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________________ २६७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * रत्नाकरावतारिकाविरोधपरिहारः * ___ 'स्वरूपाऽस्तित्वेनैव पररूपेण नास्तित्वातीतिनिर्वाहात्कथमनयोर्भेद' इति चेत् ? स्वेतरवत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वाऽप्रमीयमाणत्वखपविरुदधर्माऽध्यासात। 'अस्तित्वं प्र - - --ॐ जयलवा * सम्पादितसत्ताकतृतीयभङ्गाऽभावात्कुतस्सप्तभङ्गी स्वावकाशं लभेतेत्याशयेन कश्चिच्छङ्कते - स्वरूपास्तित्वेनैवेति । एवकारेण पररूपनास्तित्वव्यवच्छेदः कृतः । पररूपेण नास्तित्वप्रतीतिनिर्वाहात् = पररूपाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावप्रत्ययोपपत्तेः, कथमनयोभेदः १ घटभेदाभाव-घटत्वयोरिब प्रकृते स्वरूपाऽस्तित्व-पररूपनास्तित्वयोर्नेव वैलक्षण्यं स्यादित्यर्थः । प्रकरणकृत्समाधत्ते. स्वेतरवृत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वाऽप्रमीयमाणत्वरूपविरुद्धधर्माथ्यासादिति । यथाक्रमं पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावे स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्वे चाऽन्वयः कार्यः । अयमाशयः 'घटो घटत्वेनाऽस्ति पटत्वेन च नास्ती'त्यत्र बटत्वाऽवच्छिन्नाऽस्तित्व केवलं घट एवं वर्तते न तु घटेतरकुटादौ, पटत्वाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाभावस्तु घटेऽपि वर्तते यटेतरकुटादावपि । एतेन स्वरूपाऽवछिन्नाऽस्तित्व पररूपावच्छिन्ननास्तित्वयोः समनियतत्वं प्रत्याख्यातम, घटत्वलक्षागस्वरूपावलिन्नास्तित्वं घटेतरकटादौ न प्रमीयते || पटत्वाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावस्तु घटभिन्नकुटादावपि प्रमीयते । अनेन स्वरूपास्तित्व-पररूपनास्तित्वयोरैक्यं प्रत्युक्तम्, अस्तित्वाऽवच्छेदकाऽवच्छिन्नभित्रवृत्तित्वविधया स्वरूपाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वेऽप्रमीयमाणत्वस्य पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावे च प्रमीयमाणत्वस्य सद्भावात्, प्रमाविषयत्व-तदविषयत्वलक्षणविरूद्धधर्माध्यासस्य स्वाश्रयभेदकत्वात्। ततः स्वातन्त्र्येण प्रथम-द्वितीयभङ्गावपि | पटेते एव । अनेन सप्तभङ्गया अनाविलत्वमुपदर्शितम् । ननु रत्नाकरावतारिकायां 'अस्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्येनाऽविनाभावि' (रत्ना, ४/१६) इत्याधुक्तम् । भवद्भिस्तु नास्तित्वस्याऽस्तित्वाऽव्याप्तत्वमुपदर्शितमिति कथं न विरोध: ? इति मुग्धाशङ्कायामाह- 'अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽबिनाभाव्येक * स्वास्तित्व और परजास्तित्व में अभेद नहीं है स्वरूपा, इति । यहाँ यह संशय हो कि -> "स्वरूपाऽवच्छिन्न अस्तित्व और पररूपावच्छित्र अस्तित्वाऽभाव को भिन्न भिन्न मानने की जरूरत क्या है ? जहाँ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावाचबिाऽस्तित्व रहता है, वहाँ परदन्य-क्षेत्र-काला-भावावच्छिन्नाईस्तित्वाऽभाव रहता ही है । पररूपावच्छिन्न नास्तित्व को छोड कर स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व