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________________ ३४५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ मिजसकधर्मेण कारता गगमः क्वचितप्रथममतिप्रसक्तेनाऽपि धर्मेण कारणताग्रहोत्तरं पश्चादलगतावच्छेदकधर्मकल्पनासिन्दान्तव्याकोपायत्तेरिति । ता, तदाऽऽलोकेनाऽन्येषामपि चाक्षुषायत्ते१रित्वात् । पेचका -- = =* जयलता * लोकेऽन्वयव्यतिरेकव्यभिचारग्रहस्य तदितरालोके चाक्षुषकारणताग्रहविरोधित्त्वं नास्ति विशेष्यतावच्छेदकभेदेनाइसमानाकारकत्वात् । ततश्चालोकत्वसामानाधिकरण्येन चाक्षुषकारणत्वग्रहः सम्भवत्येव । - बिपक्षबाधमुपदर्शयन्ति - अन्यथेति । कारणताबच्छेदकसामानाधिकरण्येन व्यभिचारग्रहस्य कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन कारणत्वग्रहाऽप्रतिबन्धकत्वानभ्युपगमे इति । स्वचित् = शीतस्पादिकारणतास्थले, प्रथमं अतिप्रसस्ते = जलल्वादिधर्मेण, अपि कारणताग्रहोत्तरं = शीतस्पर्शादिजनकताज्ञानोत्तरं, पश्चात् जलादिपरमाणोः शीतस्पर्शाद्यकारणत्वेन व्यभिचारग्रहे सति, अनुगतावच्छेदकधर्मकल्पनासिद्धान्तन्याकोपापत्तेः = शीतस्पशांदिकारणत्वान्यूनानतिरिक्तानुगतजन्यजलत्यादिलक्षणाऽवच्छेदकधर्मकल्पनासिद्धान्तभड्गप्रसङ्गात् । तथाहि शीतस्पर्शत्वावच्छिन्नं प्रति जलस्य हेतुत्वज्ञाने शीतस्पर्शत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपित - कारणता जलत्वावनिछन्नेति सामान्यतो कारणताजानमपजायते । गरं 'जळीयपणो. सीना ग नित यतो कारणताज्ञानमुपजायते । परं 'जलीयपरमाणोः शीतस्पर्शस्य नित्यत्वेन जलत्वं कारणतातिरिक्तवृत्ति' इति व्यभिचारज्ञाने सातेऽनतिप्रसक्तजन्यजलत्वस्य हतिस्पर्शकारणतावच्छेदकत्वं कल्यते इति न्यायविदः । यदि कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन व्यभिचारज्ञानं तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहप्रतिबन्धकं स्यात्तदोक्तरीत्या जलत्वसामानाधिकरण्येन शीतस्पर्शकारणत्वग्रहो नैव स्यात् । न चैवमस्तीति तत्सामानाधिकरण्येन व्यभिचारज्ञानस्य न तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहविरोधित्वमभ्युपेयम् । ततश्चालोकत्वसामानाधिकरण्येन चाक्षषकारणताज्यभिचारज्ञानस्य तत्सामानाधिकरण्येन तत्कारणताग्रहाःप्रतिबन्धकत्वेनोपदर्शितरीत्या पेचकादिचाक्षुषस्थले आलोकविशेषसिद्भिरप्रत्यूहेति केचित्तुमताशयः | प्रकरणकृत्तन्निराकुरुते - तन्नेति । तदालोकेन = पेचकादिनयनसंसृष्टालोकविशेषेण, अन्येषां - पेचकादिभिन्नानां अपि । तदानीं चाक्षुपापत्ते: दुरित्वान्, कारणतावच्छेदकावच्छिन्नोपस्थिती तदितरसकलकारणसमवधाने कार्योत्पादस्य न्याय्यत्वात् ।। का निश्चय हो सकता है। इसलिए आलोक में सामानाधिकरण्य से चाक्षुषकारणताज्ञान का सामानाधिकरण्य से व्यभिचारज्ञान प्रतिबन्धक = विरोधी नहीं हो सकता। इसलिए सामानाधिकरण्य से आलोक में चाक्षुष-कारणता का ज्ञान हो सकता है। यदि कारणतारच्छेदकसामानाधिकरण्य से यानी यत्किंचित् कारण में व्यभिचारज्ञान को कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से भी कारणताज्ञान का प्रतिबन्धक माना जाय तब तो कभी कभी अतिप्रसक्त = कारणताऽतिरिक्तवृत्ति धर्म से सामान्यतः कारणताज्ञान के बाद अनुगत = कारणताउनतिरिक्तवृत्ति धर्म में कारणतावच्छेदकत्व का एवं उससे अवच्छिन = नियन्त्रित कारणता का ज्ञान करने का जो नैयायिकसिद्धान्त है, उसका भंग होने की आपत्ति आयेगी। आशय यह है कि 'शीतस्पर्श के प्रति जल कारण है' यानी 'शीतस्पर्शत्वावचिन कार्यता से निरूपित कारणता का अवच्छेदक जलत्व है और तादृश कारणता जलत्वाचनिन्न है ऐसा सामान्यतः कार्यकारणभाव का ज्ञान होने के पश्रात् कारणतातिरिक्तवृत्ति होने से जलत्व का त्याग किया जाता है और जन्यजलव का शीतस्पर्शकारणतावच्छेदकथभविधया ग्रहण किया जाता है । जलव तो जलीय परमाणु में भी रहता है मगर जलपरमाणु का शीतस्पर्श नित्य होने से जलीय परमाणु में शीत स्पर्श की कारणता नहीं रहती है और जलत्व जाति रहती है 1 जलत्व धर्म शीतस्पर्शकारणता से शून्य जलपरमाणु में रहने से वह शीतस्पर्शकारणताऽतिरिक्तवृत्ति होने से वह कारणताबच्छेदक धर्म नहीं बन सकता । यह व्यभिचारज्ञान जलत्वावच्छेदेन शीतस्पर्श-कारणताज्ञान का विरोधी होता है, मगर जलत्वसामानाधिकरण्येन शीतस्पर्शकारणताज्ञान का विरोधी नहीं है। अतएव बाद में शीतस्पर्शकारणताइनतिरिक्तवृत्ति जन्यजलत्व यानी अनिन्य जल से निरूपित वृत्तिता से विशिष्ट जलत्व को शीतस्पर्शकारणतावच्छेदक बनाया जाता है । कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से व्यभिचारज्ञान यदि करणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से कारणताज्ञान का प्रतिबन्धक होना तब जलत्वसामानाधिकरण्येन : जलीयपरमाणु में, शीतस्पर्शजनकता का व्यभिचारज्ञान होने से जलत्वसामानाधिकरण्येन = जन्यजल. में शीतस्पर्शकारणताज्ञान कैसे हो सकता ? मगर जन्यजलत्व को शीतस्पर्शकारणतावच्छेदक तो सभी नैयायिक विद्वान मानते ही हैं। इसलिए आलोकत्वसामानाधिकरण्य से व्यभिचारज्ञान भी आलोकत्वसामानाधिकरण्य से चाक्षुपकारणताज्ञान का प्रतिबन्धक = विरोधी नहीं हो सकता है। इसलिए आलोक में चाक्षुपकारणता का ज्ञान हो सकता है। जिस आलोक में व्यभिचारज्ञान हुआ है उससे भिन्न आलोक में उल्लू आदि के चाक्षुष की कारणता सिद्ध होने से महुदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोक से इतर आलोक की सिद्धि होती है । 2 उलूचाक्षुष में विजातीय आलोक की कrendl अप्रमाण - रयाद्धादी म उत्तरपक्ष :- तन्नः इति । उल्लू आदि के चाक्षुष के प्रति विजातीय आलोक को कारण मानने में कोई प्रमाण नहीं | - --- ::
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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