SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * सामान्यलक्षणस्याऽप्रामाणिकत्वम् तो व जीवात्मवृत्तित्वेऽनेकात्मसम्बन्धकल्पनागौरवात् एकेश्वरकल्पना लघीयसीति वाच्यम्, त्वया तत्र जीवात्मनां स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्धः कल्पनीयः, मया तु समवायमात्रमिति लाघवात् । अथैवमेतस्य 'नित्यमेकमनेकसमवेतं सामान्यमिति सामान्यलक्षणप्राप्तौ गुणत्वव्याघात * जयलता न चेति । 'वाच्यमि' त्यनेनाऽस्यान्चयः । सकलकार्यजनकनित्यैकप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वे अभ्युपगम्यमाने जीवात्मनां नानात्वेन तत्र अनेकात्मसम्बन्धकल्पनागौरवात् एकेश्वरसम्बन्धकल्पनैव लघीयसीति तस्य त्रिलोचनसमवेतत्वमेवाऽस्त्विति तदाश्रयविधया महेश्वरसिद्धिः निराबाधेति नैयायिकाकूतम् । परपक्षे गौरवोद्भावनेन प्रकरणकृत् तस्य जीवात्मवृत्तित्वं लाघवसहकारेण साधयति त्वया = नैयायिकेन तत्र = नित्यप्रत्यक्ष शशिशेखरसमवेतत्वेनाऽभ्युपगते जीवात्मनां स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्धः कल्पनीयः = अवश्यकल्प्य इति । स्वपदेन जीवात्मनां ग्रहणम् । तत्संयुक्तश्च तेषामेव शरीरं तेन संयुक्तं महेश्वरे समवेतं नित्यप्रत्यक्षमिति जीवात्मानः तत्र नित्यैकप्रत्यक्षे स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायेन सम्बध्येस् । विभूनां संयोगानभ्युपगन्तृनये स्वसंयुक्तसमवायेन जीवात्मनामीश्वरसमवेतनित्यप्रत्यक्षेऽसम्बद्धत्वात् द्वितीयसंयुक्तपदोपादानम् । जीवात्मनां महेश्वरस्य नित्यैकप्रत्यक्षस्य च परेणोपगमात् त्रिनेत्रस भवेतनित्यप्रत्यक्षे जीवात्मनामुक्तगुरुभूतसम्बन्धकल्पनाया आवश्यकत्वेन गौरवम् । मया = नित्यैकप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्ववादिना तु जीवात्मनां तत्र नित्यप्रत्यक्षे समवायमात्रं स्वसमवेतत्वमेव केवलं कल्पनीयं यद्वा पूर्वोक्तरीत्या पर्याप्तिनिरूपकत्वसंसर्गमात्रं कल्पनीयमिति प्रत्युत ईश्वरवाद्यपेक्षया लाघवात् नित्यप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वमेव युक्तम् । न च त्वया तत्र धूर्जटेः स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसंसर्गस्य स्वसंयुक्तसंयुक्तपर्याप्तिसम्बन्धस्य वा कल्पने तुल्यगौरवमिति वाच्यम्, नित्यप्रत्यक्षस्य जीवात्मवृत्तित्वोपपत्तावीश्वरस्यैवाऽप्रसिद्धेः नित्यप्रत्यक्षे तत्सम्बन्धकल्पनाया अनुत्थानपराहतत्वान्न गौरवमिति विशेषः । - परः शङ्कते अथेति । 'चेद्रि' त्यनेनाऽस्थान्वयः । एवं नित्यैकप्रत्यक्षस्य नानाजीवात्मसमवेतत्वोपगमे एतस्य = नित्यैकप्रत्यक्षस्य 'नित्यमेकमनेकसमवेतं सामान्यमिति सामान्यलक्षणप्राप्ताविति । अनेकसमवेतत्वं संयोगादीनामप्यस्त्यत उक्तं नित्यमिति । विभुद्रव्यसंयोगाऽङ्गीकर्तृनये नित्यसंयोगेष्वतिव्याप्तिवारणाय 'एकमित्युक्तम् । नित्यत्वे सति समवेतत्वं गगन - = न च जी. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "हमारे मत में ईश्वर एक होने से नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वर में वृत्ति मानने पर एक ईश्वरसम्बन्ध की कल्पना करनी होगी, जो लघुभूत है। जीवात्मा तो अनन्तर होने से नित्य प्रत्यक्ष को प्रत्येक जीवात्मा में वृत्ति मानने पर उसके अनंत जीवात्मसम्बन्ध की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त है । अतः लाघव - सहकार से नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वरनिष्ठ मानने में लाघव है । अतः पराश्रितत्त्वनिरूपित गुणत्वनिष्ठ व्याप्ति के बल से और लायब- सहकार से नित्य प्रत्यक्ष के आधारविवया ईश्वर की सिद्धि निराबाध है" <- तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि नित्य प्रत्यक्ष को अनंतजीवात्मवृत्ति मानने पर प्रत्येक जीवात्माओं में नित्य प्रत्यक्ष के साथ केवल एक समवाय सम्बन्ध की ही कल्पना है, न कि अनेक सम्बन्ध की। जब कि नित्य प्रत्यक्ष को परमात्मवृत्ति मानने पर प्रत्येक जीवात्मा का नित्य प्रत्यक्ष में एक समवाय सम्बन्ध नहीं, किन्तु स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध कल्पनीय होगा । स्व = जीवात्मा से संयुक्त जीवात्मशरीर से संयुक्त ईश्वरात्मा में नित्य प्रत्यक्ष समवेत होने से जीवात्मा का ईश्वरवृत्ति नित्य प्रत्यक्ष के साथ स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध की कल्पना करनी होगी जो गौरवग्रस्त है । विभु द्रव्य का विभु द्रन्य में संयोग प्राचीन नैयायिक ने नहीं माना है, क्योंकि 'अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः ' यह संयोग का स्वरूप है । नित्य विभु द्रव्य सदा प्राप्त ही होते हैं । अतः विभु विभु के बीच संयोग नहीं होता है। उसके मुताबिक स्वसंयुक्तसमवाय नहीं कह कर स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध का उल्लेख किया है। जीवात्मा और परमात्मा के बीच जीवात्मा के शरीर द्वारा सम्बन्ध हो सकता है । नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वरवृत्ति मानने पर जीवात्मा का नित्य प्रत्यक्ष के साथ स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायसम्बन्ध की अत्यन्त गुरुभूत कल्पना करने की बजाय नित्य प्रत्यक्ष को जीवात्मवृत्ति मान कर उन दोनों के बीच केवल समवाय सम्बन्ध की कल्पना करने में लाघव है। इस तरह गौरवदोष के सबर भी ईश्वरात्मा की कल्पना नहीं की जा सकती यह तात्पर्य है । जीवात्मवृत्ति नित्य प्रत्यक्ष में बाधक का निराकरण = = अथैव इति । यहाँ नैयायिक का यह कथन कि = · " नित्य प्रत्यक्ष को ईश्वरात्मा में वृत्ति न मानकर अनन्त जीवात्मा
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy