SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ . का.५ * वैशेपिकसूत्रोपस्कार-भाष्यसंबादानेदनम् * पप्लवमिति हो। १ तागनियमे मानाभावादित्येव बूमः । उत्पादव्ययधोव्यक्यरूपं घटास्तित्वं स्वद्रव्यादिचतुष्टयनिर्वृतं, तदमावस्तु परद्रव्यादि- =-=* जयलता है प्रकरणकृतः तत्प्रत्याचक्षते - तादृनियमे = स्वाश्रयसम्बंधिन एवं स्वावच्छेदकत्वमिति नियमे, मानाभावात् विपक्षबाधकतर्कविरहात । अवच्छेद्यावच्छेदकयोरसामानाधिकरण्ये को दोषः ? इत्यत्र नैव किञ्चिदपि परेण वक्तुं शक्यते ।। वस्तुतस्तु यथा गौरवप्रतिसन्धानदशायामपि 'कम्बुग्रीवादिमानास्ती'त्यादिप्रत्ययबलात् प्रकारतावच्छेदकवद् गुरुरपि धर्मः प्रतियोगितावच्छेदकः । अत एव तथाविधयत्किञ्चिद्व्यक्तिसत्त्वे तादृशप्रतीतेरनुदयः तत्सामान्यशून्य एव च तदुदयः । तथा घटत्वादी घटादिनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकत्वकल्पने गौरवप्रतिसन्धानदशायामपि 'घटल्वेन पटो नास्ती' त्यादिस्वारसिकप्रतीत्युदय- . महिम्नाऽवच्छेद्याधिकरणाइसम्बद्रोऽपि धर्मो त्यधिकरणप्रतियोगिताया अवच्छेदक इत्युपगमे बाधकाभावात् । सार्वजनीनप्रीतिस्वारस्यादेवाऽवच्छेदकावच्छेद्ययाळधिकरणत्वेऽपि न क्षतिः । प्रत्यक्षानुसारेणैव नियमकल्पनात् । न हि प्रत्यक्षातिक्रमण नियमस्य प्रवृत्तिः, प्रत्यक्षस्य सर्वप्रमाणेभ्यो बलवत्त्वात्, नियमस्य तदुपजीवकत्वात्, उपजीवकस्योपजीव्यप्रतिक्षेपाश्योगात् । अत एव सामान्यतोऽभावस्य प्रतियोगित्यधिकरणत्वे क्लृप्तेऽपि संयोगाद्यभावे तधात्वा प्रतीतेः तादृनियमस्य सार्वत्रिकत्वं त्यज्यते परेण । तद्वदेवाविच्छेदकाबन्द्रद्ययोः रामानाधिकरण्ये क्लृप्तेऽपि 'घटत्वेन पटो नास्ती' त्यादिस्वारसिकप्रतीतिबलात तयोः सामानाधिकरण्यनियमस्य सार्वत्रिकत्वं त्याज्यमेव. अन्यथा घटत्वेनाःपि पटास्तित्वविधानप्रसङ्गस्य बृहस्पतिना प्यनिराकार्यत्वापातात् । न चैनं परस्याऽपसिद्धान्तोऽपि प्रसज्यते. तत्सिद्धान्तानुसारित्वादेतत्कल्पनायाः । तदुक्तं शङ्करमिश्रेण 'सच्चाऽसत्' (वै.सू.अ.५. आ.१, सू.४) इति वैशेषिकसूत्रोपस्कारे -> "भवति हि असन्नश्वो गवात्मना, असन गौरश्वात्मना, असन् पटो घटात्मना'' «- (वै.सू.उप. पृ.३१३) । तदीयभाप्येऽपि -> 'अश्वात्मना सन्नप्यश्वो न गवात्मनास्ती' - (वै.सू.भा. पृ.३१५) त्युक्तम् । अनेन पटादिनिष्ठघटत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगितान्तरकल्पने गौरवादित्यपि प्रत्युक्तम् ।। ____ अत एव घटे परद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदन नास्तित्वस्थ प्रतिपादनमपि सङ्गतिमङ्गति । यच श्रीरामप्रपन्नाचार्येण जागदीशीच्यधिकरणदीपिकायां प्रतियोगिता स्वाश्रयाऽवृनिधर्मानच्छिन्ना प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्टयशिष्ट्यावगाहिबुद्धित्वावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यतावच्छेदकप्रकारतावच्छेदकानुयोगितानिरूपितत्वात्' (जा.व्य.दी.पृ.९७) ! इत्युक्तं, तन्न चार, अप्रयोजकत्वात् । स्वमतेनाऽऽद्यभङ्गद्वयं व्यवस्थापय श्वेताम्बरचूडामणिः प्रकरणकारी दिगम्बरमतेनाऽध्यभङ्गद्विकमुपदर्शयति- उत्पादच्ययधोव्यैक्यरूपं = संभव-विलय-स्थित्यभेदात्मकं घटास्तित्वं स्वद्रव्यादिचतुष्टयनिर्वृतं = स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावनिष्पन्न, तदभावस्तु D D : --- यह है कि . स्वाचच्छेद्य के अधिकरण से संबद्ध ही अवच्छेदक हो सकता है - यह नियम ही अप्रामाणिक होने से मान्य नहीं हो सकता है - ऐसा हम स्याद्वादी कहते हैं। तादृश नियम के विपरीत में ऐसा कहा जाय कि -> अवच्छेदक से अचच्छेद्य का जो अधिकरण है, उससे अवच्छेदक असंबद्ध हो तो क्या क्षति है ? -नो इसके प्रत्युत्तररूप में पूर्वपक्षी की ओर से कुछ भी कथन नहीं किया जा सकता । विपक्षनाधक तर्क के विरह से यह नियम उपादेय नहीं है। अतः पटनिष्ठ नास्तित्व का अवच्छेदक परगन्यादि चतुक भी हो सकता है । अनुभव भी इस बात का पोषक है कि घट मिट्टीरूप से सत् है, जलादिरूए से नहीं । अत: परद्रव्यादि चतुप्कारदेन घट में नास्तित्व का प्रतिपादन करने में कोई बाधा नहीं है । अतः द्वितीय भंग भी प्रामाणिक ही है - यह सिद्ध होता है । एवं तद्गर्भित सप्तभंगी भी प्रामाणिक ही है - यह सिद्ध होता है।' *उत्पाद-व्यय-पौत्यैक्यात्मक घटास्तित्व - दिगम्बर का अभिप्राय* उत्पाद. इति । व्याख्याकार श्रीमदजी श्वेतांबर आम्नाय के अनुसार सप्तभंगी के प्रथम और द्वितीय भंग का प्रतिपादन करने के बाद दिगम्बर आम्नाय के अनुसार प्रथम और द्वितीय भंग का निरूपण करते हैं। दिगम्बर मनीषियों का यह कथन है कि - 'घटः स्यादस्ति एव' इस भंग = वाक्य में जिस घटास्तित्व का प्रतिपादन किया गया है वह उत्पादव्ययध्रौव्य से अभिन्न होता है एवं स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से निप्पन्न होता है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ में प्रतिक्षण नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती है, पूर्व-पूर्व पर्याय की निवृत्ति होती है और मुल द्रव्यरूप से बस्तु स्थिर रहती है। उत्पाद, व्यय और ::.":-:.-::.
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy