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________________ ३८५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. गुरुधर्मस्यापि शक्यतावच्छेदकलविवारः * 13D% 3D% 3DD-3DD स्वास्तु एकत्वनिष्ठ एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेष: कल्य्यते । स चा:त्याऽवयव्येकत्वव्यतिरिक्त एवेति = = ==* ायलता - | धिरेब । तदेव च पशुपदशक्यतावच्छेदकम् । यदि च गुरुधर्मस्य शक्यतावच्छेदकत्वं नोपेयते तदा लोमवल्लागूलवति पशुपदाक्ति: न स्यात किन्त लाघवेन गोत्वादिविशिष्ट एव । न चैवमस्तीति गरोरपि शक्यतावच्छेदकत्वमभ्यपेयमेव । ततो गरोरपि व्यावर्णितस्वरूपस्य भूतत्वस्य भूतपदशक्यतावच्छेदकत्वमुपगन्तव्यम् । तस्य च तमोऽवयवेष्वपि सत्त्वान्न तेषां द्रव्यारम्भकत्व गुतिः । न चैवं मुंगेर योदकत्ववादो आहन्येतेति वाच्यम्, पशुपदाद्यनुरोधात् नैयायिकैरपि शक्यतावच्छेद| काद्यतिरिक्तस्थल एब तादृशनियमस्योपगमादिति दिक् । स्वतन्त्रास्त्विति । आहुरित्यनेनाऽस्याइन्वयः । एकत्वनिष्ठः = एकत्वसळ्यासमवेतः, एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषः = द्रव्यसमवायिकारणतावच्छे दकी भूत: एकत्लत्व विशेषलक्षणो जातिविशेष:, कल्प्यते = अनुमीयते । 'या या कारणता सा सा किश्चिद्धबिछिन्ने ति च्याप्तिबलेन समवायसम्बन्धावन्निद्रव्यमायबृत्तिकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकविधया एकत्ववृत्तिः एकत्वत्वविशेषो-नुमीयते । सिद्धो धर्म एको नित्यश्चेदसति बाधके तदा लाघवमिति न्यायेन स च जातिस्वरूप एव सिध्यति । न चैकत्वत्यविशेषस्त्वेकत्वसङ्ख्यायां वर्तते समवायेन घटादि द्रव्यं तु कपालादी वन्त इति वैयधिकरण्यात्कंध कार्यकारणभावः सम्भवेत् ? इति वक्तव्यम्, जातिविशेषस्य समवायेंनैकत्ववृनित्वेऽपि स्वसम - वायिसमवायसम्बन्धेन कपालादी वर्तमानत्वात् । तस्यैवात्र द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धत्वेन विवक्षितत्वात । एतेनैकत्वसमवेतस्यैकत्वत्वविशेषस्य द्रव्यारम्भकतावच्छेकत्वे एकत्वसन्याया द्रव्यसमवायिकारणत्वं प्रसज्येतेति मुग्धाशड़का परिहता, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः । नन्वर्य घटादेरपि द्रव्यारम्भकत्वं प्रसज्यत, स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेनेकत्वत्वविशेषस्य तत्र वर्तमानत्वात् । एतेनाऽन्त्यावयविनो द्रव्यारम्भकत्वस्य कुत्रा "यदृष्टचरत्वान्न तदापादनं सम्भवतीति प्रत्युक्तम्, सत्यां सामय्यां कार्योत्पादस्याऽवश्यंभावनियमात् । एतेनाऽन्त्याऽधयबिनो द्रव्यानारम्भकल्यनियमान्नतत्प्रसङ्ग इत्यपि प्रत्याख्यातम्, प्रयोजनक्षतेरकिञ्चित्करत्वात् । न । हि प्रयोजनक्षतिभिया सामग्री कार्य नार्जयतीत्याशड़कायामाचक्षते . स चेति । द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक एकत्वसमवेतो जातिविशेषश्चेति । अन्त्यावयन्येकत्वव्यतिरेक्त एवेति । अन्त्यावयबिसमतैकत्वसङ्ख्याव्यावृत्तः तदसमवेत इति यावत् । एकत्वत्वविशेषस्याऽन्त्यावयविसमवेतैकत्वसङ्ख्यायामसमवेतत्वादेव स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेन नाऽन्त्यावयविवृत्तित्वं सम्भवति । द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने पर भी अन्धकार के अवयवों से अन्धकार का आरम्भ हो सकता है । यहाँ यह कहना कि - 'भूतत्व को बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणसजातीयगुणवत्त्वस्वरूप मानने पर भूतपद का वह शक्यतावच्छेदक नहीं बन सकता, क्योंकि लघुधर्म ही शक्यतावच्छेदक होता है' <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गुरु धर्म भी शक्यतापच्छेदक हो सकता है, अन्यथा पशुपद का शक्यतावच्छेदक लोमबल्लांगुलबत्त्व कैसे हो सकेगा ? क्योंकि वह भी गीत्यादि की अपेक्षा गुरुभूत है। लघुभूत धर्म को ही शक्यतावच्छंदक मानने पर तो पशुपद की भी शक्ति गोत्वादि से विशिष्ट में ही सिद्ध हो जायेगी और तब पशुपद का शक्यतावच्छेदक गोत्वादि होने लगेगा । मगर ऐसा नहीं है। लोमनलांगुलवत्व गुरुधर्म होने पर भी पशुपद का शक्यतावच्छेदक होता है, वैसे ही वहिरिन्द्रयग्राह्यविशेषगुणजातीयगुणवत्त्व गुरु धर्म होने पर भी भूतपद का शक्यतारच्छेदक हो सकता है । निष्कर्षः- अन्धकार को जन्य द्रव्य माना जा सकता है । स्रवति नातिविशेष. द्रव्याम्भकतापलेदप - स्वतन्त्रमत स्वत, इति । अमुक स्वतन्त्र विद्वानों का यह कथन है कि > 'द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति न तो द्रव्यत्व है, न । तो मूर्नत्वादि है, किन्तु एकत्वसंख्या में रहने वाली जाति विशेप ही द्रव्यारम्भकतावच्छेदक है । कपालगत एकत्व में तादृश जातिविशेप होने से घट का आरम्भक कपाल होता है । यद्यपि तादृश जाति समवाय सम्बन्ध से कपाल में नहीं अपितु कपालगत एकत्व संख्या में रहती है। कारणतावच्छेदक धर्म तो कारण में रहना चाहिए । अतः आपाततः तादृश जाति को न्यारम्भकतावच्छेदक नहीं मानी जा सकती तथापि स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से तादृश जाति कपाल में भी रह सकती है, क्योंकि स्व = एकत्वगत तादृशजाति, के आश्रय एकत्व संख्या का समवाय कपाल में रहता है । अतः स्वाश्रयसमवावसम्बन्ध से तादृश जाति को द्रव्यारम्भकतारच्छेदक मानने में कोई दोष नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि --> 'घटादि अन्य अवयवी में भी एकत्व संख्या रहने से ताश एकत्वगत जाति स्वाश्रयसमवायसम्बन्धरूप समवायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध से
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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