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________________ २७३ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * विशेषणसङ्गतै क्कारार्थविचारः ** विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं का, तेल वृक्ष संयोग्य माऽग्रसिदिः ।। अयोगव्यवच्छेदस्तु नार्थः, 'प्रमेयमभिधेयमेवे'त्यत्रवाऽभावात् । == =* जयलता हैपितप्रतियोगित्वाभावः, अर्थ इत्यत्राऽनुषज्यते । तथाहि - 'शङ्खः पाण्डुर एव' इत्यत्र विशेष्यलक्षणशकवृत्तिः व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिको योऽत्यन्ताभावः स न तावत् पाण्डुरत्वाभावः किन्तु श्यामत्वाद्यभावः तत्प्रतियोगित्वं श्यामरूपादौ, तदभावश्च पाण्डरत्वे वर्तत इति ‘शलः स्ववृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकाभावनिरूपितप्रतियोगित्वा-भावविशिष्टपाण्डुरत्ववान्' इत्युक्तस्थले बोधः । नन्वेवं सति 'वृक्षः संयोगी एवे'त्यत्र तादृौवकाराऽसङ्गतिः स्यात् व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकाभावीयप्रतियोगितायाः संयोगानुयोगिकत्वा प्रसिद्धया संयोगे वृक्षवृत्तिच्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकाऽत्यन्ताभावनिरूपितप्रतियोगितानिषेधाऽयोगादित्याशङ्कायामाहविशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं वाऽर्थ इति । विशेष्यपदार्थवृत्तिः यो भेदः तदीयप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वविरहो वा तदर्ध इति । यथा 'शङ्खः पाण्डुर पवे' त्यत्र शवृत्तिः यो भेदः स न पाण्डुरप्रतियोगिकः किन्तु घटादिप्रतियोगिकः तदीयप्रतियोगिताया अवच्छेदकत्वं घटत्वादी तदभावश्च पाण्डुरत्ये इति 'शङ्खः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वशून्यपाण्डुरत्ववान्' इत्युक्तस्थले शाब्दबोधः । तत्फलमाह- तेनेति । विशेषणवाचकपदोत्तरैबकारस्य द्वितीयार्थोपगमेनेति । 'वृक्षः संयोगी एवे'त्यत्र स्थले नाऽप्रसिद्धिः तादर्शवकारार्थस्येति शेषः । तथाहि वृक्षवृत्तिों भेदः स न तावत् संयोगिप्रतियोगिकः किन्तु घटादिप्रतियोगिकः तत्प्रतियोगितावच्छेदकत्वं घटत्वादौ तदभावश्च घटवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्ववति संयोगे वर्तत इति तत्र 'वृक्षः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकसंयोगवानि'त्याकारको बोधो जायत इति नाऽप्रसिद्धिः । ननु विशेषणसंगतैवकारस्याऽर्थोऽयोगन्यवच्छेद एवास्तु सम्बन्धाभावाऽभावात्मकः, 'शङ्खः पाण्डुर एवे त्यादौ 'शङ्गः पाण्डुरत्वसम्बन्धाभावप्रतियोगिकाऽभाववानि' त्याद्याकारकबोधस्यैवानुभवसिद्धत्वादिति प्राचीनन्यायमतं दूषयितुमुपक्रमते नव्यःअयोगन्यवच्छेदस्तु नार्थः इति । 'विशेषणसङ्गतैवकारस्ये त्यत्राऽप्यनुषज्यते । हेतुमाह- 'प्रमेयमभिधेयमेवे त्यत्रैवाऽभावादिति । । अभाव है उसका प्रतियोगित्व घट, पट आदि में रहता है, क्योंकि घटाभाव, पटाभाव आदि वृक्ष में विद्यमान हैं। संयोग अव्याप्यवृत्ति है, क्योंकि संयोग के आश्रय में अन्य भाग में उसका अभाव भी रहता है । वृक्ष में जो संयोगाभाव रहता है वह अव्याप्यवृत्ति है, क्योंकि वह संपूर्ण वृक्ष में नहीं रहता है। शाखा में संयोग होने की वजह मूलादि अवच्छेदेन ही यानी मूलादि अमुक भाग में ही संयोगाभाव रहता है । संयोग अन्याप्यवृत्ति होने की वजह उसमें कभी भी व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभावप्रतियोगित्व रहता ही नहीं है । जो धर्म जहाँ कभी भी न रहता हो उसका बहाँ निषेध नहीं हो सकता, क्योंकि प्रसक्त का ही निषेध हो सकता है, अप्रसक्त का नहीं । एवकार का प्रयोग प्रसक्त का व्यवच्छेद करने के लिए ही | होता है। संयोग में व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभावप्रतियोगित्व ही प्रसक्त नहीं है तो वृक्षवृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभाव प्रतियोगित्व कैसे प्रसक्त होगा ? जब कि वह कभी भी संयोग में प्रसक्त = संभव = प्रसिद्ध ही नहीं है तो उसका व्यवच्छेद भी कैसे होगा ? अतः संयोगात्मक विशेषण में तादृशा प्रतियोगित्व अप्रसिद्ध हो जायेगा। फलतः विशेष्यवृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगि कात्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्व को विशेषणसंगत एवकार का अर्थ नहीं माना जा सकता। * विशेषणसंगत एवकार का दितीय अर्थ - नैयायिक समाधान :- विशेष्यनिष्ठभे. इति । विशेषणसंगत एवकार अर्थ विशेप्यनिष्ठ भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व मानने से उपदर्शित अप्रसिद्धि दोष का निराकरण हो सकता है । वह इस तरह . 'वृक्षः संयोगी एव' पहाँ वृक्ष विडोप्य है। उसमें जो जो भेद रहते हैं, उनका अवच्छेदक संयोग नहीं है, किन्तु घट, पट आदि हैं। 'वृक्षः घटवान् न, पटवान् २' इत्यादि प्रतीति होती है, एवं वृक्ष में घटवद्भेद, पटबद्भेद आदि रहते हैं। मगर न तो 'वृक्षः न संयोगी' ऐसी प्रतीति होती है और न तो वृक्ष में संयोगिभेद रहता है। अतः वृक्षवृत्तिभेदप्रतियोगिता की अनवच्छेदकता संयोग में अबाधित है। यत् किभितभेदप्रतियोगि-. तावच्छेदकता संयोग में है, क्योंकि 'गुणो न संयोगी' इत्यादि प्रतीति से गुणवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकता संयोग में प्रसिद्ध है। अतः संयोग में वृक्षवृत्ति प्रतियोगिताअवच्छेदकता का निषेध हो सकता है । इस तरह विशेषणसमभिन्याहृत एवकार का अर्थ विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वाभाव मानने से 'वृक्षः संयोगी एव' इत्यादि स्थल में अप्रसिद्धि नहीं है । अतः विशेषणसंगत एवकार का वही अर्थ उचित है । विशेषणसंगत एवकार का अयोगव्यवच्छेद अर्थ नहीं है - जव्य नैयायिक अयो, इति । प्राचीन नैयायिक आदि 'विशेषणसंगत एवकार का अर्थ अयोगव्यवच्छेद है। ऐसा मानते हैं। उसका
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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