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५४३ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का.. * अतिरिक्तचित्ररूपानङ्गीकारः * | वयवाऽऽरब्धावयविषु । नीलपीतादीनां परस्परकरम्बितस्वभावं विना 'एकश्चिमो घटः' इति || विलक्षणप्रतीत्यनुपपत्तेः ।
अर्यतत्प्रतीत्यनुरोधान्चित्रमतिरिक्तमेवास्त्विति चेत् ? न, नीलत्वादिनापि तत्प्रतीतेः । परम्परयाऽवयवनीलादिकमेव तत्प्रतीतेविषय इति चेत् ? तहवयवानामेवाऽवयवितया
== ==* जयलता * ----- सम्भवेदि त्यागढ़ायामाह- नीलपीतादीनां परैविस्न्द्रत्वेनाऽङ्गीकृतानामपि वस्तुत: परस्परकरम्बित्तस्वभावं = इतरेतरानुविद्धशीलं बिना एकत्रित्रो घट' इतिविलक्षणप्रतीत्यनुपपत्तेरिति । न हि नानावर्णानामेकत्र प्रमितिः परस्परानुधमृते सम्भवतीत्याशयः ।
___ पर; शङ्कते - अधेति । एतत्प्रतीत्यनुरोधात् = 'एकश्चित्रो घट' इति प्रतीतिबलात, चित्रं = चित्रपदवाच्यं रूपं, अतिरिक्तमेव = नीलपीतादिव्यतिरिक्तमेव अस्तु । तथा च नैकत्र धर्मिणि नीलपीतादीनि, तदा 'अपं घटोऽत्र नीलः तत्र च पीतः' इत्यादिप्रतीतिर्नवोपपद्येत । तदन्यथानुपपत्त्या अवयविन्यपि नीलपीतार्दानि रूपाणि स्वीकार्याणि, अन्यथानुपपत्ते: सर्वतो बलवत्त्वादित्याशयेन प्रकरणकार: प्रतिकरोति - नेति । नीलादिनाऽपि, किमुत चित्रत्वेनेत्यपिशब्दार्थः, तत्प्रतीते: = अवयविवर्णप्रत्ययात् । यदि चाऽवयविनि चित्रमेव रूपं स्यात् तर्हि 'चित्रोऽयं घट' इत्येव प्रतीयेत, न तु 'अत्राऽयं नील' इत्यादिकम् । अतो नाऽवयविनि क्लुप्तनीलादिव्यतिरिक्तचित्ररूपमभ्युपगन्तब्यमित्यभिप्रायः ।।
ननु 'चित्रोऽयं घट' इतिधीबलादतिरिक्तचित्ररूपसिद्धौ ‘अत्राऽयं नीलस्तत्र च पीत' इत्यादिप्रतीतिस्त्ववयवसमवेतनीलपीतादिवगैरवोपपद्येत, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयवनीलादिरूपाणामवयविनि सत्त्वात् । ततश्च न चित्रपटादौ समवायेन नीलपीतादिस्वीकारः प्रामाणिक इत्यभिप्रायेण चित्ररूपवादी शङ्कते- परम्परयेति । स्वसमवायिसमवेतत्वलक्षणमरम्परासंसर्गेण । स्वपदवाच्यानां नीलपीतादिरूपाणां समवायिष्ववयवेषु अवयविनो घटादेः समवेतत्वान्निरुक्तसंसर्गेण अवयवनीलादिकमेव = कपालादिसमवेतनीलपीतादिरूपमेव, तत्प्रतीतेः = 'घटोऽयमत्र नीलोऽपरभागे च पीत' इतिधियः विषयः, न तु घटसमवेतनीलपीतादिकमित्येवकारार्थः । वर्णादाप्यवृत्तित्वेन चित्ररूपसमवायिन्यवयविनि न तद्विरुद्धानां नीलपीतादीनां सम्भव इति चित्ररूपवादिनोऽभिप्रायः । प्रकरणकत्समाधत्ते- तहीति । 'एतानि कपालान्येव घटतया परिणतानी'त्यादिप्रतीत्या
कहते हैं, नाश नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का समावेश होता है, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से प्रसिद्ध है। प्रतिवादी नैयायिक वगैरह नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को परस्परविरुद्ध मानते हैं। मगर वस्तुतः वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, किन्तु परस्परमिश्रितस्वभाव वाले होते हैं। यदि उन्हें परस्परानुविद्धस्वभाव वाले न माने जाय, तब तो 'यह एक घट चित्ररूपवाला है' इत्यादि प्रतीति ही अनुपपन्न बन जायेगी । एक ही घट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण के नहीं मानने पर तो 'नीलो घटः पीतो घटः, रक्तो घटः' इत्यादि प्रतीति होगी, न कि 'यह घट चित्ररूप वाला है' इत्याकारक प्रतीति । मगर 'शरलोऽयमेको घटः' इत्याकारक प्रतीति प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक होने की वजह नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को परस्परमिश्रितस्वभाववाले मानने आवश्यक हैं। जैसे नील, पीत, रक्त आदि वर्ण परस्परानुविद्धस्वभाववाले होते हैं, ठीक वैसे ही प्रत्येक वस्तु में सामान्य, विशेष आदि भी परस्परानुविद्ध स्वभाववाले ही होते हैं। अतः एक धर्मी में उनका समावेश मानने में कोई विरोध आदि दोष नहीं है . यह फलित होता है।
ev चित्र रूप सर्वथा अतिरिक्त नहीं है ५४ अर्थत, इति । यहाँ यह नैयायिकवक्तव्य कि -> "यदि उपर्युक्त 'एक: चित्रो घटा' इस प्रतीति को प्रामाणिक ही | मानी जाय, तर तो उस प्रतीति के बल से ही आपको अतिरिक्त चित्र रूप का स्वीकार करना पड़ेगा, जो नील, पीत, रक्त आदि प्रत्येक वर्ण से सर्वधा मिन ही होगा । अगर यह स्वीकार किया जाय, तब तो नील, पीत, रक्त आदि अनेक वर्ण को परस्परमिश्रित स्वभाव वाले मानने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उस यट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण नहीं हैं, किन्तु एक ही चित्र वर्ण है' -भी असंगत है। इसका कारण यह है कि चित्र घट में केवल एक चित्र वर्ण का ही स्वीकार किया जाय, तर तो घट के एक देश में 'यह नील है', अन्य भाग में 'यह पीत है', इतर अंश में 'यह रक्त है' इत्यादि प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि आप नैयायिक महाशय चित्र घट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का स्वीकार करते ही नहीं हैं । मगर उपर्युक्त नीलत्वादिप्रकारक प्रतीति तो चित्र घट में भी होती ही है, यह तो सर्वजनविदित है । इन प्रतीतियों की अन्यथा अनुपपत्ति से चित्र घट में भी नील, पीत, रक्त आदि अनेक वर्ण का स्वीकार करना उचित है। अतएव उन नील, पीत, रक्त आदि वर्ण को परस्परमिश्रित स्वभाव वाला भी मानना होगा । यहाँ यह शंका हो कि->