टो यो धर्मस्तस्य सादृश्यलक्षणघटकत्वाऽभ्युपगमे सति 'घटः पटसदृशः' इति बुद्ध्यनापत्तेरिति । घटे पदभेदसत्त्वेऽपि उपमानभूतपटपदार्थतावच्छेदकपटत्वनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्धेन वृत्तित्वविशिष्टस्य धर्मस्य विरहात् । अतो द्रव्यत्वेन घटे एटसादृश्यधी-व्यवहारी न स्यातामित्येकं सीव्यतोऽपरप्रच्युतिर्दुरिति नोपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्धेन वृत्तित्वविशिष्टो यो धर्मस्तद्वत्त्वस्य सादृश्यलक्षणनिवेशो युक्तः, अन्यथा 'मुखं चन्द्र इवे' त्यादौ सर्वत्र सादृश्यानुपपत्तिः प्रसज्येत, 'घटः कुम्भ इवे' त्यादेः प्रामाण्यप्रसङ्गश्चेत्यसाधारणत्वनिवेशस्याऽऽवश्यकत्वमेवेत्यधाशयः ।
नैयायिकास्तनिराकुर्वन्ति- नेति । 'घटी न पटसदृश' इति बुद्ध्यनापत्तेरिष्टत्वादिति । ततश्च सादृश्यलक्षणघटकधर्मविशेषणविधयाऽसाधारणत्वनिवेशोऽनावश्यक इति भावः । यदि च परेण 'घटो न घटसदृश' इति बुद्धेः प्रामाणिकत्वं स्वीक्रियते तदा विकल्पान्तरमाहुः - अनिष्टत्वे वेति । तादृशबद्ध्यनापतेरनिष्टत्वे येत्यर्थः । धर्मपदं = सादृश्यलक्षणघटकधर्मवाचकपदं, घटत्वादिपरं = लक्षणया घटत्वादिबोधकं बोध्यमिति । घटत्वस्य पटेऽभावात् 'घटो न पटसदृश' इति धिय उपपनिरित्यर्थः ।
परः शङ्कते - एवमपि = सादृश्यलक्षणघाटकीभूतधर्मबोधकपदस्य घटत्वादी लक्षणाऽङ्गीकारेऽपि घटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वाऽप्रसिद्धेः 'पटो न घटसदृश' इतिवाक्यात कथं तदभारचोधः १ पटे घटभेदविशिष्टवटत्वलक्षणसादृश्याभावगोचर - शाब्दबोधो नैव स्यात् । यत्र घटत्वं तब न बटभिन्नत्वं यत्र च घटभिन्नत्वं तत्र न घटत्वमिति सामानाधिकरण्येन घट. भिन्नत्वविशिष्टस्य घटत्वस्य कुत्राऽप्यप्रसिद्धेः पटे न तदभावात्मक-घटसादृश्याभावबोधः सम्भवति, अप्रसिद्धप्रतियोगिकाभावस्या नभ्युपगमात् । इत्यञ्च तद्भिन्नत्वे सति तनिधर्मवत्त्वरूपस्य सादृश्यलक्षणस्य घटकीभूतधर्मपदं लक्षणया घटत्वादिबोधकं स्यात् तदा ‘पटो न घटसदृश' इतिवाक्याच्छाब्दबोधो न कथमपि सङ्गच्छेतेति शङ्काशयः ।
नैयायिकाः समादधते- न हीति । अत्र = ‘पटो न घटसदृश' इति स्थले, विशिष्टस्य = सामानाधिकरण्येन घट| भेदविशिष्टस्य घटवृत्तिघटत्वस्य अभावबोधः स्वीक्रियते, येन 'असओ णत्थि णिसेहो' इति वचनात् अप्रसिद्धप्रतियोगिक
सर्वजनविदित है, भी नहीं हो सकेगी, क्योंकि यहाँ उपमान पद होने से उपमानपदार्थतावच्छेदक पटव है, जिसमें रहने वाले आश्रयत्वसम्बन्ध से पटनिरूपितवृत्तिताविशिष्ट केवल पटत्त्व धर्म ही है, जो कि उपमेय घंट में नहीं रहता है। घर में निरवच्छिनविशेषणतासम्बन्ध से पटभेद रहने पर भी पटत्वनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से पटनिरूपितवृत्तिताविशिष्ट ऐसा धर्म नहीं होने से पटसादृश्य ही नहीं है, तो 'घटः पटसदृश' ऐसी बुद्धि कैसे हो सकेगी। अतः इन दोषों से मुक्ति पाने के लिए सादृश्यघटक धर्म के विशेषणविधया असाधारणपदार्थ का निवेश आवश्यक है । तभी 'पटो न घटसदृशः' इस बुद्धि एवं व्यवहार की उपपत्ति हो सकेगी।
समाधान :- न, घ. इति । मगर विचार करने पर उपर्युक्त कथन भी असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि 'पटो न । घटसदृशः' इस बुद्धि की अनुपपत्ति ही है। मतलब कि पट में घटसादृश्य होने से 'पटो न घटसदृशः' यह बुद्धि स्वीकार्य ही नहीं होने की वजह इसकी अनुपपत्ति इष्टापत्ति है । अतः उसके अनुरोध से सादृश्यलक्षण के शरीर में असाधारण का धर्मविशेषणविधया निवेश अनावश्यक है । अतः 'तद्भिन्नत्वे सति तवृत्तिधर्मवत्त्व' को ही सादृश्य का लक्षण मानना मुनासिब है न कि 'तभिन्नत्वे सति तवृत्तिभूयोऽसाधारणधर्मवत्त्व' को यह फलित होता है । यदि 'पटो न पटसदृशः' यह बुद्धि अभीष्ट हो और इसीकी वजह 'पटो न घरसदृशः' इत्याकारक बुद्धि की अनापत्ति = अनुपपत्ति = असंगति अनिष्ट हो तो उसकी उपपनि के लिए यह कहा जा सकता है कि सादृश्यलक्षणघटक धर्मपद घटत्वादिपरक है यानी धर्मपद की घटत्वादि में लक्षणा करनी चाहिए । तब 'पटो न घटसदृशः' इत्याकारक बुद्धि उपपन्न हो सकती है, क्योंकि पट में घटभेद होने पर भी घटवृत्ति घटत्व धर्म का अभाव होने से घटसादृश्य नहीं रहता है। विशेप्याभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव अबाधित होने से 'पटो न घटसदृशः' इत्याकारक बुद्धि का समर्थन हो सकता है।
एवमपि. इति । यहाँ यह शंका हो कि → "पट में घटसादृश्य का निषेध कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि
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* घटभेदविशिष्टघटधर्मलक्षणसादृश्यसमर्थनम् * || किन्तु घटभिनत्व-घटवृत्तिधर्माभावयो: 'एका व्यमिति न्यायेनेति 'घटभिमत्वविशिष्टघट- | वृत्तिधर्मस्य घटत्वीयसम्बन्धेन अभावबोधामाऽमाऽनुपपत्तिरित्याप्याहुः । एतत्कल्पे च सामानाधिकरणसम्बन्धेचाच भेदस्य स्वार्थे धर्म एवान्चयो
=* जयतता *E निषेधाऽऽक्रान्तल्वेन तादृशबोधानुपपत्तिः किन्तु घटभिन्नत्व-घटवृत्तिधर्माभावयोः ‘एकत्र द्वयमि' तिन्यायेनेति । यथा ‘घटभूतलत्ववद्भूतलमि' त्यत्र भूतले स्वतन्त्रयोः घटभूतलत्वयोरन्चयो भवति तथा 'पटो न घटसदृश' इत्यत्र पटे घटभिन्नत्वस्य घटवृत्तिघटत्वधर्माभावस्य चैकन द्वयमितिन्यायेनान्वयबोधो भवति न तु विशिष्टवैशिष्ट्यावगाही बोध इति न प्रतियोग्यप्रसिद्भिदोषावकाशः । न चैकविशेषणविशिष्टेपरविशेषणवैशिष्ट्यमिति रीत्या न वा विशेष्ये विशेषणं तत्रापि विशेषणान्तरमिति रीत्या प्रकृतेऽन्वयबोधः; तस्य सादृश्यन्यवहारानीपयिकत्वात् ।
कल्पान्तरमावेदयन्ति - घटभिन्नत्वविशिष्टघटवृत्तिधर्मस्य घटत्वीयसम्बन्धेन = घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्धेन अभावबोधात् = अभावान्वयबोधाभ्युपगमात्, न अत्र = ‘पटो न घटसदृश' इतिस्थले अनुपपतिः = अन्वयबोधाऽसङ्गतिरिति । यद्यपि पटे घटभेदविशिष्ट-घटवृत्तिद्रव्यत्वादिधर्मों वर्तते तथापि स दृध्यत्वादिप्रतियोगिकसम्बन्धेन न त घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्धेनेति घटत्वप्रतियोगिकसंसर्गावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकस्य घटभिन्नत्वविशिष्टघट्यत्तिद्रव्यत्वादिधर्माभावस्य पटे सत्त्वात् 'पटो न घटसदृश इत्यत्र न शाब्दबोधानुपपत्तिः, निरुक्तस्य घटसादृश्याभावस्य पटेऽक्षतत्वात् । न च घटभेदविशिष्टद्रव्यत्वस्य घटत्वीयसम्बन्धेन कुत्राऽप्यप्रसिद्धेः कथमेतादृशान्वयबोध इति वाच्यम्, व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य स्वीकारात् । अत एव प्रतियोगिताया व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नत्वमिव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नत्वमपि स्यादित्युक्तावपि न क्षतिः, इष्टापत्तेः । न हि स्वरसवाहिप्रतीत्यपलापः शक्यते कर्तुं मनीषिभिः, अन्यधा शून्यवादिमतप्रवेशप्रसङ्गात् । ___एतत्कल्पे च = घटत्वीयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकघटभेदविशिष्टघटगतधर्माभावलक्षणवटसादृश्याभाववत्पटाऽङ्गीकर्तृमतेनन्तरप्रदर्शिते हि सामानाधिकरण्येन सम्बन्धेन इवाद्यर्थस्य भेदस्य स्वार्थे = इवादिशब्दार्थे धर्मे द्रव्यत्वादिलक्षणे एव अन्वयः
घटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वात्मक घटसादृश्य कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है । जहाँ घटभेद रहता है वहाँ घटत्व नहीं रहता है और जहाँ घटत्व रहता है वहाँ घटभेद नहीं रहता है । अतः सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से यटभेदविशिष्टघटत्व अप्रसिद्ध है। अप्रसिद्ध पदार्थ का निषेध नहीं हो सकता है। अतः 'पटो न पटसदृशः' इस वाक्य से पट में पटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वप्रतियोगिकाभावात्मक घटसादृश्याभाव का बोध नहीं हो सकेगा" -- तो इसका यह समाधान है कि 'पटो न घटसदृशः' यहाँ घटभेदविशिष्टघटत्त्व के अभाव का पट में भान नहीं माना गया है किन्तु पट में घटभिनत्व और घटवृत्निघटत्वधर्माभाव का 'एकत्र द्वयं' न्याय | से भान माना गया है। एक विशेष्य में दो विशेषण का जहाँ भान माना जाता है वहाँ 'एकत्र द्वयं न्याय की प्रवृत्ति होती है। पटात्मक एक विशेष्य में घटभिनव एवं घटत्वाभाव-इन दो विशेषण का भान माना जा सकता है। अब प्रतियोगी की अप्रसिद्धि का दोष नहीं है, क्योंकि अभाव का प्रतियोगी केवल घटत्व है, जो घट में प्रसिद्ध ही है। इसके समाधानार्थ यह भी कहा जा सकता है कि घटभिन्नत्वविशिष्ट घटवृति धर्म के अभाव का घटत्वीयसम्बन्ध से रोध होने से भी 'पटो न घटसदृशः' इत्यादि स्थल में अनुपपत्ति नहीं है । मठभेद आदि घटवृत्ति धर्म सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से घटभिन्नत्वविशिष्ट है। अतः विशिष्ट धर्म की अप्रसिद्धि का दोप नहीं है । मगर पट में वह विशिष्ट धर्म मठभेदप्रतियोगिकसम्बन्ध से रहता है, न कि घटत्वप्रतियोगिक सम्बन्ध से। अतः पट में घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्ध से घटभित्रत्वसमानाधिकरण (= विशिष्ट) यदवृत्ति धर्म का अभाव रहता है। तादृया विशिष्ट धर्म घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्ध - घटत्वीयसम्बन्ध से पट में नहीं रहता है । इसलिए 'पटो न घटसदृशः' इस वाक्य से घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक तादृशाभाव का पट में भान हो सकता है. ऐसा नैयायिक विद्वानों का कथन है ।।
एतत्, इति । 'पटो न घटसदृशः' इस वाक्य से होने वाले शाब्दबोध के अनन्तर प्रदर्शित कल्प में इवादिशब्द के अर्थ भेद का इवादिशब्द के अर्थ = स्वार्थ धर्म में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से ही अन्चय होता है - यह ज्ञातव्य है । जैसे 'चन्द्र इच मुखं' यहाँ मुख में चन्द्रभेद और चन्द्रगत आहलादकत्वादि धर्म रहने से सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से चन्द्रभेदविशिष्ट चन्द्रवृत्तिआलादकत्वादिधर्मात्मक चन्द्रसादृश्य का मुख में भान होता है। सादृश्य का निर्वचन करने वाला यही पक्ष समीचीन है । 'पटो न घटसदृशः' यहाँ 'एकत्र द्वयं न्याय से पट में घटभेद और घटवृत्तिघटत्वधर्माऽभाव दोनों का भान मानने वाला प्रथम पक्ष मान्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर 'घटो न घटसदृशः' इत्याकारक बोध अनुपपन्न हो जायेगा।
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४९१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ का ७ * घटे घटसादृश्यप्रसङ्गनिराकरणम्
बोध्यः । समीचीन श्वाऽयमेव पक्षः पूर्वत्र 'घटो न घटसदृश:' इतिबोधानापत्तेः । घटत्वादावपि पढत्वात्यन्ताभावादिरूपघटभेदवैशिष्ट्याद् घटे घटसादृश्यं कथं नेति चेत् ? तादृशघटभेदस्य घटे सत्त्वेऽपि घटभेदत्वावच्छिन्नाधिकरणताया अभावात्, अन्यथा
* जयलता
सम्बन्धः बोध्यः । पदात्मके एकस्मिन्नेवाधिकरणे घटभेदस्य घटवृत्तिद्रव्यत्वादिधर्मस्य च सत्त्वात् स्वसामानाधिकरण्येन घटभिन्नत्वविशिष्ट घटवृत्तिधर्मस्य प्रसिद्धिः । इत्थञ्च विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहिशाब्दबोधाऽङ्गीकारेऽपि न क्षतिः; अभावप्रतियोगिनो पक्षे प्रसिद्धेस्तत्प्रतियोगिता भावस्य निरपलपनीयत्वात् । समीचीनत्र अयमेव = अनन्तरोक्त एव पक्षः । ' एकत्र द्रयमिति रीत्या पूर्वप्रदर्शितप्रकारेणान्वयबोधस्वीकर्तृप्रथमपक्षस्यैवकारेण व्यवच्छेदः कृतः । तस्याऽसमीचीनत्वे हेतुमाविष्कुर्वन्तिपूर्वत्र = 'पटे घटभिन्नत्वस्य घटवृत्तिघटत्वधर्माभावस्य चैकत्र द्वयमितिन्यायेनाऽन्वयबोधाऽङ्गीकर्तृपूर्विले पक्षे, 'घटो न घटसदृश' इतिबोधानापत्तेः = उपमेये घंटे घटभिन्नत्वस्य घटवृत्तिधर्माभावस्य च बाधेन 'घटी न घटसदृश' इत्याकारकशाब्दबोधस्यानुपपत्तेः । न च घटो न घटसदृश इतिशाब्दबोधानापत्तेरिष्टत्वमिति वाच्यम्, उपमाया उपमानोपमेयभेदनियतत्वात् । अत एव पटमुद्दिश्य 'अयं सदृश' इति मुग्धेनोक्ते घटं विद्वान् 'अयं घटएव न तु घटसदृश' इति प्रयुङ्क्ते । न हि चैत्रः कदापि 'अहं चैत्रसदृशः' इति प्रयुङ्क्ते, किन्तु 'अहं चैत्र' इत्येवमेव स्वपरिचयं दत्ते । न च प्रकृतकल्पे कथं 'घटो न घटसदृश' इति बुद्धिः सङ्गच्छेतेति शङ्कनीयम्, घटे घटत्वीयसंसर्गेण घटत्वस्य सत्त्वेऽपि सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन घटभित्रत्वविशिष्टघटवृत्ति
=
धर्मस्य घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्धेनाऽसत्त्वात्, घटे घटभेदस्याऽसम्भवात् । इत्थञ्च विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टाभावस्य घटत्वप्रतियोगिकसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य सत्त्वेन 'घटो न घटसदृश' इतिबुद्धयुपपत्तेः ।
ननु घटत्वादावपि सामानाधिकरण्येन पटत्वात्यन्ताभावादिरूपघटभेदवैशिष्ट्यात् तादृशघट भेदविशिष्टघटत्वस्य घटवृत्तित्वात् घटे घटसादृश्यं कथं न भवति ? अयं शाशय: 'पटत्यात्यन्ताभावो न घट:' इत्यादिप्रतीत्या घटभेदः पटत्वात्यन्ताभावाद्यात्मकः सिध्यति, अभावाधिकरणका भावस्याधिकरणात्मकत्वात् । पटत्त्वात्यन्ताभावादेर्घवृत्तित्वेन तदभिन्नत्वेन घटभेदस्यापि बटवृत्तित्वात् घटत्वादेः सामानाधिकरण्येन पटत्वात्यन्ताभावाद्यात्मकघटभेदविशिष्टत्वम् । इत्थञ्च पटत्वात्यन्ताभावादिस्वरूपघटभेदविशिष्टघटवृत्तिघटत्वधर्मस्य घटत्वीयसम्बन्धेन घटवृत्तित्वसिद्ध घटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वलक्षणघटसादृश्यं घटे निराबाधमिति 'घटो न घटसदृश' इतिबुद्धयनापत्तेरिष्टत्वान्नैकत्र द्वयमितिन्यायेन 'पटो न घटसदृश' इत्यत्र घटभिन्नत्व-घटत्वाभावयोः पटे वयस्यायुक्तत्वमिति निहिताशयो ननुवादिनः ।
घटे घटसादृश्याभावं समर्धयति तादृशघटभेदस्य = पदत्वात्यन्ताभावादिस्वरूपस्य बटभेदस्य घटे उपमेये सत्त्वेऽपि घटभेदत्वावच्छिन्नाधिकरणतायाः = घट्रभेदत्वावच्छिन्नाऽऽधेयतानिरूपिताधिकरणतायाः पटत्वात्यन्ताभावादी सत्त्वेन घटे अभावादिति । यथा 'घटध्वंसे घटो नास्तीतिप्रतीत्या सिध्यतो घटध्वंसाधिकरणकस्य घटात्यन्ताभावस्य लाघवेन घटध्वंसात्मकत्वेऽपि घटध्वंसवति कपाले प्राचीननैयायिकमतानुसारेण घटध्वंसत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपितैवाऽधिकरणता, न तु घटात्यन्ताभावत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपिताऽपि घटध्वंसस्य घटध्वंसत्वेनैव रूपेण कपाले सत्त्वात् न तु घटात्यन्ताभावत्वेनापि रूपेण तथैव उपमेय घट में घटभेद और घटवृत्तिधर्माभाव दोनों नहीं रहते हैं ।
* घर में घरमेद की शंका का परिहार
ननु च इति । यहाँ यह शंका हो कि “घट में सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से घटभेदविशिष्टघटल घटसादृश्य तो रहता है, क्योंकि घटवृत्ति घटत्व धर्म में सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से घटभेदविशिष्टत्व अबाधित है। वह इस तरह 'पटत्वात्यन्ताभावो न घट:' इस प्रतीति से घटभेद पदत्वात्यन्ताभाव में रहता है यह सिद्ध होता है । नैयायिकमतानुसार अभाव में रहने वाला अभाव अधिकरणीभूत अभावस्वरूप होने से पदत्वात्यन्ताभावाधिकरणक घटभेद पदत्वाऽत्यन्ताभावात्मक सिद्ध होता है। घट में पटत्वात्यन्ताभाव के रहने से तत्स्वरूप घटभेद भी रह जायेगा। एक ही घट में घटत्व एवं पटत्वाभावस्वरूप घटभेद के रहने से घटत्व सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से पटत्वाभावस्वरूपघटभेदविशिष्ट होगा । इस तरह घट में तादृशघटभेदविशिष्टघटत्त्व रहता है, जो घटसादृश्यात्मक है । अत: 'घटो न घटसदृश:' इत्याकारक बुद्धि की अनुपपत्ति इष्टापत्ति है । घट में घटसदृश्य सिद्ध होने पर 'घट घटसदृश नहीं है' यह कैसे माना जा सकता है ?" -
तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि घट में पटत्वात्यन्ताभावस्वरूप घटभेद रहने पर भी घटभेदत्वावच्छिन्नाधिकरणता
P
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* तद्भिनत्वमात्रस्थ सादृश्यत्वापाकरणम् * | 'घदो न घट' इति प्रतीत्यापत्तेरिति गृहाण ।
अथ तद्धिमत्वमात्रमेव सादृश्यमस्तु प्रमेयत्वादिना सर्वत्र सर्वसाहश्याद व्यर्थो विशेष्यभाग इति चेत् ? न, तन्नित्वमानस्य सादृश्यव्यवहारानौपयिकत्वाद, विशिष्टाधिकरणताया भिमत्वेन वैययाभावाच्च ।।
* जयलता * प्रकृते 'पदत्यात्यन्ताभावो न घट' इति प्रतीत्या सिध्यतः पटत्वात्यन्ताभावाधिकरणकस्य घटभेदस्य लाघवेन पटत्वात्यन्ताभावस्वरूपत्वेऽपि पटल्यात्यन्ताभाववति घटे पटत्वात्यन्ताभावत्वावच्छिन्नाऽऽथेयतानिरूपितवाऽधिकरणता न तु घटभेदत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपिताऽपि, पटत्वात्यन्ताभावस्य पटत्वात्यन्ताभावत्वेनैव रूपेण घटे सत्त्वात् न तु घटभेदत्वेनाऽपि रूपेणेति । चटभेदत्वेन रूपेण घटभेदस्य यदधिकरणं तत्समानाधिकरणस्य घटवृत्तिधर्मस्य घटभिन्नत्ववैशिष्ट्यं प्रकृतोपयोगि । तच्च न घटे सम्भवति घटभेदत्वावच्छिन्नाधेयत्तानिरूपिताधिकरणतासम्बन्धेन घटवृत्तिघटत्वधर्मस्य घटभेदविशिष्टत्वाभावेन घटभेदविशिष्टघटवृत्तिधर्मस्य घटत्वीयसम्बन्धेन घटे विरहात् ।
ननु पटत्वास्थन्ताभावाधिकरणकस्य घटभेदस्य लाघवेन पटत्वात्यन्ताभावस्वरूपत्वे पटत्वात्यन्ताभारवति यो कथं न घटभेदत्वावच्छिन्नाधिकरणता ? इत्याशङ्कायामाह- अन्यथेति । घटे घटभेदत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपिताधिकरणतायाः स्वीकारे,
। प्रतीत्यापत्तेः = 'घटो घटभेदवानि ति प्रतीतेः प्रामाण्यापत्तेः, घटे पटत्वात्यन्ताभावत्वेन घटभेदस्य सत्त्वेऽपि घटभेदत्वेन तस्याऽभाव एवेति गृहाण = जानीहीति 'नैकत्र द्वयमिति रीत्या पटे घटभेदस्य घटत्वाभावस्य चान्वयः 'पटो न घटसदृश' इति स्थले कर्तुं युज्यत इति निर्गलितार्थः ।
अथ तद्भिन्नत्वमात्रमेव सादृश्यमस्तु, न तु तद्भिन्नत्वे सति तवृत्तिधर्मवत्त्वम् । हेतुमाह- प्रमेयत्वादिना सर्वत्र सर्चसादृश्याद् व्यर्थः तवृत्तिधर्मवत्त्वलक्षणे विशेष्यभागः, तदनिवेशेऽपि प्रमेयत्व-वाच्यत्वादिना घटादौ पटादिसादृश्योपपने: तत्र पदादिभेदस्य सत्तादिति चेत् ! न तवृत्तिधर्मवत्त्वलक्षणविशेष्याऽघटितस्य तद्भिमत्वमात्रस्य सादृश्यन्यवहारानीपयिकत्वात् = केवलमुपमानभेदस्योपमेये सादृश्यप्रयोगानुपायात्मकत्वात् सादृश्यलक्षणे विशेष्यांशनिवेशोऽपि आवश्यक इत्यर्थः ।
ननु न्यावृत्तेरेव लक्षणप्रयोजनत्वात् स्वस्मिन् स्वसादृश्यवारणाय तद्भिन्नत्वमेव तत्सादृश्यलक्षणमस्तु लाघवादित्याशङ्कायामाह- विशिष्टाधिकरणताया भिन्नत्वेन वेयर्थ्याभावाचेति । न च यथा विशिष्टं शुद्भान्नातिरिच्यते तद्वदेव विशिष्टाधिकरणताऽपि शुद्धाधिकरणताया नातिरिच्यतेति शङ्कनीयम्, गुणे विशिष्टसत्तात्वेन रूपेण गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्ताया अपि स्वीकारापत्तेः, सत्ताधिकरणताया इव विशिष्टसत्तात्वावच्छिन्नाधिकरणताया गुणे स्वीकारात् । न चैवमिति विशिष्टाधिकरणताया
नहीं रहती है। मतलब यह है कि घट में पटत्वात्यन्ताभावात्मक घटभेद पटत्वात्यन्ताभावत्वरूप से रहता है, मगर घटभेदत्वरूप से रहना नहीं है। इससे यह फलित होता है घरभेदत्वारच्छित्र आधेयता से निरूपित अधिकरणता घट में नहीं है, किन्तु पटत्वाऽत्यन्ताभावत्वावच्छिन्न आधेयता से निरूपित्त अधिकरणता रहती है। घटवृत्ति घटत्य धर्म में जो घटभेदवैशिष्ट्य अभिमत है, वह घटभेदत्वावच्छिबाधेयतानिरूपिताधिकरणतासम्बन्ध से विवक्षित हैं। इस सम्बन्ध से घटत्व घटभेदविशिष्ट नहीं होने से | घट में तभेदविशिष्टपटत्वस्वरूप घटसादृश्य नहीं होने से 'घटो न पटसदृशः' यह बुद्धि अभीष्ट ही है।
यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि -> 'घट में घटभेद की पटत्वाऽत्यन्ताभावत्वरूप से अधिकरणता होने पर घटभेदत्वरूप से अधिकरणता क्यों नहीं रहती है ?' - इसका कारण यह है कि घटभेदत्वरूप से घटभेद घट में रहने पर - 'यटो न पट:' यानी 'घट घटभेदवान् है' इत्याकारक बुद्धि भी प्रामाणिक हो जायेगी । घटभेदत्व रूप से पटभेद की अधिकरणता घट में होने पर घट में घटभेद की प्रतीति को भ्रमात्मक नहीं माना जा सकता । इसलिए घट में घटभेदस्वरूप से घटभेद की अधिकरणता को मान्य नहीं की जा सकती ।
साध्य में विशेष्य अंश आवश्यक ७ अध न. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "तभिन्नत्वे सति तवृत्तिधर्मवत्त्व को सादृश्य मानने के स्थान में दिनत्व को ही सादृश्य क्यों न माना जाय ? क्योंकि प्रमेयत्व आदि केवलान्वयी धर्म की अपेक्षा सभी पदार्थ में सभी पदार्थ का सादृश्य रहता ही है । अतः तनिधर्मवत्त्वस्वरूप विशेप्य अंश अनुपयोगी होने से निरर्थक है" - तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि केरल उपमानभंद सादृश्यव्यवहार में उपयोगी नहीं है । 'पट पटसमान है' ऐसा प्रयोग करने वाले वक्ता का
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४५३ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का.७ पशुत्वादेः परम्परयाऽखण्डत्योपपादनम् *
न ह्यत्र विशिष्टाधिकरणताघटिता व्याप्तिर्विशेष्यभागं विना ग्रहीतुं शक्यत इति । एवम पदादी घटसादृश्यस्यापि घटभिमत्वविशिष्टद्रव्यत्वाद्यखण्डधर्मरूपतया द्रव्यत्वमात्रस्यैव(न)सामान्यत्वमुचितं, विशिष्टस्य घट एकाउननुवृतः ।
अथैवं पशुत्वादिना सखण्डधर्मेण सादृश्यं न स्यादिति चेत् ? न, तस्यापि परम्परयाऽखण्डत्वादिति ।
जयलता अतिरिक्तत्वमेवोपगन्तव्यम् । ‘त्र्यावृत्तिर्व्यवहारो वा लक्षणस्य प्रयोजनमि' ( ) त्यभियुक्तोक्त्या व्यवहारस्याऽपि लक्षण' प्रयोजनत्वात् तदर्थं विशेष्यभागस्यावश्यंनिवेशनीयत्वेन विशिष्टाधिकरणतायाश्चातिरिक्तत्वेन न तवृत्तिधर्मवत्त्वलक्षणविद्रोष्यांशस्य निरर्थकतेत्यभिप्रायः । तदेव समर्थयति - न हि अत्र = तद्भिन्नत्वे सति नत्तिधर्मवत्वस्वरूपे साक्ष्यलक्षणे, विशिष्टाधि करणताघटिता तद्भेदत्वावच्छिन्नाधिकरणतासम्बन्धेन तद्भेदविशिष्टतवृत्तिधर्मबत्वनिष्ठा ब्याप्तिःविशेष्यभागं तद्वृत्तिधर्मवत्त्वस्वरूपं विना ग्रहीतुं = ज्ञातुं शक्यते, घटकाऽज्ञाने तद्घटितस्याज्ञानात् ।
ननु यदि सादृश्यन्यवहारार्धं विशेष्यभागस्याऽऽवश्यकत्वं तदा तन्मात्रमेव सादृश्यमस्तु, विशेषणांशस्य नैरर्थक्यादित्याशङ्कायामाह- एबञ्चेति । पटादौ घटसादृश्यस्यापि घटभिन्नत्वविशिष्टद्रव्यत्वाद्यखण्डधर्मरूपतया द्रव्यत्वमात्रस्य = शुद्भद्रव्यस्वस्य एव न सामान्यत्वं = उपमानोपमेयसाधारण्यं सादृश्यमिति यावत्, उचितम् । 'ननु लाघवं किं न प्रतिसन्धत्से' ? इत्याशङ्कायां विशिष्टद्रव्यत्वस्यैव सादृश्यत्वमुपपादयति - विशिष्टस्य घट एवाननुवृत्तरिति । एवकारश्च भिन्नक्रमः । ततः विशिष्टद्रव्यत्वस्यैव घटेऽननुवृत्तेरित्यर्थः । द्रव्यत्वमिव निरुक्तविशिष्टद्रव्यत्वस्या यस्खण्डधर्मत्वान्न तस्य सादृश्यत्वाऽङ्गीकारे गौरवम् । प्रत्युत द्रव्यत्वस्य सादृश्यत्वाऽङ्गीकारे घटेऽपि घटसादृश्यप्रसङ्गात, शुद्धद्रव्यत्वस्य घटेऽपि सत्त्वात् । घटभिन्नत्वविशिष्टद्रव्यत्वस्य घटसादृश्यत्वे तु न घटे घटसादृश्यप्रसङ्गः, तस्य घटेग्ननुवृत्तेः, असत्वादिति यावत् । न च विशिष्टद्रव्यत्वस्य सामानाधिकरण्येन घटभेदविशिष्ट द्रव्यत्वरूपत्वेन कथमखण्डत्वमिति वाच्यम्, घटभेदविशिष्टद्रव्यत्ववन्मात्रवृत्निवैजात्ये तात्पर्यात, तस्य घटावृत्तित्वे सति घटेतरसकलवृत्तित्वेन घटे घटसादृश्यापत्तेः पटादी तदनापत्तेश्चाइसम्भवादिति भाचनीया
कश्चिच्छङ्कते- अथेति । एवं = अखण्डधर्मेणैव सादृश्याऽङ्गीकारे, पशुत्वादिना लोमवल्लालबत्त्वादिस्वरूपेण सखण्डधर्मेण गवादेः मेषादिभिः समं सादृश्यं न स्यात् । न हि पशुत्वं जातिस्वरूप सम्भवति, येन नस्याऽखण्डत्वं स्यात् । न च तस्य जातित्व किं बाधकमिति वाच्यम्, उच्चैःश्रवत्वादिना साकर्यस्यैव तद्भाधकत्वात् । न च लोमवल्लाङ्गुलवत्त्वस्वरूपेणैव ! पशुत्वेन मेषसादृश्यं गवादावस्त्विति वाच्यम्, तस्य सखण्डरूपत्वेन गुरुत्वान् ।
तन्निराकुरुते - नेति । तस्यापि = पशुत्वादरपि परम्परया = स्वसमत्वायिसमवेतत्वलक्षणपरम्परासम्बन्धेन लोमवल्लालत्वात्मकतया अखण्डत्वात् । स्वपदेन लोमबल्लाङ्गलल्यजातिग्रहणात् तत्समवायिनि लोमवल्लाङ्गले समवेतस्य पशोः स्वसमवापि -
---------- केवल 'घट में पटभेद है। ऐसा तात्पर्य नहीं होता है, किन्तु 'घट में पटगत धर्म रहता है। ऐसा भी अभिप्राय होता है। | अतः उपमेय में वृत्ति केवल उपमानभेद को सादृश्य नहीं माना जा सकता । दूसरी बात यह है कि विशिष्ट की अधिकरणता
शुद्ध की अधिकरणता से भिन्न = अतिरिक्त होती है। इसलिए तद्भिन्नत्व की अधिकरणता और तन्नित्वविशिष्ट तवृत्ति धर्म की अधिकरणता अलग-अलग सिद्ध होने से विशेप्यांश का निवेश निरर्थक नहीं है, क्योंकि विशिष्ट की अधिकरणता से घटित व्याप्ति का विशेप्यांश के बिना ज्ञान ही नहीं हो सकता है। जैसे सादृश्यशरीर में तनिधर्मवत्त्वस्वरूप विशेष्य अंश का निवेश आवश्यक है, ठीक वैसे ही तद्भिन्नत्वस्वरूप विशेषण अंश का प्रवेश भी जरूरी है, क्योंकि घर में रहने वाला घटसादृश्य भी घटभिन्नत्वविशिष्ट व्यत्वादिस्वरूप होने से अखंड धर्मात्मक होने से विशेषणांश के निवेश में गौरव नहीं है। केवल द्रव्यत्व को, जो घटवृत्ति धर्म है, घटसादृश्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह तो घर में भी रहने से 'घटो घटसदशः' इत्याकारक प्रयोग एवं बुद्धि की आपत्ति आयेगी । जब कि घटभिन्नत्वविशिष्ट घटवृत्ति द्रव्यत्व धर्म को घटसादृश्य मानने में उपर्युक्त अनिष्टापत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि घटभेदविशिष्टद्रव्यत्व ही घट में नहीं रहता है। अतः घटभेदविशिष्टघटत्वात्मक अखंड धर्म से ही घटसादृश्य का अंगीकार करना युक्तिसंगत है।
५ पशुत्त भी परम्परा से अस्वधर्म ५५ है ५७ अर्थ. इति । यहाँ यह शंका हो कि --> 'यदि अखंड धर्म से ही सादृश्य का स्वीकार किया जाय तो पशुत्व आदि
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* जैनमते सादृश्यनिर्वचनम् *
४९४ अभवदति - साहश्यं न तदभिमतले सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वम, किन्तु तदवृत्तिधमकधर्मवत्त्वम् । एकत्व सग्रहनयाऽर्पणार्पितवन्दिविशेषविषयत्वं, तेन नैतद्घठत्वादेः सामान्यत्वं, सग्रहस्य विस्तरावधिकत्वात् । नाऽपि पटत्वादेर्घटसादृश्यत्वम्, तत्तदितरसाधारणसमध्येच सहस-प्रवा
--ॐ जयलता समवेतत्वसम्बन्धेन लोमवल्लाङ्लत्वजातिस्वरूपपशुत्वविशिष्टत्वाद्वादेः निरुक्ताखण्डपशुत्वेन रूपेण मेषादिसादृश्ये किश्चिद्वाधकं नास्तीति समाथानाभिप्रायः ।
अत्र वदन्ति स्याद्वादिन इति शेषः । नैयायिकसम्मतसादृश्यप्रतिक्षेपपूर्वकं तद्वक्तव्यमेवावेदयति प्रकरणकारः - सादृश्यं = सादृश्यपदप्रतिपाद्यं न तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वमिति । तद्भिन्नत्वांशस्य व्यर्धत्वेन गौरवात्, 'गगनं गगनाकारमि'त्यादावव्याप्ते, एकधर्मेणाऽपि गोत्वाश्वत्वयोः सादृश्यव्यवहारेण भूयःपदस्याऽपि व्यर्थत्वेन गौरवात्, एकधर्मेण सादृश्यस्थलेऽव्याप्तेश्च । किन्तु तवृत्तिधकधर्मवत्त्वमेव सादृश्यम् । तत्पदेनोपमानग्रहणमभिमतम् । ननु जातित्वेन द्रव्यत्वादावेकत्वस्याऽघटमानत्वेनैकत्मविशिष्टधर्मरूपस्यैकधर्मस्याऽसम्भवेन नेतत्सादृश्यनिर्वचनं युक्तमित्याशङ्कायामाह - एकत्वञ्चेति । सादृश्यघटकधर्मविशेषणीभूतमेकत्ववेत्यर्थः । सङ्ग्रहनयाऽर्पणाऽर्पितबुद्धिविशेषविषयत्वं = सङ्ग्रहनयविवक्षाकृतप्रतिभासविशेषविषयतास्वरूपम् । तब घरपटादिसाधारणपरिणामेष्वपि सम्भवतीति न तत्सादृश्यानुपपत्तिः । एतेनैतद्घटत्वेनाऽपि घट: किं नानुवर्चेतेति प्रत्युस्तमित्याशयेनाह-तेनेति ! सङ्ग्रहनयार्पणार्पितबुद्धिविशेषविषयत्वात्मकैकत्वविवक्षणेनेत्यर्थः । न एतद्घटत्वादेः सामान्यत्वं = निरुक्तसादृश्यत्वं, सङ्ग्रहस्य विस्तरावधिकलात्, एतपटत्वादेस्लेकमात्रव्यक्तिवृत्तित्वेनाऽतुल्यपरिणामत्वान्न तेन रूपेणोक्तसादृश्यसम्भवः ।
तर्हि पटत्वादेरेव घटसादृश्यत्वमस्तु, तस्याऽनेकवृत्तित्वेन साधारणधर्मत्वादित्याशङ्कायामाह - नापीति । तत्तदितरसाधारणधर्मेपु = पटत्वादिभिन्नेषु साधारणधर्मेषु द्रव्यत्वादिस्वरूपेषु एव सङ्ग्रहसम्भवात् = सङ्ग्रहनयप्रवृत्तिसम्भवात् । भेदकृक्षिप्रविष्टत्वेन न पटत्वादिना घटसादृश्यप्रसङ्गः ।
धर्म से कभी भी सादृश्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि पशुत्व आदि सखण्ड धर्म हैं, न कि अखण्ड धर्म । पशुमात्र में रहने बाला पशुत्व लोमवल्लालबत्त्व = बालचाली पुच्छस्वरूप है । यह धर्म सखण्ड होने से पशुत्वरूप से गाय आदि में भैंस, सिंह आदि का सादृश्य अनुपपत्र हो जायेगा' -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पशुत्व भी परम्परासम्बन्ध से अखण्डधर्मस्वरूप ही है । आशय यह है कि पशुमात्र में पालवादी पुच्छ रहती है और उसमें लोमबल्लालत्व जाति रहती है । वह स्वसमवायिसमवेतत्वात्मक परम्परासम्बन्ध से पशुमात्र में रहती है और बही पशुत्व है। जातिस्वरूप होने से वह अखण्ड एवं अनुगत और लघुधर्म है । इस तरह लोमवल्लालत्वस्वरूप जातिविशेषरूप ही पशुत्व मानने से पशुत्वधर्म की अपेक्षा गाय, भैंस, सिंह आदि में सादृश्य हो सकता है। इसलिए लाघव तर्क से अखण्ड धर्म की अपेक्षा ही सादृश्य का स्वीकार करना मुनासिब है - पह सिद्ध होता है। यह नैयायिकमत है।
* उपमानगतधमकधर्मवत्व ही साध्य - स्यादादी * अत्र बद. इति । उपर्युक्त नैयायिक मत के खिलाफ में स्याद्वादियों का यह कथन है कि सादृश्य तद्भिन्नत्वे सति ततिधर्मवत्वस्वरूप नहीं है, किन्तु तद्गतधर्मकधर्मक्व ही सादृश्य है। जैसे 'पटो घटसदृशः' यहाँ घटगतद्रव्यत्वधर्मकधर्म | पट में रहता है, वही घटसादृश्य है। यहाँ एक धर्म ऐसा जो कहा गया है उसका अर्थ है एकत्वविशिष्ट धर्म और एकत्व भी संख्यात्मक नहीं, किन्तु संग्रह नय की विवक्षा से कृत = अर्पित बुद्धिनिशेषविषयतास्वरूप अभिमत है। ऐसे एकत्व को गृहीत करने का तात्पर्य यह है कि घटगत एतद्घटत्व से घटसादृश्य - सामान्य के अंगीकार की आपत्ति न हो, अन्यथा वह समस्या अपरिहार्य बनी रहती है । संग्रहनयविवक्षाकृत बुद्धिविशेषविषयतास्वरूप एकत्व का ग्रहण करने पर उक्त समस्या का अवकाश नहीं है, क्योंकि संग्रह नय विस्तारविषयक है । एतद्घटत्व तो केवल पतत् घट में, जो एक ही है, रहता है, न कि सर्व घट में । अतः व्यापकविषयतावाला संग्रह नय एतद्घटत्व धर्म को अपना विषय नहीं बनाता है । इस तरह पटत्त्वादि धर्म से भी घटसादृश्य की आपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि पटत्वादि से भिन उपमान-उपमेयसाधारण में ही संग्रह नय की प्रवृत्ति मुमकिन है। पटत्वादि यद्यपि अनेक पटरादि में साधारण-व्यापक है फिर भी उपमान घट में नहीं रहने
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४५० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड; २ - का. * स्वस्मिन् स्वसादृश्यानीकारः * || न च स्वस्मिन् स्वसाहश्यापत्तिः, इष्टत्वात, कथमन्यथा 'अस्या इवाऽस्या' इत्यादौ इव
शब्दप्रयोग: साधीयान् । न चैवमनन्वयस्याऽलइकारान्तरत्वं न स्यादिति वाच्यम्, स्वस्यैवोपमानोपमेयत्वविवक्षया ताऽलङ्कारान्तव्यपदेशात् । अथ 'अस्या इवाऽस्या' इत्यादावपि रूपातिमाहा एव सास्यव्यवहारो
* जयलता र बस्तुतस्तु फ्टत्वादिधर्मस्य उपमानोपमेयसाधारण्याभावेन 'पटो घटसदृशः', 'घटः पटसदृशः' इत्यादे: पटत्वादिना । | प्रसङ्ग इति ध्येयम् ।
ननु तदत्तिधर्मकधर्मतत्त्वं तूपमेय इवोपमानेऽपि सम्भवतीति स्वस्मिन् स्वसादृश्यप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वमित्याशङ्कामिष्टापत्तित्वेन समाधत्तं - न च स्वस्मिन स्वसादश्यापत्तिरिति । इष्टत्त्वादिति । ततश्च मिष्टमिष्टं वैद्योपदिष्टश्चेतिन्यायप्राप्तिः । इष्टापतित्वमेव समर्धयति - कथमन्यथा 'अस्या इव अस्या' इत्यादी इधशब्दप्रयोगः साधीयानिति । स्वस्मिन् स्वसादृश्याडनङ्गीकारे उपदर्शितप्रयोगे इदशब्दस्याऽसाधुत्वं स्यात् । न चेष्टापत्तिरत्रैव किं न स्यादिति वक्तव्यम्, प्रसिद्धत्वेन तस्याऽनपलपनीयत्वात् । इवशब्दस्य सादृश्यवाचकत्वेनोक्तस्थलानुरोधात् स्वस्मिन्नपि स्वसादृश्यमङ्गीकार्यमेव । इत्यमेव 'रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिवे'त्यादेरपि साधत्वोपपत्तेः ।
ननु स्वस्मिन्नपि स्वसादृश्याऽङ्गीकारे 'गगनं गगनाकारमि' त्यादावुपमालकार एव स्यान्न त्वनन्वयाऽलङ्कार इत्याशकां दुरीकरोति - न चेति । वायमित्यनेनाऽस्यान्वयः । तदयुक्तत्वे हेतुमाह - स्वस्यैवेति एवकारेण परव्यवच्छेदः कृतः । उपमानोपमेयत्वविवक्षया तत्र = 'गगनं गगनाकारमि' त्यादी, अलङ्कारान्तरव्यपदेशात् = उपमाभिन्नाऽनन्वयाऽलङ्काराभिधानात्, आलङ्कारिकैरिति शेषः । इदं समाधानाकूतं स्वस्मिन् परसादृश्यवत् स्वसादृश्यमपि वर्तते । परं यदा स्वस्मिन् परसादृश्यं तदोपमालङ्कारव्यवहारः, उपमानोपमेययोर्भेदे तत्प्रवृत्तेः । यदा तु स्वस्मिन स्वसादृश्यं तदाऽनन्वयालङ्काराभिधानं, उपभानोपमेययोरभेदे ततावृत्तेः । अतो नानन्वयालङ्कारोच्छेदो न वा स्वस्मिन् स्वसादृश्यापलाप इति ।
परः शकते - अथेति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । नान्यथा = वैधर्म्यलक्षणभेदाऽनवबोधे तत्र न सादृश्यव्यवहारः ||
से उसमें संग्रह नय की प्रवृत्ति नामुमकिन है। विस्तारग्राही संग्रह नय तो उपमान-उपमेयसाधारण द्रव्यत्व, रूपवत्त्व आदि | धर्म में ही प्रवृत्त होता है, न कि एतद्घटत्व में या पदत्वादि धर्म में ।
स्व में स्तसारश्य सम्मत - स्यादादी न च स्व. इति । यहाँ जो सादृश्य का निर्वचन किया गया है, उसमें की तन्नित्व का निवेश नहीं किया गया | है। इसलिए अपने में अन्य के सादृश्य की भाँति अपने सादृत्य की आपति का उद्भावन हो सकता, क्योंकि स्वगत धर्म तो स्व में रहता ही है। मगर यह आपत्ति अनिष्ट नहीं है, किन्तु इट-अभिमत ही है। अतः दोपात्मक नहीं है । 'मगन गगन जैसा है, सागर सागर जैसा है' इत्यादि में उपमेय में स्वात्मक उपमान के सादृश्य की प्रतीति सर्वजनसिद्ध है। यदि अपने में अपना सादृश्य अमान्य हो तो फिर 'अस्याः इव अस्याः' इत्यादि वाक्य में इवशब्द का प्रयोग समीचीन कैसे हो सकता है. ? क्योंकि इवशब्द सादृश्य का वाचक है और प्रकृत दृष्टान्त में उपमान और उपमेय एक होने की वजह स्व में स्वसादृश्य का स्वीकार न किया जाय तो इवशब्द निरर्थक = अशिष्ट हो जाता है। मगर उपर्युक्त वाक्य प्रसिद्ध एवं सर्वमान्य होने की वजह वहाँ प्रयुक्त इवशन्द को समीचीन मानना आवश्यक है। वह तभी संगत होता है, यदि अपने में स्वसादृश्य का अंगीकार किया जाय । यहाँ यह शंका हो कि --> 'यदि अपने में स्वसादृश्य का स्वीकार किया जाय तो उपर्युक्त स्थल में उपमा अलंकार को मानना होगा, क्योंकि सादृश्यस्थल में उपमा अलंकार की प्रवृत्ति होती है। मगर ऐसा मानने पर अनन्चय अलंकार उपमा अलंकार से अलग सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि स्व में स्वसादृश्य को मान्य कर के अनन्वय अलंकार के स्थान में उपमा अलंकार को आपने मान्य किया है। -तो यह नामुनासिब है, क्योंकि उपमान और उपमेय में अभेद की विवक्षा होने पर यानी अपने में ही उपमानत्व और उपमेयत्व की विवक्षा होने पर अनन्वय अलंकार का व्यवहार होता है । मगर इसकी वजह स्व में स्वसादृश्य का अपलाप करना ठीक नहीं है । भिन्न धर्मी में उपमान-उपमेयभाव की विवक्षा होने पर उपमा अलंकार कहा जाता है और एक धर्मी में उपमान-उपमेयभाव की विवक्षा होने पर अनन्वय अलंकार कहा जाता है। इसलिए अनन्चय अलंकार के उच्छेद की आपत्ति भी नहीं है । अत: स्व में स्वसादृश्य का अपलाम नहीं किया जा सकता है - यह फलित होता है।
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* 'अस्या इवास्या' इतिवाक्यसमर्थनम् * नान्यथा । अनुगतव्यवहारस्तु भेदान्नुपरक्ताऽखण्डधर्ममाणेति सादृश्यात्सामान्यमतिरिच्यत | इति चेत १ कोशपानपत्यायनीयमेतद. वैधाडिपतिसन्धानेऽपि तवाद्यर्थबोधानपवादात । 'तदप्रतिसन्धानेऽनन्वय एव नोयमेति चेत् ? न, सादृश्यस्य भेदगर्मितत्वे इवादिपदात्तप्रतिसन्धानस्येवाऽवश्यम्भावात् ।
===* जयलता * 'सादृश्यन्यवहारेऽवश्यम्भेदोल्लेखाभ्युपगमे कथं तत्राऽनुगतव्यबहार: स्यात् ? वैधय॑ज्ञानस्याऽनुगतधीव्यवहारविरोधित्वात, अन्यथा घटपटादिष्वप्यनुगतीव्यवहारौ प्रसज्येतां, वैधाऽविशेषादित्याशङ्कायामथवाद्याह - अनुगतन्यवहारस्तु = 'अयं घटोऽयमपि घट' इत्याद्यनुगतप्रयोगस्तु, भेदानुपरक्ताऽखण्डधर्ममात्रेण = भेदानुल्लेखिघटत्वादिलक्षणाऽखण्डधर्मेण 'इदं द्रव्यमिदमपि द्रव्यमि' त्यनुगतव्यवहारस्त्वभिमत एव । भेदज्ञाने सादृश्यव्यवहारात् भेदाघटिताऽखण्डधर्मेण चाऽनुगतव्यवहारात् सादृश्यात् सामान्यमतिरिच्यत एवेति सादृश्यकुक्षौ तद्भिन्नत्वे सतीति निवेश आवश्यक एवेति न तद्वतधर्मकधर्मवक्त्वं सादृश्यमहतीत्यथाशयः पर्यवस्यति ।
प्रकरणकृत्तदपाकरोति - कोशपानप्रत्यायनीयं = युक्तिविकलं एतत् = ‘भेदप्रतिसन्धान पद सादृश्यव्यवहार' इत्यभिधानम् । अब हेतमाह - देशाप्रतिसन्धाने = वैधात्मकभेदानवयोधे अपि तत्र = 'अस्या इवाऽस्या', 'गगनं गगना
कारं' इत्यादौ, इवायर्थबोधानपवादात् + सादृश्यधर्मप्रकारकधियं सादृश्यव्यवहारस्य चानपलपनीयत्वात् । न हि 'घटः पट | इव रूपवामित्यादिस्थलेडा लाका घटें पदभेदमवबुध्येव पटसादृश्यं जानन्ति किन्तु रूपं प्रतिसन्धायैवेति न वैधम्र्थप्रतिसन्धानस्य साधर्म्यप्रतिसन्धानसमनियतत्वम् । एतेन सादृश्यस्य सामान्यन्यतिरिक्तत्वमपि प्रत्याख्यातम्, गौरवाच ।
पुनरपि परः शङ्कते . तदप्रतिसन्धाने = वैधय॑स्वरूपभेदानवबोधे सति 'अस्या इव अस्या' इत्यादी अनन्वयः अलङ्कार एव नोपमा इति न तत्र सादृश्यधीव्यवहारौ । प्रकरणकृत् तन्निराचष्टे - नेति । यद्यपि स्वमते सादृश्यस्य न भेदघटितत्वं तथापि अभ्युपगमवादेनाऽऽह - सादृश्यस्य = सादृश्यपदार्थस्य, भेदगर्भितत्वे = भेदघटितत्वे सति सादृश्यवाचकात् । इवादिपदात् तत्प्रतिसन्धानस्य = भेदाचचोधस्य एव अवश्यम्भावात् । 'गगनं गगनमिवे त्यादी युगभेदप्रयुक्ततत्तधुगविशिष्टगगनभेदस्योरमेयगगने सवादिवपदात् भेदगर्मितसादृश्यबोधः परेणाऽप्यवश्यमगीकर्तव्य इति भावः ।
वैधाज्ञान के बिना भी सादृश्यमान मुमफिन - स्यादादी अथा. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "सादृश्य को भेदगर्मित मानना ही युक्तिसंगत है, क्योंकि 'अस्या इवास्याः' । इत्यादि स्थल में भी वैधय॑स्वरूप भेद का ज्ञान होने पर ही सादृश्य का व्यवहार होता है, न कि भेदज्ञान न होने पर भी। उपमान और उपमेय में भेद होने पर भी उनमें जो अनुगत व्यवहार होता है, वह भेदानुपरक्त अखण्डधर्म से ही : होता है । घट, पद में भेद होने पर भी भेदानवगाही द्रव्यत्वात्मक अखण्ड धर्म से ही उनमें 'इदं इन्यं, इदमपि द्रव्यं' ऐसा अनुगत व्यवहार होता है। सादृश्यव्यवहार में उपमान-उपमेय में भेद का ज्ञान आवश्यक है और अनुगत व्यवहार में भेदानवगाही अखण्ड धर्म का ज्ञान आवश्यक है । इसलिए सादृश्य से सामान्य अतिरिक्त है, ऐसा फलित होता है। अतः सामान्य को ही सादृश्य नहीं कहा जा सकता" - .
कोश. इति । तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपमान और उपमेय में भेदज्ञान होने पर ही सादृश्यव्यवहार होता है, इस विपय में कोई युक्ति नहीं है। यहाँ यह कहना कि > 'मैं कसम खा कर कहता है कि उपमान और उपमेय में भेद का ज्ञान होने पर ही सादृश्यव्यवहार होता है' - भी असंगत है, क्योंकि दार्शनिक जगत में वादादिस्थल में हजारों शपथ से वस्तु की सिद्धि नहीं की जा सकती, किन्तु युक्ति-प्रमाण से ही वस्तुसिद्धि हो सकती है । 'अस्या इन अस्या', 'गगनं गगनाकारं' इत्यादि स्थल में उपमान और उपमेय में वैधर्म्य - भेद का ज्ञान न होने पर भी सादृश्य का, जो इव आदि शब्द का वाच्यार्थ है, बोध होता है। इसका अपलाए नहीं किया जा सकता । इसलिए सादृश्य को भेदगर्मित नहीं माना जा सकता।
* भेद इव आदि शब्द का अर्थ नहीं है - स्यादादी * तद. इति । यहाँ यह वक्तव्य कि > "उपमान और उपमेय में भेद की प्रतीति न होने पर तो 'गगनं गगनमिव' इत्यादि स्थल में अमन्वय अलंकार की ही प्रवृति होगी, न कि उपमा अलंकार की" -भी इसलिए निराधार है कि सादृश्य को भेदगर्मित मानने पर उपर्युक्त स्थल में सादृश्यवाचक इन आदि शन्न से उपमान और उपमेय में भेद का ज्ञान अवश्य
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४५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का... *सादृश्पस्य ज मेदार्भितत्वम् * 'अोग्यतावमादितस्तदप्रतिसन्धानेऽनन्वय' इति चेत् ? तर्हि या नाऽयोग्यताक्षमादिकं तत्र || क्वचिदवैधयाऽप्रतिसन्धानेऽपीवादिपदादर्थबोध इति कथं तस्येवाद्यर्थत्वम् ? ___इदमश्रावधेयम् । 'पटो घटसदृश', 'पटो द्रव्यमि'तिप्रतीत्योर्वेलक्षण्यं विषयवैलक्षण्याधीनं, विषयं विनैव धियां विशेषे साकारवादापातात् । तथा च सावच्छिन्ननिरवच्छिमप्रकारता
=---* जयलता * पुनरपि परः शङ्कते - अयोग्यताभ्रमादितः आदिपदेन तादृशव्युत्पत्तिवैकल्यादेर्ग्रहणम् । तदप्रतिसन्धाने = उपमानभेदानवबोधे अनन्वयः अलङ्कारः । 'गगनस्यैकत्वेन तत्तयुगविशिष्टगगनभेदान्वयो गगनेऽयोग्य' इति भ्रमात् गगने गगनभेदानवबोधे तु तत्राऽनन्धयाऽलङ्कारोऽवकाशं लभेतैवेति न तत्रोपमाऽलङ्कारसम्भव इति साधर्म्यस्य भेदघटितत्वमेव वाच्यमिति शहकाभिप्रायः ।
प्रकरणकारस्तमपहस्तयति. तीति । यत्र = पुरुषादौ नाऽयोग्यताभ्रमादिकं तत्र क्वचित् कदाचित् वैधयाऽप्रतिसन्धानेऽपि वैधर्म्यस्वरूपभेदानवबोधेऽपि इवादिपदात् = 'अस्या इवाऽस्या' इत्यादिवाक्यघटकात् अर्थबोधः = सादृश्यावबोधो जायत एव इति कथं तस्य = भेदस्य इवायर्थत्वं । नैवेत्यर्थः । व्युत्पन्नस्य तत्पदात् पावदस्यलद्वृत्त्या. समुपतिष्ठते तावतः तत्पदशक्यत्वनियमेन भेदै नास्तीवादिपदशक्तिरिति तात्पर्यम् ।
नन् भेदस्येवादिशब्दाऽवाच्यत्वे कथं सादृश्यबद्धचनुगतबद्धयोलक्षप्यस्योपपत्तिः ? इत्याशडकायां प्रकरणकदाह - इदं = अनुपदं वक्ष्यमाणं. वर्तमानत्वेन सत्रिकष्टत्वादिदमः शब्दस्योपादानम । अत्र = सादयविचारे अवधेयम । तदेवाऽऽह . 'पटो घटसदृशः' 'पटो द्रव्यमि तिप्रतीत्योः विद्यमानं वैलक्षण्यं = वैचित्र्यं, विषयवैलक्षण्याधीनं = विषयनिष्ठवैचित्र्यनिमित्तकमिति वक्तव्यम् । विपक्षबाधकमाह - विषयं = विषयलक्षण्यं विनैव धियां विशेषे = बुद्भिवलक्षण्येऽभ्युपगम्यमाने सति साकारवादापातात् = साकारज्ञानवादियोगाचाराभिधानसोगतमतप्रवेशप्रसङ्गात् । तन्मते ज्ञानाकारातिरिक्तविषयस्याऽसत्त्वेन बहिर्विषयविशेषमृत एव ज्ञानविशेषाभ्युपगमात्प्रकृते विषयवैचित्र्यमृते प्रदर्शितप्रतीतिवेलक्षण्याभ्युपगमे साकारज्ञानवादिमतप्रवेशापत्तेरिति भावः । तथा चेति । साकारज्ञानवादिमतप्रवेशापाकरणाय चेति । सावचिन्न-निरव
होना ही चाहिए । कलियुग में गगन त्रेता-द्वापरादियुग से विशिष्ट नहीं होने से त्रेतादियुगविशिष्ट गगन का कलियुगकालीन गगन में भेद ज्ञान होकर उपमा अलंकार 'गगन गगनमिव' इत्यादि में माना जा सकता है, अन्यथा सादृश्यवाचक इव शन्द अनुपपत्र-असंगत-निरर्थक हो जायेगा । यहाँ यह कहना कि → 'गगन एक होने से उसमें उपर्युक्त रीति से विशिष्टगगनभेदान्वय में अयोग्यता का भ्रम आदि होने की वजह उपमेय गगन में उपमान गगन के भेद का शान्द बोध नहीं होने पर उपर्युक्त स्थल में अनन्वय अलंकार की प्रवृत्ति हो सकती है। अतः सादृश्य को भेदमर्भित मानना आवश्यक है, जिसके फलस्वरूप सादृश्यवाचक इव शब्द की भेद में शक्ति सिद्ध होगी, अर्थात् भेद भी इवादि. शन्द का अर्थ सिद्ध होगा' -भी नामुनासिब ॥ है, क्योंकि जिस पुरुष को अयोग्यताभ्रम आदि नहीं है, उसे भी कभी गगन में विशिष्टगगनभेद का ज्ञान नहीं होने पर भी 'गगन गगनमिव' इत्यादि स्थल में इव आदि शब्द से सादृश्य अर्थ का शान्दबोध होता ही है - यह तो अनुभवसिद्ध ही है । इपशब्द का प्रयोग होने पर भी भेद का शाब्द ज्ञान नहीं होता है । इस स्थिति में भेद कैसे इव आदि शब्द का अर्थ होगा ? क्या घटपद से पट का शाब्दबोध नहीं होने पर भी पट को घटशब्दार्थ माना जा सकता है ? अतः सादृश्य को भेदघटित नहीं माना जा सकता । अतएव भेद सादृश्यवाचक इवादि शब्द का अर्थ नहीं है - यह सिद्ध होता है।
सास्यदि और अनुगतबुद्धि के लक्षण्य की उपपति ४ इदमत्रा, इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि 'पटो घटसदृशः' यह बुद्धि सादृश्यावगाही है, जब कि 'पटो द्रव्यं', 'घटो द्रव्य इत्यादि बुद्धि अनुगत बुद्धि है। उपर्युक्त बुद्धि में लक्षण्य है, वह विषयवलक्षण्य के आधीन है। विषय में विलक्षणता नहीं होने पर बुद्धि में विलक्षणता नहीं हो सकती है, क्योंकि विषयविशेष के बिना ही ज्ञान में विशेषता | - लक्षण्य मानने पर साकारवाद : ज्ञानसाकारवाद = योगाचारमत में प्रवेश होने की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहती है। योगाचार बौद्ध ज्ञान से अतिरिक्त पदार्थ का स्वीकार ही नहीं करता है। उसके मत में घट, पट आदि गाइरी पदार्थ नहीं हैं, किन्तु ज्ञान का ही आकारविशेष है। अत: उसके मतानुसार विषयविशेष के बिना भी ज्ञान में बैलक्षण्य मान्य करने पर साकारज्ञानवादी योगाचार के मत में प्रवेश अनिवार्य हो जायेगा । इसलिए विषयवेलक्षण्य से ही उपर्युक्त दोनों प्रकार
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* नयमतेऽतिरिक्तं सादृश्यम्
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भ्यामेव तयोर्वैलक्षण्यं वाच्यं, न तु तदनुरोधेन सादृश्यमेव तद्भिन्नत्वगर्भ वाच्यमिति । नव्य (म) (?ता) नुयायिनस्तु सादृश्यमतिरिक्तमेव बहुषु धर्मेषु तत्त्वकल्पने गौरवात् । न च तद्भिन्नत्वे सति तद्वतधर्मवत्त्वस्य तद्व्यसेकत्वकल्पने विपरीतगौरवम्, एवं सत्यॐ गयलता.
च्छिन्नप्रकारताभ्यामेव तयोः प्रदर्शितप्रतीत्योः वैलक्षण्यं वाच्यं अभ्युपगन्तव्यमिति । अयम्भाव: 'पटो घटसदृशः ' इतिप्रतीती पटस्य विशेष्यत्वं घटसादृश्यस्य च विशेषणत्वम् । घटसादृश्यस्य जात्यखण्डोपाध्यतिरिक्तत्वेन तन्निष्ठप्रकारतायाः सावच्छिनत्वम्, जात्यखण्डोपाध्यतिरिक्तपदार्थस्य किञ्चिद्धर्मावच्छिन्नत्वनियमात् । पटो द्रव्यं घटो द्रव्यमित्यनुगतप्रतीती पटादेः विशेष्यत्वं द्रव्यत्वस्य च प्रकारत्वम् । जाते: स्वरूपतो माननियमात् द्रव्यत्वजातिनिष्ठप्रकारताया निरवच्छिन्नत्वम् । इत्थमेवानुगतसादृश्यावगाहिबुद्धयोर्वैलक्षण्यस्योपपत्तों सादृश्यस्य भेदघटितत्वकल्पनमयुक्तमित्याशयेनाह न तु तदनुरोधेन | साकारज्ञानमतप्रवेशपरिहारपूर्वं प्रदर्शितप्रतीतिवैलक्षण्यप्रतिपादनानुरोधेन प्रथमप्रतीतिप्रकारीभूतं सादृश्यमेव तद्भित्वगर्भं उपमानभेदघाटितं वाच्यमिति न भेदस्येवादिपदवाच्यत्वसिद्धिरिति भावः ।
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केचित्तु भूयोऽवयत्रसामान्ययोगः सादृश्यमित्याहुः ; तन चारु, निरवयवद्रव्येषु गुणादिषु च तदनापत्तेः । तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरेन भूयोऽवयवसामान्ययोगरूपं सादृश्यं, अपि तु समानपरिणामलक्षणमेव सादृश्यम्' (स्वा. २, परि.४/ सू. १० / वृ. ६९७ ) इति ।
सादृश्यमतिरिक्तमेव, अन्यथा 'सदृश' इत्याकारकप्रतीतेः सर्वत्र समानाकारतानुभवापलापापन्ते: । प्रतीतेः समानाकारत्वञ्चैकप्रकारकत्वम् । ततश्च तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वलक्षणस्य सादृश्यस्याऽङ्गीकर्तुमते 'चन्द्रसदृशं मुखमित्यादी आह्लादकत्वादेः प्रकारता ‘घटसदृशः पटः' इत्यादी तु द्रव्यत्वपृथिवीत्वादेः प्रकारतेति तादृशप्रतीत्योः सादृश्यांशेऽनुभवसिद्धायाः समानाकारताया अपलापी दुरुद्धरः । सादृश्यमतिरिक्तः पदार्थ इतिवादिमते तु न तदनुपपत्तिः । न च तस्याऽतिरिक्तत्वे पदार्थविभागव्याघातः इति वक्तव्यम्, तस्य साक्षात्परम्परया वा तत्त्वज्ञानोपयोगिपदार्थ मात्र निरूपणपरत्वादित्याशयवतां नव्यनैयायिकानां मतं खण्डयितुमुपदर्शयति नव्येति । अनतिरिक्तवादिमते दोषभावेदयति बहुषु अनन्तेषु धर्मेषु उपमेयधर्मेषु तत्त्वकल्पने सादृश्यत्वकल्पने गौरवात् । यथाऽनन्तेषु भूतलादिस्वरूपेषु रूपादिप्रतियोगिकत्वकल्पनायां गौर| वादतिरिक्तसमवायः सिध्यति तथैवाऽनन्तेषूपमेयधर्मेषु सादृश्यत्वकल्पनायां गौरवादतिरिक्तसादृश्यसिद्धिरित्याशयः । अनतिरिक्तसादृश्यवादी शङ्कते न चेति । तद्भिन्नत्वे सति तद्गतधर्मवत्त्वस्य तद्व्यञ्जकत्वकल्पने सादृश्यज्ञानजनकत्वकल्पने, विपरीतगौरवमिति । अतिरिक्तं सादृश्यमङ्गीकृत्याऽपि तादृशधर्मवत्त्वे तादृशज्ञानजनकत्वमावश्यकमेवेति नव्यमतेऽतिरिक्त
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X
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की बुद्धि में वैलक्षण्य की उपपत्ति करनी होगी । वह इस तरह हो सकती है कि 'पटो घटसदृश:' इस बुद्धि में जो प्रकारता ज्ञात होती है, वह सावच्छिन्न किश्चिद्धर्मावच्छिन्न है और 'घटो द्रव्यं' इस बुद्धि में जो प्रकारता ज्ञात होती है, वह निरखच्छिन
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किञ्चित् धर्म से अनवच्छिन्न होती है । जाति और अखण्ड उपाधि से अतिरिक्त धर्म का किञ्चित् रूप से अवच्छिन ही भान होने से प्रथम बुद्धि की प्रकारता सावच्छिन्न होती है और जाति का स्वरूपतः भान होने की वजह दूसरी बुद्धि निरवच्छिन्न प्रकारता = विशेषणता का अवगाहन करती है । द्रव्यत्व तो जाति ही है, जो दूसरी बुद्धि का प्रकार = विशेषण है । इस तरह दूसरी बुद्धि को निरवच्छिन्नप्रकारताक और प्रथम बुद्धि को सावच्छिन्नप्रकारताक मानने से ही बुद्धिस्थ बैलक्षण्य की उपपत्ति हो सकती है । इसलिए योगाचारमतप्रवेशनिराकरणार्थ उपर्युक्त बुद्धि के बैलक्षण्य के समर्थन के लिए सादृश्य को भेदगर्मित मानना अनावश्यक है ऐसा स्याद्वादियों का वक्तव्य है ।
सादृश्य अतिरिक्त पदार्थ है
नृत्य नैयायिक उ
नव्य इति । सादृश्य के बारे में नव्य नैयायिकों का यह वक्तव्य है कि सादृश्य को तद्भिन्नत्वे सति तद्वतधर्मवत्त्वात्मक या तद्वतधर्मस्वरूप मानने में तादृश अनंत धर्मों में सादृश्यत्व की कल्पना करनी पड़ती है, जिसमें गौरव है। अनन्त धर्मों में सादृश्यत्व की गुरुभूत कल्पना करने की अपेक्षा मुनासिब तो यही है कि सादृश्य को ही एक अतिरिक्त पदार्थ माना जाय, जो कि अनन्त उपमेय में अनुगत हो । अतः लाघव तर्क से सादृश्य द्रन्यादि सात पदार्थ से अतिरिक्त है - यह सिद्ध होता है । यहाँ यह शंका हो कि " सादृश्य को अतिरिक्त मानने पर भी उपमेय में उपमानसादृश्य का व्यंजक कौन है ? यह प्रश्न उपस्थित होता है । जैसे गोत्व जाति का व्यंजक (= ज्ञापक = ज्ञानजनक) सास्नादिमत्त्व होता है,
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५९५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.७ *सादृश्यव्यञ्जकल्पनागौरतस्य फलमुखत्वम् *
खण्डपदार्थमात्रविलयापत्तेः, स्मर्यमाणारोपादिकारणताधवच्छेदकत्वेनानुगतस्यैव तस्य सिन्दी। तदौरखस्य फलमुखत्वाच्च । घटादिसादृश्यच पटादौ द्रव्यत्वाद्यवच्छेदेन न तु गुणत्वाद्यवच्छेदेनेति 'पटो द्रव्यत्वेन घटसहशो न तु गुणत्वेने'त्यादिप्रतीतेनानुपपतिरित्याहुः ।
.... जयलता -- सादृश्यकल्पनं तादृशधर्मवत्त्वे च सादृश्यज्ञानजनकल्यकल्पनमिति गौरवम् । तदपेक्षया तादृशधर्मेष्वेव सादृश्यत्वकल्पनमुचितमिति शङ्काभिप्राय: । नव्याः तमपाकुर्वन्ति - एवं सत्तीति । क्लुप्तेषु व्यञ्जकत्वकल्पनागौरवभयेनाऽतिरिक्तपदार्धप्रतिक्षेप सतीत्यर्थः । अखण्डपदार्थमात्रविलयापत्तेरिति । अतिरिक्तं सामान्यमभ्युपगम्याऽपि क्लुप्तेष्ववयवसत्रिवेषादिषु सामान्यव्यञ्जकत्वकल्पनागारवस्य तदवस्थत्वेन सामान्यादेरपि विलयप्रसङ्गादित्यर्थः । अतः सामान्यपदार्थादिवत् सादृश्यपदार्थोऽप्यतिरिक्त: स्वीकर्तव्य इत्यर्थः । तदतिरिक्तत्वे हेल्चन्तरमाह - स्मर्यमाणारोपादिकारणताचच्छेदकत्वेन = सादृश्यज्ञानकारणीभूतस्मृतिविषयोपमानधर्माध्यारोपनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकविधया अनुगतस्यैव = तत्तदुपमेयसाधारणस्यैव तस्य = सादृश्यस्य सिद्धी सत्यां तद्वौरवस्य = सादृश्यव्यञ्जकत्वकल्पनागौरवस्य फलम् खत्वात - प्रमाणसिद्धार्थनिर्वाहकत्वात् । ताददाकारणतावच्छेदकधर्मविधयाऽतिरिक्तसादृश्यसिद्धी उपमानभिनत्वे सत्युपमानगतभूपोधर्मवत्त्वस्य सादृश्याभिव्यञ्जकत्वकल्पनायाः पश्चादुपस्थितत्वेन तद्गौरवस्य सिद्धचसिद्भिभ्यां व्याघातेनाऽदोषत्वादिति भावः ।
ननु पटादी घटादिसादृश्यमगीकृतं न वा ? इति विकल्पयुगली समुपतिष्ठते । द्वितीये 'पटा घटसदृशः' इत्यादिव्यवहारानुपपत्तिः । आद्ये तु 'पटो द्रव्यत्वेन घटसदृशः' इतिव्यवहारवत् ‘पटो गुणत्वेन घटसदृश' इतिव्यबहारस्यापि प्रामाण्यापत्तिः, पटेऽतिरिक्तस्य घटसादृश्यस्याऽङ्गीकृतत्वात् । अनतिरिक्तसादृश्यसदिमते तु गुणत्वस्य पटाऽवृत्तित्वेन विशेष्याधावप्रयुक्त- ! ! विशिष्टसादृश्याभावान्न ‘पटो गुणत्वेन घटसदृश' इति धीव्यवहारयोः प्रामाण्यापत्तिरित्याशङ्कायां नव्याः प्राहुः - घटादिसादृश्यं । । च = बटादिप्रतियोगिकतिरिक्तं सादृश्यं हि पटादी सादृश्यानुयोमिनि द्रव्यत्वाद्यवच्छेदेन = द्रव्यत्व-पृथिवीत्वादिधर्मावच्छेदेन वर्त्तते, न तु गुणत्वाद्यवच्छेदेन = ब्यधिकरणीभूतगुणत्व-कर्मवादिधर्मावच्छेदेन, इतिः हेत्वर्थः शब्दः । तथा च निरुक्तहेतोः 'पटो द्रव्यत्वेन घटसदृशो न तु गुणत्वेने त्यादिप्रतीते: उपलक्षणात्तादृशव्यवहारस्य च नानुपपत्तिः । गुणत्वावच्छेदेन घटसादृश्यस्य पटे विरहात । यथा दण्डे घटकारणता दण्डत्वावच्छेदेन, न तु गणत्वाद्यवच्छे देनेति 'दण्डो दण्डत्वेन घटकारणं,
ठीक वैसे यहाँ अतिरिक्त सादृश्य के व्यंजकविधया उपमानभिनत्वे सति उपमानगतधर्मवत्व का स्वीकार करना आवश्यक होगा, अन्यथा उपमेय से भिन्न पदार्थ में भी उपमानसादृश्य की आपत्ति आयेगी । मगर इस कल्पना में अधिक गौरव है, क्योंकि अतिरिक्त सादृश्य पदार्थ की कल्पना और उसके व्यंजकविधया तद्भिनत्वे सति तद्गतधर्मरत्व की कल्पना करने में दो कल्पना | का गौरव है । इसकी अपेक्षा सादृश्य को तद्भिवत्वे सनि तद्तधर्मवत्त्वस्वरूप मानना ही मुनासिब है" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि इस तरह तो अखण्ड जाति आदि पदार्थ का भी उच्छेद को जायेगा । प्राचीन नैयायिक के मतानुसार भी अनेक घट में अनुगत प्रतीति की वजह अतिरिक्त घटत्व की कल्पना की जाती है। यहाँ अखण्ड सामान्य की कल्पना करने के बावजूद भी कम्बुग्रीवादिमत्त्व में उसके व्यञ्जकत्व की कल्पना करनी ही पड़ती है, अन्यथा अविशेषरूप से सर्वत्र अखण्ड घटत्व के भान की समस्या अवकाश पाती है, क्योंकि सामान्यपदार्थ सर्वव्यापी है । व्यंजक की कल्पना का गौरव होने पर भी जैसे अखण्ड जाति की कल्पना की जाती है, ठीक वैसे ही अतिरिक्त सादृश्य की कल्पना भी की जा सकती है। इसलिए अतिरिक्त सादृश्य की कल्पना में हिचकिचाहट करना नामुनासिर है । यहाँ यह शंका करना कि -> "फिर भी अतिरिक्त सादृश्य की एवं व्यंजक की कल्पना का गौरव तो दोपात्मक ही है - भी नामुनासिब है, क्योंकि स्मर्यमाण उपमान के धर्म के आरोप आदि की कारणता के अवच्छेदकविधया उपमेय में अनुगत सादृश्य की ही सिद्धि होने की वजह व्यञ्जककल्पना तनिर्वाहक होने से नह गौरव फलाभिमुख है। कारणतावच्छेदकविधया अतिरिक्त सादृश्य की प्रामाणिक सिद्धि होने के पश्चात् उपस्थित व्यंजककल्पनागीरव की बदौलत प्रमाणसिद्ध अतिरिक्त सादृश्य का अपलाप नहीं किया जा सकता, अन्यथा लाघवतर्क से शून्यवाद की ही सिद्धि हो जायेगी।
बटा. इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि सादृश्य भी अव्याप्पवृत्ति पदार्थ है । एक धर्मी में एकावच्छेदेन सादृश्य एवं अन्यावच्छेदेन उसका अभाव भी रहता है। जैसे पटादि में घटादि का सादृश्य द्रव्यत्वावच्छेदेन ही रहता है, न कि गुणत्वादिधर्मावच्छेदेन । इसीलिए तो 'पट द्रव्यत्वरूप से घटसदृश है, न कि गुणत्वरूप से' इत्यादि प्रतीति की अनुपपत्ति नहीं है। यदि तद्भियत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्त्व ही सादृश्य हो तब तो एक धर्मी में विवक्षित उपमान के सादृश्य और सादृश्याभाव
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* 'पटो द्रव्यत्वेन घटसदृशो न गुणत्वेने 'तिवाक्यविचारः *
तच्चित्यम्, 'घटसदृशः पटः' इति निर्णयोत्तरं 'घटवृत्तिधर्मवान् न वा ?" इति संशयानुदयात्, अतिरिक्ततनिश्वयस्य तत्प्रतिबन्धकत्वादिकल्पने गौरवात् । न च तवापि घटॐ जयलता *
न तु गुणत्वेने 'त्यादिप्रतीतिव्यवहारी सङ्गच्छेते तथैव प्रकृतेऽपि भावनीयम् । न च गुणत्वस्य दण्डपटाद्यसम्बद्धत्वेन कथं तदवच्छेदकत्वमिति वाच्यम्, स्वविषयकज्ञानविषयत्वलक्षणवैज्ञानिकसम्बन्धेन गुणत्वस्यापि दण्डपदादिसम्वद्धत्वेन तदवच्छेदकत्वसम्भवात् । न चैवं व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावसिद्धिरपि दुष्प्रतिकारेति वाच्यम् इष्टापत्तेः । ततश्च सादृश्यमतिरिक्तमेवेति नव्यनैयायिकाभिप्रायः ।
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अत्रास्वरसप्रदर्शनार्थमाह तचिन्त्यमिति । चिन्ताबीजमंत्राऽऽवेदयति 'घटसदृश: पट:' इतिनिर्णयोत्तरं 'पट: घटवृत्तिधर्मवान् न वा '' इति संशयानुदयात् पटवृत्ति यसादृश्यं नातिरिक्तं किन्तु घटवृत्तिधर्मस्वरूपमेव, समानप्रकारकनिश्चयस्य समानप्रकारकसंशयविरोधित्वात् । नच वटवृत्तिधर्मप्रकारकसंशयं प्रति घटवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयस्येवाऽतिरिक्तघटसादृश्यप्रकारकस्य निश्वयस्यापि विरोधित्वात् 'पटो घटसदृशः' इति निर्णयोत्तरं न 'पटो घटवृत्तिधर्मवान् न वा ?' इति संशयोदय इति वाच्यम्, अतिरिक्ततनिश्श्रयस्थ अतिरिक्तसादृश्यनिर्णयस्य तत्प्रतिबन्धकत्वादिकल्पने उपमानवृत्तिधर्मप्रकारक संशयप्रतिबन्धकत्वादिकल्पने गौरवात् । एतेन तदभाववत्ताबुद्धिं प्रति तत्प्रकारक- तद्व्याप्यप्रकारकनिश्वययो: प्रतिबन्धकत्वमित्यपि प्रत्युक्तम्, लाघवेन तत्प्रकारकनिश्चयस्यैव प्रतिबन्धकत्वौचित्यात् । न च तदभाववत्तावियं प्रति तद्व्याप्यप्रकारकनिश्वयस्य तत्प्रकारकधीद्वारा प्रतिबन्धकत्वमिति वाच्यम्, तद्व्याप्यप्रकारकनिश्वयस्य तत्प्रकारकनिश्चये एवपक्षीणत्वात् प्रकृते तथाऽननुभवाच्च । न हि प्रथममतिरिक्तसादृश्यनिश्चयः तदनन्तरं घटवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयः तदुत्तरच निरुक्तसंशयोच्छेद इत्पनुभवोऽस्ति । किञ्चोपमानवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्वयस्य प्रथममुपजातस्य तादृशसंशयप्रतिबन्धकत्वसम्भवेऽतिरिक्तसादृश्यनिश्चयस्योपमानवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्वयद्वारा तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वात् । एतेन प्रथममतिरिक्तसादृश्यनिश्चय एवोपजायते य उपमानवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयमुत्पाद्य तादृशसंशयं प्रति प्रतिबन्धको भवतीत्यपि निरस्तम्, अतिरिक्तसादृश्यनिश्चयसमकालमेव तादृशसंशयोदयप्रसङ्गाच्च ।
अतिरिक्तसादृश्यवादिशङ्कामपाकर्तुमुपदर्शयति न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । तब अनतिरिक्तसादृश्य
की उपपत्ति नहीं हो सकती । इस तरह विचार करने पर सादृश्य अतिरिक्त पदार्थ है
-
साध्ध्यविषयकनत्यनैयायिक्रमतनिरास
५००
यह फलित होता है ।
तचि इति । अतिरिक्तसादृश्यवादी नव्य नैयायिक के उपर्युक्त वक्तव्य के खिलाफ प्रकरणकार श्रीमद्जी का यह वक्तव्य है कि 'सादृश्य अतिरिक्त ही है' ऐसा नव्यनैयायिककथन विचारणीय है, न कि आँखें मूंदकर स्वीकर्तव्य । इसका कारण यह है कि जिस धर्मी में जिस धर्म का ज्ञान निश्रयात्मक होता है, उसके बाद उस धर्मी में उस धर्म के विषय में संदेह नहीं होता है कि 'इसमें यह धर्म है या नहीं ?' । 'पटः घटसदृश: ' ऐसा निश्रय होने के बाद 'पट घटवृत्तिधर्मत्राला है या नहीं ?' इत्याकारक संशय का उदय नहीं होता है। इससे यह फलित होता है कि 'पट घटसदृश है' यह निश्वय 'पट घटगतधर्मवाला है' इत्याकारक ही होता है । अन्यथा पट में घटसादृश्य के निर्णय में उपर्युक्त संशय की विरोधिता प्रतिबन्धकता ही नामुमकीन हो जायेगी । समानधर्मिक तत्प्रकारक निश्चय ही समानधर्मिक तत्प्रकारक संशय या तदभावप्रकारक बुद्धि का प्रतिबंधक होता हैं - यह तो सर्वमान्य अटल नियम है। इसके अनुरोध से सादृश्य को अतिरिक्त नहीं माना जा सकता, किन्तु उपमानगतधर्मस्वरूप, जो उपमान और उपमेय में साधारण है, ही मानना चाहिए। सादृश्य को अतिरिक्त मान कर अतिरिक्तसादृश्यविषयक निश्चय में उपमानगतधर्मविषयक संशय की प्रतिबंधकता की कल्पना करने में गौरव है। यहाँ यह शंका हो कि सादृश्य को अतिरिक्त न मान कर तत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्त्वस्वरूप मानने वाले आपके मत में भी 'पटो घटसदृशः ' यह निश्चय परभिन्नत्वविशिष्टघटवृत्तिधर्मप्रकारक एवं पटविशेष्यक होने से वह 'पट घटवृत्तिधर्मवाला है या नहीं ?" इस संशय के समानाकारक नहीं होने से उसमें तादृश संशय की प्रतिबन्धकता उपर्युक्त प्रसिद्ध नियम से प्राप्त नहीं होती है, अपितु कल्पनीय होती है । इसलिए प्रतिबन्धकता की कल्पना तो आपके मत में भी समान ही है। तद्भित्वविशिष्ट तद्रत धर्म और तद्वृत्ति धर्म ये दो एक तो नहीं ही हैं, जिससे उपर्युक्त निर्णय और संशय के बीच प्रतिबध्य - प्रतिबन्धकभाव सिद्ध हो सके । तद्वत्ता का निश्चय ही तदभाव के ज्ञान का विरोधी होता है" तो यह भी नामुनासिव है, क्योंकि 'पट घटभेदविशिष्टघटवृत्तिधर्मवाला है' इत्याकारक शाब्द बोध होने के पश्चात् भी 'पट घटवृत्तिधर्मवाला है या नहीं ?' ऐसा संशय कभी भी नहीं होता है -
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५०१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ७ * सामान्ये नित्यत्वाऽनेकसमवेतत्वाऽसम्भवः *
भिन्नत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्तारूपतभिश्वयस्य घटवृत्तिधर्मवत्त्वसंशयव्यावृत्ततया पृथक् प्रतिबन्धकत्वकल्पने ध्रुवं साम्यमिति वाच्यम्, 'पटो घटभिन्नत्वे सति घटवृत्तिधर्मवानि' तिशाब्दबोधोत्तरं तदनुत्पत्त्या तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनस्याऽऽवश्यकत्वादिति दिक् ।
सामान्यस्य पराभिमते नित्यत्वाऽनेकसमवेतत्वेऽपि कथं समगंसाताम् ? 'अत्र मृत्पिण्डे घटत्वमासीदिति प्रतीत्या तस्याऽनित्यत्वसिदेः ।
* जयलता
वादिनः अपि घटभिन्नत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्तारूपतन्निश्रयस्य = घटभेदविशिष्टघटवृत्तिधर्मवत्त्वप्रकारकस्याऽनतिरिक्तघटसादृश्यनिश्वयस्य, घटवृत्तिधर्मवत्त्वसंशयव्यावृत्ततया घटवृत्तिधर्मप्रकारकसंशयापेक्षया भिन्नप्रकारकतया 'घटो घटसदृश:' इति निश्वयस्य 'पटो घटवृत्तिधर्मवान् न वा ?" इत्याकारकसंशयप्रतिबन्धकत्वं न स्यात् । घटभिन्नत्वविशिष्टघटवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयस्यापि घटवृत्तिकारक निर्णय प्रति पृशन्धिकत्वकल्पने = स्वातन्त्र्येण प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमे ध्रुवं साम्यं = तुल्यगौरवम् । यथाऽतिरिक्तसादृश्यनयेऽतिरिक्तसादृश्यनिर्णयस्यापि निरुक्तानतिरिक्तसादृश्यनिश्चयस्येव तादृशसंशयं प्रति स्वातन्त्र्येण प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते तथैवाऽनतिरिक्तसादृश्यमते घटभित्रत्वविशिष्टघटवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयस्यापि घटवृत्तिधर्मप्रकारकनिर्णयस्येव तादृशसंशयं प्रति स्वातन्त्र्येण प्रतिबन्धकत्वमुपेयते इति गौरवसाम्यमिति शङ्काभिप्रायः ।
प्रकरणकृत् समाधत्ते 'पटो घटभिन्नत्वे सति घटवृत्तिधर्मवानि' ति शाब्दबोधोत्तरं तदनुत्पत्त्या = 'पटो घटवृत्तिधर्मवान् न वा ?' इत्याकारकसंशयानुदयेन तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनस्य निरुक्तसन्देहं प्रति प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमस्य, आवश्यकत्वात् । 'हृदो जलवान् न वा ?' इति संशयं प्रति 'हृदो जलवान्' इतिनिर्णयस्येव ' हृदो गदापहारिजलवानि' ति निश्वयस्यापि प्रतिबन्धकत्वमनुभवानुरोधाद्यथा कल्प्यते तथैव प्रकृतेऽपि । न हि कल्पनागौरवभिया विशदतरकार्यकारणभावः स्वारसिकप्रतीतिबलो पजायमानोऽपोतुमर्हतीति भावः ।
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परसम्मत सामान्यस्वरूपं खण्डयितुमुपक्रमते सामान्यस्येति । कथं समगंसाताम् ? नैवेत्यर्थः । तत्र यथाक्रमं | हेतुद्रयमाह 'अत्र मृत्पिण्डे घटत्वमासीदिति प्रतीत्या तस्य घटत्वलक्षणसामान्यस्य अनित्यत्वसिद्धेः = ध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणाऽनित्यत्वस्य लङ्प्रत्ययबलात् सिद्धेः । न चेयं विशेषणाभावमेव विषयीकुरुत इति वाच्यम्, विशेषणीभूतस्य मृत्पिण्डस्य विद्यमानत्वेन तत्र ध्वंसप्रतियोगित्वान्वयाऽसम्भवात् विशेष्ये बाधकाभावाच्च । एतेन घटत्वे गौणमेव ध्वंसप्रतियोगित्वं तदाश्रये घंटे एवं तन्मुख्यत्वादिति प्रत्युक्तम्, 'एतन्मृत्पिण्डवृत्ति घटत्वं ध्वंसप्रतियोगी' त्येवोक्तप्रतीतिस्वारसिकार्थात्, घटस्योक्तप्रतीतावनुल्लेखाच्च ।
यह तो सर्वजनविदित है । उक्त निर्णय के पश्चात् तादृश संशय की अनुपपत्ति से इन दोनों के बीच तथाविध प्रतिबध्य- प्रतिबन्धकभाव की कल्पना अवश्य सभी को करनी पड़ती है, न कि केवल हमको । 'भूतल में चैत्रीय घट है' इत्याकारक निर्णय के पश्चात् 'भूतल घटवाला है या नहीं ?' ऐसा संशय क्या किसीको भी होता है ? इसलिए विशिष्ट अतिरिक्त वादी के मतानुसार भी उपर्युक्त प्रतिबंधकता स्वीकर्तव्य ही होने से सादृश्य को अतिरिक्त न मानने वाले के पक्ष में जो समान गौरव दोष का उद्भावन किया गया है, वह ठीक नहीं है। इसलिए सादृश्य को अतिरिक्त मानने का दुःसाहस करना नामुनासिव है यह फलित होता है । इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है । यहाँ जिन विचारों का उल्लेख किया गया है यह तो एक दिग्दर्शनमात्र है, जिसके अनुसार मनीषी लोग अधिक मीमांसा कर सकें इस बात की सूचना करने के लिए प्रकरणकार ने 'दिक्' शब्द का यहाँ प्रयोग कर के सादृश्यविपयक बादस्थल पर भी यहाँ पर्दा डाल दिया है ।
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* गाति मं नित्यत्वादि असिद्ध
समा इति । अब प्रकरणकार नैयायिकसंमत जाति
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सामान्यपदार्थ का पूर्वाचार्यों के मतानुसार निराकरण करते हैं
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| 'नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्व' नैयायिकसम्मत जाति का लक्षण है। मगर जाति में न तो नित्यत्वस्वरूप विशेषण मुमकिन हैं और न तो अनेकसमवेतत्वात्मक विशेष्यांश भी संभावित है। इसका कारण यह है कि इस मृत्पिंड में घटत्व था' ऐसी प्रतीति होने से घटत्वात्मक सामान्य में नित्यत्व बाधित होता है । जैसे 'रामचन्द्रजी हो गये' इत्यादि प्रतीति से रामचन्द्रजी में विनष्टत्व की सिद्धि होती है ठीक वैसे उक्त प्रनीति से घटत्व में विनाशप्रतियोगित्व सिद्धि होती है। अतः ध्वंसाऽप्रतियोगित्वस्वरूप नित्यत्व सामान्य में बाधित होता है । इस तरह अतीत और अनागत व्यक्ति में सामान्य वृत्ति नहीं होने से समवायावच्छिन्न यावत् व्यक्तिवृत्तित्वस्वरूप अनेकसमवेतत्व भी सामान्य में असिद्ध है । अतीत घटादि व्यक्ति विनष्ट होने से और अनागत
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* जातेर्यावपक्तिवृत्तित्वोपपादनापाकरणे अतीताऽनागतव्यक्तिवृतित्वस्यैव दुरुपपादत्वेन यावद्व्यक्तिवृत्तित्वरूपस्याऽनेकसमवेतत्वस्य दुर्वचत्वाच्चेति प्राञ्चः ।
अथ यथा भवन्मते एकस्य शब्दस्य सर्वार्थवाचकत्वं अतीतानागतव्यक्तिनिरूपितत्वस्य कादाचित्कत्वेऽपि तभिरूपितवाचकताया एकत्वेन निर्वहति, तथा ममाऽपि तत्तव्यक्तिनिरूपितत्वस्य कादाचित्कत्वेऽपि तनिरूपितसमवायस्यैकतया यावद्व्यक्तिसम* जयलता
सामान्येऽनेकसमवेतत्वाऽसम्भवमाह् अतीतानागतव्यक्तिवृत्तित्वस्य = विनष्टानुत्पन्नघटादिव्यक्तिनिरूपितस्य समवायसम्बन्धावच्छिन्नस्याऽऽप्रेयत्वस्य एवं घटत्वादिस्वरूपे सामान्ये दुरुपपादत्वेन यावद्व्यक्तिवृत्तित्वरूपस्य = अतीतानागतवर्त्तमानकालीन निखिलघटादिव्यक्तिनिरूपित समवायावच्छिन्नवृत्तित्वात्मकस्य, अनेकसमवेतत्वस्य अनेकसमवेतत्वपदार्थस्य, दुर्वचत्वाच्चेति प्राञ्चः = पूर्वजैनाचार्या: प्राहुरिति शेषः । पराभिमतविशेषणविशेष्यांशयोरघटमानत्वेन विशिष्टात्मकस्य सामान्यस्य नरशृङ्गसमत्वमेवेति तेषामाशयः । न हि घटकानुपपत्ती तद्घटितोपपत्तिः सम्भवति । परो विशेष्यांशमुपपादयति अथेति । चेदित्यनेनाऽस्यान्वयः । यथा भवन्मते
स्याद्वादिदर्शने, एकस्य शब्दस्य प्रत्येकपदस्य, सति तात्पर्ये सर्वार्थवाचकत्वं अतीतानागतसाम्प्रतकालिकाखिलविषयनिरूपितवाचकत्वं अतीतानागतव्यक्तिनिरूपितत्वस्य = नष्टाऽजातव्यक्तिनिष्ठनिरूपकतानिरूपितनिरूपितत्वस्य, प्रत्येकशब्दनिष्ठवाचकतायां कादाचित्कत्वे असार्वकालिकत्वे अपि तन्निरूपितवाचकताया = अतीतादिव्यक्तिनिरूपितवान्यकताया एकत्वेन निर्वहतीति । यद्यपि अतीतानागतव्यक्तीनां पूर्वापरकालीनत्वेन वाचकतायां तन्निरूपितनिरूपिततानामपि पूर्वापरकालीनत्वं तथापि अतीतानागतव्यक्तिनिष्ठनिरूपकतानिरूपितनिरूपितत्वाश्रयीभूतायाः शब्दनिष्ठाया बाचकतायाः सर्वदैकत्वेन प्रत्येकशब्दस्य सर्वार्थवाचकत्वं स्याद्वादिभिरुपपाद्यत इति भाव: । लोकोत्तरोदाहरणप्रदर्शनेऽपि यदि लौकिकदृष्टान्तबुभुत्सा तदा सेत्थमुपशमनीया यथा दशरथमृत्यनन्तरं रामनिष्ठपुत्रत्वे दशरथनिरूपितत्वस्याऽसत्त्वेऽपि तन्निरूपितपुत्रत्वस्य सर्वदैकत्वेन 'रामो दशरथपुत्र' इत्येवं तदाऽप्यचाधितो व्यवहारः समुपपद्यते इति । दृष्टान्तमुपदर्यं दाष्टन्तिकमाह तथा मम = नैयायिकस्य अपि, तत्तद्व्यक्तिनिरूपितत्वस्य = अतीतानागतव्यक्त्यनुयोगिकत्वस्याऽतीतानागतव्यक्तीनां पूर्वापरकालिकत्वेन कादाचित्कत्वेऽपि असार्वदिकत्वेऽपि, तंनिरूपितसमवायस्य = अतीतादिव्यक्त्यनुयोगिकसमवायसंसर्गस्य, एकतया = सर्वदैकत्वेन, यावद्
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घटादि व्यक्ति अनुत्पन्न होने से उनमें घटत्वादि सामान्य कैसे रह सकता है ? अविद्यमान = असत् पदार्थ में कोई वस्तु नहीं रहती है। इसलिए सामान्य में नित्यत्व और अनेकसमवेतत्व बाधित होने से परसम्मत सामान्यपदार्थ का सम्यकू निर्वाचन नहीं हो सकता है। अतएव वह भी असिद्ध अप्रामाणिक है, यह फलित होता है ऐसा प्राचीन जैनाचार्यों का वक्तव्य है । * नाति में अनेकसमवेतत्व की उपपत्ति का निराकरण
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५०२
नैयायिक : अथ य इति । स्याद्वादियों की यह मान्यता है कि प्रत्येक शब्द सर्व अर्थ का वाचक होता है । मगर शब्दनिष्ठ सर्वार्थवाचकता कैसे मुमकिन होगी ? क्योंकि अतीत और अनागत व्यक्ति अविद्यमान होने से उनकी वाचकता शब्द में नहीं होती है । अतः केवल वर्तमान व्यक्ति की ही वाचकता प्रत्येक शब्द में होगी, न कि अतीतादि सर्वार्थविषयक वाचकता । यदि यहाँ स्थाद्वादियों की ओर से ऐसा कहा जाय कि "अतीत अनागत व्यक्ति अविद्यमान होने से उनसे निरूपितत्व शब्दनिष्ठ वाचकता में कादाचित्क होने पर भी अतीतादिविषयनिरूपित वाचकता, जो शब्द में रहती है, एक होने की वजह प्रत्येक शब्द में सर्वार्थवाचकता की उपपत्ति हो सकती है। यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है, जैसे 'काकवान् देवदनगृह' यहाँ काक देवदन के घर का उपलक्षण है । वह सर्वदा देवदत्तगृह में नहीं रहता है, फिर भी 'देवदत्त का घर काकवाला है' ऐसा व्यवहार होता है। इसी तरह अतीतादि विषय में रहने वाली वाच्यता अनन्त एवं कदाचित्क होने पर भी उनसे निरूपित = उपलक्षित वाचकता देवदत्तगृह की भाँति एक होने से प्रत्येक शब्द सर्वार्थाचक कहा जाता है" - तो फिर इसी तरह सामान्य = जाति में अतीतादियावदूव्यक्ति की वृत्तिता भी मुमकिन होने से याबद्द्व्यक्तिवृत्तित्वस्वरूप अनेकसमवेतत्व भी जाति में अबाधित है । वह इस तरह अतीतादि घटादि व्यक्ति कादाचित्क होने से अतीतादि तत् घटादि व्यक्ति की निरूपितता भी कादाचित्क होने पर भी उनसे निरूपित समवाय यानी अतीतादिव्यक्ति अनुयोगिक समवाय
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५०३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.७ * जातेानव्यक्तिवृत्तिलोपपादनापाकरणे *
वेतत्वं जातेर्विक्ष्यति । भवतामेकस्य शब्दस्य यावदर्थवाचकत्तमित यावदव्यक्तिवृत्तित्वं जातेरेकदा तु न व्यवहियते । किञ्च, पटादी नष्टघटभेद इव जातावतीतानागतव्यक्तिसमवेतत्वं नाऽसम्भवदुक्तिकमिति चेत् ? न, समवायस्यैवाऽविश्वम्भावातिरिक्तस्याऽसिन्दः ।
* जयलता - व्यक्तिसमवेतत्वं = अतीतादिनिखिलघटादिव्यक्तिनिरूपित-समवायसम्बन्धावच्छिन्नवृनिलं, जातेः = घटत्वादिसामान्यस्य निर्वक्ष्यतीति न विशेष्यांशानुपपत्तिः ।
तथाप्येकस्मिन् काले कथं घटत्वादास्तीतादिसकलघटादिव्यक्तिसमवेतत्वन्यबहार: सङ्गच्छते ? इत्याशङ्कायां नैयायिक | आह - भवतां - स्याद्वादिनां एकस्य शब्दस्य यावदर्थवाचकत्त्वं = अतीतादिसर्वघटादिव्यक्तिवाचकत्वं इव यावद्व्यक्ति
वृत्तित्वं = अतीतादिसकलघटादिव्यक्तिनिरूपितसमवायावच्छिन्नवृत्तित्वं जातेः = घटत्वादिसामान्यस्य एकदा = एककालावच्छेदेन तु न व्यरहियते अस्माभिः, किन्तु कालभेदनैवेति शेषः । 'एकमेव घटत्वादिसामान्य पूर्वकालावच्छेदेनाऽतीतघटादिसमवेतं वर्तमानकालावच्छेदन साम्प्रतिकघटादिनिरूपितसमवायसंसर्गावच्छिन्नवृत्तितावत अनागतकालावच्छेदेन च भविष्यद्यदादिदृत्ति' इत्येवमेव प्रतिपाद्यते स्माभिः, घटत्वादेनित्यत्वात्, न तु वर्तमानकालावच्छेदेनाऽतीतादिघटवृत्ति' इति व्यपदिश्यते इति न काऽप्यनुपपत्तिगतिमीयदर्शने ।
ननु तथाप्यतीतादिव्यक्तिसमवेतत्वं घटत्वादेः कथं सम्भवति ! अतीतादिघटादिव्यक्तीनामसत्त्यात्, अन्यथा बन्ध्यापुत्रसमवेतत्वमपि तत्र सम्भवदुस्तिकं स्यात, असत्त्वा-विशेषादित्याकायामाह - किश्चेति । पटादी नष्टघटभेट इवेति । अतीतघटस्याऽसत्त्वेऽपि तनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकभेदस्त पटादौ वर्तत एव, अन्यथा 'नष्टघटो न पटादिः' इतिप्रत्ययानुपपत्तेः । तथैव जाती = घटत्वादी अघि अतीतानागतव्यक्तिसमवेतत्वं नासम्भवदुक्तिकम् । न चैवं वन्ध्या पुत्रसमवेतत्वमपि जाती सम्भवदुक्तिकं स्यादिति वाच्यम्, तस्य कदाऽप्यसत्त्वात्, अतीतघटादेस्तु यदाकदाचित्सत्त्वादिति विशेषात् । ततश्च जातेरनेकसमवेतत्वं निरानाधमिति फलितमिति फक्किकार्थः ।
मलशथिल्यप्रदर्शनेन प्रकरणकार: तमपाकरोति - नेति । अनेकसमवेतत्वघटकीभूतस्य समवायस्यैव पराभिमतस्य अविष्वग्भावातिरिक्तस्य असिद्धेरिति । यदि अनुयोगि-प्रतियोगिव्यतिरिक्तः परेष्टः समवायः सिध्येत् तदा तद्गर्भितं अनेकसमवेतत्वं जाती सिध्येत् । परं स एव नास्ति, तब मानाभावस्य पूर्वमेव (पृष्ठ ४१-५१) विस्तरतः प्रतिपादितत्वात् । परिणामपरिणामिनोस्तु अपृथग्भावलक्षण एव सम्बन्धः । तस्येय समबायवाच्यत्वेऽस्माकं न कश्चिद्विरोधो नाम । परं स च नैकान्तनित्वो न वा सर्वथक एव, तस्य कश्चित्परिणामाश्नतिरेकात, परिणामानां कथञ्चिदनित्यत्वात् स्यादनेकत्वाच्च । अत एवातीतादिश्यक्त्यनुयोगिकत्वस्य कादाचित्कत्वेऽपि तदनुयोगिकसम्बन्धस्यैकत्वेन यावद्व्यक्तिवृत्तित्वं जाते!पपादयितुं शक्यते,
आधग्भावसम्बन्धस्य सर्वथैकत्वविरहात् । एतेन यावद्व्यक्तिवृत्तित्वं जातेरेकदा तु न व्यवह्रियत किन्तु कालभेदेनेति प्रत्युक्तम्, . अनित्यत्वेन यावत्कालं सामान्यस्याऽसत्त्वाचेति भावनीयम् ।
सम्बन्ध एक होने की वजह जाति में यावत् व्यक्ति समवेतत्व भी उपपन्न हो सकता है, यह आगे बताया जायेगा । दृसरी बात यह है कि आप स्याद्वादियों के मत में एक शब्द में एक ही काल में यावदर्थवाचकता की भाँति जाति में एक काल में यावत् व्यक्तिनिरूपित वृत्तित्व का व्यवहार भी नहीं होता है, किन्तु भिन्न-भिन्न काल की अपेक्षा अनेकसमवेतत्व का व्यवहार होता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि विद्यमान पट में जैसे विनष्ट घट का भंद मुमकिन है, ठीक वैसे ही जाति में अतीतानागतव्यक्तिसमवेतत्व भी मुमकिन है । इसलिए याचव्यक्तिसमवेतत्व का जाति में प्रतिपादन करना नामुमकिन नहीं है । अत: 'नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्व' यह जातिलक्षण सुसंगत है - ' यह फलित होता है।
स्याद्वादी:- न सम, इति । ओ नैयायिक महाशय ! अब पछताये होत क्या जब चिडियाँ चुग गई खेत ! अविप्नग्भाव से अतिरिक्त समवाय नाम का सम्बन्ध ही असिद्ध है तो फिर समवायघटित अनेकसमवेतत्व भी जाति में कैसे उपपन्न होगा ? क्योंकि अनेकसमवेतत्व का अर्थ याबव्यक्तिनिरूपित समवायसम्बन्धावच्छिन्न वृत्तिता । उसका घटक समवाय असिद्ध होने से विशेप्यांश अनेकसमवेतत्व भी असिद्ध ही रहता है। फलतः नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्व भी जाति में नामुमकिन होगा।
* तुर्धमान उपाध्याय के मत का जिरासा *
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*वर्धमानोपाध्यायमतालोचनम् * एलेन अनेकवृत्तित्वं स्वाश्रयाऽन्योन्याभावसामानाधिकरण्यमि' ( ) ति व मान- | वचनमध्यपास्तम्, विशेषेऽतिव्याप्तितादवस्थ्यवारणाय सामानाधिकरण्यस्य समवायगर्भत्वावश्यकत्वात् ।
* जयलता * __एतेनेति । अपृथग्भावातिरिक्तसमवायनिराकरणेनेत्यर्थः । अस्याऽपास्तमित्यनेनाऽन्वयः । सामान्यनिष्ठं अनेकवृनित्त्वं नाम स्वाश्रयान्योन्याभावसामानाधिकरण्यं = स्वाधिकरणप्रतियोगिकभेदाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वम् । स्वपदेन सामान्यस्य ग्रहणम् । 'स्वाश्रये'त्युक्त्या सामान्ये स्वाश्रयवृत्तित्वं प्रतीयते । स्वाश्रयभिन्ननिरूपितवृत्तित्वस्य चाग्रभागेन भानादनेकवृत्तित्वोपपत्तिः । तथाहि - घटत्वे स्वाश्रयनीलघटनिरूपितवृत्तित्वं स्वाश्रयनीलघटप्रतियोगिकभेदाधिकरणीभूतपीतादिघटनिरूपितवृत्तित्वञ्च वर्त्तते इत्यनेकवृत्तित्वं घटत्वलक्षणसामान्य उपपद्यते । एवमेव पदत्वादिस्वरूपसामान्येऽपि भावनीयमित्यर्थकं वर्धमानवचनं = गङ्गेशपुत्रवर्धमानवचनं अपि अपास्तम् ।
यत्किञ्चित्सम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वाभ्युपगमे विशेषादावतिव्याप्तिप्रसङ्गात् । विशेषे स्वाश्रयपरमाणुनिरूपितवृत्तित्वस्य स्वाश्रय - परमाणुप्रतियोगिकभेदाधिकरणीभूतघटादिव्यक्तिनिरूपितकालिकसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वस्य च सत्त्वात, घटादेरनित्यत्वेन कालोपाधितया कालिकसंसर्गेण विशेषाश्रयत्वात् । एवमेव समवायाऽभावद्रव्यगणादा-बपि सम्बन्धभेदेनाजतिब्याप्तेः । ततश्च विशेषे उपलक्षमात्समवाये च अतिव्याप्तितादवस्थ्यवारणाय सामानाधिकरण्यस्य समवायगर्भवावश्यकत्वादिति । ततश्चानेकवृत्तित्वं स्वाश्रयप्रतियोगिकभेदाधिकरणनिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छित्रवृत्तित्वमित्यभ्युपगन्तव्यम् । ततो न विशेषादाबतिव्याप्तितावस्थ्यम, घटादी परमाणुवृत्तिविशेषस्य समवायेनाऽवृत्तित्वात, समवायादेश्च समवायेन स्वाश्रयभेदाधिकरणाऽवृत्तित्वात् । न च कपालद्वयादिप्रारब्धघटादावतिव्याप्तिः, स्वाश्रयप्रथमकपालप्रतियोगिकभेदाधिकरणीभूतद्वितीयकपालनिरूपितसमवायसंसर्गावच्छिन्नवृत्तित्वमत्त्वादिति वाच्यम्, सामान्यलक्षणे 'नित्यत्वे सती'ति विशेषणात् । एतेन संयागादाबतिव्याप्तिरपि प्रत्युक्ता, नित्यसंयोगानभ्युपगमात् । परन्त्वेवमवश्यक्लुप्तं समवायगर्भितसामानाधिकरण्यं तदभिमतसमवायस्याऽसत्त्देन न घटामञ्चति, समवायनिरासेनैव तन्निरासात् । अविष्वग्भावस्थानीयसमवायाऽङ्गीकारे तु सामान्येऽतीतानागतव्यक्तिनिरूपितवृत्तित्वाऽसम्भवेन याबव्यक्तिवृत्तित्वं बाधितम्, अविष्वग्भावस्य नानात्वात् । अविश्वग्भावस्य कश्चिदेकत्वेनाऽतीतादियावद्व्यक्तिनिरूपितवृत्तित्वोपपादने तु अभावेऽ- . तिव्याप्तितादबस्थ्यात् । न चा:भावभिन्नत्वे सतीति विदोषणान्न दोष इति वक्तव्यम्, गौरवात्, नित्यसंयोगेऽतिच्याप्तेश्च । न च नित्यसंयोगे मानाभाव इति वाच्यम्, 'गगनं मात्मसंयुक्तमिति प्रतीतेः प्रामाण्यापत्तेः तदभ्युपगमस्याउवदयकत्वात् ।
एतेन. इति । जातिनिष्ठ अनेकसमवेतत्व की व्याख्या वर्धमान उपाध्याय इस तरह करते हैं कि -> 'अनेकसमरेतत्व का मतलब है अनेकवृत्तित्व और वह स्वाश्रयाऽन्योन्याभावसामानाधिकरण्यस्वरूप है । स्वपद से जाति का ग्रहण अभिप्रेत है। जैसे स्व = घटत्वजाति का आश्रय विवक्षित नील घट और उसका भेद रहता है पीतादि घट में, जिसमें घटत्व रहता है। वही अनेकवृत्तित्व = स्वाश्रयभेदसामानाधिकरण्य = स्वाश्रयभेदाधिकरणनिरूपितवृतित्व है। इस तरह घटत्व स्वाश्रय = नील घट एवं स्वाश्रयभिन्न = पीतादि घट में वृत्ति होने से अनेकवृत्तित्वविशिष्ट है । इस तरह जातिलक्षण के विशेप्य अंश की घटत्व जाति में उपपत्ति होने से जातिलक्षण असंभवदोपग्रस्त नहीं है एवं पटत्वादि जाति में अज्याप्ति दोष भी अप्रसक्त है, क्योंकि नीलपट - स्वाश्रय के भेद के अधिकरण पीतादि पट की उत्तिता = स्वाश्रयभित्रवृत्तित्व पटत्व जाति में अबाधित है' -- मगर यह व्याख्या भी असंगत है, क्योंकि इस तरह असंभव और अन्याप्ति दोष का निराकरण करने पर अतिव्याप्ति दोप प्रसक्त होता है। देखिये, परमाणु में विशेप नाम का पदार्थ नैयायिकमतानुसार रहता है । अतः स्व = परमाणुगत विशेप के आश्रय = परमाणु के भेद का अधिकरण = स्वाश्रयान्योन्याभाराधिकरण घट, पट आदि पदार्थ होते हैं, जिनमें कालिकसम्बन्ध से विशेष पदार्थ रहता है, क्योंकि अनित्य होने की बजह घटादि कालोपाधि बनते हैं। अतः स्वाधयभेदाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वात्मक अनेकवृत्तित्व विशेष में भी रहता है। विशेष तो जाति नहीं होने से अलक्ष्य है, फिर भी उसमें उक्त अनेकवृत्तित्व रहने से अतिच्याप्ति दोप का प्रसंग आता है। ऊँट को निकालने पर भी बकरी तो घुस ही गई । इस अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिए गंगेश उपाध्याय से सपूत वर्धमान उपाध्याय को यही कहना होगा कि-> 'स्वाश्रयभेदामानाधिकरण्य कालिकादि यत्किञ्चित् सम्बन्ध से नहीं किन्तु समवाय सम्बन्ध से अभिमत है । स्व (= विशेष) आश्रय (= परमाणु) भेदाधिकरणीभूत घटादि में विशेष, जो सात पदार्थ में से पाँचवा पदार्थ है, समवाय सम्बन्ध से तो नहीं ही रहता है। अतः स्वाश्रयभेदाधिकरण-निरूपित समवायसम्बन्थावच्छिन्न वृत्तित्व तो विशेषपदार्थ में नहीं रहने से अतिव्याप्ति दोष का अवकाश
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५०५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ७ * विशेषपदार्थाऽनुपपत्तिः *
विशेषपदार्थ स्वीकारोऽपि तेषां भेदकधर्मान्तराभाववतां परमाण्वादीनां नित्यद्रव्याणां परस्परयोगिभेदप्रत्यक्षान्यथाऽनुपपत्तेः । सोऽप्यनुपपन्नः, तद्गुणेष्वपि तत्स्वीकारापत्तेः ।
* जयलता
वस्तुतस्तु समानानां स्वभाव एवं सामान्यं, न त्वतिरिक्तम् । अत एव स्व-स्वातिरिक्तपदार्थेषु प्रमेयत्वस्वभावेन 'प्रमेयमिति बुद्धिवत् भावत्वस्वभावेनैव 'सदि' तिधीरिति दिक् ।
नैयायिकसम्मतविशेषपदार्थखण्डनार्थमुपक्रमते विशेषपदार्थस्वीकारोऽपीति । अतिरिक्तविशेषाख्यपदार्थाऽभ्युपगमोऽपि, अस्याग्रे 'अन्यधानुपपत्तेरि' त्यत्राऽन्वयः । तेषां = नैयायिकानां भेदकधर्मान्तराभाववतां = व्यावर्त्तकधर्मविरहवतां सतां परमाण्वादीनां = परमाण्वाकाशात्मदिक्कालमनसां नित्यद्रव्याणां परस्परं योगिभेदप्रत्यक्षान्यथानुपपत्तेः परस्परप्रतियोगिकदगोचरयोगजप्रत्यासत्तिजन्यसाक्षात्कारस्य भेदकधर्ममन्तरा असङ्गतिप्रसङ्गात् । यद्यपि द्रयणुकेषु कथञ्चित्त्रसरेणुषु च परस्परस्माद् भेदस्य लौकिकप्रत्यक्षाऽसम्भवेऽपि योग्यसन्निकर्षेण घटादिषु परस्परप्रतियोगिकभेदः प्रत्यक्षसिद्ध एवेति न तत्र व्यावर्त्तकधर्माऽपेक्षा तथापि पटादिषु परस्परसंश्लिष्टावयवेषु चालोकादिषु तथाविधेषु परस्परावयवभेदग्रहान्वयव्यतिरेकानुविधायिभेदग्रहो ऽवयविनां दृष्टो नापह्नोतुमर्हति । स च क्वचित्प्रत्यक्षरूपः संशयोत्तर प्रत्यक्षे विशेषदर्शनस्य कारणत्वात् । यदा तु प्रत्यक्षसामग्र्याः परिकरन्यूनता तदाऽनुमितिस्वरूपः । उभयथाऽपि तत्तदवयवभेदस्य व्यावर्त्तकत्वमव्याहतम् । भेदबोधजनकश्री विषयत्वमेव हि व्यावर्तकत्वम् । किञ्च प्रत्यक्षावगतमपि भेदमप्रामाण्यशङ्काकलका उपनयनाय दृढतरसंस्कारसम्पादनाय परं प्रति सम्यगुपपादनाय च युक्तिभिः स्थिरीचिकीर्षवः तत्तदवयवभेदमेव युक्तितयाऽवगच्छन्तो दृष्टाः । अयणुकादेस्तु योगिनां
प्रत्यक्षं परमाणुभेदावबोधात्सम्भवले अर्धयपरमानून जलादिनाशुमेह मोमिनां जातिभेदग्रहादेव सम्भवति । परं | सजातीयपरगाणून परस्परं भेदप्रत्यक्षं योगिनां नावयवभेदग्रहात् वैजात्यग्रहाह्रा सम्भवति, तेषां निरवयवत्वात्, सजातीयत्वाच्च । नव निर्निमितमेव तदङ्गीकार्यम्, अन्यत्राऽपि तथाप्रसङ्गात् । अतः तदनुरोधेन परमाण्वादिषु क्लृप्तपदार्थातिरिक्तो विशेषाभिधानः पञ्चमपदार्थ: स्वीकर्तव्य इति नैयायिकाभिप्रायः ।
प्रकरणकारस्तन्निराकरोति सः = अतिरिक्तविशेषपदार्धस्वीकार : अपि अनुपपन्नः, तद्गुणेषु = परमाण्वादिगुणेषु अपि तत्स्वीकारापत्तेः विशेषपदार्थाङ्गीकारप्रसङ्गात् तेषु परस्परप्रतियोगिकभेदविषयकयोगिप्रत्यक्षानुपपत्तेः, अन्यथाऽर्ध
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नहीं है मगर समवाय सम्बन्ध का तो हम स्वाद्वादी पहले ही खण्डन कर चुके हैं, तब समवायगर्भित स्वाश्रयभेदसामानाधिकरण्य की बॉंग पुकारना कैसे समीचीन होगा ? अतः वर्धमान उपाध्याय का वक्तव्य भी असंगत है ।
ॐ नैयायिकसंगत विशेषपदार्थ अप्रामाणिक
विश इति । जैसे नैयायिकसम्मत सामान्य पदार्थ अप्रामाणिक है ठीक वैसे ही नैयायिक अभिमत विशेष पदार्थ भी अप्रामाणिक है। विशेष पदार्थ की सिद्धि के लिए नैयायिक मनीषियों की ओर से यह युक्ति बताई जाती है कि *घट और पट विजातीय द्रव्य के बीच परस्पर के भेद का साधक घटत्व पटव जातिभेद है । सजातीय घट घट के बीच परस्पर के भेद कर साधक उनका अवयवभेद है, क्योंकि दोनों घट के अवयव कपाल मित्र होते हैं। इस तरह दो द्व्यणुक के बीच भेद का साधक उनके अवयव परमाणुओं का भेद होता है। मगर निरवयव परमाणुओं के बीच भेद का साधक कौन होगा ? क्योंकि परमाणुओं में कोई अवयव नहीं होते हैं । हाँ, पार्थिव परमाणु और जलीय परमाणु के भेद का साधक पृथ्वीत्व, जलत्व सामान्यभेद हो सकता है, मगर दो पार्थिव परमाणुओं के भेद का साधक जातिभेद नहीं हो सकता, क्योंकि उनमें भिन्न जाति नहीं होती है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि सजातीय अनेक परमाणुओं में भेद ही नहीं होता है, क्योंकि योगी को सजातीय परमाणुओं में भेद का योगज प्रत्यक्ष होता है । योगजप्रत्यासनिजन्य सजातीयअनेकपरमाणुreasure योगिप्रत्यक्ष की अन्यथा अनुपपत्ति से भिन्न अवयवादि भेदकधर्म से शून्य सजातीय परमाणुओ में विशेष नामक अतिरिक्त पदार्थ की कल्पना की जाती है । सजातीय परमाणुओं में विशेषपदार्थ अलग - अलग होने से योगियों को उन परमाणुओं में भेद का साक्षात्कार होता है । इस तरह विशेष नामक पंचम पदार्थ की सिद्धि होती है" -
सोऽप्य इति । मगर प्रकरणकार श्रीमद्जी का इसके खिलाफ यह वक्तव्य है कि उक्त रीति से विशेष पदार्थ का स्वीकार भी अनुपपन्न अप्रामाणिक है, क्योंकि तब तो परमाणुओं के गुणों में भी भेदसिद्धि के लिए विशेष पदार्थ के स्वीकार की आपत्ति, जो नैयायिक को अनिष्ट है, आयेगी। सजातीय अनेक परमाणु के भेद के योगिप्रत्यक्ष की अनुपपत्ति
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* अवान्तरजातीयरूपादिन्यावृत्तिविधारः * अथ तत्र शुक्लतरत्वाद्यवान्तरजातयः स्वीक्रियन्ते, परमाणों स्वन्त्यकार्याऽवृत्तित्वादवान्तरजातयः स्वीकतुं न शक्यन्त इति चेत् । तथापि अवान्तरजातीयेष्वपि रूपादौ(?दिषु) परस्परख्यावृत्ति: किमधीना ?
* जयलता * || जरतीयापत्तेः ।
परः शङ्कते - अथेति । 'वेदि' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तत्र = परमाणुगणेषु शुक्लादिलक्षणेषु, शुक्लत्तरत्वाद्यचान्तर- ! जातयः = शुक्लत्वादिव्याप्याः शुक्लसात गुरुलतमकीलता वादिनमः ल्वी क्रियाले अस्माभिः नैयायिकैरिति शेषः ।। सजातीयपरमाण्वोः शुक्लगुणो शुक्लत्वव्याख्याभ्यां शुक्लतरत्व-शुक्लतमत्त्वाभ्यामेव परस्परं भिद्यते इति न तदर्थं तत्र विशेष| कल्पनमर्हति । अक्लप्तकल्पने तु गौरचमिति योगाशय: । 'तर्हि सजातीयपरमाणुष्वपि पृथ्वीत्वाद्यदान्तरजातयः कल्पयतस्तव किं छिद्यते येन तत्र विशेषकल्पनायासमातनुसे ?' इत्याशङ्कायां नैयायिक आह् - परमाणी त्विति । परमाणुगुणापेक्षया परमाणी विशेषसूचनार्थः तुशब्दः । तदेवाह - अन्त्यकार्याऽवृत्तित्वात् = सजातीयव्यणुकलक्षणान्त्यकार्याऽसमबेतत्वात्, अवान्तरजातयः = पृथ्वीत्वादिव्याप्यजातयः स्वीकर्तुं न शक्यन्त इति । पार्थिवजलीयद्वयणुकयोः द्रव्यत्वव्याप्यपृथ्वीत्त्वजलत्वजात्योः समवेतत्वेन तत्कारणीभूतपरमाणुष द्रव्यत्वन्यूनवृत्तिपृथिवीत्वजलत्वजातिविशेषो कल्पयितुं शक्येते परं सजातीयद्वचणुकयो: पृथिवीत्वाधवान्तरजातिविरहेण तत्कारणीभूतपरमाणुषु पृथिवीत्वादिव्याप्यजातयः कल्पयितुं नाईन्ति । ततश्च सजातीयपरमाणुषु परस्परप्रतियोगिकभेदगोचरयोगिप्रत्यक्षान्यथानुपपत्त्या अतिरिक्तविशेषकल्पनमस्त्येवेति नैयायिकाभिप्रायः ।।
___ यद्यपि परमाण्वादिसमवेतनित्यैकत्वपरिमाणादिगुणेषु परेणाऽवान्तरजातयो नैव स्वीकर्तुं शक्यन्त इति तत्र विशेषपदार्थाङ्गीकारप्रसङ्गस्य दुरित्वं तथापि स्फुटत्वात्तदोषमुपेक्ष्य अभ्युपगमवादेन प्रकरणकृदाह - तथापीति । सजातीयपरमाणुशुक्लादिगुणेषु शुक्लतरत्व-शुक्लतमत्वादीनां शुक्लत्वादिव्याप्यजातीनां कल्पनेऽपीति । अवान्तरजातीयेपु शुक्लत्यादिव्याप्यजाति। विशेषविशिष्टेषु अपि रूपादिषु शुक्लादिरूपादिगुणेषु सजातीयपरमाणुसमवेतेषु परस्परयावृत्तिः = इतरेतरप्रतियोगिक
भेदलक्षणन्यावृत्ति: किमधीना ? = किंनिमित्तका ? परमाणसमवेतयोः शक्लतरशक्लतमरूपयो: परस्परल्यावृत्तेः शुक्लतरत्व शुक्लतमत्वजातिविशेषनिमित्तकत्वोपपादनेऽपि सजातीयपरमाणुसमवेतयोः शुक्लतररूपयोः परस्परप्रतियोगिकभेदस्य योगिसाक्षाकारविषयस्य नाऽवान्तरजातिविशेषनिमित्तकत्वमुपपादयितुं शक्यते, द्वयोः शुक्लतरत्वजातेः समवेतत्वेनाऽविशेषात् । अतः तत्र
से भेदाश्रय सजातीय परमाणुओं में विशेष पदार्थ का स्वीकार जैसे किया जाता है, ठीक वैसे ही सजातीय परमाणुओं के सजातीय शुक्ल आदि गुणों के भेदविषयक योगिप्रत्यक्ष की अन्यथाअनुपपनि से सजातीयपरमाणुवृत्ति अनेक शुक्ल गुणों में भी, जो परस्परप्रतियोगिक भेद के आश्रय हैं, विशेप पदार्थ का स्वीकार भी तुल्य युक्ति से मान्य करना होगा।
नैयायिक :- अथ त, इति । जी नहीं, परमाणुगत अनेक सजातीय शुक्ल गुणों में विशेष पदार्थ के स्वीकार की आपत्ति हमारे मत में नहीं होगी, क्योंकि परमाणुओं के अनेक शुक्ल गुणों में शुक्लतरत्व, शुक्लतमत्वस्वरूप अवान्तर जातिविशेप का हम अंगीकार करते हैं, जो उनका भेदक है। मगर पार्थिव अनेक परमाणु या जलीय अनेक परमाणुओं में अवान्तर जातिविशेष की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि अंत्य कार्य पार्थिव द्वयणुकों में ही अवान्तर जातिविशेष नहीं रहती है । पार्धिक द्वयणुक और जलीय ट्यणुक में अचान्तर = द्रव्यत्वव्याप्य पृथ्वीत्व-जलत्व जातिविशेष रहने से पार्थिव परमाणु और जलीय परमाणु में अवान्तर पृथ्वीवादि जातिविशेष की कल्पना की जा सकती है । मगर दो पार्थिव पणुक में अवान्तर जातिविशेप नहीं होने से उनके अवयच पार्थिव परमाणुओं में अवान्तर जातिविशेप की कल्पना नहीं की जा सकती है। सजातीय परमाणुओं में परस्पर भेदक जातिविशेष नहीं होने की वजह उनमें विशेष पदार्थ की कल्पना आवश्यक बन जाती है, जिससे सजातीय परमाणुओं में परस्पर भेदविषयक योगिप्रत्यक्ष मुमकिन बने ।
स्याद्वादी :- तथापि, इति । ठीक है दो शुक्ल गुण में शुक्लतरत्व और शुक्लतमत्व नामक जातिविशेप की कल्पना कर के आप नैयायिक महाशय ने दो शुक्ल गुण में भेदविषयक योगिप्रत्यक्ष का समर्थन किया । मगर अनेक शुक्लतर गुणों में, जो सजातीय अनेक परमाणुओं में रहते हैं, परस्पर भेदविषयक जो योगिप्रत्यक्ष होता है, उसकी उपपत्ति आप कैसे करेंगे ? क्योंकि उनमें तो शुक्लतरत्व जाति समान ही है। इसलिए अवान्तर जातिविशेष की कल्पना से भी वहाँ भेदावगाही योगिसाक्षात्कार की उपपत्ति नहीं हो सकती है। इसलिए शुक्लतरत्व जाति के आश्रय अनेक शुक्लतर गुणों में भी विशेष पदार्थ का स्वीकार आपके लिए अनिवार्य हो जायेगा, जिससे उनमें परस्परभेदावगाही योगिप्रत्यक्ष की उपपत्ति हो सके, अन्यथा
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५०७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * विशेषो नित्यद्रव्यवृत्तिः गुणवृत्तिा ? इत्यत्राविनिगमः *
स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्धेन विशेषाधीनैवेति चेत् १ तर्हि 'स विशेषो गुणनिष्ठ एव कल्प्यतां । परमाण्वादिषु परस्परख्यावृत्तिस्तु स्वाश्रयसमवायित्वसम्बन्धेन विशेषाधीना' इत्यत्र किं विनिगमकम् ? 'गुणानां बहुत्वात् तत्राऽनन्तविशेषकल्पनायां गौरवं बाधकमिति चेत् ? ||
= = = =* लयलवा *= = = परेणाऽवश्यं विशेषाभिधानपञ्चमपदार्थकल्पनं कर्तव्यमिति विशेषस्य निरवयवद्रव्यसमवेतत्वराद्धान्तभमसङ्गः परस्य दुर इति प्रकरणकृदभिप्राय: ।
नैयायिकः शङ्कते - स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्धेनेति | स्वपदेन परमाणुसमवेतातिरिक्तविशेषपदाधंग्रहः, तदाश्रये = तत्समवायिनि परमाणी आश्रितं = समवेतं यच्छुकलनादिरूपादि तत्र स्वाश्रयाश्रितत्वसंसर्गेण परमाणुसमवेतविशेषो वर्नत इति परमाणुसमवेतयोः शुक्लतररूपयो: परस्परप्रतियोगिकन्यावृनिः स्वसमवायिसमवेतत्वसंसर्गेण विशेषाधीना = विशेषनिमित्तका एवेति न शुक्लनररूपादौ समवायेन विशेषपदार्थंकल्पनाप्रसङ्गः, निरुक्तसंसर्गण तत्रैकस्य विशेषपदार्धस्याऽवर्तमानत्वात्, प्रति| परमाणु तद्भेदादिति गौतमीयाभिप्रायः ।
प्रतिबन्या प्रकरणकृत् प्रत्युत्तरयति - तहीति । अन्यत्र समवेतेनैव विशेषपदार्थेन परम्परया क्वचिदन्यत्र परस्परच्यावृत्तिसम्भवे || इति । सः = परस्परसजातीयव्यावृत्तिनिमित्तकः विशेषः समवायेन गुणनिष्ठ एव कल्प्यतां नैयायिकैः युष्माभिः । 'तर्हि
सजातीयपरमाणुषु परस्परयावृत्त्युपपत्तिः कथं ? इत्याशङ्कायामाह - परमाण्वादिषु परस्परव्यावृत्तिः तुर्विशेषणार्धः तदेवाहस्वाश्रयसमवायित्वसम्बन्धेनेति । स्वसमवायिसमवायित्वसम्बन्धेनेति । स्वपदेन गुणवृत्तिविदोषग्रहणं, तत्समवायिषु परमाणुप्रभृतिसमवेत शुक्लतरादिगुणेषु परमावादीनां समवायित्वेन परमाण्वादिषु स्वसमवापिसमवायित्वसंसर्गेण विशेषाणां वृत्तित्वेन तत्र परस्परश्यावृत्तिः निरुक्तसंसर्गेण विशेषाधीना = विशेषनिमित्तका सम्भवत्येव कल्पयितुं, प्रतिगुणं विशेषभेदेन 'परमाण्वादिप्वेकस्यैव तम्य निरुक्तसंसर्गेगाऽवृत्तेः । ततश्च विशेष: निरचयबद्रव्यसमवेतः सन् परम्परया तद्गुणेषु परस्परच्यावृत्तिधियं जनयति यदुत निरवयवद्रव्यगुणसमवेतः सन् परम्परया निरवयवद्रव्येषु परस्परच्यावृत्तिबुद्धिमादधातीत्यत्र किं चिनिगमकं = एकतरपक्ष- | पातियुक्त्यादिकं ? नैवेत्यर्धः । ।
नैयायिक: विनिगमकमावेदयति - गुणानां = परमाग्वादिसमवेतगुणानां परमाण्वाद्यपेक्षया बहुत्वात् = अधिक।। सङ्ख्याकत्वात् तत्र = निरचयवद्रव्यगुणेषु अनन्तविशेषकल्पनायां = अधिकानन्तविशेषपदार्थकल्पनायां गौरवं बाधकम् । | न च प्रतिनिरवयवद्रव्यमनन्तगुणानामनभ्युपगमात्कथमधिकानन्तविदोषपदार्थकल्पनापत्तिः विशेषाणां तद्गुणसमवेतत्वकल्पन इति
'शुक्लतर अनेक गुणों में परस्परभेदविषयक योगिप्रत्यक्ष किंनिमित्तक है ? यह समस्या मुँह फाड़े खड़ी रहेगी ।
नैयायिक:- रवाश्र. इति । जनाब, सजातीय परमाणुओं में रहने वाले अनेक शुक्लतर गुणों में भेदविपयक योगिप्रत्यक्ष की उपपत्ति तो परस्परभेद के आश्रय अनेक शुक्लतर गुणों के आश्रय सजातीय परमाणु में वृनि विशेष पदार्थ ही स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्ध से करेगा, क्योंकि स्व = विशेप के आश्रय सजातीय परमाणुओं में शुक्लतर अनेक गुण आश्रित होने से सजातीयपरमाणुसमवेत विशेष पदार्थ स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्ध से शुक्लतर गुणों में, जो सजातीयपरमाणुगत हैं, रहते हैं। अतः शुक्लतर अनेक गुणों में परस्परप्रतियोगिक भेद की उपपत्ति के लिए समवाय सम्बन्ध से शुक्लतर गुणों में विशेष पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है। अतः 'शुक्लतर गुणों में परस्परप्रतियोगिक भेद की उपपत्ति किसके अधीन होगी ?' इस समस्या | को अवकाश नहीं है।
विशेषपदार्थ परमाणु में है या उनके गुण में 2 स्याद्वादी :- नहि. इति । आप नैयायिक विशेष पदार्थ को समवाय सम्बन्ध से परमाणु में मान कर उसे ही स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्ध से सजातीयपरमाणुगत सजातीय गुणों के परस्पर भेद का निर्वाहक मानते है । इसकी अपेक्षा विशेष पदार्थ को समवाय सम्बन्ध से सजातीय गुणों में, जो सजातीय परमाणुओ में रहते हैं, ही मान कर उसे स्वाश्रयसमवायित्वसम्बन्ध से सजातीय परमाणुओं के परस्परप्रतियोगिक भेद का निर्वाहक = निमित्त क्यों नहीं मानते हैं ? क्योंकि स्व = विशेष के आश्रय - सजातीय गुण का समवायी सजातीय परमाणु होने से गुणसमवेत विशेप पदार्थ स्वाश्रयसमवायित्वसम्बन्ध से सजातीय परमाणुओं में रह सकता है । इसलिए विशेष पदार्थ को परमाणुसमवेत माना जाय या परमाणुगुणसमवेत माना
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* नृसिंह-महादेववचननिराकरणम् * || तशा प्रत्येकं विनिगमनाविरहः कुत्र लीन: ? किश, तादृशविशेषाणामपि व्यावृत्तिः कुतः ? 'स्वत एवेति' चेत् ?
= = =* जयलता *== वाच्यम्, निरवयवद्रव्याणामनन्तत्वेन प्रतिनिरवयवद्रव्यमनेकेषां गुणानां समवेतत्वेन च विशेषाणां निरवयवद्रव्येषु समवेतत्वकल्पनापेक्षया तद्गुणेषु तत्त्वकल्पनेऽधिकानन्तविशेषकल्पनागौरवस्या व्याहतप्रसरत्वात् । वस्तुतस्तु निरवयवद्रव्यगुणेषु विशेषाणां समवेतत्वकल्पनेऽनन्तगुणाधिकविशेषपदार्थकल्पनागौरबं, पाकजरूपादीनामनित्यत्वेनैकस्मिन्नपि परमाणवादी कालभेदेनाऽनन्तपाकजादिगुणानां सम्भवादिति प्रकृतगौरवमेव विशेषाणां निरवयवद्रव्यगुणसमवेतत्वे बाधक सन्निरचयवद्रव्यसमवेतत्वनिर्णायकमिति नैयायिकाभिप्रायः । !!
प्रीढिवादेन प्रकरणकृत्प्रत्यवतिष्ठते → तथापीति । परमाण्वादीनां सर्वेषु गुणेषु विशेषकल्पनायामनन्तगुणाधिकविशेष - पदार्थकल्पनागौरखें सत्यपीति । प्रत्येकं विनिगमनाविरहः कुत्र लीनः ? विशेषः समवायेन परमावादी वर्तते आहोस्वित् तदीये एकस्मिन् रूपादी गुणे ? इत्यस्य विनिगमनाविरहस्य बद्रकक्षत्वमव्याहतमेव, तुल्यगौरवादिति । एतेन -> 'नित्यद्रव्येषु विशेषसिद्धी तादृशविशेषेणैव तादृशनित्यद्रव्यवृत्तिगुणक्रियाध्वंसादेरपि व्यावृत्तिसम्भवान्न तेष्वपि विशेषाङ्गीकार आवश्यक «|! (मु.प्र.पू. १२९) इति नृसिंहवचनं, तथा -> 'नित्यद्रव्येषु विदोषाः सिद्धाः तद्गुणास्तु न विशेषवन्तः, आश्रयरूपेण विशेषेणैव
आश्रयस्य च विशेषबत्तया व्यावृत्तत्वेन विशेषत्वसम्भवादि' -(म.दि.प.१२२)ति महादेववचनञ्च निरस्ते, विशेषाणां रूपादिवृत्तित्वे विनिगमकाभावात् । 'रूपादिनिष्ठत्वे तस्य सजातीयघटद्वयपर्यन्तः परम्परासंबन्धो बहुघटितः स्यादिति
चेत ? किं ततः ? नानारूपवदवयवारब्धावयविनो नीरूपत्वमते तत्प्रत्यक्षत्वाय परमाणगतरूपस्य तवृत्तितानियामकसम्बन्धविशेषवदिहापि तादृशसम्बन्धविशेषकल्पने तब रसनाया अव्याहतप्रसरत्वात् । 'योगिनो विशेषमीक्षन्ते' इति चेत् ! तर्हि न एव प्रष्टव्याः किं ते विशेषमतिरिक्तमीक्षन्तेऽनतिरिक्तं वा ? इति श्रद्धामात्रगम्य एवायं विशेषपदार्ध' (वादसंग्रह-पृ.१११) । इत्यधिकं विशेषवादे द्रष्टव्यम् ।
लघुस्याद्वादरहस्ये चात्र 'रूपे एव विशेषः कल्यते पृथिवीपरमाणुरूपाणां पाकादिनैव विशेषः, तत्र विशेषाःकल्पनलाघवादित्यग्याहुः' (ल.स्या.रह.पृ.२१) इत्पधिकः पाठः सुगमश्चेति न तन्यते ।
ननु विशेषाः परस्परवृत्तिविशेषभिन्नत्वेनाऽज्ञाताः कथं परस्परस्मात्परमाणूनां भेदका भविष्यन्ति ? विशेषेषु विशेषाऽगीकारे त्वनवस्थेत्युभयतः पादारज्जरित्याशयेन प्रकरणकदाह - किश्चेति । तादशविशेषाणां = निरवयवद्रव्यसमवेतविशेषपदार्धानां अपि
स्माद व्यावृत्तिः = भेदः कुतः स्यात्त ? नैयायिक: प्रत्युत्तरयति - स्वत एवेति । स्वत इत्यस्यावृत्तिः । स्वतः = स्वात्मकलिड्गात, स्वतः = स्वीयान स्वसजातीयादिति यावद् स्वात्मकलिङगादित्यत्र पञ्चम्या: ज्ञानज्ञाप्यत्वमर्थः । स्वसजातीयादित्यत्र पञ्चम्याः प्रतियोगित्वमर्थः । एतदुभयमपि भेदेऽन्वेति । तथा च विशेष: स्वात्मकलिङ्गज्ञानजन्यज्ञानविषयस्वसजातीयप्रतियोगिकभेदाश्रय इत्यर्थों लब्धः । स्वत एवेत्यत्रैवकारेण स्वभिन्नलिङ्गज्ञानजन्यज्ञानविषयस्वसजातीयप्रतियोगिकभेदशून्य जाय ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है। अतः परमाणुओं की भाँति तद्गत गुण में भी विशेष की कल्पना करनी पड़ेगी। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "परमाणुओं की अपेक्षा परमाणुगत गुण तो रूप, रस, गन्ध आदि अनेक होते हैं। इसलिए गुण में समवाय सम्बन्ध से विशेष पदार्थ की कल्पना करने में अनन्तअधिक विशेष पदार्थ की कल्पना का गीरव होगा। इसकी अपेक्षा परमाणुओं में विशेष पदार्थ को समवेत मानने पर अल्प संख्या में विशेष पदार्य की कल्पना करनी होगी, जिसमें लाघव है । यह लाघव ही विशेष पदार्थ को परमाणुसमवेत मानने में साधक है और परमाणुगुणसमवेत मानने में बाधक है" - तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि फिर भी 'परमाणु में विशेष पदार्थ को समवेत माना जाय या परमाणुगत रूप-रस-गन्ध आदि गुणों में से किसी एक गुण में उसे समवेत माना जाय ?' इस विषय में तो विनिगमनाविरह का लय = उच्छेद कैसे नैयायिक मनीषी करेंगे ? अतः विशेष पदार्थ को परमाणुओं में ही समवेत मानने का नैयायिक का सिद्धान्त समीचीन नहीं है।
* विशेष स्वत:व्यावृत्त है या उसका आश्रय १ * किव ता. इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि सजातीय परमाणुओं की व्यावृत्ति तो तद्गत विशेष पदार्थ | से हो जायेगी, मगर अनेक परमाणुओं में आश्रित अनेक विशेष पदार्थ की व्यावृत्ति किसके अधीन होगी ? क्योंकि उनमें नो कोई विशेष पदार्थ आप नहीं मानते हैं, जिससे उनकी व्यानि हो सके । यदि यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि --> 'विशेष पदार्थ तो स्वतः व्यावृत्त है। परमाणुओं को परस्परप्रतियोगिक भेद की सिद्धि के लिए विशेष पदार्थ ". -..
