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________________ * आलोकसंयोगकारणताविचारः * | अअनाधभावाऽकालीनचाक्षुषं प्रत्यअनादीनां जनकत्वे चाऽऽलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषत्वमात्रस्य || कार्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् । एवमपि सिन्दं न: समीहितमिति चेत् ? त, तदपेक्षया लाधवेन । = = = = =* जयलता = == === | देश्वक्षु:सहकारित्वं, येन तद्न्यवच्छेदकृते आलोकेतराउसहकृतत्वं चक्षुषो व्यावर्तकविशेषणविधया उपादेयं स्यात् । ततो नालोकेतरा सहकृतचक्षुर्जन्यत्वलक्षणस्वाभाविकत्वविशिष्टनरसमवेतचाक्षुषत्वमालोकसंयोगस्य कार्यतावच्छेदकं भवितुमर्हतीति प्रकरणकृदाशयः । ननु तृणारणिमणिन्यायेना लोकसंयोगस्येवालाकेतरस्याऽञ्जनादेरपि स्वाऽव्यवहितोत्तरचाक्षषं प्रति पद्वा स्वाऽभावा| कालीनचाक्षुषं प्रति जनकवे व्यतिरेकव्यभिचाराध्योगात्, तस्य तं प्रति चक्षुःसहकारिकारणत्वसम्भवादालो केतरासहकृतत्वस्य चक्षुर्व्यावर्तकविशेषणत्वं सम्भवत्येव । ततश्चालोकसंयोगस्यालोकेतराऽसहकुतचक्षुर्जन्यनरचाक्षुषकारणत्वे नास्ति बाधक किश्चि| दित्यालोकेतरासहकृतनयनजन्यनरचाक्षुषत्वस्यैवालोकसं योगनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वमभ्युपेयमिति नैयापिका| शङ्कायां रयाद्वादी प्राह - अञ्जनायभावाऽकालीनचाक्षुषं प्रतीति । अञ्जनाद्यभावकालीननाक्षुषेतरचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रतीति । अञ्जनादीनामिति आदिशब्देन रसायनचूर्णलेपोषध्यादिग्रहणम् । जनकत्वे च = त्वया जनकत्वेऽभ्युपगम्यमाने तु, तदपेक्षया काभावाऽकालीनचाक्षुषत्वमात्रस्येति । मात्रपदेन आलोकेतराउसहकतचक्षर्जन्यनरचानषत्वस्य व्यवच्छेदःकृतः, तदपेक्षया गुरुत्वात् । कार्यतावच्छेदकत्वौचित्यादिति । आलोकसंयोगनिष्ठकारणतानिरूपिताया कार्यताया अवच्छेदकत्वस्य युक्तत्वात्, अञ्जनादेरञ्जनाद्यभावाऽकालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्न प्रति कारणत्वमालोकसंयोगस्य चालोकेतराऽसहकृतचक्षुर्जन्यनरचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वमिति द्विविधकार्य-कारणभावकल्पनापेक्षया आलोकसंयोगस्याऽऽलोकाभाबाकालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव कारणत्वकल्पनेऽतिलाघवादिति । पेचकादीनां तादृशचौराणाञ्च बहलतमे तमसि जायमानस्य घटादिचाक्षुषस्या लोकाभावसमकालीनत्वेनाऊलोकसंयोगकार्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वान्नैव व्यभिचारगन्धलेयोऽपीति स्यावादिनोऽभिप्रायः ।। पर: लब्धावसर; साम्प्रतमिष्टापत्तित्वेन दर्शितफल-फलवद्भावमभ्युपैति - 'एवमपीति । आलोकाऽभावाकालीनचाक्षुषत्वस्यैवाऽलोकसंयोगजन्यतावच्छेदकत्वाइन्युपगमे पाति । सिद्धं नः = अस्माकं नैयायिकानां समीहितम्, आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषकारणीभूतसंयोगाश्रयत्वेनाइलोकस्य