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________________ * न्यायसिद्धान्तदीपकार-शशधरमतसमालोचनम् * स्यादेतत् - तमसो जन्यदिव्यत्वे स्पर्शवदवयवारभ्यत्वं स्यात्, स्पर्शवदनन्त्यावयवित्वस्य । द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वादिति चेत् ? मैवम्, तत्र स्पर्शवत्वस्येष्टत्वात् ।। ' वस्तुतस्तेन रूपेणाऽनाराभकत्वम, स्पर्शवत्वादेर्विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविर * जयलता * नित्यत्वेनोत्पत्त्ययोगात् । एतेन 'आलोकसंसर्गाभावसमुदाय एवान्धकारः, तत्र राशिष्विव किश्चित्समुदायिव्यतिरेकप्रयुक्त एवं विनाशः, एवमुत्पत्तिप्रत्ययोऽप्यूह्यः' (न्या.सि.दी.पृ.) इति शशधरशर्मणो वचनं प्रतिक्षिप्तम्. राशिषु बहुत्वविशेषनाशोत्पादाभ्यां तदाश्रयनाशोत्यादप्रतीत्युपपत्तावपि अभावस्याऽद्रव्यत्वेग आलोकसंसर्गाभावसमुदाये तदसम्भवात्, समूहविलक्षणमहदेकोत्पादविनाशानुभवाचेति । किञ्च, आलोकसंसर्गाभावसमूहलक्षणस्याऽन्धकारस्यैकत्र प्रतीतिर्न स्यात, प्राचां मते प्रागभावप्रध्वंसथोरत्यन्ताभावविरोधित्वात् । न च तत्रियमे मानाभावादेकत्र तम:प्रतीतौ विरोधाभाव इति वाच्यम्, तथापि भूतलादो तमःप्रतीतेरनुपपत्तेः, आलोकप्रागभावप्रध्वंसयोः स्वप्रतियोग्यदयववृत्तित्वनियमादिति दिक् । ननु तमो नित्यद्रव्यं यदुता नित्यद्रव्यं ? इति विकल्पयुगली समुपतिष्ठते । नाद्यः चारु:, तमस्युत्पादविनाशप्रतीत्यनुपपत्तेः । द्वितीये आह-स्यादेतदिति । स्पर्शवदवयवारभ्यत्वं = स्पर्शवद्भिरवयवर्जन्यत्वं स्यात् । कस्माद्धेतोः ? इत्याशङ्कायामाह - स्पर्शरदनन्त्याऽवयवित्वस्य = स्पर्शवदन्त्याऽवयविभिन्नत्वे सति स्पर्शवदवयवित्वस्य, द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वात् = जन्यद्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वात । घटादे: स्पर्शवद्रव्यत्वेऽपि जन्यद्रव्यानारम्भकत्वात् स्पर्शवदन्त्याऽवयविभिन्नत्वचिशेषणोपादानम्, व्यापकधर्मस्व व्याप्यधर्मणाऽन्यथासिद्धः, अन्यथाऽकारणेऽपि स्वरूपयोग्यत्वकल्पनापत्तेः । ततश्च तमसो जन्यद्रव्यत्वाऽभ्युपगमे तत्समवायिकारणीभूताऽवयवेषु स्पदवित्त्वकल्पनापत्तिरिति शङ्काशयः ।। प्रकरणकृत्तनिराकरोति - मैवमिति । तत्र = तमोद्रव्यसमवायिकारणीभूताऽवयवेषु, स्पर्शवत्त्वस्य इष्टत्वात् । ततश्च मिष्टमिष्टं वैद्योपदिष्टश्चेति न्यायापातः । इदञ्च स्पर्शबदनन्त्याऽवयवित्यस्य जन्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वमभ्युपगम्योक्त-मित्याह - वस्तुत इति ! तेन = स्पर्शबदनन्त्यावयवित्वेन रूपेण अनारम्भकत्वं - जन्यद्रव्यसमवायिकारणतानवच्छेदकत्वम् । अत्र हेतुद्वयमाचष्टे - स्पर्शवत्वादेः चिशेष्यविशेपणभाचे विनिगमनाविरहादिति । स्पर्शवत्त्वे सत्यनन्त्याऽक्यवित्वं जन्यद्रव्यसमचायिकारणतावच्छेदकमाहोस्वित् नहीं होने से वह प्रतीति प्रामाणिक ही है। मगर उक्त रीति से तब 'तमो न नष्टं' यह प्रतीति भी प्रामाणिक होने लगेगी। अनः अन्धकार को आलोकसंसर्गाभावसमुदायात्मक नहीं माना जा सकता - यह फलित होता है । * अकारातयत. स्पर्शयुक्त ही है - स्यादादी * स्यादतत्, इति । यहाँ अमुक नैयायिक विद्वानों का यह आक्षेप है कि -> "अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने पर स्पर्शवदवयव से आरभ्यत्व भी उसमें मानना होगा, क्योंकि स्पर्शवदनन्त्यावयवित्व द्रव्यारम्भकता का अवच्छेदक है । मतलर यह है कि जन्य द्रव्य का समवायिकारण स्पर्शविशिष्ट अनन्य अवयवी द्रव्य है। अन्य घटादि अवयवी किसी द्रव्य का समवायिकारण नहीं होने से प्रकृत में उसके व्यवच्छेदार्थ अचयरी का अनन्त्य विशेषण लगाया गया है। जन्य द्रव्य का समवायिकारणतावच्छेदक धर्म है स्पर्शवदनन्त्यावयवित्व । अतः अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने पर उसे स्पर्शविशिष्ट अनन्य अवयवी द्रव्य से आरब्ध मानना होगा । अतएव अन्धकार के समयायिकारणीभूत अवयवों में स्पर्शवत्व भी मानना होगा" <- किन्तु । यह भी अयुक्त है, क्योंकि अन्धकारस्वरूप जन्य अन्त्य अवयवी द्रव्य के समवायी कारण अवयव में स्पर्शवत्व हमें अभिमत होने से अन्धकार में स्पर्शचदक्यवजन्यल का आपादन इष्टापनिस्वरूप ही है। अन्धकार एवं उसके अवयव जैनदर्शन में पौद्गलिक माने गये हैं एवं पुगलमात्र में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श आदि गुण सर्वदा रहते ही हैं। * स्पार्थवदन्त्यावयवित अन्धकारमाथिकारणतावरछाक नहीं हो सकता - स्यादादी # वस्तुतः इति । वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तो स्पर्शवदनन्त्यावयक्त्विरूप से जन्य द्रव्य समवायिकारणता ही नामुमकिन है । इसका कारण यह है कि स्पर्शवत्वादि जैसे विशेषण हो सकता है ठीक वैसे ही विशेष्य भी बन सकता है । मतलब कि जन्यम्पसमचायिकारणतावच्छेदक स्पर्शवत्त्वे सति अनन्य अवयवित्ल है या अनन्य अवयवित्वे सति स्पर्शवत्व है ? इस D
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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