SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * 'तमो न नष्टमिति प्रतीतेः प्रमात्वापतिः * प्रत्ययः, इतराभावत्वे विनाशप्रत्ययश्च न स्यातामित्यप्याहुः । न च राशिष्वेिव किश्चित्समुदायिसम्भवव्यतिरेकप्रयुक्तावेव तम:सम्भवव्यतिरेको प्रतीयेते इति वाच्यम्, तथा सति 'राशिर्न नष्ट' इतिवत् तमो न नष्टमिति प्रतीतेरपि प्रमात्वापत्ते: । * मयलता भावस्थ्य वा तत्त्वमिति विकल्पचतुष्टयं साम्परायिकचतुष्कवद पतिष्ठते । तत्र आधे आह - तमसः प्रागभावत्वे - निरुक्तालोकप्रतियागिकप्रागभावस्वरूपत्वे, उत्पत्तिप्रत्ययः = 'तम उत्पन्नमि'त्याकारकाऽवबोधः न सम्भवेत, प्रागभावस्याऽनादित्वेनोत्पादा प्रतियोगिकत्वात् । शेषविकल्पत्रिके आह - इतराभावत्वे = निरुक्तप्रागभावभिन्नाऽभावात्मकत्वे, विनाशप्रत्ययश्न = 'तमो विनष्टमित्याकारकबोधश्च न सम्भवेत, प्रागभावभिन्नाभावत्वस्याऽविनाशित्वव्याप्यत्वात् । याबदभावविशेषाणां तमस्त्वेना घटमानत्वान्न तमसोऽभावात्मकत्वं युक्तम् विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावसापकत्वादिति भावः ।। न चेति । अस्य वाच्यमित्यनेनाइन्चयः । राशिविर किञ्चित्समुदायिसम्भवव्यवतिरेकप्रयुक्तावेवेति । एवकारेण 'समुदायसम्भवतिरकप्रयुक्ता' वित्यस्य प्रतिषेधः कृतः । यथा धान्यादिराशौ नवीनधान्यादिसमागमे ‘महानयं धान्यराशिरुत्पन्न' इत्यादिप्रतीति: समुदायिसम्भवप्रयुक्ता न तु समदायसम्भवप्रयुक्ता, पूर्वतनधान्यादिबिलये 'महानयं धान्यराशिर्विनष्ट' इत्यादिप्रतीति; समुदायिव्यतिरेकप्रयुक्ता न नु समुदायविलयप्रयुक्ता, तथैव आलोकसंसर्गाभावसमुदायात्मके तमस्यपि यत्किञ्चित्समु. दायिसम्भवे 'अन्धकार उत्पन्न' इत्यादिप्रतीतिः आलोकध्वंसोत्पत्तिप्रयुक्ता न त्वालोकसंसर्गाभावसमुदायोत्पत्तिप्रयुक्ता, यत्किश्चित्समुदायिन्यतिरेक 'अन्धकारो विनष्ट' इत्यादिप्रतीतिः निरुक्तालोकग्रानभावध्वंसप्रयुक्ता न त्वेतादृशालोकसंसर्गाभावकूटविनाशप्रयुक्ता । समुदायिसम्भवन्यतिरेकावेच राशाविव तमस्यारो प्यत इति शङ्काशयः । प्रकरणकारः तदपाकरणकृते दोषमाविष्करोति - तथा सतीति । राशाबिव तमसि उत्पादविनाशप्रतीतेः यत्किञ्चिसमुदायिसम्भवञ्यतिरेकावगाहित्वाऽभ्युपगमे सति, 'राशिर्न नष्ट' इति प्रतीतेः यथा प्रमात्वं तद्वदर प्रदीपाऽनयनदशाया 'तमो न नष्टमि' तिप्रतीतेरपि प्रमात्वापत्तेः, राशिबत प्रकृष्टालोकसंसर्गाभावसमुदायस्याऽविनष्टत्वात, तादृशसमुदायप्रटकीभूतनिरुक्तालोकात्यन्ताभावस्य नित्यत्वेन नाशा योगात् । इदञ्चोपलक्षणं यत्किश्चितसमुदायिसम्भवे 'राशिनोंत्पन्न' इतिवत् 'अन्धकारो नोत्पन्न' इति प्रतीतेरपि प्रमात्वापनेः, निरुक्तालोकसंसगांभावसमुदायस्याऽनुत्पन्नत्वात्, तत्समुदायिनिरुक्तालोकात्यन्ताभावस्य मानेंगे ? यदि आलोकप्रागभाव को अन्धकार मानेगे तो 'अन्धकारः उत्पन्नः' = 'अन्धकार उत्पन्न हुआ यह प्रतीति नहीं हो सकेगी; क्योंकि प्रागभाव अनादि होने से उत्पन्न नहीं होता है । यदि अन्धकार को आलोकप्रध्वंसाभावात्मक, आलोकात्यन्ताभावरूप या आलोकान्योन्याभावस्वरूप माना जायेगा तो 'अन्धकारी विनष्ट' ऐसी अन्धकार में बिनाशावगाही प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि ध्वंस, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव अविनाशी होते हैं । यावत् विशेष में बाध होने से अन्धकार को अभावस्वरूप नहीं माना जा सकता, किन्तु द्रव्यात्मक ही माना जा सकता है . ऐसा भी अनेक विद्वान् कहते हैं। * आलोकसांसगभिावस.मूह भी अन्धकार नहीं है - स्यादादी * न न राशि, इति । यहाँ अन्य चिद्वानों का यह कथन है कि ---> "आलोक का केवल अत्यन्ताभाव ही अन्धकार | नहीं है, किन्तु आलोक के संसर्गाभाव का समुदाय अन्धकार है। इस समुदाय में आलोक का ध्वंस और आलोक का प्रागभाव भी प्रविष्ट हैं। इस समुदाय के घटक (= समुदायी) आलोकध्वंस उत्पत्ति होने पर समुदाय की उत्पत्ति की एवं आलोकपागभाव का नाश होने पर समुदाय के नाश की प्रतीति ठीक उसी प्रकार उपपन्न हो सकती है, जैसे राशि के कुछ अंश = घटक = समुदायी का आगमन या उत्पाद होने पर या नाश (न्यतिरक) होने पर राशि की उत्पत्ति या नाश की प्रतीति होती है। मतलब की समुदायी की उत्पत्ति और नाश ही समुदाय के उत्पाद और नाश का प्रयोजक है। समुदायी के उत्पाद और नाश का ही समुदायजन्मनाशविषयक प्रतीति अवगाहन करती है" - किन्तु विचार करने पर यह समुचित नहीं प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि राशि की जैसे न तो उत्पत्ति होती है, न तो विनाश एवं तादृशसंसर्गाभावसमुदाय की भी न तो उत्पत्ति होती है, न तो विनाश । इसलिए धान्यराशि के किसी अवयव का नाश होने पर भी 'धान्यराशिः न नष्टः' ऐसी प्रतीति प्रामाणिक मानी जाती है, ठीक वैसे ही निरुक्तसंसर्गाभावसमूह के घटक तादृशप्रागभाव का विनाश | होने पर भी 'तमो न नष्ट' यह प्रतीति भी प्रामाणिक हो जायेगी। मगर वस्तुस्थिति यह है कि प्रदीप आदि के आगमन से आलोकसागभाच का नाश होने पर अन्धकार में नाश की ही स्वाभाविक प्रतीति होती है। इसका कोई बाथज्ञान पश्चात्
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy