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________________ २०४ * सप्तभङ्गीतरङ्गिणीसंवादः * 'अवच्छेद्याधिकरणसम्बन्दमेवावच्छेदकमिति परद्रव्यादेः नास्तित्वावच्छेदकत्वं कथमनु- । === == * जयलता - SE" - | परद्रव्यभूतजलाधवच्छेदेनाऽस्तित्वस्य निषेधः, स्वक्षेत्रपाटलिपुत्रत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधिः परक्षेत्रभूतकान्यकुब्नत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य प्रतिषेधः, स्वकालरीशिरत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधानं परकालवासन्तिकत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य प्रतिषेधः, स्वभावरक्तत्वावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधिः परभावक्ष्यामत्वायवच्छेदन चाऽस्तित्वस्य निषेधः इत्येवं विचार्यमाणं आद्यभङ्गद्वयं चास्तामश्चत्येव । एवमेव तदर्भितसप्तभङ्गयपि पुमायकोटिमाम्लपत्रोध । - दाएं स्थागोमारो यदेनमन्धो न पश्यति । विमलदासेनाऽपि सप्तभङ्गीतरङ्गिण्यां -> "स्यादस्त्येव घटः, 'स्यान्नास्त्येव घटः' इत्यस्य स्वरूपाद्यवच्छिन्नास्तित्वाश्रयो । घटः पररूपाचवच्छिन्ननास्तित्वाश्रयो घट इति च बोधः'' - (स.न.त.पृ.३८) इत्येवं प्रतिपादितम् । युक्तश्चैतत् यदि घटे स्वद्रज्यादिचतुष्कावच्छेदेनाऽस्तित्वस्य विधानमिव परद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽपि तद्विधानं स्यात्, घटो वैश्वरूप्यमादधीत । यदि परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन घटेऽस्तित्वस्य प्रतिषेध इब स्वद्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽपि तन्निषेधः स्यात् बटो बन्ध्यास्तन्धयतामइनुवीत । न चैवम्, अतः बटे स्वद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदनाऽस्तित्वस्य विधानं परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन तत्प्रतिषेधश्वोपगन्तुमर्हत एवेति स्वसमयोक्तादिशा सम्यगवसेयम् । ___ ननु अवच्छेदकत्वं स्वावच्छेद्याश्रयसम्बद्धे एवं भवितुमर्हति यथा स्वाबन्छेद्यपिसंयोगाधिकरणीभूतवृक्षसम्बद्भमूले कपिसंयोगावच्छेदकत्वं कपिसंयोगे च तदवच्छेद्यत्वम् । अतो घटबृत्तिनास्तित्वस्याऽवच्छेदकत्वं परद्रव्यादिचतुष्के न संभवि, तस्य स्वावच्छेगनास्तित्वाधिकरणीभूतघटा सम्बद्भत्वात् । ततः कथं घटे परद्रव्यादिचतुष्कावच्छेदेन नास्तित्वप्रतिपादनं घटाकोटि- | | माटीकेतेत्याशयेन पर प्रत्यवतियते - अवच्छेयाधिकरणसम्बद्धमेवेति । एवकारेणापच्छिन्नाश्रयासम्बन | परमते मुले वृक्षाश्रितत्वविरहात सम्बद्धपदोपादानम । अवच्छेदकामिति नियमादिति शेषः । यथा 'इह पर्वते नितम्बे हताशन' | । इति बोधे 'नितम्बावच्छिन्नपर्वतनिरूपितवृत्तितावान हताशन' इत्याकारके नितम्बस्य वह्निनिष्ठलितावच्छेदकत्वम, अवच्छेद्यीभूताया । वह्निनिष्ठाया पर्वतनिरूपितवृत्तिताया अधिकरणीभूतपर्वतसम्बद्भत्यात् । अतः परद्रव्यादेः घटापेक्षया परद्रव्यक्षेत्रकालादेः नास्तित्वावच्छेदकत्वं = वटवृनिनास्तित्वस्याऽवच्छेदकत्वं, कथं अनुपप्लवं ? नैव सङ्गतमित्यर्थः, अवच्छेद्यावच्छेदकयोवैयधिकरण्यादिति पराकूतम् । हैं । इसकी उपपत्ति ठीक उसी तरह हो सकती है, जैसे वृक्ष में मूलावच्छेदेन कपिसंयोग का विधान और अग्रभागावच्छेदेन कपिसंयोग का निपेध । जब वृक्ष के मूलभाग में बंदर बैठता है तब कपिसंयोग का अवच्छेदक मूलभाग होता है और अधिकरण वृक्ष । उस अवस्था में वृक्ष के अग्नभाग में कपिसंयोग नहीं होता है । अतः कपिसंयोगाभाव का अवच्छेदक अग्रभाग होता है और अधिकरण वृक्ष । अवच्छेदकभेद से एक ही वृक्ष में कपिसंयोग का विधान और निषेध हो सकता है। इसी तरह घट भी स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा सत् होता है, न कि परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से भी । परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा घट असत् होता है। अतः यट में भी स्वद्रव्यादिवतुष्टय अवच्छेदेन अस्तित्व का विधान और परद्रव्यादिचतुष्टय अवच्छेदेन अस्तित्व का निषेध हो सकता है । अवच्छेदकभेद से एक ही द्रव्य में अस्तित्व का विधान और निषेध होने में कोई राधा नहीं हो सकती है . यह तो हम अभी ही वृक्ष में अवच्छेदकभेद से कपिसंयोग के विधान और निषेध के दृष्टांत से प्रतिपादन कर चुके हैं। अतः सप्तभंगी का प्रथम और द्वितीय भंग भी प्रामाणिक ही है। एवं प्रथम और द्वितीय भंग के संयोग से निप्पन्न सप्तभंगी में अप्रामाण्य की घोषणा करना सिर्फ अज्ञान का ही सूचक है। अतः पूर्वपक्षी की उपर्युक्त रामकहानी नितांत अप्रामाणिक एवं उन्मत्त प्रलाप की भाँति अनुपादेय ही है . यह सिद्ध होता है । E परदव्यादि चतुष्टय में अवच्छेदकता मुमकिन - स्यादादी र अच्छद्या. इति । यहाँ इस शंका का उदभावन करना कि ->"अवच्छेदक वही हो सकता है जो स्वावच्छेय के अधिकरण से संबद्ध हो । जैसे वृक्ष में कपिसंयोग की अवच्छेदक शाखा हो सकती है, क्योंकि शाखा अपने से अवच्छेद्य - नियंत्रित कपिसंयोग के अधिकरणीभूत वृक्ष से संबद्ध होती है। अतएव प्रस्तुत में द्वितीय भंग में घटवृत्ति नास्तित्व के अवच्छेदकविधया परद्रयादिचतुष्टय का स्वीकार नहीं हो सकता है, क्योंकि परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावस्वरूप चतुष्टय स्वावच्छेद्य नास्तित्व के अधिकरणीभूत घट से असंबद्ध है । घट को स्वद्रव्यादि चतुष्टय के साथ सम्बन्ध होता है। परद्रव्यादि चतुष्टय के साथ नहीं । अत: घट के परद्रव्यादि चतुष्क में पटनिष्ठ नास्तित्व का अवच्छेदकत्व कैसे संगत होगा ?" ठीक नहीं है। इसका कारण - .-.
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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