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५०९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * विशेषपदार्थविचारे मञ्जूषाकारादिमतप्रकाशनम् *
वहि तदाश्रयाणामपि स्वत एव साऽस्तु । 'वैधार्यव्याप्ता सा कथं तदविने 'ति चेत् ?, | अन्तत: तत्तद्व्यक्तित्वादीनामपि तत्त्वसम्भवात, प्रतिद्रव्यमनन्ताऽगुरुलधुपर्यायाणां सिदान्तसिन्दत्वाच्च ।
* जयता * इत्यों लभ्यते । अत्र व्यावृत्तत्वं भेदनिष्ठविधेयतानिरूपित्तोद्देश्यतारूपमिति (मु.प्र.पृ.१२१) नृसिंहो ब्याचष्टे ।
___ मञ्जूषाकारस्तु → 'यथा वित्यकुरादिकं कृतिजन्यमित्यनुमितौ तस्याः कृतेरनित्यत्वे गौरवमिति गौरवज्ञानसहकाराज्जायमानानुमितिः कृतौ नित्यत्वमप्यवगाहमाना क्षित्यकुरादिकं नित्यकृतिजन्यमित्याकारिकैव जायत एवमेषां व्यावर्तकान्तरव्यावृत्तत्वेनवस्थागौरवमिति ज्ञानसहकाराज्जायमानानुमिति: परस्परभिन्नत्वमव्यवगाहमाना परमाणुषु परस्परभेदानुमिति: परस्परमित्रलिङ्गप्रमाजन्येत्याकारिक जायत इति न विशेषाणां परस्पर भेदसिद्धये लिङ्गान्तरमपेक्षणीयमिति भावः । तथा च स्वतो ज्यावृत्तत्वं स्वग्राहकमानसिद्धभेदकत्वं - (मु.मं.पृ.१२४) इत्याह ।
-> 'स्वतो व्यावृत्तत्वञ्च स्वभिन्नलिजन्यस्वविशेष्यकस्वसजातीयेतरभेदानुमित्यविषयत्वमि' - (मु.दि.पृ.११९)ति महादेवः । रामरुद्रस्तु 'स्वतो ज्यावृत्तत्वं स्वप्रयोज्यस्वनिष्ठस्वसजातीयप्रतियोगिकभेदकत्वमि' त्याह ।
प्रकरणकृत् प्रतिबन्धा प्राह - तहीति । विशेषाणां स्यतो ब्यावर्त्तकत्वे तदाश्रयाणां परमाण्वादीनां अपि स्वत एव = स्वात्मकलिङ्गादेव, सा = स्वसजातीयप्रतियोगिकव्यावृत्तिः अस्तु अनन्तातिरिक्तविशेषान् कल्पयित्वा तत्र स्वतो व्यावर्तकत्वकल्पनापेक्षया 'धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी तिन्यायात् क्लुप्तपरमाण्वादीनामेव स्वतो व्यावर्तकत्वधर्मकल्पनाया उचिनत्वात् ।
पर: प्रत्यवतिष्ठते - वैधर्म्यव्याप्ता = भिन्नधर्माभावनिरूपितवृत्तित्वाभावशालिनी सा = सजातीयच्यावृत्तिः कथं तत् । = वैधयं विना ? न हि सजातीयपरमाण्वादिषु वैधय॑मस्ति, न च तदृते परस्परच्यावृत्तिः सम्भवतीति तस्या अन्यथानुपपत्त्या तत्र विशेषपदार्थलक्षणवैधर्म्यमङ्गीकरणीयमिति नैयायिकाभिप्राय: । प्रकरणकृत्तन्निराकराति - नेति । परमाणुगततत्तक्रियाध्वंसादिभेदेनैव तद्व्यावृत्तिसम्भवात् । न च तत्तक्रियाध्वंसादेर्भेदोऽपि किमधीन: ? इति वाच्यम्, प्रतियोगिभेदेनेव तद्भेदो. पपत्तेः । तत्तक्रियालक्षणप्रतियोगिनां परस्परं व्यावृत्तिः कथं? इत्याशङ्कायामाह . अन्ततः तत्तव्यक्तित्वादीनामपि तत्त्वसम्भवात् = व्यावर्तकत्वसम्भवात् । सजातीयपरमाण्वादीनां तत्तव्यक्तित्वलक्षणप्रातिस्विकरूपेणैव परस्परं व्यावृत्ति: सम्भवति । तत्तव्यक्तित्वस्य कथश्चित्तत्तद्व्यक्त्यव्यतिरिक्ततया नातिरिक्तपदार्थगौरवमिति न विशेषकल्पनं न्याय्यमिति भावः । हेत्वन्तर माह - प्रतिद्रव्यं अनन्तागुरुलघुपर्यायाणां भिन्नानां सिद्धान्तसिद्धत्वाचेति । तैरपि परमाण्वादीनां परस्परं ब्यावृत्तिः सम्भव
की अपेक्षा रहती है, मगर परमाणुगत विशेष पदार्थ को परस्परप्रतियोगिक भेद की सिद्धि के लिए अन्य विशेप पदार्थ की अपेक्षा नहीं है । वे स्वयं ही परस्परप्रतियोगिक भेद के निर्वाहक होते हैं, क्योंकि वे स्वतः विलक्षण हैं, न कि परतः'
- तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अतिरिक्त अनन्त विशेष की कल्पना कर के उनमें स्वतः ब्यावर्तकत्व की कल्पना करने की अपेक्षा विशेपाश्रयविधया अभिमत परमाणुओं में ही स्वत: ज्यावर्नकत्व की कल्पना क्यों न की जाय ? क्योंकि इस पक्ष में अनन्त विशेष की कल्पना अनावश्यक होने से लाघव है । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> 'न्यावृत्ति वैधर्म्यव्याप्त है । सजातीय परमाणुओं में विशेष के अतिरिक्त कोई वैधर्म्य नहीं है, जिसकी वजह उनमें परस्पर ब्यावृत्ति हो सके । अतः विशेष की कल्पना परमाणुओं में आवश्यक ही है, जिससे उनमें परस्परल्यावृत्ति की उपपत्ति हो सके । जब विशेप की कल्पमा परमाणुओ में आवश्यक ही है, तब उन्हें स्वतः ब्यावृत्त कैसे कहा जा सकता है ? बिना वैधयं के व्यावृत्ति = भेद मानने पर तो अपने में भी अपना भेद रहने लगेगा' - तो इसके खिलाफ स्याद्वादियों की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि सजातीय परमाणुओं में दूसरा कुछ वैधर्म्य नैयायिक महाशय को भले ही ना मिले, मगर अंततः तत्तत् व्यक्तित्व आदि में भी परस्परभेदकत्व मुमकिन है । प्रत्येक परमाणुओं का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है और वह प्रत्येक परमाणुस्वरूप ही होता है, न कि उससे अतिरिक्त । इस तरह सजातीय परमाणुओं में भी परस्परप्रतियोगिक भेद की उपपत्ति तत् तत् व्यक्तित्व आदि धर्म से मुमकिन होने से अतिरिक्त अनन्त विशेष पदार्थ की तदर्थ कल्पना करना अनुचित है। दूसरी बात यह है कि प्रत्येक वन्य में अनन्त अगुरुलघु पर्याय होते हैं, जो परस्पर विलक्षण होते हैं एवं कथंचित् स्वाश्रयस्वरूप होते हैं। उनसे परमाणुओ में परस्पर व्यावृत्ति की उपपत्ति हो सकती है। अतः परमाणुओं में परस्परभेद के निर्वाह के
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* विशेषसाधकानुमानस्योपाधिग्रस्तत्वम् * dat -> अयमनारब्धद्रव्य: परमाणुः एतत्परमाणुनिष्ठजातिगुणकर्ममिनधर्मसमवायी परमाणुत्वात, अन्यपरमाणुवदित्यनुमानमपि - निरस्तम्, तर्कविरहेऽनुमानसहमस्याऽकिश्चिकरत्वात्, द्रव्यसमवायित्वस्योपाधित्वाच्च ।
=* जयलता * तीति न तदर्थमतिरिक्तानन्तविशेषपदार्थकल्पना युक्ता ।
एतेनेति । तत्तद्व्यक्तित्वादिभिः परमाण्वादीनां परस्परं ब्यावृत्तिसम्भवेनेति । अस्य निरस्तमित्यनेनाऽन्वयः । पक्षं | निर्दिशति- अयमनारब्धद्रव्यः परमाणुरिति । अनारब्धं द्यणुकलक्षणं द्रव्यं येन स अनारब्धद्रव्यः स्वतन्त्रः परमाणुरिति पावत् । एतत्परमाणुनिष्ठजातिगुणकर्मभिन्नधर्मसमचायीति | साध्यञ्च गुणकर्मसामान्यविजातीयधर्मसमवायित्वं गुणकर्मसामान्याऽतिरिक्तधर्मसमबायित्वं वा । उदाहरणमाह- अन्यपरमाणुवदिति । समारब्धद्रव्यः परमाणुरिवेत्यर्थः । परमाणुत्वहेतुमति समारब्धद्रव्ये परमाणौ गुणकर्मसामान्यातिरिक्तद्वयणुकस्वरूपधर्मसमचायित्वं दृष्टम् । न च यणुकस्य गुणाद्याश्रयस्य कथं धर्मत्वं नाम ? इति शङ्कनीयम्, स्वसमवायिपरमाण्वपेक्षया तस्य धर्मत्वाऽप्रच्यवात्. अन्यथा गुणादेरपि जात्याद्याश्रयत्वेन धर्मत्वं न स्यात् । उपर्युक्तदृष्टान्ते व्याप्तेहात पक्षे स्वतन्त्रपरमाणावपि परमाणुत्वहेतुबलेन गुणकर्मजातिव्यतिरिक्तधर्म समवायित्वं सेत्स्यति । स च धनिकोपपदप्रतिमा, इति प्रकलामा स्वतन्कारजाणी परमाणुत्वहेतुना विशेषसिद्धौ निरवयबद्रव्यत्वहेतुना समारब्धद्रव्येषु परमाणुष गगनादिषु च तत्सिद्भिरिति नैयायिकाभिप्रायः ।।
तन्निरासे प्रकरणकारो हेत्वन्तरमाह - तर्कविरहे इति । विपक्षबाधकयक्तिविरहे इति । अस्त अनारब्धद्रव्ये परमाण परमाणत्वं मास्स गुणकर्मसामान्यातिरिक्तधर्मसमवायित्वं इत्येवं विपरीतकल्पने बाधकं किमपि नैयायिकेन दर्शयितं न पार्यत इति भावः । तदभावे चानुमानसहस्रस्याऽकिञ्चित्करत्वात् व्यभिचारसंशयाऽनिवृत्तेः, सति प्रतिबन्धके साधकस्य कार्योत्पत्तयेऽसमर्थत्वात् । अन्यथा 'अनारब्धद्रव्यं कपालं गुणकर्मसामान्यातिरिक्तधर्मसमवायि कपालत्वात् समारब्धघट कपालमिये त्याद्यनुमानैः कपालादावपि विदोषसिद्धिप्रसङ्गात् ।
प्रदर्शितानुमान दूषणान्तरमाह - द्रव्यसमवायित्वस्य = द्रव्यप्रतियोगिकसमवायवत्त्वस्य परमाणुत्वलक्षणहेती उपाधित्वाचेति । तस्य समारब्धद्रव्येषु परमाणुषु गुणकर्मसामान्यव्यतिरिक्तधर्मसमवायित्वलक्षणसाध्यव्यापकत्वे सति स्वतन्त्रपरमाणुषु लिए अतिरिक्त विशेष पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि → 'प्रत्येक द्रव्य में अनंत अगुरुलधु पर्याय मानने में प्रमाण क्या है ? - क्योंकि जैन आगम = भगवती सूत्र आदि सिद्धान्त ग्रन्थ से ही प्रतिद्रव्य अनंत अगुरुलघु पर्यायविशेप सिद्ध होते हैं। सर्वज्ञकथित होने से जैनागम की प्रामाणिकता में संदेह करना अनुचित है।
* विशेषसा अनुमाज उपाधिग्रस्त - स्यादादी * पतन, इति । नैयायिक विद्वान विशेष पदार्थ की सिद्धि के लिए अनुमान प्रयोग करते हैं कि -> 'अनारन्धद्रव्यपाला (= स्वतन्त्र) यह परमाणु एतत्परमाणु में रहनेवाली जाति, गुण, कर्म से भिन्न धर्म के समवाय वाला है, क्योंकि वह है, जैसे व्यणुक वाले परमाणु । यहाँ स्वतन्त्र विवक्षित परमाणु पक्ष है। एतत्परमाणुसमवेतजातिगुणकर्मभित्रधर्मप्रतियोगिक समवाय साध्य है । परमाणुत्व हेतु है । व्यणुकसमवायी परमाणु = जिनमें व्यणुक समवेत है वैसे परमाणु दृष्टान्त हैं । व्यणुकसमवायी परमाणुओं में परमाणुत्व हेतु रहता है एवं परमाणु-समवेत जाति, गुण, कर्म से भिन्न व्यणुक का, जो परमाणुसमवत हान की अपेक्षा धर्मात्मक है, समवाय भी, जो साध्य है, रहता है। दृष्टान्त में हेतु और साध्य के बीच व्याप्य व्यापकभाव = ब्याप्ति का निश्चय होने से पक्ष = स्वतन्त्र परमाणु में भी परमाणुत्वस्वरूप हेतु से जाति, गुण, कर्म से भिन्न धर्म के समवाय स्वरूप साध्य की सिद्धि हो जायेगी । उस समवाय का प्रतियोगी व्यणुकात्मक धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि स्वतन्त्र परमाणुओं में व्यणुक समवेत नहीं होता है। दूसरा कोई धर्म भी उस समवाय का, जो साध्य है, प्रतियोगी नहीं माना जा सकता 1 अत्तः अन्ततो गत्वा विशेष को ही साध्यात्मक समवाय का प्रतियोगी मानना होगा । अर्थात् जाति गुण, कर्म से भिन्न विशेषपदार्थस्वरूप धर्म का समवाय स्वतंत्र परमाणु में सिद्ध होने से तादृश समवाय के प्रतियोगिविधया विशेष पदार्थ की सिद्धि होगी। अत: विशेष पदार्थ परमाणुसमवेत है-यह फलित होता है । इसलिए विशेप पदार्थ का स्वीकार अवश्य कर्तव्य है' -
तर्कवि. इति । मगर इसके प्रतिविधान में स्याद्वादियों की ओर से यह कहा जाता है कि जब तक व्याप्ति में विपक्षबाधक
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५११ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ७
* रामरुद्रभट्ट - नृसिंहमत्तसमालोचना *
किस, एवमप्याकाशादौ न विशेषसिद्धिः शब्दादेरेव तत्र व्यावतर्कत्वाच्च ।
* जयलता है
परमाणुत्वलक्षणसाधनव्यापकत्वाभावात् । न हि परमाणुत्वशालिषु स्वतन्त्रपरमाणुषु गुणकर्मसामान्यातिरिक्तधर्मप्रतियोगिकसमवायवत्त्वं विशेषसिद्धेः प्राक् प्रसिद्धं । विशेषसिद्धिपूर्वमेव व्यापकीभूतद्रव्यसमवायित्वाभावेनानारब्धद्रव्ये परमाणौ गुणकर्म| सामान्यव्यतिरिक्तधर्मंसमवायित्वलक्षणव्याप्याभावसिद्ध्या तत्र परमाणुत्वहेतोः तत्साधनेऽप्रत्यत्वात् । यद्वा द्रव्यसमवायित्वस्यात्र संदिग्धोपाधित्वं स्वधिया भावनीयम् ।
एतेन
परमाणुभेदः किञ्चिलिङ्गज्ञाप्यः भेदत्वात्, कपालभेदज्ञाप्यघटभेदवदिति - ( मु. रा. प्र. १२२) रामरुद्रभोक्तं निरस्तम् घटादेः परस्परभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वेन दृष्टान्ते साध्यासिद्धेः असिषाधयिषितत्वविशिष्टसिद्धत्वाभावस्योपाधित्वाच । अत एव परमाण्वादीनां परस्परं योगिभेदप्रत्यचान्यथानुपपत्तेर्विशेषसिद्धिरित्यपि प्रतिक्षिप्तम्, योगजधर्म सहकृतमनोजन्धपरमाण्वादिगोचरसाक्षात्कारवतां योगिनां तद्भेदग्रहे व्यावर्त्तकधर्मदर्शनस्याऽहेतुत्वात् ।
दोषान्तरसमुच्चयार्थमाह- किश्चेति । एवमपीति । परमाणुत्वहेतुना स्वतन्त्रपरमाणौ साध्यस्वरूपसमवायित्वप्रतियोगिविधवा विशेष सामने, पालना आकाशादी गगनात्मदिक्कालमनरसु न विशेषसिद्धिः = साध्यवटकविध्या विशेषपदार्थसिद्धिः सम्भवति, तत्र परमाणुत्वहेतो: स्वरूपाऽसिद्धत्वात् । गगनादौ विशेषसाधने परेण निरवयवद्रव्यत्वहेतुप्रदर्शन दूषणान्तरमाह शब्दादेरेवेति । आदिपदेन ज्ञानादिग्रहणम् । तत्र गगनादी व्यावर्तकत्वात् परस्परं भेदकत्वादिति । ईश्वराकाशयां नित्यज्ञानशब्दाभ्यां व्यावृत्तेः सम्भवात्र तंत्र विशेष इत्यपि केचित् । यत्तु नृसिंहैण -> 'नित्यज्ञानस्येश्वरनिष्ठ भेदानुमापकत्वं न ज्ञानत्वेन व्यभिचारित्वात् न नित्यत्वविशिष्टज्ञानत्वेन तदूव्यक्तित्वेन वा सामान्याश्रयस्य सामान्यरूपेण भेदसाधनकत्वनियमात, नित्यज्ञानत्वस्य नित्यत्वघटितत्वेनोपाधिरूपतया तेन रूपेण व्यक्तित्वेन वा व्यावर्तकत्वासम्भवात् ' <- ( मु.प्र. पू. १३०) इत्युक्तं, तभ स्वसमानाधिकरणेश्वरत्वसम्बन्धेन ज्ञानत्वावच्छिन्नस्मैव तदुव्यावर्तकत्वसम्भवात् । न च तादृशस्य सम्बन्धत्वे मानाभाव इति वक्तव्यम् बाधकाभावात् परमाणुगतैकत्वमादाय
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तर्क न हो तब तक हजारों अनुमान प्रयोग किये जाय तो भी उनसे स्वाभिमत साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । यहाँ परमाणु में परमाणुसमवेतजातिगुणकर्मभिन्नधर्म समवायित्व की व्याप्ति का विपक्षवाधक कोई तर्क नहीं है अर्थात् ' स्वतन्त्र परमाणु में परमाणुत्व हेतु भले रहे, मगर परमाणुगतगुर्णकर्मजातिभिन्नधर्म समवायित्व न रहे तो क्या दोष है ? इस विपरीत कल्पना के निवर्तक किसी तर्क का सहारा नेयायिक को नहीं मिलता है, जिसके बल पर नैयायिक उपर्युक्त व्याप्ति को सुरक्षित बना सके । अतः असहाय व्याप्ति के आधार पर उक्त अनुमान के द्वारा स्वतन्त्र परमाणु में विशेषसमवायित्व की सिद्धि नहीं हो सकती। नैयायिक से प्रदर्शित व्याप्ति में कोई अनुकूल तर्क तो नहीं है, मगर उपाधिग्रस्तता ही है। वह उपाधि है द्रव्यसमवायित्व । जो साध्य की व्यापक एवं साधन की अव्यापक हो वह उपाधि कही जाती है। जहाँ जहाँ परमाणुगत गुणकर्म-जातिभिन्न धर्म समवायित्व होता है वहाँ वहाँ द्रव्यसमवायित्व होता है, जैसे पार्थिवद्व्यणुकसमवायी परमाणु, जलीययशुकसमवायी परमाणु आदि में । इस तरह द्रव्यसमवायित्व उपर्युक्त साध्य का व्यापक है। मगर जहाँ जहाँ परमाणुत्व होता है, वहाँ वहाँ द्रव्यसमवायित्व नहीं होता है, क्योंकि स्वतन्त्र परमाणुओं में परमाणुत्व होने पर भी किसी द्व्यणुक आदि द्रव्य का समवायित्व नहीं होता है । स्वतन्त्र परमाणुओं में कोई द्रव्य समवेत नहीं होने से द्रव्यसमवायित्व = द्रव्यप्रतियोगिकसमवायवत्त्व कैसे होगा ? अतः व्रन्यसमवायित्व परमाणुत्व हेतु का अब्यापक है । द्रव्यसमवायित्व में साध्य की व्यापकता एवं हेतु की अव्यापकता होने से वह उपर्युक्त अनुमान में उपाधि है । साध्यव्यापक उपाधि अपने अभाव का निश्रय कराती है । साध्याभावाधिकरणविधया निश्रित स्वतंत्र परमाणुस्वरूप पक्ष में परमाणुत्व हेतु कैसे स्वाभिमत साध्य की सिद्धि के लिए समर्थ हो सकेगा ? क्योंकि तब परमाणुत्व हेतु बाधित = बाधदोपग्रस्त होता है । इसलिए नैयायिकप्रदर्शित अनुमान विशेष पदार्थ की सिद्धि के लिए असमर्थ है यह फलित होता है ।
ॐ आकाशादि में विशेष की सिद्धि नामुमकिन- स्यादादी 3
किञ्च इति । दूसरी बात यह है कि भेदक धर्मान्तर = अन्य धर्म के अभाववाले परमाणुओं में परस्परप्रतियोगिक भेदगोचर योगिप्रत्यक्ष की अन्यथा अनुपपत्ति के बल पर विशेष पदार्थ की सिद्धि करने पर तो आकाश आदि पदार्थ में, जिनमें नथायिक विशेष पदार्थ को समवेत मानते हैं, विशेष पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि अन्य निरवयव पदार्थ
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* दिनकरीयतरङ्गिणीमतखण्डनम् ** || सिदयसिन्दिव्याघातेन तु विशेषस्येव द्रव्यस्यैव व्यावृत्तिस्वभावत्वं न्याय्यमिति विग।।
=.. ... - * जयलता * | समानाधिकरणताद्दौकत्ववत्त्वसम्बन्धेन। सत्तारूपलिङ्गेनैव परमाण्वन्तरभेदसाधनसम्भवे विशेषासिद्धेरिष्टत्वात् ।
ननु प्रमाणेन विज्ञातो विशेषो भवता प्रतिक्षिप्यतेऽविज्ञातो वा ? इति विकल्पयुगली प्रकृते समुज्जृम्भते । तत्र नाद्यः श्रोदनमः, प्रमाणेन सिद्धस्य प्रतिक्षेप्तमशक्यत्वात, अन्यथा घटादीनामपि प्रतिक्षेपप्रमहगात । नापि द्वितीयः राणां चेतसि चकास्ति, अप्रसिद्धस्य निषेद्धमशक्यत्वात् अभावस्य प्रसिद्धप्रतियोगिकत्वनियमात् । इदमेवाऽभिप्रेत्य -> असओ पत्थि णिसेहो' (वि.आ.भा.गा. ) इति श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमगोक्तिः । विकल्पान्तरस्य चाऽसम्भवान्न विशेषपदार्थखण्डनस्य युक्तत्वमिति विशेषस्य म्रता न्यावर्तकत्वमच्याहनमेवेति नैयायिकाशङ्कायां प्रकरणकृदाह - सिद्भयसिद्धिच्या- । घातेन = प्रसिद्धचप्रसिद्धिविकल्पद्धविकल्पद्वयविरोधेन तु विशेपस्येव द्रव्यस्यैव व्यावृत्तिस्वभावत्वं न्याय्यं = न्यायानपेतम् । स्वभावतः परस्परं व्यावृत्तानि एव द्रव्याण्युत्पद्यन्त इति परेण स्वतो व्यावृत्तं द्रव्यं प्रमाणेनाऽज्ञायि न बा ? इति बिकल्प. द्वयावतारे तु द्रव्यस्य व्यावृत्तिशालित्वं निराबाधम् । युक्तश्चैतत् अनन्तविशेषाऽकल्पनलाघवात् । न हि स्वभावतोऽव्यावृनस्य सतः कस्यचित् केनचिद् व्यावृत्तिः कर्तुं पार्यते । तच्छङ्कानिवृत्त्यर्थं क्वचिद् व्यावर्तकधर्मदर्शनभुपयुज्यते व्यभिचारगड़कानिवृत्तौ तर्कस्येव । एतेन -> त्र्यणकाययवः साश्यव: महदारम्भकत्वादित्यनुमानेन परमाणोरन्यावृत्तस्यापि सिद्धिसम्भवन निताद्रव्याणां व्यावृत्तत्वस्य धर्मिग्राहकमानः सिद्धत्वमेवेति – (मु.रा. पृ.१२३) दिनकरीयतरङ्गिणीकृवचनं निरस्तम्, प्रकृतानु. मानेन सिध्यतो व्यावर्तकान्तरव्यावृत्तत्वेऽनवस्थागौरवमिति ज्ञानसहकारानव स्वतो ज्यावृत्तत्वमप्यवगाहमानैवानुमिति; सम्भवति, से आकाशादि का व्यावर्तक शब्द आदि विशेप गुण ही हो सकते हैं। परमाणु में शब्द गुण नहीं होता है और आकाश में शब्द गुण होता है - यह तो नैयायिक ही कहते हैं। सब तो निरवयव परमाणु से आकाश को व्यावृत्त करने वाला शब्द गुण ही होगा, फिर क्यों आकाशादि निरवयव द्रव्य में विशेष पदार्थ का स्वीकार किया जाय । अनारन्यद्रव्यवाले परमाणु को पक्ष बना कर जो विशेष पदार्थ सिद्धि की गई है, उसके मुताबिक तो आकाशादि में विशेष पदार्थ की सिद्धि हो ही नहीं सकती है, मगर भेदगोचर योगिप्रत्यक्ष की अनुपपति से भी आकाशादि में विशेष पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि शब्द आदि गुण ही उनके भेदक = घ्यावनक हो सकते हैं - यह अभी ही हम बता चुके हैं । अत: स्वतंत्र विशेष पदार्थ की कल्पना अप्रामाणिक है।
का द्रा ही प्यात्तिस्वभावताला है - स्यादादी । सिद्धय, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि > 'आप स्याद्वादी जोर-शोर से नैयायिकसम्मत विशेष पदार्थ का खण्डन कर रहे हैं, मगर हम आपसे यह प्रश्न करते हैं कि 'क्या आप स्यावादी विशेप पदार्थ को प्रमाण से जानते हैं या नहीं ? यदि प्रमाण से विशेष पदार्थ को जानते हैं, तो फिर आप विशेष पदार्थ का खंडन कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि प्रमाणसिद्ध पदार्थ को खंडित करने का दुःसाहस कोई भी बुद्धिमान् पुरुप नहीं करता है। यदि आप विशेष पदार्थ को नहीं जानते हैं, तब तो उसका खंडन नितरां नहीं कर सकते, क्योंकि कोई भी अक्कलमंद आदमी अज्ञात पदार्य का निराकरण करने में प्रवृत्त नहीं होता है। अतः स्याद्रादी न तो प्रमाण से ज्ञात विशेष पदार्थ का खंडन कर सकते हैं और न तो अज्ञात विशेष पदार्थ का । इसलिए हम नैयायिक विद्वान् विशेष को स्वतः च्यावृत्तस्वभाववाला मानते हैं । वह युक्तिसंगत ही है" - द्रव्य, इति । तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सिद्धि और असिद्धि से इस तरह विशेष पदार्थ में न्यावृत्तिस्वभाव
ना करने की अपेक्षा तो यही मुनासिब है कि सिद्धि और असिद्धि के द्वारा उक्त रीति से द्रव्य में ही व्यावृत्तिस्वभाव = भेदकत्व की कल्पना करना युक्तियुक्त है। मतलब यह है कि द्रव्य ही विशेषपदार्थ की भांति स्वतः व्यावृत्तिस्वभावबाला है - यह मानना सुसंगत है। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "व्यावृत्तिस्वभाववाला द्रव्य अप्रामाणिक है। -तो नैयायिक से हमारा यह प्रश्न है कि -> 'स्वतः व्यावृत्तिस्वभाववाले द्रव्य को आप नैयायिक प्रमाण से जानते हैं या नहीं ?' यदि स्वत: व्यावृत्ति स्वभाव वाले द्रव्य को आप प्रमाण से जानते हैं, तब उसका निरास :: कैसे कर सकते है ? स्वयं प्रमाण से सिद्ध पदार्थ को जान-बूझकर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता । यदि आप । स्वतः व्यावृत्तिस्वभाव वाले द्रव्य को नहीं जानते तब तो नितरां उसका अशकरण नहीं कर सकते । क्या घट को नहीं
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५१३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का,७ * अभिलाष्यत्वानभिलाप्यत्वयोरेका समावेशः * | अभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वेऽपि न विरुध्दे, दृष्टं हि घटस्य यधा घटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वं ] तथा पदपदापेक्षयाऽनशिलाप्यत्वमपीति । तनु अभिलाप्यभावापेक्षयाऽनन्तगुणिता अनभिलाप्या भावा भवद्रुिप्यन्ते । यदुक्तं === =
* जयलावा * -- अन्यथा विशेषेऽपि तदसिद्धिप्रसङ्गात् । अत एव नबीननैयायिकैरपि --> अतिरिक्तविशेषपदार्थे मानाभाव; विशेषाङ्गीकर्तृमते पथा विशेषाणां स्वतो व्यावृत्ततया सिद्धिः तथा नित्यद्रव्याणामपि स्वतो व्यावृत्ततया सिद्भिसम्भवात - इत्यभिधीयते । एतेन सिहागिद्धिभ्यां जापानका विक परिई धर्मिणमुद्दिश्यापि अनुमितिस्वीकारात, अन्यथा नैयायिकस्य साङ्ख्या. भिमतप्रकृत्यादिनिराकरणं कथं सङ्गच्छेत् । 'प्रसङ्गापादनमेव नत्र क्रियत' इति चेत् ? नर्हि प्रकृतेऽपि तदेव बोध्यमित्यादिसूचनार्थं दिक्पदनिवेशः कृतः ।
____ अभिलाप्यत्वानभिलाष्यत्वलक्षणपञ्चमधर्मयुगलाऽविरोधसाधनार्थं साम्प्रतमुपक्रमते प्रकरणकार:- अभिलाप्यत्वाऽनमिलाप्यत्वे परस्परं विरुद्भत्वेन पराभिमते अपि वस्तुगत्या न परस्पर विरुद्धे । तथाहि तयोहि किं वध्यघातकभावलक्षणो विरोध: स्यात् सहानवस्थानरूपः परस्परपरिहारात्मको बा ? इति पक्षत्रयी समुपतिष्ठते । तत्र नाद्यः क्षेमङ्करः, अहिनकुलयोरिव परस्परमुपमृद्याऽनवस्थानात् । नापि द्वितीयः समीचीन:, एकत्रैव तयोः सहावस्थानोपलब्धेः । तदेव दर्शयति- दृष्टं हि घटस्य = घटपदार्थस्य यथा घटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वं = बटपदनिष्ठामिलापकतानिरूपिताभिलाप्यत्वं तथा पटपदापेक्षयाऽनभिलाप्यत्वं = पटपदनिष्ठाभिलापकतानिरूपितामिलाप्यत्वाभाववत्वं अपीति । न हि घटपदवाच्यस्य परेण पटादवाच्यल्वमम्युपेयते । अत एव न तृतीयोऽपि सम्यक्त्वमञ्चतीति सिद्धं तयोरविरोधित्वमिति । एतेनाऽभिलाप्यत्वस्य केवलान्वयित्वमपि प्रत्युक्तम्, केषुचिदेवाऽर्धधर्मधु दशब्दवाच्यतापरिणत्यभ्युपगमात्, आख्यातुमशक्यत्वेऽपि प्रत्याख्यातुमशक्यानां माधुर्यविशेषादीनां बहूनामर्थधर्माणामनुभवसिद्धत्वात् । इदमेवाभिप्रेत्याऽभ्यधाथि अध्यात्मोपनिषत्प्रकरणे 'यो ह्याख्यातुमशक्योऽपि प्रत्याख्यातुं न शाक्यते । प्राज्ञैर्न दूषणीयोदयः स माधुर्य विशेषवत् ॥ (अ.उप.२/४६) ।
___ मुग्धः शङ्कते - नन्विति । अभिलाप्यभावापेक्षया अनन्तगुणिता अनभिलाप्या भावा भवद्भिः = स्याद्वादिभिः उपेयन्ते = स्वीक्रियन्ते । सम्बादमाह - यदुक्तमिति । वृहत्कल्पभाष्य इति गम्यते । पनवणिज्जेति । > ये प्रज्ञापयितुं शक्यन्ते ते प्रज्ञापनीया अभिलाप्या इत्येकोऽर्थः । ते च भू-भूधर-विमान-ग्रह-नक्षत्रादयः । एतद्विपरीता अप्रज्ञापनीयाः
पहचानने वाला 'भूतल में घट नहीं है। ऐसा कह सकता है ? अतः सिद्धि और असिद्धि से व्यायात होने की वजह द्रव्य ही स्वतः न्यावृत्तिस्वभाव-वाला है - यह फलित होता है । इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है । यहाँ जो कुछ कहा गया है, वह तो एक दिग्दर्शनमात्र है। इस दिशा के अनुसार अक्कलमंद वाचक वर्ग स्वयं अपनी बुद्धि से आगे विचार कर सकते हैं , इस बात की सूचना देने के लिए प्रकरणकार महोपाध्याय श्रीमद्जी ने 'दिक्' शब्द का उल्लेख कर के विशेषपदार्थ के खंडन को यहाँ जलांजलि दी है।
* अभिलाप्यत्व और अनमिलाप्यत्व में अविरोध - स्याद्वादी * अभि. । जिस तरह एक ही धर्मी में नित्यत्व-अनित्यत्व, भेर-अभेद, सव-असत्त्व, सामान्य-विशेष इन युगलों का परस्पर अविरोध है, ठीक वैसे एक ही वस्तु में अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व धर्म भी परस्पर विरुद्ध नहीं है । एक ही घट अर्थ घटपद की अपेक्षा अभिलाप्य होता है और पटादिपद की अपेक्षा अनभिलाग्य = अवाच्य भी होता है - यह तो लोकव्यवहार में भी देखा गया है । घटपदार्थ जैसे घटपद से वाच्य होना है, वैसे पट आदि पद की अपेक्षा वाच्य नहीं होता है . पह तो आचाल-गोपाल प्रसिद्ध है। अतः एक धर्मी में अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व धर्म को परस्पर विरुद्ध नहीं कहा जा सकता या माना जा सकता ।
अजभिलाप्य अर्थ भी कयचित् अभिलाष्य है - स्याहादी - ननु. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "आप स्याद्वादी ने ही अभिलाग्य भाव की अपेक्षा अनभिलाप्य भावों को अनन्तगुण माना है, क्योंकि आप ही के आगम में कहा गया है कि - अनभिलाप्य भावों के अनन्त भाग में प्रज्ञापनीय = अभिलाप्य भाव = पदार्थ है। यदि अभिलाप्यत्व और अनभिलाध्यत्व एक-दूसरे के अविरोधी हो कर
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** बृहत्कल्पभाप्यनृत्यादिसंवादः
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'पन्नवणिज्जा भावा अनंतभागो उ अणभिलप्पाणं' (बृ.क.भा. ९६४, वि. आ. भा. 989 ) ति । तेष्वेवेदमुभयमनुपपन्नमिति चेत् ? न तेषामनभिलाप्यपदेनैवाऽभिलाप्यत्वात् ।
ननु तर्हि किमीदृशानभिलाप्यव्यावृत्तमभिलाप्यत्वं ?
* जयलता
द्वावपि च राशी अनन्तौ परं महान परस्परं विशेषः । तथाहि प्रज्ञापनीया भावाः सर्वेऽपि समुदिताः सन्तोऽनभिलाप्यानां भावानां अनन्तभागो भवति, अनन्ततमे भागे वर्तत इति भावः - (बृ.क. भा. इ. पृ. ३०४ ) इति श्रीक्षेमकीर्त्याचार्यव्याख्या । प्रज्ञायन्ते प्ररूप्यन्त इति प्रज्ञापनीया वचनपर्यायत्वेन श्रुतज्ञानगोचरा इत्यर्थः । के भावाः ? ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकान्तर्निविष्टभूभवन -विमान-ग्रह-नक्षत्र - तारकार्केन्द्रादयः ते सर्वेऽपि मिलिताः । किं ? इत्याह अनन्ततम एव भागे वर्तन्ते । केषां ? अत्राहअनभिलाप्यानामर्थं पर्यायत्वेनाऽवचनगोश्वरतापन्नानामित्यर्थः । अनमिलाप्य वस्तुराशेरभिलाप्यपदार्थसार्थ: सर्वोऽप्यनन्ततम एव भागे वर्तत इत्यर्थः <- (वि. आ. भा. १४१ श्लो. ल्या पृ. ४५ ) इति श्रीमलधारिहेमचन्द्रसूरिव्याख्या विशेषावश्यकभाष्ये । यदि चैकत्रैवाऽभिलाप्यत्वाऽनभिलाप्यत्वसमावेशः स्यात् तर्हि अभिलाप्यानभिलाप्यभावाः परस्परं तुल्याः स्युः । परं अभिलाप्येभ्योऽनभिलाप्यभावानामनन्तगुणत्वेनाऽनभिलाप्यभावेषु केवलमनभिलाप्यत्वमेवाङ्गीकार्य, न तूभयं तत्त्वहानिप्रसङ्गात् । इत्थञ्च तेषु = अनभिलाप्यभावेषु एव इदमुभयं = अभिलाप्यत्वाऽनभिलाप्यत्वधर्मयुगलं अनुपपन्नम् । ततश्च सर्वत्र तयोरेकत्र समावेशी दुर्घट इति शङ्काशयः ।
प्रकरणकृत्तन्निराकरोति नेति । तेषां अनभिलाप्यभावानां अनभिलाप्यपदेनैवेति । एवकारार्थः प्रकृतेऽयोगव्यवच्छेदो बोध्यः । तेनाऽप्रज्ञापनीयाऽवाच्याऽवक्तव्या: निर्वचनीयाऽनाख्येयादिपदैस्तेषाभिलापेऽपि न क्षतिः । अभिलाप्यत्वादिति । अनभिलाप्यपदनिष्ठाभिलापकतानिरूपिताऽभिलाप्यत्वादनभिलाप्यभावेषूभयं नाऽनुपपन्नम् । न चैवं तेषामनभिलाप्यत्वं विरुद्भूयेत इति वाच्यम्. अनभिलाप्यातिरिक्तपदापेक्षयैव तेषामनभिलाप्यत्वाऽभ्युपगमात्, अनभिलाप्यातिरिक्तपदनिरूपितवाच्यत्वशून्यत्वस्यैवाऽनभिलाप्यपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् । एतेन सर्वथाऽनभिलाप्यत्वैकान्तोऽपि परिहृतः, अनभिलाप्यानां स्पादनभिलाप्यत्वं, स्यादभिलाप्यत्वं स्यादुभयत्वं स्यादवक्तव्यत्वं स्यादनभिलाप्यत्वाऽवक्तव्यत्वं स्यादभिलाप्यत्वाऽवक्तव्यत्वं, व्यत्वमित्येवं सप्तभङ्ग्यव्याहतप्रसरादिति दिक् ।
स्यादुभयत्वाऽवक्त
अभिलाप्यत्वपदार्थं परीक्षितुमुपक्रमते नन्विति । 'वचनप्रामाण्यादि 'त्यन्तोऽयं प्रौढपूर्वपक्ष: । तर्हि अनभिलाप्यभावानामनभिलाप्यातिरिक्तपदाऽवाच्यत्वे सत्यनभिलाप्यपदवाच्यत्वाङ्गीकारे सति किं किंस्वरूपं ईदृशानभिलाप्यव्यावृत्तं अनभिलाप्यपदातिरिक्तपदनिरूपितवाच्यत्वाभावविशिष्टेभ्यो ऽनभिलाप्यपदनिरूपितवाच्यताश्रयेभ्योऽनभिलाप्यभावेभ्यो व्यावृत्तं अभिलाप्यत्वपदवाच्यं स्याद्वादिभिः स्वीक्रियते । इति मीमांसायां पदशक्तिविषयत्वरूपं तत् ? यद्वा पद
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4
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अभिलाप्यत्त्वं
एक ही द्रव्य में रह सकते हैं, तब तो अभिलाप्यभाव की अपेक्षा अनभिलाप्य = अनभिलाप्यत्वविशिष्ट भाव अनन्तगुण कैसे हो सकते ? दोनों समान ही होने चाहिए। अतः अभिलाप्य भाव की अपेक्षा अनन्तगुण अनभिलाप्य भावों में ही अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व उभय अनुपपन्न हो जायेगा । इसलिए उनमें अनन्तगुण अधिक न्यूनभाव के प्रतिपादक जैन आगम से ही अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व धर्म में विरोध सिद्ध होता है" तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनभिलाप्य भावों का भी अनभिलाप्यपद से अभिलाप होने से उनमें भी अनभिलाप्यशब्द की अपेक्षा अभिलाप्यत्व रहता ही है, अन्यथा उनका प्रतिपादन अनभिलाप्य शब्द से कैसे हो सकता ? फिर भी उन्हें अनभिलाप्य कहने का तात्पर्य यह है कि वे अनभिलाप्य पद से भिन्न पद से अभिलाप्य नहीं होते हैं, केवल अनभिलाप्यपद से ही अभिलाप्य होते हैं । अतः अनभिलाप्य भावों में भी अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व का विरोध नहीं है - यह सिद्ध होता है। शकर की मिठाश, गुड की मिठाश, आम के रस की मधुरता, मिठाई की मधुरता में भेद होने पर भी उनका शब्द से निर्वाचन नहीं किया जा सकता । इस दृष्टि से उनके 'बीच में भेद अनभिलाप्य कहा जाता है, इत्यादि दृष्टिकोण से जैन सिद्धान्त ग्रन्थों में अनभिलाप्य पदार्थ का निरूपण किया गया है, न कि अनभिलाप्यशब्द से भी वे अभिलाप्य = वाच्य नहीं है, इसकी अपेक्षा से । इस तरह अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यल का एक धर्मी में समावेश सिद्ध होने से वे परस्पर विरुद्ध नहीं है यह प्रकरणकार का गर्भित आशय है । पूर्वपक्ष - ननु त इति । यहाँ अभिलाप्यत्व को कहा गया है, जो प्रदर्शित अनभिलाप्यभाव से व्यावृत्त है, उसका स्वरूप क्या है ? क्या पदशक्तिविपयत्वस्वरूप अभिलाप्यत्व आपको अभिमत है ? यह तो नहीं माना जा सकता, क्योंकि
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५१५ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ . का. * अभिलाप्यत्नपदार्थपरीक्षा * न तावत् पदशक्तिविषयत्वं, अतिप्रसङ्गात् । नापि पदजन्यबोधविषयत्वं, तदविषये क्वचिद् घटादावभावात् । नापि तदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वं, घटस्थापि पढपदाभिलाप्यत्वापत्ते:, एकस्यापि पदस्य सर्वार्थवाचकत्वेन पटपदामिलाप्यतावच्छेदकप्रमेयत्ववत्त्वस्य घटे सत्त्वात् ।
-=-* जयलता = जन्यचोधविषयत्वं तत् ? उदश्वित् 'पदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वं तत् ? आहोस्वित् "गृहीततत्तदर्थनिरूपितसङ्केतकपदबोध्य - तावच्छेदकरूपवत्त्वं तत् ? उताहो “गृहीततत्तदर्धनिरूपित-नियन्त्रितसङ्केतकपदयोध्यतावच्छेदकधर्मबत्त्वं तत् ? इति विकल्पपश्चतयी निरुपमरूपरसगन्धादिविषयपश्चतयीव कनीय:कमनीयव्यापारसारा प्रसरीसरीति वरीयसी । तंत्र नाद्यो विकल्पोऽनवद्य इत्याशयेनाह ननुबादी - न तावदिति । प्रथमार्थकोऽयं निपातः । पदशक्तिविषयत्वं = पदनिष्ठशक्तिनिरूपितविषयत्वं, यथा वटपदनिष्ठशक्तिविषयत्वं घटपदार्थबृत्ति घटपदापेक्षवाऽमिलाप्यत्वमिति प्रधमविकल्पाभिप्रायः । नदयुक्तत्वे हेतुमाह - अतिप्रसङ्गादिति । अनभिलाप्यभावेष्वायनभिलाग्यपदनिष्ठशक्तिनिरूपितविषयत्वलक्षणस्य निरुक्ताभिलाप्यत्स्य सस्वेनातिव्याप्ते: न पदशक्तिविषयत्वस्याभिलाप्यत्वलक्षणत्वं घटामश्वतीति नन्वाशयः ।।
द्वैतायिकविकल्पं निराकरोति - नापीति । पदजन्यबोधविपयत्वमिति । पदनिष्ठजनकतानिरूपिताया जन्यताया आश्रयीभूतो यः शाब्दबोधः तनिष्टविषयितानिरूपितमर्थनिष्ठं विषयत्वं निरुक्ताभिलाप्यत्वं, यथा घटपदनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यताश्रयीभूतशाब्दबोधनिरूपिराविधम चं या पदावृति कापायातमिलाया, घटपदेन घटगोचरशाब्दबोधस्योत्पत्तेः प्रसिद्धत्वादिति द्वितीयविकल्पार्थः । यद्यपि अनभिलाप्यभावेष्वप्यनभिलाप्यपदनिरूपितजन्यताश्रयीभूत झान्दबोधनिरूपितविशेष्यताख्यविषयत्वस्य सत्त्वेनाऽतिव्याप्तिर्दारा तथापि स्फुटत्वात्तामुपक्ष्य दोषान्तरमाविष्करोति - तदविपये = घटादिपदजन्यशाब्दबोधनिरूपित्तविषयतागून्यं क्वचिद् घटादी घटादिपदनिरूपितजन्यताश्रयशाब्दबोधनिरूपितविषयत्वस्य अभावात् अव्याप्तेः । यत्र घदादी केनापि घटादिपदं न प्रयुक्तं तत्र घटादिपदजन्यशाब्दबोधविषयत्वस्याऽभावेऽ'यभिलाप्यत्वविरहो नाभ्युपेयत इत्यव्याप्तिः । न च तस्यापि सर्वादिपदजन्यबोधविषयत्वेन नाऽन्याप्तिरिति वाच्यम्, प्य उत्पत्त्यनन्तरक्षणे एव विनष्टः न च तदुत्पत्तिक्षणे केनापि सर्वादिषद प्रयक्तं तब घटादाचव्याप्तेः, अनभिलाप्यभावेष्वतिव्याप्तेश्च ।
तर्हि घटादिपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वमेव घटादिपदापेक्षया-भिलाप्यत्वमस्तु, यत्र विनष्टे बटादौ न केनापि घटादिपदं प्रयुक्तं तस्य घटादिपदजन्यशाब्दबोधाः विषयत्वेऽपि घटादिपदशेध्यतावच्छेदकी भूतघटत्वादिधर्मवत्वना व्याप्तेरनक्काशादित्याशङ्कायां तार्तीयकविकल्पांच्छित्तये उपक्रमते- नापि तदोभ्यतावच्छेदकरूपवत्वं निरुक्ताभिलाप्यत्वम । घादिपदनिष्ठशक्ततानिरूपितशक्यतामा अवच्छेदको यो धर्मः तादृशधर्मवत्त्वस्य घटादिपदापेक्षया भिलाप्यत्वस्वीकारे तु घटस्यापि पटपदाभिलाप्यत्वापनेरिति । पटपदनिष्ठशक्ततानिरूपितशक्यतावच्छेदकीभूतप्रमेयत्ववत्त्वेन घटस्यापि पटापदापेक्षया भिलाप्यत्वस्वीकारग्रसङ्गात् । तदेव दर्शयति- एकस्यापि पदस्य सति तात्पर्य सर्वार्धवाचकत्वेन = सर्वार्थनिष्ठाक्यतानिरूपितशक्ततावत्त्वेन स्याद्वादिनये पटपदस्यापि सर्वार्धान्तर्गतघटनिष्ठवाच्यतानिरूपितवाचकतावत्त्वेन प्रमेयत्वस्य पटापदशक्यतावच्छेदकत्वसिद्धया पटपदाभिलाप्यतावच्छेदकप्रमेयत्ववत्वस्य = पटपदनिष्ठाक्ततानिरूपितशक्यताया अबच्छेदकीभूतप्रमेयत्वधर्मवत्वस्य घटे सत्वात् । योऽर्थः यत्पदवाच्यः तस्मिन् तत्पदयाच्यता तत्पदवाच्यताबच्छेदकश्च स्त इति सर्वार्थाना प्रत्येकपदवाच्यत्यनये घटस्य पटपदवाच्यत्वेन सर्धिसाधारणस्य
अनभिलाग्यपद की विषयता तो अनभिलाप्य भावों में रहने से उन्हें भी अभिलाप्य मानने की आपनि आयेगी। अर्थात् अतिच्याप्ति दोप आयेगा । यदि अभिलाप्यत्व को पदजन्यबोधविषयतास्वरूप भी माना जाय, जैसे घटपद से जन्य घटत्वप्रकारक शाब्दबोथ की विषयता घटपदार्थ में रहती है वही घटपदार्थनिष्ठ अभिलाप्यत्व है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो घट उत्पन्न हो कर टूट गया है और उसके उद्देश से किसीन पटपद का प्रयोग नहीं किया है, उसमें तो पदजन्य बोध की विषयता ही नहीं रहती है, फिर भी उस घट को अभिलाप्य ही कहा जाता है, न कि अनभिलाप्य । इसलिए पदजन्य बोध से निरूपित विषयता को अभिलाप्यत्व मानने पर तादाविपयताशून्य घट में अभिलाप्यत्व के अभाव का प्रसंग आयेगा अर्थात अव्याप्ति दोप आयेगा । यदि यह कहा जाय कि > 'अभिलाप्यत्व पदबोध्यतावच्छेदकधर्मवत्वात्मक है। जिस घट के उद्देश से घटपद
का प्रयोग नहीं किया गया है उसमें भले ही घटपदजन्यबोधनिरूपित विषयता न रहे, मगर बटपदयोध्यतावच्छेदक घटत्व धर्म | तो उसमें रहता ही है। अतः उसमें अव्याप्ति की या अभिलाप्यत्वाभाव की अनिष्ट आपत्ति नहीं है' – तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि स्याद्वादियों ने प्रत्येक पद को सर्व अधं का वाचक माना है। इसलिए घटपदार्थ में पटपद की अपेक्षा भी अभिलाप्यत्व
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* 'सर्वे शब्दाः सवार्थवाचकाः सति तात्पर्ये' इत्यत्र मीमांसा *
अथ पटपदादितः प्रमेयत्वेनाऽबोधान्न तदवच्छिन्ने शक्तिः, पस्थितिशाब्दबोधानां समानप्रकारकत्वेनैव कार्यकारणभावादिति चेत् ? किं तावता, तथापि शक्तिज्ञान पदार्थोंघटत्वादेः पटपदबोध्यतावच्छेदकत्वस्य निरपायत्वात् ।
ॐ जयलता
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| प्रमेयत्वस्य पदपदवाच्यतावच्छेदकत्वसिद्धया घटस्य तादृशधर्मवत्त्वात्पटपदापेक्षया अभिलाप्यत्वप्रसङ्ग इति भावः । परः शङ्कते - अथेति । 'चेदित्यनेनाऽस्यान्वयः । पटपदादितः घटस्य प्रमेयत्वेन रूपेण अबोधात् विरहात् न तदवच्छिन्ने शाब्दबोधप्रमेयत्वावच्छिन्ने यावत्प्रमेय इति शक्तिः । तत्र हेतुमाह शक्तिज्ञानेत्यादि । यदि विषयतासम्बन्धेन शाब्दबोधं प्रति विषयतासम्बन्धेन पदार्थोपस्थितिशक्तिग्रहयो : कारणत्वं विषयतासम्बन्धेन पदार्थोपस्थितिं प्रति च |विषयतासम्बन्धेन सङ्केतग्रहस्य कारणत्वमित्येवं कार्य कारणभावाऽङ्गीकारेऽपूर्वव्यक्तिभानं शक्तिग्रह-पदार्थोपस्थित्पोरपेक्षितं भवेत् । न चैवमस्ति तथा सत्यवच्छेदक नियमनाय तत्तद्धर्मावच्छिन्नविषयत्वस्यैव कार्यतावच्छेदकतया कारणतावच्छेदकतया | चाऽभ्युपगमप्रसक्तौ महागौरवात् । ततश्च प्रकारतासम्बन्धेन शाब्दबोधं प्रति प्रकारतासम्बन्धेन सङ्केतग्रह-पदार्थोपस्थित्योः प्रकारतया पदार्थोपस्थितिं प्रति च प्रकारतासंसर्गेण शक्तिग्रहस्य कारणत्वमित्येवाऽभ्युपगन्तव्यम् । इत्थञ्च शक्तिग्रहपदार्थोंपस्थितिशाब्दबोधानां समानप्रकारकत्वेन कार्यकारणभावसिद्धी प्रत्येकपदस्य सर्वार्थवाचकत्वनये घटस्य पटपदवाच्यत्वेऽपि प्रमेयत्वस्य न पदपदशक्यतावकेदकत्वं पटपदेन टस्य प्रमेयत्वरूपेाऽबोधात् । यदि च प्रमेयत्वरूपेण पपदाद् घटानं स्यात् | तदा प्रकारतासम्बन्धेन तादृशशाब्दबोधस्य प्रमेयत्ववृत्तित्वसिद्धी फलबलात् प्रकारतासम्बन्धेन पटपदशक्तिग्रहस्य प्रमेयत्ववृत्तित्वसिद्ध्या प्रमेयत्वस्य पटपदनिष्ठशक्तिनिरूपितविषयतावच्छेदकत्वं सिध्येत् । न चैवमस्ति । अतो न प्रमेयत्वस्य पटपदशक्यतावच्छेदकत्वम् । अत एव पटपदशक्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वमपि घंटे नास्तीति न घटस्य पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्रसङ्गः । ततश्च निरुक्तावच्छेदकधर्मवत्त्वमपि घंटे नास्तीति न घटस्य पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्रसङ्गः । ततश्च निरुक्ताभिलाप्यत्वं पदशक्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वस्वरूपमेवेति अथाशयः ।
ननुवादी तन्निराकुरुते किं तावता ? इति । प्रमेयत्वस्य पटपदशक्यतानवच्छेदकत्वेन किं नश्छिन्नम् ? इत्यर्थः । तथापि शक्तिग्रह - पदार्थोपस्थिति शाब्दबोधानां समानप्रकारतासंसर्गेण कार्यकारणभावस्याऽङ्गीकारेऽपि पटपदेन घटादेः घटत्वादिरूपेण भानात् घटत्वादेः पटपदवीध्यतावच्छेदकत्वस्य = पटपदनिष्ठशक्ततानिरूपित शक्यताया अवच्छेदकत्वस्य निरपायत्वात् = अबाधात् । प्रत्येकपदस्य सर्वार्थवाचकत्वनये यदि घटत्वादिकं पटपदशक्यतावच्छेदकं न स्यात् तर्हि पटपदात् घटत्वादिरूपेण श्रादिमानं न स्यात्, प्रकारतासम्बन्धेन शाब्दबोधं प्रति प्रकारतासम्बन्धेन सङ्केतग्रह-पदार्थोपस्थित्योर्हतुत्वात् । तादृशशाब्दबोधस्य प्रकारतासंसर्गेण घटवादिवृत्तित्वाऽन्यथानुपपत्त्या तत्कारणीभूत शक्तिग्रहस्य प्रकारतासम्बन्धेन घटत्वादिवृत्तित्वसिद्धौ घटत्वादेः पटपदशक्यतावच्छेदकत्वं सिध्यति । घटादेः तादृशघटत्वादिधर्मवत्त्वेन पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्व
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मानने का प्रसंग होगा, क्योंकि पटपदवाच्यतावच्छेदक प्रमेयत्व धर्म रहता है। पटपद सर्व अर्थ का वाचक होने से सर अर्थ में रहने वाले प्रमेयत्व धर्म को पटपदवाच्यतावच्छेदक मानना ही होगा ।
अथ इति । यहाँ यह कहा जाय कि "पटपद का वाच्यतावच्छेदक प्रमेयत्व धर्म नहीं हो सकता है, क्योंकि पटपद से भी घट का प्रमेयत्वरूप से भान नहीं होता है । अतएव प्रमेयत्वावच्छित्र में पटपद की शक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि पदशक्तिज्ञान के कार्य पदार्थउपस्थिति और उसके कार्य शाब्दबोध में प्रकार समान = एक ही होता है । अर्थात् समानप्रकारक शक्तिज्ञान ही समानप्रकारक पदार्थोंपस्थिति का कारण होता है तथा समानप्रकारक पदार्थउपस्थिति ही समानप्रकारक शाब्दबोध का कारण बनती है । इसलिए जब प्रमेयत्वावच्छिन्न में पटपट की शक्ति ही नहीं है अर्थात् प्रमेयत्व पटपदशक्यतावच्छेदक ही नहीं है तब 'पटपदबोध्यतावच्छेदकीभूत प्रमेयत्व धर्म घट अर्थ में रहता है' यह कैसे कहा जा सकता है ? अतः पदबोध्यतावच्छेदकधर्मवत्त्व को अभिलाप्यत्व माना जा सकता है" ←--
किं ता इति । तो यह भी ठीक नहीं है। पटपद से घट का प्रमेयत्वरूप से बोध नहीं होने से प्रमेयत्व पटपदबोध्यतावच्छेदक न हो तो क्या हुआ ? प्रत्येक पद सब अर्थ के वाचक हैं। इस मत के अनुसार घट अर्थ का पटपद से घटत्वरूप से तो बोध हो सकता ही है । इसकी वजह पटपदवाच्यतावच्छेदक घटत्व धर्म हो सकता है । पटपदवाच्यतावच्छेदकताविशिष्ट घटत्व धर्म घट में दाने से घट अर्थ में पटपद की अपेक्षा अभिलाप्यत्व का प्रसंग अपरिहार्य ही होगा ।
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५१७ मध्यमस्याद्वादरहस्यं खण्डः २ का ७ अनभिलाप्यत्वे विकल्पञ्चकासहत्वाशङ्का
नापि गृहीततत्तदर्थनिरूपितस के तकपदद्बोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वं तत्, पटपदस्यापि घंटे सङ्केतग्रहसम्भवात् दोषानतिवृतेः । नापि गृहीततत्तदर्थनिरूपित - नियन्त्रित - सङ्केतकपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्वं, घंटे हि घटपदस्यैव सङ्केतः कोशादिना नियम्यते न तु पट* गयलता
प्रसङ्गस्य दुर्वारत्वमिति ननुवादिनोऽभिप्रायः ।
ननु 'सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः सति तात्पर्ये' इति नयानुरोधात् घटत्वादेः पटपदशक्यतावच्छेदकत्वं काममभिमतम् । परं घटादौ वटादिपदसङकेत एव गृह्यते न तु पटपदनिष्ठसङ्केतोऽपि 'निरूपकतासम्बन्धेन घटादी घटादिपदसङ्केत एव वर्तते न तु पटपदसङ्केतोऽपीत्येवानुभवात् । ततश्च निरुक्तानभिलाप्यपदार्थव्यावृत्तमभिलाप्यत्वं न तत्तत्पदशक्यतावच्छेदकरूपत्वरूपं किन्तु गृहीततत्तदर्थनिरूपितसङ्केतकपदशक्यतावच्छेदकरूपवत्त्वस्वरूपमिति चतुर्थी विकल्प एव नः शरणमस्त्वित्युक्तौ ननुवादी तमपहस्तयितुं त्वरते नापि गृहीततत्तदर्धनिरूपितसङ्केतकपदवीध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वं तत् विवक्षिताभिलाप्यत्वम् । गृहीतः = ज्ञातः तत्तदर्थैः निरूपितः सङ्केतः यस्मिन् पदे तस्य शक्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वं विवक्षिताभिलाप्यत्वम् । तत्तदर्थानां विवक्षितसङ्केतनिरूपकत्वेन यदा तत्तदर्थनिरूपितः सङ्केत: पदे ज्ञायते तदा तादृशं पदं गृहीततनदर्थनिरूपितसङ्केतकं भवति । तादृशपदशक्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वमभिलाप्यत्वमिति चतुर्थविकल्पतात्पर्यम् । तदयुक्तत्वं ननुवादी दर्शयति - पटपदस्यापि किमुत घटपदस्येत्यपिशब्दार्थः घटे सङ्केतग्रहसम्भवादिति । 'सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचका' इति नयाभिज्ञपुरुषस्य घटपदवत् पटपदमपि घटवाचकमिति ज्ञाने सति पटपदनिष्ठसङ्केतस्य घटनिरूपितत्वज्ञानात् घटस्य गृहीतघटलक्षणार्धनिरूपितसङ्केत कपटपदनिरूपितशक्यतावच्छेदकवटत्ववचेन तद्दोपानतिवृत्तेः पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्रसङ्गस्य दुर्वारवान चतुर्थी विकल्पोऽर्हतीति ननुवादिनोऽभिप्रायः ।
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ननु पदपदनिष्ठसङ्केतस्य घटार्थनिरूपितत्वेऽपि न कोशादिनियन्त्रितत्वमिति तादृशसङ्क्ते नियन्त्रितत्वविशेषणदानादेवाऽतिप्रसङ्ग इति पञ्चमविकल्पस्यैव कक्षीकारोऽस्त्वित्याशङ्कां निराकर्तुमुपदर्शयति नापीति । अस्य वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । गृहीतेति । गृहीत: = ज्ञातः तत्तदर्धनिरूपितः कोशादिना नियन्त्रितश्च सङ्केतो यस्मिन् पदे तद्बोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वं = तन्निष्ठवाचकतानिरूपितवाच्यताया अवच्छेदकरूपवत्त्वं विवक्षिताभिलाप्यत्वम् । तत्तदर्शनरूपितत्वेन ज्ञातस्य सङ्केतस्य नियन्त्रितत्वेन विशेषणीयत्वे कथं घटस्य पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वदोषप्रच्युतिः ? इत्याशङ्कायामाह घटे हि घटपदस्यैव सङ्केतः कोशादिना नियम्यते न तु पटपदस्येति न प्रागुक्तदोष: = घटस्य पदपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्रसङ्गः, पटपदनिष्ठस्य
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यहाँ यह कहा जाय कि "सर्व पद को सर्व अर्थ के वाचक मानने वाले विद्वानों के मतानुसार पटपदवाच्यतावच्छेदक धर्म भले घटत्त्व हो, मगर अभिलाप्यत्व को तत् तत् अर्ध से निरूपित संकेत का जिसमें ग्रहण ( = ज्ञान ) किया गया हैऐसे पद की बोध्यता के अवच्छेदक धर्मवत्त्वस्वरूप मानने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि घट अर्थ में पटपदवाच्यतावच्छेदकीभूत घटत्व धर्म होने पर भी घट अर्ध में पट पद का संकेत गृहीत नहीं होने से घट अर्थ में गृहीत संकेतवाले पट पद की वाच्यता का अवच्छेदक धर्म घट में नहीं है । इस तरह विशेषणाभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव घट में होने से घट को पटपद की अपेक्षा अभिलाप्य अभिलाप्यत्वधर्माला मानने का अनिष्ट प्रसंग नहीं है" ←
पटपद इति । तो यह भी अनुचित है, क्योंकि सर्व पद सर्व अर्थ के वाचक होने की वजह पुरुषविशेष को घट अर्थ में भी पटपद के संकेत का ज्ञान मुमकिन होने से घट अर्थ में ज्ञात संकेत वाले पटपद की बाच्यता का अवच्छेदक घटत्व धर्म घट अर्थ में अबाधित होने से घट को पटपद की अपेक्षा अभिलाप्य = अभिलाप्यत्वधर्मशाली मानने की आपत्ति ज्यों की त्यों बनी रहती है । यहाँ विशेषणाभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव नहीं बताया जा सकता, क्योंकि पट अर्थ में ज्ञात संकेतवस्वरूप विशेषण पटपद में अबाधित है ।
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यहाँ यह कहा जाय कि
"सब पद सर्व अर्थ के वाचक हैं, इस मत के अनुसार भले ही पुरुपविशेष को घट अर्थ में पटपद के संकेत का ज्ञान हो, मगर वह संकेत यादृच्छिक अपनी इच्छा से कल्पित है, न कि कोश, व्याकरण आदि से नियन्त्रित । इसलिए तत् तत् अर्थ से निरूपित कोशादि से नियन्त्रित एवं ज्ञात संकेत वाले पद की वाच्यता के अवच्छेदकी
भूत धर्मवत्त्व को अभिलाप्यत्व माना जा सकता है । घट अर्थ में पटपद का संकेत कोशादि से अनियन्त्रित होने की वजह
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* अभिलाप्यानामपि श्रुताऽनिबद्धत्वावेदनम् * पदस्येति न प्रागुक्तदोष इति वाच्या, श्रुताऽनिबन्देषु प्रज्ञापनीयेषु तादृशपदसकेतमहाऽसम्भवात् । न च तेषामेवाऽसिन्दिः, 'पनवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअनिबन्दो' (बृ.क.भा.मा. | e६४/वि.आ.भा.गा. 989)तिवचनप्रामाण्यात् ।
=== * जयलता * सङ्केतस्य घटनिरूपितत्वेऽपि कोशाद्यनियन्त्रित्वात् । ततश्च विशेषणाभावप्रयुक्तस्य विशिष्टाभावस्याऽन्याहतत्वान घटस्य पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्रसङ्गः । 'कोशादिने' त्यत्राऽऽदिपदेन व्याकरणोपमानादिग्रहणम् । तदुक्तम् - शक्तिग्रहो व्याकरणोपमानं, कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृत्तेर्बदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धिपदस्य वृद्धाः || ( )
प्रदर्शितपञ्चमविकल्पनिराकरणे हेतुमाह - श्रुताऽनिबद्धेषु = श्रुते सूत्ररचनयाऽग्रथितेषु प्रज्ञापनीयेषु = अभिलाप्येषु भावेषु तादृशपदसङ्केतग्रहाऽसम्भवात् = कोशादिनियन्त्रितस्य पदनिष्ठसङ्केतस्य ज्ञानाऽसम्भवात्, न हि श्रुताऽनिबद्धेषु प्रज्ञापनीयभावेषु कोशादिनियन्त्रितसङ्केतः सम्भवति । ततश्च तेषु ज्ञाततत्तदर्थनिरूपित-कोशादिनियन्त्रितसङ्केतकपदनिरूपितशक्यताया अवच्छेदकधर्मवत्त्वस्याइभावेनाऽन्याप्तिप्रसङग इति भावः ।
ननु प्रज्ञापनीयाश्चेत् श्रुतेऽनिबद्धाः न स्युः, तेषां वक्तुं शक्यत्वात् । श्रुताऽनिबद्धाश्चेत् प्रज्ञापनीया न स्युः, श्रुताsनिबद्धत्वात् तेऽनभिलाग्या एव भवेयुः । ततश्च प्रज्ञापनीयाः श्रुताऽनिबद्धा इति वचनं 'पिता में बालब्रह्मचारी ति वचनमिव व्याहतमित्याशङ्कां निराकर्तुमुपक्रमते - न चेति । तेषां श्रुताऽनिबद्धानां सतां प्रज्ञापनीयानां भावानां एव असिद्धिः = प्रमाणागोचरत्वमिति । ननुबादी तत्सिद्धयर्थमागमप्रमाणं दर्शयति - पन्नवणिज्जाणं ति । -> 'प्रज्ञापनीयपदार्थानां पुनरनन्तभाग एव चतुर्दशपूर्वलक्षणे श्रुते निबद्भः = भगवद्भिर्गणधरैः साक्षाद्ग्रथित' - (वि.आ.भा.गा.१४१ म.हे.टीका) इति श्रीमलधारिहेमचन्द्रसूरिव्याख्या । बृहत्कल्पभाष्यवृत्तिकृवचनं तु → 'तेषामपि प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्ततम एव भागः श्रुते द्वादशाङ्गलक्षणे सूत्ररचनया निबद्भः' «- (बृ.क.भा. पृ.३०४) इत्येवम् । श्रुतनिबद्धप्रज्ञापनीयभावापेक्षया श्रुताऽनिबद्धप्रज्ञापनीयभावानामनन्तगुणाधिक्यसिद्धौ तेषां कोशादिनियन्त्रितसङ्केताऽविषयत्वसिद्ध्या तत्र गृहीततत्तदर्थनिरूपित-नियन्त्रित - सङ्केतकपदशक्यतावच्छेदकधर्मविरहेणाऽन्याप्तिरिति न पश्चमोऽपि विकल्पः स्थेमानमाधत्ते । इत्थं बिकल्पपश्चतयीसंतापितोड़भिलाप्यत्वपदार्थो विषयपश्चतयीसन्त्रासितो जीव इव त्रुडत एवेति ननुवाद्यभिप्रायः ।
% 3D353555535
उपर्युक्त धर्म घट में नहीं है । अतएव घट में पटपद की अपेक्षा अभिलाप्यत्व = वाच्यत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि घट अर्थ में कोश आदि के द्वारा घटपद का ही संकेत नियन्त्रित होता है, न कि पटपद का भी" -
