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________________ २६६ * अनवच्छिन्नेऽवच्छिनत्वप्रतीतिसमर्थनम् * राऽभावादिति - 1 मैवम् तत्र शुन्दस्य स्वस्यैव स्वाऽस्तित्वावच्छेदकत्वात् तनिर्वर्तकत्वाच्च । 'अन्यत्राऽपि' स्वेनैव तथा भूयता' इति चेत् ? न, व्यवहाराऽतिक्रमे निराशत्वापातात् । --":..=* जयलता *-...समाधत्ते-मैवमिति । तत्र = परमाण्वादिस्थले तभिर्वर्तकत्वाच्च = स्वाऽस्तित्वजनकत्वाचेति बिपरिणामेनाऽन्ययः कार्यः । शुद्ध स्वद्रव्यं स्वावच्छिन्नकालसंसर्गाश्रयत्वस्याऽवच्छेदकं जनकञ्चेत्यर्थः । न च तथापि शुद्रव्यत्वावच्छिन्नधर्मिताकस्थले का गतिः ? तव्यतिरेकेणाऽन्यद्रव्याद्यभावादिति शाइनीयम्, तत्रापि स्वद्रव्यपरद्रव्यशब्दाभ्यां व्यापकत्वाऽव्यापकत्वोपलक्षणात् तदवच्छिन्नाडस्तित्वनास्तित्वादिघटितायाः सप्तभङ्गचा अनुपपत्तिविरहात् । अथ परमावादी शुद्धं स्वद्रव्यमपेक्ष्य सत्त्वस्य तत्प्रतिपक्षसद्भावमपेक्ष्याऽसत्त्वस्य च प्रतिष्ठापगमे अन्यत्राऽपि तथाप्रसङ्गात्, अन्यथाऽर्धजरतीयप्रसङ्गादित्याशयेन कश्चिच्छङ्कते. अन्यत्राऽपीति । घटादिस्थलेऽपि स्वेनेव द्रव्येण, तथा = स्वास्तित्वोपपादन भयतां, एक्कारेण द्रव्यान्तरादिव्यवच्छेदः कतः । स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे - नेति । व्यवहारातिक्रमे = प्रसिद्व्यवहारोब्लञ्चने, व्यवहारश्चोपलक्षणं प्रतीतेरपि, तस्य तन्मूलत्वात् । अयं भावः प्रकृते वस्तुप्रतीतिव्यवहारावेवोपक्रान्तौ प्ररूपयितुं । वस्तुनो हि यथैवाऽबाधिता प्रतीतिस्तथैव तद्व्यवहारः तत्स्वरूपञ्च, अन्यथा नानानिरङ्कुशविप्रतिपत्तीनां निवारयितुमसक्यत्वात् । ततः परमावादी शुद्धद्रव्यस्यैव स्वाऽस्तित्वाऽवच्छेदकत्वेऽपि प्रतीतिव्यवहारबलेनाऽन्यत्र न द्रव्यान्तरादेरस्तित्वाऽवच्छेदकत्वबाधः । एतेन स्वरूपादौ स्वरूपाद्यन्तराऽभावात्कथं सत्त्व, सद्भावे वा कथं नाऽनवस्था ? इति पर्यनुयोगः परास्तः, अनर्पितदृष्ट्या अनवच्छिन्नेऽप्यर्पितदृष्टयाऽवच्छिन्नत्वप्रतीते: सार्वजनीनत्वात्, केनचिन्नयेन स्वरूपादेः स्वरूपतोऽवच्छेदकत्वं निर्णायैवाः स्तित्वादिप्रवृत्तेरनवस्थाया अभावात्, अन्यथा शाखावच्छेदेन वृक्षे कपिसंयोगप्रत्ययोऽपि दुरुपपादः स्यात्, सम्पूर्णा परमाण्वाश्यवच्छिन्ना वा झारखाऽनवच्छेदिकेति ग्रहे शाखात्वाऽवच्छेदेनाऽवच्छेदकत्वग्रहाउसम्भवात्, प्रतिनियताऽवयवाऽवच्छिन्नदाखात्वेन तदवच्छेदकत्वस्य च दुर्गमत्वादिति दिक् । नन् लाघवेन स्वरूपसत्त्वस्यैव पररूपाऽसत्त्वत्वम,स्वरूपाऽस्तित्वसमन्यापकत्वात्पररूपनास्तित्वस्य । स्वपररूपादिसत्त्वा | सत्त्वयोर्भेदाभावात् अतिरिक्त- प्रथमद्वितीयभङ्गौ न युक्ती, तदन्यतरेण गतार्थत्वात् । तदघटने च मिलितप्रथमद्वितीयभङ्ग भी निरंश समयस्वरूप होने से उसका कोई अन्य स्वकाल स्वाश्रय नहीं है, जो कालाश्रित अस्तित्व का अवच्छेदक