द्रव्यत्वसिद्ध्या तमसो लाघवेन तदभावात्मकत्वोपपत्तेरिति नैयायिकाभिप्राय: । निर्भाग्यशेखरमनोरथवदयमधुना विशरारुतामाकलयीत्याशयेन स्याद्वाद्याह - नेति । आलोकाभावाऽकालीनचाक्षुषवस्य तत्कार्यतावच्छेदकत्वं न यक्तमित्यर्थः । तदपाकरणे हेतमाह - तदपेक्षयेति । आलोकाभावकालीनेतरकालिकचाक्षुषत्व 2.DD जन्यनरचाक्षुपरसाक्षात्कारत्व । यहाँ आलोकेतरपद से अंजन, रसायन आदि सब का ग्रहण हो सकता है। आलोकेतरत्व धर्म उन सब में अनुगत होने से कार्यतावच्छेदक धर्म अननुगत होने का दोप अभी असंभव है। आलोकेतर से असहकृत यानी आलोकेतर अंजनादि जिसका सहकारी कारण नहीं है ऐसी चक्षु से जो नरवृत्तिचाक्षुष साक्षात्कार होता है, उसके प्रति तो आलोकसंयोग, अवश्य कारण होने से अंजनसंस्कृतचक्षुवाले चौर आदि के चाक्षुप में व्यतिरेक व्यभिचार का भी उद्दावन नामुमकिन है, क्योंकि आलोकसंयोग के बिना उत्पन्न होने वाले उस चाक्षुप में उक्त कार्यतावच्छेदक धर्म नहीं है। इसलिए आलोकेतरासहकृत्तचक्षुजन्यत्व को स्वाभाविकत्वपद का अर्थ माना जा सकता है" - तो यह भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि चक्षु का कभी भी आलोकेतर (अंजनादि) सहकारी हो तब उसका व्यवच्छेद करने के लिए आलोकेतर से असहकृतत्व को चक्षु का विशेषण बनाना उचित है । मगर चाक्षुप साक्षात्कार के लिए आलोकेतर अंजनादि चक्षु का सहकारी कारण ही नहीं है, क्योंकि जब जब चाक्षुष साक्षात्कार होता है, उसके अव्यवहित पूर्व क्षण में अवश्य सर्वत्र आलोकेतर अंजनादि हो - ऐसा नहीं है। आलोकेतर अंजनादि के बिना भी बहुत से चाक्षुप उत्पन्न होते हैं। इसलिए वे चाक्षुष के व्यभिचारी हैं। अतः जैसे 'दण्ड घटोत्पत्ति के लिए कुम्हार का सहकारी कारण है" - यह कहा जाता है वैसे 'आलोकेतर अंजनादि चाक्षुषोदय के लिए चक्षु का सहकारी कारण है' . यह नहीं कहा जा सकता । इसलिए आलोकेतराऽसहकृतत्व चक्षु का व्यावर्तक विशेषण नहीं बन सकता । जो व्यावर्तक न हो उसका स्वरूपविशेषणविधया कार्यतावच्छेदकधर्मकोटि में निवेश करने में गौरव है। तथा तादृश प्रवेश करने पर भी व्यतिरेक व्यभिचार तो ज्यों का त्यों ही बना रहता है, क्योंकि स्वरूपविशेषण तो चक्षु में सदा होता ही है । SE कार्यतावरलेदकधर्मलाधव से. अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि - स्याद्वादी 3 अंजना. इति । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "अंजनादि भले सब चाक्षुष का सहकारी कारण . न हो, मगर अंजनादि का अभाव होने पर न होने वाले बाक्षुप साक्षात्कार के प्रति तो वह चक्षु का सहकारी हो सकता | है। इसलिए अंजनादि को अंजनाद्यभावाऽकालीन चाक्षुप के प्रति कारण माना जा सकता है । अत: अंजनादि भी अंजनादि
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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