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________________ ३९३ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का. * नव्यानां स्वतन्त्रमते सम्मतिः * सापि च जलत्वादिना सङ्कीर्यमाणा जलत्वादिव्याघ्या नाना स्वीकार्यति बहुतरजातिकल्पनागौरवम्, एकत्वनिष्ठजातेस्तळ्याय्यत्वे त्वेकत्वजन्यतावच्छेदकं जातिन्दयमेव स्वीक्रियत इति लाघवमिति' विभागते, तदा स्वतन्त्रमतमपि सम्यगिति तु तव्याः । =--* जयलता है वच्छेदकट्यणुकत्यजाते: नानात्वं जलत्यादिव्याप्यत्वञ्च कल्पनीये । ततश्च न सङ्करप्रसङ्गः, जलत्वं विहाय पार्थिवद्रुयणुके वर्तमानस्य व्यणुकत्वस्य जलीयद्रयणुकेऽवर्तमानत्वात्, जलत्वव्याप्यद्वयणुकत्वस्येव तत्राऽभ्युपगमात् । एतेन जलीयद्वयणुके पृथिवीत्वं विहाय वर्तमानस्य द्वयणुकत्वस्य पावित्र्यणुके द्वयणुकत्वं विहाय वर्तमानस्य पृथिवीत्वस्य पार्थिवद्र्यणुके समावेशात्सङ्कर इत्यपि निरस्तम्, जलीयद्यगुके पृथिवीत्वाऽभावे सति तद्व्याप्यवेजात्यस्य यशुकत्वस्याऽसम्भवात्, तदतिरिक्तस्य जलत्वन्यायद्यणुकत्वस्यैव तत्राभ्युपगमात् । परमेतादृशकल्पनायां महागौरवमित्याशयेन त्र्याचक्षते - साऽपि चेति । द्विविधजन्यतावच्छंदकजातिरपि च, जलत्वादिना सङ्कीर्यमाणा जलत्वादिल्याप्या नाना प्रत्येकं चतुर्विधा, स्वीकार्येति बहुतरजातिकल्पनागौरवं = दशबिध-जातिकल्पनागौरवम् । तथाहि नित्यैकत्वगतजातेरनित्यैकत्वगतजातेस्नदवच्छिन्नजन्यतावच्छेदिकाया जलवादिचतुष्कव्याप्याया:प्रत्येकं चतुर्विधाया जातेश्च कल्पनमिति द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजाते नात्वकल्पने दशविधजातिकल्पनागौरवम । स्वतन्त्रमते त जन्यैकत्वनिष्ठजाते नात्वं द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिव्याव्यत्वं चेति कल्पनात्र दशविधजातिकल्पनागौरवमित्याशयेन बदन्ति - एकत्वनिष्ठजातेः = जन्यकत्वनिष्ठकल्लत्वविषजाते:, तस्याप्यत्वे = द्रव्यारम्भकतावच्छेदककविधजातिव्याप्यत्वाड़गीकार, त एकत्वजन्यतावच्छेदकं जातिद्वयं = अनन्त्यावयविगतकत्वनिष्ठजातिविशेषोऽन्त्यावयविगतकत्व! निष्ठजातिविशेषश्चेति जातियं. एव स्वीक्रिकयने इति दशविधजात्यकल्पनात लाघवमिति = कारणताद्यवनडेदकलाघवमिति, विभाज्यते स्वतन्त्रैः तदनुसारिभिवा, तदा स्वतन्त्रमनमपि सम्यगिति तु नव्याः प्रवदन्तीति शेषः । बच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन्न का जन्यतावटेदक त्र्यणुकत्व, चतुरणुकत्व आदि से लेकर घटत्व पर्यन्त यानी अन्त्य अवयविगत घटत्व-पटत्त्वादि जातिपर्यन्त । इस तरह का कार्यकारणभाव मानने पर व्यतिरेक व्यभिचार का निवारण हो सकता है, क्योंकि व्यणुकत्वावच्छिन्न के प्रति अनित्यैकत्वगत जातिविशेष से अवच्छिन्न कारण ही नहीं है और त्र्यणुकत्वादि घटत्वपटत्वपर्यन्त जाति से अवच्छिन्न के प्रति नित्यैकत्ववृत्ति जातिविशेष से अवच्छिन्न कारण ही नहीं है। अकारण के बिना स्वकारणसन्निधान से कार्य की उत्पत्ति होने पर व्यतिरेक व्यभिचार का उद्भावन नहीं किया जा सकता । मगर द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को अनेकविध मानने पर तदवच्छिन्न से निरूपित कार्यता के अवच्छेदकविथया अनेक जाति की कल्पना का गौरव होगा । इतना ही नहीं, जलत्वादि जाति के साथ सांकर्य भी प्रसक्न होगा। वह इस तरह, पार्थिव व्यणुक में नित्यैकत्वगत जातिविद्रोप से अवच्छिन्न का कार्यतावच्छेदक पणुकत्व जाति है, मगर जलव जानि नही है । त्यणुक जल में जलत्व जाति है मगर तादृश व्यणुकत्व जाति नहीं है । जब कि जलीय इयणुक में जलत्व जाति एवं तादृशा यणुकत्व जाति भी रहती है । अतः जलत्व जाति के साथ नित्यैकत्ववृत्ति जातिविशेप से अवच्छिन्न की कार्यतावच्छेदक द्यणुकत्व जाति का सांकर्य होगा। अत: इस सांकर्य के निवारणात अनेकविध कारणतावच्छेदक जानि से अवच्छिश्न से निरूपित कार्यता की अनेकविध अवऋदक जाति को भी जलत्वादिव्याप्यरूप में अनेकविध माननी होगी। मतलब कि नित्यैकत्वगत कारणतात्रछेदक जाति से अचच्छित्र की कार्यता का अवच्छेदक द्वयणुकत्व भी जलवादि जाति का व्याप्य अनेकविध है । पार्थिव द्वयणुक में जो कार्यतावच्छेदक जाति व्यणुकत्व है, वह पृथ्वीत्व की व्याप्य है न कि जलत्य की तथा जलीय द्रव्यणुक में जो कार्यतावच्छेदक व्यणुकत्व जाति है, वह जलत्व जाति की व्याप्य है न कि पृथ्वीत्व की । अतः उपर्युक्न सांकर्य का अवकाश नहीं होगा । वे परस्पर व्यधिकरण ही होने से एकत्र समाविष्ट नहीं हो सकती । मगर एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को अनेकविध मानने पर तदवच्छिन्त्र की जन्यतावच्छेदक जाति को भी अनेकविध मानना होगा, उनमें से प्रत्येक को जलत्वादि की व्याप्य अलगअलग माननी होगी । इस तरह अत्यन्त गौरव होता है। जब कि एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को एकविध मान कर उसकी व्याप्य जन्यैकत्वत्वजातिविशेप मानने पर एकत्वगतजन्यतावच्छेदक दो जाति की ही कल्पना करनी पड़ती है, अत्यावयविगत एकत्वसंख्या में समवेत जन्यैकत्वत्वजानिचिशेप और अनन्न्यावयविगत एकत्व में समवेत जन्यैकत्वत्वजातिविशेष । इस पक्ष में लाघव होने से नित्य और अनित्य एकत्व में समवेन द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेप को अनेकविध नहीं मानी जा • सकती। अतः जन्यैकत्वत्व को द्विविध मानने में एवं जन्यैकत्वत्वविशेष को, जो अनन्त्यावयविगत एकत्व में समवेत है, ही - - -
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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