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________________ * चित्रपदप्रवृत्तिनिमित्तनिरूपणम् * परिणमनासिन्दमवयविन्यपि नीलादिकं, उतनीलविशिष्टोद्भुतपीतादिना चित्रत्वव्यवहाराच्च | नोभूतनीलमात्रवति तदापत्ति: । सामान्यतस्तु चित्रपदादूपविशिष्टरूपत्वेनैव बोधस्तेन नाऽ == === ===* जयलता * अवयवानामेव अवयवितया परिणमनात् परिणामपरिणामिनो: स्यादभेदात् सिद्धं अवयविनि घटादी अपि नीलादिकम् ।। स्ववृत्तेः स्वाऽभिन्नवृत्तित्वेऽविवादात् । साक्षात्सम्बन्धेन निरुक्तप्रतीतेरुपपत्तौ परम्परासम्बन्धकल्पने मानाभावात, गौरवाच । नन्यवयविनि चित्ररूपं तिरस्कृत्य नीलपीतादिवर्णाभ्युपगमे कथं 'एकोऽयं चित्रो घट' इतिप्रतीतेर्व्यवहारस्य चोपपत्तिः ? नीलादेरेव तत्प्रतीतिविषयत्वे कथं न नीलमात्रयत्पवयविनि चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारप्रसङ्गः ? इत्याशङ्काद्वयं 'एकेनैव शस्त्रेगोभयन्याहतिरिति न्यायेनाऽपाकर्तुमुपक्रमते - उद्भूतनीलविशिष्टोद्भुतपीतादिनेति । चित्रत्वब्यवहाराचेति । चकारेण चित्रत्वप्रकारकप्रतीतेरुपग्रहः । प्रतिस्कन्धं पञ्चवर्णानामभ्युपगमात्सर्वस्कन्धे चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारनिराकरणार्धमुद्भूतेत्युक्तमुभयत्र, तेन नानुभूतनीलविशिष्टोद्भूतपीतादिमति अनुभूतनीलविशिष्टानुभूतपीतादिमति बा चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारप्रसङ्गः । वैशिष्टयञ्च समवायेनाऽपृथग्भावसम्बन्धेन वा गाहां तेन नानिपसङ्गः । एतेनातिरिक्तचित्ररूपाऽनङ्गीकारे 'चित्रोऽयं घट' पत्तिरांपे प्रत्युक्ता । दोषान्तरमपाकरोति - नोद्भूतनीलमात्रवति तदापत्तिः = चित्रत्वप्रकारकप्रतीतिव्यवहारप्रसङ्गः, तनिमित्तीभूतोद्भूतनीलविशिष्टोद्भूतपीतादेर्विरहात् । अत एव 'चित्रो द्विरेफ' इत्यादेर्व्यवहाराऽसत्यत्त्वमुपवर्णितं सङ्गच्छते, व्यावहारिकसत्यत्वनिमित्तविरहात, तत्र पीतादेरनुद्भूतत्वात् । ननु तथापि सर्वत्र भवन्नये उद्भूत शुक्लविशिष्टोद्भूतपीतादेरुदस्वित् उद्भूतपीतविशिष्टोद्भूतशुक्लादेरित्यत्र विनिगमनाविरहात्तनिमित्ताननुगमस्य दुरित्वम् । अत एव चित्रपदजन्यप्रतीतिनिरूपितविशेष्यताया अवच्छेदकमुद्भूतनीलविशिष्टोद्भूतपीतत्वादिकमुद्भूतपीतविशिष्टोद्भुतनीलत्वादिकं वा ? इत्यत्रापि विभिगमनाविरहोऽपरिहार्य इत्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह - सामान्यतस्विति । 