कहीं भी नहीं रहता है । अतः 'घटः परत्वेन नास्ति' इस प्रतीति की उपपत्ति घटत्वाऽवच्छित्र अस्तित्व से ही हो सकती है। स्वरूप से ही वस्तुमात्र का अस्तित्व है । इसका मतलब यही है कि पररूप से वस्तु का नास्तित्व है। अतः पररूपावच्छिन नास्तित्व प्रकारक प्रतीनि का समर्थन स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व से अतिरिक्त पररूपावच्छिन नास्तित्व से न मान कर स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व से अभिन्न | ऐसे पररूपावच्छिन्न नास्तित्व से मानना उचित है । अतः सप्तभंगी के द्वितीय भंग की प्रथम भंग से ही उपपत्ति हो जायेगी। अतः प्रथम भंग से अतिरिक्त द्वितीय भंग की कल्पना चिनजरूरी है" <-- तो यह असंगत है। इसका कारण यह है कि स्वास्तित्व और परनास्तित्व में विरुद्ध धर्म की आश्रयता है। वह इस तरह . 'घटः घटत्वनाऽस्ति पटत्वेन च नास्ति' इस वाक्य से घटत्वाऽवच्छिन्न अस्तित्व का और पटत्वावच्छेदेन नास्तित्व का घट में बोध होता है। मगर घटत्वावच्छिन्नाऽस्तित्व केवल घट में ही है, न कि पर्वत, वृक्ष आदि में भी । जव कि पटत्वावच्छिन्न नास्तित्व घट में भी है और पर्वत, वृक्ष आदि में भी है, क्योंकि पर्वतादि का अस्तित्व पटत्त्वाऽवच्छेदेन (=जहाँ पटत्व रहता है यहाँ) नहीं है। इस तरह घटत्वादिस्वरूपावच्छिन अस्तित्व घरेतर (परद्रव्य) वृसित्वरूप से प्रमा ज्ञान का विषय नहीं होने की वजह स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्व में स्वेतरवृत्तित्वविधया अप्रमीयमाणत्व (=प्रमाविषयत्वाभाव) धर्म रहता है और पटत्वादिपररूपाइवच्छिन्न नास्तित्व घटेतरवृत्तिन्वरूप से प्रमा ज्ञान का विषय होने के सबब पररूपावच्छिन्ननास्तित्व में स्वेतरवृत्तित्वविधया प्रमीयमाणच (वर्तमानकालीन प्रमाविषयत्व धर्म रहता है। स्वरूपास्तित्व और पररूपनास्तित्व में उपदर्शित पद्धति (प्रक्रिया) के अनुसार परस्पर विरुद्ध धर्म रहने की वजह चे परस्पर भिन भी सिद्ध होते हैं। यदि स्वरूपाशस्तित्व से पररूपनास्तित्व सर्वथा अभिन्न होता, तब तो पररूपनास्तित्व की भौति स्वरूपास्तित्व में भी स्वेतरवृत्तित्व विधया प्रमीयमाणत्व धर्म ही रहता या तो स्वरूपास्तित्व की भाँति पररूपनास्तित्व में भी स्वेतरवृत्तित्वरूप से अप्रमीयमाणत्व धर्म ही रहता । मगर वैसा नहीं है, यह हम अभी ही पड़ चुके हैं - जान चुका है। इसलिए इन दोनों को अलग-अलग मानना आवश्यक हो जाता है । यदि आप ऐसा कहें कि → “अस्तित्व तो एक धर्मी में प्रतिषेध्य (= नास्तित्व) से अविनाभावी है अर्थात् स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्व तो पररूमानच्छिमनास्तित्व का व्याप्य है" - तो इससे केवल यह सिद्ध होगा कि जहाँ जहाँ स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व है, वहाँ वहाँ पररूपाऽवच्छिन्न नास्तित्व अवश्य | रहता है और जहाँ जहाँ पररूपावच्छिन नास्तित्व नहीं रहता है, वहाँ वहाँ स्वरूपावच्छिन्न अस्तित्व नहीं रहता है। मतलब
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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