श्रुता. इति । तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि फिर भी अव्याप्ति दोष का परिहार नहीं हो सकता है। देखिये, प्रज्ञापनीय - अभिलाप्य भाव भी जैन सिद्धान्त के अनुसार द्विविध होते हैं, श्रुतनिबद्ध और श्रुतअनिबद्ध । श्रुत = आगम में अनिरुद्ध = अग्रथित अभिलाप्य = प्रज्ञापनीय भावों में कोश आदि से नियन्त्रित संकेत का ग्रहण ही नामुमकिन होने से कोशादि से नियन्त्रित अर्थविशेषनिरूपित ज्ञात संकेत राले पद की वाच्यता का अवच्छेदक धर्म भी उनमें रह सकता नहीं है। अत: प्रज्ञापनीय श्रुताऽनिबद्ध भावो में उपर्युक्त अभिलाप्यत्व नहीं रहने से अन्याप्ति दोष आयेगा । यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि - "जो भाव प्रज्ञापनीय = अभिलाप्य होने पर भी श्रुत में उल्लेखित न हो सके यह बात असंभव होने से श्रुनाऽनिबद्ध प्रज्ञापनीय भाव असिद्ध है, तब उनमें अभिलाप्यत्व की अन्याप्ति का उद्भावन कैसे किया जा सकता है ?" -- क्योंकि श्रुत में अनिरद्ध प्रज्ञापनीय भावों का प्रतिपादन आगम में ही किया गया है । यह रहा बृहत्कल्पवृत्ति का वचन - 'पनवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअनिद्धो'। इसका अर्थ है - प्रज्ञापनीय भाव का अनंतवा भाग श्रुत में निवजू = दर्शित है। इससे अर्धतः फलित होता है कि श्रुतनिबद्ध प्रज्ञापनीय भाव की भाँति श्रुतअनिवद्ध प्रज्ञापनीय भाव भी होते हैं, जो श्रुत-निबद्ध प्रज्ञापनीय भाव से अनन्तगुण होते हैं। श्रुत = आगम में भी जिन प्रज्ञापनीय भावों का उल्लेख नहीं किया गया है या किया नहीं जा सकता है, उनमें कोश आदि से नियन्त्रित संकेत की विषयता ही कैसे हो सकती है ? और वह नामुमकिन होने पर तादृशपदवाच्यतावच्छेदक धर्म भी उनमें कैसे संभवित हो सके ? अतः श्रुताऽनिबद्ध प्रज्ञापनीय भावों में उपदर्शित अभिलाप्यत्व के लक्षण की अव्याप्ति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। इस तरह अभिलाप्यत्व धर्म का सम्यक् निर्वचन = व्याख्यान नहीं किया जा सकता है, तब एक धर्मी में अभिलाप्यत्व और अनमिलाप्यत्व के अविरोध का निरूपण
% 3DDDDDDDD
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५१५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का, * अभिलाप्यत्वनिर्वचनम् *
न वाहते - तत्तदर्थस्वरूपपरिणामपरिणतपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्वं तत, श्रुतज्ञा- | नेन तनिश्रितमतिज्ञानेन वा तत्तद्रूपेण ततदर्थान् प्रतिपादयत्पदं हि तत्तदर्थपरिणामभाग भवति, अन्यथा प्रवृत्यादिप्रतिनियमानुपपत्तेः । एतेल 'विकल्पयोनयः शब्दाः, विकला: शब्दयोदयः । अपहरण तेषां, नार्थ
= - =-=- जयलता * = = = == प्रकरणकारः समाधानग्रन्थमाविष्करोति - अत्र वदन्तीति । स्याद्वादिन इति शेषः । तत्तदर्थेति । तत्तदर्थस्वरूपो य: परिणामविशेषः तेन परिणतं = कथञ्चिदर्धतादात्म्यापत्रं यत्पदं तनिष्ठशक्ततानिरूपितशक्यताया अवछेदकीभूतधर्मवत्त्वं तत् = अनभिलाप्यभावव्यावृत्तमभिलाग्यत्वम् । तदेव समर्थयति श्रुतज्ञानेनेति । श्रुता निबद्धानां प्रज्ञापनीयभावानां सङ्ग्रहार्धमाह तनिश्रितमत्तिज्ञानेन = श्रुतज्ञाननिश्रितमतिज्ञानेन वा तत्तद्रूपेण = तत्तद्विवक्षितधर्मण तत्तदर्थान् = जिज्ञापयिषितान् अर्थविशेषान् प्रतिपादयत् पदं हि तत्तदर्थपरिणामभाग = विवक्षितार्थपरिणामविशेषशालि भवति । श्रुतज्ञान-श्रुतनिश्रितमति
ज्ञानान्यतरकरणक-विवक्षितधर्मप्रकारक-विवक्षितार्थविशेष्यकशाब्दबोधं जनयत्पदं कथञ्चिदर्थतादात्म्यशालि भवतीत्यर्थः । विपक्षे || दण्डमाह - अन्यथेति । निरुक्तशाब्दबोधजनकाशब्दे कथनिर्धतादात्म्याऽनभ्युपगम इत्यर्थः । प्रवृत्त्यादिप्रतिनियमानुपपत्तेः
= "घटमानय' इतिगक्येन घटस्यैवानयनं न तु पटादेरिति नियमाऽघटनात् । अयं भावः 'घदपदं कम्बुग्रीवादिमति शक्तमिति सङ्केतग्रहात्मकश्रुतज्ञानवान् पुरुष: 'घटमानये' तिवाक्य श्रवणात् घटमेगनयति न तु पटादिकमिति प्रवृत्तिनियमोपलम्भेन ज्ञायते | यत् घट्पदश्रवणात् तस्य घटज्ञानमेव जातं न तु पटादिगोचरं ज्ञानम् । परं घटापदं कथं घटमेव बोधयति न तु पटादिकमपि ? इति मीमांसायां सत्यां इदमेव प्रतिभाति यदुत घटपदं कथञ्चिद्धटार्थतादात्म्यशालि न तु पटाद्यर्थतदात्मतापत्रम् । न च पदशक्त्या एवं तनियमोपपत्तिरिति वाच्यम्, तस्य अतिरिक्तत्वे गौरवगत् । न च तस्याः शब्दस्वरूपत्वमेवेति वक्तव्यम्, तथापि शब्दार्धयोः सर्वथा भेदे घटपदेन घटार्थस्यैव भानं न तु पटादेरित्यस्याउनुपपत्तितादयस्थ्यात् । ततश्च तत्तदर्थपरिणतिविशेषापेक्षया शब्दार्थयोस्तादात्म्यमकामेनापि स्वीकर्तव्यमेव । ततश्च घटार्थपरिणतिविशेषपरिणतघटपदशक्यतावच्छेदकीभूतघटत्वस्य | घट एवं सत्त्वात्, तस्यैव घटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वम् । फ्टार्थपरिणतिविशेषपरिणतपटपदवाच्यतावच्छेदकपटत्त्वधर्मशून्यत्वात्पदपदापेक्षया घटस्याऽनभिलाष्यत्वमेव । एतेन व्यतिकरादिदोषवृन्दमप्यपास्तम् । शब्दाऽग्रामाण्यवादिबौद्धमतं निराकर्तुमुपक्रमते - एतेनेति । शब्दार्थयोः कथञ्चित्तादात्म्येनेति । अस्य निरस्तमित्यनेनान्चयः | विकल्पयोनयः = कल्पनाजनकाः शब्दाः, | विकल्पाः = कंल्पना: शब्दयोनयः = शब्दनिमित्ता: वक्तुमनसि यो विकल्पः घटाद्याकारो जायते तेन स घटादिशब्दं
.:
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कना तो बहुत दूर की बात है ।
__ उत्तरपक्ष :- अत्र वद, इति । अभिलाप्यत्व भले ही उपर्युक्त स्वरूप न हो, मगर फिर भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि तत् ान अर्थस्वरूप परिणाम में परिणत पद की बोध्यता के अवच्छेदक धर्मवत्त्व को ही हम अभिलाप्यत्व कहते हैं। जैसे घट पट का प्रयोग किया जाय, तर यटपद घटपदार्थ के परिणाम से परिणत होता है । अतएव लोगों को घटपद से घट अर्थ का भान होता है, न कि पदादि अर्थ का । श्रुतज्ञान या श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के सहकार से वान्द तत् तत् धर्म से तत् तत् अर्धविशेप का प्रतिपादन करता हुआ शब्द तत् तत् अर्थविशेष के परिणाम को धारण करता है। यदि घटशन्द को घट अर्थ के परिणाम में परिणत न माना जाय तब तो पटशन्द को सुन कर घट में ही प्रवृनि होती है, न कि पट, मठ आदि में . यह नियत प्रवृत्ति अनुपपत्र बन जायेगी । 'घटमानय' = 'तुम घटले. आओ' इस वाक्य को सुन कर कोई पट आदि को लाने की प्रवृत्ति नहीं करता है। इसीसे फलित होता है कि घटप्रतिपादक घटशब्द घट अर्थ के परिणाम से परिणत होता है, न कि पटादि अर्थ के परिणाम से । तादृश पद की वाच्यता का अवच्छेदक धर्म घटल है और वह पटमात्र में, चाहे उसमें घटपद का किसीने प्रयोग किया हो या न किया हो, रहने से सभी घट में घटपद की अपेक्षा अभिलाप्यत्व अबाधित है । अतः अव्याप्ति का अवकाश नहीं है।
V शब्द और अर्थ में कथंचित् भेदाऽमेद - स्यादादी / एतेन. इति । बौद्ध मनीषियों का यह मत है कि => 'कल्पना से वाद उत्पन्न होते हैं और कल्पनाएं भी शब्द से उत्पन्न होती हैं। मतलब कि सामने घट न होने पर भी वक्ता को घटशब्द का उच्चारण करने की इच्छा होने की वजह
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* संतानुसारेण शब्दार्घतादात्म्यपरिणामः * शब्दाः स्पृशन्त्यपि' ।। ( ) इति निरस्तम्, कश्चित्तादात्म्येनैव शब्देनार्थप्रतिपादनात् । तदुक्तं परमर्षिभिः "खुरअग्गेिमोअगुच्चारणमि, जम्हा उ वयणसवणाणं । णवि छेओ णवि दाहो ण पूरणं तेण भिण्णं तु ॥ जम्हा य मोअगुच्चारणम्मि, तत्थेत पच्चओ होइ । ण य होइ स अण्णत्थो, तेण अभिण्णं तदत्थाओ ॥ (बृहत्कल्पभाष्य)ति । न चैवमेकरमादपि
* यal * | प्रयुक्ते । निर्विकल्पमनस: शब्दाऽप्रयोक्तृत्वमेवेत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां विकल्पस्य शब्दकारणत्वं सिद्धम् । वक्तृविकल्पजन्यघटादिशब्दश्रवणेन श्रोतुः घटायाकारो विकल्पो जायते तदश्रवणे तु नेत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां शब्दस्य विकल्पकारणत्वं सिद्धमिति कार्यकारणता = कार्यकारणभावः तेषां = विकल्पशब्दानामेव परस्परं, नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यपि = नाऽर्थपरिणतिभाजः शब्दाः भवन्तीत्यर्थः, कल्पनाया वितथत्वात् । विसंवादिशब्दोपलम्भादपि न तस्याऽर्थतादात्म्यमिति बौद्धाभिप्राय: । तदयुक्तत्वमेव प्रकरणकृदुपदर्शयति - कथञ्चित्तादात्म्येन = कथञ्चित् अर्धस्य तादात्म्यं यस्मिन् स तथा तेन एव शब्देन अर्थप्रतिपादनात् = कथञ्चित्स्वाऽभिन्नार्थविषयकश्रोतृबोधजननात् । अन्यथा पदार्थोपस्थितिशाब्दबोधप्रवृत्तिप्रतिनियमानुपपत्तेः । शब्दार्थयोर्न सर्वथा भदोऽभेदो वा किन्तु कथञ्चिद्भेदाभेद एवेत्यत्र संवादमाह - तदुक्तं परमर्षिभिरिति । खुरेति । यदि च शब्दार्थयोः सर्वथाऽभेद: स्यात् तर्हि क्षुरशब्दस्योच्चारणेन वदनस्य तच्छ्बणेन कर्णस्य च छेदः स्याताम्, एवमग्निशब्दस्योच्चारेण वदनस्य तञ्छ्रवणेन श्रवणस्य च दाह: प्रसज्येताम् तथा मोदकपदोक्त्या वदनस्य तच्छ्रवणेन श्रोत्रस्य च पूरणं भवेताम् । न चैवमिति शब्दार्धयोर्भेदः न तु सर्वथा भेदः । तर्हि तयोः सर्वधा भेद एवाऽस्त्वित्याशङ्कायामाह - जम्हा य इत्यादि । यदि शब्दार्थयोः सर्वधा भेद एब स्यात् तर्हि मोदकशब्दोच्चारणे मोदक इब वटादावपि विषयतासम्बन्धेन बोध उपजायत । न च भवति स = मोदकशब्दजन्यशाब्दबोधः अन्यार्थः = घटादिगोचर: तेन कारणेन मोदकपदं अभिनं = कथञ्चिदभिन्नं तदर्थात् = !! स्वार्थतः । अतः शब्दार्थयोः भेदानुविद्धाभेद एवेति श्लोकद्वयार्थः सक्षेपतः ।।
न चेति । वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । एवं = शब्दार्थयोः कथञ्चित्तादात्म्याऽङ्गीकारे एकस्मादपि पदात् = पटादि
वह घट शन्द को बोलता है और श्रोता को वक्तृकल्पनाजन्य घट शब्द से घटाकारगाली कल्पना उत्पन्न होती है । इस तरह कल्पना और शन्द के बीच ही कार्य-कारणभाव है, मगर शब्द का वास्तव में अर्थ के साथ कोई संबंध नहीं होता है। गब्द तनिक भी वास्तविक अर्थ का स्पर्श नहीं करता है, केवल काल्पनिक अर्थ से ही उसका सम्बन्ध है' - मगर अभी हम स्याद्वादियों ने जो बताया कि 'शब्द अर्थपरिणाम से परिणत हो कर ही अर्थ का प्रतिपादन करता है। इससे ही यह बीद्धमत निरस्त हो जाता है। वास्तव में शब्द अर्थ के परिणाम से कथंचित् परिणत हो कर यानी कथंचित् अर्थ से अभित्र हो कर ही अर्ध का भान कराता है, अन्यथा घटपद से ताजमहल का भी बोध होने लगेगा । मगर ऐसा नहीं होता है। इसलिए शब्द को अर्थ से कथंचित् अभिन्न मानना आवश्यक है, भले वह सर्वथा अर्थ से अभित्र न हो । पूर्वाचार्यों ने भी कहा है कि -> शब्द सर्वथा अर्ध से अभिन्न हो तो तलवारशन्द का उच्चारण करने पर जिला का छेद हो जायेगा, 'आग' ऐसा बोलने पर ही जीभ जल जायेगी और 'लड रोलने पर ही मुँह ला से भर जायेगा, क्योंकि शब्द और अर्ध में सर्वथा अभेद पक्ष का अभी विचार चल रहा है। लक्ष्मी शब्द को बोलने पर भी लक्ष्मी की वर्षा नहीं होती है। इसलिए शब्द और अर्थ में कथंचित् भेद है, यह सिद्ध होता है । मगर शब्द और अर्थ में सर्वथा भेद भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि लडू शब्द का उच्चारण करने पर लडू का ही भान होता है, न कि दिल्ली का । विवक्षित शब्द से अर्थविशेष का ही भान होता है . इसीसे सिद्ध होता है कि शन्द और अर्थ में कथंचित् अभेद भी होता है। इसलिए शब्द और अर्थ में न तो सर्वथा भेद है और न तो सर्वथा अभेद, किन्तु कथंचित् भेदाभेद है - यह सिद्ध होता है।
* कथंचित् अर्थपरिणत शब्द संकेतज्ञानसहकार से घोषजनक है - स्यादादी
न चे. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'सर्व शब्द सभी अर्ध के वाचक = प्रतिपादक होने पर तो एक पद से ही सर्व अर्थ में प्रवृत्ति होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि एक ही पद का सभी अर्थ के साथ तादात्म्य मानते १. क्षुराग्निमांदकोचारणे पस्मात्तु बदनश्रवणानां । नापि छेदो नापि दाहो न पूरणं तन भिन्नं तु ।।
पस्मान मादको धारण तत्रब प्रत्यया भवति । न न भवति स अन्याधः तनाऽभित्रं तदर्थान् ।।
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५२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.७ * अभिलाप्यले मीमांसा * पदात् सर्वत्र प्रवृत्ति: स्यात, सर्ववाचकस्य सर्वतादात्म्यादिति वाच्यम यत्रैव हि यत्पदस्य सङ्केतो गृह्यते तत्रैव तत्तादात्म्यापरिणतिरिति नियमात् । न च तत्तत्सहकेतग्रहस्य तत्तदर्धबोधं प्रत्येव हेतुताऽस्तु किं ततादात्म्यपरिणतिहेतुताकल्पनेनेति वाव्यम्, शब्दाननुविन्दस्याऽर्थस्याऽभानादित्यत्या विस्तरः ।
== =* जयलता * = पदात् सर्वत्र घटादी प्रवृत्तिः स्यात् ‘सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचका' इति नये सर्ववाचकस्य = सर्वार्थप्रतिपादकस्य पटादिपदस्य सर्वतादात्म्यात् = स्यात्सर्वार्थाभिन्नत्वात् । प्रवृत्तिश्चोपलक्षणं शाब्दबोधोत्पत्तेः । ततश्च प्रतिनियत्तशब्दात् प्रतिनियतार्थोपस्थिति - शाब्दबोधप्रवृत्तिप्रभृतयो विशीर्चेरन् । अतः तयोर्भेद एवं युक्त इति शङ्कादायः । तत्समाधानमाह - यत्रैव हि अर्थे यत्पदस्य सङ्केत्तो गृह्यते = ज्ञायते तत्रैव अर्थे तत्तादात्म्यपरिणतिः = तत्पदतादात्म्यपरिणाम इति नियमात् स्याद्वादिभिः । पटपदस्य पट एवं शक्तिग्रहात् पटार्थेन सह तादात्म्यं न घटाद्यर्थेन साकमिति न पटपदात् सर्वत्र शाब्दबोधादिप्रसङ्गः । यदि 'सर्वे सन्दाः सर्वार्थवाचका' इति नयानुरोधात् पटपदस्य घटे सङ्केतो गृह्यते तदा घटार्थेन सह पटपदस्य कथश्चित्तादात्म्यपरिणामाद् घटगोचरशाब्दबोधादिकमभिमतमेव । न चैवं चैत्रेण पटपदस्य घटे सङ्केतग्रहे मैत्रस्य पटपदाद् घटे प्रवृत्त्यादिप्रसङ्गः, पटपदस्य बटार्थतादात्म्यपरिणत्यड्गीकारादिति वाच्यम्. तत्र सङकेता ग्रहेण सामग्रीविरहादेव पटपदेन मैत्रस्य घटगोचरशान्दबोधादेरनापाद्यत्वात् । न चेति । शन्यमित्यनेनाऽन्वीयते । तत्तत्सङ्केतग्रहस्य = विवक्षितशब्दस्य विवक्षितार्थे सङ्केतग्रहस्य एक तत्तदर्थबोध = बिक्षितार्थगोचरशाब्दबोधं प्रति, एक्कारो भिन्नक्रमः स च योजित एव, हेतुताऽस्तु अवश्यक्लृप्तत्वात्, किं तत्तादात्म्यपरिणतिहेतुताकल्पनेन = शब्दार्थतादात्म्यपरिणामस्य कारणत्वकल्पनया सृतम्, अन्यथासिद्धत्वात् ।
समाधत्ते - शब्दाननुविद्धस्य = शब्दविनिर्मुक्तस्य अर्थस्य शान्दबोधे अभानात् 1 प्रयोगस्त्वेवम् - सर्वे भावा: शब्दमया; तदाकारानुस्यूतत्वात् । ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मयाः यथा घटशराबोदञ्चनादयो मृदकारानुस्यूता मृण्मयाः । न चैवमपि शब्दार्थतादात्म्यमसिद्भमिति वाच्यम्, शब्दान्न कश्चिद्व्यतिरिच्यतेऽर्थः तत्यतीतादेव प्रतीयमानत्वात् । यत्यतीतावेब यातीयते न तत्ततो व्यतिरिच्यते, यथा शब्दस्य स्वरूपम् । शब्दप्रतीतायेव प्रतीयते चार्थः । तस्मात्तथा । तदुक्तं भर्तृहरिणा वाक्यपदीये -> 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुबद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ वायूपता चेद् व्युत्क्रामेत् अवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी ।। (वा.प.का.१/१२३-१२४) न चैवं शब्दा. दैतमतप्रवेशासगात्रेदमभिधानं स्याद्रादिनां युक्तमिति वाच्यम्, अभिनिविष्टनयाभिप्रापरखण्डनेऽपरनयाश्रयणस्यापि शास्त्रार्थत्वात् ।
दान्तविरोध इति वाच्यम. सिद्धान्तेऽपि शब्दार्थयोः कथञ्चित्तादात्म्यस्याभिमतत्वात । इदमेवाभिप्रेत्य विशेषावश्यकभाष्येऽपि 'जेसु अनापसु तओ न नज्जए, नज्जए य नाणसु । किह तस्स ते न धम्मा वडस्स रूवाइधम्म ब्व' || (वि.आ. भा.श्लो. ४८५) इत्युक्तं सङ्गच्छते इति दिक् ।
उपसंहरति - इत्थश्चेति । श्रुतज्ञानेन तनिश्रितमतिज्ञानेन वा तत्तद्रूपेण तत्तदर्थान् प्रतिपादयत् सत् तत्तदर्थपरिणाम
हैं। - मगर यह शंका इसलिए निराधार है कि जिस शब्द का जिस अर्थ में संकेत गृहीत = ज्ञात होता है उसी अर्थ का तादात्म्य उस शब्द में होता है । घटपद का संकेत घट अर्थ में गृहीत होने से घटपद में कथंचित् घटतादात्म्य होता है । इसलिए उससे सभी अर्थ के बोध की या सभी अर्थ में प्रवृत्ति होने की आपत्ति नहीं आयेगी । यहाँ यह शंका करना कि -- तत् तत् अर्थ के चोध के प्रति तत् तत् में संकेतज्ञान को ही कारण मानना चाहिए, क्योंकि संकेतज्ञान के बिना किसी शब्द से अर्थबोध नहीं होता है । मगर अर्थबोध के प्रति शब्द-अर्थ के कथंचित् तादात्म्यपरिणाम को हेतु मानना आवश्यक नहीं है। शब्द-अर्थ में तादात्म्यपरिणाम नहीं होने पर भी शब्द से नियत अर्थ का शान्दबोध संकेतज्ञान के सहकार से हो नो क्या दोष है ?' -भी निराधार है, क्योंकि शब्द से अननुविद्ध = विनिमुक्न अर्थ का कभी भी भान नहीं होना है । घटशन्द कथंचित् घराभित्र नहीं होने पर घट अर्थ के ज्ञान के साथ घटशब्द का भी अवश्य भान नहीं होना चाहिए, अन्यथा पटादि शब्द का भी भान होना चाहिए । मगर घट अर्थ के साथ घटशब्द का ही अवश्य भान होता है। इसके अनुरोध से अर्थ में कथंचित् शब्दतादात्म्य मानना ही चाहिए । इस विषय का विस्तार से प्रतिपादन अन्यत्र द्रष्टव्य है'. ऐसा कह कर शब्द और अर्थ में कथंचित् तादात्म्य के विषय को प्रकरणकार तिलांजलि देते हैं ।
F केवली श्रुतविषयभूत अर्थ के ही प्रतिपादक है
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* प्रातिस्विकरूपमीमांसा *
नाभिलाप्यत्वं, प्राति
इत्थञ्चानभिलाप्यानामनभिलाप्यत्वेनाऽनभिलाप्यपदप्रतिपाद्यत्वेऽपि स्विकरूपेण पदाऽप्रतिपाद्यत्वात् । तदर्थं परिजततत्तत्पदप्रयोक्तव च पुरुषः तत्तदर्थप्रतिपादकत्वेन व्यवह्रियते । अत एव न भगवतां तत्तत्पदप्रयोक्तॄणामपि श्रुतज्ञानाविषयीभूतार्थ
ॐ जयलता
परिणतं यत्पदं तद्बोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वस्याऽभिलाप्यत्वसिद्धौ च अनभिलाप्यानां भावानां अनभिलाप्यत्वेन रूपेण अनभिलाप्यपदप्रतिपाद्यत्वे अभिलाप्यपदबोध्यतावच्छेदकधर्मवत्त्वे अपि नाभिलाप्यत्वं प्रसक्तं प्रातिस्विकरूपेण पदाऽप्रतिपाद्यत्वादिति ।
=
—
.
अत्रेदं विचार्यते प्रातिस्त्रिकरूपपदेनाञ्च किमभिमतम् ? विशेषधर्मस्य प्रातिस्त्रिकरूपपदार्थत्वं नार्हति घटत्वादिरूपेण घटादिपदवाच्यस्य घटादेरनभिलाप्यत्वापत्तेः, नीलघटत्वाद्यपेक्षया घटत्वादेः सामान्यधर्मत्वात् । न च घटत्वादेः द्रव्यत्वापेक्षया विशेषधर्मत्वा व्याहतेन दोष इति वक्तव्यम्, तथा सत्यनभिलाप्यत्वस्यापि भावत्वापेक्षया विशेषधर्मत्वेनाऽनभिलाप्यपदादनभि लाप्यत्वेन प्रतिपाद्यानामनभिलाप्यभावानामभिलाप्यत्वापत्तेः । किन्त्वनभिलाप्यत्वातिरिक्तधर्मपरं प्रातिस्विकरूपपदमत्र बोध्यम् । एतेनातिप्रसङ्गाऽप्रसङ्गादयो दोषा निरस्ताः । न चैवमपि श्रुतानिबद्धेषु प्रज्ञापनीयेषु भावेष्वव्याप्तेर्दुरित्वमिति वाच्यम्, श्रुताऽनिबद्धत्वेऽपि तेषां शब्देन प्रतिपादयितुं शक्यत्वात् । तदुक्तं श्रीमलधारिहेमचन्द्रसूरिभिः -> 'अभिलाप्यं वस्तु सर्वमक्षरेणोच्यते । अतस्तदभिधानशक्तिरूपाः सर्वेऽपि तस्याभिलाया: प्रज्ञापनीया: स्वपर्यांया उच्यन्ते । शेषास्तदनभिलाप्याः परपर्यायाः ' < (वि.आ.भा.म.री.लो. ४८७ ) इति । युक्तः चैतत् तेषां शब्दाऽवाच्यत्वेऽनभिलाप्यत्वापत्तेः । तदुक्तं बृहत्कल्पवृत्तौ - - यावतः पदार्थान् केवली भाषते तावत एव श्रुतकेबल्यपि । ये तु श्रुतज्ञानस्याऽविषयीभूता भावा: केवलिनाऽवगम्यन्ते तेषामप्रज्ञापनीयतया केवलिनाऽपि वक्तुमशक्यत्वादि' - (बृ. क. भा. श्लो. ९६३) ति । यत्तत्पदाभ्यां श्रुताविषयत्वाऽप्रज्ञापनीयत्वयोर्व्याप्यव्यापकभास्यैवाऽत्र दर्शितत्वात् । न च तेषां शब्दविषयत्वेऽपि कथं श्रुताऽनिबद्धत्वमित्याशङ्कनीयम्, तेषां बहुत्वादायुषोऽल्पत्वाच्च तेषां शब्दविषयत्वेऽपि श्रुताऽनिबद्धत्वोपपत्ते: । तदुक्तं विशेपावश्यकभाष्ये 'तीरंति न बोत्तुं जे सुओवलद्वा | बहुत भावाओ | सेसोयलद्भभावा साभव्यबहुत्त ओऽभिहिया' ।। (वि.आ.भा.गा. १३९) इति । श्रुताविषयाऽतिरिक्तज्ञानचतुष्कविषयाणामेवाऽनभिलाप्यत्वं तथास्वाभाव्यादित्युत्तरार्द्धाभिप्रायः । श्रुताऽनिबद्धानां प्रज्ञापनीयभावानां शब्दाऽवाच्यत्वेऽभ्युपगम्यमाने तु तत्तदर्थस्वरूप परिणाम परिणतपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वलक्षणमभिलाप्यत्वं कथं तेषु सम्भवेत् ? न च 'सर्वे सर्वार्थवाचका' इति नयानुरोधात् तेषामभिलाप्यत्वाऽव्याहतिरिति वाच्यम्, एवं सति घटस्य पटपदापेक्षयाऽव्यभिलाप्यत्वप्रसङ्गात् । तन्निवारणकृते सङ्केते नियन्त्रितत्वविदशेषणस्याऽऽवश्यकत्वात् ।
किश्च प्रज्ञापनीयानां सर्वेषामेव श्रुतनिबद्धत्वे चतुर्दशपूर्वराणां परस्परं षट्स्थानपतितत्वमपि विशीर्येत । तदुक्तं बृहत्कल्पवृत्ती -> 'यदि हि सर्व एव प्रज्ञापनीया भावाः श्रुते निबद्धा भवेयुस्तर्हि चतुर्दशपूर्विणोऽपि परस्परं तुल्या एव भवेयुर्न षट्स्थानपतिताः' - (बृ. क. भा. गा. ९६५ ) इति । न च श्रुतकेवलिनां सूत्रतः परस्परं तुल्यत्वमेव, षट्स्थानपतितत्वं तु तेषामेकस्मादपि सूत्रादनन्ताद्यर्थगोचरमतिज्ञानविशेषापेक्षयैवेति श्रुतनिबद्धानामेव भावानां प्रज्ञापनीयत्वमङ्गीकार्यमित्यारेकणीयम्, तेषां मतिविशेषाणामपि श्रुते एवाऽन्तर्भूतत्वात् । तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये 'अक्खरलंभेण समा, ऊणहिया हुंति मइवि - सेसेहिं । ते गुण मईविसेसे सुयनाणभंतरे जाण ॥' - (वि.आ.भा.गा. १४३) । ततश्व गृहीततत्तदर्थनिरूपित नियन्त्रित
५२२
इत्थं इति । यहाँ तक के विचारविमर्श से यह फलित हुआ कि तत् तत् अर्थस्वरूपपरिणाम से परिणत शब्द की वाच्यता के अवच्छेदक धर्म का होना ही अभिलाप्यत्व है, जो अनभिलाप्य भावों में नहीं होने से उनमें अनभिलाप्यत्व है । यद्यपि अनभिलाप्य शब्द से अनभिलाप्य भावों का भी प्रतिपादन होता है, फिर भी उनमें प्रदर्शित अभिलाप्यत्व की आपत्ति नहीं है; क्योंकि अनभिलाप्य भाव प्रातिस्विक विशेषरूप से किसी भी शब्द से प्रतिपाथ नहीं है। जैसे घट, पट, मठ आदि सभी द्रव्य होने पर भी घटत्व आदि प्रातिस्विक = विशेषरूप से घट, पट, मठ आदि शब्दों के द्वारा प्रतिपाय होने से वे अभिलाप्य भाव कहे जाते हैं। मगर अनभिलाप्य भाव का प्रातिस्त्रिक रूप से निरूपण नहीं हो ने से उनमें घटादि की भाँति अभिलाप्यत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती । अतः वे अनभिलाप्य ही कहे जायेंगे । तत् तत् अर्थ में परिणत तत् तत् पद का प्रयोग करने वाला पुरुष ही तत् तत् अर्थ का प्रतिपादक कहा जाता है । इसीलिए केवली भगवान भी श्रुत ज्ञान के विषय न होने | वाले अर्ध के प्रतिपादक नहीं कहे जाते हैं, क्योंकि अनभिलाप्य भावों में संकेत नामुमकिन होने से शब्द से उनके प्रातिस्विक
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५२३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ७ * केवलिन वायोगरूपं श्रुतज्ञानम्
प्रतिपादकत्वम् ।
इदमेवाऽभिप्रेत्याऽभ्यधायी 'केवलविन्नेयत्थे सुअणाणेणं जिणो प्रयासेइ । सुअनाणकेवली वि हू तेणेवत्थे पयासेइ ॥ (बु. क. भा. १६६ ) ति । श्रुतज्ञानेन वाग्योगेनेत्यर्थः, अन्यथा
* जयलता *
सङ्केतकपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वमभिलाप्यत्वमित्यपि सङ्गच्छत एव । न चैतत्प्रकरणकाराभिप्रायविरुद्धमित्याशङ्कनीयम्; लघुस्याद्वादरहस्ये - → 'गृहीततत्तदर्धनिरूपित नियन्त्रितसंकेतक पदवीध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वस्यैव तत्त्वात् । घंटे हि घटपदस्यैव कोशादिना सङ्केतो नियम्यते न तु पटपदस्येति नातिप्रसङ्गः । अत एव श्रुतज्ञानाविषयी भूतानामर्थानां प्रातिस्विकरूपेण सङ्केतग्रहाऽसम्भवादनभिलाप्यत्वमिति - (ल.स्या रह. पृ.११) निरूपितत्वात् । प्रातिस्विकरूपेणेति अनभिलाप्यत्वव्यतिरिक्तधर्मेणेत्यर्थः । तेन नाऽनभिलाप्यानामभिलाप्यत्वप्रसङ्गः । न चैवमन्योन्याश्रयः दुवरि: अभिलाप्यत्वलक्षणेऽभिलाप्यत्वाभावात्मकानभिलाप्यत्वव्यतिरिक्तधर्मनिवेशादिति वक्तव्यम्, गोत्वाश्वत्वयोरिवाऽभिलाप्यत्वाऽनभिलाप्यत्वयोः स्वतन्त्रधर्मत्वात् । घटतदभावयोरिवाभिलाप्यत्व तदभावात्मकत्वं तु तयोर्न युक्तम, “अनभिलाप्यत्वं स्वतन्त्रधर्मः अभिलाप्यत्वं तु तदभावरूपमित्यत्र विनिगमकाभावात् । ' सर्वे सर्वार्थवाचका' इतिनयानुरोधात् घटस्य पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्राप्तौ तन्निरासार्थं नियन्त्रित पद निवेश इति तु पूर्वमुक्तमेव । तत्तदर्थस्वरूपपरिणामपरिणतपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्त्वस्याऽभिलाप्यत्वे तु 'सर्वे सर्वार्थवाचका' इतिनधानु| रोधेन घटपटपदापेक्षपात्र मिलायतप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वं तु लघुस्याद्वादरहस्ये व्यक्तमेव । न चेष्टापत्तिरिति वक्तव्यम्, तथा सत्यनभिलाप्यभावानामपि पदपदापेचयाऽभिलाप्यत्वापत्तेदुर्वारत्वादिति विभावनीयं समाकलितागमरहस्यै: 1
<
इदमेव = भगवतां श्रुताऽविषयीभूतार्थाऽप्रतिपादकत्वमेव, अभिप्रेत्य संप्रधार्य अभ्यधायीति । बृहत्कल्पभाष्ये इति शेषः । केवल इत्यादि । श्रीक्षेमकीर्त्त्याचार्यसन्दृब्धव्याख्यैवम् केवलेन विज्ञेया येऽधस्तान यावत् श्रुतज्ञानेन जिनः | केवली प्रकाशयति । इह च केवलिनः सम्बन्धी बाग्योग एव श्रोतॄणां भावश्रुतकारणत्वात् कारणं कार्योपचारात् श्रुतज्ञानमुच्यते, न पुनस्तस्य भगवतः किमप्यपरं केवलज्ञानव्यतिरिक्तं श्रुतज्ञानं विद्यते, 'नहम्मि उ छाउमत्थिए नाणे' (आ.वि. गा. ५३९) इति वचनात् । श्रुतज्ञानकेवल्यपि तानेव = तावत: तेनैव श्रुतज्ञानेन अर्थात् = जीवादीन् प्रकाशयति । अतः श्रुतकेवलि - केवलिनौ द्वावपि प्रज्ञापनया तुल्यौ इति स्थितम् (बृ.क.भा.गा. ९६६) इति । तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्येअपि केवलनागेण त्थे नाई जे तत्थ पन्नचणजोगे । ते भासइ तित्धयरो बजोग सुयं हवइ सेसे || नाऊथा केवलेणं भासइ न सुएण जं सुयाईओ । पण्णवणिज्जे भास नाभिपे सुयाईए || तत्थवि जोगे भासइ नाजोगे गाहयाणुविन्तीए । भणिए व जम्मि सेसं समूहइ भइ तम्मन्तं || बजोगो तं न सुयं खओवसमियं सुपं जओ न तओं । विना से खइयं सदी उण दञ्चसूयमित्तं || संसं उमत्याणं वित्राणं सुधानुसारेणं । तं भावसुयं भण्ड़ स्वओवसमिओवओगाओ || भरतं वा न सुयं सेसं कालं सुयं सुनेंताणं । तं चैव सुर्य भण्णइ कारणकज्जीवयारेण || अहवा व जोगसुर्य से सेसं ति जं गुण-भूयं । भावसुयकारणाओ जम्पहाणं तओ सेसं । वइजोगसुयं तेसिं ति केइ तेसिं ति भासमानाणं | अहवा सुयकारणओ बजोगसुयं सुर्णेताणं ॥ (वि.आ.भा.गा. ८२९ / ८३६) तदेव समर्थयति श्रुतज्ञानेन वाग्योगेनेत्यर्थ
=
=
=
स्वरूप को नहीं बताया जा सकता है । इसी अभिप्राय से विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहत्कल्पभाग्य में भी कहा गया है कि -> 'केवल ज्ञान से ज्ञेय अर्थों को केवलज्ञानी श्रुत ज्ञान से बताते हैं तथा श्रुतकेवली भी श्रुत ज्ञान से ही उन अर्थों की प्ररूपणा करते हैं । यहाँ जी श्रुत ज्ञान शब्द का उल्लेख किया गया है, उसका अर्थ है वचनयोग । यदि ऐसा अर्थघटन न किया जाय तो केवलज्ञानी भगवंत में श्रुत ज्ञान नामुमकिन होने से यथाश्रुत अर्थ असंगत बनता है । मति श्रुत अवधिमनः पर्यव, इन छानस्थिक ज्ञानों का नाश होने पर ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए केवलज्ञानी भगवान में
श्रुत ज्ञान
का अभाव सिद्ध होने से 'केवलज्ञानी श्रुत ज्ञान से अर्थ का निरूपण करते हैं' इसका अर्थ यही हो सकता है कि 'केवलज्ञानी वचनयोग से अर्थ की प्ररूपणा करते हैं । यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि 'केवलज्ञानी में जैसे क्षायिक केवल ज्ञान होता है, ठीक वैसे ही क्षायिक श्रुत ज्ञान माना जा सकता है । क्षायिक होने की वजह उसका केवलज्ञान की भाँति नाश नहीं हो सकता और वह छाइस्थिक छद्मावस्थाकालीन ज्ञान नहीं होने से उसका बिलय होने पर ही केवल ज्ञान की उत्पत्ति मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं है । इसलिए 'केवलज्ञानी भगवान श्रुतज्ञान = क्षायिक श्रुतज्ञान से अर्थ की प्ररूपणा करते हैं' ऐसा यथाश्रुत जैसा कहा गया था सुना गया है वैसा अर्थ मानने में कोई क्षति नहीं है'-- = केवली में क्षायिक श्रुतज्ञान नामुमकिन
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* केवलिनि शेषज्ञानचतुष्कसद्भावमीमांसा
भगवत: श्रुतज्ञानाऽसम्भवाद् यथाश्रुताऽर्थानुपपत्तेः, तत्र क्षायिकश्रुतज्ञानादिसत्त्वपक्षस्याऽनभ्युपगमात्, अन्यथोपयोगव्दयमात्राभिधानविरोधात् । तथा च भगवान् सर्वमर्थं संविदानोऽपि
* जयलता
इत्यादिना । अन्यथा = श्रुतज्ञानपदस्य वाम्योगे लक्षणाया अनङ्गीकारे, भगवतः केवलज्ञानिनः 'नट्ठम्मि उ छाउमत्थिए नागे' ( आ.नि. ५३९) इति वचनेन श्रुतज्ञानाऽसम्भवात् यथाश्रुतार्थानुपपत्तेः = श्रुतज्ञानपदशक्यार्थान्वयानुपपत्तेः ।
I
=
ननु सन्त्येव मतिश्रुतादिज्ञानान्यपि सयोगिकेवल्यादौ, केवलमफलत्वात् सन्त्यपि न तदानीं विवक्ष्यन्ते यथा सूर्योदये नक्षत्रादीनि । उक्तञ्च 'अन्ने आभिणिबोहियणाणाईणि वि जिगस्स विज्जति । अफलाणि सूरुदए जहेब नक्खत्तमाईणि || ( ) इति । न चार्थक्रियाकारित्या नावा तेषामसत्त्वमाशङ्कनीयम् मत्यादानां स्वस्वावरणक्षयोपशमभावेऽपि अभिव्यज्यमानानां नि:शेषतः स्वस्वावरणक्षये सद्भावस्य सुतरां न्याय्यत्वात् चारित्रपरिणामदानादिलब्धिप्रभृतिवत् । अत एव श्रुतज्ञानपदलक्षणाया अन्याय्यत्वम्, तस्या जघन्यवृत्तित्वात् । उक्तञ्च 'आवरणदेसविगमे जाई विज्जति मसुयाईणि । आवरणसब्बविगमे, कह ताईं हुति जीवस ? || ( ) इति । इत्थमेव केवलज्ञानविज्ञेयार्थानां श्रुतज्ञानेन प्रकाशनमप्युपपद्यते श्रुतकेवलज्ञानो भयनिरूपितविषयताश्रयाणां निरूपणोपपत्तेः श्रुतज्ञानस्यैव मुखरत्वात् । अत एव विशेषावश्यकभाष्यवृत्तिकृतां मत्यवधिमनः पर्यवकेवलज्ञानविषयाणामनभिलाप्यत्वप्रतिपादनमपि सङ्गच्छते, श्रुतविषयतानाक्रान्तामेव सतां मत्यादिज्ञानविषयाणामनभिलाप्यत्वाऽभिप्रायादित्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह तत्र केवलज्ञानिनि, क्षायिकश्रुतज्ञानादिसत्त्वपक्षस्य सिद्धान्तपक्षे अनभ्युपगमादिति । यथा भास्करस्याऽतिसमुन्नतघनाघनश्यामघनपटलान्तरितस्यापान्तरालावस्थितकटाद्यावरणप्रविष्टः प्रकाशो घटादीन् प्रकाशयति तथा केवलज्ञानावरणावृतस्य केवलज्ञानस्याऽपान्तरालमतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमविवरविनिर्गतः प्रकाशो जीबादीन् प्रकाशयति । यथा सकलघनपढलकटाद्यावरणापगमे तथाविधः प्रकाशी भास्करस्याऽस्पष्टरूपो न भवति किन्तु सर्वात्मना स्फुटरूपोऽभ्य एव तथेहापि सकलकेवलज्ञानावरणमनः पर्यवज्ञानावरणादिविलये न तथाविधो मतिज्ञानादिसंज्ञितः केवलज्ञानस्य प्रकाशो भवति किन्तु सर्वात्मना यथावस्थितं वस्तु परिच्छिन्दन् परिस्फुटरूपोऽन्य एव । तदुक्तं 'कटविवरागयकिरणा मेहंतरियस्स जह दिसस्स । कडमेहावगमे न हुंति जह तह इमाईपि ॥ ( ) इति । आवश्यक निर्युक्तावपि 'नद्रुम्मि उ छाउमत्थिए नाणे' (आ. नि. ५३५.) इति प्रोक्तम् । न च सामानाधिकरण्यावच्छिन्नस्वपूर्ववर्तितासम्बन्धेन केवलस्यैव स्वसमानाधिकरणगुणनाशकत्वे ज्ञानचतुष्टयवत् शमादीनामपि नाशप्रसङ्गः, स्वसमानाधिकरणज्ञानचतुष्कनाशत्वस्य केवलकार्यतावच्छेदकत्वे स्वसमानाधिकरणशमादिनाशत्वेन विनिगमनाविरहादिति वाच्यम्, केबलिनि क्षायोपशमिकाणां शमादीनामनभ्युपगमात् । न च केवलिनि क्षायिकशमादिवत् क्षायिकमत्यादिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, केवलज्ञानावरणस्य मत्यादिहेतुत्वेन केवलिनि तदापादनाऽयोगात् । इदमेवाभिप्रेत्य तत्त्वार्थटीकायामपि -> केवलज्ञानव्यावृत्त - ज्ञानत्वव्याप्यजात्यवच्छिन्नं प्रति केवलज्ञानावरणस्यैव हेतुत्वात्, केवलज्ञानत्वाच्छित्रे च लाघबाद् ज्ञानावरणक्षयत्वेनैव हेतुत्वात् ज्ञानावरणपश्चकपादेकं केवलज्ञानमेवोत्पद्यते न मत्यादीनि इति तैः साहित्यं न केवलज्ञानस्ये' <- (त.सू. अ. १ सू. ११ ) ति । ज्ञानबिन्दी अपि मन्दप्रकाशे आवरणस्य हेतुत्वं समर्थितम् । मत्यादीनां क्षायोपशमिकत्वादपि न कृत्स्नज्ञानावरणविलये उत्पत्तिः सङ्गतिमङ्गति ।
अव विवक्षाधकमाह अन्यथा = केवलज्ञानिनि क्षायिकश्रुतादिसत्त्वे, उपयोगद्वयमात्राभिधानविरोधात् = केवलज्ञानिनि केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणोपयोगद्वयमेव केवल्यवस्थापेक्षया, एककाले त्वेक एव तदन्यतरलक्षण उपयोग इति सिद्धान्त
तत्र इति । उपर्युक्त वक्तव्य अप्रामाणिक होने का कारण यह है कि सिद्धान्त जैनागम के अनुसार 'केवलज्ञानी में क्षायिक श्रुतज्ञान आदि होते हैं इस मत का स्वीकार किया गया नहीं है । इसका कारण यह है कि सिद्धान्त में 'जीव को एक समय में एक ही उपयोग होता है, न कि दो उपयोग' ऐसा निरूपण किया गया है । यदि केवलज्ञानी में क्षायिक केवलज्ञान की भाँति क्षायिक श्रुत ज्ञान भी माना जाय तो एक समय में दो उपयोग की आपत्ति आयेगी । 'केवली अवस्था के दौरान भिन्न समयावच्छेदेन केवल ज्ञान और केवल दर्शन दो ही उपयोग होते हैं। इस सिद्धान्त का भी केवली में क्षायिक श्रुत ज्ञान मानने पर विरोध होगा, क्योंकि तब केवली अवस्था के बाद क्षायिक श्रुतज्ञान, केवलज्ञान और केवलदर्शन, इन तीन उपयोग के स्वीकार की आपत्ति आयेगी । इसलिए 'केवलज्ञानी भगवंत वचनयोगस्वरूप श्रुत ज्ञान से केवलज्ञानज्ञेय पदार्थ का निरूपण करते हैं। यही अर्थघटन करना मुनासिव है । इस तरह वचनयोग से देशना देना का मतलब यही हुआ विशेषावश्यकभाष्यस्य १३० तमलोकस्य मलधारवृत्तिः ।
५.
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५२४
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५२५ मध्यमस्यादादरहस्पे खण्डः २ . का. * नवार्थश्लोकवार्तिककारमतालोचनम् * वाग्योगस्वाभाळ्यात् श्रुतज्ञानविषयीभूतमेवार्थ प्रतिपादयति नान्यदिति प्रतिपत्तव्यम् ।
दिगम्बरास्तु - परकीयघटादिज्ञानस्य स्वेष्टसाधनताज्ञानात्तत्र प्रयोक्तुरिच्छा, तत इष्टघटादिज्ञानसाधनतया घटादिपदे तत्साधनतया च कण्ठताल्वाभिघातादाविच्छा, तत: प्रवृत्त्यादिक्रमेण घटादिपदप्रयोगः, इत्येताशपरिपाट्या: केवलिनामभावाम ते शब्दप्रयोक्तार: किन्तु
* जयलता * वचनविरोधप्रसङ्गात् । एतेन 'जुगवं दो णत्यि उवओगा' (वि.आ.भा. ) इत्यादिवचनमपि व्याख्यातम्, एकत्र एककालावच्छेदेनोपयोगद्वयनिषेधपरत्वात्तस्य । एतेन 'नोपयोगी सह स्यातामित्याः ख्यापयन्ति ये । दर्शनज्ञानरूपी तौ न तु ज्ञानात्मकाविति' ।। (त.श्लो.वा.अ.१/सू.३०/श्लो.७) इति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककारवचनमपि प्रत्युक्तम्, क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनद्वयवत् क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञानद्वयस्य परस्परं विरुद्धत्वात्, आयोपशमिकधर्मसंन्यासलक्षणप्रथमसामर्थ्ययोगानन्तरमेव केवलज्ञानोत्पत्तेः, केवलज्ञान-केवलदर्शन-सम्यग्दर्शन-चारित्र-लब्धिपञ्चकलक्षणनवविवक्षायिकभावानामेवाऽभ्युपगमेन मतिश्रुतज्ञानादीनां क्षायिकत्वाऽसम्भवात् । तदुक्तं चतुर्थंकर्मग्रन्थे श्रीदेवेन्द्रसूरिभिः -> 'बीएए केवलजुयलं सम्मं दाणाइलद्धि पण चरणं' (च.क.ग्र.लो.६५) इति दिक् ।
दिगम्बरास्त्विति । आहुरित्यनेनाऽस्यान्चयः । परकीयघटादिज्ञानस्य स्वेष्टसाधनताज्ञानात् तत्र = पूरकीयघटादिज्ञाने प्रयोक्तुः 'परो घटादिकं जानातु' इत्याकारिका इच्छा जायते । ततः = निरुक्तेच्छानन्तरं इष्टघटादिज्ञानसाधनतया = स्वेष्टस्य परकीयघटादिज्ञानस्य साधनत्वेन च ज्ञाते कण्ठताल्वाभिघातादौ इच्छा सआयते । ततः = स्वेष्ट परकीयघटादि
वाद्यभिघातादिगोचरेच्छानन्तरं, प्रबत्त्यादिक्रमेण = कण्ठताल्वाद्यभियातादौ प्रयत्नः प्रवृत्तिः चेष्टा इति रीत्या घटादिपदप्रयोगो भवति । न हि श्रोतृबोधोत्पादेच्छामृत एव प्रेक्षावान् वक्ति, तत्त्वहान्यापत्तेः । नाप्युपेयेच्छां विनवोपायेच्छा प्रादुर्भवति, सर्वदा तत्प्रसक्तेः । नाप्युपायाभिलाषं विनैवेष्टसाधनगोचरणवृत्त्यादिकं दृष्टचरमित्येवमन्चय-व्यतिरेकाभ्यां शब्दप्रयोगं प्रति परम्परयेच्छायाः प्रयोजकत्वं सिध्यति । ततः किं ? इत्याशङ्कायामाह - एतादृशपरिपाट्याः = इष्टसाधनताज्ञानेच्छाप्रयत्नाद्यानुपूर्व्याः वीतरागत्वेन केवलिना = केवलज्ञानिनां अभावात् न ते = वीतरागाः शब्दप्रयोक्तारः । न हि वीतरागाणां किमपीष्टं भवति, इष्टत्वस्येच्छाविषयलरूपत्वेन तेषां सरागत्वप्राप्तेः । वीतरागाणां कुत इच्छा ? तस्या
कि केवलज्ञानी भगवंत केवल ज्ञान से सभी विषयों को जानते हुए भी वचनयोग के स्वभाव की वजह श्रुत ज्ञान के विषयीभूत अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं, न कि श्रुतज्ञान के अविषयीभूत अर्थ का भी । जो विषय शब्द का अगोचर हो उसका शब्द से निरूपण या ज्ञान कैसे हो सकता है ? नयन के अगोचर परमाणु-पिशाच-काल आदि पदार्थों का ज्ञान क्या नयन से हो सकता है ? नहीं ही हो सकता । अतः केवली श्रुतज्ञानविषयीभूत अर्थ का ही निरूपण करते हैं . यह अवश्य अंगीकर्तव्य है।
विसमापरिणाम से केवलिदेशना - दिगंबरमत V दिग, इति । केवलज्ञानी की देशना वचनयोग से होती है-यह श्वेताम्बर जैन मनीपियों का मत है । मगर दिगम्बर जैन विद्वानों का यह मत है कि केवली की देशना चिनसापरिणाम से होती है। उनका अभिप्राय यह है कि वक्ता शब्द का प्रयोग अन्य = श्रोता को बोध कराने की इच्छा से करता है, जो बोध वक्ता का इष्टसाधन हो । जैसे 'चैत्र को घटज्ञान कराना मेरे इष्ट का साधन है' ऐसा ज्ञान देवदन को होने पर देवदत्त को 'चैत्र घटज्ञानवाला हो' ऐसी इच्छा उत्पन्न होती है। बाद में 'अपने इष्ट = इच्छाविपयीभूत चेत्रीय घटज्ञान का साधन घटपद है' ऐसा ज्ञान देवदत्त को होने पर घटशब्द के कारण कंठतालु आदि के अभिघात = ध्वनिजनकसंयोग आदि की इच्छा होती है। जब तक कंठतालु आदि में अभिघात नहीं उत्पन्न होता है तब तक घटशन्द की उत्पत्ति नहीं होती है और जब तक घटशन्द का उच्चारण न हो तब तक चैत्र को घटविषयक शाब्दबोध नहीं हो सकता, जो देवदत्त का इष्टसाधन है। अत: कंठतालु आदि के अभिघात आदि की इच्छा देवदत्त को होती है। बाद में कंठतालुअभिघात आदि का प्रयत्न उत्पन्न होता है, जिससे देवदत्त कंठतालु अभियात आदि में प्रवृत्ति करता है। बाद में पटशन की उत्पत्ति होती है। इस क्रम से शब्द की उत्पत्ति होती है। श्रोता को घटादिविषयक ज्ञान कराना वक्ता को इष्ट न हो या वक्ता के इए का साधन न हो, तब वक्ता घटादिशब्द का उच्चारण नहीं करता है, अन्यथा वह वचन उन्मत्तप्रलाप बन जायेगा। मतलब कि शब्द की उत्पत्ति के लिए परंपरा से इच्छा कारण बनती है। इस
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* केवलिना शब्दाप्रयोक्तृत्वमाशाम्बरमते * विससात एव मूहों निरित्वरा ध्वनयस्तत्तच्छब्दत्वेन परिणम्याऽविशेषं बोधयन्ति । न चैवमुपदेशादि तस्य नियतकालीनं न स्यादिति वाच्यम्, वैससिकस्यापि तस्य स्वभावतो नियतकाल एव भावाद, घनगर्जितादिवत् । उक्तञ्च -> 'ठाणणिसेज्जविहारा, घम्मुवदेसो य नियदिणा तेसिं । अरहताणं काले मायाचारी व्व इत्थीणं' ।। (प्र.सा.9/88) «- इत्याहुः ।
= =* जयलता * अभिष्वङ्गरूपत्वात् । तस्या विरहे कुतः प्रयत्नः । तदभावे च कुतः प्रवृत्तिः ? अतो न ते शब्दं प्रयुञ्जत इति सिद्धम् । 'केवलज्ञानिनां शब्दानयोक्तत्वे कथं तीर्थस्थापनादिकं सम्भवेत ? इत्याशङ्कायामाह - किन्विति । विससात एव = विससापरिणाममाश्रित्य, एवकारेण प्रायोगिकपरिणामव्यवच्छेदः कृतः, मूर्ध्नः = शिरस: नि:सरन्तः निरित्वराः = सातत्यशालिनः ध्वनयः, अनेन वर्णात्मकशब्दव्यवच्छेदः कृतः, तनच्छब्दत्वेन परिणम्याविशेष बोधयन्तीति । ततश्च केवलज्ञानिनः कण्ठताल्वाद्यभिघातादिद्वारा वर्णात्मकताब्दं नोत्पादयति । न च वैससिकध्वन्यात्मकशब्दानां वर्णात्मकशब्दत्वेन परिणतत्वस्याऽभ्युपगमे मृदङ्गादिध्वनीनामपि वर्णत्वेन परिणामापतेर्नेयं कल्पना युक्तेति वक्तव्यम्, तीर्थंकरनामकर्मोदयेनैव ध्वनीनां वर्णत्वेन परिणतत्वाऽङ्गीकारेगाऽनतिप्रसङ्गात् । एतेन ध्वनीनां वर्णत्वेन परिणतत्वकल्पनाया अप्रामाणिकत्वमपि प्रत्युक्तम्, अन्यथा श्वेतपटस्यापि अर्धमागधीभाषात्मिकायाः तीर्थकरदेशनाया तत्तच्छ्रोतृभाषात्वेन परिणामोऽपि नैव सङ्गच्छेत । न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । एवं = भगवद्ध्वनीनां वैनसिकत्वेऽभ्युपगम्यमाने उपदेशादि = उपदेशस्थाननिषद्याविहारादिक तस्य = तीर्थकरस्य नियतकालीनं न स्यात् कदाचिद्रात्री क्वचिदिवा द्वितीयादिप्रहरेऽपि उपदेशविहारादिकं प्रसज्येतेति शङ्काझयः । आशाम्बरास्तन्निराकुर्वन्ति - चैनसिकस्य = विनसापरिणामजन्यस्य अपि तस्य उपदेशादेः स्वभावतः नियतकाल एव भावादिति । तच्छिरसोऽहर्निशं ध्वनीनां नि:सरणेऽपि तत्तच्छब्दत्वेन परिणामस्तु दिनप्रथमचरमपौरुष्योरेव भवति नियतिवशादिति न तीर्थंकरदेशनाया नयत्यव्याहतिरिति दिक्पटाभिप्रायः । उक्तार्थे संवादमावेदयन्ति - उक्तश्चेति । प्रवचनसारे कुन्दकुन्दस्वामिनेति शेषः । ठाणेत्यादि । नियतिपदेन ज्ञानेच्छादित्यवच्छेदः कृतः । काल इति नियतकाल इत्यर्थः । अत्र तत्त्वप्रदीपिकाकारः --> 'यथाहि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एघ मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहार: प्रवर्तते तथाहि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते । अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्बम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षश्च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते, तधा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्विका एव दृश्यन्ते । अतोऽमी स्थानादयो मोहोदयपूर्वकत्वाभावात् क्रियाविशेषा अपि केबलिनां क्रियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति' «- (प्र.सा.१/४४ अ.टी.पृ.५१) इत्येवं व्याख्यातवान् ।
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क्रम से केवली शब्द को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि केवली को कोई इच्छा ही नहीं होती है । इच्छा रागस्वरूप है
और केवलज्ञानी वीतराग है। इस तरह जब केवलज्ञानी को इच्छा ही नहीं होती, तब स्वेष्टसाधनताज्ञान = अपनी इच्छा के विपपीभूत पदार्थ की साधनता का ज्ञान आदि कैसे मुमकिन हो सकता है ? इसलिए केवलज्ञानी भगवंत शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं, किन्तु विससापरिणाम से केवलज्ञानी के मस्तक में से सतत = निरित्वर ध्वनि निकलती हैं, जो तत् तत् घटादिशब्द में परिणत हो कर घटादि तत् तत् अर्थ का शान्दबोध श्रोता को कराती हैं। यहाँ यह शंका हो कि -> 'यदि केवलज्ञानी के सिर से विससापरिणाम द्वारा ध्वनि निकलते हैं, तब तो केवलज्ञानी की देशना नियतकालीन नहीं होगी, मगर रात और दिन चलती रहेगी । मगर जैन आगम में तो कहा गया है कि तीर्थकर की देशना दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही होती है । यह कैसे संगत होगा ?' - तो इसका समाधान यह है कि वे ध्वनि विनसापरिणामजन्य = वैनसिक होने पर भी नियत काल में ही उत्पन्न होती हैं, न कि रात और दिन २४ घंटों तक । यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है, जैसे आकाश में बादल की गर्जना विनसापरिणाम से उत्पन्न होती है, फिर भी सभी ऋतु में बादलगर्जना नहीं होती है, किन्तु बारिस के दिनों में यानी वर्षाऋतु में ही उत्पन्न होती है। सिम्रसापरिणाम से जन्य पदार्थ भी नियतकालीन हो सकते हैं । अतः तीर्थंकर का उपदेश दिन के प्रथम और चरम प्रहर (= दिन का चतुर्थ भाग) में मुमकिन है । इस विषय में प्रवचनसार ग्रन्थ में दिगम्बराचार्य कुंदकुद स्वामी ने कहा है कि 'अरिहंत भगवान का बैठना, विहार करना, धर्मोपदेश
देना इत्यादि नियति = स्वभाव से ही उचित काल में होता है। जैसे स्त्री में माया का आचार स्वभाव से होता है, न । १. स्थाननिषद्याविहारा धर्मोपदेशच नियत्या तेषां । अर्हतां काले मापाचार इव स्त्रीणाम् ।
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५६७ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड २ . का.७ ** दिगम्बरमतदूपणम् *
ता, वर्णमात्रं प्रत्येव पुरुषप्रयत्नस्य कारणत्वात् तं विना तदनुत्पत्तेः । न च रागविशिष्टवर्ण प्रत्येव तस्य हेतुता; अनन्तप्रवृत्तिकार्यतावच्छेदककोटौ रागविशिष्टत्वदानापेक्षया रामविशिष्टप्रवृत्तिं प्रत्येवेच्छाया हेतुत्वकल्पने लाघवात् । न च तत्तन्मोहविशिष्टत्वा
* जयलता * निरुक्तदिगम्बरमतमाहस्तयितुमपक्रमते - तचेति । वर्णमात्र प्रति = वर्णत्वावच्छिन्नं प्रति, तेन नाऽनुपदवक्ष्यमाणैवकारपदेन सह पौनरुक्त्यं, एवकारेण रागविशिष्टवर्णत्वावच्छिन्नं प्रतीत्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । पुरुषप्रयत्नस्य = जीवयत्नस्य, तेन न स्यादिप्रयत्नजन्यशब्दे व्यतिरेकव्यभिचारः । यद्वा पुरुषपदं परिचायक, कारणतावच्छेदकं तु, प्रयत्नत्वमेव, लाघवात् । कारणत्वात् = अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कारणत्वसिद्धेः, तं = प्रयत्नं बिना तदनुत्पत्तेः = वर्गोत्यादाइसम्भात् । स्वकारणतावच्छेदकावच्छिन्नमृते कार्यस्य सत्त्वाऽभ्युपगमे नित्यं सत्त्वप्रसङ्गात् । ननु रागविशिष्टदाब्दं प्रत्येव कृतेर्हेतुत्वमिति रागशून्यशब्दस्य प्रयत्नमृतेऽप्युत्पनौ दोषाभावादित्याशङ्का निराकरोति - न चेति । अत्र बाधकमावेदयति - अनन्तप्रवृत्तिकार्यतावच्छेदककोटी = अनन्तप्रयत्ननिष्ठकारणतानिरूपितायाः कार्यताया अवच्छेदकत्वशरीरे, रागविशिष्टत्वदानापेक्षया = सगवैशिष्टयस्य निवेशापेक्षया, रागविशिष्टप्रवृत्ति = रागविशिष्टप्रयत्नं प्रति एव इच्छाया = रागस्य हेतुत्वकल्पने प्रयत्नकार्यतावच्छेदकदेहे लाधवादिति । इदमुक्तं भवति - यदि प्रयत्नस्य कार्यता रागविशिष्टवर्ण इत्यङ्गीकारेण वीतरागवर्णस्य कण्ठताल्वाद्यभिधाताद्यनुकूलप्रयत्न विनवोपपादनेऽपि स्थानासन-विहार-चङ्गक्रमणानप्राण-रक्तभ्रमण-हस्तादिचालनादिक वीतरागस्य प्रयत्नं बिना नैवोत्पत्तु मर्हति, प्रयलस्व सत्कारणत्वासातदल्पत्यारोधिन वीतराग प्रयत्नस्वीकारे प्रयत्नादेव वर्णोत्पादसम्भवे किं रागविशिष्टवर्ण प्रति प्रयत्नस्य कारणताया: कल्पनेन, गौरवात् । अथ प्रयत्नत्वावच्छिन्नस्येच्छाजन्यत्वाऽवधारणानिरिच्छे भगवति न स्थानासनाद्यनुरोधात्प्रयत्न: स्वीक्रियते । न च तर्हि प्रयत्नं बिना कथं तदत्पत्तिः ? अन्यत्र स्थानासनादिकं प्रति प्रयत्नस्य कारणत्वावधारणेन व्यतिरकव्यभिचारप्रसङ्गादिति वाच्यम्, वीतरागस्थानासनविहाराद्यनुरोधेन रागविशिष्टस्थानासनविहारादिकं प्रत्येव यत्नस्य कारणत्वकल्पनादिति चेत् ? अहो : दिक्पटस्याऽभिनिवेशः । एवं रागविशिष्टत्वस्य प्रयत्ननिष्ठकारणतानिरूपिताऽनन्तकार्यतायाअवच्छेदकारीरे प्रवेशे मानाभावात्, व्यर्थगौरवाच, तदपेक्षया लाघवेन रागविशिष्टप्रयत्नं प्रत्येवेच्छाया: कारणत्वं कल्पयितुमर्हति । न चैवमपि तवेच्छानिरूपितकार्यतावच्छेदककोटी रागविशिष्टत्वनिवेशगौरवमध्याह्तमेवेति वाच्यम्, मयेच्छानिरूपिताया: प्रयत्ननिष्ठाया एकस्या एवं कार्यताया अवच्छेदकत्वशरीरे रागवैशिष्टयस्य निवेशात् त्वया तु प्रयत्ननिरूपितायाः स्थानासनविहारचक्रामणवर्णादिनिष्ठाया अनन्तायाः कार्यताया अवच्छेदकलकुक्षौ रागविशिष्टत्वस्य प्रवेशात्तव इत्या प्रयत्नकार्यतायां सङ्कोचे मानाभावेन प्रयत्नमृते वीतरागदेशनादिकं नैव भवितुमर्हतीति स्थितम् ।
ननु तिष्ठासालक्षणमोहविशिष्टस्थितिक्रियां प्रति तिष्ठासालक्षगमोहस्य कारणत्वं, जिगमिषाविशिष्टगमनक्रिया प्रति जिगमिषास्वरूपमोहस्य हेतुत्वं, त्रुभोधयिषात्मकमोहविशिष्टशब्द प्रति बुभोधयिषालक्षणमोहस्य निमित्तत्वमित्येवमेवान्वयन्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणभावकल्पनमर्हति । ततश्च बीतमोहानां भगवतां न शब्दप्रयोक्तृत्वमित्याशाम्बराशामपाकर्तुमुपक्रमते - न चेति । अस्य 'वाच्यमित्यनेनान्वयः । 'तसन्मोहे त्यादिकं भावितमेव । प्रकरणकारः समाधत्ते - तथापीति । बुभोधयिषा-जिगमिषातिष्टासादितत्तन्मोहविशिष्टत्वावच्छिन्नवर्णबिहारस्थानासनादिकं प्रति बुभोधयिषा-जिगमिषा-तिष्ठासादितत्तन्मोहत्वेन कारणत्वाकि छा से, ठीक वैसे ही' । अत: केवली शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं । यह फलित होता है ।
दिगम्बरमतनिराकरण तन्न. इति । श्वेताम्बरशिरोमणि प्रकरणकार श्रीमद्जी उपर्युक्त दिगम्बर मान्यता के खिलाफ यह कहते हैं कि → 'केवली भगवंत के मस्तक में से निरित्वर ध्वनियौं निकलती हैं....' इत्यादि दिगम्बर आम्नाय अप्रामाणिक है, क्योंकि जीवप्रयत्न वर्णमात्र के प्रति ही कारण होता है, न कि रागविशिष्ट वर्ण के प्रति । जीव प्रयत्न करता है, तब वर्ण - शब्द उत्पन्न होते हैं, और वर्णानुकूल प्रयत्न के विरह में शब्द उत्पन्न नहीं होते हैं। इस तरह अन्चय-व्यतिरेक से शन्दमात्र के प्रति ही जीव का प्रयत्न कारण होता है, न कि रागविशिष्ट वर्ण के प्रति ही, क्योंकि जीवप्रयत्न को रागविशिए वर्ण का कारण मानने पर प्रवृत्ति का कार्यतावच्छेदक धर्म रागविशिष्टवान्दत्व बनने की वजह अनंत प्रवृत्ति की कार्यता की अवच्छेदककुक्षि में रागविशिष्टत्व का अधिक प्रवेश होता है। इसकी अपेक्षा यही मुनासिब है कि इच्छा को ही रागविशिष्ट प्रवृत्ति के प्रति प्रयत्न के द्वारा कारण माना जाय, क्योंकि इस पक्ष में प्रवृत्ति की कार्यतावच्छेदककुक्षि में लापन होता है। यहाँ यह कथन हो
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* वीतरागेऽप्पनु जिवृक्षासद्भावोपपादनम् *
वच्छिन्नं प्रति तत्तन्मोहत्वेन हेतुताऽस्त्विति वाच्यम्, तथापि तेषां प्रयत्नसत्त्वे शब्दप्रयोगस्य निरपवादत्वात् । भगवतां मोहाभिव्यक्तचैतन्यविशेषरूपाया इच्छाया असत्त्वेऽपि तदनभिव्यक्तचैतन्यविशेषरूपानुजिघृक्षादिसत्त्वमविरुदम् । अत एव 'तो भासइ सव्वन्नू भविय
* गयलता
मोहविशिष्टत्वशून्यशब्दप्रयोगस्य निरप
भ्युपगमेऽपीत्यर्थः । तेषां वीतरागाणां भगवतां प्रयत्नसत्त्वे शब्दप्रयोगस्य बादत्वात् । न हि स्वकार्यतावच्छेदकधर्मानाक्रान्तस्य स्वमृते उत्पादे व्यतिरेकव्यभिचारमामनन्ति विद्वांसः । मोहकार्यतावच्छेदकशून्यत्वेन प्रयत्नादिसामाया भगवतां शाब्दप्रयोक्तृत्वे बाधकाभावात् सामग्रीसत्त्वे कार्यसत्त्वस्य न्याय्यत्वात् । ततश्च मोहविशिष्टत्वविनिर्मुक्तशब्दप्रयोगों भगवतामनपाय एव । न च प्रयत्नत्वावच्छिन्नं प्रतीच्छायाः कारणत्वावधारणाद्भगवतां बीतरागत्वव्याहतिः, इच्छाया रागरूपत्वादिति वाच्यम्, अनुग्रहेच्छाया वीतरागे सत्त्वे बाधकाभावात्, अभिष्वङ्गलक्षणेच्छाया एव रागात्मकत्वात् । तदेव भावयति भगवतां वीतरागाणां मोहाभिव्यक्तचैतन्यविशेषरूपाया इच्छाया असवेऽपि तदनभिव्यक्तचैतन्यविशेषरूपानुजिघृक्षादिसत्त्वं मोहानभिव्यक्तायाश्चैतन्यविशेषात्मिकाया अनुग्रहेच्छाया वृत्तित्वं वीतरागत्वेन सह अविरुद्धम् । अत्रानुजिघृक्षपदप्रतिपाद्यो मोहानभिव्यक्तचैतन्यविशेषो 'निरुपाधिकहित परिणति- 'कल्याणाशयो' चितपरिणामाऽनुग्रहानुकूलतादिरूपो बोध्यः । तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां 'देशनाबीजं भगवतो निरुपधिपरदुःखप्रहाणेच्छा न रागः, सामायिकचिद्विवर्तरूपत्वात्' <- (स्या.क.ल. स्त. १० / १८) इति । अत एवेति अनुजिवृक्षाया वीतरागत्वाऽविरुद्धत्वादेवेत्यर्थः । आवश्यक निर्युक्तिसंवादमाह - 'तो' इति । 'तब नियम-नाणरुकखं आरूढो केवली अभियनाणी' इति गाथापूर्वार्द्ध: । स्पष्टार्था । यदि सर्वज्ञो न शब्दप्रयोक्ता तदा 'भास' इति पदं नैव स्वरसतः = लक्षणां विना सङ्गच्छते । यदि वीतरागेऽनुजिघृक्षा नाऽभ्युपेयते तदा 'भवियजणविबोहणद्वार' इत्यपि नैव स्वरसतः सङ्गच्छते इति भावः । न च एवं = अनुजिघृक्षाया बीतरागत्वाविरुद्धत्वेन केवलिनि तस्या: स्वीकारे, मोक्षे = सकलकर्मक्षयावस्थायां अपि देशनाद्वारा अनुजिघृक्षापत्तिः इति वाच्यम्, जिननामकर्मोदयादिसाचिव्यात् एव ः = केवलियां वृत्ते स्वीकाविति । एतेन प्रकृष्टीदासीन्यभावेन बीतरागस्य देशनाप्रवृत्तिरयुक्तेति निरस्तम्, औदासीन्येनैव प्रवृत्तेश्च । न हि भगवतः तिर्यङ्गनरामरेषु देशनाया विशेष: । तथाप्रवृत्तिरप्येकान्तादासीन्यबाधिनीति चेत् ? न तस्याः तीर्थंकरनामकर्मनिर्जरणहेतुत्वात् । तदुक्तं भगवता श्रीभद्रबाहुस्वामिना 'तं च कई वेइज्जइ १ अगिला धम्मदेसणादिहिं' (आ.नि. ७४३) इति । न च तत्कर्मभावे तत्क्षयायोपायप्रवृत्तेः कृतकृत्यत्वानुपपत्तिरिति वाच्यम्, एकान्तेन कृतकृत्यत्वाऽनभ्युपगमात् । तदुक्तं विशेषावश्यके 'नैगतेण कयत्थो जेगोदिनं जिणंदना से । तदवंझफलं तस्य य खवणोवाओज्यमेव जओ | - (वि. आ. भा. १९०३) इति । न चान्यनिमित्ताऽपि प्रकृष्टीदासीन्यबाधिनी प्रवृत्तिस्तदवस्थैवेति वाच्यम्, स्थितिप्रवृत्त्या व्यभिचारात् । साऽप्रवृत्तस्यापि स्वरसत एवेति चेत् ? तथाविधकर्मयुक्तस्य देशना - प्रवृत्तिरमेवंविधेत्यदोषः । तथाप्यतीर्थंकरवीतरागदेशनाप्रवृत्तिरयुक्तेति चेत् ? न अनभ्युपगमात् । न हि सामान्यकेवलिनः तथादेशनायां प्रवर्तन्ते । न चोपादाननिबन्धाभावात्कथं भगवद्भक्तृत्वमिति वाच्यम् भाषाद्रव्यात्मप्रयत्नयोस्तदुपादानत्वात् । एव क्वचित् प्रक्रान्तवस्तुनि रागाद्यभावेऽपि सतां साक्षादेव वक्तृत्वोपलब्धेः, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात् । न च विवक्षामन्तरेण
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८.२८
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कि 'तत् तत् रागादिस्वरूप मोह से विशिष्ट के प्रति तत् तत् रागादिस्वरूप मोह को ही कारण मानना अच्छा है, न कि इच्छा को रागाविशिष्ट प्रवृति के प्रति कारण मानना ' - तो भी केवलज्ञानी भगवंतों का प्रयत्न, जो शब्दानुकूल प्रवृत्ति का जनक हो, होने पर शब्द की उत्पत्ति होने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह शब्द मोहविशिष्ट नहीं होने की वजह मोहहेतुक नहीं होने से माह के बिना भी उत्पन्न हो सकता है । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि 'शब्दानुकूल प्रवृत्ति का जनक प्रयत्न भी इच्छाजन्य होने से निरीह वीतरागी केवलज्ञानी भगवंत में तथाविध प्रयत्न भी नामुमकिन होगा, क्योंकि रागात्मक इच्छा का केवली में अभाव होता है' <- । यह वक्तव्य अनुचित होने का कारण यह है कि केवलज्ञानी वीतराग भगवंतों में मोड़ से अभिव्यक्त चैतन्यविशेषस्वरूप इच्छा, जो कि वीतरागता की विरोधी है, नहीं होने पर भी मोह से प्रकट नहीं होने वाली अन्य जीवों के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा तो हो सकती है, क्योंकि परोपरकारविषयक इच्छा के साथ वीतरागता का विरोध नहीं है । अतएव संपूर्ण श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामीजी ने आवश्यकनियुक्ति में जो कहा है कि 'सर्वज्ञ भगवान भव्य जीवों को प्रतिबोध करने के लिए तीर्थंकर नामकर्म के उदय से बोलते हैं देशना देते हैं' वह भी स्वारसिकतया उपपन्न हो सकता है, अन्यथा लक्षणा का आश्रय करना पड़ेगा । भव्यजीवों के प्रतिबोधार्थ बोलने का मतलब ही यह हुआ कि प्रतिबोधस्वरूप भाव उपकार = अनुग्रह की इच्छा से केवलज्ञानी भगवंत शब्द का प्रयोग करते
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५२९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.. * शुद्धेच्छाया रागत्वाऽयोगोपपादनम् * जणविबोहणद्वाए' इत्याद्याई स्वरसत: सङ्गच्छते । न चैवं मोक्षेऽप्यनजिघृक्षापत्ति:, जिननामकर्मोदयादिसाचिव्यादेव तत्प्रवृतेरित्यप्याहुः । इत्यधिक मत्कृताध्यात्ममतपरीक्षायाम् ।
====जयलता * कथं वक्तृत्वमिति वाच्यम्, तामन्तरेणापि वक्तृत्वस्य सुप्तमत्तादिषूपलब्थेः । तत्रापि साऽस्तीति चेत् ? न, तथाप्रतीत्यभावात्, प्रबुद्धादाबुक्तस्मरणानुपलब्धेः, तथापि तत्कल्पनेऽतिप्रसङ्गात्, कातरविवक्षायां क्वचिच्छूरशब्दप्रयोगदर्शनात् । तत्राप्यन्तराले शूरविवक्षास्तीति चेत् ? न, प्रमाणाभावात् । तच्छन्दप्रयोगान्यथानुपपत्तेः प्रमाणत्वमिति चेत् ? न, सन्देहाऽनिवृत्तेः, अविवक्षापूर्वकत्वेऽपि विरोधाऽसिद्धेः । तदभाबे त्वहेतुकत्वेन सदा तच्छब्दप्रयोगापत्तेविरोधसिद्भिरिति चेत् ? न, अहेतुकत्वाऽसिद्धेः, तथाविधभाषाद्रव्यात्मप्रयत्नहेतुकत्वात् । तेषाञ्च तथाविधत्वस्याऽदृष्टादिनिबन्धनत्वात्, अन्यथा विवक्षाया अपि सदा भावेनोक्तदोषानतिवृत्तः, अमनस्कत्वेन च भगवत इच्छानुपपत्तिः, तथाबाग्योगस्य च चेष्टामात्रत्वात्, इच्छाया:सद्भावेऽपि शुद्धेच्छाया रागाऽयोगात्, तथालोकप्रतीतेरित्याधुक्तं श्रीहरिभद्रसूरचक्रवर्तिना सर्वसिद्धः ।
वाचस्पतिमिश्रेणापि न्यायकणिकायां -> 'न हीच्छामानं राग: किन्तु चित्तमलमात्मनो दर्शनावरणं अभूतगुणाभिनन्दनं | | रागमाचक्षते' - (न्या,क. पृ.८%) इत्यभ्यधायि ।
एतेन --> 'गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जागदि सव्वं गिरवसेसं ॥ -(प्र.सा.१/३२) इति प्रवचनसारवचनमपि परास्तम, सत्यपि ज्ञाने आत्मप्रदेश: कर्मादानवद् योगप्रदेदौर्च हिरा दानस्याऽप्युपपत्तेः । ध्वनिरूपा पारमेश्वरी वाक् तु न युक्ता कल्पयितुम्, ध्वनिरूपायास्तस्याः प्रतिसर्वज्ञं श्रोतृभाषापरिणामवदक्षरपरिणामाच्योगात्, अव्यक्तैकरूपतया सत्याऽसत्यामृषादलद्वयनिष्पादकवाग्योगद्वयवैयर्थ्यात्, ‘अद्धमागहीए भासाए भासंति' ( ) इति सूत्रविरोधात्, नियत्यैव प्रयत्नं विना वचनोपपत्तौ च तयैव तद्विनाऽपि परानुग्रहोपपत्तेः । ध्वनेरपि पौरुषेयतयाऽक्षररूप- ! तया तुल्ययोगक्षेमत्वात्, अन्यथा बाह्यमतप्रवेशाचे' त्यादिकं स्याद्वादकल्पलतातोश्वसेयम् ।
तत्त्वार्थवृत्तावपि -> 'इच्छां विना कथमुपदेशादी प्रवृत्तिस्तस्य ? इति तीर्थान्तरीयाशङ्का न श्रेयसी, जीवनयोनियत्नादिव्यावृत्तस्येव भगवद्यत्नव्यावृत्तस्यैव वैजात्यस्य यत्नगतस्येच्छाजन्यतावच्छेदकत्वात, एवं हि जन्यत्वविशेषणगौरवमपि परिहृतं भवति । पुद्गलग्रहणनिसर्गादिप्रवृत्ती मोहोदयस्यैव हेतुत्वमिति क्षीणमोहस्योपदेशादिकं नैयतिकमेवेति नग्नाटवचनं तु न श्रद्धेयम, मोहोदयस्याऽप्यन्वयन्यतिरेकाभ्यामारम्भादिप्रवृत्तिविशेष एव हेतुत्वात्, अन्यथा गुरुविनयस्वाध्यायाध्ययनदानादिप्रवृत्तीनामपि मोहजन्यत्वापत्तेः, नियतानियते सर्वत्र कार्ये व्यवस्थिते भगवचेष्टाया: केवलनियतत्ववचनस्याऽनागमिकल्लाच्च । इच्छां विना न प्रवृत्तिः प्रवृत्ति विना च न चेष्टेति निश्चेष्टतैवं तस्य प्रसज्येत, विलक्षणचेष्टायामेव प्रवृत्तिहेतुरित्यभ्युपगच्छंश्च विलक्षणकृतावेवेच्छा हेतुरिति निरीहप्रवृत्तिं भगवतः कुतो नाऽभ्युपगच्छेदिति' - (त.यशो.टी. कारिका-१०) प्रतिपादितम् । एतेन भगवतः शब्दप्रयोक्तृ
वे कर्मचन्धप्रसङ्ग इत्यपि प्रत्युक्तम्, केवलं प्रयत्नस्य कर्मबन्धाजनकत्वात्, कर्मबन्धकारणीभूतरागादिपरिणामस्य विलयेन तदापादनस्य नियुक्तिकत्वात् । तदुक्तं प्रवचनसारे -> परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो' «- (प्र.सा.२/८८) इति ।
मत्कृताध्यात्मपरीक्षायामिति । तत्र 'एयं सहाववाणी कह जुना जेण तेसि वयजोगो । हेऊ दव्वसुअस्सा पओअग्णं कम्मखवणा य' ॥ (अ.म.प.लो.९९) इति गाथायां विस्तरेणाऽनक्षरभगवद्राणीनिराकरणं कृतं ततोऽबसेयम् ।
हैं । अतः मोहल्यावृत्त अनुग्रहविषयक इच्छा एवं शब्दप्रयोक्तृत्व सर्वज्ञ भगवंत में मानने चाहिए । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि -> 'यदि केवलज्ञानी भगवंतों में भन्य जीवों के प्रतिबोध की अनुजिघृक्षा = अनुग्रहइच्छा जैसे १३वे गुणस्थानक में होती है, ठीक वैसे ही मोक्ष में भी वह जरूर होनी चाहिए । तब तो भगवंत जैसे अघाति कर्म की उपस्थिति में भव्य जीवों के प्रतिरोधार्थ देशना देते हैं, ठीक वैसे ही मोक्ष में जाने के बाद भी प्रतिदिन धर्मदेशना करते रहेंगे, क्योंकि तब भी भव्य जीवों के अनुग्रह की इच्छा रहती है एवं अप्रतिबोधित भव्य जीव भी इस लोक में सदा होते ही हैं -- | पह कथन अयुक्त होने का कारण यह है कि केवली भगन में मोश्नावस्था के दौरान भी भव्य जीवों के अनुग्रह की इच्छा तो होती ही है, मगर तदर्थ धर्मदेशनारूप प्रवृत्ति के लिए तीर्थंकर नामकर्म का उदय आदि भी सहकारी कारण है । उसके सहकार से ही तीर्थकर भगवंत धर्मदेशनास्वरूप प्रवृत्ति करते हैं। मोक्षाचस्था में कर्ममात्र का अभाव होने से तीर्धकरनाम कर्म का उदय ही नहीं होता है, तर मोक्षदशा में धर्मदेशना का आपादन कैसे किया जा सकता है ? केवल एक कारण १, दृश्यनां स्याद्रादकर पलताया दशमस्तबकस्य ६४ नमश्लोकस्य १८ नमश्लोकस्य च त्र्यारत्र्या ।
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* तत्त्वार्धश्लोकवार्तिकवचनखण्डनम्
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एवञ्च नित्याऽनित्यत्वादिधर्माणां वस्तुतो विरोधाऽभावेऽपि यदि कथञ्चिद्विरोधः परेणाऽभ्युपेयते, अभ्युपेयतां तर्हि वाढ, तथापि तेष्णाोकन समासे न किखिबाधकं पश्यामः । कथञ्चिदविरुद्धत्वेनाऽभ्युपेतानामपि नीलपीतादीनामेकत्र समावेशस्य दृष्टत्वादित्याहुः 'विरुदे 'ति । मेचकवस्तुषु = मिश्रवस्तुषु विरुद्धवर्णानां नीलपीतादीनां योगः = एकत्र समावेशो हि यतो दृष्टः = सकलजनानुभवसिद्धः । प्रतियन्ति हि सर्वेऽपि लोका: चित्रमपि घटं
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जयलता
एतावता ' न हि सर्वज्ञस्य शब्दोच्चारणे रसनाव्यापारोऽस्ति, तीर्थंकरनामकर्मोदयोषजनितत्वादि' (त. लो. बा. २/१८) ति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककुद्वचनमपि प्रतिक्षिप्तं मन्तव्यं, अदृष्टस्याऽपि दृष्टकारणातिक्रमेण कार्योत्पादकत्वाऽसम्भवात्किन्तु दृष्टकारणसम्पादनद्वरिव, अन्यथा एककारणमात्रपरिशेषापत्तेरिति दिक् ।
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प्रकरणकारः प्रक्रान्तवीतरागस्तोत्राष्टमप्रकाशसप्तमकारिकोत्तरार्धप्रस्तावनार्थमुपक्रमते -> एवञ्चेति । यदि कथंञ्चिद्विरोधः एकत्रैकावच्छेदेनाऽनवस्थानं परेण = नैयायिकादिना अभ्युपगम्यते । अत्र स्वसम्मतिमाह अभ्युपेयतां तर्हि बादं । तर्हि कथं तेषामेकत्र समावेशसिद्भिः ? इत्याशङ्कायां प्राह तथापि कथञ्चिद्विरुद्धत्वेऽपि तेषां नित्याऽनित्यत्वादिधर्मयुगलानां एकत्र धर्मिणि समावेशे न किञ्चिद्बाधकं पश्यामः, शाखा मुलावच्छेदेनैकत्रैव घटादी धर्मिणि नित्यत्वानित्यत्वयोः समावेशसम्भवात्, अन्यथा सर्वथा विरुद्धत्वं स्यात् ।
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ननु संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वेन संयोगतदभावयोरेकत्र समावेशसम्भवेऽपि नित्यत्वस्याऽतथात्वान्न नित्यत्वतदभावयोरेकत्रावच्छेदकभेदेन समावेशः सम्भवेदित्याशङ्कायां परमत प्रसिद्धोदाहरणान्तरमाह- कथविद्विरुद्धत्वेन प्रतिवादिना अभ्युपेतानामपि । नीलपीतादीनां रूपाणां एकत्र धर्मिणि समावेशस्य दृष्टत्वादित्याहुः श्रीहेमचन्द्रसूरय इति शेष: । 'बिरुद्धे 'ति । शेषं सुगमम् । ननु चित्रघटेऽवयविनि न नीलपीतादिरूपाणि सन्ति किन्त्येकमेव चित्रं रूपम्, 'चित्रोऽयं घट' इत्यबाधितप्रतीतेः । अत एव तत्र नीलपीतादिनानावर्णप्रतीतविषयो नावयविलक्षणघटसमवेतवर्णः किन्तु तदवयवसमवेतनीलपीतादिवर्ण एवं । न चैकत्रैव घटे नीलपीतादीनां समावेशे किं बाधकमिति वाच्यम्, तेषां व्याप्यवृत्तित्बोच्छेदापत्तेरेव बाधकत्वमिति गृहाण । एतेन 'घटोऽयमग्रावच्छेदेन नीलः पृष्ठावच्छेदेन पीत' इति प्रतीतेरेकत्र घट एव नीलादिवृत्तित्वमित्यपि परास्तम् । न च तर्हि घटे नीलपीतादिप्रतीतेभ्रमत्वं स्यादिति वाच्यम्, अभिमतत्वात् घटावयवसमवेतानामेव नीलपीतादीनां वर्णानां स्वसमवायिसमवेतत्व
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से कार्य की निप्पत्ति नहीं होती है, किन्तु सामग्री से ही । अतः मोक्षावस्था में अनुग्रह इच्छा होने पर भी जिननामकर्मोदयस्वरूप कारणान्तर के अभाव से धर्मदेशना की आपनि नहीं है। इस विषय का अधिक निरूपण प्रकरणकार श्रीमद्जी ने अध्यात्ममतपरीक्षा में किया है । विशेष जिज्ञासु उस ग्रन्थरत्न का अवलोकन कर के अपने ज्ञान की प्यास का शमन कर सकते हैं । एक धर्मों में अनेकवर्णसमावेश प्रामाणिक ह
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एवञ्च इति । 'अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व का एक धर्मी में विरोध नहीं है' इस विषय के निरूपण के प्रसंग से 'केवली भगवंत शब्द का प्रयोग करते हैं इस विषय का निरूपण करके प्रकरणकार श्रीमद्जी भूल विषय का निरूपण करते हैं कि प्रदर्शित रीति के अनुसार एक धर्मी में नित्यत्व - अनित्यत्व, सामान्य- विशेषादि धर्मयुगल का वस्तुतः विरोध नहीं है, फिर भी यदि प्रतिवादी नैयायिक आदि उन धर्मों में कथंचित् विरोध का अंगीकार करें तो भले वैसा स्वीकार करें । हमारी इसमें अनुमति है तथापि एक धर्मी में नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्मो का समावेश होने में कोई बाधक नहीं है, क्योंकि कथंचित् विरोधी धर्मों का एक धर्मी में समावेश हो सकता है। जिन पदार्थों का प्रकारान्तर से या अवच्छेदकान्तर से विरोध न हो वे ही कथंचित् विरोधी कहे जाते हैं। इस बात को दृष्टान्त से समझना हो तो कहा जा सकता है कि नील, पीत, शुक्ल आदि रूप परस्पर कथंचित् विरोधी हैं फिर भी चित्रपट, विचित्रघट, मोर के पंख आदि एक धर्मी में उनका समावेश होता है । इसी बात को सूचित करने के लिए मूलकार श्रीकलिकालसर्वज्ञ वीतरागस्तोत्र के अष्टम प्रकाश की, जिसके विवरणरूप में महोपाध्यायजी महाराज ने इस स्याद्वादरहस्य नामक प्रकरण की रचना की है, अर्थी कारिका के उत्तरार्ध में कहा है कि विरुद्ध = कथंचित् विराधी वर्णों रूपों का मेचकबस्तु = मिश्रवस्तु मयूरपंख आदि में योग एकधर्मवृत्तिता प्रत्यक्षसिद्ध है। शबल घट को भी लोक 'यह इस भाग में पीतवर्णवाला है, उस भाग में रक्तरूपवाला है, ऊपर के भाग में श्यामवर्णवाला है' इत्यादि स्वरूप से जानते हैं । इसलिए यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि 'चित्र घट में केवल एक अतिरिक्त
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५३१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * विरुद्धवर्णानामेकत्र सत्वसमर्थनम् * | नीलत्वपीतत्वादिना । न च तत्राऽवयवनीलादिमत्तैव परम्परया प्रतीतेविषयः, एवं सति योग्यरूपादीनां शुदिमागतत्वायत्तेः । चित्रत्वव्यवहारस्तु नीलविशिष्टपीतादिना एकवृत्तिनीलपीतो
* जयला * लक्षणपरम्परासम्बन्धन घटे प्रतीयमानत्वादित्याशङ्को निराकर्त मापकमते - न चेति । तत्र = चित्रपटे अवयवनीलादिमत्ता = घटावयवसमवेतनीलादिः एव परम्परया = स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतीतेः विषय इति वाच्यमिति गम्यते । तयुक्तत्वमेव समर्थयति- एवं सतीति । अवयवसमवेतनीलपीतादीनामेवायवविनि भानाऽभ्युपगमे सति । योग्यरूपादीनामिति । अनुभूताभिभूतरूपादिव्यवच्छेदार्थं 'योग्ये 'ति । त्रुटिमात्रगतत्वापत्तेः = असरेणुमात्रसमवेतत्वस्वीकारप्रसङ्गात् । चित्रकपालारब्धघटे प्रतीयमानानां नीलपीतादिवर्णानां कपालिकासमवेतत्वं चित्रकपालिकाक्कपालारचघटे प्रतीयमानानां नीलपीतादिरूपाणां प्रकपालिकासमवंतत्वमित्येवं यावत्यसरेणुसमवेतत्वप्रसङ्गात् । यद्वा घट इन कपालस्याप्यवयवित्वात्तत्र प्रतीयमानानां रूपादीनां कपालिकासमवंतत्वं, तस्या अपि सावयवत्वात्प्रकपालिकपासमवेतत्वमित्येवं यावत्नसरेणुसमवेतत्वाःभ्युपगमापत्तेः । न चैवं परमाणुगतत्वमेवाऽस्त्विति वाच्यम्, परमाणोरतीन्द्रियत्वेन तद्रूपादेरेव भानाऽसम्भवान्न घटेऽपि परम्परया भानं स्यादतः त्रुटिगतत्वापादनमत्र कृतमित्यादि भावनीयम् ।
ननु यदि चित्रधटे नातिरिक्तं चित्राख्यं रूपं किन्तु नीलपीतादिरूपाणि तर्हि 'घटो नीलो रक्तः पीत' इत्यादिप्रतीतिय॑वहारश्च स्यातां न तु 'चित्रोऽयं घट' इति प्रतीतिव्यवहारौ । तदनुगपत्तिः स्याद्वादिसाम्राज्ये कलङ्कमित्याशङ्कायामाह- चित्रत्वव्यवहारस्त्विति । इदश्ची पलक्षणं चित्रत्वप्रकारकातीतेः । स्वसामानाधिकरण्यसम्बन्धेन नीलविशिष्टपीतादिना ए त्तिनीलचित्र रूप ही है, न कि नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप' - अन्यथा उपर्युक्त अतिप्रसिद्ध स्वाभाचिक लोकानुभव का अपलाप करने का दोष आयेगा । यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि --> "शबल (रंगबिरंगी = Colouring) घट में केवल एक चित्र रूप ही होता है, फिर भी लोगों को जो उपदर्शित प्रतीति होती है, उसकी उपपत्ति तो उस घट के भिन्न भिन्न अवयव के नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप का परंपरा सम्बन्ध यानी स्वाश्रयसमवेतत्वसंसर्ग से घट में भान मानने से भी हो सकती है। मगर एक ही घट में समवाय सम्बन्ध = साक्षात्संबंध से नील, पीत, झ्याम आदि विविध वर्ण का भान नहीं होता है । जैसे जपाकुसुम आदि उपाधि के रक्त रूप का परम्परासम्बन्ध से स्फटिक में ज्ञान होता है ठीक वैसे ही घटावधवगत विविध वर्ण का परम्परासंसर्ग से घट में भान होता है" <- ।
अत्यतगत विविधतर्ण का अवयवी में IIIMण - स्याहादी एवं स. इति । यह कथन अयुक्त होने का कारण यह है कि - 'अवयवगत विविध वर्ण का परम्परा संबंध से चित्र घट में भान मानने पर तो उसी चित्र घट के कपाल में विविध वर्गों का जो भान होता है उसे भी भित्र भित्र कपालिका में रहने वाले अनेक रूप को परम्परा सम्बन्ध से कपाल में विषय करने वाला मानना होगा, क्योंकि आपके मतानुसार तो कपालात्मक एक धर्मी में एक चित्र वर्ण ही रह सकता है, न कि अनेक नील, पीत आदि वर्ण । एवं जिस कपालिका में अनेक वर्ण का भान होता है, उस ज्ञान को भी भिन्न भिन्न प्रकपालिका में समवेत अनेक रूप को परम्परा संसर्ग से . कपालिका में विषय बनाने वाला मानना होगा । इस तरह प्रत्यक्ष के योग्य नील, पीत आदि रूप को त्रसरेणु में ही समवेत मानना होगा। मतलब कि एक अतिरिक्त चित्र रूप वाले घट में परम्परासम्बन्ध से विविधनसरेणुसमनेत विविध वर्ण का ही परम्परा संबंध से भान मानना होगा, जिसके फल में 'प्रत्यक्षयोग्य नील, पीत, श्याम आदि रूप केवल असरेणु में ही रहने वाले हैं। इस बात को मान्य करना होगा, जो प्रामाणिक नहीं है। इसलिए मानना होगा कि एक ही घट में नील, पीत, श्याम आदि विविध वर्ण का साक्षात्संबंध से समावेश हो सकता है । यहाँ यह शंका हो कि -> "यदि घट में एक अतिरिक्त चित्र वर्ण नहीं है, किन्तु नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप हैं, तो फिर 'यह घट चित्र रूप वाला है' यह प्रतीति कैसे हो सकेगी ! क्योंकि आप स्यागादी तो अतिरिक्त चित्र रूप का स्वीकार ही नहीं करते हैं। आपके मतानुसार सो घट में नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप रहने से केवल 'घट विविध वर्ण वाला है। ऐसी ही प्रतीति एवं व्यवहार होना चाहिए । अनः आपके मत में घट में चित्रत्वप्रतीति एवं चित्रत्वव्यवहार अनुपपन्न बनेगे" <
स्यादादाजुसार चित्रत्तव्यतहार मुमकिन चित्रत्व, इति । तो इसका समाधान यह है कि नीलविशिष्ट पीतादि रूप होने की वजह या तो एक धर्मी में रहनेवाले नीलपीतवर्ण उभय आदि के कारण घटादि में चित्रत्व का व्यवहार होता है। आशय यह है कि जो घट केवल नील रूपवाला |
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* उपाथिभेदानित्यत्वानित्यवादीनामेकत्र समावेशः * भयादिना वा, विशिष्टाविशिष्टभेदं तु स्याव्दादिनो वयं न प्रतिक्षिपाम:, रूपविभाजकोपाधीनां पञ्चत्वानतिरेक एव तात्पर्यात् ।
= गयलता* पीतोभयादिना वा उपपद्यतेति शेषः । अत्र सामानाधिकरप्यं यद्वा वैशिष्ट्यं एकथमिवृत्तित्वं च समवायेनाऽपृथग्भावसंसर्गेण । वा ग्राह्यं, तन नातिप्रसङ्गः । यत्र केवलं पीतं रूपं तत्र न चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारौं तत्रिमित्तीभूत | भावात । किन्त नीलविशिष्टपीतरूपादिकं तत्रैव चित्रत्वप्रतीतिव्यवहारी । अतो न चित्रत्वप्रतीतिव्यवहारान्यथानुपपत्त्या
अतिरिक्तचित्ररूपाङ्गीकार आवश्यकः । अब नीलस्य विशेषणत्वं पातरूपस्य विशेष्यत्वमिति गौणप्रधानभावः तथापि विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहात्कल्पान्तरप्रदर्शनं-एकवृत्तिनीलपीतोभयादिना वेति । अत्र नीलस्य पीतरूपस्य च प्राधान्यम् । एकवृतित्वोपादानान्नाऽनेकवृत्तिनीलपीतादितः चित्रत्वप्रतीत्याद्यापत्तिः ।
वस्तुतस्तु चित्रत्वप्रतीत्यादिनिमित्तत्वं नीलविशिष्टपीतादेरेव न त्वेकर्मिनिरूपितवृत्तित्वविशिष्टनीलपीतोभयादेः, गौरवात् । न च विदोषणविशेश्यभावे विनिगमनाविरह इति वाच्यम्, तथापि तत्परिणत्यनतिरेकात् । न चैवं नीलरूपविशिष्टपीतरूपाश्रयीभूते | बटे पीतत्यप्रकारकप्पमित्याद्यापत्तिः, नीलविशिष्टपीतरूपस्या-पि पातरूपानतिरेकात्, 'विशिष्टं शुद्धानातिरिच्यत' इति नियमादिति वाज्यम्, विशिष्टस्य कथञ्चिच्छुद्धातिरिक्तत्वाऽभ्युपगमात्, सर्वथा तदभेदस्तु प्रतीत्यैव पराहत इत्याशयेनाऽऽह-विशिष्टाऽविशिष्ट - भदं = विशिष्टानुयोगिका विशिष्टप्रतियोगिककथविद्भेदं तु स्याद्रादिनो वयं न प्रतिक्षिपाम इति । नीलविशिष्टपीतरूपादे: पीतरूपादित: स्याद्भित्रत्वेन न चित्रघटे 'पीतोऽयमिति प्रमित्याद्यापत्तिरित्याशयः । न चैवमतिरिक्तचित्ररूपाङ्गीकार एवं नामान्तरण भवता कृत इति शिरोवेष्टनेन श्रोत्रग्रहणन्यायप्रसङ्ग इति वाच्यम्, नीलविशिष्टपीतरूपादेः पीतरूपादितः कश्चिदतिरेकऽपि तत्र पीतत्वाद्यतिरिक्तचित्रत्वजात्यनङ्गीकारादित्याशयेनाऽऽह- रूपविभाजकोपाधीनां = रूपत्वसाक्षाद्व्याप्यधर्माणां, पञ्चत्वाऽनतिरेक एव तात्पर्यादिति । चैत्रत्वस्य चैत्रे कथश्चित्तदतिरिक्तदण्डविशिष्टचैत्रे च वृनित्वमिव पीतत्वादीनां रूपत्वसाक्षाद्या यजातीनां पञ्चानां पीतादिवर्णेषु नीलविशिष्टपीतरूपादिषु च वृत्तित्वं न तु पीतादिषु पीतत्वादीनां नीलविशिष्टपीतादिषु च चित्रत्वस्य वृत्तित्वमित्यत्र स्याद्वादिनामस्माकमभिप्रायः । एतेन नीलविशिष्टपीतवर्णस्य रक्तरूपविशिष्टपीतवर्णस्य शुक्लवर्णविशिष्टपीतवर्णस्यत्यादीनां बहूनां पीतादितः कश्चिदतिरिक्तत्वकल्पनापेक्षयकस्य चित्ररूपस्यैव कल्पनं युक्तमित्यपि निरस्तम्, चित्रघटे 'नीलविशिष्टपीतरूपवान् घटः' इत्यादिप्रतीतेरनुपपत्तेश्च अवयवगतरूपादितः तदुपपादनस्य तु पूर्वमेव निरस्तत्वात् । न च रूपादीनामव्याप्यवृत्तित्वप्रसङ्ग इति वाच्यम्, इष्टत्वात् । न चैवं नानारूपवदवयवारब्धे घटे नीलकपालाद्यवच्छेदेन पीताद्युत्पत्तिवारणाय समवायेन नीलम्प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलरूपातिरिक्तरूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वमित्युक्तदिशा प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभागाऽङ्गीकारे तदभावस्य कारणत्वस्यापि कल्पनीयतया गौरवापत्तिरिति वाच्यम, अवच्छेदकता
है या केवल पीतरूपयाला है उसमें 'नीलो घटः' या 'पीतो घटः' इत्याकारक व्यवहार होगा, न कि 'चित्रो घटः' इत्याकारक । मगर जिस घट के एक भाग में नीलं रूप और दूसरे भाग में पीत वर्ण होता है उसीमें 'चित्रोऽयं घटः' इत्याकारक व्यवहार होता है, क्योंकि उस घट में सामानाधिकरण्यसंबंध से नीलरूपविशिष्ट पीत रूप रहता है या एक अधिकरण में नीलपीत उभय वर्ण रहते हैं। वहीं चित्रत्वव्यवहार का निमित्त है, न कि नील, पीत आदि रूप से सर्वथा अतिरिक्त चित्र रूप । यहाँ यह शंका हो कि → 'विशिष्ट अविशिष्ट से तो अतिरिक्त होता नहीं है । अतः नीलरूपविशिष्ट पीत रूप भी शुद्ध पीत वर्ण से अतिरिक्त नहीं है । अतः नीलरूपविशिष्ट पीत रूप वाले घट में 'पीतो घटः' इत्याकारक व्यवहार भी होना चाहिए' - तो इसका समाधान यह है कि विशिष्ट और अविशिए के भेद का हम स्याद्वादी सर्वथा प्रतिक्षेप नहीं करते हैं मतलब कि विशिष्ट अविशिष्ट = शुद्ध से सर्वथा अनतिरिक्त = अभिन्न है-ऐसा हम नहीं मानते हैं। किन्तु विशिष्ट शुद्ध से कथंचित् अतिरिक्त = भिन्न भी होता है, ऐसा हम स्वीकार करते हैं। अतः नीलरूपविशिष्ट पीत वर्ण भी सर्वथा शुद्ध पीतवर्णस्वरूप नहीं है किन्तु शुद्ध पीत वर्ण से कथंचित् भिन्न है । 'पीतोऽयं घटः' इस व्यवहार में तो अविशिष्ट पीत वर्ण ही निमित्त होता है, न कि विशिष्ट पीतरूप । नीलरूपविशिष्ट पीन रूप वाले घट में पीतत्वज्यवहारनिमित्तभूत केवल पीत वर्ण नहीं होने से उसमें 'पीतोऽयं घटः' इत्याकारक व्यवहार की आपत्ति नहीं है। यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि -> "विशिष्ट भी यदि अविशिष्ट से भित्र है, तो फिर चित्र रूप को अतिरिक्त = नील-पीतादिरूप से भित्र मानने में स्यादादी को क्या हानि है ?' <- क्योंकि हम स्यावादियों का तात्पर्य यही है कि रूपविभाजक = रूपत्वसाक्षात्याप्य उपाधि - धर्म नीलत्व, पीतत्य आदि पाँच ही है, न कि चित्रत्वसहित ६। विशिष्टवर्ण से ही चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं
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X
५३३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.७ * न्यायखण्डखाद्यविरोधपरिहारः *
अथ तत्रापि नैकावच्छेदेन नानारूपसत्त्वं, किन्तु नीलपीतकपालाद्यवच्छेदकभेदेनेति चेत् ? सत्यम, इत एवोपाधिभेदादेव नित्यत्वाऽनित्यत्वादय एका समाविशन्तीत्युक्तम् ।
अथवा विरुदं = विरुध्दत्वेनाऽभिमतं, हटा - नित्यानित्यत्वादिकं, नैकगाऽसत् - नेकाऽवृत्ति । कुत: ? प्रमाणप्रसिदितः = एकवृत्तितया प्रमाणेन प्रमीयमाणत्वादित्यर्थः । एकवृत्तित्वेन प्रमीयमाणस्यापि विरुदत्वाभिमानात समावेशानभ्युपगमे नीलपीतादीनामपि स न स्यादित्याहुः - विरादेति । तथा चायं प्रयोगः - नित्यानित्यत्वादिकं नैकत्राऽवृत्ति
= जयलता * सम्बन्धेन नीलादिकं प्रति समवायेन नीलादे; कारणत्वाऽङ्गीकारात् । न च प्रकरणकारेणेव न्यायखण्डखाये -> 'नीलत्यादिवचित्रत्वमपि जातिविशेष एच' «- (न्या.ख.खा. ) इत्यभ्यधायीति तद्विरोधप्रसङ्ग इति वाच्यम्, अतिरिक्तैकचित्ररूपाभ्युपगन्तृणो मतमबलम्ब्य तत्र तधोक्तत्वादिति व्यक्तमेव न्यायप्रभायाम् । दीधितिकारेणापि -> नानारूपवदवयवारब्धेऽवयविनि अन्याप्य -
नारूपाण्येवोत्पद्यन्ते, चित्रत्वब्यवहारस्तु परस्परसमानाधिकरणनानारूपवत्तनिबन्धन - इत्यङ्गीकारात् ।
धः शङ्कत्ते - अथेति । तत्र - चित्रघटे अपि नैकापछेदेन नानारूपसत्त्वं विरोधात्, किन्तु नीलपीतकपालायबच्छेदकभेदेन एव । न चैवमेकत्र घटे नित्यत्ला निनवादीति सम्मति. नीलकणाला कोलेज नित्यत्वं पीतकपालावच्छेदेन
चा:नित्यत्वमिति वक्तुमशाक्यत्वात् । ततो न मेचकवस्तुदृष्टान्तेनाऽन्यत्र नित्यत्वाऽनित्यत्वार्दानि समानाधिकरणानि कल्पयितुं | युज्यन्त इति शङ्कातात्पर्यम् । प्रकरणकृत् समाधत्ते-सत्यमिति । अर्धाऽङ्गीकारसूचकमिदं पदम् । इत एव = एकाबच्छेदे। नैकत्र कथञ्चिद्विरुद्धधर्माणां समावेशाऽसम्भवादेव, उपाधिभेदात् = अवच्छेदकभेदात् एव नित्यत्वाऽनित्यत्वादयो धर्मा एकत्र
धर्मिणि समाविशन्तीति । नीलपीतकपालयो: नित्यत्वानित्यत्वावच्छेदकत्वाऽसम्भवेऽपि द्रव्यत्वपर्यायत्वयोः तधात्वसम्भवात । देशवत भावानामप्यवच्छेदकत्वसम्भवात् । न चोपाधिभेदान्नित्यत्त्वानित्यत्वादीनामेकत्र समावेशो मूलकृदभिप्रायविरुद्धः, तदुक्तं | तैरेव अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां- 'उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं, नार्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यत च । इत्यप्रचुध्यैव विरोधभीता जडास्तदेकान्तहताः पतन्ति ॥२४॥
___ यदि च 'नित्यत्यानित्यत्वयोरेकाश्रयवृत्तित्वाञ्चगाहिनी बुद्धिः नाममा विरोधगीचरप्रमाणप्रसिद्धचभावादिति व्याख्याने लक्षणाया आश्रयणात्कश्चिदस्वरसमुद्भावयेत्तन्मनसिकृत्य व्याख्यान्तरमावेदयति - अथवेति । सुगम शेषम् ।
:::: ::व्यवहार मुमकिन है, तर चित्रत्व को भी नीलत्व आदि धर्म की भाँति रूपविभागप्रयोजक उपाधि मानना नामुनासिब है। नीलरूप से पीतत्वप्रकारक प्रतीति या व्यवहार नामुमकिन होने की वजह नीलरूप से पीतरूप को अतिरिक्त मान कर नीलत्व से अतिरिक्त पीतल धर्म को रूपविभाजक उपाधि मानना आवश्यक है । जब कि एकरूप से विशिष्ट अन्य रूप के निमिन से चित्रत्वप्रकारक प्रतीति या व्यवहार मुमकिन होने से नील आदि रूप से सर्वधा अतिरिक्त चित्र रूप को मानना और नीलत्वादि पाँच धर्मों से अतिरिक्त चित्रत्व धर्म को रूपविभाजक उपाधि मानना अनावश्यक है . यही स्याद्रादियों का अभिप्राय है, जो विचार करने पर समुचित प्रतीत होता है । यहाँ यह कहा जाय कि -> 'एक घट में एक ही भाग में अनेक वर्ण नहीं रह सकते, किन्तु भिन्न-भिन्न भाग में ही विविध वर्ण रह सकते हैं। मतलब कि नील रूप घट में नीलकपालावच्छेदेन, पीत वर्ण पीतकपालावच्छेदेन और रक्त रूप रक्तवर्णविशिष्टकपालावच्छेदेन रहते हैं, इसी तरह माना जा सकता है' - तो हम स्याद्वादी भी इस बात का सहर्ष स्वीकार करते हैं । भिन्नदेशावच्छेदेन = अवच्छेदकभेद से एक धर्मी में परस्पर कथंचित् विरोधी नील, पीत, रक्त आदि रूप का समावेश हमें मान्य होने की वजह ही उपाधिभेद = अवच्छेदकभेद से ही नित्यअनित्यत्व आदि परस्पर कथंचित् विरुद्ध धर्मों का एक धर्मी में समावेश होता है। ऐसा कहा है।
*स.तिचें लोकी प्यास्या* अथवा. । महोपाध्यायजी वीतरागस्तोत्र के अएम प्रकाश की सातवी कारिका का अन्य रीति से निरूपण करते हैं कि - प्रतिवादी को विरुद्धत्वरूप से अभिमत नित्यत्व अनित्यत्व आदि धर्मयुगल एक अधिकरण में अवृत्ति नहीं है, क्योंकि एकअधिकरणवृत्तित्वविधया प्रमाण से सम्यक ज्ञायमान है । एकअधिकरणनिरूपितवृतित्वमत्त्वरूप से प्रमाण के होने पर भी नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मयुग्म को अभिनिवेश से विरुद्ध मान कर उनका एक अधिकरण में समावेश मान्य
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४३,
* परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वं न विरुद्धत्वम् *
एकवृत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वात्, नीलपीतादिवत् । विरुद्धत्वं = परस्परानधिकरणवृतिजातीयत्वमिति यथाश्रुतमेव सम्यगिति तु न युक्तं, स्वमते नित्यानित्यत्वादावेव तदभावात्, एकवर्णस्यापि निश्चयतः परावर्णत्वाच्च, अन्यथा शुक्लस्य पाकादिना पश्चात् श्यामत्वानुपपत्तेः,
* जयलता
नन्वेकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वसिद्धयर्थं मूलकृद्भिः विरुद्धत्वेन रूपेण नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुग्मप्रदर्शनं कृतं भवद्भिस्तु तत्परिहारेण नित्यानित्यतात्वादिकपक्षः प्रदर्शित इति किं तत्त्यागे प्रयोजनं ? इत्याशङ्कायामाह विरुद्धत्वमिति । विरुद्धत्वपदप्रतिपाद्यमित्यर्थः । परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वं = इतरेतरानधिकरणनिरूपितवृत्तित्वमद्वृत्तिजातिमत्त्वं इति हेतोः यथाश्रुतमेब = ‘विरुद्धं द्वयं' इत्येव सम्यगिति तु न युक्तम् । कुत: ? इत्याह- स्वमते = स्याद्वादिदर्शने, नित्यानित्यत्वादावेव
पक्षे एव तदभावात् = निरुक्तविरुद्धत्वाभावात् । ततश्चाश्रयाऽसिद्धिप्रसङ्गः, नित्यानित्यत्वादिलक्षणपक्षे पक्षतावच्छेदकीभूतनिरुक्तविरुद्धत्वविरहात् । एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थकः | जैनमते नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुगलानां परस्पराधिकरणाधिकरणकत्वेन परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वस्वरूपविरुद्धत्वाऽयोगात्, तनिश्चये वा बाधप्रसङ्गात् । नापि नीलपीतादिधर्मेषूदाहरणविधयोपदर्शितेषु निरुक्तविरुद्धवं सम्भवति, चित्रघटे एवं तेषां तदपगमात् । न च शुक्लघटे श्यामादिवर्णानामभावात्तत्र वेतिमा| कालिमा-पीतिमादीनां परस्परानधिकरणाधिकरणत्वसिद्धिरिति वक्तव्यम्, शुक्लघटेऽपि श्यामादिवर्णाभ्युपगमादित्याशयेनाऽऽह्एकवर्णस्यापीति । एक एवं प्रतीयमानो वर्णो यस्मिन् घटादी से घटादि: एकवर्ण:, तस्य किमुतानेकवर्णस्य १ इत्यपि - शब्दार्थः । निश्वयतः = परमार्थमवलम्ब्य निश्वयनयमाश्रित्य वा पञ्चवर्णत्वाच्चेति । पञ्च वर्णा यस्मिन् स तद्भावः तत्त्वं तत इत्यर्थ: । एकः शुक्लो वर्णो यत्र प्रतीयते तत्रापि निश्चयेन श्यामादयो वर्णाः सन्त्येवेति न ते परस्परानधिकरणवृत्तय इति भावः ।
J
=
विपक्षदण्डमाह - अन्यथेति । शुक्लवर्णवति घटादों श्यामादिवर्णानङ्गीकारे सतीत्यर्थः । पूर्व वेतवर्णविशिष्टस्य घटादेः, पाकादिना पश्चात् श्यामत्वानुपपत्तेः = कृष्णवर्णसत्त्वाऽसङ्गतेः । यदि पाकपूर्वकाल
पाकपूर्वकालावच्छेदेन,
५३४
शुक्लस्य
न किया जाय तब तो नील पीत आदि धर्मो का भी एक शबल वस्तु ( मयुरपंख आदि) में समावेश नहीं हो सकेगा । इसी बात को सूचित करने के लिए कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद्जी प्रस्तुत व कारिका के उत्तरार्ध में कहते हैं कि बिरुद्ध नील-पीत आदि वर्णों का समावेश मयूर पंख, गाय आदि मेचकबस्तु में प्रमाण से ज्ञायमान है । इसी तरह एक धर्मी में नित्यत्वअनित्यत्व आदि धर्मयुगल भी समाविष्ट हो सकते हैं । मतलब कि मूलकारश्री ने ७व कारिका के पूर्वार्ध में पक्ष, साध्य और हेतु का क्रमशः उल्लेख किया है और उत्तरार्ध में उदाहरण को बताया है । अतः यहाँ अनुमानप्रयोग इस तरह किया जा संकता है कि नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्मयुगल एक अधिकरणावृत्ति नहीं है, क्योंकि एक अधिकरणवृत्तित्वविधया प्रमाण से ज्ञायमान है, जैसे कि नील, पीत, श्रेत आदि वर्ण । यहाँ यह शंका हो कि → 'मूलकारश्री ने तो कारिका में 'विरुद्ध' पद का उल्लेख किया है, जिसका अर्थ है बिरुद्धत्वाला | व्याख्याकार श्रीमद्जी ने तो विरुद्धपद का त्याग कर के पक्षविधया नित्यत्व- अनित्यत्वादि धर्मयुगल का ही निर्देश किया है, जो मूलकारथी के आशय के खिलाफ प्रतीत होता है' - तो इसका समाधान व्याख्याकार श्रीमद्जी की ओर से इस तरह बताया जाता है कि विरुद्धत्व का अर्थ यह होता है परस्पर के अनधिकरण में रहने वाले धर्मों का साजात्य ( = समानजातिमत्त्व ) । मगर यह तो नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्मयुग्म, जिसका यहाँ पक्षविधया उल्लेख किया गया है, में ही स्वमत = स्याद्वाद के अनुसार नहीं रहने से आश्रय असिद्धि नाम का दोष प्रसक्त होता है । नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्मयुगल जैनदर्शन के अनुसार परस्पर के अनधिकरण में रहने वाले धर्म के सजातीय नहीं है, किन्तु विजातीय हैं, क्योंकि वास्तव में वे परस्पर के अधिकरण में रहते हैं । दूसरी बात यह है कि एकवर्णवाली वस्तु भी निश्चय नय से पाँच वर्णवाली होने से नील-पीत आदि वर्ण भी परस्पर के अनधिकरण में रहनेवाले नहीं होने से सदा परस्पर के अनधिकरण में ही रहनेवाली कोई चीज ही प्रसिद्ध नहीं होने से तत्सजातीयत्वस्वरूप विरुद्धत्व ही अप्रसिद्ध है । अन्धकार और प्रकाश भी देशावच्छेदकभेद से या कालावच्छेदकभेद से एक धर्मी में रहते हैं । अतः निरुक्त विरुद्धत्वपद के अर्थ की अनुपपत्ति होने से विरुद्धपद का त्याग उचित ही है । यहाँ यह शंका हो कि एक वर्ण वाले घट आदि में पाँच वर्ण का स्वीकार क्यों किया जाय ? क्योंकि प्रत्यक्ष से तो घट श्याम रूप वाला ही उपलब्ध होता है' - तो यह नामुनासिव है, क्योंकि यदि पाक से पूर्व काल में शुक्ल रूप वाले घट में श्याम रूप का अंगीकार न किया जाय तो पाक के पश्चात्काल में घट में श्याम वर्ण की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। श्याम रूप का कारण तो श्याम रूप ही होता है । अतः
=
-
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५३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ७ * स्वरूपासिद्धिनिराकरणम्
लाघवात् श्याममात्रं प्रत्येव श्यामस्य हेतुत्वात्, पाकाऽजन्यत्वादेस्तत्कार्यतावच्छेदकप्रवेशे गौरवात्, सदसत्कार्यवादस्य व्यवस्थापितत्वाच्च । नित्यत्वाऽनित्यत्वादिकं, विशेषेण
अथवा दयं
परस्परकरम्बितस्वभावेन रुं
=
=
ॐ जयलता
=
बच्छेदेन शुक्लरूपाश्रये घटादौ कृष्णादिरूपाणि न स्युः तर्हि पाकानन्तरकालावच्छेदेन श्यामत्वं न स्यात्, लाघवात् कार्यतावच्छेदकधर्मलाघवात् समवायेन श्याममात्रं श्यामत्वावच्छिन्नं प्रत्येव स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन श्यामस्य वर्णस्य हेतु| त्वात् । न चावयविनि श्यामं रूपं क्वचित् पाकेन क्वचिचावयवश्यामरूपेण जन्यते इति तृणारणिमणिन्यायेन पाकाजन्यत्वावच्छिन्नश्यामरूपं प्रति स्वाश्रयवृत्तित्वसम्बन्धेन श्यामरूपस्य हेतुत्वान्न पाकपूर्व शुक्ले घटादी श्यामादिरूपाऽङ्गीकारस्यावश्यकत्वमिति वाच्यम्, पाकाजन्यत्वविशिष्टश्यामत्वस्याऽचयचश्यामरूपकार्यतावच्छेदकत्वाऽपेक्षया श्यामत्वस्यैव तत्त्वे लाघवादित्याशये| नाऽऽह पाकाऽजन्यत्वादेः तत्कार्यतावच्छेदकप्रवेशे अवयवश्यामरूपनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदकशरीरनिवेडो, कार्यता
=
=
बच्छेदककोटा गौरवात् । किञ्च पूर्वं तत्र सर्वथाऽसतः श्यामवर्णस्य पश्चादपि पाकेनोत्पत्तिः नैव सम्भवति, अत्यन्ताऽसतोऽनुदात्तेः | अन्यथा खरविषाणादेरपि जन्मापत्तेः । पाकपूर्वकालावच्छेदेन शुक्लघटे कथञ्चिच्छ्यामरूपाऽङ्गीकारस्यापि न्याय्यत्वादित्याशयेनाऽऽह - सदसत्कार्यवादस्य कथञ्चित्सदसत्कार्यनियमस्य पूर्व (पृ. १२९ ) व्यवस्थापितत्वाच्चेति । ततश्चाऽकामेनाऽपि श्वेतकालावच्छेदेन घटे श्यामवर्णाऽङ्गीकारः कार्यः । ततश्चैकदैकत्र शुक्लश्यामादिवर्णसमावेशेन शुक्लश्यामादिवर्णेष्वपि परस्परा| नधिकरणनिरूपितवृत्तित्वमत्त्वस्याऽप्रसिद्धेः परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वलक्षणं विरुद्धत्वमप्यप्रसिद्धम् । न च तमः प्रकाशयोरेव निरुक्तविरुद्धत्वं प्रसिद्धमिति वक्तव्यम्, कालभेदेनैकत्र तत्समावेशस्य दृष्टत्वात् । न चैककालीनपरस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वमेव विरुद्धत्वमस्त्विति वाच्यम्, एकदाऽपि विभिन्नावयवावच्छेदेन तमः प्रकाशयोरेकत्रोपलब्धेः तयोरपि निरुक्तविरुद्धत्वलक्षणायोगात् । ततश्च निरुक्तविरुद्धत्यविनिर्मोकेणैव नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुग्मानां पक्षत्वेन निर्देशस्य न्याय्यत्वमिति निर्गलितोऽर्थः ।
पुनः व्याख्यान्तरमावेदयति अथवेति । नाऽसदिति । द्वौ नञौ प्रकृतार्थं गमयत इति न्यायेन सत्त्वस्यात्र साध्यत्वं
पाक के पश्चारकालावच्छेदेन श्याम रूप वाले घट में पूर्वकालावच्छेदेन भी श्याम वर्ण का अंगीकार करना मुनासिब है । यहाँ यह शंका हो कि 'श्याम वर्ण की उत्पत्ति कभी स्वाश्रयावयवगत श्याम रूप से होती है, तो कभी पाक = विलक्षण अग्निसंयोग से होती है । अतः श्याम रूप का कार्य श्याम रूप नहीं है, किन्तु पाकाऽजन्य श्याम वर्ण है । शुक्ल घट में श्याम रूप पाकजन्य होने की वजह, उसका कारण श्याम रूप नहीं है, किन्तु पाक ही कारण है । अतएव व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है' तो यह भी निराधार है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से श्याम रूप के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसंबंध से श्याम वर्ण को कारण मानने में लाघव है, जब कि समवाय संबन्ध से पाकाऽजन्य श्याम रूप के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसंबंध से श्याम रूप को कारण मानने में गौरव है । प्रथम पक्ष में कार्यतावच्छेदक धर्म केवल श्यामत्व बनता है, जब कि द्वितीय पक्ष में कार्यतावच्छेदक धर्म पाकाजन्यत्वविशिष्ट श्यामत्व होता है, जो श्यामत्व की अपेक्षा गुरुभूत है । अतः द्वितीय पक्ष में गौरव स्पष्ट है । अत: श्वेत रूप वाले घट में भी श्याम रूप का अंगीकार करना आवश्यक है, जिससे पश्चात् उसमें श्याम रूप की उत्पत्ति हो सके। दूसरी बात यह है कि श्वेत घट में यदि श्याम रूप का सर्वथा अत्यन्ताभाव माना जाय तो पश्चात् उस घट में श्याम रूप की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, किन्तु कथंचित् सत् की ही उत्पत्ति हो सकती है । इस सदसत्कार्यवाद की तो पूर्व में सिद्धि की गई है। इसलिए यहाँ उसका पुनरावर्तन करना अनावश्यक है । सदसत्कार्यवाद के बल पर शुक्ल घट में भी श्याम रूप का अंगीकार करना आवश्यक है । अतः शुक्ल रूप और श्याम रूप भी एक अधिकरण में वृत्ति होने की वजह परस्पर अनधिकरणवृत्ति नहीं हैं । अतः 'परस्परअनधिकरणवृत्तिसजातीयत्व-स्वरूप विरुद्धत्व की अप्रसिद्धि होने से उसका त्याग करना मुनासिक ही है, यह निष्कर्ष है । ॐ नित्यानित्यत्व नातिविशेषस्वरूप है - स्याद्वादी
अथवा इति । व्याख्याकार श्रीमद्जी व कारिका की अन्य रीति से व्याख्या करते हैं कि - नित्यत्व- अनित्यत्व आदि धर्म विशेषरूप से परस्परमिश्रित स्वभाव से मिलित (= रुद्ध) है, यह असत् = काल्पनिक नहीं है, क्योंकि तदेकत्वविषयक प्रमाण प्रसिद्ध है । तात्पर्य यह है कि नित्यानित्यत्व नरसिंहत्व आदि की भाँति जातिविशेपात्मक है, क्योंकि परस्पर में समाविष्ट विषयक प्रतीति की उससे उत्पत्ति होती है । केवल नरत्व और केवल सिंहत्व से नरसिंहत्वप्रकारक प्रतीति की भाँति केवल
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* निन्यानित्यत्वस्य जात्यन्तरत्वावेदनम् * मिलितं, नाऽसत्, 'एकत्र प्रमाणप्रसिन्दित:' = एकत्वे प्रमाणपसिन्दरित्यर्थः । अयं भाव: नित्यानित्यत्वं हि नरसिंहत्वादिवज्जात्यन्तरं, समाविष्टप्रतीतिजननात् । न हि केवलनरत्वसिंहत्वाभ्यामेकनरसिंहप्रतीतिरिव केवलनित्यत्वाऽनित्यत्वाभ्यां संमिलितप्रतीतिरुपपादयितुं शक्यते । अथ नरसिंहत्वमेकव्यवक्तिवृत्ति न जात्यन्तरं जरत्वादिकमपि साहकभिया न
* जयलता लभ्यते । एकत्वे प्रमाणप्रसिद्धेः = एकत्वविषयकप्रमाणप्रसिद्धेरिति हेतुर्लभ्यते । न च पक्षतावच्छेदकीभूतविशिष्टरुद्धत्वावच्छिन्ने नित्यत्वाऽनित्यत्वादी हेतोरसत्त्वेन स्वरूपासिद्धिरिति वाच्यम्, तथापि एकत्वगोचरप्रसिद्भप्रमाणविषयत्वस्य हेतुत्वे दोषाऽभावात् । एतेन वैयधिकरण्यदोषोऽपि प्रत्याख्यातः । न चोदाहरणवैकल्यमाशङ्कनीयम्, नरसिंहत्वस्य तथात्वसम्भवात् । यथैकत्वगीनरप्रसिद्धप्रमाणविषयलेन नरसिंहलजातेल्स तथैन नत एन निन्यलाऽनित्यत्वादेरपि नासत्वमिति भावः । एतेन हेतुघटकीभूतप्रसिद्धत्वस्य प्रमाणविशेषणस्याऽसिद्धिरपि प्रत्युक्ता । वस्तुतस्तु प्रसिद्भत्वं परिचायके, न तु हेतुतावच्छेदकारीरे प्रविष्टमिति न ब्याप्यत्वाऽसिद्धेरवकाशः ।
प्रकृतमेव समर्थयति - अयं भाव इत्यादिना । प्रयोगस्त्वेवम् - नित्यत्वाइनित्यत्वं जात्यन्तरं समाविष्टप्रतीतिविषयत्वात्, नरसिंहत्ववत् । परस्परव्यामिश्रितप्रतीतिगोचरत्वेन नरसिंहत्वस्य जातिविशेषत्ववत् तत एव नित्यत्वाऽनित्यत्वस्यापि जात्यन्तरत्वमुपपत्स्यत इति भावः । स्वतन्त्रनित्यत्वाऽनित्यत्वाभ्यां नित्यानित्यत्वप्रकारप्रतीत्युपपत्तिमपाकरोति - न हीति । भिन्नावयबावच्छेदेन वृत्तिभ्यां नरवसिंहत्वाभ्यामेकत्र नरसिंहत्वप्रतीतेरुपपादनेऽपि प्रकृते नैवं सम्भवति, परस्परानुप्रविष्टत्वेन नित्यत्वानित्यत्वप्रतीते: । पृथग्देशावच्छेदेनाऽवस्थिताभ्यां नित्यत्वानित्यत्वाभ्यां मिथोऽनुरक्तनित्यत्वानित्यत्वप्रतीतरसम्भवात, सम्भवे वा भ्रमत्यापतेः । वस्तुतस्तु भिन्नदेशावच्छेदेन नित्यत्वानित्यत्ववृत्तित्वमपि नास्ति, किन्तु द्रव्यत्व-पर्यायत्वावच्छेदेनैव रामे ज्येष्ठराजपुत्रत्वविशिष्टशिष्टाचारपालकत्वावच्छेदेन राज्याधिकारित्व-पुरुषोत्तमत्ववत् । ततो न भिन्नदेशावस्थिताभ्यां ताभ्यां परस्परसम्मिलिननित्यत्वानित्यत्वप्रतीतिरुपपादयितुं शक्यते । एकदेशावच्छेदेनाऽवस्थितत्वात् । परस्परानुरक्तप्रत्ययजनकत्याच जात्यन्तरत्वकल्पनवाऽहंति, समुदितद्रव्यत्व-पर्यायत्वाभ्यां तन परः शकते - अथेति । 'चेदि' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । 'व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं...' (किरणाव.) इत्युदयनबचनेनैक
धिकत्वान्न नरसिंहत्वं जातिविशेषरूपमित्याशयन हेतगर्भविशेषणमखेनाऽऽह- नरसिंहत्वमेकव्यक्तिवृति न जात्यन्तरमिति । नृसिंहशरीरे हि न मनुष्यत्वं सिंहत्त्वं वाऽस्ति, एकैकमात्रस्वीकारे विनिगमकाभावात् उभयोः स्वीकारें च जातिसङ्करप्रसङ्गात, आंशिकत्वापाताच । किन्तु, तदीयमुखाद्यवयवेषु प्रसिद्धसिंहमुखाद्यवयववृत्तिजातिमत्त्वं तदीयोदरपादाय - वयवेषु च प्रसिद्धमानुषीयोदरपादादिवृत्तिजातिमत्त्वं स्वीक्रियते । तेश्चोभयजातीयैरवयवरारभ्यमाणे शरीरे नृसिंहत्वं जात्यन्तरं कल्यते । तच्च न संभवत्ति, एकन्यक्तिवृत्तिकत्वात् । अतो न तदनुरोधेन नित्यानित्यत्वस्य जात्यन्तरत्वकल्पना युक्तेत्यभिप्रायः । वस्तुत: नरत्वमपि न जातिस्वरूपं किम्पुन: नरसिंहत्वं ? इत्याशयेनाऽऽह- नरत्वादिकमपि पार्थिवजलीयादिशरीरवृत्तितया साङ्कर्यभिया न जातिरूपमभ्युपगम्यते । जलीयनरे पृथिवीत्वं नास्ति, नरत्वमस्ति, पृथिव्यां पृथिवीत्वमस्ति नरत्वं नास्ति, अस्मदादिषु तूभयमिति पृथियीत्यादिना साकारत्वस्य न जातित्वमिति फलितम् ।।
नित्यत्व और केवल अनित्यत्व से नित्यानित्यत्वप्रकारक संमिलितोभयविषयक प्रतीति उत्पन्न नहीं हो सकती है । इसलिए नित्यानित्यत्व को जात्यन्तरस्वरूप मानना आवश्यक है . यह फलित होता है । यहाँ यह शंका हो कि -> 'नरसिंहत्व के उदाहरण से नित्यानित्यत्व को जात्यन्तर = जातिविशेपस्वरूप सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि नरसिंहत्त्व भी वस्तुतः एक व्यक्ति में ही रहने की वजह जातिविशेषरूप नहीं है। जातित्व के ६ दोष बाधक होते हैं, जिनमें व्यक्त्यभेद यानी एकव्यक्तिवृत्तित्व प्रथम जातिवाधक दोप है । गगनत्व की भाँति नरसिंहत्व भी केवल एक आधार में रहने से जातिविशेषरूप 1 नहीं माना जा सकता । दूसरी बात यह है कि नरव या सिंहत्य भी वस्तुतः जातिविशेषात्मक नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर पृथ्वीत्व आदि जाति के साध सांकर्य प्रसक्त होता है, जो जातिबाधक तृतीय दोष है । अतः नरसिंहत्व के दृष्टान्त से नित्यानित्यत्व को जातिविशेपात्मक नहीं माना जा सकता' -
= सांकर्य जातिषाधक नहीं है - स्यादादी -
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५३७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.७ मनरत्वसमाविष्टमिहत्वं = नरसिंहन्वम् *
जातिरुपमभ्युपगम्यते इति चेत् ? ता, उपाधिसाकर्यस्येव जातिसाकर्यस्याऽप्यदोषत्वान्नरत्वसमाविष्टसिंहत्वस्यैव तत्त्वात्। 'जातिसाहकर्यस्याऽदोषत्वे शिशपात्वादेन्यत्र सम्भावनया 'वृक्षः शिंशपाया' इत्याद्यनुमानमप्युच्छिद्यत' इति चेत् ? न, उपाधिसाकर्येऽप्यस्य दोषस्य तुल्यत्वात, तकादिना संशयनिवृत्तेरुभयत्र सम्भवात् ।
= जयलता * ___ प्रकरणकृत्समाधने - नेति । एरेण प्रतिब्रह्मकल्पं नृसिंहावतारस्वीकारात् उपासनादृष्टवशेन नृसिंहशरीरोत्पादस्वीकाराच नृसिंहशरीरस्य " मल्लेग नृसिंहन्दनाय लागरमा इनि नरस्मृित्वमेकव्यक्तिवृत्ति न जात्यन्तरमि'त्यस्याऽयुक्तत्वं स्पष्टमेबेति तदुपेक्ष्य परेण 'नरत्यादिकमपि साङ्कर्यभिया न जातिरूपमभ्युपगम्यते' इति यदुक्तं तत्र समाधत्ते- उपाधिसार्यस्येवेति । यदि जातिसादयं दोषः स्यात् तर्हि तस्योपाधित्वेऽपि दोषत्वं तदवस्थमेव । न चोपाधिसाय दोषत्वेन परेगाऽभ्युपगम्यते । तद्वदेव जातिसाङ्कर्यस्याऽप्यदोषत्वमुपपत्स्यत इत्यर्थः । गुआफले रक्तत्व-कृष्णत्वयोरिवकत्र नित्यत्वाऽनित्यत्वयोः खण्डशो व्याप्त्या:वस्थानं नाभ्युपगम्यते, किन्तु दाडिमे स्निग्धत्वोष्णत्वयोरिख परस्परानुवेधेनाऽवस्थानमङ्गीक्रियते । एवमेव नरवसिंहत्वयोः स्वातन्त्र्येणाऽवस्थानं न स्वीक्रियते किन्तु परस्परव्यामिश्रितत्वेनैव. तथैव प्रत्ययात् । तदेव तत्र जात्यन्तरत्वमित्याशयेनाऽऽहनरत्वसमाविष्टसिंहत्वस्यैव तत्त्वात् = जात्यन्तरात्मकत्वात् । एतेन सर्वथा तदतिरिक्तत्वकल्पनागौरवमपि परिहृतम्, स्वरसवाहिसावलौकिकप्रत्यक्षस्यैव बलवत्त्वात ।
____ परः शकते - जातिसार्यस्य = परस्परव्यधिकरणधर्मयोरेका समावेशस्य अदोषत्वे परापरभावानुपपत्तेः शिंशपात्वादेः व्याप्यत्वेनाऽभिमतजाते: अन्यत्र = वृक्षत्वशून्ये सम्भावनया = वृत्तित्वसम्भावनया, 'वृक्षः शिंशपाया' इत्याद्यनुमानमप्युच्छिद्यतेति । 'अयं वृक्षः शिंशपाया' इत्यत्र समवायेन वृश्नत्वस्य साध्यत्वं तादात्म्येन शिशपाया हेतुत्वम् । प्रसिद्धवेदमनुमानम् । परं जातिसार्यस्वीकारे शिशपात्व-वृक्षत्वयोप्प्य-व्यापकभावानुपपत्त्या समवायावच्छिन्नवृत्तिताकशिंदापात्वव्याप्यतादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तिताकदिशंशपाहेतोः समवायसंसर्गावच्छिन्नवृत्तिताकवृक्षत्वसाधकत्वं न स्यादिति शङ्कातात्पर्यम् ।
___ प्रतिबन्द्या प्रकरणकारः समाधत्ते - उपाधिसापर्येऽपि किम्पुनर्जातिसङ्कर इत्यपिशब्दार्थः, अस्य प्रसिद्धानुमानोच्छेदलक्षणस्य दोषस्य तुल्यत्वादिति । अयं चेष्टाश्रयः पशुत्वादित्याद्यनुमाने पशुत्वादिसंकीर्णोपाथे: पराऽपरभावानुपपत्त्या स्वाभिमतसाध्यसाधकत्वं न स्यादित्यस्यापि तुल्यत्वादित्यर्थः । न च विषक्षबाधकतर्कादिना सङ्कीर्णापोधिलक्षणहेतौ व्यभिचारसंशयो विलीयत इति नोक्तानुमानोच्छेदापत्तिरिति वाच्यम्, सङ्कीर्णजातिलक्षणहेतावपि प्रकृतसमाधानस्य तुल्यत्वादित्याशयेनाऽहतर्कानदनेति । संशयनिवृत्तेः = व्यभिचारसन्देहविलयस्य, उभयत्र = सङ्कीर्णजात्युपाध्योः तुल्यत्वादिति ।।
न उपा. इति । तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि उपाधिसांकर्य की भाँति जातिसांकर्य भी दोषात्मक नहीं है। आशय यह है कि कल्पभेद से नरसिंह अवतार भी अनेक होने की वजह नरसिंहत्व केवल एक अधिकरण में नहीं रहता है । अतएव वह जातिस्वरूप हो सकता है। तथा नरत्व आदि को जातिविशेषस्वरूप मानने में जो पृथ्वीत्व आदि के साथ सांकर्य का दोपाद्भावन किया गया था, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सांकर्य होने पर भी भूतत्व को जैसे नैयायिक मनीषियों ने उपाधिस्वरूप माना है, ठीक वैसे ही सांकर्य होने पर भी नरत्व को जातिस्वरूप माना जा सकता है । यदि सांकर्य उपाधित्व का बाधक नहीं है, तो फिर जातित्व का बाधक कैसे हो सकता है ? संकर को जातिबाधक मानने पर उपाधिबाधक मानना भी न्यायप्राप्त है। अतः नरत्व आदि को भी जातिस्वरूप माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि हम नरसिंहत्व
को जातिविशेषात्मक मानते हैं, वह भी सर्वथा नरत्व और सिंहत्व से भिन्न तृतीय जातिस्वरूप नहीं मानते हैं, किन्तु नरत्वसमा। विष्टसिंहत्त्व को ही हम नरसिंहत्व कहते हैं । एक अधिकरण में नरत्व और सिंहत्व जाति का सांकर्य दोषरूप नहीं होने से मरत्वमिश्रित सिंहत्व को ही नरसिंहवरूप जान्यन्तर कहा जा सकता है। यहाँ यह शंका हो कि -> 'सांकर्य को जातिबाधक न मानने पर तो एक जाति और दूसरी जाति के बीच पराऽपरभाव यानी व्याप्य ब्यापकभाव का ही उच्छेद हो जाने से शिंशपात्व जाति की वृक्षत्वशून्य में भी संभावना होने से 'अयं वृक्षः शिंशपायाः' इत्यादि अनुमान का भी उच्छेद हो जायेगा। तादात्म्यसंबंध से शिंशपाविशिष्ट व्यक्ति वृक्षभिन्न भी हो सकती है, क्योंकि जातिसांकर्य को निर्दोष मानने की आपने इजाजत दे दी है' <-तो यह दोष तो उपाधिसांकर्य को निर्दोष मानने पर भी समानरूप से प्रसक्त हो सकता है, क्योंकि संकीर्ण उपाधि में भी पराऽपरभाव = व्याप्य व्यापकभाव दुर्घट होने से 'अयं चेष्टाश्रयः पशुत्वादि'त्यादि अनुमान का उच्छेद होने वाला
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* साङ्कर्यस्य जात्यबाधकत्वनिरूपणम्
अथ घटत्वपटत्वादेर्नियतविरोधदर्शनेन परस्पराऽत्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वस्य विरोधितावच्छेदकत्वकल्पनान्न तदवच्छिन्नजात्योः समावेशसम्भव इति चेत् ? न, परस्परत्वस्य नानात्वेन तनियमस्य विशिष्य विश्रामात्,
* जयलता
परः शङ्कते अथेति । 'चेदि' त्यननाऽस्याऽन्वयः । घटत्वपटत्वादेः नियतविरोधदर्शनेन सर्वत्र परस्पराधिकरणाऽवृत्तित्वोपलम्भेन, परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वस्य विरोधितावच्छेदकत्वकल्पनाच तदवच्छिन्नजात्योः = विरोधितावच्छेदकी भूतपरस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वावच्छिन्नजात्यो: समावेशसम्भव इति । घटत्वाद्यत्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वं पटत्वादी वर्तते पटत्वाद्यत्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वं च घटत्वादौ वर्तत इति घटत्व पटत्वाद्योः जात्योर्विरोधसिद्धया नैकत्र समावेश इति न जातिसाङ्कर्यं निर्दोषमिति अथाशयः ।
अत्र यद्यपि जातिसार्यस्य स्वरूपं यदि सिद्धं तदा तदाधारभूतं जातिद्वयमपि सिद्धमिति न तस्य दूषणत्वम् । अथ - न सिद्धं तदा स्वरूपाऽसिद्धेरेवाऽदूषणत्वम् । अथ यदिपदोपसन्दानेनापादकीभूय दूषणमेतत् यदि जातिसार्यं स्यात् तदा घटत्वपटत्वयोरप्येकदेशवृत्तित्वं स्यादिति चेत् ? न आपादकाऽप्रसिद्धेः । न हि जातिसाङ्कर्यं क्वचित्प्रसिद्धं येन तत्स्वात्मनि आपादकत्वं स्वीकुर्यात् । यदि च सङ्कीर्णयोर्भूतत्वमूर्तत्त्वयोः जातित्वं स्याद, घटत्वपटत्वयोरपि सामानाधिकरण्यं स्यादिति विभाव्यते, तदपि फल्गु, आपाद्यापादकयोर्वैयधिकरण्येन परेणोक्ता पत्तिप्रदानस्याऽसम्भवात् । एतेन जातित्वं यदि तादृशधर्मवृत्ति स्यात्, उभयवादिसम्मततादृशधर्मवृत्ति स्यादित्येवं यदि जातिसाङ्कर्यं स्यात् घटत्वपटत्वयोरपि सामानाधिकरण्यं स्यादित्यापादनस्यार्थोपवर्णनं तन्निरस्तम्, अप्रयोजकत्वात् । अत एव स्वसामानाधिकरण्य-स्वाभावसामानाधिकरण्योभयसम्बन्धेन जातिविशिष्टजातित्वावच्छेदेन स्वसमानाधिकरणाभावप्रतियोगित्वाभाव इति नियमस्य भङ्गप्रसङ्ग एवं जातिसाङ्कर्ये बाधक इत्यपि प्रत्याख्यातमित्यादि वक्तुं शक्यते तथापि स्पष्टत्वात्तदुपेक्ष्य प्रकारान्तरेण निराकरोति नेति । परस्परत्वस्य नानात्वेनेति । परपदार्थघटितस्य पर परदादेशः वलियमस्य = परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वस्य विरोधितावच्छेदकत्वनियमस्य विशिष्य विश्रामात् परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरण- परस्पराऽसमाविष्टजातित्वस्य विरोधिता
=
ही है। तर्क आदि से व्यभिचार शंका का निवर्तन तो संकीर्ण उपाधि की भाँति संकीर्ण जाति में भी समानतया हो सकता है । अत: उपाधिसंकर भी भाँति जातिसंकर भी दोपात्मक नहीं है। यह मानना आवश्यक है ।
"
नस्त्वाभावसमानाधिकरण सिंहत्वत्व विरोधितानवच्छेदक
=
=
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अथ च इति । यहाँ यह शंका हो कि
घटत्व और पटत्व आदि में परस्पर नियत विरोध प्रत्यक्षतः सिद्ध है । जहाँ घटत्व होता है, वहाँ पटत्व नहीं ही होता है और जहाँ पटत्व होता है, वहाँ घटत्व भी नहीं रहता है । मतलब कि घटत्व जाति पटत्वाऽत्यन्ताभावसमानाधिकरण है और पटत्व जाति घटत्वाऽत्यन्ताभावसमानाधिकरण है । घटत्व, पटत्व आदि जाति में इस तरह रहने वाला परस्पराऽत्यन्ताभावसमानाधिकरण जातित्व ही परस्परविरोधिता का अवच्छेदक - नियामक है । विरोधितावच्छेदक जातित्व घटत्व, पटत्व में रहने की बदीलत घटत्व और पटत्व जाति का, जो परस्परविरोधितावच्छेदकीभूत जातित्व से अवच्छिन विशिष्ट हैं, एक अधिकरण में समावेश नहीं हो सकता है, अन्यथा घटत्व, पदत्व में रहने वाला जातित्व विरोधिता का नियामक ही नहीं हो सकता । घटत्व, पटत्व आदि की भाँति नरत्व और सिंहत्व का भी एक धर्मी में समावेश नहीं हो सकता' - तो यह नामुनासिब है, क्योंकि परस्परत्व का घटक परपदार्थ अननुगत होने से परस्परत्व भी अनेकविध होने की बजह परस्परत्व से घटित यह नियम कि 'परस्पराऽत्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्व परस्परविरोधितावच्छेदक होता है' भी घटत्व, पटत्व आदि प्रसिद्ध विरुद्ध धर्म में ही प्रवृत हो सकता है, न कि सर्वत्र । अननुगत पदार्थ से घटित नियम कभी भी सार्वत्रिक नहीं हो सकता है। फिर भी यहाँ यह कहा जाय कि 'घटत्व, पटत्व आदि में रहनेवाले जातित्व की भाँति नरत्व और सिंहत्व में रहने वाला जातित्व भी परस्परविरोधितावच्छेदक तो हो सकता है, जिसकी वजह एक धर्म में दोनों का समावेश नहीं हो सकेगा तो यह भी बेसिरपैर का वक्तव्य है, क्योंकि एक ही धर्मी में नरत्व और सिंहत्व की, जो परस्पर संमिलित हैं, प्रतीति होने से नरत्वाऽत्यन्ताभावसमानाधिकरणसिंहत्वत्व परस्परविरोधिता का अवच्छेदक ही नहीं है, जिसकी वजह तादृश सिंहत्वत्व से अवच्छिन्न विशिष्ट सिंहत्व के अधिकरणीभूत नृसिंह में नरत्व का समावेश न हो । अतः परस्परमिश्रित नरत्व सिंहत्व को ही जात्यन्तरात्मक मानना मुनासिब है । अतः उपाधिसांकर्य की भाँति जातिसांकर्य
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५३९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * उत्पादादिसिद्धिसंबादेन सामान्यविशेषाऽविरोधप्रदर्शनम् * नस्त्वात्यन्ताभावसमानाधिकरणसिंहत्वत्वादेविरोधितानवच्छेदकत्वात् ।
अथ जात्यन्तररूपतेव व्यक्त्यन्तररूपतवाऽस्य कुतो न सहगीयत इति चेत् ? स्वतन्त्रपरिभाषाया अपर्यनुयोज्यत्वात् । एवञ्च सामान्य-विशेषात्मकत्वस्यापि तधात्वं साधु सङ्गच्छते । एकैकनयार्पणया
== =* जयलता * बन्छेदकत्वमित्येवं विशेषरूपेण पर्यवसानात् । अत एव घटत्व-पटत्वयोर्विरोधदर्शनेन विरोधितावच्छेदकमनुगतं किञ्चिदवश्यमुपगन्तव्यम्, अन्यथा गोत्वाश्वत्वयोरपि विरोधित्वाऽवगतयेऽवच्छेदकान्तरस्य वक्तव्यतायां विशेषतो जातिविशेषविरोधितावच्छेदकोपवर्णन एव जन्मसहस्र मनीषिणो व्याप्रियरन तथापि न तदन्तमाप्नुयुः । तच्च रूपं परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणत्वमेव यदनङ्गीकारे सजातीय-विजातीयव्यवस्थोच्छिद्यतेति परेषामभिनिवेशोऽपि प्रत्याख्यातः, परस्परसमाविष्टधर्मस्थले तथा वक्तुमशक्य - त्वात् । तथापि नरसिंहस्थले प्रदर्शितनियमावृतिः स्यादित चल त्रैव धर्मिणि परस्परकर्चुरितनरसिंहप्रीतिरलेन नरत्वात्यन्ताभावसमानाधिकरणसिंहत्वत्वादेः विरोधितानवच्छेदकत्वादिति ।
ननु यथा नरसिंहत्वस्य जात्यन्तरत्वमेव कल्प्यते तथा नरसिंहस्य व्यक्त्यन्तरत्वमेव कुतो न कल्प्यते ? इत्याशयेन शङ्कते - अथेति । समाधत्ते - स्वतन्त्रपरिभाषाया अपर्यनुयोज्यत्वादिति । “धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना श्रेयसी'ति न्यायादपि न व्यक्त्यन्तरकल्पनमस्तीति ध्येयम् ।
एवञ्च = विरोधस्य विशिष्यैव विश्रान्तत्वेन च, सामान्य-विशेषात्मकत्वस्यापि तथात्वं = अविरुद्धत्वं जात्यन्तरात्म| कत्वं वा साधु सङ्गच्छत इति । अभेदग्राहिनयविवक्षया वस्तुनि सदृशपरिणतिः केवलमनुवृत्तिधियमुत्पादयति भेदनाहिनयानु| रोधेन वस्तुनि विसदृशपरिणतिः केवलं व्यावृत्तिधियं जनयति । तादृशसदृशपरिणतिरेव केवलसामान्यात्मिका तादृावसादृश्यपरि. णतिरेव च केवलविशेषात्मिकोच्यते । नयभेदेनैवं व्यवस्थिते त एव प्रमाणापेक्षया पुनरेकदैवानुवृत्तिव्यावृत्तिधियं सम्पादयतः अत एव प्रमाणार्पणया ते जात्यन्तरम् । एवं प्रमाणेन वस्तु स्यादनुगमयतिरेकपरिणतिमज्जात्यन्तरवदेवेत्याशयवता मतेनाऽह| एकैकेति । बिभावितार्थमबैतत् ।
___उत्पादादिसिद्धिप्रकरणकृतस्तु- 'न द्रव्य- पर्याययोः प्रत्येकमनुवृत्तिरूपता प्रतिपद्यामहे, प्रतिनियतस्य द्रव्यपर्यायलक्षणस्य | पदार्थव्यस्य स्वतन्त्रस्य कदाचिदनभ्युपगमात् । एकमेव हि तद्वस्तु अनुवृत्तिप्राधान्येन विवक्षितं तदेव पर्यायव्यपदेशमासाद| यति । ततः कथं पर्यायद्वयं स्यात् । न हि घटपटत्ववद्रव्यपर्यायौ कौचित् स्वतन्त्री स्तः । अनुवृत्तिव्यावृत्ती च वस्तुस्वभाव | एव युक्तः, तयोरनुवर्तमानच्यावर्त्तमानाधीनत्वात् । तदेव वस्त्वनुवर्त्तते इत्यनुवर्तमानाकारप्राधान्येन विवक्षितमनुवृत्तिरित्युच्यते ।
भी निर्दोप ही है . यह फलित होता । यहाँ यह प्रश्न कि → 'नरसिंहत्व को जात्यन्तरस्वरूप माना जाता है, वैसे नरसिंह को ही व्यक्त्यन्तरात्मक क्यों नहीं माना जाता है जैसे नृसिंहत्व न तो केवल नरत्वस्वरूप है और न तो केवल सिंहत्वस्वरूप है किन्तु शुद्ध दोनों से विलक्षण जातिविशेषस्वरूप ही है, यह कल्पना की जाती है। उसके स्थान में यह कल्पना कि, नरसिंह न केवल शुद्ध नरव्यक्ति है और न तो केवल सिंहव्यक्ति है, किन्तु उन दोनों से विलक्षण व्यक्तिविशेष ही है, क्यों नहीं की जाती ?' -भी निराधार है, क्योंकि स्वतन्त्र परिभाषा में यह प्रश्र नहीं हो सकता कि- 'यह ऐसा क्यों माना गया है ? चैसा क्यों नहीं ?' आर्य पुरुषों की इच्छा अपर्यनुयोज्य = प्रभाऽनई होती है। नरसिंहत्व की भाँति नित्याऽनित्यत्व भी नित्यत्यसंमिलिताऽनित्यत्वस्वरूप जात्यन्तरात्मक है। इस तरह जातिविशेष से ही विलक्षण प्रतीति की उपपत्ति हो जाती है, तब नित्याऽनित्यात्मक व्यक्तिविशेप ही कल्पना करनी अनावश्यक है. यह उपर्युक्त वक्तव्य से धनित होता है ।
* सामान्य और विशेष परस्पराऽविसद एवं वस्तुदेश हैं - स्याहादी * एवश्व. इति । जैसे घस्तु में नित्यानित्यत्व जातिविशेपात्मक सम्यक उपपन्न होता है, ठीक वैसे ही सामान्यविशेषात्मकत्व भी जान्यन्तरूप सम्यक संगत हो सकता है। जब अभेदनय की विवक्षा की जाय तब अनेक वस्तुओं में रही हुई सामान्यपरिणति = सदृशपरिणति केवल अनुगत बुद्धि को उत्पन्न करती हुई केवल सामान्यस्वरूप कही जाती है और भेदनय की विवक्षा से वस्तुस्थ विसापरिणति केवल ज्यावृतिबुद्धि को उत्पत्र करती हुई केवल विशेषस्वरूप कही जाती है। जैसे अभेदनय की विवक्षा होने पर अनेक घट में घटत्वात्मक या कंबुग्रीवादिमत्वस्वरूप सदृशपरिणति 'यह घट है, यह घट है' इत्याकारक अनुगत बुद्धि
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* सामान्य-विशेषयोः समुद्रोदाहरणेन वस्त्वंशत्वसमर्थनम् * || प्रतीयमाने सहश-विसहशपरिणती हि केवलानुवृत्ति-व्यावृत्तिधियावर्पयन्त्यो केवलसामान्यविशेषरूपे प्रमाणार्पणया प्रतीयमानं वस्तु पुनर्युगपभयधियं जनयत्कश्चिदनुगमव्यावृत्तिमज्जात्यन्तरमेवेत्याहुः ।
अथैवं सामान्य वस्तु न स्यादिति रोत् ? न वस्तु ताप्यवस्तु किन्तु वस्त्वेकदेश इत्येव सिदान्तः ।
-- ===* जयलता * न चानयोवस्तुस्वभावता ? भावो हि भवित्रधीनस्तदैव भवति तदा तद्वस्तुस्वभाव एवार्य स्यात्, अन्यथा यद्यनुवृत्तिव्यावृत्तिमिन्ने एव तदा न भावोऽनुवर्तते यावर्तते वा, तदा तदपरवस्त्वन्तरवत' - (उ.सि.पृ.१५४) इत्यादि व्याचक्षते ।
ननु नयभेदाचतारे सदृशाः सदृशपरिणतिरूपी सामान्यविशेषावित्यङ्गीकारे केवलं सामान्यं विशेषो वा कथं पूर्णवस्तुस्वरूपमासादयेत् ? अतः तयोः स्वतन्त्रयोरवस्तुत्वमेवापद्यतेत्याशयेन मुग्धः शङ्कते - अधेति । समाधानमाह- न बस्त्वित्यादि । वस्तुनोइनन्तधर्मात्मकत्वेनकेकभागस्य न वस्तुत्वं नाऽध्यवस्तुलम् । न च वस्तुत्वाइवस्तुत्वयोः परस्परबिरहरूपत्वे नकनिषधेडपरविधानमेव प्राप्तं बट-तदभावयोरिवेति वाच्यं यत्र प्रकारान्तराऽसम्भवः तवैकनिषेधे निषधेनकान्तविधानं, प्रकृते त समद्रांशदष्टान्तेन वस्त्वंशरूपप्रकारान्तरसम्भवेन तथाप्रसङ्गविरहात । तदक्तं - 'नायं वस्त न चाऽवस्तु वस्त्वंश: कथ्यते बुधैः । नाइसमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि ॥ ( ) न चोदाहरणमपि न नोऽभिमतमिति वक्तव्यम्, समुद्रैकदेशस्य समुद्रत्वे शेषांशानां समुद्रत्वानापत्तेः, विनिगमनाविरहेणांशांन्तराणामपि प्रत्येक समुद्रत्वे वेकत्रापि समुद्रे ‘बहवः समुद्रा' इति धीव्यवहारौ प्रसज्येताम् । समुद्रैकदेशस्याऽसमुद्रत्वे त्वंशान्तराणामप्यसमुद्रत्वापत्ती समूहिव्यतिरिक्तसमूहस्य विरहेण समुद्रधीन्यवहारावेवोच्छिद्येताम् । तस्मादनन्यगत्या तस्य समुद्रांशत्वमेवाऽभ्युपगन्तव्यम् । एवं वस्त्वंशस्याऽपि भावनीयं. युक्तरपक्षपातित्वात् । तदतं . 'एकांशस्य समुद्रत्वे शेषांशस्याऽसमुद्रता । समुद्रबहता वा स्यात्
को उत्पन्न करती है। अत: वह सदशपरिणति ही केवल सामान्यात्मक कही जाती है। मगर भेदनय की प्रवृत्ति होती है, तब वह अनेक घट में रही हुई विसदृशपरिणति को ग्रहण करता है। भेदनयविषयीभूत विसदृशपरिणति अनेक घट में 'पह रक्त है, यह श्याम है, यह अमदावादीय है, वह वापीय है' इत्याद्याकारक व्यावृत्तिबुद्धि को उत्पन्न करती है। इसी सबर वह केवल विशेपरूप कही जाती है । इस तरह प्रत्येक नय की विवक्ष होने पर अनुगतबुद्धिजनक सदृशपरिणति शुद्ध सामान्य
और न्यावृत्तिबुद्धिजनक विसदृशपरिणति शुद्ध विशेष कही जाती है । मगर जब प्रमाण की विवक्षा होती है तब अनेक वस्तुओं में एक ही काल में अनुवृत्ति और व्यावृत्ति की बुद्धि को सदृश-विसदृश परिणनि उत्पन्न करती है। इसकी वजह वस्तु कथंचित् अनुगमन्यावृत्तिवाली जात्यन्तरवाली ही कही जाती है । प्रमाण सर्वनयसमूहात्मक होता है । अतः प्रमाण की विवक्षा होने पर वह भेदनय और अभेदग्राही. नय के विषय को प्रधानरूप से ग्रहण करता है। अतएव नयविशेष की अपेक्षा बस्तु के अंशभूत होने की बजह परस्पराऽविरोधी सामान्य अंश और विशेष अंश ही मिलित हो कर प्रमाण की विवक्षा होने पर जात्यन्तररूप जातिविशेषात्मक बन कर एक ही काल में अनुवृत्तिव्यावृत्तिउभयप्रकारक = अन्वयव्यवच्छेदप्रकारक बुद्धि एवं व्यवहार के निमित्त बनते हैं . ऐसा प्राचीन जैनाचार्यों का वक्तव्य है।
अथे. इनि । यहाँ यह शंका हो कि -> 'यदि नय की अपेक्षा वस्तु की सदृश परिणति ही सामान्य है और विसदृश परिणति ही केवल विशेषपदार्थ है तो फिर सामान्य और विशेष दोनों वस्तुस्वरूप नहीं बन पायेंगे, क्योंकि वस्तु परिणाम नहीं है, किन्तु वह परिणामवाली = परिणत है । अतः सामान्य और विशेष अवस्तु बनने की वजह नरशुंग की भाँति असत् बन जायेंगे' - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्य या विदोष न तो वस्तु है और न तो अवस्तु यानी सर्वया वस्तुमिन नगीं है, किन्तु वस्तु का एक देश = अंश है - यही जैनसिद्धान्त है। जैसे समंदर का छोटा भाग न तो पूर्ण समंदर है और न तो सर्वथा समंदर से भिन है किन्तु उसका एक अंश कहा जाता है, ठीक वैसे ही समानपरिणामस्वरूप सामान्य पदार्थ एवं असमानपरिणामात्मक विवोध पदार्थ भी न तो संपूर्ण वस्तु है और न तो सर्वथा वस्तु से भिन्न है, किन्तु वस्तु का एक अंश है । समान परिणाम को पूर्ण चस्तुस्वरूप मानने पर वस्तु के शेष परिणाम सर्वथा वस्तुभिन्न बन जायेगे या जितने परिणाम हैं उतनी संख्या में वस्तुएँ बन जायेंगी और समानपरिणति को सर्वथा वस्तुभिन्न मानने पर शेष परिणाम भी वस्तु से सर्वथा भिन्न बनने की वजह वस्तु तत् तत् परिणाम से शून्य हो जायेगी और उसीकी वजह वस्तु की ही असिद्धि हो जायेगी। अतः मानना होगा कि सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तु के अंश हैं।
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५४१ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ का ७ * तत्त्वसङ्ग्रहकारमतसमालोचना
साविषयमेव विनुवृत्तिव्यावृत्ति व्यवहारस्यैकदा सम्भवात् तयोरेव जात्यन्तररूपताऽस्त्विति चेत् ?
अथ मिति
* जयलता
तत्त्वे क्वाऽस्तु समुद्रवित् ॥ ( ) एवं वस्तुन एवाऽनुवृत्त्य॑शः सामान्यं व्यावृत्त्यंशश्च विशेषपदार्थ इति सिद्धान्ताशयः । यत्तु शान्तरक्षितेन तत्त्वसङ्ग्रहे स्याद्वादपरीक्षाप्रकरणे
'मनु सत्येकरूपत्वे धर्मभेदो न सिद्ध्यति । अकल्पितो विभेदो हि नानात्वमभिधीयते ॥ नानात्मत्वं तु शक्तीनां विवक्षामात्रनिर्मितम् । एकवस्त्वात्मकत्वे हि न भेदोऽत्रापि युक्तिमान् ॥ एकमित्युच्यते तद्धि यत्तदेवेति गीयते । नानात्मकं तु तन्नाम न तद्भवति यत्पुनः ।। तद्भावश्चाऽप्यतद्भावः परस्परविरोधत: । एकवस्तुनि नैवाऽयं कथञ्चिदवकल्प्यते ॥ विधानप्रतिषेधी हि परस्परविरोधिनौ । शक्यावेकत्र नो कर्तुं केनचित्स्वस्थचेतसा ॥ सजातीयविजातीयाऽनेकव्यावृत्तवस्तुनः । ततस्ततः परावृत्तेर्धर्मभेदस्तु कथ्यते ।। एकस्यापि ततो युक्ता कल्पिताऽसङ्ख्यरूपता । वास्तवं नैकभावस्य द्वैरूप्यमपि सङ्गतम् ॥ नरसिंहादयो ये हि द्वैरूप्येणोपवर्णिताः । तेषामपि द्विरूपत्वं भाविकं नैव विद्यते ॥ सानेका सन्दोहस्वभावो नैकरूपवान् । यच्चित्रं न तदेकं हि नानाजातीयरत्नवत् ॥ ऐक्ये स्थान द्विरूपत्वान्नानाकारावभासनम् । मक्षिका पदमात्रेऽपि पिहितेनावृतिश्च न ॥ नृसिंहभागानुस्यूतप्रत्यभिज्ञानहेतवः । ते चाणवः प्रकृत्यैव विशिष्टप्रत्ययोद्भवात् ॥ एतेनैव प्रकारेण चित्ररत्नादयो गताः । नानात्मना हि वैचित्र्यमेकत्वेन विरुध्यते ॥
-
तत्र मया
अर्थं क्रियासमर्थत्वं वस्तुत्वमभिधीयते । यदि तस्यानुगामित्वं सर्वं स्यात्सर्वकार्यकृत् ।। (त.सं. १७२५ / १७३७) इत्युक्तम् । द्रव्यात्मनैकरूपत्वेऽप्यत्र भेदो न दुष्यति । पर्यायापेक्षया वास्तवो विभेदोऽभिधीयते || १|| नानात्मत्वं न शक्तीनां विवक्षामात्रनिर्मितम् । एकवस्त्वात्मकत्वेऽपि कथञ्चिदबोधतः ||२|| एकमित्युच्यते तद्धि यदनुवर्त्तते खलु । नानात्मकं तु तन्नाम तत्र यद् व्यतिरिच्यते ॥ ३ ॥ अवच्छेदकभेदेन परस्पराविरोधतः । एकत्राऽप्युभयं ह्येवं कथचिदवकल्यते ||४|| विधानप्रतिषेधी हि परस्पराविरोधिनौ । एकत्र रूपभेदेन शक्येते दूषितुं न १ ||५|| कथञ्चिदनुवृत्तस्य व्यावृत्तस्य च वस्तुनः । एकानेकस्वभावत्वं बाधितुं नैव शक्यते || ६ || एकस्यापि ततो युक्ता कल्पिताऽसङ्ख्यरूपता । वास्तवं चैकभावस्य द्वैरूप्यमपि सङ्गतम् ||७|| नरसिंहादयो भावा द्वैरूप्येणाऽभ्युपेता हि । तेषामपि द्विरूपत्वं भाविकं चैव विद्यते ||८|| कथञ्चिदसन्दोहयतिरिक्ताः स्वभावत: । अतो न सर्वथा नानात्वमाबिभ्रति ते खलु ||९|| नानात्वं स्यात्कुतोऽखण्डाकारावभासनं तदा । तदेकदेशकर्षे कुतो नाऽन्य भागकर्षणम् ||१०|| नृसिंहभागानुस्यूतप्रत्यभिज्ञानहेतवः । ते चाऽणवः प्रकृत्यैवेत्यत्र मानं न विद्यते || ११|| एतेनैव प्रकारेण चित्ररत्नादयो मताः । द्रव्यैकत्वं विरुद्धं न चित्रपर्यायराशिभिः ||१२|| द्रव्यात्मनाऽनुगामित्वं पर्यायैर्व्यतिरेकिता । वस्तुत्वेऽपि ततो नैव सर्वं स्यात्सर्वकार्यकृत् ॥ १३॥ व्यवहारानुरोधेन तत्तदर्धक्रिया मताः । एकानेकस्वभावत्वेऽप्यर्थक्रिया न दुष्यति ||१४||" ←परः शङ्कते अथेति । 'चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । मिलिताभ्यां सामान्यविशेषाभ्यामेवेति 1 एवकारेण परस्पराs| सम्मिलितयोस्तयोः परस्परसम्मिलिततदुभयव्यतिरिक्तस्य जात्यन्तररूपस्य सामान्यविशेषत्वस्य च व्यवच्छेदः कृतः । तयोरेवेति । मिलितयोः सामान्यविशेषयोरेवेति । एवकारेण चाऽमिलिततदुभय-तदूव्यतिरिक्तसामान्यविशेषत्वयोर्व्यवच्छेदः कृतः । युगपदनु
इत्येवं प्रतिविधीयते ।
अथ मि. इति । यहाँ यह शंका हो कि 'नय कि दृष्टि से सामान्य और विशेष दो परिणाम और प्रमाण की दृष्टि से उन दोनों से भिन्न जातिविशेषरूप सामान्यविशेषात्मकत्व की कल्पना करने की अपेक्षा यही कल्पना करनी उचित महसूस होती है कि नयगोचर सामान्य और विशेष ही संमिलित हो कर एक काल में कथंचित् अनुवृत्तिबुद्धि और व्यावृत्तिबुद्धि को
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* सन्तानित्वेन जात्यन्तरत्वख्यापनम्
प्रमाणार्पणयैकत्वेन पर्यवसितयोराधारतया प्रतीयमानयोस्तयोरेव समुदायित्वेन तथात्वमुत्पश्यामः । अंशांशिनोर्विवक्षाभेदेजैव भेदात् परमार्थतो भेऽशांशिभावाऽसम्भवात् । यथा हि कणानामेव समुदितानां राशित्वं, असमुदितानां तु तदेकदेशत्वं तथाऽञाऽपि भावनीयमिति दिक् । अत्र दृष्टान्तमाहुः - विरुदेति । विरुद्धानां परस्परकरम्बितस्वभावानां वर्णानां = नीलपीतादीनां योग: समावेशः, हि = यतः दृष्टः = प्रमाणसिद्धः, मेचकवस्तुषु = नानारूपवद
=
* जयलता
वृत्तिव्यावृत्तिधीव्यवहारकृते जात्यन्तरात्मकस्य मिलितसामान्य-विशेषव्यतिरिक्तस्य नयसमूहात्मकप्रमाणसम्मतस्य सामान्यविशेषत्वस्य कल्पनमनावश्यकमित्यथाशयः ।
नयभेदेनाऽनेकविधत्वेन सिद्धयोरपि प्रमाणेनैकत्वविधया फलितयोः सामान्यविशेषयोराधारत्वेन प्रतीयमानत्वात् सन्तानित्वविधया जात्यन्तरत्वमित्याशयेन प्रकरणकृत्समाधत्ते प्रमाणार्पणया प्रमाणविवक्षया, एकत्वेन = अभिन्नत्वेन रूपेण, पर्यवसितयोः = प्रसिद्धयोः आधारतया = धर्मित्वेन रूपेण प्रतीयमानयोः तयोः = सामान्यविशेषयोः एव समुदायित्वेन अंशत्वेन तथात्वं जात्यन्तरत्वमिति । सामान्यविशेषयोः प्रमाणावतारेऽभिन्नत्वं तयोर्धर्मित्वेन ज्ञायमानत्वात् । धर्मित्वेन ज्ञायमानत्येऽपि धर्मरूपेण तयोरेव जात्यन्तरत्वम् । न च वस्त्वंशभूतस्य सामान्यस्य विशेषस्य वा कथं ततोऽभिन्नत्वं येन तयोस्ततोऽभिन्नत्वमित्याशङ्कनीयम्, वस्त्वंशस्य वस्तुतो वस्तुनो भिन्नत्वेऽपि विवक्षाविशेषेणैव तद्भेदादित्याशयेन प्रकरणकृदाहअंशांशिनोः = वस्तु-तदेकदेशयोः विवक्षाभेदेनैव भेदात् = परस्परं भिन्नत्वात् । एवकारफलमाह - परमार्थतः = वस्तुगत्या, वस्तु तदेशयोः परस्परं भेदे अभ्युपगते सति तयोः अंशांशिभावाऽसम्भवात् । न हि वस्तु तदेकदेशयोः परस्परं सर्वथा भेदे सत्यंशांशिभावः सम्भवति, अन्यथा विन्ध्यहिमाचलयोरपि परस्परमंशांशिभावप्रसङ्गात् । समुदायसमुदायिनोः कथं वस्तुतोऽभेदः सम्भवतीत्याशङ्कायामाह - यथेति । अत्राऽपि भावनीयमिति । सामान्यविशेषयोः समुदितयोः वस्तुत्वं बुद्ध्या पृथक्कृतयोः तयोरेव वस्त्वेकदेशत्वमित्येवं भावना कार्येत्यर्थः ।
:
4
=
=
=
ननु सामान्य-विशेषयोः परस्परं विरुद्धत्वेन कथमेकत्र धर्मिणि तदुभयसमावेशो घटामश्चेदित्याशङ्कायामाह्- अत्र = सामान्यविशेषयोरेकत्र समावेशे, दृष्टान्तमाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरय इति शेषः । विरुद्धानां = विरुद्धत्वेन पराभिमतानां परं वस्तुगत्या परस्परकरम्बितस्वभावानां = अन्योऽन्यानुरक्तशीलानां वर्णानां नीलपीतादीनां समावेशः प्रमाणसिद्धः = लोकप्रसिद्धप्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धः, एकत्रैव मेचकवस्तुध्विति । नीलपीतादीनां विरुद्धत्वं परस्परकरम्बितस्वभावत्वञ्चाऽभिधीयमानं कथं
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उत्पन्न करते हैं । अतः समानपरिणाम और असमानपरिणामरूप सामान्य और विशेष को ही जातिविशेषात्मक मानना युक्त है । सामान्य और विशेष से अतिरिक्त सामान्यविशेषत्वरूप जातिविशेष की कल्पना करने में गौरव है' <- तो यह भी असंगत है। इसका कारण यह है कि प्रमाण की विवक्षा होने पर एकत्वेन अभिरूप से फलित होते हुए और आधारत्वरूप से प्रतीयमान समान परिणाम और असमान परिणाम ही समुदायीरूप से जातिविशेषात्मक बनते हैं। यही हमें (= प्रकरणकार महामहोपाध्यायजी को) संगत लगता है । अंश और अंशी में वस्तुतः विवक्षाभेद से ही भेद है, न कि परमार्थ से । यदि अंश और अंशी के बीच परमार्थ से भेद मान जाय तब तो विंध्याचल और हिमालय की भाँति उन दोनों के बीच अंशांशिभाव
अवयवाऽवयवभाव ही नामुमकिन हो जायेगा। अतः उन दोनों के बीच कथंचित् अभेद मानना युक्त ही है। जैसे धान्यकण इकट्ठे होते हैं, तब वे राशि या समुदाय कहलाते हैं और जब वे स्वतंत्र होते हैं तब समुदाय का एक देश कहलाते हैं । ठीक वैसे ही सदृश परिणाम और असदृश परिणाम परस्पर मिलित होते हैं, तब समुदाय या वस्तु कहलाते हैं । मगर जब बुद्धि से वे अलग किये जाते हैं, तब वे वस्तु के एक देश कहलाते हैं। इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है । यह तो एक दिग्दर्शनमात्र है। इस बात की सूचना देने के लिए प्रकरणकार ने दिक् शब्द का प्रयोग किया है। चित्र घट में नीलपीतादिवर्ण परस्परानुविन्दस्वभाववाले होते हैं
अत्र दृ. इति । यहाँ यह प्रश्न हो कि
'सामान्य और विशेष तो परस्पर विरुद्ध होने की वजह एक धर्मी में कैसे समाविष्ट हो सकते हैं ?' - तो इसका समाधान देने के लिए मूलकार श्रीमद् हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा वीतरागस्तोत्र के अष्टम प्रकाश की सातवीं कारिका के उत्तरार्ध में यह बताते हैं कि नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को प्रतिवादी परस्परविरुद्ध मानते हैं मगर फिर भी वे परस्परमिलितस्वभाव वाले होते हैं । अतएव अनेकविध वर्ण से आरब्ध अवयवी में, जिन्हें मेचकवस्तु
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५४३ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का.. * अतिरिक्तचित्ररूपानङ्गीकारः * | वयवाऽऽरब्धावयविषु । नीलपीतादीनां परस्परकरम्बितस्वभावं विना 'एकश्चिमो घटः' इति || विलक्षणप्रतीत्यनुपपत्तेः ।
अर्यतत्प्रतीत्यनुरोधान्चित्रमतिरिक्तमेवास्त्विति चेत् ? न, नीलत्वादिनापि तत्प्रतीतेः । परम्परयाऽवयवनीलादिकमेव तत्प्रतीतेविषय इति चेत् ? तहवयवानामेवाऽवयवितया
== ==* जयलता * ----- सम्भवेदि त्यागढ़ायामाह- नीलपीतादीनां परैविस्न्द्रत्वेनाऽङ्गीकृतानामपि वस्तुत: परस्परकरम्बित्तस्वभावं = इतरेतरानुविद्धशीलं बिना एकत्रित्रो घट' इतिविलक्षणप्रतीत्यनुपपत्तेरिति । न हि नानावर्णानामेकत्र प्रमितिः परस्परानुधमृते सम्भवतीत्याशयः ।
___ पर; शङ्कते - अधेति । एतत्प्रतीत्यनुरोधात् = 'एकश्चित्रो घट' इति प्रतीतिबलात, चित्रं = चित्रपदवाच्यं रूपं, अतिरिक्तमेव = नीलपीतादिव्यतिरिक्तमेव अस्तु । तथा च नैकत्र धर्मिणि नीलपीतादीनि, तदा 'अपं घटोऽत्र नीलः तत्र च पीतः' इत्यादिप्रतीतिर्नवोपपद्येत । तदन्यथानुपपत्त्या अवयविन्यपि नीलपीतार्दानि रूपाणि स्वीकार्याणि, अन्यथानुपपत्ते: सर्वतो बलवत्त्वादित्याशयेन प्रकरणकार: प्रतिकरोति - नेति । नीलादिनाऽपि, किमुत चित्रत्वेनेत्यपिशब्दार्थः, तत्प्रतीते: = अवयविवर्णप्रत्ययात् । यदि चाऽवयविनि चित्रमेव रूपं स्यात् तर्हि 'चित्रोऽयं घट' इत्येव प्रतीयेत, न तु 'अत्राऽयं नील' इत्यादिकम् । अतो नाऽवयविनि क्लुप्तनीलादिव्यतिरिक्तचित्ररूपमभ्युपगन्तब्यमित्यभिप्रायः ।।
ननु 'चित्रोऽयं घट' इतिधीबलादतिरिक्तचित्ररूपसिद्धौ ‘अत्राऽयं नीलस्तत्र च पीत' इत्यादिप्रतीतिस्त्ववयवसमवेतनीलपीतादिवगैरवोपपद्येत, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयवनीलादिरूपाणामवयविनि सत्त्वात् । ततश्च न चित्रपटादौ समवायेन नीलपीतादिस्वीकारः प्रामाणिक इत्यभिप्रायेण चित्ररूपवादी शङ्कते- परम्परयेति । स्वसमवायिसमवेतत्वलक्षणमरम्परासंसर्गेण । स्वपदवाच्यानां नीलपीतादिरूपाणां समवायिष्ववयवेषु अवयविनो घटादेः समवेतत्वान्निरुक्तसंसर्गेण अवयवनीलादिकमेव = कपालादिसमवेतनीलपीतादिरूपमेव, तत्प्रतीतेः = 'घटोऽयमत्र नीलोऽपरभागे च पीत' इतिधियः विषयः, न तु घटसमवेतनीलपीतादिकमित्येवकारार्थः । वर्णादाप्यवृत्तित्वेन चित्ररूपसमवायिन्यवयविनि न तद्विरुद्धानां नीलपीतादीनां सम्भव इति चित्ररूपवादिनोऽभिप्रायः । प्रकरणकत्समाधत्ते- तहीति । 'एतानि कपालान्येव घटतया परिणतानी'त्यादिप्रतीत्या
कहते हैं, नाश नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का समावेश होता है, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से प्रसिद्ध है। प्रतिवादी नैयायिक वगैरह नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को परस्परविरुद्ध मानते हैं। मगर वस्तुतः वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, किन्तु परस्परमिश्रितस्वभाव वाले होते हैं। यदि उन्हें परस्परानुविद्धस्वभाव वाले न माने जाय, तब तो 'यह एक घट चित्ररूपवाला है' इत्यादि प्रतीति ही अनुपपन्न बन जायेगी । एक ही घट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण के नहीं मानने पर तो 'नीलो घटः पीतो घटः, रक्तो घटः' इत्यादि प्रतीति होगी, न कि 'यह घट चित्ररूप वाला है' इत्याकारक प्रतीति । मगर 'शरलोऽयमेको घटः' इत्याकारक प्रतीति प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक होने की वजह नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को परस्परमिश्रितस्वभाववाले मानने आवश्यक हैं। जैसे नील, पीत, रक्त आदि वर्ण परस्परानुविद्धस्वभाववाले होते हैं, ठीक वैसे ही प्रत्येक वस्तु में सामान्य, विशेष आदि भी परस्परानुविद्ध स्वभाववाले ही होते हैं। अतः एक धर्मी में उनका समावेश मानने में कोई विरोध आदि दोष नहीं है . यह फलित होता है।
ev चित्र रूप सर्वथा अतिरिक्त नहीं है ५४ अर्थत, इति । यहाँ यह नैयायिकवक्तव्य कि -> "यदि उपर्युक्त 'एक: चित्रो घटा' इस प्रतीति को प्रामाणिक ही | मानी जाय, तर तो उस प्रतीति के बल से ही आपको अतिरिक्त चित्र रूप का स्वीकार करना पड़ेगा, जो नील, पीत, रक्त आदि प्रत्येक वर्ण से सर्वधा मिन ही होगा । अगर यह स्वीकार किया जाय, तब तो नील, पीत, रक्त आदि अनेक वर्ण को परस्परमिश्रित स्वभाव वाले मानने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उस यट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण नहीं हैं, किन्तु एक ही चित्र वर्ण है' -भी असंगत है। इसका कारण यह है कि चित्र घट में केवल एक चित्र वर्ण का ही स्वीकार किया जाय, तर तो घट के एक देश में 'यह नील है', अन्य भाग में 'यह पीत है', इतर अंश में 'यह रक्त है' इत्यादि प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि आप नैयायिक महाशय चित्र घट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का स्वीकार करते ही नहीं हैं । मगर उपर्युक्त नीलत्वादिप्रकारक प्रतीति तो चित्र घट में भी होती ही है, यह तो सर्वजनविदित है । इन प्रतीतियों की अन्यथा अनुपपत्ति से चित्र घट में भी नील, पीत, रक्त आदि अनेक वर्ण का स्वीकार करना उचित है। अतएव उन नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को परस्परमिश्रित स्वभाव वाला भी मानना होगा । यहाँ यह शंका हो कि->
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* चित्रपदप्रवृत्तिनिमित्तनिरूपणम् * परिणमनासिन्दमवयविन्यपि नीलादिकं, उतनीलविशिष्टोद्भुतपीतादिना चित्रत्वव्यवहाराच्च | नोभूतनीलमात्रवति तदापत्ति: । सामान्यतस्तु चित्रपदादूपविशिष्टरूपत्वेनैव बोधस्तेन नाऽ
== === ===* जयलता * अवयवानामेव अवयवितया परिणमनात् परिणामपरिणामिनो: स्यादभेदात् सिद्धं अवयविनि घटादी अपि नीलादिकम् ।। स्ववृत्तेः स्वाऽभिन्नवृत्तित्वेऽविवादात् । साक्षात्सम्बन्धेन निरुक्तप्रतीतेरुपपत्तौ परम्परासम्बन्धकल्पने मानाभावात, गौरवाच ।
नन्यवयविनि चित्ररूपं तिरस्कृत्य नीलपीतादिवर्णाभ्युपगमे कथं 'एकोऽयं चित्रो घट' इतिप्रतीतेर्व्यवहारस्य चोपपत्तिः ? नीलादेरेव तत्प्रतीतिविषयत्वे कथं न नीलमात्रयत्पवयविनि चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारप्रसङ्गः ? इत्याशङ्काद्वयं 'एकेनैव शस्त्रेगोभयन्याहतिरिति न्यायेनाऽपाकर्तुमुपक्रमते - उद्भूतनीलविशिष्टोद्भुतपीतादिनेति । चित्रत्वब्यवहाराचेति । चकारेण चित्रत्वप्रकारकप्रतीतेरुपग्रहः । प्रतिस्कन्धं पञ्चवर्णानामभ्युपगमात्सर्वस्कन्धे चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारनिराकरणार्धमुद्भूतेत्युक्तमुभयत्र, तेन नानुभूतनीलविशिष्टोद्भूतपीतादिमति अनुभूतनीलविशिष्टानुभूतपीतादिमति बा चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारप्रसङ्गः । वैशिष्टयञ्च समवायेनाऽपृथग्भावसम्बन्धेन वा गाहां तेन नानिपसङ्गः । एतेनातिरिक्तचित्ररूपाऽनङ्गीकारे 'चित्रोऽयं घट' पत्तिरांपे प्रत्युक्ता । दोषान्तरमपाकरोति - नोद्भूतनीलमात्रवति तदापत्तिः = चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारप्रसङ्गः, तनिमित्तीभूतोद्भूतनीलविशिष्टोद्भूतपीतादेर्विरहात् । अत एव 'चित्रो द्विरेफ' इत्यादेर्व्यवहाराऽसत्यत्त्वमुपवर्णितं सङ्गच्छते, व्यावहारिकसत्यत्वनिमित्तविरहात, तत्र पीतादेरनुद्भूतत्वात् ।
ननु तथापि सर्वत्र भवन्नये उद्भूत शुक्लविशिष्टोद्भूतपीतादेरुदस्वित् उद्भूतपीतविशिष्टोद्भूतशुक्लादेरित्यत्र विनिगमनाविरहात्तनिमित्ताननुगमस्य दुरित्वम् । अत एव चित्रपदजन्यप्रतीतिनिरूपितविशेष्यताया अवच्छेदकमुद्भूतनीलविशिष्टोद्भूतपीतत्वादिकमुद्भूतपीतविशिष्टोद्भुतनीलत्वादिकं वा ? इत्यत्रापि विभिगमनाविरहोऽपरिहार्य इत्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह - सामान्यतस्विति ।
3'चित्र घट में जो नील, पीत, रक्त आदि वर्ण की प्रतीति होती है, वह वस्तुतः घटसमवेत वर्ण को अपना विषय नहीं बनाती है, किन्तु घट के अवयव कपाल में समवेत नीलादि वर्ण को अपना विषय बनाती है। घर में स्वाश्रय-समवेतत्वसम्बन्धात्मक परम्परासंसर्ग से नीलादि वर्ण का भान होता है। स्व - कपालवर्ण के आश्रय = कपाल में घट समरेत होने से स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्ध से कपालवर्ण घट में रहते हैं । निरुक्त परम्परासम्बन्ध से ही चित्र घट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का भान होता है' - तो यह भी अनुचित है, क्योंकि फिर भी अक्यच ही अश्यवी के स्वरूप में परिणत होने से अवयवगत वर्ण अवयवी | में भी साक्षात् सम्बन्ध से ही रह सकता है। आशय यह है कि 'ये कपाल ही घट हो गये' इत्याकारक प्रतीति सर्वजनविदित है, जो अवयव-अवयनी में परिणाम-परिणामिभाव को अपना विषय बनाती है। जिनके बीच परिणाम-परिणामिभाव होता है, वे परस्पर कथंचित् अभिन्न होते हैं । अतः नैयायिक मनीपी कपाल में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का स्वीकार करते हैं, वे कपालाभित्र घट में भी सिद्ध हो जाते हैं। अतएव चित्र अवयवी घट आदि में भी अनेक वर्ण का समावेश सिद्ध होता है। यहाँ इस शंका का कि → 'यदि अवयवी घट आदि में नील, पीत, रक्त आदि अनेक वर्ण माने जाय और उनसे अतिरिक्त चित्र वर्ण न माना जाय तर तो 'चित्रोऽयं घटः' इत्यादि व्यवहार एवं प्रतीति कैसे हो सकेगी ?' - समाधान यह है कि चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं व्यवहार का निमिन अतिरिक्त चित्र वर्ण नहीं है, किन्तु उद्भूतनीलवर्णनिशिष्ट पीत रूप आदि है । घट में साक्षात् संबन्ध (समवाय या अपृथग्भाव) से नील, पीत, आदि अनेक उद्भूत रहते हैं । अतः साक्षात्संबन्धघटित सामानाधिकरण्यसंपन्ध से उद्भुतनीलवर्णविशिष्ट पीत वर्ण आदि घट में रहने से तन्निमित्तक चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं व्यवहार निराबाध हैं। उद्भुतशब्द का विशेषणविधया निवेश करने का प्रयोजन यह है कि जैनागम के अनुसार प्रत्येक बादर स्कन्ध में पाँच वर्ण रहते हैं। अतः नीलविशिष्टपीत वर्ण आदि को चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं व्यवहार की आपत्ति मुंह फाड़े खड़ी रहती है। उसके निवारणार्थ 'उद्भूत' ऐसा कहा गया है। केवल उद्भूतनीलवर्ण-वाली वस्तु में भी वही आपत्ति ज्यों कि त्यों बनी रहती है । अतः उद्भूतनीलविशिष्ट उद्भूत पीत वर्ण आदि को उसका निमित्त माना गया है । अब बह आपत्ति नौ-दो-ग्यारह हो जाती है, क्योंकि केवल उद्धत नीलवर्णवाली वस्तु में सामानाधिकरण्य संबन्ध से उतनीलवर्णविशिष्ट उद्भूत पीत वर्ण नहीं है, जो चित्रत्वप्रतीति एवं तथाविध व्यवहार का निमित्त है।
IF रूपविशिष्टस्वपत्त चित्रपदप्रतिनिमित्त है - स्यादादी ! सामा. इति । यहाँ यह ध्यातन्य है कि 'चित्रोऽयं बटः' इत्यादि वाक्य को सुन कर सामान्यतः उद्भुतनीलवर्णविशिष्ट % 3DD . -. -.
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५४६ माध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ - का.७
* विवरणेऽपीनरुक्त्यम्
ननुगमः ।
अथैवं चित्रो घटो रूपविशिष्टरूपवानिति सहप्रयोगो न स्यादिति चेत् ? न, विवरणादिरूपतया तदुपपत्तेः ॥७॥ अथानेकान्ते परेषामपि संमतिमुपदिदर्शयिषव: प्रथमतस्ताथागतसंमतिमाविष्कुर्वान्ते ->
==. जयलता * चित्रपदात् = चित्रपदं श्रुत्वा, रूपविशिष्टरूपत्वेनैव = उद्भूतरूपविशिष्टाऽपरोद्भूतरूपत्वेनैव बोधः = शाब्दबोधः न तूद्भूतनीलविशिष्टपीतत्वादिना उद्भूतपीतविशिष्टनीलारादिलोवकारर्थ: । न ... दिपायजन्य अपमिशिष्टरूपत्वप्रकारकशाब्दबोधाभ्युपगमेन न चित्रपदजन्यशाब्दबोधविशेष्यतावच्छेदके अननुगमः । एतेन चित्रपदप्रवृत्तिनिमिनाननुगमोऽपि प्रत्याख्यातः । न : हि 'चित्रो घट' इति वाक्यात् उद्भूतनीलविशिष्टोद्भुतपीतत्वादिप्रकारिका उद्भूतपीतविशिष्टोद्भुतनीलत्वादिप्रकारिका वा शाब्दी प्रमोपजायते किन्तूद्भुतरूपविशिष्टापरोद्भूतरूपप्रकारिकैव । न च लाघवाच्चित्रत्वमतिरिक्तमेवाभ्युपगन्तव्यं, न तूद्भूतरूपविशिष्टापरोद्भूतरूपत्वं गौरवादिति वक्तव्यम्, लक्ष्यतावच्छेदकत्वस्येव शाक्यतावच्छेदकत्वस्यापि गुरुधर्मे स्वीकारात् । न हि निरुक्तविशिष्टरूपत्वं विहायातिरिक्तं चित्रत्वं स्वप्नेऽपि प्रतीयते प्रेक्षावद्भिः ।
परः शकते - अथेति । एवं = रूपविशिष्टरूपत्वस्यैव चित्रपददशक्यतावच्छेदकत्वेऽभ्युपगम्यमाने, 'चित्रो घटो रूप| विशिष्टरूपवानि ति सहप्रयोगः = रूपविशिष्टरूपवत्पदसमभिव्याहृतचित्रपदप्रयोगः न स्यात्, पौनरुक्त्यात् । अतः चित्र । रूपमतिरिक्तमेवेत्यथाभिप्राय: । प्रकरणकृत्तन्निराकरोति - नेति । विचरणादिरूपतया तदुपपत्तेः = प्रदर्शितवाक्यप्रयोगस्य सम्भवात् । तत्समानार्थकपदान्तरेण तदर्थकथनं विवरणमुन्यते । यथा 'नात्रालोकः किन्तु तम' इतिप्रयोगो विवरणेच्छयोचरितत्वेनाऽदुष्टः तथैव 'चित्रो घटो रूपविशिष्टरूपवानिति प्रयोगोऽपि दोषानावह इति भावः । ततश्च नास्ति नीलपीतादित: सर्वधा व्यतिरिक्तं विजातीयं चित्ररूपमिति प्रघट्टकार्थः ।
अष्टमकारिकाप्रस्तावार्थमुपक्रमते . अथेति । परेषां = अनेकान्तद्वेषिणामेकान्तवादिनां, अपि संमतिमुपदिदर्शयिषवः
%3
:
-
-
उद्भूतपीतवर्णत्वरूप से चित्र वर्ण का भान घट में नहीं होता है किन्तु रूपविशिष्टरूपत्व प्रकार से ही चित्र वर्ण का बोध होता है। अतः चित्रपदजन्य प्रतीति का प्रकार कभी उद्भुतनीलविशिष्ट उद्भुतपीतत्व आदि बनने की वजह जो अननुगम दोष प्रसक्त होता था, वह निराकृत हो जाता है । 'घट का वर्ण चित्र है' इस वाक्य से यट में अनेक रूप का यानी एकरूपसमानाधिकरण अपर रूप का ही भान होता है-यह तो सर्वविदित ही है। अतः चित्रपद के प्रवृत्तिनिमित्तविधया रूपविशिष्टरूपत्व का ही स्वीकार करना उचित है, न कि नीलत्वादि से व्यतिरिक्त चित्रत्व जाति का . यह फलित होता है। यहाँ यह शंका करना कि -> "यदि चित्रपद का प्रवृत्तिनिमित रूपविशिष्टरूपत्व है, तब तो 'चित्रो घटो रूपविशिष्टरूपवान्' इत्यादि स्थल में चित्रपट
और रूपविशिष्टरूपवान् पद का सहप्रयोग = एक वाक्य में पूर्वोत्तर प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि रूपविशिष्टरूप पद से जिस वर्ण का भान कराना है उसका भान नो चित्रपद से ही हो चुका है। मतलब कि 'शुक्लो घटः कुम्भः' यह वाक्य जैसे पुनरुक्ति दोष से ग्रस्त है, ठीक वैसे ही उपर्युक्त वाक्यप्रयोग भी पुनरुक्तिदोष से कलंकित होगा । अतः चित्रपद के प्रवृत्तिनिमित्तविधया अतिरिक्त चित्रत्व जाति का स्वीकार करना होगा, जो रूपविशिष्टरूपत्व से भिन्न होने की वजह उपर्युक्त वाक्य से जन्य शान्दबोध को अधिकांशावगाही बनायेगा। फलतः पुनरुक्ति दोप का निवारण हो जायेगा" - भी नामुनासिब है, क्योंकि उपर्युक्त सहप्रयोग की उपपत्ति तो उक्त वाक्य को विवरणरूप मानने से भी हो सकती है। मतलब यह है कि 'घटपदार्थ क्या है ?' इस जिज्ञासा के समाधानार्थ 'घटः कुम्भः' इत्याकारक वाक्यप्रयोग होता है, जो विवरणात्मक होने की वजह पुनरुक्ति दोष का आपादक नहीं है । विवरण का अर्थ है 'तत्समानार्थकपदान्तरेण तदर्थकथनं' यानी तत् पद का जो अर्थ है, उसके समान अर्थ के वाचक अन्य पद से उसी अर्थ का कथन करना । प्रस्तुत में चित्रपद का प्रयोग होने के बावजूद भी रूपविशिष्टरूपवान् पद का प्रयोग निरुक्त विवरणस्वरूप होने की वजह पुनरुक्ति दोप का आक्षेपक नहीं है । अतः रूपविशिष्टरूपत्व को चित्रपद का प्रवृत्तिनिमित्त मानने में कोई क्षति नहीं है - यह ध्वनित होता है ॥७॥
E Iodi कारिका की त्यास या EX अथा. इति । सातवी कारिका में नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मयुगल का एक धर्मी में समावेश सिद्ध कर के अनेकान्तवाद की प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतिष्ठा की गई है। अब मूलकार श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अन्य दर्शनीओं की अनेकान्तबाद में
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विज्ञानेति ।
** वीतरागस्तोत्रावचूर्ण्यादिसंवादः **
विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकास्करम्बितम् ।
इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥८॥
विज्ञानस्य = संविदः, एक आकारं = स्वरूपं, नानाकारकरम्बितं = चित्रपटाद्यनेकाकारमिश्रितं, इच्छत् = अभ्युपगचान तथागत: : चौदः, नानेकान्तवादं प्रतिक्षिपेत् = निराकुर्यात् । तस्याऽनेकान्तवादनिराकरणं न बलवदनिष्टाननुबन्धीत्यर्थः । यदि प्रतिक्षिपेत्तदा प्राड्ा: = प्रकर्षेण अज्ञः = भान्त एव । यदि तु प्राज्ञः = पंडित: अभ्रान्त इति यावतदा न प्रतिक्षिपेदेव । स हि परमाण मानाभावात् तत्सिदयधीनस्थूलावयवित्वस्याऽप्यसिदेः
=
* जयलता
स्याद्वाद न
श्रीहेमचन्द्रसूरयः, प्रथमतः ताथागतसंमतिं = योगाचाराभिधानबौद्धविशेषस्वीकृतिं आविष्कुर्वन्ति विज्ञानेति । सोपयोगित्वात्सङ्क्षिप्तत्वाचात्राऽन्यव्याख्यां दर्शयामः । वीतरागस्तोत्रावचूर्णी -> 'विज्ञानस्यैकमाकार विचित्रा ये आकार घटादीनां तैः करम्बितं = स्वरूपं, नाना = मिश्रं इच्छन् = अभिलषन्, तथागतः - बौद्धः अनेकान्तं प्रतिक्षिपेत् = उत्थापयेत् । कथम्भूतः ? प्राज्ञः = ज्ञाता, प्रकर्षेण अज्ञः = मूर्खोऽपि यतः स्याद्वादं स्वीकुर्वंस्त्वां नोपास्ते' (वी. स्तो. अब.पू. ८२) इत्युक्तम् । वीतरागस्तोत्रविवरणे च 'विज्ञानस्य संबिद एकमेव स्वरूपं नानाचित्रपटाद्यनेकाकारमिश्रं समभिलषन् बौद्धो नानेकान्तं निराकुर्यात् । अत एव प्राज्ञः । ज्ञानाद्वैतवादिनां हि मते एकमेव चित्रज्ञानं ग्राहकं तस्य | चांशा ग्राह्या इत्येकस्यैव ग्राह्यत्वं ग्राहकत्वञ्चाभ्युपगच्छन् कथमनेकान्तवादं निराकुर्यात् ? यदि प्रकर्षणाऽज्ञो न स्यात् । यत एकत्र चित्रपटीज्ञाने नीला नीलयोः परस्परविरुद्धयोरप्यविरोधेनोररीकारात् । तस्मात्ताथागतैरभ्युपगत एव स्याद्वादः ' (वी. स्तो. वि. पृ. ८२ ) व्याख्यातम् ।
- इति
=
यदि प्रतिक्षिपेत् स्याद्वादं तदा प्राज्ञः प्रकर्षेणाऽज्ञः भ्रान्त एव, एकाकारे ज्ञानेऽनेकाकारानभ्युपगम्य आपेक्षिकविरुद्धधर्मविभूषिनधर्मिप्रतिपादकस्याद्वादप्रतिक्षेपे 'निन्दामि च पिवामि चे 'ति न्यायापातेन देवानांप्रियत्वं स्पष्टमेव ! अभ्रान्तत्वस्यानेकान्तवादाऽप्रतिक्षेपित्वव्याप्यत्वसमर्थनार्थमाह स इति । अस्य 'ज्ञानाद्वैतमेव स्वीकुरुत" इत्यनेनान्वयः । तत्र हेतूनावेदयति परमाणौ मानाभावादिति । पूर्वदिगवस्थितो यथा परदिगवस्थितेन परमाणुना परदिगवच्छेदेनावृत उत्पन्नस्तथैव किं पूर्वदिगवच्छेदेनाऽपि न वा उभयथा वा ? इति विकल्पय समुपतिष्ठते । तत्र नाद्यः सम्यकू, उभयतोऽप्यनुलब्धिप्रसङ्गात् । नापि द्वितीयः, उभयतोऽप्युपलम्भापत्तेः । तृतीये पुनर्विरोध इति नास्ति परमाणुः । तदभावे च कुतः | तदूर्घटिताऽवयविनः सिद्धि: : इत्याह - तत्सिद्ध्यधीनस्थूलावयवित्वस्य : परमाणुसिद्धघुपजीवकस्य स्थूलावयवित्वस्य, अपि सम्मति बताने की इच्छा से सर्वप्रथम तथागत = बौद्ध की संगति को आउवीं कारिका में प्रकट करते हैं । कारिका का सामान्य अर्थ यह है कि अनेक आकार से मिश्र एक आकार वाले विज्ञान को मान्य करने वाला प्राज्ञ बौद्ध अनेकान्तवाद का प्रतिक्षेप नहीं कर सकता । प्रकरणकार श्रीमद् महोपाध्यायजी महाराज इस कारिका में निहित अर्थ का अविष्कार करते हुए कहते हैं कि विज्ञान यानी संवेदन के एक स्वरूप को चित्रपट आदि अनेक आकार से मिश्रित मानने वाला बौद्ध अनेकान्तवाद का निराकरण नहीं कर सकता है । अर्थात् अनेकान्तवाद का निराकरण बौद्ध के लिए बलवदनिष्ट का अननुबंधी नहीं है । आशय यह है कि ग्राहकत्वरूप से ज्ञान का एक स्वरूप होने पर भी नील, पीत, आदि अनेक स्वरूप भी है यह मान्यता अनेकान्तवाद का अवलम्बन करने पर ही स्थिर हो सकती है। अपने सिद्धान्त की नींव अनेकान्तवाद को तिरस्कृत करने का मतलब यही हुआ कि वह तिरस्कार अपने पाँव पर ही कुठारप्रहारतुल्य है । अतएव वह बलवान् अनिष्ट का अनुबंधी होगा । बलवदनिष्ट के अनुबन्धी स्याद्वादप्रतिक्षप करने पर तो बौद्ध (= योगाचार ) प्राज्ञ यानी प्रकर्ष से अज्ञ हो जायेगा, क्योंकि अपसिद्धान्त दोष का आश्रय बुद्धिमान् नहीं करता है, किन्तु मूर्ख ही करता है । यदि बौद्ध प्राज्ञ यानी पंडित अभ्रान्त होगा, तब तो वह सापेक्षवाद का निराकरण कभी भी नहीं करेगा ।
= भ्रान्त
* ज्ञानादैवसिदि
स हि इति । यहाँ योगाचार बौद्धविशेष का यह मत है कि ज्ञान से अतिरिक्त कोई भी पदार्थ नहीं है ।
=
५४६
1
=
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५५४७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का, * ज्ञानाद्वैतप्रतिपादने प्रमाणवार्तिकादिसंबादः * |' नीलादेः प्रतिभासत्वान्यथानुपपत्त्या विषयं विनापि वासनामात्रेण धियां विशेषाच्च ज्ञानादैतमेव स्वीकुरुते । तच्च ज्ञानं ग्राहकतयैकस्वभावमापि याह्यतयाऽनेकीभवतः स्वांशान्
..........- ---====* nical असिद्धेरिति ।
नन्वेवं विषयस्यैवाऽसिद्धी तत्सिद्धयश्रीनसिद्धिकस्य विषयगो ज्ञानस्याऽप्यसिद्धिरेवेत्याशङ्कायामाह- नीलादेः प्रतिभासत्वाऽन्यथानुपपन्या विषयं विनापि बासनामात्रेण = केवलं वितथविकल्पेन धियां विशेपाच ज्ञानाद्वैतमेव स्वीकुरुत इति । यदि हि विषयवत् ज्ञानमपि न स्यात् तर्हि प्रसिद्धप्रतिभासोऽपि नैव सम्भवेत् । न चैवम् । अतो ज्ञानमभ्युपगन्तव्यमेब, नीलादयस्तु तदाकारा एव न तु तद्व्यतिरिक्ताः सहोपलम्भादेः । तदुक्तं प्रमाणवार्त्तिके - नीलादिश्चित्रविज्ञाने ज्ञानोपाधिश्चानन्यभाक् । अशक्यदर्शनस्तं हि. पतत्यर्थे विवेचयन् ।। (प्र.या. ) इति । अयं तल्लेशार्थः -> यो नीलादिश्चित्रज्ञाने प्रतिभासते स ज्ञानोपाधिः ज्ञानविशेषणो ज्ञानात्मक इति यावत् । अनन्यभाक् = विज्ञानादन्यमर्थं न भजते, बाह्यवस्तुसमवेतो न भवति ज्ञानात्मभूतत्वात् । अत एव पीताकारविबेकेन केवलो नीलभागो न शक्यते द्रष्टुमित्यशक्यदर्शन उक्तः । यदि च नीलभागं पीतभागयिकेन पश्येत् पश्यन्नपि च विवेचयेत् प्रतिपत्ता पतत्यर्थे, ज्ञानात्मकः प्रतिपत्ता वस्तुन्येव प्रवृनो भवति, न त्वात्मभूते आत्मभूते वा कृष्णनीलादी प्रवर्तेत न वा क्वचिदपीति । न च विषयमृते ज्ञानाऽसम्भव इति वक्तव्यम् केशोण्डुकादिज्ञानस्य विषयं विनैव दर्शनात् । एतेन भ्रमगोचरस्य तत्राइसत्त्वेऽपि देशान्तरे सत्त्वान सर्वथाऽर्थाऽसिद्भिरित्यपि प्रत्युक्तम्, वन्ध्यापुत्रादिविकल्प तथाऽसम्भवात् । तदुक्तं योगसूत्रे 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:' (यो.सू. ) इति । अतो ज्ञेयाकारोऽपि ज्ञानस्वरूप एवेति न ज्ञानातिरिक्तज्ञेयसिद्धिः । तदुक्तं प्रमाणवात्तिकालङ्कारे - 'ग्राह्यग्राहकनीलायाकारा बुद्धिरेच चित्राद्वैत' (प्र.बा,अ. ) इति । ज्ञानाद्वैतनये कथमनेकान्ताभ्युपगम: ? इत्याशङ्कायामाह - तचेति । वासनामात्रप्रभवं ज्ञानं ग्राहकतया ग्रहणस्वभावतथा एकस्वभावमपि सत् ग्राह्यतया नीलाद्याकारविधया अनेकीभवतः स्वांशान्
ज्ञान से अतिरिक्त घट, पर आदि अवयविस्वरूप ज्ञेय पदार्थ अप्रामाणिक है, क्योंकि उनकी सिद्धि परमाणु की सिद्धि के अधीन है, जो प्रामाणिक नहीं है । परमाणु प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से सिद्ध नहीं है। यदि वह होता, तो वह चक्षु आदि से जन्य उपलब्धि का विषय होता । मगर चक्षु आदि से वह अनुपलब्ध होने से उसमें कोई प्रमाण नहीं है । जब परमाणु ही असिद्ध है, तब परमाणुसमहरूप या अनेकपरमाणुजन्य द्रव्यात्मक अवयवी भी असिद्ध हो जायेगा। अवयन के चिना अवयवी की सिद्धि कैसे हो सकती ? मगर विषय के बिना ज्ञान की असिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि नीलादिप्रकारक प्रतिभास की, जो सर्वजनविदित है. अन्यथा अनुपपत्ति होती है । अतः ज्ञान का अपलाप नहीं किया जा सकता। -> 'विषय के बिना ज्ञान में विशेषता नहीं हो सकती' - इस शंका का समाधान यह है कि वासनामात्र से ही ज्ञान में विशेषता हो सकती है। वितथ वासना के प्रभाव से ज्ञान में नील, पीत, रक्त आदि आकारविशेप की उपपत्ति होने से ज्ञान से अतिरिक्त ज्ञेय का स्वीकार करने में कोई प्रमाण नहीं है। अतएव ज्ञान ही केवल एक पारमार्थिक तत्त्व है। विशेषाकार : की संपादक वासना भी ज्ञान से अतिरिक्त नहीं है, किन्तु ज्ञानात्मक ही है । इस तरह ज्ञानाऽद्वैत की सिद्धि होती है। यह योगाचार नाम के बौद्धविशेष का मन्तब्य है।।
- योगाचार का स्याबाद में प्रवेश नच. इति । प्रकरणकार श्रीमद् कहते हैं कि उपर्युक्त रीति से ज्ञानाद्वैत का स्वीकार करने वाला बौद्ध एक ही ज्ञान में दो स्वभाव का स्वीकार करता है । ज्ञान में एक तो नील, पीत आदि का ग्राहकत्वस्वभाव है, जो एकस्वरूप ही है। दुसरा है ज्ञेयाकारस्वभाव । नील, पीत आदि ज्ञेयाकार भी झानस्वरूप होने से ज्ञान का स्वभाव ही है । नील, पीत आदि झेयाकार अनेक होने की वजह उससे अभिन्न ज्ञान भी अनेकात्मक हो जाता है । एक ही समुद्दालम्बन ज्ञान में नील, पीत, रक्त आदि अनेक ज्ञेयाकार का भान होता है । वे ज्ञेयाकार भी ज्ञान के अंशात्मक होने की वजह अनेकविध ज्ञेयाकार का ग्राहक ज्ञान भी अनेक स्वभाव वाला होता है । यह योमाचार चौद्ध का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त में अनेकान्तवाद का प्रतिबिंब स्पष्टतया प्रतीत होता है। ज्ञान में ग्राहकन्वरूप से एक स्वभाव और ग्राह्यत्वरूप से अनेक स्वभाव का स्वीकार सापेक्षवाद के अवलम्बन के बिना कथमपि संगत नहीं हो सकता। इस तरह ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्धविशेष का भी अनेकान्तवादी
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* स्याद्वादस्याऽनिराकार्यता * गुलदनेकमपीति कथं न तस्याऽनेकान्तवादिकक्षापरे प्रवेश: १ ॥८॥
-=-- = === = = Eजयलता * = गृहत् ज्ञेयाकाराऽभिन्नतया अनेकमपि भवतीति कथं न तस्य = योगाचारस्य अनेकान्तवादिकक्षा-पञ्जरे प्रवेशः ? सुतरां तत्र प्रवेश इत्यर्थः । न हि स्याद्वादमृते एकस्मिन् ज्ञाने एकानेकस्वभाबोऽभ्युपगम्यमानः सङ्गच्छते । तथापि स्याद्वादविद्वेषे 'तुरगारूढो तुरगं विस्मृतवान् भवानि ति न्यायापातः । ज्ञानाद्वैतनयनिरूपण-तदपाकरणे विस्तरतो बुभुत्सुभिः प्रमाण!! चार्तिक-तत्त्वसङ्ग्रह-हेतुबिन्दु-स्याद्वादकल्पलता-रत्नाकर-न्यायखण्डखाद्यादिकमभ्यसनीयमिति शम् ||८|| . .
इति महोपाध्यायश्रीयशोविजयविरचितस्य मध्यमपरिमाणोपेतस्य श्रीस्याद्वादरहस्यस्य मुनियशोविजयविरचितायां जयलताभिधानायां टीकायां द्वितीयः खण्डः ।
| की कक्षास्वरूप पिंजरे में प्रवेश हो ही जाता है । इससे स्याद्वाद की व्यापकता सिद्ध होती है ॥८॥
मध्यम स्याद्वादरहस्य की मुनियशोविजयरचित रमणीया व्याख्या का
द्वितीय खंड पूर्ण हुआ ।
IP
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- आचार्य
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परिशिष्ट-१ महोपाध्याय-न्यायाचार्य-श्रीमद्-यशोविजय-प्रकाशितम्
((लघु) स्याहादरहस्यम्
ऍकारस्फारमन्त्रस्मरणकरणतो याः प्रसर्पन्ति बाच:, स्वच्छास्ताः कर्तुमिच्छुः सकलसुखकरं पार्श्वनाथं प्रणम्य । राचाटानां परेषां प्रलपितरचनोन्मूलने बद्धकक्षो, बाचां श्रीहेमसूरेर्विवृतिमतिरसोल्लासभाजां तनोमि ॥१॥ अभ्यस्य तर्क स्याद्वादरहस्यं शस्ययुस्तिकम् ।
निरस्तदुर्नयं मार्गप्रवेशाय निबध्यते ॥२॥ ___ इह हि निखिलकुवादिकुतर्कसन्तमसच्छन्नं जगतः शुद्धनयलोचनमुन्मिमीलयिषवः श्रीहेमसूरयो यथावस्थितार्थव्यवस्थापनद्वारा || भगवतं स्तोतमपक्रमते "सत्त्वस्ये" ति ।
(मलावीतरागस्तोत्र काग-2) सत्त्वस्यैकान्तनित्यत्वे कृतनाशाऽकृतागमी ।
स्यातामेकान्तनाशेऽपि कृतनाशाऽकृतागमी ॥१॥ अत्र सत्त्वमेकान्तनित्यं न वेति न विप्रतिपत्तिः, एकान्तनित्यत्वकोट्यप्रसिद्धेः । किन्तु नित्यत्वमनित्यवृत्ति न वा, अनित्यत्वं नित्यवृत्ति न वेत्यादिरूपा । न चैवमपि तद्भावाऽव्ययत्वरूप नित्यत्वं परमते प्रसिद्धम, नित्यच्यवहारविषयत्वेनैव
सत्त्वस्य - पदार्थत्वेनोभयमतसंप्रतिपत्रस्य । उत्पादव्ययधीच्यात्मकस्येति व्याख्यानं तु स्वमतावष्टम्भेन शोभते, परमते धर्मितावच्छेदका निश्चयात् । एकान्तनित्यत्वं = अनित्यत्वाऽसम्मिन्ननित्यत्वे । कृतनाशी = घटादिपर्यायाणां कुम्भकारादिकृत्तानां सर्वथा नाशः स्यात्, अनित्यस्य नित्यत्वविरोधात् । एतच प्रत्यक्षविरुद्धं, पर्यायाणामपि द्रव्यार्थतोऽनाशात् । अयं दंड्यासीदितिबदिदं मृद्रव्यं घट आसीदिति प्रतीतेरेकस्यैवातीतविद्यमानत्वभानात, रूपभेदेनेवोभयधर्मसमावेशसंभवात् । न हि कम्युग्रीवत्वादिनेव मृत्त्वेनाऽपि घटो नष्ट इति कश्चित्प्रत्येति, प्रत्युत पूर्वमयमेव मत्पिण्डः (तत्) कम्बग्रीवत्यादिनासीदिति सर्वोऽपि प्रत्यभि||जानीते । न चेयं विशेषणाभावमेव विषयीकुरुते विशेष्ये नत्रर्धाऽन्वये बाधकाऽभावात, प्रतीतिप्रातिव्याच ।
यत्तु यदि ह्यतीतविशेषणावच्छेदेन विद्यमानस्यैव विशेष्यस्य ध्वंस: स्यात तदा क्षणरूपातीतविशेषणावच्छिन्नत्वेन प्रनिक्षणं । घटस्य विनाशः स्यादित्यभिदधे मणिकता, तत्तु तादृशक्षणभंगस्य दोषानावहत्त्वात् तदीयरेव दूषितम् । कश्चित्तु संसर्गावछिन्नकिश्चिद्धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्याऽभावस्याऽत्यन्ताभावत्वनियमात्र प्रागुक्तप्रतीतेर्विशेषणावच्छिन्नविशेष्याऽभावविषयत्वमिति, तत्तुच्छ, घटत्वस्य ध्वंसप्रतियोगिताऽतिरिक्तवृत्तित्वेऽपि प्रागुक्तविशेषणस्याऽतथात्वात्, यदत्पत्ती कार्यस्याऽवश्यं विपत्तिस्तस्य प्रध्वंसत्वाऽभ्युपगमाच । नन्वत्र विपतिपदार्थाऽपरिचयो, विभागादेः संयोगादिनाशताऽऽपत्तिश्चेति चेत ? न, प्रतियोग्युत्तरकालीनाऽभावत्वादी तात्पर्यात्, उत्तरत्रेष्टापत्तेश्च ।
स्यादेतत् . घटत्वेन घटध्वंसस्येवाऽऽत्मत्वादिनाऽऽत्मादेवँसाऽभावादात्मादेरेकान्तनित्यत्वं स्यादिति । मैवं, ध्वंसप्रतियोगित्वे सति ध्वंसाप्रतियोगित्वेनैवैकान्तत्वापायात् । इयांस्तु विशेषो-यदात्मत्वेनाऽऽत्मनो नित्यत्वं तद्भावाऽव्ययत्वात्, घटत्वेन घटस्य | तु नेति । ननु तद्भावेन व्ययश्चेत् प्रसिद्धः तदा तदभाव(व)रूपं नित्यत्वमात्मत्वादिनाऽऽत्मादौ सम्भवेत्, स एव तु गगनारविन्दसोदर इति चेत् । न, ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेद(क)रूपवत्त्वस्यैव तदर्थत्वात् । न चैवं कम्युग्रीचादिमत्त्वेन घटस्य नित्यत्वं | स्यादिति वाच्यम्, गुरुधर्मस्यापि प्रतीतिबलेनाऽवच्छेदकत्वस्वीकारात् । ध्वंसप्रतियोगिताऽवच्छेदकं यद्धर्मवनिष्ठाऽत्यंताऽभावप्रतियोगितानवच्छेदकं तदन्यधर्मवत्त्वस्य वा तदर्थत्वात् । अथ कपालनाशादे; कपालादिसमवेतनाशं प्रति कारणत्वात् घटत्वेन घटध्वंस ,
कस्मिक इति चेत् ? न, कारणत्वपर्यायाणां प्रतीतिबलेन विशिष्य विधान्तानामेव कल्पनादिति दिक । ___अथाऽकृतागमः - पर्यायाणामपि नित्यानामेव सतामागन्तुकत्वादन्यथा पर्यायवतोऽप्यनित्यत्वाऽऽपत्ती नित्यत्वपक्षहानेः । अथ घटत्वादेरेव कपालादिजन्यताऽवच्छेदकत्वात्, घटत्वस्य च कपालायवृत्तित्वानाऽयं दोष इति चेत् ? न, कपालं घटीभूतमिति - - - - - - - - - - - - - - -
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2 मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २
प्रतीत्या तयोः स्यादभेदसिद्धेः ।
अत्र किश्चिद्विचार्यते नन्वेवं कपालघटयोर्जन्यजनकभावो न स्यात्, अभेदे तदसम्भवात् । न च कथञ्चिद्भेदोऽप्यभ्युपगम्यत इति वाच्यम्, अवच्छेदकभेदं विनैकत्र भेदाभेदविशेषपणकृत --:: तवोऽवच्छेदकभेदेन वर्त्तते, | ज्ञायते च यथा संयोगाज्भावः, श्यामावच्छिन्नस्य तस्यैवाऽन्योन्याऽभावः तत्रैव रक्ताऽवच्छिन्ने, तदन्योन्याभावश्च श्यामावच्छेदेन । | तदिहापि नीलस्याऽन्योन्याभावो घटत्वावच्छेदेनेति नीलाद्घटस्य भेदोऽस्तु, अभेदस्तु नीलान्योन्याभावाऽभावरूपो घंटे न घटत्वा वच्छेदेनैव विरोधात्, एकावच्छेदेन भावाऽभावयोरेकत्रावृत्तेरज्ञानाच । नाप्यवच्छेदकान्तरेण घटत्वावच्छिन्ने घटे तदभावः, तदज्ञानेऽपि नीलो घट इत्यनुभवाच्चेति • चेत् ? अत्र वदन्ति न हि भेदाभेदो भेदविशिष्टाऽभेदो, अभेदविशिष्टभेदस्यापि सम्बन्धत्वे विनिगमकाभावात् किन्तु जात्यन्तररूप एव गुणगुण्यादिविशिष्टप्रतीतिनियामकत्वेन सिद्ध इति क्वावच्छेदकभेदानुपलब्धिबाध: ? एकान्तभेदेऽवयवेष्ववयवी किं भेदेन समवेयात्कात्स्न्येन वा ? नाssथोऽवयवातिरिक्तस्य तदेशस्याऽभावात् । न | द्वितीयः प्रत्यवयवसमवेतावयविबहुत्वप्रसङ्गात् ।
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अथ समवाय एवं प्रागुक्तप्रतीतिनियामकत्वेन कल्प्यतामिति चेत् १ न तस्यैकत्वेऽतिप्रसङ्गात्, नानात्वे चैतस्यैव नामान्तरकरणात्, अतिरिक्तकल्पनायां गौरवात् । एतेन " समवायसम्बन्धेन जन्यभावत्वावच्छिन्नं प्रति संयोगत्वावच्छिन्नं प्रति वा द्रव्यस्य कारणत्वेन समवायसिद्धिः" इत्यपास्तम्, लाघवादुभेदाभेदसम्बन्धेन परिणामत्वावच्छिन्नं प्रति परिणामिनस्तत्त्वकल्पनाया एवोचितत्वात् । भेदाभेदस्य जातित्वेऽपि सम्बन्धत्वं प्रतीतिबलादेवाऽविरुद्धम् । ननु " नीलोत्पलं, प्रमेयाऽभिधेयमि"त्यादी कर्मधारयेऽभेदस्यैव संसर्गतया प्रदर्शनान्नाऽभेदातिरिक्तभेदाभेदसिद्धिरिति चेत् न, कथंचित्तस्य तदनतिरेकात् । इयांस्तु विशेषो यद् धर्म - धर्मिभावाऽपेक्षया द्वयोर्भेदाभेदः, प्रतिस्वं प्रातिस्विकरूपेण केवलाभेदो, गोत्वाश्वत्वादिना तु केवलभेद इति । न चैवमेकान्ताऽनुप्रवेशोऽभेदसम्भिन्नभेदवत्त्वेनैव तदपायात् ।
इत्थञ्चैतदवश्यमङ्गीकर्त्तव्यम्, कथमन्यथा स्याद्भिनं स्यादभित्रमित्यत्र स्यात्पदं नाऽनतिप्रयोजनमिति ध्येयम् । अथ भेदाभेदस्याऽभेदत्वे 'कपाले घट' इत्यादावाधाराधेयभावप्रतीतिर्न स्यादिति चेत् ? न भेदाभेदत्वेन तस्य वृत्तिनियामक - त्वात् । घटाभावे घटो नास्तीत्यादावपि घटाभावत्वेन धर्म- धर्मिभावविवक्षयैव निस्तार इति तत्त्वम् । वस्तुतः तत्तत्प्रतीतिमनुस्मृत्य तत्तत्प्रतियोगिकत्वविशिष्टत त्तत्सम्बन्धस्याऽऽधारतात्वं कल्प्यते, तेन रूपरसयोर्भेदाभेदसम्भवेऽप्याधाराऽऽधेयभावाऽभावेऽपि न क्षतिरिति ध्येयम् ।
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नन्वेवमपि भवतु भगवान् भेदाभेदो जात्यंतररूप:, तथाप्यसावेकत्राऽन्योन्याभावतदभावप्रतीतिव्यंग्यः, तयोश्चै कत्रावच्छेदकभेदं ! विना प्रतीत्यनुपपत्तिरित्युक्तमेवेति चेत् ? न घटत्वद्रव्यत्वयोरेव तदवच्छेदकयोः सम्भवात् । यदवदाम स्तुती " एकत्रै" ति ॥ कश्चित्तु भेदोऽन्योन्याभावोऽभेदस्तु धर्मान्तरमित्यभ्युपैति । अत्र तादृशाभेदस्य व्यवहारानीपयिकत्वं यदाविश्चक्रे मणिकृता, तत्तुच्छम् प्रमेयमभिधेयमित्यादी तस्यैव शरणीकरणीयत्वात् ।
दिगम्बरमतानुयायिनस्तु भेदाभेदो भेदविशिष्टाऽभेद एव सम्बन्धता तु तयोरुभयत्वेन रूपेण । न चोभयत्वमपि एकविशिष्टापरत्वमिति विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहः, अविशिष्टयोरपि गोत्वाश्वत्वयोरुभयत्वप्रत्ययात्तस्याऽतिरिक्तधर्मत्वात् । न च भेदाभेदयोरेकत्र विरोधः न हि वयं यत्र यस्य यो भेदः तत्र तस्य तदभावमेव ब्रूमहे किन्त्वन्यमेवेति । | तथाहि भेदो द्विविधः पृथक्त्वरूपोऽन्योन्याभावरूप । तत्र पृथक्त्वं प्रविभक्तप्रदेशत्वरूपमन्योन्याभावस्त्वतद्भाव इति
यत्तु पृथकृत्त्वमन्योन्याभाव एव इत्यभिदधे दीधितिकृता, तन्न, एवं सति घटः पटात्पृथगितिवद्वपात्पृथगित्यपि प्रमीयेत । यदवोचाम श्रीपूज्यलेखे 'अण्णं घडाउ" त्ति । तथा चान्योन्याभावादपि पृथक्त्वस्य भेदाभेद एवेति तत्त्वम् । न चैवमनवस्था, प्रामाणिकत्वात् । तत्र घटपटादीनां नैतदन्यत्तराभाव इति केवलभेदः तेषां भेदत्वावच्छिन्नाऽभावासंवलितत्वात् । प्रतिस्वं ! प्रातिस्विकरूपेणोभयाभावात्केवलाऽभेदो, अवयवावयव्यादीनां त्वतद्भावसत्त्वेऽपि पार्थक्याभावात् भेदाभेद इति ।
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* लघुस्याद्वादरहस्य
अत्रेदमस्माकमाभाति - प्रविभक्तप्रदेशत्वमित्यत्र बहुब्रीह्याश्रयणे परमाणवः कुतोऽपि न पृथग्भवेयुः । एवं कर्मधारयाश्रयणे देशस्कन्धयोरपि स एव दोषः । स्कन्धाश्रितपरमाणूनामेव प्रदेशत्वसंज्ञया तदनाश्रितपरमाणूनाञ्च कुतोऽपि न पृथक्त्वं घटेत । । किञ्च - प्रदेशेषु किं प्रविभक्तत्वं ? न तावदन्यत्वं, एकद्रव्यस्यैव प्रदेशानां तादृशत्वात् । नापि पृथक्त्वं, तस्य प्रवि| भक्तस्कन्धकत्वरूपतयाऽन्योन्याश्रयात् । तथाहि प्रदेशानां प्रविभक्तत्वसिद्धौ प्रविभक्तप्रदेशत्वरूपं स्कन्धानां पार्थक्यं सिध्यति,
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१. एक वृत्ती हि विरोधभाजीर्वेषामवच्छेदकभेदयाचा । द्रष्यत्वपर्यायत्तयोविभेदं विजानतां सा कथमस्तु वस्तु ॥ इति मध्यमस्याद्वादरहस्ये । २. अण्णं घडाउ रूवं ण पोत्ति विसारदाण त्रहारो । भेदा उणो पुढत्तं भिज्जदि त्रवहारवाणं ॥ इति मध्यमं । (अन्य घटात् रूपं न पृथगिति विशारदानां व्यवहार: । भेदात्पुनः पृथकत्वं भिद्यते व्यवहारबाधन)
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* लघुस्यावादरहस्य * सिद्धे च स्कन्धानां प्रविभक्तत्वे प्रविभक्तस्कन्धकत्वरूपं प्रदेशानां पार्थक्यं सिध्यतीति । अथ पृथकत्वं जात्यंतररूपमेवेति चेत्तर्हि भेदाभेद एव तादृशः किमिति नास्थीयते ? धर्मिधर्मोभयभासकसामग्र्या एव तद्भासकत्वेन ब्याकगवेषणविश्रामात् ।
एतेन "पृथक्त्वव्यवहाराऽसाधारणकारणं तदि" स्यप्युपेक्षितम्, कारणतावच्छेदकरूपपरिचयं बिना तादृशनिर्वचनाऽसम्भवाच । यत्तु - 'विभिनाश्रयाऽऽश्रितत्वमेव पार्धकूयं, विभिन्नाश्राश्रयाः स्कन्धानां देशा इव देशानां स्कन्धा अपि सम्भवन्ति, तन्ती पट इतिवत्पदे तन्तब इति प्रतीतेरप्यवाधितत्वात् । अन्यत्र रूपादिप्रतियोगिकत्वविशिष्टभेदाभेदस्याधारतात्वेऽप्यत्रान्यतरप्रतियोगिकत्वविशिष्टस्यैव तस्य प्रतीतिबलेन तधात्वकल्पनात् । तदक्तमुदयनेनापि “संविदेव हि भगवती वस्तूपगमे नः शरणमिति" । परमाणुनामपि शुद्धस्य स्वस्यैव स्वाश्रयत्वं भाविभूताश्रयसम्भवेनैव वा तदाश्रितत्वमक्षतमन्यथा द्रव्यचतुष्टपस्य सार्वत्रिकत्वाऽसम्भवादिति' तचिन्त्यम्, अत्यन्तविभिनानामपि आकाशादिरूपैकाश्रयसम्भवेन भेदाभेदसम्बन्धावच्छिन्नाश्रयताविवक्षणे स्फुटदोषात् ।
जवस्तु - सार्वजनीनप्रतीतिस्वारस्यादेव भेदाभेदयोर्न विरोधः । अत एव न संकर-व्यतिकर-संशयाऽनवस्था-दृष्टहान्यदृष्टकल्पनाः । भेदन स्वरूपान्तरात् स्वरूपन्यावृत्तिरूपः । स चैकद्रव्यगुणपर्यायेष्वपि सम्भवति । अयम्भावः - यथाहि सूत्रग्रथितमुक्ताफलानामपेक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वरूपं हारत्वं सूत्रमुक्ताफलाधारतावच्छेदकं तथा गुणपर्यायाणां तादृशं द्रव्यत्वमपि तथा । यथा च हारत्वसूत्रत्वमुक्ताफलत्वावच्छेदेन शुक्लत्वप्रतीतिस्तथा द्रव्यत्वगुणत्वपर्यायत्वावच्छेदेन सत्त्वप्रतीतिरपि । यथा च शुक्लत्वाद्यवच्छिन्ने हारत्वाद्यवच्छिन्नभेदस्तथा सत्त्वत्वाधवच्छिन्ने द्रव्यत्वायवच्छिन्नभेद इति । तदुक्तं - "सहव्व सन्च गुणोत्ति" । विस्तारः = तत्तद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपिताः प्रकारताः । नन्वेवं वृक्षो वनमितिवत् सद् द्रव्यमिति प्रयोगो न स्यात्, यत्र हि यद्धर्मावच्छिन्नप्रकारकबुद्धिविषयत्वं व्यवहारीपयिक तत्तद्धर्मावच्छेदेनेवाभेदेनान्वेतीति व्युत्पत्तेरिति चेत् न, एतनियमस्य विशिष्य विश्रामादिति दिक् ।
यद्वा कृतस्य = कुम्भकारादिप्रयत्नस्य नाशः = 'उपधानाऽव्याप्यत्वम्. अकृतस्य कुम्भकारादिप्रयत्नाऽभावस्याऽऽगमाऽनुपधानाऽव्याप्यत्वं च स्याताम्, वस्तुनः सर्वथा नित्यत्वात्, तथा च व्यवहारवाधः इति भावः ।
__ अत्रेदं विभाच्यते-सांख्यैर्हि सदेव वस्त्वभिमन्यते । तदुक्तं - "असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाऽभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम्" ।। (सांख्यकारिका-९) इति । असनः = शशविषाणादेः कर्तुमशक्यत्वात्, सत एव सत्करणस्वाभाव्यात् । उपादानेन ग्रहणात् = सम्बन्धात् । न ह्यसतः सम्बन्धोऽस्ति । असम्बद्धस्यैव करणमिति चेत ? न, सर्वसंभवाऽभावात् = असम्बद्धत्वाऽविशेषे हि सर्वे सर्वस्माद्भवेयुः, न चैवमिष्टमिति । तथाऽशक्तस्य जनकत्वेऽतिप्रसंगात् शक्तस्य जनकत्वं वाच्यम्, शक्तिश्च कार्यस्य प्रागसत्त्वे नियता न स्यात्, इतोऽपि कारणात् प्राक् कार्यस्य सत्त्वमुपेयम् । तथा तादात्म्यादपि सत्कार्यम, अक्यविनोऽवयवभेदाप्रतीतेरिति । तदयुक्तम, यतो घटश्चेत्कारणच्यापारामागप्यस्ति तर्हि तदानीमुपलम्भप्रसङ्गः ।
अथाऽनाविर्भावात नोपलभ्यते इति चेत् ? कोऽयमनाविर्भावः ? १ उपलब्ध्यभाचो वा, २ अर्थ क्रियाकारिरूपाऽभावो वा, ६ च्यञ्जकाऽभावो बा, ४ योग्यताऽभावो वा, ५ कालविशेषविशिष्टत्वाऽभावो वा, ६ जिज्ञासाऽभावो वा, ७ तिरोधानं । वा, ८ अन्यद्वा ?
नायः, यस्यैवाक्षेपस्तस्यैवोत्तरे घट्टकुटीप्रभाताऽऽपातात् । अथ घटानुपलभ्याक्षेपे संस्थानायनुपलम्भस्योत्तरत्वमिति चेत् ? न, संस्थानज्ञानस्य संस्थानिज्ञानात् पूर्व नियतमनपेक्षणात्तस्यापि प्राकृसत्त्वे उपलब्धेरापायत्वात्, असत्त्वे वक्ष्यमाणदोषानुषङ्गाच ११॥ न द्वितीयः, अर्थक्रियारूपस्य प्रागसत्त्वेऽसत्कार्यवादापातात् ।। अत एव न तृतीयोऽपि, प्राथमिकोपलब्धी कुविन्दादिसमुदायस्योपलब्धिमात्रे वा विजातीयसंयोगस्य कारणत्वेऽपि तयोः प्राकसत्त्वावश्यकत्वात् । आविर्भूतयोरेच तयोः तथात्वमिति चेत् ? न, आविर्भावस्यापि सदसद्विकल्पग्रासात् । विजातीयसंयोगाद्याविर्भावस्य प्राक्सत्त्वेऽपि विजातीयसंयोगेन समं तस्य सम्बन्धो नास्तीत्यप्यसमीक्षिताभिधानं, तदोषाऽनतिवृत्तेः ।
एतेन "विषयिताविशेषसम्बन्ध एव घटत्वादेः विजातीयसंयोगजन्यतावच्छेदकतावच्छेदकोऽस्त्वनंतप्रागभावप्रध्वंसायकल्पनलाघवात" इत्यपि परास्तम । तदभावेऽपि घटत्वविनिर्मक्तविषयताकघटसाक्षात्काराऽऽपत्तेश्च । किञ्च घटादेः कुम्भकारादिव्यज्यत्वे जन्यत्वब्यवहारो निरालम्बनः स्यात, अन्यथा दिनकरकरनिकराऽभिव्यञ्जिते घटे तज्जन्यव्यवहाराऽऽपत्तेः ।। __ नाऽपि तुरीयः - महत्त्वसमानाधिकरणोद्भूतरूपवत्त्वादिरूपायाचाक्षुषादियोग्यतायाःप्रागुक्तदिशा प्रागपि सत्त्वात् ।। नापि १. सदश्वं सन्च गुणी, मच्चेव य गज्जओनि वित्थारो । जो खलु तस्स अभावो, सो तदभावो अतम्भात्रो ॥ प्रव. सार० अ० २ गा० १५॥ २. फटात्पत्यच्याप्यत्त्वमित्यर्थः । प्रदिवस्तुनो नित्यत्वात् कुम्भकारादिप्रयत्नस्य बफल्यमेव, न तु फलनिष्पत्तिच्याप्यत्वमिति भावः । -" - ---
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4 मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २
* लघुस्याद्वादरहस्य *
पञ्चमः, कालविशेषस्य कारणत्वेन्नाऽनतिप्रसंगे एककारणपरिशेषाऽऽपत्तेः । विशेषस्याऽऽगन्तुकोपाधिरूपस्य सदसद्विकल्पग्रासाच |२| नापि षष्ठः, सत्यामपि जिज्ञासायां कारणव्यापारात्प्राचार्याऽनुपलम्भाज्जिज्ञासाया ज्ञानमात्रं प्रत्यहेतुत्वाच्च । जिज्ञासितबोधं | प्रति जिज्ञासाया हेतुत्वे जिज्ञासां विनापि तत्राऽजिज्ञासितबोधाऽऽपत्तेश्व । ६ । नापि सप्तमः, अनाविर्भावस्यैव तिरोधानपदार्थत्वात्तस्य च लक्ष्यत्वादद्यापि नियतनिर्वचनाऽपरिचयात् ॥ ७अ नाप्यष्टमोऽनिर्वचनात् 1८] (इति)
स्यादेतत् “विजातीयसंयोगस्य जन्यसाक्षात्कारत्वं जन्यतावच्छेदकमस्तु न तु जन्यद्रव्यत्वं अनंतप्रागभाव प्रध्वंसा| भावकल्पनागौरवात् । न च विजातीयसंयोगं विनापि गुणादौ द्रव्यसाक्षात्कारोदयाद् व्यभिचारः, द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतायाः |कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वेन तदुद्धारात् । एतेन " द्रव्यसाक्षात्कारत्वस्य तत्कार्यतावच्छेदकत्वे मूर्त्तसाक्षात्कारत्वादिना विनिगमनाविरहः, स्वाश्रयचिपयतासम्बन्धं कार्यतावच्छेदकीकृत्य द्रव्यत्वादिना तथात्वंऽपि मूत्तत्वादिना स एव दोषः " - इत्यपास्तम् । इत्थञ्च द्रव्यमात्रं सर्वथा नित्यमस्तु । न चैवं तंतूनामेव पटत्वात्तंतौ पट इति प्रत्ययो न स्यादिति वाच्यं, फलवलेन | विलक्षणसंयोगवत्त्वघत्पपटत्वादिविशिष्टाधारतावच्छेदकत्वस्य विलक्षणसंयोगत्वरूपतन्तुत्वे स्वीकारात् । अत एव न तन्तुपट - पदयोः पर्यायताऽपि, विलक्षणसंयोगवत्त्वरूपशक्यतावच्छेदकभेदात् । 'तंतुसंयोगात्पट उत्पन्न' इति व्यवहारस्तु भ्रान्त एव, पटपदं वा पटाभिव्यक्तिपरम् । 'पट उत्पन्न' इत्यादिप्रतीतिस्तु पटत्वादिघटकसंयोगोत्पादमात्रमवगाहते । 'तंतुः पट' इति प्रतीतिस्तु वृक्षो वनमितिवदेव नोदेति । 'पट: तंतब' इति प्रतीतिस्तु एकत्वधर्मितावच्छेदककबहुत्वप्रकारिका सतीच्छाविशषमपेक्षते । एकत्र द्वयमिति न्यायेन तदन्चयबोधापादने शब्दाऽसाधुत्वमेव वा । 'अधिकं मत्कृतन्यायवादार्थेषु बोध्यम् ।"
अत्र ब्रूमः - पर्यायत्वावच्छेदेनैव द्रव्यस्य कारणता सामान्यतो गृहीतेत्यसमानजातीयद्रव्यपर्यायरूपस्य घटस्य कथं न जन्यत्वम् ? अन्यथा कपालस्यैव घटत्वात्कपालरूप-घटरूपयोर्भेदो न स्यात्, तथा च प्रत्यक्षबाधः । किञ्चैवं दण्डादौ घटसाधनताज्ञानेन प्रवृत्तिर्न स्यात् । अथ " विजातीयसंयोग ( ब ) त्वमेव घटत्वं युक्तं चैतत् कथमन्यथा घटत्वस्य जातित्वं ? मृत्त्वस्वर्णत्वादिना सांकर्यात् । न च कुलालादिजन्यतावच्छेदकतया मृत्त्वस्वर्णत्वादिव्याप्यं नानाघटत्वमेव स्वीकर्त्तव्यमनुगतधीस्तु कथञ्चित् सौसादृश्यात् घटपदं तु नानार्थकमिति वाच्यम्, कुम्भकारादेर्विजातीयकृतिमत्त्वेन तत्त्वे घटत्वस्यैकत्वौचित्यात् इति चेत् ?" न, एवं सति घटवत्यपि भूतले संयोगेन घटो नास्तीति प्रतीतेः प्रमात्वापातात् घटः पटसंयुक्त इत्यादिप्रतीतेरप्रमात्वापाताचेति दिकू ।
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अथ अनित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि दोषमाहुः " स्यातामिति । एकान्तनाशे नित्यत्वाऽसंभिन्ननाशे कृतस्य नाशो = अकृततुल्यता । तन्मते हि वस्तुनः सर्वस्य क्षणिकत्वादुत्पत्तिसमनंतरमेव घटस्य नाश:, इति पृथुबुध्नोदरत्वादिपर्यायाणामाधारेण केन भवितव्यम् ? तथाऽकृतस्याऽऽगमः = अर्थक्रियाकारित्वम् । यद्धि कुम्भकारादिना घटादिकं कृतं तेन तु दुर्जनमन:प्रणयपरंपराबत्तदानीमेव दध्वंसे, तथा च जलाहरणादिक्रियासु व्याप्रियमाणेन तेनाकृतेनैवोपस्थातव्यमिति दूषणद्वयमिदं बौद्धबुध्युपनीतकाकुव्याकुलीकरणप्रवणं प्रसज्येतेति भावः ।
(क्षणिकवादपूर्वपक्ष: )
किं क्षणभंगुरमेव वस्त्वन्यथा वा ! तत्र बौद्धा:
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इदमप्यत्र विचार्यते "मुद्गरादिसमवधानदशायां घटादेर्यत् स्वरूपं | वरीवर्त्ति तेन प्रागासीनं न वा १ अन्त्ये स्वरूपभावदान्यापत्तिः, अनायासेनैव सिद्धा क्षणभंगुरता भगवती । किंच तत्तत्क्षणावच्छेदेन घटादेः प्रध्वंसाऽप्रतियोगित्वकल्पनापेक्षया प्रध्वंसप्रतियोगित्वकल्पनैव लधीयसी । वस्तुतः तत्तत्क्षणेष्वेवास्तु घटत्वपटत्वादिकम् । नच संकरः, वासनाकृतविशेषेण तन्निरासात् । अत एव न स्थितिकाले घट उत्पन्नो, घटो ध्वस्त इत्यादि प्रतीतिः । विशिष्टोत्पादध्वंसयोर्विशेषणसत्त्वविरुद्धत्वात् । न च ' स एवायं घट' इति प्रत्यभिज्ञा क्षणिकत्वे बाधिका, स एवायं | मकार इत्यादिप्रत्यभिज्ञाया इव तस्यास्तज्जातीयाभेदविषयत्वात् । किञ्च नित्यस्य सतो वस्तुनः सर्वदार्थक्रियाकारित्वापत्ति:, स्वतः सामर्थ्याऽसामर्थ्याभ्यां परोपकारानवकाशात् । स्वतः समर्थमपि तत्कारणांतरसहकृतमेव कार्यमुपधातीति चेत् ? न, | कार्यानुपधानसमये सामर्थ्ये मानाभावात् । तस्मात् कुर्वद्रूपस्यैव कारणत्वाद्वस्तुनो मदुक्तदूषणभारभंगुरस्य सतः क्षणविश्राम | एवोचित इति ।" <
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(क्षणिकवादनिरास:)
तदत्तिजस्त्तरं विनाशस्वभावत्वेन क्षणिकत्वे स्थितिस्वभावत्वेन नित्यत्वस्याप्याऽऽपतेः । स्थितिप्रत्ययो भ्रान्तो विनाशप्रत्ययस्तु | प्रमेति तु निजप्रणयिनीमनोविनोदमात्रम् । ध्वंसप्रतियोगित्वं तु यथा त्वया विधिपर्यायेण कल्प्यते तथा मया निषेधपर्यायेणापीति १. अधिक अधिक पूर्वपक्षवचनमित्यर्थः ।
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** लघुस्याद्वादरहस्य * न दोषः । वासनाया ध्रुवत्वे तु नामान्तरेण द्रव्यमेवाऽभ्युपेतवान् भवान्, कृतांतं च कोपितरान्, अध्रुवत्वे तु किमनयाऽजागलस्तनायमानया ? कुर्चद्रूपत्वेन तु न कारणता, तस्य प्रागपरिचयात् इष्टसाधनताज्ञानविलम्बात् घटार्थिनो दंडादी प्रवृत्त्यनुदयापत्तेरिति दिक् ।। श्रीहेमत्रिवाचामाचामति चातुरीपरविचारम् । व्याख्यातायश्लोको जसविजयस्ता परिचिनोति ॥शा
(प्रधमलोकविवरणं समाप्तम्) ननु भवतु कदाचिद्वाह्यवस्तुनो नित्यानित्यत्वमः एमानुस्त न कथमपि । न च ज्ञानायभेदात् तथात्वं, तथा सति दुःखाभेदादु दुःखध्वंसस्यापि आत्मध्वंसरूपत्वात्तदर्थिनो यमादौ प्रवृत्तिर्न स्यात् । न च दःखध्वंसत्वमेव काम्यतावच्छेदक, तत्राऽऽत्मध्वसत्वरूपाऽनिष्टतावच्छेदकज्ञानस्य प्रवृत्तिप्रतिबंधकत्वात् । न चाऽऽत्मत्वावच्छिन्त्रध्वंसत्वमेव चार्वाकादिमतप्रसिद्धमनिष्टतावच्छेदक, विजातीयसुखत्वमेव वा काम्यतावच्छेदकमिति वाच्यम्, तथापि "नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" (तैत्तरीय-आरण्यक) इत्यादिश्रुत्या तस्य नित्यत्वौचित्यात् नित्यसुखादिनैव सममभेदबोधात् । न च "आनन्दं ब्रह्मणो रूपं, तच मोक्षे प्रतिष्ठितमि" ति भेदबोधकश्रुतिसद्भाबादुपचरितार्थत्वमेव तस्या युक्तमिति वाच्यम्, 'राहोः शिरः' इत्यादी षष्ठ्या अभेदेऽपि दर्शनात् । अत्राऽभेदप्रकारकबोधदर्शनाल्लक्षणेव, श्रुतौ तु सा न युक्तेति चेत् ? नः सुब्विभक्ती लक्षणाऽनभ्युपगमात्, अन्यथा व्यत्ययानुशासनवैययान् ।
अथ विभक्त्यंतरार्थे विभक्त्यंतरस्य लक्षणाया निषिद्धवज्ञापकं व्यत्ययानुशासनम् । अत एव घटं जानातीत्यादौ द्वितीयाया विषयित्वे लक्षणा नाऽनुपपन्ना । कञ्योगे पश्चनुशासनं च द्वितीयाऽसाधुत्वज्ञापकं, निष्ठादिवर्जनं च निष्टायां तत्साधुत्वज्ञापकं, कुत्ययोगे विकल्पविधानं च निष्ठायां शेपषठ्यसाधुत्वज्ञापकमिति चेत् ? न, तथापि तत्र सम्बन्धत्वप्रकारकबोधस्यैवेष्यमाणत्वात् । अत आहः 'आत्मनी'ति -
आत्मन्येकान्तनित्ये स्यात् न भोगः सुखदुःखयो ।
एकान्ताऽनित्यरूपेऽपि न भोगः सुखदु:खयोः ।।२।। आत्मन्येकान्तनित्येअभ्युपगम्यमान इति शेपः । सुखदुःखयोर्भोगः = साक्षात्कारो न स्यात् । यद्यपि भोगपदं सुखसुःखान्यतरसाक्षात्कारे रूढमिति पुनः "सुखदुःखयो"रित्युपादाने पीनरुक्त्यं, तथापि 'विशिष्टवाचकानामित्यादिन्यायात् भोगपदमत्र साक्षात्कारमात्रपरं दृष्टव्यम् । न च शक्यादनन्येऽर्थे कथं लक्षणा, शम्यतावच्छेदकरूपभेदे एव लक्षणास्वीकारात्, यथा जयतेः प्रकृष्टजये । तदाहुः "शक्यादन्येन रूपेण ज्ञाते भवति लक्षणे"ति ।
___ नैयायिकैकदेशिनस्तु - "भोगत्वं चाक्षुषादिसामग्रीप्रतिवध्यतावच्छेदककुक्षिप्रविष्टतया सिद्धो जातिविशेषः । न च स्वसम-|| वायिलौकिकविपयितया भोगान्यमानसप्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूतसुखदःखवृत्तिजातिविशेषवदन्यज्ञानत्वादिकमेव मानासान्यसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकं, सुखदुःखवृत्तिजातिविशेषवत्प्रतिबध्यतावच्छेदकमपीदमेव तेन न तत्प्रविष्टतया भोगत्वसिद्धिरिति वाच्यं, अनया दिशा साक्षात्, सुखादिवृत्तिर्जातिः प्रतिबध्यतावच्छेदककोटी प्रवेश्या, साक्षात् मानसदृत्तिर्मोगत्वजातिर्वा स्वसमवायिलौकिक विषयतासम्बन्धेन प्रतिबन्धकतावच्छेदककोटी प्रवेश्येत्यन्न विनिगमकाभावात्, प्रागुम्तजातेनित्वपर्यन्तसम्बन्धेन प्रतिवध्यतावच्छेदकत्वप्रसंगाचे" त्याहुः । (तन्मते सुखदुःखयोरित्यस्य न पौनरुक्त्यम् ।)
अथ प्रकृतं प्रस्तुमः ।) 'अयं भावः . एकान्तनित्यः सनात्मा सुखदुःखे युगपद्भुञ्जीयात्, क्रमेण वा ? नायो, विरोधात् । न द्वितीयः स्वभावभेदेन सर्वथानित्यवहानेः । सुखदुःखानुभवकालेऽपि तत्स्वभावत्वमात्मनः कथमिति चेत् ? तस्य गुणरूपत्वात्। गुणगुणिनोश्च भेदाभेदस्य निपुणतरमुपपादितत्वादिति गृहाण । स्वभावो हि स्वदन्य-गुण-पर्यायाऽनुगतं स्वरूपास्तित्वं, तच्च सादृश्या(द)स्तित्वेनैकीभवतोऽप्यन्यस्माद्रेदप्रतीतिमाधत्ते ।
__ अथैवमपि ध्वंसाऽप्रतियोगित्वरूपं सर्वथा नित्यत्वमक्षतमेवेति चेत् ? न, ज्ञानत्वादिना तद्ध्वंसादात्मत्वादिना नेति तु प्रागेव प्रत्ययीपदाम । आत्मत्व-ज्ञानत्वयोरपि भेदे का प्रत्याशेति चेत् ? न, तथापि ज्ञानादिसाक्षाद्वत्तेनित्वादेरेव ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकत्वात् । आत्मत्वब्यापकत्वमपि तस्य न साक्षादिति न कोऽपि दोषः ।
इदमन ध्येयम् - यद्यपि यत्किञ्चिद्घटाऽन्यन्ताभाववत्यजायमानया घटाऽत्यंताभावप्रतीत्या तत्र घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिता सिध्यति, वसे तु नैवं, तथापि 'घटत्वेनायं ध्वस्तो न तु मृत्त्वेने त्यादिप्रतीत्या तत्र सा सिध्यति । अवच्छेदकता तु स्वरूपवि. शेषः । सा च कचिदतिप्रसक्तेऽपि धर्मे प्रतीतिबलात्कल्प्यत इति । प्राञ्चस्त . पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारपरिणतिरूपं.
१. विशिष्टवाचकपदानां सति विदोषणवाचकपदसमवधाने विदोष्यार्धभावपरत्वमिति न्यायात् । २. समाधने वापतेत्यादिना. ३, कोषद्वपान्तर्गती पाठी मध्यमवृत्तेोजिनी आवश्यकत्वात् । ४. 'अयं भग' पाठो नावश्यको नास्ति च मध्यवर्ती ।
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6 मध्यमस्याद्वा रहस्ये खण्डः २
* लघुस्याद्वादरहस्य
कार्यत्वमात्भत्वावच्छेदेनैव गायन्ति । नन्वेवमात्मनः कार्यत्वव्यवहारः स्यान तु ज्ञानादेः, तस्याऽनीदृशत्वात् इति चेत् ? न द्रव्यकार्यत्वस्यैवै तल्लक्षणत्वात् । पर्यायकार्यत्वस्य तु ध्वंसप्रतियोगित्वमेव लक्षणम् । अत एव द्रव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारपरिणामः कार्यत्वमित्येव रत्नाकरावतारिकायामभिहितम् । ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकरूपवत्त्वस्य नित्यत्वे तदनवच्छेदकरूपवत्त्वमेवोभयानुगतं कार्यत्वमित्यभिप्रेत्य तु प्रागुपदर्शितः पन्थाः । ध्वंसस्यापि किञ्चिदुत्पत्तिरूपत्वात्तद्ध्वंससंभवान्नाऽव्याप्तिः । | घटादिनाशस्य कालविशेषविशिष्टकपालत्वादिनयेऽपि कपालत्वादिना तन्नाशसंभवोऽनन्यथासिद्धनियतो त्तरवर्त्तितावच्छेदकरूपवत्त्वे वा तात्पर्यमिति ध्येयम् ।
अथाऽनित्यत्वपक्षेsपि दोषमाहुः - “एकान्तानित्यरूपेऽपि " इति निगदसिद्धमिदम् । अयं भावः - एकान्तानित्यस्यापि सतः आत्मनः सुखदुःखयोर्युगपद्धोगो विरुद्धत्वादेव नेष्टः । क्रमभोगे तु क्षणिकत्वहानि:, तत्तत्क्षण साधिकरणसमयस्यैव क्रमपदार्थत्वात्, क्षणिकस्य तु तदसंभवादिति ।
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हेमसूरिगिरां गुम्फे, यस्यास्ति परमा गतिः । द्वितीयानुष्टुभो व्याख्यां स यशोविजयोतनोत् ||२|| श्री अथोभयोः पक्षयोर्दूषणांतरमुभाभ्याममनुष्टुभ्यामाहुः 'पुण्यपाप' इति
पुण्यपापे बन्धमोक्षी, न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षी, नाऽनित्यैकान्तदर्शने ॥३॥ क्रमाक्रमाभ्यां नित्यानां युज्यतेऽर्थक्रिया न हि 1 एकान्तक्षणिकत्वेऽपि युज्यतेऽर्थक्रिया न हि ॥४॥
एकान्तनित्यात्मवादिमते पुण्यपापयोरसम्भवः । ते हि " यागब्रह्महत्यादीनां क्षिप्रभंगुराणां स्वर्ग नरकादिकं प्रति श्रुतिबोधितकारणतायाः फलपर्यन्तच्या पारव्याप्ततया तंत्र व्यापारस्य चान्यस्यासंभवात् परिशेषाददृष्टसिद्धिः । न च ध्वंसेनैव निर्वाहस्तस्य फलाsनाश्यत्वात् । न चाऽपूर्वस्यापि प्रथमस्वर्गादिना नाशात् फलसन्तानो न निर्वहेत् इति वाच्यम्, तस्य चरमफलनाश्यत्वात् । चरमत्वं च स्वसमानजातीयप्रागभावाऽसमानकालीनत्वादिकं जातिविशेषो वा । न चाऽपूर्वोत्पत्त्यनन्तरमेव फलं कुतो न भवतीति वाच्यम्, वृत्तिलाभकालस्यापि नियामकत्वात् । अथ निर्व्यापारस्यैव यागादेरव्यवहितत्वांशविनिर्मुक्तकारण'ताग्रहः सम्भवतीति चेत् न, अव्यवहितपूर्व समयावच्छेदेन कार्यवति यदभावो ज्ञायते तत्रैव कारणताबुद्ध्यनुदयेन तद्गर्भायाः कारणताया औचित्यात् कीर्त्तनादिनाश्यत्वेनाऽपूर्वसिद्धेश्व ।
तचादृष्टमात्मनो गुणरूपं विहितनिषिद्धक्रियाजन्यमित्याहुः । तच्चाऽयुक्तम् स्वभावभेदेनैवात्मना धर्माधर्मयोर्जनने एकान्तनित्यतापक्षक्षतेः । वस्तुतः शुभाशुभोपयोगावेव धर्माधर्मी, तदुपनीतप्रकृतिविशेषाऽबाधाकालपरिपाकाच्च फलोदय इति दिग् । अत एव बन्धमोक्षयोरपि कर्मादानसकलकर्मविप्रमोक्षलक्षणयोस्तत्पक्षेऽसम्भवः । एवमेकान्ताऽनित्येत्यादिना क्षणिकत्वपक्षेऽपि दोषो विभावनीयः ॥ ३॥
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क्रमाक्रमाभ्यामिति अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरेकरूपाणां हि क्रमेण युगपद्वाऽर्थक्रियाकारित्वं न घटमटाटूयते । तथाहि अर्थस्य घटादेः, क्रिया ज्ञानादिरूपा, तत्कारित्वं-तज्जनकत्वम्, सर्वथा नित्यानामात्मादीनां देशक्रमेण कालक्रमेण वा न सम्भवति, यत्किञ्चिद्देशकालावच्छेदेनैव सकलकार्यकरणसामर्थ्यात् । अन्यथा देशकालभेदेन स्वभावभेदादनित्यत्वापातात् । अथात्मादीनामर्थक्रियाकारित्वेऽपि सर्वत्र सर्वदेत्यापादकाऽभावस्तत्स्वभाववतां देशकालादीनां विलम्बाच कार्यबिलम्ब इति चेत् ? न, तत्तद्देशप्रतिबद्धेतरकालत्वेन तत्तत्कालप्रतिबद्धेतरदेशत्वेन च कारणताया अध्यात्ममतपरीक्षायां प्रदर्शितत्वात् । एवं च ततदेशकालावच्छेदेन स्वभावभेदे सर्वथा नित्यत्वापायात् ।
स्यादेतत् एवं सति घटादीनां कारणता न स्यात् । मैवं विनिगमनाविरहेण तेषामपि तत्सम्भवात् । न चैवं गौरवं, प्रतीतिसिद्धस्वभावस्यैवमेव कल्पनात् । किञ्च कारणकालापमेलकस्य कार्योपधायकत्वेऽपि तस्यापि वैचित्र्यात् स्वभावाऽवैचित्र्ये का प्रत्याशा ? तस्मात् स्वभावाऽवैचित्र्येऽप्यन्यादृशं नित्यत्वमेव तत्रास्तीति स्वाग्रहमेव गृहाण । तमेव गृह्णामीति चेत् ? पथः स्मर, मोचितोऽसि ततः प्राक् ।
अथ पूर्वपूर्वपरिणामानामेवोत्तरोत्तरपरिणामजननस्वभावत्वादात्मनः कूटस्थनित्यत्वमेवोचितमिति चेत् ? न तस्य तदभेदेनैव कर्तृत्वात् । अत एबैकस्य षट्कारकी भावोऽन्यत्र प्रासाधि । अथ नित्यचेतनास्वभावत्वरूपार्थक्रियाकारित्वादात्मनः कूटस्थनित्यत्वमेवोचितमनित्यचेतनायास्तु प्रधानसाध्यत्वमिति चेत् ? न, चेतनायाः स्वतो नित्यत्वात् पर्यायतोऽनित्यत्वस्यैतदपक्षपातित्वात् । ज्ञानकर्मफलरूपाया: स्वतन्त्रप्राप्यत्वेन कर्मीभूतायाश्चेतनायास्तत्तदुपयोगपरिणतेन स्वतंत्रतयाऽऽत्मनैव कर्त्रा सम्भवात्, प्रधाने
मानाऽभावात् ।
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* लघुस्याद्वादरहस्य * अथैवमपि द्रव्यकर्मरूपार्थक्रियाकारित्वमात्मनः कथमिति चेत् ? निमित्तीभूतभावकर्मकर्तृत्वेनोपचारादिति गृहाण । एवं घटादिकर्तृत्वमप्यात्मनः उपचारादेव बोध्यम्, प्राप्यत्वगर्भकर्मत्वस्य परिणामविशेष एव पर्यवसानात् । न हि क्रियाजन्यफलशालिवादिकं पराभिमतं कर्मत्वमपि सार्वत्रिक, घटं जानातीत्यादावेव तदभावात । एतेनाऽर्थक्रियेत्यत्र प्रत्याख्यातः । युगपतपक्षे तु प्रत्यक्षराधः । एकान्ताऽनित्यपक्षेऽपि दोषमभिदधाति “एकान्ताऽनित्यपक्षेऽपि" इति - क्रमाक्रमयोरसम्भवप्रतीतिबाधाभ्यामिति भावः ||४|| अथैकान्तवादोपकम्पितकर्कशतरतर्कतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकटीभूतप्रतापं भास्वतमनेकान्तबादमभिनन्दन्ति - 'यदा विति
यदा तु नित्यानित्यत्वरूपता बस्तुनो भवेत् ।
पथात्य भगवन्नैव तदा दोषोऽस्ति कश्चन ॥५॥ नन् परेऽपि पृथिव्यादीन्यपि परमाणुरूपाणि नित्यान्यन्यानि अनित्यानि प्रतिजानत इति को विवादोऽतः प्रा ||ति । भगवान् हि घटादिकमप्येकं बस्तु 'स्यानित्यं१, २स्यादनित्यं, ३स्यानित्यानित्यं, ४स्यादवक्तव्यं, ५स्यानित्यमवक्तव्यं, स्यादनित्यमवक्तव्यं६, ७स्याभिस्याऽनित्यश्वाऽवक्तव्यश्चेति प्रकाशयति न तथा परे स्वप्नेऽपि संविद्रत इति भावः ।।
इदमिदानीं निरूप्यते । सर्वत्र हि वस्तुनि स्यानित्यत्वादयः सप्त धर्माः प्रत्यक्षं प्रतीयन्ते । तथाहि - घटो द्रव्यत्वेन नित्यः, पर्यायत्वेनानित्यः, क्रमिक विधिनिषेधार्पणासहकारेण स्यानित्यानित्योऽपि प्रतीयते । न च समुदिताभ्यां नित्यत्वाऽनित्यत्वाभ्यामेव तनिर्वाहाद्धर्मान्तरकल्पनं किमर्थकमिति वाच्यं, समुदितयोस्तयोविलक्षणत्वेनैतत्स्थानाऽभिषेचनीयत्वात्। न चात्र प्रत्यक्षे इच्छायाः कथं नियामकत्वं, प्रतीतिबलादेतादृशेच्छाविशिष्टबोधं प्रत्येतादृशेच्छायाः कारणत्वकल्पनात् । युगपदुभयाऽर्पणासहकारेण स्यादवक्तव्योऽपि न तु सर्वथा, अवक्तव्यपदेनाऽप्यवक्तव्यत्वापत्तेः । न चाऽवक्तव्यत्वं शब्दाञ्चोध्यत्वरूपं कथं योग्यमिति वाच्यम्, उपदेशसहकारेण पद्मरागादिवत्तद्ग्रहात् । नित्यत्वस्यात्र क उपकार इतिचेदवक्तव्यत्वेन परिणमनमित्येव गृहाण । वक्तव्यत्वेन परिणमनं तु नित्यत्वादिविशेऐणैव विश्राम्यतीति न तदतिरेकावकाशः । क्रमाक्रमाभ्यां विध्युभयकल्पनासहकारेण स्यानित्यः स्यादवक्तव्यः । ताभ्यां निषेधोभयकल्पनासहकारेण स्यादनित्यः स्यादवक्तब्यश्च । ताभ्यामुभयकल्पनासहकारेण च स्यानित्यः, स्यादनित्यः, स्यादवक्तव्यश्च । अत्रापि समुदायपक्षाऽऽशंका प्राग्वत् समाधातव्या । न च विशेषण-विशेष्यभावे विनिगमनाविरहा, नथाप्येतत्कृतपरिणत्यनतिरेकात् । नित्यानित्यत्वादयो जात्यन्तररूपा इत्यप्याहुः । अत एव अमूनबलम्ब्य सर्वत्र सप्तभंगी संगतिमंगति । ____ अथ केयं सप्तभंगीति चेत् ? एकत्र वस्तुन्येककधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोत्र विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्कारातिसप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगी'ति सूत्रम् । (प्रमाणनयतत्त्वालोक-परिच्छेद-४ सूत्र १४) यः खलु प्रागुपदर्शितान् वस्तुनः सप्त धर्मानवलम्ब्य संशेते, जिज्ञासते, पर्यनुयुक्ते च तं प्रतीयं फलवती, प्रश्नस्य तुल्योत्तरनिवर्त्यत्वात् । यथा
च सामान्यतः शब्दः सर्ववाचकोऽपि संकेत विशेष सहकृत्याऽन्वयं बोधयति तथेयमप्यर्पणाविशेषसहकृत्वरी सतीति । शाब्दे । इच्छाऽनियामकत्वबचो मोघम् । सप्तभंगीविनिर्मुक्तशब्दभात्रस्याऽवोधकत्वं तु नाऽऽशंक्य, विधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधान || इत्यनेनाऽर्पणाविशेषस्थल एवं तदनुवर्तनाऽभिधानात् ।
___ अत्र च स्यान्नित्यत्वादिषु सप्तभंगेषु एवकारोऽवधारणार्थकोऽन्यथाऽनुस्तसमत्वापातात् । स्यात् पदं तु तत्र तदवच्छेदकरूपपरिचायकं, || तदपरिचये सांकर्यापातात् । सेयं सकलादेशस्वभावा, विकलादेशस्वभावा च । तत्र प्रमाणप्रतिपन्नानंतधर्मात्मकवस्तुनः १कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा योगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः (प्रमाणनयः परिः ४ सू० ५४) । तदन्यो विकलादेशः । नित्यत्वादीनां कालादिभिरभेदे हि एकेनाऽपि शब्देनेकधर्मप्रत्यायनमुखेनाऽनेकथर्मरूपस्य तदात्मकतापत्रस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवात् योगपद्यम् । भेदविवक्षायां तु २सकृदुचरितेत्यादिन्यायादेकशब्दस्याऽनेकार्थानां युगपदबोधकत्वात् क्रमः ।
अथ सकृदचरितेत्यादिन्यायस्य प्रामाणिकत्वे एकशिष्टघटादिपदस्यानेकयटादिवोधकत्वं न स्यात् । न स्याच कस्मादपि घटपदात् प्रातीतिको घट-घटत्वयोरपि बोधः इति चेत् ? न, अग्रिमसकृत्पदस्यैकधर्मावच्छिन्नार्थकत्वात् । एकशेषस्थले तु पदान्तरस्मरणमेव कल्प्यमन्यथा घटपदात समवायकालिकविशेषणताभ्यां घटत्वाऽवच्छिन्नयोर्युगपद्रोधप्रसक्तिभिया तद्धर्मावच्छिन्नस्य
सम्बन्धावच्छिन्नत्वगर्भत्वावश्यकतया विषयिता-समवायाभ्यां गुणत्वबोधकैकशिष्टतदादिपदाभयप्रतीतिर्न । । एकपदस्यैकस्मिन् काले एकसम्बन्धावच्छिकधर्मप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिबोधोपधायकत्वमिति निष्कर्षः । तेन नैकपदस्य वस्तुतो नानाधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वेऽपि क्षतिरिति ध्येयम् । धर्मे एकत्वञ्च याचबोध्यवृत्तित्वादिकम् ।
१. के पुन कालादयः ? कालः, आत्मरूपम्, अर्थः, सम्बन्ध, उपकारः, मुणिदेशः, संसर्ग, दाद इत्यष्टाविति रत्नाकरावनारिकापाम् । २. सकृदुपरितः शाब्दः सकृदेवाऽथ गभयतीति न्यायात ।
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8 मध्यमस्याद्वादरहस्ये सण्डः २ । यत्तु - स्वाश्रयवोध्यतावच्छेदकत्वसम्बन्धेनैकवृत्तिमत्त्वं तद्बोध्यत्वं, तेन न पशुत्वादेर्नानात्वेऽपि दोष इति न्यायनयानुयायिनः, तन्न, सर्वस्य सर्वपदशक्यत्वात । न चैवं लक्षणाच्छेदः, साक्षात्संकेतासंभवे तदवकाशात । न च घटत्व-पटल्या गौरवं, प्रमेयत्वादिनैव तत्कल्पनात्तत्तद्धर्मेण बोधस्य संकेतविशेपनियम्यत्वात् । न चैवं शक्तिरन्तरिति वाच्यं, वाचकताप्रतिनियमस्य तया विनाऽनुपपत्तेरित्याकरे स्पष्टत्वात् । कालाष्टकस्वरूपं च श्रीपूज्यलेखादबसेयमिति दिग्मात्रमेतत् । तस्वित्रत्याः अस्मत्कृतसप्तभंगीतरंगणीतोऽवसेयाः ।। ___ ननु भवतु कदाचिदन्यस्य वस्तुनो नित्यानित्यत्वं, प्रदीपादेस्तु सर्वथाऽनित्यत्वमेवोचितमिति चेत् ? न, प्रदीपादिपुद्गलानामेव तमस्त्वेन परिणमनाद्रव्यत्वेनाऽनाशात् । अथैवं तमसो द्रव्यत्वं स्यादिति चेत् ? स्यादेव ।
तेजसः किल निवृत्तिरूपता, यान्धकारनिकरे परोदिता । द्रव्यतां वयममी समीक्षिणस्तत्र पत्रमवलम्ब्य तन्महे ।।
तत्र तमसो द्रव्यत्वे रूपबत्त्वमेव मानम् । न च तदेवासिद्धं, तमो नीलमिति प्रतीतेः सार्वजनीनत्वात् । न चोद्भूतरूपवत्त्वमुद्भूतस्पर्शव्याप्यं, इन्द्रनीलप्रभासहचरितनीलभागस्तु स्मर्यमाणनीलारोपेणव निर्वाहात् गौरवात् न कल्प्यते इति न तत्र व्यभिचारः, कुंकुमादिपूरितस्फटिकभांडे बहिरारोप्यमाणपीताश्रयेऽपि न व्यभिचारस्तत्रापि स्मर्यमाणारोपेणेव निर्वाहाबहिर्गन्धोपलब्धेस्तु वाय्याकृष्टानुद्भूतरूपभागान्तरेणैवोपपनेरिति वान्यं, तादृशव्याप्ती मानाऽभावात्, प्रभायां व्यभिचारात् । न च नीलरूपवत्त्वमेवोद्भूतस्पर्शव्याप्यं, त्रसरेणी व्यभिचारात् । न च पाटितपटसूक्ष्मावयववत्तत्राप्युद्भूतस्पर्शवत्त्वानुमानं, अनुभूतरूपस्योद्भूतरूपजनकताया इवाऽनुद्भूतस्पर्शस्याऽपि निमित्तभेदसंसर्गेणोद्भूतस्पर्शजनकतासम्भवादृष्टान्ताऽसंप्रतिपत्तेः । जन्यानुभूतरूपं प्रत्यनुभूतेतररूपाऽभावस्य कारणत्वपक्षे तप्ततैलस्थादनुद्भूतरूपाबनेरुद्भूतरूपभागांतराकर्पणेनैवोद्भूतरूपोत्पत्तिस्वीकारादत्र दृष्टान्ताऽसम्प्रतिपत्तिरिति चेत् ? न, तथापि त्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पार्शनप्रसङ्गात् । द्रच्यान्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकी. भूतप्रकर्षवन्महत्त्वाऽभावान्नायं दोष इति चेत् ? न, तादृशप्रकर्षस्यैकत्वेऽपि कल्पयितुं शक्यत्वेन विनिगमनाविरहात् । अथैकत्वे तादृशजातिकल्पने स्वतन्त्रमतसिद्धद्रव्यवाक्षुषजनकतावच्छेदकीभूतैकत्वनिजात्या सांकर्यमेव विनिगमकमिति चेत् ? तथापि सा | जातिमहत्त्चे कल्यतामियं त्वेकत्व इत्यत्रैव विनिगमकमन्वेपणीयम् ।
अथ द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिव्याप्येव द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकजातिरभ्युपेयता, बायोरचाक्षुपत्वं तु विषयविधयाऽकारणत्वादिति चेत् ? तर्हि एवमेव त्रुटिस्पर्शाऽस्पार्शनस्याप्युपपत्तेद्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातेद्रव्यान्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकजातिव्याप्यत्वे विनिगमकाऽभावः, विषयस्य तत्तद्वयक्तित्वेन कारणतायां माना:भावश्च । यत्तु त्वक्संयुक्तत्वाचवत्समचायत्वेन प्रत्यासत्तित्वान्न त्रुटिस्पर्शस्पार्शनमिति तन्न, आश्रयत्वाचस्य नियमतः पूर्वमभावेन त्वाचवत्त्वस्य विशेषणत्वाऽयोगादुपलक्षणत्वे घटायुत्पत्तिद्वितीयक्षणे स्पर्शादिस्पार्शनाऽपत्तेः कालभेदेनेकस्यामेव ब्यक्तावनंतत्वाचानां सम्भवेन तावत्त्वाचप्रवेशाऽपेक्षया महत्त्वोद्भूतस्पर्शयोरेप प्रत्यासत्तिमध्ये प्रवेशस्य त्रुटिस्पर्शेऽनुद्भूतत्वकल्पनस्य चोचितत्वात्, चायोरत्वाचेन तवृत्तिस्पर्शत्वाचानुपपत्तेश्चेत्यधिकमन्यत्र । 'तमस्युद्भूतस्पर्शवत्त्वमपि प्रतीतिसिद्धमेबेति' तु प्राञ्चः ।
अथाऽऽलोकाभावेनैव तमोव्यवहारोपपत्तेर्न तस्य द्रव्यत्वकल्पनमिति चेत् १ विपरीतमेव किं न रोचयेः ? आलोकस्य चाक्षुषजनकसंयोगाश्रयत्वेन क्लृप्तत्वान्नेवमिति चेत् १ न, चक्षुखाप्यकारितावादिनामस्माकं तम:संयुक्तचाक्षुपं प्रति योग्यताविशेषकारणत्वस्येवेष्टत्वात् । न च तादृशयोग्यतां विनाऽपि किश्चिदंशेन तमःसंयुक्तद्रव्यग्रहान्यभिचार इति बान्यम्, मन्दतमःसंयुक्तांशग्रहे तादृशयोग्यताया अवश्याऽपेक्षणात् । अंशांशिनोः कथंचिद्भेदस्य च प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । न च तस्मिन्नेवांशे! नयनपराङ्मुखतमःशालिन्यपि प्रत्यक्षोदयाद्मलोकसंयोगावच्छेदकावछिन्नचक्षुःसंयोगस्यैव द्रव्यचाक्षुपे हेतुत्वमुचितमिति वाच्यम्, घकादिचाक्षुषानुरोधेन चक्षुरुन्मुखतमःसंयोगवच्चाक्षुपं प्रति योग्यताविशेषहेतुत्वस्यैवाऽवश्यमाश्रयणीयत्वात् । आलोकाऽजन्यद्रव्यचाक्षुपं प्रत्येवेतस्य हेतुत्वमस्त्विति तु नाभिधानीयं, आलोकजन्यतावच्छेदकनियतरूपस्यैवापरिचयात् । आलोकासंयुक्तचाक्षुषं प्रति तस्य हेतुत्वमित्यपि न वक्तुं युक्तम्, महदुद्भूतरूपवत्तन्निवेशे गोरवादन्यथा स्फुटदोषात् । अधिकमन्यत्र प्रपञ्चितमस्माभिः इति श्रेयः ।
परेण हि चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नमहद्भुताऽनभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वेन द्रन्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणता वक्तव्या । सा च न सम्भवति आलोकसंयोगस्याप्यवच्छेदकत्वसम्भवे विनिगमनाविरहात् । एतेन स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःप्रतियोगिकसंयोगसम्बन्धेन तस्य कारणताsपि प्रत्याख्याता । अथ द्रव्यनिष्ठलौकिकविपयितासम्बन्धेन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति पर्यवसन्त्यास्तस्याः कारणताया अपेक्षया लाघवात् समवायेन तमोभित्रीयलौकिकविषयतावच्चाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवचक्षुःसंयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन कारणता कल्प्यते । चक्षुःसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववच्चक्षुःसंयुक्तेत्यादिसम्बन्धेन कारणतायां गौरवमेव विनिगमकमिति चेत् ? न, तथापि
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*लघुस्याद्वादरहस्य * कारणतावच्छेदकांतर्गतकतिपयभागानां सम्बन्धविधया निवेशाऽनिवेशाभ्यां तदोषात्, स्वावच्छेदकावच्छिन्नेत्यादिसंबंधेन तत्र तमःसंयोगस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया अप्यबकाशाच ।
पेचकादिचाक्षुषे व्यभिचार सर्वत्र साधारणदृषणम् । न च नरचाक्षुषं प्रत्येव तस्य कारणता, अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां चाक्षुषे तथापि व्यभिचारात् । न च स्वभाविकनरचाक्षुषलग कार्यतालच्छेदकलाबायं दोषः, स्वाभाविकत्वस्यालोकसंस्कृतचक्षुर्जन्यत्वरूपस्यालोककारणतापरिचयं विनाऽपरिचयात्, अन्यस्य दुर्वचत्वात् । अथाऽअनाद्यसंस्कृतचक्षुर्जन्यत्वं तदिति चेत् ? न, आदिपदार्थाननुगमेन कार्यतावच्छेदकाऽननुगमात् । नाप्यालोकेतराऽसंस्कृतचक्षुर्जन्यत्वं तत्, आलोकेतरस्याञ्जनावेळभिचारेण चाक्षुषाऽजनकत्वेन चक्षुरसंस्कारकत्वात् । अंजनायभावकालीनचाक्षुषं प्रत्यंजनादीनां जनकत्वे चालोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्वमात्रस्यालोकसंयोगकार्यतावच्छेदकौचित्यात् । एवमपि सिद्धं नः समीहितमिति चेत् ? न, तदपेक्षया लाघवेन तमःसंयुक्तान्यचाक्षुपत्वस्यैव तत्रौचित्येन तमसो द्रव्यवसिद्धेः, पूर्वोक्तमत्पथि लाघवतर्कस्य सर्वातिशायित्वाच ।
यत्तु फलबलात्तत्रालोकविशेषः कल्प्यते, व्यभिचारग्रहे सत्यालोकस्य कारणताग्रहस्यैवानुपपत्तेः । कथमेवमिति चेत् ? न, तदवच्छेदेन व्यभिचारग्रहस्यैव तत्सामानाधिकरण्येनापि कारणताग्रहप्रतिबन्धकत्वात्, अत्र चालोकत्वसामानाधिकरण्येनैव तद्ग्रहे तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहस्य निरपायत्वात्, अन्यथा कचित्प्रथममतिप्रसक्तेनापि धर्मेण कारणताग्रहोत्तरं पश्चादनुगताबच्छेदकधर्मकल्पनासिद्धांतच्याकोपाऽऽपत्तेरिति, तन्न, तदालोकेनान्येपामपि चाक्षुषापत्ते(रित्वात् । अनन्तप्रतिनियतसंस्कारकताकल्पने च महद्दीरवादिति दिग । एतेन "द्रव्यचाक्षुषसामान्य प्रत्यालोकसंयोगकारणतायाः क्लप्तत्वादालोक बिना वीक्ष्यमाणस्य तमसः कथं द्रव्यत्वं" इत्यपि दरमपास्तम् ।।
तीतरतिककदशिनस्तु - द्रव्यचाक्षुपं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतुत्वेऽपि तामसेन्द्रियेणैव तमोग्रहसम्भवानानुपपत्तिः । न च मीलितचक्षुषोऽपि तद्ग्रहापत्तिः, चक्षुःश्वश्रोत्रवत्तस्य चक्षुर्गोलकाधिष्ठानत्वात् । न च तव्यस्थापकगुणाभावात्तादृशेन्द्रियाऽसिद्धिः, गुणत्वस्य व्यवस्थापकतायामतन्त्रत्वात्, इन्द्रियान्तराग्राह्यग्राहकतामात्रस्य प्रकृतेऽपि सत्रात् । न च पेचकादीनां दिवापि घटादि. ग्रहापत्तिः, तामसेन्द्रिये तमःसंयोगस्यापि सहकारित्वात् । न च तमसि तमःसंयोगासंभवगे गगनतमःसंयोगस्यैव जागरूकत्वात् । नन्वेवमपि किश्चिदवच्छेदेन तमःसंयोगवति भित्त्यादावालोकसंयुक्तेऽपि तामसेन्द्रियेण प्रतीतिः स्यादिति चेत् ? तर्हि तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामसेन्द्रियसंयोगस्यैव तद्ग्रहहेतुत्वमस्तु, विनिगमनाविरहस्तु तवापि तुल्यः । चन्द्रिकायां पेचकादेस्तु | चाक्षुषमैवाऽभ्युपेयम् । न च दिवाऽपि तद्ग्रहाऽऽपत्तिः, फलबलात्सौरालोकस्य तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनादित्याहुः ।
तत्तुच्छम्, तमः पश्यामीति प्रतीतेनिरालम्बनत्वापत्तेः । अथ पश्यामीति विषयता न्यायनये चक्षुःसंनिकर्षदोषविशेषयोरिव मन्मते तामसेन्द्रियसंनिकर्षस्यापि नियम्या, अव्यवहितोत्तरत्वस्य कार्यतावच्छेदककोटी दानेन ज्यभिचाराऽप्रचारादिति चेत् ? न, तथापि तामसेन्द्रियेण तमस इब घटादीनामपि, पेचकादीनामिव नराणामपि ज्ञानाऽऽपत्तेः । न च नरतामसेन्द्रियजन्यज्ञानं प्रति तादात्म्येन तमसस्तमस्त्वादेव कारणत्वं, अंजनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां तु बहलतमे तमसि घटादीनां न ताम|| सेन्द्रियजन्यं ज्ञानं किन्तु चाक्षुषमेव । न चालोकं विना कथं तदानीं तेषां तचाक्षुषमिति वाच्यम्, आलोकस्येवाअनादेरपि चाक्षुषे चक्षुषः पृथक् सहकारित्वात् ।। ___अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुप एवालोकाजन्यचाक्षुषे हेतुत्वादंजनादेहेतुतावच्छेदकत्वमेवेत्यपि कश्चित् । तन्न, अंजनावभावाकालीन. चाक्षुषं प्रति स्वसंस्कृतचक्षुःसंयोगसम्बन्धेनाञ्जनादेरेव हेतुत्वीचित्यादित्यपरे । वस्तुतः सामान्यतः एका चाक्षुषजननी योग्यताऽपरा च तमःसंयुक्तचाक्षुषजननी । तत्र पेचकादीनां दिवा न चाक्षुपं मानवानां च नक्तं न घटादिचाक्षुषमित्यत्र स्वभाव एव शरणम् ।। न चैवं स्वभाववादिमतप्रवेशः समवायाऽभ्युपगमे तदप्रवेशात, 'बहिरिन्द्रियज्ञाने उपनीतस्य विशेषणत्वमेव, मानसे तु विशेष्यत्व मपि', इत्यादी परस्यापि स्वभावस्याश्रयणीयत्वात् । सर्वज्ञानस्वभावावगमे तत्तत्पुरुषतत्तद्देशतत्तत्कालतनविषयायाश्रित्य विचित्रज्ञानावरणक्षयोपशमवशाद्विचित्रज्ञानदर्शने को बा बिस्मयः स्यावादाऽऽस्वादसुंदरधियाम् ?