हो सके । इस तरह स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्न अस्तित्व परमाणु और काल में असंभव है, क्योंकि अस्तित्वाऽवच्छेदकसमूह के घटक अप्रसिद्ध है। अतः सर्वत्र स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छिन्नास्तित्व का आपने जो विधान किया था, वह असंगत है ।। उत्तरपक्ष :- मेवं. इति । हजूर ! आपकी यह बात ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि परमाणुवृत्ति अस्तित्व का अवच्छेदक शुद्ध परमाणु ही हो सकता है । एवं निरंश कालनिष्ठ अस्तित्व (सत्त्व) का अवच्छेदक शुद्ध कालस्वरूप स्वद्रव्य होता है । तथा परमाणु एवं काल में स्ववृत्ति अस्तित्व की जनकता है । इस तरह शुद्ध स्वद्रव्य में अस्तित्वावच्छेदकता मुमकिन होने से 'सर्वत्र अस्तित्व का अवच्छेदक स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव है' यह वचन संगत ही है । यहाँ यह शंका करना कि → “यदि शुद्ध परमाणु और कालात्मक स्वद्रव्य में स्ववृत्ति अस्तित्व की अवच्छेदकता हो सकती है, तब तो सर्वत्र शुद्ध स्वद्रव्य ही स्ववृत्ति अस्तित्व का अवच्छेदक हो जायेगा । तब तो पटवृत्ति अस्तित्व का अपच्छेदक भी पर ही बनेगा, म कि तंतु" <-ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि जैसा व्यवहार प्रसिद्ध हो उसके अनुसार कल्पना की जाती है। व्यवहार का अतिक्रमण कर के कोई कल्पना की जाय तब भारी गड़बड़-अव्यवस्था हो जायेगी । वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा सामान्यतः सभी को ज्ञान उत्पन्न होता है। जैसा ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके अनुसार व्यवहार होता है। अतः प्रसिद्ध व्यवहार का अपलाप कर के कोई कल्पना नहीं की जा सकती। पटवृत्ति अस्तित्व के अवच्छेदकरूप से पटाश्रय तंतुस्वरूप स्वद्रव्य प्रसिद्ध है । पदत्वावच्छेदेन अस्तित्व है, वह पटावच्छिन्न नहीं है, किन्तु तन्तुअवच्छिन है . यह व्यवहार होता है। अतः वहाँ अपने को ही अपने में रहे हए अस्तित्वादि धर्म का अवच्छेदक नहीं माना जा सकता । परमाणु और समयलक्षण काल अतीन्द्रिय है । अतएव उसके अस्तित्व का अवच्छेदक कौन है ? यह आम जनता से अज्ञात है। अतएव सामान्य तौर पर परमाणु और काल में रहे हुए अस्तित्व के अवच्छेदक का व्यवहार भी नहीं होता है । इसलिए यहाँ शुद्ध स्वद्रव्य-स्वकाल में अस्तित्व के अवच्छेदकत्व की कल्पना करने में किसी प्रसिद्ध व्यवहार का अतिक्रमण नहीं है। अतएव यह कल्पना मान्य की जा सकती है। मगर घट, पद आदि के अस्तित्व के अवच्छेदकविधया घट, पद आदि की कल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि पैसा करने पर प्रसिद्ध व्यवहार का अतिक्रमण = उल्लंघन = अपलाप हो जाता है ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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