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* तत्त्वार्धश्लोकवार्तिकवचनखण्डनम्
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एवञ्च नित्याऽनित्यत्वादिधर्माणां वस्तुतो विरोधाऽभावेऽपि यदि कथञ्चिद्विरोधः परेणाऽभ्युपेयते, अभ्युपेयतां तर्हि वाढ, तथापि तेष्णाोकन समासे न किखिबाधकं पश्यामः । कथञ्चिदविरुद्धत्वेनाऽभ्युपेतानामपि नीलपीतादीनामेकत्र समावेशस्य दृष्टत्वादित्याहुः 'विरुदे 'ति । मेचकवस्तुषु = मिश्रवस्तुषु विरुद्धवर्णानां नीलपीतादीनां योगः = एकत्र समावेशो हि यतो दृष्टः = सकलजनानुभवसिद्धः । प्रतियन्ति हि सर्वेऽपि लोका: चित्रमपि घटं
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जयलता
एतावता ' न हि सर्वज्ञस्य शब्दोच्चारणे रसनाव्यापारोऽस्ति, तीर्थंकरनामकर्मोदयोषजनितत्वादि' (त. लो. बा. २/१८) ति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककुद्वचनमपि प्रतिक्षिप्तं मन्तव्यं, अदृष्टस्याऽपि दृष्टकारणातिक्रमेण कार्योत्पादकत्वाऽसम्भवात्किन्तु दृष्टकारणसम्पादनद्वरिव, अन्यथा एककारणमात्रपरिशेषापत्तेरिति दिक् ।
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प्रकरणकारः प्रक्रान्तवीतरागस्तोत्राष्टमप्रकाशसप्तमकारिकोत्तरार्धप्रस्तावनार्थमुपक्रमते -> एवञ्चेति । यदि कथंञ्चिद्विरोधः एकत्रैकावच्छेदेनाऽनवस्थानं परेण = नैयायिकादिना अभ्युपगम्यते । अत्र स्वसम्मतिमाह अभ्युपेयतां तर्हि बादं । तर्हि कथं तेषामेकत्र समावेशसिद्भिः ? इत्याशङ्कायां प्राह तथापि कथञ्चिद्विरुद्धत्वेऽपि तेषां नित्याऽनित्यत्वादिधर्मयुगलानां एकत्र धर्मिणि समावेशे न किञ्चिद्बाधकं पश्यामः, शाखा मुलावच्छेदेनैकत्रैव घटादी धर्मिणि नित्यत्वानित्यत्वयोः समावेशसम्भवात्, अन्यथा सर्वथा विरुद्धत्वं स्यात् ।
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ननु संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वेन संयोगतदभावयोरेकत्र समावेशसम्भवेऽपि नित्यत्वस्याऽतथात्वान्न नित्यत्वतदभावयोरेकत्रावच्छेदकभेदेन समावेशः सम्भवेदित्याशङ्कायां परमत प्रसिद्धोदाहरणान्तरमाह- कथविद्विरुद्धत्वेन प्रतिवादिना अभ्युपेतानामपि । नीलपीतादीनां रूपाणां एकत्र धर्मिणि समावेशस्य दृष्टत्वादित्याहुः श्रीहेमचन्द्रसूरय इति शेष: । 'बिरुद्धे 'ति । शेषं सुगमम् । ननु चित्रघटेऽवयविनि न नीलपीतादिरूपाणि सन्ति किन्त्येकमेव चित्रं रूपम्, 'चित्रोऽयं घट' इत्यबाधितप्रतीतेः । अत एव तत्र नीलपीतादिनानावर्णप्रतीतविषयो नावयविलक्षणघटसमवेतवर्णः किन्तु तदवयवसमवेतनीलपीतादिवर्ण एवं । न चैकत्रैव घटे नीलपीतादीनां समावेशे किं बाधकमिति वाच्यम्, तेषां व्याप्यवृत्तित्बोच्छेदापत्तेरेव बाधकत्वमिति गृहाण । एतेन 'घटोऽयमग्रावच्छेदेन नीलः पृष्ठावच्छेदेन पीत' इति प्रतीतेरेकत्र घट एव नीलादिवृत्तित्वमित्यपि परास्तम् । न च तर्हि घटे नीलपीतादिप्रतीतेभ्रमत्वं स्यादिति वाच्यम्, अभिमतत्वात् घटावयवसमवेतानामेव नीलपीतादीनां वर्णानां स्वसमवायिसमवेतत्व
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से कार्य की निप्पत्ति नहीं होती है, किन्तु सामग्री से ही । अतः मोक्षावस्था में अनुग्रह इच्छा होने पर भी जिननामकर्मोदयस्वरूप कारणान्तर के अभाव से धर्मदेशना की आपनि नहीं है। इस विषय का अधिक निरूपण प्रकरणकार श्रीमद्जी ने अध्यात्ममतपरीक्षा में किया है । विशेष जिज्ञासु उस ग्रन्थरत्न का अवलोकन कर के अपने ज्ञान की प्यास का शमन कर सकते हैं । एक धर्मों में अनेकवर्णसमावेश प्रामाणिक ह
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एवञ्च इति । 'अभिलाप्यत्व और अनभिलाप्यत्व का एक धर्मी में विरोध नहीं है' इस विषय के निरूपण के प्रसंग से 'केवली भगवंत शब्द का प्रयोग करते हैं इस विषय का निरूपण करके प्रकरणकार श्रीमद्जी भूल विषय का निरूपण करते हैं कि प्रदर्शित रीति के अनुसार एक धर्मी में नित्यत्व - अनित्यत्व, सामान्य- विशेषादि धर्मयुगल का वस्तुतः विरोध नहीं है, फिर भी यदि प्रतिवादी नैयायिक आदि उन धर्मों में कथंचित् विरोध का अंगीकार करें तो भले वैसा स्वीकार करें । हमारी इसमें अनुमति है तथापि एक धर्मी में नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्मो का समावेश होने में कोई बाधक नहीं है, क्योंकि कथंचित् विरोधी धर्मों का एक धर्मी में समावेश हो सकता है। जिन पदार्थों का प्रकारान्तर से या अवच्छेदकान्तर से विरोध न हो वे ही कथंचित् विरोधी कहे जाते हैं। इस बात को दृष्टान्त से समझना हो तो कहा जा सकता है कि नील, पीत, शुक्ल आदि रूप परस्पर कथंचित् विरोधी हैं फिर भी चित्रपट, विचित्रघट, मोर के पंख आदि एक धर्मी में उनका समावेश होता है । इसी बात को सूचित करने के लिए मूलकार श्रीकलिकालसर्वज्ञ वीतरागस्तोत्र के अष्टम प्रकाश की, जिसके विवरणरूप में महोपाध्यायजी महाराज ने इस स्याद्वादरहस्य नामक प्रकरण की रचना की है, अर्थी कारिका के उत्तरार्ध में कहा है कि विरुद्ध = कथंचित् विराधी वर्णों रूपों का मेचकबस्तु = मिश्रवस्तु मयूरपंख आदि में योग एकधर्मवृत्तिता प्रत्यक्षसिद्ध है। शबल घट को भी लोक 'यह इस भाग में पीतवर्णवाला है, उस भाग में रक्तरूपवाला है, ऊपर के भाग में श्यामवर्णवाला है' इत्यादि स्वरूप से जानते हैं । इसलिए यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि 'चित्र घट में केवल एक अतिरिक्त
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