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________________ २७५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * 'घटः सनेवे'तिवचनविचारः * तथा च 'घटः सन्नेवे'त्यत्र स्ववृत्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिसत्त्ववान् स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकसत्त्ववान् वा घट' इति बोधः, न तु सर्वसत्त्ववानिति । तथा च क्व सांकर्यम् ? एकान्तवादे परौदासीन्येन सत्त्वमात्रबोधनात् । ॐ जयलता ส एतावत्पर्यन्तकथनफलमाह- तथा चेति । 'विशेषणसङ्गतैवकारस्य स्वविशेष्यनिष्ठत्र्याण्यवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्वं स्वविशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वं बाऽर्थ' इति समर्धनप्रकारेण चेति । 'घटः सन्नेवे' त्यत्र स्थले स्ववृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिसत्त्ववानिति । 'घट इति बोध' इत्यनुकुष्यते । स्वपदेन घटो बोध्यः, 'विशेषण कुक्षिप्रविष्टस्वपदस्य विशेष्यपरत्वमिति सर्वसम्मतत्त्वात् । तथा च घटवृत्तिः योऽत्यन्ताभावः तदप्रतियोगि यत् सत्त्वं तदाश्रयो घट इत्यर्थः । बटवृत्तिरत्यन्ताभावः घटादि प्रतियोगिको न तु सत्त्वप्रतियोगिक इति तस्य तदप्रतियोगित्वमन्याहतम् । विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वस्य तदर्थत्वकल्पे आह- स्ववृत्तिभेदप्रतियोगिता नवच्छेदकसत्त्ववान्वेति । घटवृत्तिर्यः तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिकाऽभावः पटादिभेदलक्षणः तत्रिरूपित प्रतियोगिताऽवच्छेदकत्वस्य पटत्वादिवृत्तेः अभाववत् सत्त्वं, 'घटो न सन्' इत्यप्रतीतेः । तादृशसत्त्ववान् घटः इति वा बोध उक्तस्थले उपजायत इति । व्यवच्छेदमाह - न तु सर्वसत्त्वत्वानिति । अनेन घटस्य पदादिरूपताप्रसङ्गोऽि प्रत्युक्तः । तथा च क्व सांकर्यं ? इति । तादृदावाक्यजन्यबोधस्य घटेतरवृत्तिसत्त्वाऽनवगाहितया घटे परवृत्तिधर्मवत्त्वरूपं सत्त्वविरोध्यसत्त्वसमावेशरूपं वा साङ्कर्यमनवकाशमित्यर्थः । तदेवाssa - एकान्तवादे उक्तवाक्यात परौदासीन्येन = परकीयधर्मविषयकास्तित्वनास्तित्वविचारनैरपेक्ष्येण सत्त्वमात्रबोधनात् घंटे केवलं सत्त्वबोधजननात् । तत एकान्तवाद एवं विश्वकल्याणकरः न त्वेनकान्तवादः साङ्कर्यादिदोषानतिवृत्तेरिति नव्यनैयायिकस्याऽभिप्रायः । तथा च इति । विशेषणसंगत एवकार का उपदर्शित अर्थ मानने की वजह 'घटः सन् एव ' 'घट सत् ही है' इस वाक्य में विशेषणवाचक सन् पद से संगत एवकार का अर्थ होगा घटवृत्ति व्याप्यवृत्ति अत्यन्ताभाव का अप्रतियोगित्व या घटवृत्ति भेद की प्रतियोगिता का अनवच्छेदकत्व । उसका अन्वय सत्पदार्थ के एकदेश सत्त्व में होगा । अतः उक्त वाक्य से (१) घटः स्ववृत्तिव्याप्य वृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिसत्ववान्' ऐसा शाब्दबोध श्रोता को होगा । घट में जो व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिक अभाव रहते हैं वे घट, पट, मठ आदि प्रतियोगिक हैं, मगर सत्त्वप्रतियोगिक नहीं हैं। अतः सत्त्व तादृश अभाव का अप्रतियोगी है, जो कि घट में रहता है । इसलिए 'घट अपने में रहे हुए व्याप्यवृत्तिप्रतियोगिक अत्यन्ताभाव के अप्रतियोगि सत्त्वराला है' ऐसा शाब्द बोध का आकार हिन्दी भाषा में बताया जा सकता है । यदि विशेषणसंगत एवकार के द्वितीय अर्थ का स्वीकार किया जाय तब उक्त वाक्य से श्रोता को शाब्दबोध होगा कि 'घटः स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकसत्त्ववान्' यहाँ एवकार का अर्थ होगा, घटनिष्ठ भेद की प्रतियोगिता का अनवच्छेदकत्व (= अवच्छेदकत्वाऽभाव ) । उसका अन्वय स्वरूप संबंध से सत्त्व में होगा और उसका अन्वय विशेष्यभूत घटपदार्थ में होगा । अतः उक्त वाक्य से जन्य शाब्दबोध का आकार 'पट अपने में रहने वाले भेद की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक सत्त्व वाला है ' यह होगा । घट में जो भेद रहते हैं, | वे पटआदिप्रतियोगिक हैं । मगर सत्प्रतियोगिक नहीं हैं । 'घटो न सन्' ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अतः घटवृत्ति तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न अभाव की प्रतियोगिता के अबच्छेदक पटत्त्व आदि धर्म होंगे, न कि सत्व । तादृश सत्त्व का आश्रय घट है। मतलब कि घट में जो सत्त्व प्रतीयमान होता है, वह सर्व सत्त्व (= सत्ता) नहीं है, मगर सावच्छिन है, घटवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वावच्छिन्न है । इसलिए सांकर्य दोप का यहाँ अवकाश ही नहीं है । सांकर्य दोष तब प्रसक्त होता यदि घट में सत्त्व के साथ साथ असत्त्व का भी मान उक्त वाक्य से होता । मगर यहाँ तक के विवरण से हम यह देख चुके हैं कि उक्त वाक्य से घट में सावच्छिन्न (= विशिष्ट ) सत्त्व का ही केवल बोध होता है, न कि यत् किञ्चित् असत्त्व का भी, क्योंकि एकान्तवाद में, जो हमारा प्राणप्रिय है, व्यधिकरण धर्म की उदासीनता निरपेक्षता से सत्त्व मात्र का ही बोध होता है। मतलब कि व्यधिकरण धर्म की अपेक्षा पद आदि पदार्थ में कौनसा धर्म रहता है ? इस विषय में उदासीन हो कर एकान्तवाद यह प्रतिपादन करता है कि. - उक्त वाक्य से विशेष्य घट में केवल सत्ता का ही बोध होता है, जो सत्ता घटनिष्ठाभावाप्रतियोगी या घटनिष्ठभेदप्रतियोगिता नवच्छेदक होती है । उक्त रीति से सांकर्यादि दोप को अवकाश नहीं होने के सबब एकान्तवाद ही हितकर विश्वकल्याणकर है । अनेकान्तवाद के स्वीकार में तो सांकर्यादि दोष की वजह प्रमाणव्यवस्था ही विलीन हो जाती है । अतएव वह त्याज्य है - यह हम नव्यनैयायिक मनीषियों का तात्पर्य है । = * 'द्रव्यं सदेव' इस प्रतीति की अनुपपत्ति - आक्षेप =
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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