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________________ IF = = २५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ६ - का. * व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावासिद्धिः * या -> 'घटत्वेन पटो नास्तीति प्रतीते: घटत्वसम्बन्धावच्छिमपटनिष्ठप्रतियोगिताकाभा-|| । वावगाहित्वेनैवोपपत्तेर्न तया व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावसिन्दिः, अन्यथा घटत्वाद्यवच्छिन्न|| घटादिनिष्ठप्रतियोगिताकाऽभावत्वेन घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुताकल्पने (? घटत्वाधवच्छिन्न = = = = = = = * गयलता * = = = प्यतिरिक्तव कल्पनाया । एवमेव विषयता-विषयितादिकमप्यतिरिक्कमेवेत्यभ्युपगन्तब्यम् । यविति । अन्चयश्चास्य भवदेवाभिमतमि'त्यत्र । भवदेवः तत्त्वचिन्तामणिव्याख्याकारः प्रकृतेऽभिमतः । 'घटत्वेन । पटो नास्तीति प्रतीतेरिति । इदमपलक्षणं पटत्वेन घटो नास्तीत्यादिप्रतीतेः । घटत्वसम्बन्धावच्छिन्न-पटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावावगाहित्वेनैवेति घटतादात्म्यलक्षणघटत्वसंसर्गेगाध्वन्छिन्ना या पटवृत्तिप्रतियोगिता तन्निरूपकात्यन्ताभावविषयत्वेनवेति एबकारेण धर्मविधया घटत्वेनावच्छिन्नावाः पटवृत्तिप्रतियोगितावा निरुपकस्याभावस्य व्यवच्छेदः कृतः । उपपत्तेः = संगतेः न तया = दर्शितप्रतीत्या व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावसिद्धिः = अतिरिक्तव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्नाभावसिद्धिः । । || विपक्षबाधमाह . अन्यथेति | व्यधिकरणसम्बन्धावछिन्नप्रतियोगिताकाभावसमनियतस्य व्यधिकरणधारच्छिन्नप्रतियोगित स्या:तिरिक्तवो पगमे इति । घटत्वाद्यवच्छिन्नेति । अयं भवदेवाचायः यदि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावस्य ब्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावातिरिक्तत्वमङ्गीक्रियते तदा घटत्वावच्छिन्नवत्ताबन्दि प्रति घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावस्य प्रतिबन्धकलं न स्यात, घटत्वावच्छिन्नपटनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकाभाववत्यपि घटत्वविशिष्टप्रकारकबुद्धेजायमानत्वात् किन्तु घटत्वावच्छिन्नघटनिष्ठप्रतियोगिताकाऽभावस्यैव तत्त्वं स्यात् । ततो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावस्याऽतिरिक्तत्वकल्पने तादृशप्रतियोगितायां प्रतियोगितावच्छेदकसामानाधिकरण्यनिवेशावश्यकत्वेन गौरवापातः । न च नवाऽपि संयोगेन घटवति समबायेन घटाभावयुद्धेर्जायमानत्वात्तुल्यगौरवमिति वाच्यम्, स्वप्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन स्वप्रतियोगिमत्ताबुद्धिं प्रत्येवाऽभावस्य ही बन जायेगी। भवदेव के मत का जि५पण यत्नु, इति । यहाँ पूर्वपक्षी (ननुवादी) प्रासंगिक रूप से नवचिंतामणि के उपर टीका की रचना करने वाले भवंदव ' नाम के नव्य नैयायिक के मत का खंडन करने के लिए सर्व प्रथम उसके मत का निरूपण कर रहे हैं । भवदेव का मत यह है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव की सिद्धि 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति के दल से नहीं हो सकती है, क्योंकि वह प्रतीति - "प्रटतादात्म्यस्वरूप घटत्वसम्बन्ध से अवच्छिन पटवृत्ति प्रतियोगिता के निरूपक अभाव को ही विषय करती है" - ऐसा स्वीकार करने पर भी उपपत्र हो सकती है, तब घटत्वधर्मारचिन्न पटवृत्ति प्रतियोगिता के निरूपक || अभाव को उस प्रतीति का विषय मानने की क्लिष्ट कल्पना क्यों की जाय ? मतलब कि 'घटत्वेन पटो ना के विषयभूत अभाव से निरूपित प्रतियोगिता धर्मविधया घटत्व से अवच्छिन्न नहीं है किन्तु सम्बन्धविधया घटत्व से अवच्छिन्न ।। है । अतः उक्त प्रतीति के बल से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिता और उसके निरूपक अभाव की सिद्धि नहीं हो सकती है। उपर्युक्त प्रतीति प्रतियोगिता के आश्रय में अविद्यमान घटत्व धर्म को स्वव्यधिकरण प्रतियोगिता का अवच्छेदक बना || कर धर्मरूप से घटत्व से अवच्छिन्न प्रतियोगिता के निरूपक अत्यन्ताभाव को अपना विषय बनाती है . ऐसा मानने पर गोरख भी उपस्थित होता है । वह गौरव दोष इस तरह प्रसक्त होता है। देखिए, घटवत्ता बुद्धि की प्रतिवन्धक घटाभावबुद्धि होती है । घटत्वावच्छिन्नवत्ता बुद्धि की प्रतिबन्धकता घटत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावबुद्धि में होती है - यह सर्वजनविदित है। मगर व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावबुद्धि को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावविषयक न मानी जाय, नव घट-त्यापन्निवत्ता द्धि की प्रतिबन्धक घटत्वावच्छिमप्रतियोगिताकाभाव की बुद्धि नहीं हो सकेगी। इसका कारण यह है कि घटत्वरूप से पटाभाव भूतल में, जो घटविशिष्ट है, रहने की रजह घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव भूतल में रहता ही है । उसकी बुद्धि होने पर भी 'घटवत् भूतलं' ऐसी घटत्वावच्छिन्नवत्त्वाऽवयाहि बुद्धि उत्पन्न होती है। भूतल में घटत्वेन पटाभाव रहने पर भी घट रह सकता है। अतः घटत्वावच्छिन्नघटवृत्तिप्रतियोगिनानिरूपक अभाव की बुद्धि को ही घटत्वावच्छिन्नवत्ताबुद्धि का प्रतिबन्धक मानना होगा। मतलब कि घटत्व से अवच्छिन्न जो प्रतियोगिता है वह घट में वृनि हो, तभी तादृश प्रतियोगिता के निरूपक अभाव का ज्ञान घटप्रकारक बुद्धि का प्रतिबन्धक हो सकता है - ऐसा मानना होगा, जिसकी वजह अभावीय प्रतियोगिता में प्रतियोगितावच्छेदकीभूत घटत्व के आश्रय घट से निरूपित वृत्तित्व का विशेषणविधया प्रवेश करने का गौरव
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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