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________________ ३४४ * व्यभिचारज्ञानस्य कारणतानिश्चयप्रतिबन्धकताविचारः व्यभिचारबहे सत्यालोकस्य कारणताग्रहस्यैवाऽनुपपत्तेः कथमेवमिति चेत् ? न, तदवच्छेदेन व्यभिचारग्रहस्यैव तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहप्रतिबन्धकत्वात् । अत्र चाऽऽलोकत्वसामानाधिकरण्येनेव तदग्रहात् तत्सामानाधिकरण्येन कारणताग्रहस्य निरपायत्वात, अन्यथा =* जयावा *-----= चक्ष: आलोकसंयक्तं चाक्षषजनकबहिरिन्द्रियत्वात सम्प्रतिपन्नवत । जनकत्वञ्चायोपधायकत्वस्वरूपं ग्राह्य, तेन न व्यभिचार: । गाढतम:संयुक्तद्रव्यं आलोकसंयुक्तं, द्रव्यत्वे सति चाक्षुषविषयत्वात् सम्प्रतिपन्नवत् । पेचकादिचाक्षुषजनकालोकः विजातीय- ! | त्वादस्मदादिभिर्न गृह्यत इति न बाधः न वा गौरवम्, फलाभिमुखत्वादिति नैयायिकैकदेशीयाऽभिप्रायः । मूलीथिल्यमत्र कश्चिन्छड़कते . व्यभिचारग्रहे = व्यतिरेकव्यभिचारग्रहे, सति आलोकस्य कारणताग्रहस्य = चाक्षुषकारणत्यज्ञानस्य एव अनुपपनेः = अघटमानत्वात्, कथं एवं = धूकादिचाक्षुषस्य विजातीयालोकजन्यत्वकल्पनं घटामश्चेत् ? आलोकस्य चाक्षुषकारणत्वनिश्चयपूर्वमेव कौशिकादिचाक्षुषे ब्यतिरेकव्यभिचारज्ञानान्नालोके चाक्षुषकारणतानिश्चय: सम्भवति, व्यभिचारग्रहस्य कारणत्वनिश्चयप्रतिबन्धकत्वादिति न तत्र विजातीयालोकसिद्भिरिति झाड़काशयः । विजातीयालोकवादिन: तामपाकुर्वन्ति-नेति । तदवच्छेदेनेति । व्यवहितैवकारस्याऽवाऽन्वयात् कारणतावच्छेदकावच्छेदेनैवेत्यर्थः । व्यभिचारग्रहस्य = अन्वयव्यतिरेकन्यभिचारज्ञानस्य, तत्सामानाधिकरण्येन = कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन, कारणताग्रप्रतिबन्धकत्वात् = कारणतानिश्चयविघटकत्वादिति । यथा पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन हेत्वसिद्भिग्रहः पक्षतावच्छेदकावदेन 'पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन च साध्यसिद्धिप्रतिबन्धकः, पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन हेत्वसिद्धिग्रहस्तु पक्षतावच्छेदकावच्छेदेनैव साध्यसिद्धिप्रतिबन्धको न तु पक्षतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन साध्यनिश्चयं प्रति तथैव कारणतावच्छेदकावच्छेदेन व्यभिचारज्ञानं कारणतावच्छेदकावच्छेदेन कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन च कारणताग्रहप्रतिबन्धकं कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन त्र्यभिचारग्रहस्तु कारणतावच्छेदकावच्छेदेनैव कारणताग्रहं प्रति प्रतिरन्धको न तु कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्येन कारणताग्रह प्रति । पेचकादिचाक्षुष तु मदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकबिरहे जायते न त्वालोकसामान्यविरहे । अता व्यतिरेकव्यभिचारग्रहः प्रकृते आलोकत्वसामानाधिकरण्येनैव न तु तदवच्छेदेनेति तस्यालोकत्यावच्छेदेनैव चाक्षुषकारणताग्रहप्रतिबन्धकत्वं न त्वालो कत्लसामानाधिकरण्येनेत्याशयेन वदन्ति - अत्र चेति । पेचकादिचाक्षुषस्थले त्विति । आलोकत्वसामानाधिकरण्येनैवेति । एयकारेगा'लोकत्वावच्छेदने' त्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । तद्ग्रहात् = अन्चय-व्यतिरेकव्यभिचारग्रहातू, तत्सामानाधिकरण्येन - आलोकत्वसामानाधिकरण्येन, कारणताग्रहस्य = चाक्षुषकारणताज्ञानस्य, निरपायत्वात् = अप्रतिबध्यत्वात् । पत्किञ्चिदा .. .. - - होने वाले उस आदि के चाक्षुषात्मक फल के बल से वहाँ आलोकचिशेप की सिद्धि होती है। यहाँ यह शंका हो कि -> "यदि आलोक में चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति कारणता का ज्ञान हो तभी तो उल्स् चाक्षुषोदय से उसके कारणविधया अन्धकार में आलोकविशेष की सिद्धि हो सकती है। मगर आलोक में चाक्षुपकारणता का निश्चय ही नहीं हो सकता, क्योंकि आलोक में चाक्षुपकारणता के निश्चय के पूर्व काल में ही व्यभिचार का ज्ञान रहता है, जो कि कारणतानिश्चय का प्रतिबन्धक है । उहू, बिल्ली आदि के चाक्षुप की अन्धकार में उत्पत्ति होने से आलोक में चाक्षुपकार्य के प्रति व्यतिरेक व्यभिचार का ग्रह पूर्वोपस्थिन होने से आलोक में चाक्षुषकारणता का निश्चय ही नहीं हो सकता । इस स्थिति में उल्लूचाक्षुपात्मक फल की अन्यथा अनुपपत्ति से वहाँ आलोकविशेप की सिद्धि कैसे हो सकती है ?" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि यहाँ जो व्यतिरेक व्यभिचार प्रदर्शित किया गया है, वह आलोकत्वसामानाधिकरण्यरूप से बताया गया है, न कि आलोकत्वाऽवच्छेदेन । मतलब कि उल्लूचाक्षुषस्थल में सभी आलोक का अभाव नहीं है किन्तु आलोकविशेष = महद्भतानभिभूतरूपवदालोक का अभाव है। यत्किञ्चित् आलोक का अभाव होने से उस आलोक में भले चाक्षुपकारणता का व्यभिचार हो, मगर उस आलोक से भिन्न आलोक में तो चाक्षुषकारणता का भान हो सकता ही है। कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से व्यभिचार ज्ञान कारणतावच्छेदकावच्छेदेन कारणताज्ञान का प्रतिबन्धक = विरोधी होना है, न कि कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से कारणताज्ञान का भी। कारणतानच्छेदकसामानाधिकरण्य से कारणताग्रह का प्रतिबंध तभी हो सकता है, यदि कारणतावच्छेदकावच्छेदेन व्यभिचारज़ान हो । प्रस्तुत में तो कारणतावच्छेदकसामानाधिकरण्य से = आलोकत्वसामानाधिकरण्य से यानी यत्किञ्चित् आलोक में व्यभिचार - का ज्ञान है, क्योंकि उल्लूचाक्षुष आलोकत्वावच्छिन्न = यावत् आलोक के अभाव में उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु यत्किञ्चित् । आलोक = महदुद्भूतानभिभूतरूपवाले आलोक का अभाव होने पर उत्पन्न होता है। इस स्थिति में आलोकत्वावदेन = सभी आलोक में चाक्षुषकारणता का निश्चय नहीं हो सकता है, किन्तु आलोकत्वसामानाधिकरण्येन = आलोकविशेष में दो चाक्षुषकारणता
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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