3'चित्र घट में जो नील, पीत, रक्त आदि वर्ण की प्रतीति होती है, वह वस्तुतः घटसमवेत वर्ण को अपना विषय नहीं बनाती है, किन्तु घट के अवयव कपाल में समवेत नीलादि वर्ण को अपना विषय बनाती है। घर में स्वाश्रय-समवेतत्वसम्बन्धात्मक परम्परासंसर्ग से नीलादि वर्ण का भान होता है। स्व - कपालवर्ण के आश्रय = कपाल में घट समरेत होने से स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्ध से कपालवर्ण घट में रहते हैं । निरुक्त परम्परासम्बन्ध से ही चित्र घट में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का भान होता है' - तो यह भी अनुचित है, क्योंकि फिर भी अक्यच ही अश्यवी के स्वरूप में परिणत होने से अवयवगत वर्ण अवयवी | में भी साक्षात् सम्बन्ध से ही रह सकता है। आशय यह है कि 'ये कपाल ही घट हो गये' इत्याकारक प्रतीति सर्वजनविदित है, जो अवयव-अवयनी में परिणाम-परिणामिभाव को अपना विषय बनाती है। जिनके बीच परिणाम-परिणामिभाव होता है, वे परस्पर कथंचित् अभिन्न होते हैं । अतः नैयायिक मनीपी कपाल में नील, पीत, रक्त आदि वर्ण का स्वीकार करते हैं, वे कपालाभित्र घट में भी सिद्ध हो जाते हैं। अतएव चित्र अवयवी घट आदि में भी अनेक वर्ण का समावेश सिद्ध होता है। यहाँ इस शंका का कि → 'यदि अवयवी घट आदि में नील, पीत, रक्त आदि अनेक वर्ण माने जाय और उनसे अतिरिक्त चित्र वर्ण न माना जाय तर तो 'चित्रोऽयं घटः' इत्यादि व्यवहार एवं प्रतीति कैसे हो सकेगी ?' - समाधान यह है कि चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं व्यवहार का निमिन अतिरिक्त चित्र वर्ण नहीं है, किन्तु उद्भूतनीलवर्णनिशिष्ट पीत रूप आदि है । घट में साक्षात् संबन्ध (समवाय या अपृथग्भाव) से नील, पीत, आदि अनेक उद्भूत रहते हैं । अतः साक्षात्संबन्धघटित सामानाधिकरण्यसंपन्ध से उद्भुतनीलवर्णविशिष्ट पीत वर्ण आदि घट में रहने से तन्निमित्तक चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं व्यवहार निराबाध हैं। उद्भुतशब्द का विशेषणविधया निवेश करने का प्रयोजन यह है कि जैनागम के अनुसार प्रत्येक बादर स्कन्ध में पाँच वर्ण रहते हैं। अतः नीलविशिष्टपीत वर्ण आदि को चित्रत्वप्रकारक प्रतीति एवं व्यवहार की आपत्ति मुंह फाड़े खड़ी रहती है। उसके निवारणार्थ 'उद्भूत' ऐसा कहा गया है। केवल उद्भूतनीलवर्ण-वाली वस्तु में भी वही आपत्ति ज्यों कि त्यों बनी रहती है । अतः उद्भूतनीलविशिष्ट उद्भूत पीत वर्ण आदि को उसका निमित्त माना गया है । अब बह आपत्ति नौ-दो-ग्यारह हो जाती है, क्योंकि केवल उद्धत नीलवर्णवाली वस्तु में सामानाधिकरण्य संबन्ध से उतनीलवर्णविशिष्ट उद्भूत पीत वर्ण नहीं है, जो चित्रत्वप्रतीति एवं तथाविध व्यवहार का निमित्त है। IF रूपविशिष्टस्वपत्त चित्रपदप्रतिनिमित्त है - स्यादादी ! सामा. इति । यहाँ यह ध्यातन्य है कि 'चित्रोऽयं बटः' इत्यादि वाक्य को सुन कर सामान्यतः उद्भुतनीलवर्णविशिष्ट % 3DD . -. -.
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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