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________________ * परौदासीन्येन सत्त्वमात्रबोधनम् * लत्तेवं द्रव्यं सदेव'तिधी: कथं ? सत्तानतिरिक्ताया गुणत्वविशिष्ठसताया द्रव्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वादिति चेत् ? न, विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणत्वस्य विवक्षितस्य तत्र सत्वादिति चेत् ? == ==* जयलवा * नन्यमते कश्चिच्छङ्कते . नन्वेवमिति । विशेषणसमभिज्याहतैवकारस्य विशेष्यवृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानवच्छेदकत्वार्थोपगमे इति । 'द्रव्यं सदेवे'तिधीः कथम् ? हेतुमाह- सत्तानतिरिक्तायाः = शुद्धसत्तानतिरेकिण्याः, गुणत्वविशिष्टसत्तायाः करण्येन गुणत्वजातिविशिष्टसत्तायाः, द्रव्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वात = विशेष्यभत निरूपकतानिरूपितप्रतियोगितानिरूपितावच्छेदकतावत्त्वात् । अयमाशयः उक्तस्थले द्रव्यं विशेष्यं सत्त्वञ्च विशेषणम । द्रव्ये या सत्ता वर्तते सा न गुणत्वसमानाधिकरणत्वविशिष्टा किन्तु द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यविशिष्टा | अतः द्रव्ये सामानाधिकरण्येन गुणत्वविशिष्टसत्तावप्रतियोगिको भेदो वर्तते । तत्प्रतियोगितावच्छेदिका गुणत्वविशिष्टसत्ता । सा च शुद्धसत्तानतिरिक्ता, 'विशिष्टं शुद्धान्नातिरिच्यत' इति न्यायात् । अतो द्रव्यवृत्तिभेदस्य गुणत्वविशिष्टसत्ताधिकरणप्रतियोगिकस्य प्रतियोगितावच्छेदकता गुणत्वविशिष्टसत्तावत् शुद्धसत्तायामपि वर्तते । अतो द्रव्यविशेषणीभूतसत्तायां द्रव्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वाऽभावो नास्ति । ततः 'द्रव्यं स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्दकससाबाद ति बोधः प्रकृत भवितुं नाईतीति विशेषणसङ्गतैवकारस्य विशेष्यवृत्तिभेदप्रति - योगितानवच्छेदकत्वाऽर्थकत्वं न चारुतामश्चति । ___ नम्यनैयायिकस्तां प्रत्याचष्टे-नेति । विशेष्यनिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणत्वस्य = विशेष्यार्थवृत्तिभेदनिरूपितप्रतियोगितानिरूपिताया अवच्छेदकताया या पर्याप्तिः तन्निरूपितं यदधिकरणत्वं तदभावस्य, चिवक्षितस्य = विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वपदेन वक्तुमभिप्रेतस्य, तत्र = शुद्धसत्तायां, सत्वात् = विद्यमानत्वादिति । अयं नव्याशयः प्रतियोगितानवच्छेदकत्वपदेनाऽत्र प्रतियोगितावच्छेदकत्वाऽभावो न विवक्षितः किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकत्वपर्याप्त्यधिकरणत्वाभावः । सच न सत्तायां वर्तते । तथाहि - 'द्रव्यं न सामानाधिकरण्येन गुणत्वविशिष्टसत्तावत' इति प्रतीत्या यो भेदो द्रव्ये ज्ञायते शंका :- नन्वेवं, इति । जनाब ! यदि एक्कार का अर्थ अयोगव्यवच्छेद न माना जाय और विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व ही माना जाय तब तो 'द्रव्यं सत् एवं' यह प्रतीति आपके मत में अनुपपन्न बन जायेगी। इसका कारण यह है कि वन्य में शुद्ध सत्ता रहती है मगर गुणत्वविशिष्ट सत्ता नहीं रहती है । गुणत्वविशिष्ट सत्ता का मतलब है गुणत्वजातिसमानाधिकरण सत्ता = सामानाधिकरण्य संबंध से गुणत्वविशिष्ट सत्ता = जिसके अधिकरण में गुणत्व जाति रहती हो वैसी सत्ता । गुणत्वविशिष्ट सत्ता का आश्रय गुण है, न कि द्रव्यादि । अतः 'द्रव्यं न गुणत्वरिशिष्टसत्ताबद्' यह प्रतीति एवं व्यवहार | होने में कोई बाध नहीं है । द्रन्यवृत्ति गुणत्वविशिष्टसत्तावद्भिनत्व का प्रतियोगितावच्छेदक है गुणत्वविशिष्टसत्ता । मगर न्यायनयमतानुसार गुणत्व-विशिष्ट सत्ता तो शुद्ध सत्ता से अतिरिक्त नहीं है। अतः द्रव्यवृत्ति गुणत्व-विशिष्टसत्ताश्रयभेद से निरूपित प्रतियोगिता की अवच्छेदकता जैसे गुणत्वविशिष्ट सत्ता में रहती है, ठीक वैसे ही शुद्ध सत्ता में भी रहती है, जो कि द्रव्य में भी रहती है। इन्यवृत्तिसत्ता में स्ववृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व न होने से इन्यनिष्ठभेद-प्रतियोगितानवच्छेदकसत्ताश्रय ट्रव्य नहीं होगा । अतः 'द्रव्यं सदेव' यह बोध अनुपपन्न हो जायेगा । प्रतियोगितानवच्छेदकत्व का अर्थ - जयनैयायिक समाधान :- न, विशि. इति । उस्ताद ! आपकी यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्व एक्कारार्थ है - यह कहने का मतलब आप जानते नहीं है। हमारा मतलब यह है कि प्रतियोगितानवच्छेदकत्व प्रतियोगिता। वच्छेदकत्वाभावस्वरूप नहीं है किन्तु प्रतियोगितानिरूपित अपच्छेदकता की पर्याप्ति से निरूपित अधिकरणत्व का अभाव है। अतः विशेषणसंगत एवकार का अर्थ होगा विशेष्यनिष्ठ भेद से निरूपित प्रतियोगिता की अवदकता से निरूपित पर्याप्ति | के अधिकरणव का अभाव, जो विशेषण में रहना चाहिए । प्रस्तुत में 'द्रव्यं सदेव' यहाँ विशेप्यात्मक द्रव्य में जो भेद रहता है वह सामानाधिकरण्यसंबन्ध से गुणत्वविशिष्टसत्तावत्प्रतियोगिक है। विशेष्यवृत्ति भेद का प्रतियोगितावच्छेदक मुणत्ववैशिष्ट्य और सत्ता है । अतः प्रतियोगितावच्छेदकता तादृश प्रत्येक धर्म में रहती है। मगर विशेष्यवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकता की पर्याप्ति प्रत्येक धर्म में नहीं रहती है, किन्तु मिलित उभय धर्म में ही रहती है, क्योंकि 'तादशप्रतियोगितावच्छेदकता प्रत्येक धर्म में ही रहती है, क्योंकि 'तादृशप्रतियोगिताचच्छेदकता प्रत्येक धर्म में पर्याप्त नहीं है किन्तु उभय में ही पर्याप्त है। ऐसा
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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