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________________ %3 -- * अतिरिक्तप्रतियोगितादिविचार:* तत्कल्पनाया आवश्यकत्वादिति चेत् ? न, तथापि घटत्वादौ पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पने गौरवात ! जन तर स्वमशम्बनधारमतत्कल्पने गौरवधीन विरोधिनी, | एवं सति गुरुणि कारणतावच्छेदकत्वादेरप्यापत्तेः शास्त्रे गौरवपदार्थप्रचारशैथिल्यापातादिति - . * जयलाता *= प्रमात्मकं न सम्भवति किन्तु भ्रमात्मकमेव । अतः तादृशभ्रमोपपत्तये दर्शितसहकारित्वादिकल्पनाया आवश्यकत्वमेव । न च । गौरवम्. प्रथममतिरिक्ताभावाऽकल्पनलाघवनयेन प्रवृत्नी 'पश्चादुपस्थितस्य तरयाऽदोषत्वात् । ननुवादी मौलपूर्वपक्षी अथमतं प्रत्याचष्टे - नेति । तथापि = तादृशभ्रमोपपत्तये तत्कल्पनाया आवश्यकत्वेऽपि, घटत्वादी प्रतियोगिताम्यधिकरणधर्म पटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पने गौरवात् । अन्यत्र समानाधिकरणधर्मे एव प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य दृष्टत्वात प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मे स्वानाश्रयवृत्तिप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पनाया अदृष्टचरत्वात् नत्कल्पने | गौरवमव्याहतमवेत्यर्थः । नन्ववच्छेदकत्वमवच्छंदकस्वरूपविशेषरूपमेव न तु तदतिरिक्तम्, तदतिरिक्तत्वकल्पने गौरवात्, तत्स्वरूपस्य च क्लृप्तत्वादेव न्यधिकरणधर्मेऽवच्छेदकत्वकल्पनायां न गौरवमिति शङ्का निरसितुमुपदर्शयति - न चेति । तत्र = प्रतियोगितात्यधिकरणधर्मे, स्वरूपसम्बन्धरूपतत्कल्पने = स्वरूपविशेषरूपस्य स्वयधिकरणप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्थ कल्पने, गौरवधीः = अतिरिक्तावच्छेदकत्वबुद्धिः, न विरोधिनी = न प्रतिबन्धिका | मौलपूर्वपक्षी ननुवादी दर्शितशङ्कानिरासे हेतुं दर्शयति- एवं सतीति । अवच्छेदकत्वस्य स्वरूपसम्बन्धरूपत्वकल्पने, गुरुणि = गुरुधमें, कारणतावच्छेदकत्वादेः आदिशब्देन प्रतिबध्यतावच्छेद" कल्वकार्यतावच्छेदकत्वादेः परिग्रहः अपि किमुत प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्येत्यपिशब्दार्थः, आपत्तेः । ततः किमित्याह - गुरो| रम्यवच्छेदकत्यापाते शास्त्रे गौरवपदार्थप्रचारशैथिल्यापातादिति । ततोऽवच्छेदकत्वमतिरिक्तमेवाभ्युपगन्तव्यम् । ततः व्यधिकरण हैं । महागौरव दोप का प्रतिपादन इस तरह किया जा सकता है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभाव का स्वीकार | करने पर प्रतियोगितान्यधिकरणीभूत घटत्वादि धर्म में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व की भासक सामग्री की कल्पना करनी पड़ेगी । एवं घटत्व-पटत्वादि धर्म के ज्ञान में सहकारित्व की कल्पना करनी होगी। इसी तरह घटत्वादि व्यधिकरणप्रतियोगिता का अवच्छेदक होने की वजह घटत्वादि और प्रतियोगितान्वयितावच्छेदक पटत्वादि में और विरोध ज्ञान में सहकारिकारणत्व की कल्पना करनी पड़ेगी" - इसका कारण यह है कि ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताक अभाव से अभिन्न सिद्ध होता है तब तो घटत्वादि में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व की भ्रमात्मक | बुद्धि के उपपादन के लिए वह कल्पना आवश्यक होने से गौरवरूप नहीं है। * प्रतियोगितात्यधिpeण घf में अवरोएकत्ल की कल्पना में गौरव - पूर्वपक्षी * पूर्वपक्षी :- न तथा, इति । जनाब ! आपकी यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि तादृश सहकारित्व की कल्पना आवश्यक होने पर भी आपके मत में प्रतियोगिता के व्यधिकरण घटत्यादि धर्म में पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अवच्छेदकत्व की कल्पना करने का गौरव तो अपरिहार्य ही है। प्रतियोगितासमानाधिकरण धर्म में ही प्रतियोगितावच्छेदकता होती है. यह तो सर्वजनप्रसिद्ध है । मगर आप के मत में प्रतियोगिताब्यधिकरण धर्म में प्रतियोगितावच्छेदकत्व की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोप प्राप्त होता है । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि --> "प्रतियोगितावच्छेदकत्व तो प्रतियोगितावच्छेदकस्वरूप ही होता है। पटादिवृत्ति प्रतियोगिता के अचच्छेदकीभूत घटत्यादि का स्वरूप तो क्लृप्त = प्रमाणसिद्ध है, कल्पनीय नहीं है। घटत्वादि में रही हुई पटादिवृत्ति प्रतियोगिता की अवच्छेदकता भी घटत्वादि के स्वरूपसम्बंधात्मक ही है, अतिरिक्त नहीं। अतः प्रतियोगिताऽनाश्रयवृत्ति धर्म में अवच्छेदकत्व की कल्पना करने में कोई गौरव नहीं है" - इसका कारण यह है कि अवच्छेदकत्व को अवच्छेदकस्वरूपविशेपात्मक ही माना जाय तब तो कारणतावच्छेदकता कारणतावच्छेदकस्वरूप हो जायेगी, कार्यतारच्छेदकता कार्यतावच्छेदकस्वरूप हो जायेगी। ऐसा होने पर नो गुरुभूत धर्म में भी कारणतावच्छेदकत्व की आपनि आयेगी । जैसे कि घटगंधादि का कारणतावच्छेदक घटत्व की भाँति कम्बुग्रीवादिमत्त्व भी हो सकेगा, क्योंकि कम्युग्रीवादिमत्त्व में कल्पनीय घटगंधादिकारणतावच्छेदकत्व कम्मुग्रीवादिमत्वस्वरूप ही है। घटत्व की भाँति कम्बुग्रीवादिमत्त्व को कारणता का अवच्छेदक मानने में कोई गौरव नहीं होगा, क्योंकि कारणतावच्छेदकता कारणतावच्छेदकस्वरूपसंबंधात्मक ही है और कम्युग्रीवादिमत्त्व यट में विद्यमान है = सिद्ध है = क्लुप्त है, कल्पनीय नहीं। ऐसा होने पर तो शास्त्र में गौरवपदार्थ का जो दोपरूप से प्रचार है . वह शिथिल हो जायेगा। मगर ऐसा नहीं है। अतः प्रति
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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