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________________ ३४३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * विजातीयाऽऽलोककल्पना तम:संयुक्ताऽन्यचाक्षुषत्वस्यैव तत्वौचित्येन तमसो द्रव्यत्वसिन्देः । केचितु - फलबलात्तत्राऽलोकविशेष: कल्यते । =-... =- जयलता * पर्यवसितस्य आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्वस्य अपेक्षया, लाघवेन = कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरलाघवेन, तमःसंयुक्ताऽन्यचाक्षुषत्वस्यैव तत्त्वौचित्येन = आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदकत्वौचित्येन, तमसो द्रव्यत्वसिद्धेरिति । आलोकाभावाकालीनचानुषत्वस्या भावयगर्भितत्वेनैकाभावघटितस्य तम:संयुक्तान्यचाक्षुषत्वस्य तदपेक्षया लघुत्वात् कार्यतावच्छेदकत्वमुचितम् । ततश्वालोकसंयोगकार्यतावच्छेदकयटकीभूतसंयोगाऽ श्रयत्वनान्धकारस्य द्रव्यत्वसिद्धिः तम:संयुक्तान्यचाक्षुषकारणताश्रयत्वेन चालोकस्य द्रव्य - त्वसिद्धिः । तेन नान्धकारस्या लोकाभावात्मकल्यं न वाऽपसिद्धान्त इति स्याद्वादिनो गूढाभिप्रायः ।। एकदेशिमतं दर्शयतिकेचित्त्विति । 'न्याकोपापलेरिती'त्यन्तमयं पूर्वपक्षः । फलबलात् -- चाक्षुषसाक्षात्कारलक्षण| फलोदयाऽन्यथाऽनुपपत्त्या, तत्र = पेचकादिचाक्षुषस्थले, आलोकविशेषः = महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाऽपेक्षया विजातीय | आलोक:, कल्प्यते = अनुमीयते । प्रयोगाश्चैवम् - कौशिकादिचाक्षुषमालोकजन्यं चाक्षुषत्वात् महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाs भावाऽकालीनचाक्षुषवत् । पक्षतावच्छेद-कञ्च कौशिकादिचाक्षुषत्वम्, तेन न हेतुपक्षतावच्छेदकारेक्यम् । गाढतम:स्थपेचकादि के अभाव के काल से इतर काल = अंजनादिकाल में होने वाले चाक्षुष के प्रति चक्षु का सहकारी हो सकता है । अंधेरी रात में यदि चौर आदि की आंख का सहकारी अंजनादि हो तभी उन्हें, आलोकसंयोग के बिना, गाढ अन्धकार में स्थित घटादि का चाक्षुप हो सकता है । अतः आलोकसंयोग को आलोकेतराऽसहकृतचक्षुजन्य नरसमवेत चाक्षुप साक्षात्कार के प्रति कारण माना जा सकता है" - तो यह नैयायिकोक्ति समीचीन नहीं है। इसका कारण यह है कि अंजनादि को अंजनायभावाऽसमकालीन चाक्षुष का कारण मानना और आलोकेतराऽसहकृतचक्षुजन्य नरवृत्ति चाक्षुष के प्रति आलोकसंयोग को कारण मानना आवश्यक बन जाने से विविध कार्य-कारणभाव का स्वीकार करना पड़ता है, जो गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है । इसकी अपेक्षा अच्छा तो यह है कि आलोकसंयोग को आलोकाऽभावाकालीन चाक्षुष के प्रति ही कारण माना जाय । ऐसा मानने पर कार्यतावच्छेदक धर्म आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुपत्त ही होगा । इस तरह कार्य-कारणभाव में भी लाघव होता है। उल्ल, बिल्ली, अंजनादिसंस्कृतचक्षु वाले चौर आदि का जो चाक्षुष साक्षात्कार है, वह आलोकाभावकालीन होने से आलोकसंयोगकार्यतावच्छेदक धर्म से शुन्य है। इसलिए व्यतिरेक व्यभिचार को भी अवकाश नहीं रहता है। अतः यही मानना उचित है - यह हम स्याद्वादियों का अभिप्राय है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → "आप स्याद्वादी को यदि ! यह उचित है, तो हम भी इस कार्यकारणभाव का सहर्ष स्वीकार करते हैं, क्योंकि इस तरह भी आलोकसंयोग में कारणता । सिद्ध होने से आलोकसंयोग के आश्रय में द्रव्यत्व की सिद्धि होने से हमारा इष्ट फल सिद्ध हो जायेगा कि - 'आलोक द्रव्यात्मक है और अन्धकार आलोकाऽभावस्वरूप है । अतः तादृश कार्य-कारणभाव को हम मान्य करते हैं" <- तो यह नैयायिक कथन असंगत है । इसका कारण यह है कि आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्व को आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म मानने की अपेक्षा तमःसंयुक्ताऽन्यचाक्षुषत्व को ही उसका कार्यतावच्छेदक मानने में लाघव है, क्योंकि आलोकाभावाकालीनचाक्षुषत्व का अर्थ है आलोकाभावकालीनत्वाभाववच्चाक्षुषत्व जिसमें दो अभाव का प्रवेश होता है जब कि तम:संयुक्तान्यचाक्षुपत्व में एक ही अभाव का निवेश होता है । लयुभूत धर्म संभव हो तो गुरु धर्म में अवच्छेदकत्व नहीं माना जा सकता । इसलिए लाघवसहकार से आलोकसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म तमःसंयुक्तान्यचाक्षुपत्व सिद्ध होता है । कार्यतावच्छेदक धर्म में तमःसंयोग का घटकविधया समावेश किया गया है। उसका आश्रय होने से अन्धकार में व्यत्व की सिद्धि निरागाध होने से अन्धकार को आलोकाभावात्मक नहीं माना जा सकता। इस तरह कारण का आश्रय होने से आलोक भी द्रव्यात्मक है एवं कार्यताअवच्छेदकघटकीभूत संयोग का आश्रय होने की वजह अन्धकार भी द्रव्यस्वरूप ही है - यह सिद्ध होता है, ऐसा स्याद्वादी का तात्पर्य है । Mउलू आदि का चाक्षुष आलोकविशेषगन्य - नैयायिकदेशीमत । :- केचिः इति । यहाँ अन्य नैयायिक विद्वानों का यह अभिप्राय है कि उह, चिल्ली आदि का चाक्षुष तभी उत्पन्न हो सकता है, यदि वहाँ कोई न कोई आलोक विद्यमान हो । अतः उल्लू आदि के बाक्षुप साक्षात्कार स्वरूप फल की । अन्यथा अनुपपत्ति से वहाँ आलोक की सिद्धि होती है। मगर गाद अन्धकार में रहने वाले उस आलोक का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है । इसलिए वह आलोक हमारी चक्षु से अग्राह्य है - ऐसा सिद्ध होता है । इस तरह अन्धकार में भी उत्पन्न
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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