किश्च तमसोऽभावत्वे विधिमुखप्रत्ययो न प्रादास्यात् । न च ध्वंसादिवदुपपत्तिस्तथापि घटस्य ध्वंस इतिवदालोकस्य तमः इति प्रत्ययापत्तेः । न चालोकाभाव एव संकेतितस्तमःशब्दः इति न तदापत्तिस्तथापि करिकलभेत्यादिवत्तत्प्रयोगस्य साधुत्वापत्तेः । किञ्च, अंधतमसावतमसाद्युत्कोऽपकर्षदर्शनादपि तस्य द्रव्यत्वं, महदुद्भुताऽनभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावत्वकतिपयतदभावत्वयोरज्ञानेऽपि तदुव्यवहारात् । इत्थं च तमचलतीत्यादि प्रत्यक्षमपि तद्रव्यत्वसाक्षि । न च स्वाभाविकगतेरन्यगत्यनुविधानानुपपत्तिः, पद्मरागप्रभायामेवाश्रयचलनानुविधानदर्शनात् । पद्मरागचलनं विनापि कुड्यावरणविगमादिनापि तत्प्रभाचलनमुपलब्यमिति चेत् । तर्हि स्थिरेऽपि स्तम्भादौ प्राक पश्चात् दीपसम्बन्धादिना तमश्चलनोपलंभः किं काकेन भक्षितः!
!! १. पेचको . धूकः, तदुक्तं श्रीहेमरिपूज्यैः, "के निशाटः काकारि: कौशिकोलूपेचका: श्लो. १३२४ अभि• चिन्तामणि ||
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10 मध्यमस्याहादरहस्ये खण्डः २
* लघुस्याहादरहस्य किन, तमसः प्रागभावत्वे उत्त्पत्तिप्रत्यय इतराभावत्वं विनाशप्रत्ययन न स्याताम् ।
स्यादेतत् - तमसो जन्यद्रव्यत्वे स्पर्शवदवयवारभ्यत्त्वं स्यात्, स्पर्शवदनंत्याऽवयवित्वस्य द्रव्यारम्कभकतावच्छेदकत्वादिति || चेत् ? मैवं, तत्र स्पर्शवत्त्वस्येष्टत्वात । किश्च, नज्यनैयायिकेन चक्षुरादीन्द्रियावयवेवनभूतस्पर्शमनभ्युपगच्छता जातिविशेष एवं प्रसारम्पकतारकर नान्युपपः, च तमस्यपि सम्भवतीति । न च द्रव्यारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्त्यैव तत्रानुभूतस्पर्शोऽभ्युपगम्यतामिति वाच्यम्, अनन्तानुभूतस्पर्शकल्पनामपेक्ष्य जातिविशेषकल्पनाया एवोचितत्वात् । तादृशजातेरन्न्यावयविन्यप्यभ्युपगमान सुवर्णत्वादिना सांकर्यम् । न च घटादीनामप्यारम्भकत्वं स्यात, तत्तदन्त्यावयवित्वेन प्रतिवन्धकत्वात् । मूर्त्तत्वेनैव द्रव्यारम्भकत्वं, न च मनसोऽपि मूर्तत्वानदारम्भकत्वाऽऽपत्तिः, मनोऽन्यमूर्तत्वेनैव तथात्वादित्येके । मूर्त्तत्वेनैव तथात्वं, | मनसि द्रव्यानुत्पत्तिस्तु विजातीयसंयोगरूपहेत्वन्तराभावादित्यपरे ।
यत्तु - द्रव्यारम्भकतावच्छेदकतया पृथिव्यादिचतुर्चेव भूतत्वाख्यो जातिविशेष: कल्प्यते, आकाशे भूतत्वव्यवहारस्तु भाक्त " इति, तन्न, तमःसाधारणस्याऽपि तस्य कल्पयितुं शक्यत्वात् । मनसोऽनतिरिक्तत्वनये भूतमूर्तपदयोः पर्यायत्वापत्तेश्च ।
स्वतन्त्रास्तु . एकत्वनिष्ट एवं द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेष: कल्यते । स चान्न्यावयव्येकत्वव्यतिरिक्त एवेति न तत्तदन्त्यावयवित्वेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनागीरवमित्याहुः ।
इत्यश्च तमःसद्भावे मानमप्याहुः - तमो भावरूपं, धनतरनिकरलहरीप्रमुखशब्दय॑पदिश्यमानत्वात्, आलोकवत् । ननु तमसो नीलरूपबत्त्वे पृथिवीत्वमेव स्यानातिरेक इति चेत् ! न, दाहप्रयोजकपृथिवीत्वाभावस्य जल इव तमस्यपि तवानपलप
यत्वात् । नन्वेवं नीलसमवायिकारणतावच्छेदकपथिवीवाभाववति तमसि नीलमाकस्मिक स्यादिति चेतन, उभयसाधारणजातिविशेषस्यैव नीलसमवायिकारणतावच्छेदकत्वात् । विजातीयानुष्णाशीतस्पर्शस्येव विजातीयनीलस्यैव पृथिवीत्वं जनकता'वच्छेदकत्वमित्यप्याहुः । अवयवनीलादिनैवाक्यविनीलोपपत्ती पृथिवीत्वस्य तत्समवाधिकारणताऽनवच्छेदकमित्यप्याहः । अवयवनीलादिनवावयविनीलोपपती पृथिवीत्वस्य तत्समवायिकारणताऽनवच्छेदकत्वं, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनावयवनीलादिमति रूपादी नीलानुत्पत्तिस्तु जन्यसन्मात्रसमवायिकारणतावच्छेदकीभूतद्रव्यवाभावादेवेति तोकदेशिनाऽपि स्वीकाराच्च ।
एवं च 'नात्रालोकः किन्त्वंधकार' इति व्यवहारोऽपि समर्थितः । न ह्ययं 'नात्र घट: किन्तु तदभावः' इतिवत्समर्धयितुं शक्यते, नात्रालोकः किन्त्वन्धकारतदभावाविति व्यवहारांतरस्यापि दर्शनात् । यक्वन्धकारस्याऽऽलोकाभावत्वेऽधकारे नालोक इति प्रतीतिन स्यादिति केनचिदुक्तं, तत्तु मोघं, घटाभावे घटो नास्तीतिवत्तदपपत्तेः । एवं सत्यंधकारेऽन्धकार इति प्रतीत्यापत्तिस्तु स्यादेव । न ह्यन्धकारत्वमालोकाभावत्वादिदानीमतिरिच्यते । अथैतादृशसमभित्र्याहारस्य शाब्दबोधजनकत्वानेयमापत्तिः, जायमानप्रतीतेः प्रमात्वं विष्टमेवेति चेत् ? तथाप्यंधकारे नांधकार इति प्रतीतेभ्रंमत्वं स्यात्। अभावचाक्षुपं प्रत्यालोकाधिकरणसंनिकर्पस्य हेतुत्वादालोकं विना दृश्यमानस्य तमसो नाऽभावत्वं इत्यपि कश्चिदिति दिग ॥५॥ एतदवष्टम्भाय दृष्टान्तमाहुः . 'गुडा ही ति -
गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् ।
द्वयात्मनि न दोपोऽस्ति गुडनागरभेपजे ।।६।। निगदसिद्धोऽयम् ॥६॥
अथ नित्यत्वाऽनित्यत्व-भेदाभेद-सत्त्वासत्त्व-सामान्यविशेषात्मकत्वाऽभिलाप्य(वा) नमिलाप्यत्वादिधर्माणां विरोधशंका| मुहिधीर्षवोऽभिदधति द्वयमिति'' .
द्वयं विरुद्धं नैकत्राऽसत्प्रमाणप्रसिद्धितः ।
विरुद्धवर्णयोगो हि दृष्टो मेनकवस्तुषु ॥७|| P3 = प्रकाथयवृत्तिसत् । द्वयं - नित्यत्वाऽनित्यत्वादिक, न विरुद्धं - न परस्परानधिकरणाधिकरणम् । तत्र हेतुमाहुः - अदिति-प्रमाणप्रसिद्धरसत्त्वात् । न हयेकत्र सतोर्वस्तुनोविरोधग्राहकं किंचित्प्रमाणमस्ति । तथाहि, न हि जलानलपोरिव तयोर्विरोधोऽनुभूयते, रूपरसयोरिवैकवृत्तित्वस्यैवानुभविकत्वात् । न चैकज्ञानानन्तरमज्ञायमानन्वं तथा, नित्यत्वादिज्ञाने सत्यप्यनित्यत्वादेर्ज्ञानात् । स्वभावतो विरोधाभिधानं तु स्ववासनामात्रविजूंभितम् ।। ननु नित्यानित्यत्व भेदाभेदयोर्भवतु प्रागुक्तदिशैकत्रवृत्तित्वं, सत्त्वाऽसत्चयोस्तु कुत इति चेत् ? श्रुणु । सर्वं हि वस्तु
, परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च न सत । व्यवहरति हि घटोऽयं मातत्वेन काशीयत्वेनाऽयतनत्वेन | रक्तत्वेन चास्ति, न तु ग्राचीयत्वेन प्रयागीयत्वेन श्वरतनत्वेन श्यामत्वेन चेति ।
नन्वेतादृशमसत्त्वं व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावपर्ययसन्नमिति चेत् ? किं तावता ? तादृशाऽभावे मानमेव नास्तीति चेत् !
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* लघुस्यादादरहस्य * न, 'घटत्वेन पटो नास्तीति प्रतीतेरेव मानत्वात् । यत्किंचिद्धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं यत्र तृतीयान्ताल्लभ्यते तत्र प्रकारीभूततद्धर्मावच्छित्रप्रतियोगिताकस्यैव व्युत्पत्तिबललभ्यत्वात् । कथमन्यथा घटत्वेन कम्बुग्रीवादिमानास्तीत्यादिप्रतीतेरपि प्रा. माण्यम् ? प्रत्यक्षे हि येन रूपेण प्रतियोगिनोऽनुपलम्भस्तद्धर्मावच्छिन्ना प्रतियोगिता संसर्गमर्यादया भासते तादृशधर्म एव च तृतीयान्तेनोल्लिख्यते इति । पटास्तित्वं च प्रदेशपुञ्जपरिणमनरूपं मार्त्तत्वेन न विरुद्धम् । न च समयकालस्याऽनवच्छेदकत्वाद् द्रव्यादिचतुष्टयबाधस्तत्र प्रतीतिबलात् स्वस्यैव स्वास्तित्वावच्छेदकत्वात् ।
___ अध यदेव स्वरूपेणाऽस्तित्वं तदेव पररूपेण नास्तित्वणिति कामेव नावाप्रद रखिदियेत् । नननुन्मिलय, ग्रावत्वेन नास्तित्ववति पटादी किं मार्त्तत्वेनास्तित्वमुपलब्धवानसि ? मार्नत्वमार्त्तभिन्नत्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वयोस्तथाप्यद्वैतमेवोपलमे इति चेत् ? तत्किं तत्तन्निमित्तापेक्षाकृतविशेषं न ज्ञातवानसि ? साहजिकभेदयाचा तु पृधद्रव्ययोरेवोचिता । ___सामान्यविशेषात्मकत्वमपि, वस्तुनः सदृश-विसदृशपरिणनी अपेक्ष्य अनुवृत्ति-च्यावृत्तिप्रत्ययजननात् । न ह्येतदनुरोधेन तयोः पदार्थान्तरतास्वीकार उचितः । यतः सामान्य नित्यमेकमनेकसमवेतं च परैरभ्युपेयते, तदयुक्तं - अत्र मृत्पिडे घटत्वमासीदिति प्रतीत्या तस्यानित्यत्वसिद्धे। । एकत्वमप्यनित्यतया प्रतीयमानस्याऽस्य सदशपरिणतिरूपस्येच संग्रहनयार्पणया माजते। तथा (हि)अनेकसमवेतत्वमपि जातेयांवव्यक्तिवृत्तित्वरूप न संगच्छते, अतीताऽनागतव्यक्तिवृत्तित्वस्यैव दुरुपपादत्वादित्याहुः ।
अथ यथा भवन्मते एकस्य शब्दस्य सर्वार्थवाचकत्वं अतीतानागतव्यक्तिनिरूपितत्वस्य कादाचित्कत्वेऽपि तन्निरूपितवाचकताया एकत्वेन निर्वहति तथा ममापि तत्तव्यक्तिनिरूपितत्वस्य कादाचित्कत्वेऽपि तबिरूपितसमवायस्यैकतयाऽनेकसमवेतत्वं जातेनिर्वक्ष्यते इति चेत् ? न, समवायस्येवाविष्वम्भावातिरिक्तस्याऽसिद्धेः । एतेनाऽनेकवृत्तित्वं च स्वाश्रयान्योन्याभावसामानाधिकरण्यमिति वर्धमानवचनमप्यपास्तं, विशेषेऽतिव्याप्तितावस्थ्यवारणाय सामानाधिकरण्यस्य समवायगर्भवावश्यकत्वात् ।
किं च - अनुगतधीजनकत्वेन सिध्यत सामान्यमभावादिसाधारण्येनैव स्वीकमचितम् । अपि च क्वचिदखंडोपाधिस्वीकर्तुस्तब स्वामिप्रेतजात्या पलायितमेव । किञ्च - लाघवाद्व्यञ्जकत्वेनाऽभिमतानामुपाधीनामेव संग्रहनयार्पणयेकीभवतां तत्त्वकल्पनमुचितम्, अन्यथा प्रवृत्त्यादिजनकतावच्छेदकत्वेन कारणत्वादीनामप्यतिरेककल्पनाऽऽपत्तेः । ___अथैवमपि उर्ध्वतासामान्ये मानाभावों गदकुंडलादी कांचनत्वरूपतिर्यक्सामान्येनैव कांचनं कांचनमित्यनुगतप्रतीतेर्निवाहादिति चेत् ? न, यदेव कांचनमंगदीभूतं तदेव कुंडलीभूतमित्यादिप्रतीतीनामेकाकारत्वस्योर्ध्वतासामान्यं विनाऽनुपपत्तेः । यद्यपीदृशमूर्ध्वतासामान्यं चिरस्थायिनां गुणपर्यायाणामपि सम्भवति तथापि पूर्वापरपरिणामसाधारण द्रव्यमवंतासामान्यमित्यत्र द्रव्यपदं धर्मिपरमिति न कोऽपि दोपः ।
विशेषपदार्थस्वीकारोऽपि तेषां भेदकधर्मान्तराऽभाववत्तां परमाण्यादीनां नित्यद्रव्याणां परस्परं योगिभेदप्रत्यक्षानुपपत्तेः । सोऽप्यनुपपन्नस्तद्गुणेष्वपि तत्स्वीकाराऽऽपत्तेः । अथ तत्र शुक्लतरत्वाद्यवांतरजातयः स्वीक्रियन्ते, परमाणी त्वन्त्यकार्याऽवत्तिन्यस्ताः स्वीकर्तुं न शक्यन्ते इति चेत् ? तथाप्यवांतरजातीयेष्वपि रूपादौ परस्परच्यावृत्तिः किमधीना ? स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्धविशेषाधीना चेत् ? तर्हि स विशेषो गुणनिष्ठ एव कल्प्यतां, परमाणी परस्परव्यावृत्तिस्तु स्याश्रयसमवायित्वसम्बन्धेन विशेषाधीनत्यत्र किं विनिगमक ? गणानां बहत्वात् तत्रानन्तविशेपकल्पनायां गौरवमेव चिनिगमकमिति चेत् ? तथापि प्रत्येक विनिगमनाविरहः कुत्र लीन: ? रूप एव विशेषः कल्प्यते पृथिवीपरमाणुरूपाणां पाकादिनच विशेषः, तत्र विशेषाकल्पनलाघवादित्यप्याहुः ।
किश्च - तादृशविशेषाणामपि भेदः कुतः ? स्वत एवेनि चेत् ? तर्हि तदाश्रयाणामपि स्वत एवायमास्थीयतामन्ततस्तत्तद्वयक्तित्वादीनामपि भेदकत्वसम्भवात्, प्रतिद्रव्यमनंतागुरुलघुपर्यायाणां विलक्षणानां सिद्धांतसिद्धत्वाच ।
अभिलाप्यत्वाऽनभिलाप्यत्वे अपि न विरुद्धे । दृष्ट हि घटस्य यथा घटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वं तथा पटपदापेक्षयाऽनमिलाप्यत्वमपीति । नन्वभिलाप्यभावापेक्षयाऽनंतगुणिता अनभिलाप्या भावा भवद्भिरूपेयन्ते - यदक्तं बृहत्कल्पवृनी "पनवणिज्ज". ति' । तेष्वेवेदमन्पपन्नमिति चेत ? न, तस्याऽनभिलाप्यपदेनवाऽभिलाप्यत्वात् ।।
ननु किमिदमभिलाप्यत्वं न तावत्पदजन्यबोधविषयत्वं, तदविषयेऽपि कचिद् घटादावभावात् । नाऽपि तद्बोध्यतावच्छेदकरूपवत्वं, घटस्याऽपि पटपदामिलाप्यत्वापत्तेः, पकस्यापि पदस्य सर्वार्थवाचकत्वात् । नापि गृहीततत्तदर्थनिरूपितसंकेतकपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्वं तत, पटपदस्यापि यटे संकेतग्रहसंभवात्तदोषाऽनतिवृत्तेः । अत एव न तत्तदर्थस्वरूपपरिणामपरिणतपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्वमिति चेत् ? मैवं, गृहीततत्तदर्थनिरूपित-नियंत्रित-संकेतकपदवोध्यतावच्छेदकरूपवत्स हि घटपदस्यैव कोशादिना संकेतो नियम्यते न तु पटपदस्पेति नातिप्रसंगः । अत एव श्रुतज्ञानाविषयीभूतानामर्थानां प्राति१. पनवगिना भावा अणंतभागो उ अभिलणाणं" । = 'प्रज्ञापनीया; भावा अनंतभागस्त्वनमिलाप्पानाम् ।
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12 मध्यमस्याझादरहस्ये खण्डः २
* लघुस्याद्वादरहस्य * स्विकरूपेण संकेतग्रहासंभवात् अनमिलाप्यत्वम् । ___अध घटादिपदस्पैव तत्तदर्धपुरस्कारेणाऽपि संकेतग्रहः कुतो न भवति इति चेत् ? तादृशश्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयो. पशमलक्षणयोग्यताऽभावादिति गृहाण । यत्र च यत्पदस्य नियंत्रितसंकेतो गृह्यते तत्पदप्रयोक्ता पुपः तदर्थप्रतिपादकत्वेनैव व्यवद्रियते । अत एव भगवतां तत्तत्पप्रयोक्तृणामपि श्रुतज्ञानाऽविषयीभूतार्थाऽप्रतिपादकत्वम् । इदमेवाऽभिप्रेत्याभ्यधायि | "केवलपिनेयत्य" ति ।।
दिगंबरास्तु . परकीयघटादिज्ञानस्य स्वेष्टसाधनताज्ञानात् तत्र प्रयोक्तुरिच्छा, तत इष्टघटादिज्ञानसाधनतया घटादिपदे, तत्साधनतया च कंठताल्वाद्यभिधातादाविरता, तात्याविक्रमेण पाश्चिदप्रयोग इत्येतादशपरिपाट्याः केवलिनामभावात न ते शनप्रयोक्तारः किन्तु विश्रसात एव मूनों निरित्वरा ध्वनयस्तनच्छन्दत्वेन परिणम्यार्थविशेषं बोधयन्तीत्याहुः । तत्प्रति- | विहितमन्यत्राऽस्माभिः ।।
एवं च नित्याऽनित्यत्वादिधर्माणां वस्तुतो विरोधाऽभावेऽपि यदि कथञ्चिविरोधः परेणाऽभ्युपेयते, अभ्युपेयतां तर्हि बादं, तथापि तेषामेकत्र समावेशे न किनिदाधकं पश्यामः । कथंचिद्विरुद्धत्वेनाऽभ्युपेतानामपि नीलपीतादीनामेकत्र समावेशस्य दृष्टत्वात् इत्याहुः विरुदेति' । मेचकवस्तुष = मिश्रवस्तुपु, विरुद्धवर्णानां नीलपीतादीनां, योग = एकत्र समावेशो, हि = यतो, दृष्टः = सकलजनानुभवसिद्धः । प्रतियन्ति हि सर्वेऽपि लोकाभित्रमपि घटं नीलत्वपीतत्वादिना । न च तत्राऽवयवनीलादिमत्तैव परम्परया प्रतीतेर्विषयः, एवं सति योग्यरूपादीनां त्रुटिमात्रगतत्वापत्तेश्चित्रायव्यवहारस्तु नीलविशिष्टपीतादिनैकवृत्तिनीलपीतोभयादिना वा। विशिष्टाऽविशिष्टभेदं तु स्याद्वादिनो वयं न प्रतिक्षिपामः, नीलादिविभाजकोपाधीनामेव पंचभ्योऽनतिरेके तात्पर्यात् ।। (सप्तमश्लोकव्याख्या संपूर्भा) अथ , अनेकान्ते परेषामपि संमतिपदिदर्शयिषवः प्रथमतः तथागतसंमतिमाविष्कुर्वन्ते -
विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकारकरम्बितम् ।
इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।८॥ "विज्ञान' ति । विज्ञानस्य संविद एकमाकार स्वरूपं नानाकार(करम्वितं-) चित्रपटाद्यनेकाकारमिभितमम्युपगच्छन बौद्धो !! नानेकान्तं(प्रतिक्षिपत् =) निराकुर्यात - तस्यानेकान्तवादनिराकरण न बलबदनिष्टाननुबन्धीत्यर्थः । स हि परमाणी मानाभावातत्सिद्ध्यधीनस्थूलाऽवयवित्वस्याप्यसिद्धेर्नीलादेः प्रतिभासत्वाऽन्यथानुपपत्त्या विषयं विनापि वासनामात्रेण धियां विशेषाञ्च ज्ञानादनेकमपि, इति कथं न तस्यानेकान्तबादिकक्षापंजरे प्रवेशः ? ॥८॥ अथ अनेकान्ते योगवैशेषिकायपि संमानयंति - चित्रमिति ।
चित्रमकमने कं च रूप प्रामाणिकं वदन् ।
योगी बैशेषिको वाऽपि नानेकान्त प्रतिक्षिपेत् ॥५॥ यद्यपि - चित्ररूपाभ्युपगन्तारी सांप्रदायिको नैयायिकवैशेषिकी चित्रे घटे न रूपान्तरमभ्युपगच्छतो, नीलादिप्रतीतेरवयवनीलादिनवोपपत्तेः । नीलादिसामग्रीसत्त्वात तत्र नीलादिकमपि कृतो नोत्पद्यत इति चेत् ? स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादेः प्रतिवन्धकत्वात् । नीलाद्यभावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसंबंधेन विरोधित्वमिति तु वायुपनीतसुरभिभागादेनीरूपत्वे न शोभते । चित्रसामान्य प्रति च रूपत्वेनैव हेतुता । न च नीलमात्रारब्धे अपि तदापत्तिः, रूपजचित्रे नीलाभावादिपटकस्यापि हेतुत्वात् । नन्वनीलपीतोभयकपालारज्ये घटे पाकनाशितावयवपीतस्वचित्रेऽवयवे व्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तिकाले तदापत्तिः, कार्यसहभावेन नहेतुत्वान् । नील-नीलजनकतेजःसंयोगाऽन्यतरत्वावच्छिनाभावस्प वा तथात्वान् । नीलेतर-पीतेतरत्वादिनैव तद्धेतुतेत्यप्यन्ये । अग्निसंयोगजचित्रं प्रति च विजातीयतेजःसंयोग एव हेतुः, रूपमात्रजाऽतिरिक्त एव वा स हेतुः फलबलेन वैजात्यकल्पनात्, तेन नोभयजे उभयोः कारणत्वकल्पनम् । पाकजचित्रे वा मानाऽभावः, पाकादवयवे नानारूपोत्पत्त्यनंतरमेवाऽवयविनि चित्रस्वीकारे लाघवात् । चित्ररूपे रूपत्वेनैव हेत्ता, नीलमात्रारब्धे तु प्रागभावाभावादेव न चित्रोत्पत्तिरिति । अस्तु वा चित्रं प्रति चित्रेतररूपाभावस्य चित्रेतात्प्रति च चित्राभावस्य कार्यसहभावेन हेतुताऽतो नाऽतिप्रसंगः इति रामभद्रसार्बभौमाः ।
केचित्तु नीलेतररूपाऽसमवायिकारणत्व-पीतेतररूपासमवायिकारणत्वादिनैव चित्रं प्रति हेतुतेति पाकरूपयोः न पार्थक्येन कारणतेत्याहः । तचिन्त्यम् - असमवायिकारणत्वस्याऽननुगतत्वात, गुरुत्वाच । नीलादिकं प्रति नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकतावच्छेदकसंबंध: स्वासमवायिकारणसमवायिसमवेतत्वमेव । न चेतरत्वस्यापि सम्बन्धमध्ये निवेशाऽनिवेशाभ्यां विनिगमनाविरहः नीले
१. कालचित्रवत्ये सुअनागणं जिणी गरासेइ । सुअनाणकवाली बिहु तेणेवत्थं पयासँइ । केबलविज्ञयानि श्रुतज्ञानेन जिनः प्रकादापति । श्रुतज्ञानकवल्याप
खर, नेवार्थान प्रकाशपनि ।।
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* लघुस्याद्वादरहस्य *
|तररूपत्वादिना स्वाश्रयसमवेतत्व संबन्धेन प्रतिबन्धकतावादिनोऽपि तुल्यत्वात् । जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रति च रूपत्वेनैवाऽसमवायिकारणत्वं न तु नीलादौ नीलादे:, प्रयोजनाभावात् । न च प्राकृपक्षोक्तदोषाऽनतिवृत्तिः, संबंधाननुगमस्यादोषत्वात् । अन्यथा चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुष्ट्वेनाऽपि कारणता न स्यात् संयोगादिप्रत्यासत्तीनामननुगमात् ।
इत्थं च नानारूपवदवयवारब्धे चित्ररूपसिद्धिर्निराबाधा | चित्रं प्रत्यपि प्रागुक्तदिशा नीलेतरपीतेतरत्वादिनैव हेतुतातो न कश्विदोष इति तु न्यायवादार्थेऽस्मटेककल्पनानिजृम्भितम् । विजातीयं चित्रं प्रति रूपविशिष्टरूपत्वेनैव हेतुत्वं वैशिष्ट्यं न | स्वविजातीयत्व - स्वसंचलितत्वोभयसम्बन्धेन । स्ववैजात्यं च चित्रत्वातिरिक्तं यत्स्यवृत्ति तद्भित्रधर्मसमवायित्वम्, स्वयंचलितत्वं च स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायिवृत्तित्वम् । विजातीयचित्रं प्रति च विजातीयतेजः संयोगत्वेन हेतुतेत्यपि कश्चित् । यतु नीलपीतोभयाभाव- पीतरक्तोभयाभावादीनां स्वसमवायिसमवेतत्व संबंधावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां समवायानच्छित्रप्रतियोगिताकानां च विजातीयविजातीयपाकोभयाभावादीनां यावत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एकत्रित्वावच्छिन्नं प्रति हेतुरिति तन्त्र, प्रतियोगिकोटावुदामानप्रवेशाऽप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहात् । चित्रत्वावच्छिन्ने रूपत्वेनैव हेतुता, नीलपीतो| भयजन्यचित्रत्वाऽवांतरजात्यवच्छिन्ने नीलपीतोभयत्वेनैव, त्रितयारब्धे तत्त्रितयत्वेन हेतुता, नीलपीतोभयारब्धचित्रे च नीलपीतान्यत||रादीतररूपं प्रतिबन्धकमिति न त्रितयारब्धचित्रवति द्वितयारब्धचित्रापत्तिः, गौरवं तु प्रामाणिकत्वादिष्टमित्यन्ये । अत्र नीलतरनीलतमोभयत्वादिना तदुभयजन्यचित्र यपि च नीलतरनीलतमान्यतरेतररूपत्वादिना प्रतिबन्धकता तेन न नीलपीतोभयारब्धचित्रवति तदापत्तिरिति बोध्यम् ।
केचित्तु नानारूपवदवयवारब्धो घटो नीरूप एव । न चैवमप्रत्यक्षः स्यात्, द्रव्यतत्समवेतचाक्षुषसाधारण्येन चाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रत्येव स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वात् । अत एव त्रुटिचाक्षुषानुरोधेन परमाणुयणुकयोरपि सिद्धिरित्याहुः । तचिंत्यम् - चित्रकपालिकास्थले तदसम्भवात् । किं न घटाकाशसं यांगायचाक्षुपत्वानुरोधाय चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व संबंधन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनमेवोचितम् । स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावत्प्रत्यक्ष संबंधेन पर्याप्तिमतः स्वाविच्छिन्नाधेयतावद्गुणप्रत्यक्षत्वसंबंधेन पर्याप्तिमत्त्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वकल्पने ऽप्यव्यासज्यवृत्त्याकाशादिगुणाचाक्षुषत्वोपपत्तये रूपवत्त्वस्य प्रत्यासत्तिघटकत्वे गौरवात् । चचाक्षुपाभावस्यैवास्तु चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं आश्रयाचाक्षुषत्वेनैव व्यणुकायचाक्षुषत्वोपपत्ती महत्त्वस्यापि प्रत्यासत्त्यघटकत्वे लाघवादिति वाच्यम् त्रुटिचाक्षुपानुरोधेन द्रव्यान्यत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदककोटी दाने गौरवात् । लौकिक विषयतावच्छिन्नचाक्षुषाभावापेक्षया समवायसंबन्धावच्छिन्नरूपाभावस्य लघुत्वाच ।
अथैवं रूपायुत्पत्तिक्षणेऽपि रूपादेः प्रत्यक्षं कुतो नेति चेत् ? विषयाऽभावादिति गृहाण । रूपनाशक्षणे संयोगादिचाक्षुषं । तु न, शपथमात्रश्रद्धेयत्वात् । इत्थं न तादृशघटस्य नीरूपत्वे तादृशघटवृत्तिसंयोगादिचाक्षुषं न स्यात् । एतेन उद्भूतैकत्वस्यायोग्यव्यावृत्तधर्मविशेषस्य वा द्रव्यचाक्षुषकारणत्वेन रूपं विनाऽपि यदादिचाक्षुपत्वोपपादनेन तादृशघटस्य नीरूपत्वसमर्थनं - प्रत्याख्यातम् | त्रुटावेव विश्रामे वायो: स्पार्शनत्वे च स्पार्शनं प्रति स्पार्शनाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं न तु स्पर्शाभावस्य त्रुटि - ! समवेत्तास्पार्शनानुरोधेन संयुक्तसमवायप्रत्यासत्तिमध्ये प्रकृष्टमहत्त्वस्य घटकत्वं गौरवात् । एवं च तादृशघटस्य निःस्पर्शले तु न क्षतिरिति ध्येयम् ।
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एकदेशिनस्तु तत्र अव्याप्यवृत्तीनि नानारूपाण्येव । न चावच्छेदकतया नीलाद्यभावादिसामग्रीबलात्पीताद्यवयवावच्छेदेन | नीलाद्यापत्तिरवच्छेदकतया रूपत्वायवच्छिन्नाभावस्य तथात्वेऽपि नीलपीतावयवारब्धे पीतावयवावच्छेदेन पाके रक्तोत्पत्तिकाले सा कार्यसहभावेन तदभावात् । अवच्छेदकतया नीलादीकं प्रति समवायेन नीलादेः कारणताभ्युपगमाद्वा । नन्वेवं यदादावप्यवच्छेदकतया नीलाद्युत्पत्तिः स्यात्, सामग्रीसस्त्रादिति चेत् ? अत्र केचित् अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेनाज्ययवनीलत्वादिना द्रव्यविशिष्टनीलत्वादिना वा हेतुत्वमित्याहुः ।
अन्य तु - अवच्छेदकतया तद्वारणाय स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यसमवायसंबन्धेनाऽवश्यकल्प्यहेतुताकस्य नीलाद्यभावस्यैव तादृशपदादाव| भावान्नावच्छेदकतया नीलाद्युत्पत्तिः । तद्रव्यत्वादिना हेतुत्वे तु मूर्त्तत्वादिना विनिगमनाविरहाद्बहु हेतुहेतुमद्भावाऽऽपत्तेरिति ध्येयम् । केचित्तु केवलनीलकपालादिष्ववच्छेदकतया नीलादिवारणायावयवान्तरवृत्तिनीलेतररूपादेः स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायसंबंधन हेतुत्वमभ्युपगच्छन्ति । तन्नेत्यन्ये । कपालांतरावच्छेदेन पाकाद्रक्तरूपोत्पत्तिकाले कपालांतरविद्यमानानीलादेरव्याप्यवृत्तिनीलाsनापत्तेः । रक्तोत्पत्त्यनंतरमेव तत्राऽव्याप्यवृत्तिनी लोत्पत्तिं स्वीकुर्वन्त्यपरं । नन्वेवमपि नानारूपवत्कपालाद्यारब्धे घंटे तत्क पालावच्छेदेन नीलाद्यापत्तिरिति चेत् ? नीलकपालिकावच्छिन्नतदवच्छेदेनेष्टत्वमेव तस्याः ।
यत्तु अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेन नीलादीनां न कारणत्वं किन्तु नीलेतररूपादीनामेव प्रतिबन्धकत्वमिति न तत् नीलाद्यवच्छेदकं किन्तु नीलकपालिकैव तादृशीति तत्तुच्छम् कपालानीलायचच्छेदिकायाः कपालिकाया घटनीलाय
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14 मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
* लघुस्याद्वादरहस्प* वच्छेदकत्वाऽयोगात् नीलादीनामपि नीलेतररूपादिप्रतिबन्धकतायां विनिगमकाभावाच । नीलत्वादिना प्रतिवध्यतायां लाघवं तु न पक्षपाति, प्रतिबन्धकतायामपि तत्संभवात् ।
'अवयोगान्या नीलागि प्रति समयामेन नीशादिकं हेतः, अवच्छिन्ननीलादिकं प्रति च स्वाश्रयसमवेतत्वसंबंधेन नीलाद्यभाचो हेतुः' इत्यप्याहुः । सामानाधिकरण्यसंबंधावच्छिन्नप्रतियोगिताकनीलेतरायभावस्यावच्छेदकतया नीलादिकं प्रति कारणता इति कश्चित् । अव्याप्यवृत्तिरूपस्वीकार एव च "मुखे पुच्छ्रे च पांडुर" इत्यादाववच्छेदकत्यार्थिका सप्तमी संगच्छते। न चैवं नीलकपालावच्छेदेन संनिकर्षे पीतादिग्रहापतिः । अव्याप्यवृत्तिचाक्षुपं प्रति चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवा यसंबंधावच्छिन्नाधारतायाः संनिकषत्वस्य संयोगादिस्थले क्लृप्तत्वादित्याहुः ।।
अत्र केचित् - चित्ररूपवादिना नीलादिकं प्रति नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं, नीलाभावादीनां चित्रं प्रति हेतुता च कल्प्या, अव्याप्यवृत्तिरूपवादिनाऽपि अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेन नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं, केवलनीलावच्छेदकतया नीलोत्पत्निवारणाय प्रागुक्तद्रव्यघटितसंबंधेन नीलाभावादीनामवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति हेतुत्वं च कल्पनीयमिति यद्यपि तुल्यम्, तथापि चित्ररूपवादिमतेऽनंताऽव्याप्यवृत्तिरूपतध्वंसप्रागभावाद्यकल्पनलाघवमित्याहः । तत्राऽव्याप्यवृत्तिरूपवादिमते विनिगमनाविरहेण नीलेतरादिकं प्रति नीलादीनामपि स्य कल्यत्वात् तुल्यत्वोक्तेरनौचित्यात् । अव्याप्यवृत्तिरूपस्वीकारे नीलपीतवत्यग्निसंयोगानीलनाशात्तदवच्छेदेन रक्तं न स्यात्, रूपं प्रति रूपस्य प्रतिबन्धकत्वात् इत्यप्याहुः ।
अपरे तु . तत्र व्याप्यवृत्तीन्येव नीलापीतादीन्युत्पद्यन्ते, नीलादिकं प्रति नीलेतरादिप्रतिबन्धकत्वनीलाभावादिकारणत्वाऽ. कल्पनया लाघवात् । न च नीलकपालाचच्छेदेन चक्षःसंनिकर्षे पीतादेरुपलंभापत्तिः, पीता पीतादिग्राहकत्वकल्पनात् । यत्त्वेतत्कपालावच्छिन्नसंयोगादिप्रत्यक्षानुरोधेनैतत्कपालानवच्छित्रवृत्तिकत्वे सति यत्तत्पीतान्यं तद्भिनं यदेतद्घटसमवेतं तस्यैतत्कपालविषयकसाक्षात्कारं प्रत्येतत्कपालावच्छेदेनैतघटचक्षुःसंयोगस्य हेतुत्वात् न नीलाद्यवयवावच्छेदेन चक्षुःसनिक पीतादिचाक्षुषमिति - तन्न, तथापि नीलावयवावच्छेदेन चक्षःसनिक एतत्कपालाविषयकतत्साक्षात्कारापत्ते 'त्वात् । "मुखे पुच्छे च पांडुर' इत्यादी तु मुखवृत्तिपांडुरत्वमेव परंपरयाऽवयचिनि प्रतीयत इत्याहुः ।
'तथाऽपि ये नीलपीतरक्ताधारयघटादौ नीलपीतरक्तेभ्य एच नीलपीतोभयज-रक्तपीतोभयज-तत्रितयजचित्राणां चोत्पत्तिः, सर्वेषां सामग्रीसत्त्वात्, अनुभवसिद्धत्वाच, तत्र त्रितयजचित्रं व्याप्यवृनि, अन्यत्त्वच्याप्यवृत्ति, एकमेव वा तद्रूपमस्तु जातेरव्याप्यवृत्तित्वोपगमेन तु किंचिदवच्छेदेन नीलत्वपीतत्वादिकं विलक्षणचित्रत्वादिकं च व्यवह्रियते - इति येऽनुमन्यते तदभिप्राये
दम्' । स्वयं हि ये एकत्र घटे च्याप्यवृत्त्येकं चित्रमव्याप्यवृत्तिचित्रांतरं चाभ्युपगच्छन्ति तेषामनेकान्तवादाऽनादरो न ज्यायानिति भावः इति सर्वमचदातम् ॥९॥ अधाउनेकान्तवादप्रामाणिकतां कापिलमतेनाऽपि संवादयति "इच्छत्रि" ति -
__इच्छन् प्रधान सत्त्वाद्येविरुखैमुस्फितं गुणः ।
सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१०॥ सत्त्वाद्यैः = सत्त्व-रजस्तमोभिः, 'सत्त्वं लघुप्रकाशकमित्यादिकारिकालाक्षितैः, विरुद्ध। गुम्फितं तत्साम्यावस्थात्वमापत्रं प्रधानमङ्गीकुर्वन् सांख्यो यदि अनेकान्तवादं निराकुर्यात् तर्हि कथं न स्वाधिरूढशाखाच्छेदनकौशलमासादयेदिति भावः ॥१०॥
अथ लोकायतिकानां व्यवहारदर्नयावलम्बिना सकलतान्त्रिकबाह्यानां किं सम्मत्याऽसम्मत्या वा इति तेषामवगणनामेवाऽऽविष्कुर्वते "विमति' रिति -
विमतिः सम्मति,पि चार्वाकस्य न मृग्यते ।
परलोकात्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी ।।११।। येषां परलोकात्ममोक्षेष्वेव मोहः तैः सह विचारान्तरविमतिसंमती अपर्यालोचितमूलारोपणकप्रसादकल्पनसंकल्पकल्पे इति | भावः । १. - अयमत्र संदर्भ: - पटण्या बह्वः पुत्राः, योकोऽपि गयो ब्रजेत् । यजेत वाऽश्वमेधेन नीलं वा वृषगरजेत ॥१।। अत्र वृषविशेषणभूननीलपदार्थस्येयं
परिभाषालोहितो यस्तु वर्णेन. गुसे पुच्छे च पांडुरः । चन: खुर-विषाणाभ्यां स नीलो वृष उच्यते ॥२॥ अन्न सप्तम्या अवच्छिन्नत्वाघे संगतिः । २. एतच्छ्लोकव्याख्यारम्भे विद्यमाने 'यद्यपी ति पदमत्रानुसंधेयम् । ३. चित्र काम त्यादि श्लोकेनाऽनेकान्तसमर्थनम् । ४, "सत्वं लघु प्रकाशकमिटमुपरभक
चरं च रजः । गुरुवरणकमेव तमः, प्रदीपश्चार्धतो वृत्तिः ॥१३|| (सांख्यकारिका) किश्विभ्यारण्या-कार्यागमन हेतुः धर्मो लाघवम्, गौरवं प्रतिद्वन्दि, यथाग्नेः ऊर्य ज्वलनम, कस्पचित्तिर्यगमनेऽपि हेतुर्यथा वायोः । एवं करणानां लिपटुत्वरेतुलाघवम । सत्त्वतगसी स्वयमक्रिये रजसोपटभ्येते = स्वकार्ये उत्साह = प्रयत्न कार्यते 1 वरणकं = आररकग्, आच्छादकमिति यावत् । प्रदीपबचति - यथा वर्तितले अनलबिरोधिनी, अथ मिलिते सहानलन रूपप्रकाशलक्षणं कार्य कुरुत एवं सत्त्वादीन्यपि मियो विरुद्धान्यपि अनुवस्यन्ति स्वकार्य कारप्पन्ति च । अर्थतः = पुरुषार्धतः।। इति ।
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* लघुस्याद्वादरहस्य *
( चार्वाकमतपूर्वपक्ष: )
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ते हीत्थं ब्रुवते न खलु निखिलेऽपि संसारे भूतचतुष्टयाऽतिरिक्तं किमप्यात्मादि वस्तु विद्यते, अनुपलब्धेः । किन्तु | कायाकारपरिणतं भूतचतुष्टयमेव चैतन्यमाविभर्त्ति । न च प्रत्येकमचेतनानां समुदायेऽपि कथं चैतन्यमिति वाच्यं मदव्यक्तिवदु| पपत्तेः । नव्यचावकास्तु अवच्छेदकतया ज्ञानादिकं प्रति तादात्म्येन कल्प्यकारणताकस्य शरीरस्यैव समवायेन ज्ञानादिकं प्रति हेतुत्वकल्पनमुचितम् । न चैवं आत्मत्वं जातिर्न स्यात् पृथिवीत्वादिना सांकर्यात् इति वाच्यम्, उपाधिसांकर्यस्येव जातिसांकर्यस्याप्यदोषत्वात् । न चैवं परात्मन इव तत्समवेतज्ञानादीनामपि चाक्षुपस्पार्शने स्यातामिति वाच्यम्, रूपादिषु जातिविशेषमभ्युपगम्य रूपान्यतद्रत्त्वेन चाक्षुषं प्रति स्पर्शान्यतत्त्वेन च स्पार्शनं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पनात् । इत्थमेव रसादीनामचाक्षुषास्पार्शनत्वनिर्वाहातू । अथैवं स्वज्ञानादेरपि प्रत्यक्षं कथमिति चेत् ? मनसैवेत्यवेहि । मन: सिद्धावेव किं मानमिति चेत् ? अनुमानमेव । न चानुमानोपगमेऽपसिद्धांतः, अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वाभ्युपगमात् । आत्मन: शरीरानतिरेके संयोगस्य पृथक् प्रत्यासत्तित्त्वाऽकल्पनेन लाघवमपि ।
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अथ द्र्यणुक - परमाणुरूपाद्यप्रत्यक्षाय चक्षुः संयुक्तमनुद्भूतरूपवत्समवायत्वादिना प्रत्यासत्तित्वे त्रुटिग्रहार्थं संयोगस्य प्रत्यासत्तित्वमावश्यकमेवेशि प्रव्यतत्समवेत प्रत्यक्षं महत्त्वस्य समवाय सामानाधिकरण्याभ्यां पृथग् नियामकत्वात् ।
ननु मम शरीरमित्यादिप्रतीत्यात्मनोऽतिरेकः सेत्यस्यतीति चेत् ? न उक्तलाघवबलेनेदृशप्रतीतेभ्रं मत्वकल्पनात्, श्यामोऽहं, | गोरोsहं, इत्यादिसामानाधिकरण्यानुभवाच । ननु तथापि भूतचतुष्कप्रकृतित्वेन शरीरस्य पृथिव्यादिभिन्नत्वात्पृथिव्यादिचतुष्टयमेव | तत्त्वमिति प्रतिज्ञासंन्यास इति चेत् ? न स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन गंधाभावस्य गन्धं प्रति प्रतिबन्धकत्वेन तस्य भूतचतुष्कप्रकृति - त्वायोगात् पार्थिवादिशरीरे जलादिधर्मस्येवीपाधिकत्वादिति दिग् । इत्थं च शरीरायतिरिक्तस्यात्मन एवासिद्धी कस्य नाम परलोकः कस्य वा मोक्ष इत्याहुः
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( चार्वाकमतनिरसन उत्तरपक्षः )
तेऽतिपापीयांसः सर्वापलापित्वात् । तत्र यत्तावदुक्तं भूतचतुष्टयातिरिक्तमात्मादि वस्तु नास्त्येवानुपलब्धेरिति तत्र केयमनुपलब्धिः ? स्वभावानुपलब्धिर्वा ( १ ), व्यापकानुपलब्धिर्वा (२), कार्यानुपलब्धिर्वा (३), कारणानुपलब्धिर्वा (४), पूर्वचरानुपलब्धिर्वा (५), उत्तरवरानुपलब्धिर्वा ( ६ ), सहचरानुपलब्धिर्वा ( ७ ) ? तत्र न तावदाया, यतः स्वभावानुपलब्धिर्हि | उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तत्स्वभावस्यानुपलंभो, भवति चैतादृशो मुंडभूतले घटादेरनुपलम्भो न तु पिशाचादेः, तस्योपलब्धिल| क्षणप्राप्तत्त्वाऽभावात् । न च सिद्ध्यसिद्धिभ्यां व्याघात, आरोप्ये तद्रूपनिषेधात् । न चादृश्यस्यापि दृश्यतयाऽऽरोप्य प्रतिषेधो युक्तः, आरोपयोग्यस्यैवाऽऽरोपसंभवात् । उपलंभकारण साकल्ये सति हि यदुपलभ्यते स एव दोषवशात् कचित्कदाचिदारोप्यते, तादृशस्तु घटादिरेव न तु पिशाचादिः । एकज्ञानसंसर्गिणि प्रदेशादी घटादेः प्रागनुभूयमानत्वात्, पिशाचादेरतथात्वादिति स्पष्टं स्याद्वादरत्नाकरे |
अथैवं स्तंभे पिशाचानुपलब्धिः कथं ? तत्रैकज्ञानसंसर्गितया पिशाचस्य पूर्वमननुभूतत्वेनाऽनारोप्यत्वात् इति चेत् ? न | योग्य सहकारिसंपन्नत्वपर्यन्तस्य विवक्षणादत्राऽधिकरणयोग्यताया एव नियामकत्वादिति विग् । इत्थं चात्मनि चक्षुरादिना स्वभावा|नुपलब्धिर्नास्त्येवाऽऽत्मनश्चक्षुराद्ययोग्यत्वात् । मनसा तूपलब्धिरैवास्ति वाढ, अहं सुखीत्यायनुभवस्य सार्वज- नीनत्वात् (१) ।
न द्वितीयतृतीये, व्यापककार्यज्ञानाद्युपलंभादेव । कारणाद्यनुपलंभस्तु कार्यपूर्वी त्तरनिषेधकत्वादात्मनश्चानीदृशत्वात् न बाधकः | | (२-३-४-५-६ ) | सहचरानुपलब्धिरपि नास्ति आत्मसहचराणां चेष्टादीनां बाढमुपलंभादेव । किं च परस्परसांकर्यस्याऽन्योन्याभावाऽनभ्युपगमे दु:परिहरत्वाद्भूतचतुष्टयमपि लोकायतिकेन कथंकारमुपपादनीयम् १ यदपि मदव्यक्तिबच्छरीरे ज्ञानोत्पादाभिधानं तदपि तुच्छ, प्रत्येकमपि क्रमुकादिष्वस्माभिर्मदशक्तेः स्वीकारात् त्वया पुनरनुमानापलापिना प्रत्येकं भूतेषु ज्ञानशक्तेः स्वीकर्त्तुमशक्यत्वात् ।
यदपि नव्य- चार्वाकमतानुयायिभिरूचे अवच्छेदकतयेत्यादिना, तत्तु नैयायिकैरेव पराकृतम् । तथाहि ज्ञानादे: प्रत्यक्षं तावत् | सार्वजनीनं तत्तु न चाक्षुषादिकं चक्षुराद्यव्यापारेऽपि जायमानत्वात् । न च मानसमेव, मनसोऽनुमानापलापेऽभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् । अथ परामर्शजन्यज्ञानाभ्युपगमेऽपि तत्रानुमितित्वे मानाभावात् सर्वप्रमायाः प्रत्यक्षरूपत्वात्र प्रमाभेदाधीनः प्रमाणभेदः इति एतावदेवाभिमतमिति चेत् ? न 'वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतः ' एतादृशनिश्चयस्यैतदुत्तरदहनानुमितित्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वेन धर्मविशेषसिद्धी धर्मिविशेषसिद्धेः । न चैतदुत्तरज्ञानत्वमेव तज्जन्यतावच्छेदकं, अप्रामाण्यज्ञानशून्यतादृशनिश्श्रयं विनापि तदवच्छिन्नसंदेहसंभवेन व्यभिचारात् । विशिष्टाऽन्यवहितोत्तरत्वदाने च गौरवात् ।
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16 मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २
* लघुस्याद्वादरहस्य
यत्त्वप्रामाण्यज्ञानाभावस्य पृथक्कारणत्वान्नायं दोष इति तन्न तत्तद्व्यक्तित्वेनाप्रामाण्यग्रहाभावानां तत्तदप्रामाण्यग्रहाभाव| विशिष्टधूमादिलिङ्गकानुमितिं प्रति हेतुत्वकल्पनापेक्षया सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासंबंधावच्छिन्नप्रतियोगिताकाप्रामाण्यग्रहा| भावानामवच्छेदकत्वकल्पनौचित्यात् ।
यत्तु 'वह्निमनुमिनोमी' त्यनुव्यवसायेनानुमितित्वसिद्धिरिति तत्र तत्र विधेयताविशेषस्यैव विषयत्वात् । अन्यथा पर्वतमनुमिनीमीत्यपि स्यात् । परामर्शजन्यतावच्छेदकतायामपि स एव प्रवेश्यतामिति चेत् । न तदीयसंबंधोपेक्षयाऽनुमितित्वीयसंबंधस्य समवायरूपस्य कार्यतावच्छेदकत्वे लाघवात् ।
ननु तथापि अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वमेवेति प्रागंगीकृतम् । न चानुमितेः साक्षात्कारत्वे 'वहिं न साक्षात्कारो - मीति प्रतीतिः कथमिति वाच्यं तत्र लौकिकविषयतया साक्षात्काराभावादेव गुरुत्वादाविव तदुपपतेः । अत एव लौकिकविषयतावत्येव साक्षात्करोमीति प्रतीत्युत्पत्तेः 'पीतं शंखं साक्षात्करोमी' त्यादिप्रतीतिबलाद्दोषविशेषजन्यतयापि लौकिकचिपयतां कल्पयन्ति ग्रान्थिकाः । युक्तं चैतत् चाक्षुपादिसामग्रीसत्त्वे मानसत्वरूपव्यापकधर्मावच्छिन्न सामग्रयभावादेवानुमित्यनुदयोत्पत्ती अनुमितित्वादेस्तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वाऽकल्पनेन लाघवात् ।
अथानुमित्साद्युतेजकभेदेन विभिन्नरूपेण प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव आवश्यक इति चेत् ? न तत्तदिच्छानंतरोपजायमानभिन्नमानसे जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छिन्नं प्रति मानसान्यसामग्रचाः प्रतिबन्धकत्वकल्पनादनुमितित्वादेर्मानसवृत्तित्वकल्पनीचित्यात् । अथ तत्तदिच्छाविरहकाले उत्तदिच्छानंतशेपजायमानमानसापत्तिरिति चेत् ? न तादृशमानसं प्रति तत्तदिच्छानां | हेतुत्वात् । न चैवं गौरवं फलमुखत्वात् ।
अथ सुस्मूर्षानंतरोपजायमानभिन्नज्ञाने जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छेदेन चाक्षुपादिसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वेऽनुमितित्वादेः परोक्षवृत्तित्वमेवास्तु इति चेत् १ न तदवच्छेदेन स्मृत्यन्यज्ञानसामग्रथा एवं प्रतिबन्धकत्वात् तज्जातिविशेषस्य स्मृतित्त्वव्याप्यस्यैव युक्तत्वात् । तज्जातिवदन्यज्ञानसामग्रीत्यादिना प्रतिबन्धकत्वेऽपि विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यतावच्छेदकतया सिद्धस्य 'प्रत्यक्षस्यैवानुमितो युक्तत्वात् इति चेत् ?
अत्र वदन्ति तदानीं वह्निमानसस्वीकारे लिङ्गादीनामपि मानसाऽऽपत्तिः । न चाऽऽचार्यमत इव तत्र तज्ञानमात्रे इष्टापत्तिः | एवमप्युच्छृंखलोपस्थितानां घटादीनां तत्र भानाssपत्तेः । न च तद्धर्मिकतत्संसर्गकतत्तद्धर्मावच्छिन्नव्याप्यवनाज्ञानात्मकपरामर्शादिरूपविशेष सामग्री विरहात् न तदापत्तिरिति वाच्यं सामान्य सामग्रीवशात्तदापत्तेः । न च घटमानसत्वस्य परामर्शादिप्रतिबध्यताबच्छेदकतया न तदापत्तिः, पटमानसत्वादेरप्युच्छृंखलोपस्थितपटादिभानवारणाय तत्प्रतिबध्यावच्छेदकत्वेऽनंतप्रतिबध्यप्रतिबन्धक| भावकल्पनाऽऽपत्तेः ।
अथ भोगपरामर्शजन्यभिन्नज्ञाने जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छिन्नमानसं प्रति तज्जातीयान्यज्ञानसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्यान तदानीं वल्लीतरज्ञानाssपत्तिरिति चेत् ? न मानसत्वस्यैव तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् । न चैवं अनुमितिसामग्रीसत्यां भोगोऽपि कथं भवेदिति वाच्यं भोगान्यज्ञानप्रतिबंधकतावच्छेदकतया समानीतजातिविशेषवतां सुखदुःखानामुत्तेजकत्वात् । न च तादृशसुखदुःखकालेऽनुमितिसामग्रीभूतपरामर्शादी समवायेन तदभावादनुमित्यापत्तिः, सामानाधिकरण्य- कालिकोभयसंबंधावच्छिन्नतदभावस्य निवेशात् ।
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अत्रेदं चिन्त्यम् - अनुमितिसामग्र्या मानसं प्रति प्रतिबंधकत्वस्य तत्तदिच्छारूपोत्तेजकभेदेन विशिष्य विश्रान्त्यानुमितेर्मानसत्व एक वलयादिधर्मिकमानसं प्रत्यप्रतिबंधकत्वकल्पनया लाघवम्, तत्तदिच्छोपजायमानभिने प्रतिबध्यतावच्छेदकजातिस्वीकारस्तु परामर्शजन्यभिन्नेऽपि स्वीकर्तुं शक्यते इति न वलवाद्यनुमितिसामग्रीकाले उच्छृंखलोपस्थितघटादिभानवारणाय मानसत्वस्प तत्तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वकल्पनौचित्येनानुमितेरप्रत्यक्षत्वाभिधानं युक्तमिति 1
प्राश्वस्तु उपनीतभानस्थले विशेषणज्ञानविशिष्टबुद्धयोः कार्यकारणभावेनैवास्माकं चरितार्थता । अनुमितेर्मानसत्वव्याप्य तावादे तु पक्षादर्मुख्यविशेष्यत्तयैव भानान्नानेन गतार्थता, इत्यतिरिक्तकार्यकारणभावकल्पने गौरवमित्याहुरिति दिग् ।
सिध्यतु वा यथाकथंचित् मनः अनुमानेन, तथापि यत्संयोगव्यतिरेकात् सुषुप्तिकाले कार्यानुत्पादस्तस्यैव मनस्त्वात्तस्य भौतिकात् पृथिवीत्वजत्वादी विनिगमनाविरहात्, नव्यनये पृथिव्यादेरपि रूपवत्त्वाभावेन वायुत्वेऽपि विनिगमनाविरहादतिरेकसिद्ध्या भूतचतुष्टयमात्रस्य पदार्थत्वप्रतिज्ञासंन्यासात् । न चात्मनः शरीरानतिरेके संयोगादेः पृथक् प्रत्यासत्तित्वाकल्पन| लाघवमपि परमाणी पृथिवीत्वादिग्रहवारणाय महत्त्वोद्भूतरूपयोः प्रत्यासत्तिमध्येऽवश्यं निवेश्यत्वेन त्रुटिग्रहार्थं तत्स्वीकारात्, | इत्यन्यत्र विस्तरः ।
* उदयनाचार्यमत इव
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* लघुस्याद्वादरहस्य
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किंच शरीरस्यात्मत्वेऽहमात्मेतिवदहं शरीरमिति प्रत्ययोऽपि प्रमा स्यात्, न स्याच्चाहमात्मवानितिवदहं शरीरवानित्यपि । 'अपि च :- एगे आया इत्याद्यागमोऽप्यात्मानमुद्योतयतीति । स चायं “चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पोहलिकादृष्टवांश्चेति” "सूत्रम् । इत्थञ्चात्मन: सिद्धौ तसिद्ध्यधीनौ परलोकमोक्षावपि सिद्धावेव । ननु | मोक्षश्चेदशेषविशेषगुणोच्छेदरूपस्तर्हि तत्र कस्यापि प्रवृत्तिर्न स्यात्, विशेषगुणोच्छेदत्वस्याऽनिष्टतावच्छेदकत्वात् । अथ दुःखध्वंसत्वमेव काम्यतावच्छेदकमिति चेत् ? न समनियताभावानामैकत्वेन तदानींतनसुखदुःखध्वंसयोरे क्याद्दुः खध्वंसे सुखध्वंसत्वरूपाऽनिष्टतावच्छेदकज्ञानस्य प्रवृत्तिप्रतिबन्धकत्वात् । अथ नित्यनिरतिशय सुखाभिव्यक्तिरूपः स इति चेत् न तादृशसुखे मानाभावादिति चेत् ? अत्राहुः - ' कृत्स्नकर्मक्षय एव मोक्ष:' । स च सूक्ष्मर्जुसूत्रनयाऽर्पणया नित्यसुखाभिव्यक्तिक्षणस्वरूपो, व्यवहारनयार्पणया नित्यसुखस्वरूपः, प्रमाणार्पणया तु द्रव्यपर्यायोभयस्वरूप इति दिग् । काम्यतावच्छेदकं तु विजातीय सुखत्व- । मेव । न च नित्यसुखे प्रमाणाभाव:, आगमस्यैव मानत्वात् । न च सुखत्वावच्छेदेन शरीरादीनां कारणत्वात्तादृशं सुखं कथमिति वाच्यं एवं सति परेषामीश्वरादी नित्यज्ञानादिकमपि न सिध्येत्, ज्ञानत्वायवच्छेदेनात्ममनोयोगादीनां कारणत्वावधारणात् । | प्रमाणान्तरान्नित्यज्ञानादिसिद्धी कार्यतावच्छेदकसंकोचस्त्वन्यत्रापि तुल्य इति दिग् ।
मीमांसकास्तु प्रायशोऽनेकान्तवादस्वयमेव न
दिन शुभ संमत्यनुक्त्या न्यूनत्वमिति ध्येयम् ॥ ११॥ इत्थमनेकान्तवादं परेषामपि संमत्या प्रमाणयित्वा संप्रति वस्तुस्वरूपमाहुः " तेनेति” तेनोत्पादव्ययस्थैमसंभिनं गोरसादिवत् ।
त्वदुप कृतधियः प्रपन्ना वस्तु वस्तुसत् ||१२||
तेन प्रागुक्तयुक्त्पर परेषामपि संमत्या च कृतधियः सत्परीक्षादक्षाः त्वदुपज्ञं = त्वदंगीकृतमेव वस्तुसत् पारमार्थिक ||वस्तु प्रपन्नाः = अंगीकृतवन्तः । कीदृशं वस्तु ? उत्पादव्यवप्रीव्यसंभिन्नमेतत्त्रितयस्वभावमित्यर्थः । अयं भावः - द्रव्यस्योत्पादोच्छेदध्रीच्यैक्यपरिणामः स्वभावस्तथा च पारमर्षं " उपने वा, विंगमेइ वा, धुबेड़ व" त्ति यथैव हि द्रव्यवास्तुनः साम. स्त्येनैकस्यापि विष्कंभक्रमप्रवृत्तिवर्त्तिनः सूक्ष्मांशाः प्रदेशास्तथैव हि द्रव्यवृत्तेः सामस्त्येनैकस्या अपि प्रवाहक्रमप्रवृत्तिवर्त्तिनः | सूक्ष्मांशाः परिणामाः । यथा च प्रदेशानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनो विष्कंभक्रमः तथा परिणामानां परस्परव्यतिरेकनिबंधनः प्रवाहक्रमोऽपि यथैव च ते प्रदेशाः स्वस्थाने स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकवास्तुतयानुत्पन्न - प्रलीनत्वाचोत्पत्तिव्ययश्रीव्यत्रितयात्मकमात्मानं विभ्रति तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पत्रोच्छनत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूति सूत्रितैकप्रवाहतयाऽनुत्पन्नप्रलीनत्वाच्चोत्पत्तित्र्ययध्रौव्यत्रितयात्मकमात्मानं विभ्रति । यथैव च य एवं पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मको वास्तुसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितकवास्तुतया तदुभयात्मक इति तथैवात्रापि य एवं पूर्वपरिणामोच्छेदनात्मको वृत्तिसीमान्तः, स एव तदुत्तरोत्पादात्मक:, स एव च परस्परानुस्यूति सूत्रितैकवृत्तितया तदुभयात्मक इति । दृष्टान्तोऽत्र मुक्तादाम । यथा दीर्घे लम्बे मुक्तादामनि सर्वेष्वपि स्वधामसूत्रकसत्सु मुक्ताफलेषु उत्तरोत्तरेषु। धामसूत्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात् पूर्वेषां पूर्वेषां चानुदयनात् सर्वत्राऽपि परस्परानुस्यूति सूत्रक सूत्रस्थावस्थानाच त्रैलक्षण्यं प्रसिद्ध तथान्त्रापि ध्येयमिति ।
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अत्र निश्चयतः प्रदेशादीनामुत्पत्तिनाशसंभवेऽपि व्यवहारतः परिणामानामेव तौ । यदवच्छेदेन च श्रीव्यं तदवच्छेदेन तु नोत्पत्तिनाश, अन्यथा संकरापत्तेः । उत्पादव्यययोः द्रव्यत्वं तु स्वाबलंबितपर्यांयालंबनत्वाद्बोध्यम् । उत्पाद-स्थिति-भंगाश्व न परस्परं सर्वथा भिन्ना: कुंभसर्ग - मृत्पिण्डसंहार - मृत्तिकास्थितीनामैक्येनैवानुभवनात् । द्रव्यस्य स्थितिकाल एव च पर्यायाणामुत्पत्तिनाशसंभवान क्षणभेदोऽपीति परमसमयामृतास्वादोद्गारः । इत्थं च सर्वेषां द्रव्याणामेकस्वभावत्वेऽप्ययं कश्चिद्विशेषो यदिह पुद्गलजीवद्रव्य एव परपरिणामाद्वैचित्र्यमनुभवतः । भवन्ति हि यथा परमाणवः स्निग्धरुक्षत्वादिविशेषेण परस्परमेकीभवंतो द्र्णु| कत्र्यणुकादिसमानजातीयद्रव्यपर्यायभाजो रागद्वेषादिप्रवृत्तिपारतंत्र्येणात्मानश्वासमानजातीयद्रव्यपर्यायभाज इति न ह्येवमाकाशादय इति दिग् ।
नन्वेकस्मिन् समये विरुद्धोत्पत्त्यादिधर्म समावेशः कथमित्याशंकायां दृष्टान्तमाहुः गोरसादिवदिति । यथाहि गोरसे स्थायिनि पूर्व दुग्धपरिणामविनाशोत्तरदधिपरिणामोत्पादौ प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धत्वान्न विरुद्धी, तदुक्तं ""पयोव्रती न दध्यत्ती "त्यादि, तथेहापि द्रव्ये सर्वदा स्थायिनि पूर्वपरिणामोच्छेदोत्तरपरिणामोत्पादी प्रतीतिबलादेव न विरुद्धाविति भाव इति श्रेयः श्रीः ||१२||
(अथ ग्रन्थकारप्रशस्त्यादि ) - स्थाद्भादोपनिपनिषण्णविलसद्युक्तिप्रचारेऽपि या व्युत्पत्त्यै दधिरेऽत्र कावन महत्नैयायिक
१. स्थानांगसूत्रं प्रथमम् । २. प्रमाणनयतत्त्वायेक परि० (७) सू० (५६) । ३. योती न दध्यत्ति, न प्रयोऽत्ति विव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे, तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् । शास्त्रवातसमुचय र ७ ली श
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________________ .. .. ..... . 15 मल्याहाको साहा * लघुस्याद्वादरहस्य * प्रक्रिया: / किं चित्रं भुवि चातुरीपरिचितप्रेमामृतास्वादिना, तत्रास्मद्गुरवो नयादिविजयप्राज्ञाः प्रसन्ना यदि // 1 / सोऽयं श्रीतपगच्छमंडनमभूत् श्रीहीरसूरीश्वरो, रंभागीतजगद्गुरुत्वबिरुदप्रयोतमानोदयः / यस्य श्रीमदकम्बरप्रतिहत्तप्रत्यर्थिसीमंतिनी नेत्रास्त्रैर्मलीनीकृतामपि महीं कीर्तिः सितामातनोत् // 2 // रिश्रीविजयादिसेनसुगुरस्तेजस्विनामग्रणीस्तत्पट्टोदयपर्वते स्म नितमां पुष्णाति पूष्णः प्रभाम् / अशायातदिगीशचंदमहसो दिल्लीपत्तेः पर्षदि ध्वस्ता येन न के कुबादिनिवहा ध्वान्तप्रबन्धा इव // 3 / / सूरिः श्रीविजयादिदेवसुगुरुः प्रयोतते सांप्रतं, तत्प कविभूषणं मुनिजनस्तुत्यक्रमांभोरुहः / सायुज्यं भजतोऽनुमेयवसति भरलेन शीतधुता, यं सेवत्यलमष्टमी प्रतिदिनं तादृक् तपोदर्शनात् // 4 // भाति श्रीविजयादिसिंहसुगुरर्नाम्ना समानौजसा, तत्पट्टाभरणीभविष्णुरनिशं योगीन्द्रहृत्पञ्जरे / विंध्याद्री द्विपत्तां कुकीर्तिनिवहे तस्मात्सुखं शेरता, चंचचंचलकर्णतालरचनादिकुंजराः कातराः / / 5 / / न्यायालंकृतिकाज्यनाटकमहच्छंदःककुञ्चेलगीर्जेनग्रंथपिचंडिला किल मर्तियेषां जज़ुभेतराम् / श्रीमद्भाचकपुंगवा समभवन् || श्रीहीरसुरीशितः श्रीकल्याणविराजमानविजयाः शिष्याः जयश्रीभूतः // 6 // श्रीहेमसूरितुलनां दधतः शब्दानुशासनोग्रधिया / श्रीलामविजयविबुधास्तेपा शिष्योत्तमाः शुशुभुः // 7 // अभवन् तेषां शिष्या विबुधाः श्रीजीतविजयनामानः / राजति तत्सतीर्थ्याः श्रीनयविजयाभिधाः विबुधाः // 8 // स्याद्वादरहस्यमिदं व्यधायि तत्पादपद्मभृगेण / जसविजयाऽभिधगणिना शिष्येण नवीनतर्कधिया // 9 // (लघु)श्रीस्याद्वादरहस्यग्रंथः संपूर्णः / संवत् 1701 जसविजयेनांतरपल्लयां कृत इति श्रेयः / अंतरपल्या प्रकरणमेनमनुस्मृत्य तर्कशास्त्राणि / अध्यात्ममतपरीक्षादीक्षादक्षो यतिय॑तनोत् / / 1 / / श्रीः / स्वैरमिदमुपादातुं ! कृतत्वरा एवं सज्जना जगति / परहितमात्रैकफला गुणगृह्यानां यतो वृत्तिः शाश्री।। (संपूर्ण:)