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________________ २३७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * व्यधिकरणधर्मस्याऽवच्छेदकत्वविचार: * बनु 'स्थादस्तेि स्यानास्ती'त्यादिसप्तभयां घटत्वादिना घटास्तित्वं कथं विधीयतां ? अस्तित्वत्वेनैव तदविधानसम्भवात् । पटत्वादिना वा पदाऽस्तित्वं कथं प्रतिषिध्यता ? व्यधिकरणधर्मावच्छिमाऽभावस्याऽप्रामाणिकत्वात् । -----------------..-:-:--....... .--._* जयलता * नन्विति । अयं दीर्घः पूर्वपक्षः तृतीयचेत्पन्दपर्यन्तं बोध्यः, तदनु 'मैवमित्यनेनोत्तरपक्षप्रारम्भ इत्यवधेयम् । स्यादस्ति = स्यादस्त्येव घटः, स्यान्नास्ति = 'स्यानास्त्येव बटः' इत्यादिसप्तभङ्गयां घटत्वादिना धर्मेण घटास्तित्वं = घटप्रतियोगिकास्तित्वं, कथं विधीयतां ? नैवेत्यर्थः काकुन्यायेन व्यज्यते । तर्हि केन धर्मेण तदस्तित्वविधानं सम्भवेदित्याशङ्कायामाह - अस्तित्वत्वेनैव = घटप्रतियोगिकास्तित्वनिष्ठास्तित्वत्वधर्मेणैव, तद्विधानसम्भवात् = घटास्तित्वविधानस्य शक्यत्वात् । एक्कारेण घटत्वादिव्यवच्छेदः कृतः । अयमत्र नन्वभिप्रायः घटास्तित्वं तु घटाद्भिन्नमिति द्वितीयपक्षकक्षीकरणे घटत्वधर्मो विधीयमानाऽस्तित्वस्य प्रतियोगिनि घटे वर्तेत, न त घटास्तित्वे । विधेयवृत्तिधर्मेणैव विधानं सम्भवति न त विधेयावृत्तिधर्मेणाऽपि, अन्यथा पटत्वेनाऽपि घटास्तित्वं विधीयेत । न चैवं भवति । ततः पटत्ववत् घंटत्वस्याऽपि विधीयमानाःस्तित्वावृत्तित्वेन न घटत्वेन तद्विधानं शक्यं किन्तु बटास्तित्वत्वनव, तस्य विपत्तित्वात् । पटत्वादिना धर्मेण वा घटास्तित्वं = बटप्रतियोगिकसत्त्वं, कथं प्रतिपिध्यता ? नैवेत्यर्थः । हेतुमाह - ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाऽभावस्य - प्रतियोग्यवृत्तिधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकाऽत्यन्ताभावस्य, अप्रामाणिकत्वात् = प्रमाणबाधितत्वात् । अयं नन्वभिप्रायः प्रतियोग्यवृत्तिश्च धर्मो न प्रतियोगितावच्छेदको भवति । अतः तदविच्छिन्ना प्रतियोगिताऽप्यप्रसिद्धा भवति । | अत एव तन्निरूपकोऽत्यन्ताभावोऽपि वन्ध्यास्तनन्धयवदप्रसिद्धो भवति । अत एव ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नात्यन्ताभावस्या प्रामाणिकत्वं गीयते । न च प्रतियोगितायाः स्वाश्रयाऽवृत्तिधर्मानवन्छिन्ने किं मानमिति वक्तव्यम्, 'प्रतियोगिता स्वाश्रयाऽवृत्तिधर्मा. नवच्छिन्ना, प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टवैशिष्ट्याऽवगाहिबुद्धित्वावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यतापच्छेदकप्रकारतावच्छेदकानुयोगितानिरूपितत्त्वादि'त्यनुमानमेव तत्र मानमिति गृहाण । ततश्च प्रकृतेऽत्यन्ताभावप्रतियोगिनि बटास्तित्वे पटत्वादेरवृत्तित्वेनाऽत्यन्ताभावनिरूपितप्रतियोगितावच्छेदकत्वं न सम्भवति । अत एव तदवच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकात्यन्ताभावप्रतिपादनपरः द्वितीयभङ्गो प्रामाणिकः । सिद्धे चैवं प्रथमद्वितीयभङ्गयोरप्रामाणिकत्वे तत्संयोगनिष्पन्नाः शेषभङ्गा अपि काल्पनिका एव । ततः नेयं . सप्तभङ्गी प्रमाणमिति फलितम् । सामंगी अप्रामाणिक है - दीर्यपूर्तपक्ष र पूर्वपक्षी :- नन. इति । सप्तभंगी का आपने जो निरूपण किया है, वह ठीक नहीं है। वह इस तरह - 'घटः स्यादस्ति' यह सप्तभंगी का प्रथम भंग है, जिससे आप यह विधान करते हैं कि - घटत्वेन घटास्तित्व है। अतः यहाँ घटास्तित्व धर्म विधेय बनता है और घटत्व विधेयतावदक । मगर यह असंगत है, क्योंकि विधेयतावच्छेदक धर्म विधेयनिष्ट ही बनता है । घट और अस्तित्व परस्पर अभिन्न तो नहीं है। अतः घट में रहता हुआ घटत्व धर्म घटास्तित्वरूप विधेय में नहीं रह सकता है । अतएव घटत्वरूप से घटास्तित्व का विधान भी नामुमकिन है। घटास्तित्वरूप विधेय में तो घटास्तित्वत्व नाम अतः विधेयवत्ति घटास्तित्वत्वरूप धर्म से ही बटास्तित्व का विधान मुमकिन है। अतः घटत्वेन घटास्तित्व का विधान करने वाला प्रथम भंग असंगत है। इसी तरह सप्तभंगी का द्वितीय भंग भी नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि 'घटः स्यानास्ति' इस द्वितीय भंग का अर्थ आपको यह अभिमत है कि - 'पटत्वेन घटास्तित्वं नास्ति' अर्थात् 'पटत्व धर्म से घटास्तित्व का निषेध द्वितीय भंग से किया जाता है। यहाँ निषेध्य है घटास्तित्व, जो अभाव का प्रतियोगी है और प्रतियोगितावच्छेदक है पटत्व । पटत्व पट में रहता है, न कि घटास्तित्वरूप प्रतियोगी में । प्रतियोगितावच्छेदक धर्म तो वही हो सकता है, जो प्रतियोगी में रहता हो । अर्थात् प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्म प्रतियोगिताअवच्छेदक नहीं बन सकता है। अतएच प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता भी अप्रसिद्ध है। अतएव प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिता का निरूपक अत्यन्ताभार भी अप्रामाणिक कहा जाता है। अप्रसिद्ध धर्म का निरूपक कोई भी नहीं बन सकता है। अतएव प्रस्तुत में पटत्वरूप धर्म से घटास्तित्वाभाव का प्रतिपादन करना भी अप्रामाणिक है। इस तरह द्वितीय भंग भी असंगत है। प्रथम और द्वितीय भंग अप्रामाणिक होने से उन दोनों से घटित (= उन दोनों के संयोग से निप्पन) शेष भंग भी अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं। अत: संपूर्ण सप्तभंगी अप्रामाणिक = काल्पनिक है- यह निर्विवादरूप से सिद्ध होता है ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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