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________________ ....- -::..:-- -- * अभिलाप्यानामपि श्रुताऽनिबद्धत्वावेदनम् * पदस्येति न प्रागुक्तदोष इति वाच्या, श्रुताऽनिबन्देषु प्रज्ञापनीयेषु तादृशपदसकेतमहाऽसम्भवात् । न च तेषामेवाऽसिन्दिः, 'पनवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअनिबन्दो' (बृ.क.भा.मा. | e६४/वि.आ.भा.गा. 989)तिवचनप्रामाण्यात् । === * जयलता * सङ्केतस्य घटनिरूपितत्वेऽपि कोशाद्यनियन्त्रित्वात् । ततश्च विशेषणाभावप्रयुक्तस्य विशिष्टाभावस्याऽन्याहतत्वान घटस्य पटपदापेक्षयाऽभिलाप्यत्वप्रसङ्गः । 'कोशादिने' त्यत्राऽऽदिपदेन व्याकरणोपमानादिग्रहणम् । तदुक्तम् - शक्तिग्रहो व्याकरणोपमानं, कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृत्तेर्बदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धिपदस्य वृद्धाः || ( ) प्रदर्शितपञ्चमविकल्पनिराकरणे हेतुमाह - श्रुताऽनिबद्धेषु = श्रुते सूत्ररचनयाऽग्रथितेषु प्रज्ञापनीयेषु = अभिलाप्येषु भावेषु तादृशपदसङ्केतग्रहाऽसम्भवात् = कोशादिनियन्त्रितस्य पदनिष्ठसङ्केतस्य ज्ञानाऽसम्भवात्, न हि श्रुताऽनिबद्धेषु प्रज्ञापनीयभावेषु कोशादिनियन्त्रितसङ्केतः सम्भवति । ततश्च तेषु ज्ञाततत्तदर्थनिरूपित-कोशादिनियन्त्रितसङ्केतकपदनिरूपितशक्यताया अवच्छेदकधर्मवत्त्वस्याइभावेनाऽन्याप्तिप्रसङग इति भावः । ननु प्रज्ञापनीयाश्चेत् श्रुतेऽनिबद्धाः न स्युः, तेषां वक्तुं शक्यत्वात् । श्रुताऽनिबद्धाश्चेत् प्रज्ञापनीया न स्युः, श्रुताsनिबद्धत्वात् तेऽनभिलाग्या एव भवेयुः । ततश्च प्रज्ञापनीयाः श्रुताऽनिबद्धा इति वचनं 'पिता में बालब्रह्मचारी ति वचनमिव व्याहतमित्याशङ्कां निराकर्तुमुपक्रमते - न चेति । तेषां श्रुताऽनिबद्धानां सतां प्रज्ञापनीयानां भावानां एव असिद्धिः = प्रमाणागोचरत्वमिति । ननुबादी तत्सिद्धयर्थमागमप्रमाणं दर्शयति - पन्नवणिज्जाणं ति । -> 'प्रज्ञापनीयपदार्थानां पुनरनन्तभाग एव चतुर्दशपूर्वलक्षणे श्रुते निबद्भः = भगवद्भिर्गणधरैः साक्षाद्ग्रथित' - (वि.आ.भा.गा.१४१ म.हे.टीका) इति श्रीमलधारिहेमचन्द्रसूरिव्याख्या । बृहत्कल्पभाष्यवृत्तिकृवचनं तु → 'तेषामपि प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्ततम एव भागः श्रुते द्वादशाङ्गलक्षणे सूत्ररचनया निबद्भः' «- (बृ.क.भा. पृ.३०४) इत्येवम् । श्रुतनिबद्धप्रज्ञापनीयभावापेक्षया श्रुताऽनिबद्धप्रज्ञापनीयभावानामनन्तगुणाधिक्यसिद्धौ तेषां कोशादिनियन्त्रितसङ्केताऽविषयत्वसिद्ध्या तत्र गृहीततत्तदर्थनिरूपित-नियन्त्रित - सङ्केतकपदशक्यतावच्छेदकधर्मविरहेणाऽन्याप्तिरिति न पश्चमोऽपि विकल्पः स्थेमानमाधत्ते । इत्थं बिकल्पपश्चतयीसंतापितोड़भिलाप्यत्वपदार्थो विषयपश्चतयीसन्त्रासितो जीव इव त्रुडत एवेति ननुवाद्यभिप्रायः । % 3D353555535 उपर्युक्त धर्म घट में नहीं है । अतएव घट में पटपद की अपेक्षा अभिलाप्यत्व = वाच्यत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि घट अर्थ में कोश आदि के द्वारा घटपद का ही संकेत नियन्त्रित होता है, न कि पटपद का भी" - श्रुता. इति । तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि फिर भी अव्याप्ति दोष का परिहार नहीं हो सकता है। देखिये, प्रज्ञापनीय - अभिलाप्य भाव भी जैन सिद्धान्त के अनुसार द्विविध होते हैं, श्रुतनिबद्ध और श्रुतअनिबद्ध । श्रुत = आगम में अनिरुद्ध = अग्रथित अभिलाप्य = प्रज्ञापनीय भावों में कोश आदि से नियन्त्रित संकेत का ग्रहण ही नामुमकिन होने से कोशादि से नियन्त्रित अर्थविशेषनिरूपित ज्ञात संकेत राले पद की वाच्यता का अवच्छेदक धर्म भी उनमें रह सकता नहीं है। अत: प्रज्ञापनीय श्रुताऽनिबद्ध भावो में उपर्युक्त अभिलाप्यत्व नहीं रहने से अन्याप्ति दोष आयेगा । यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि - "जो भाव प्रज्ञापनीय = अभिलाप्य होने पर भी श्रुत में उल्लेखित न हो सके यह बात असंभव होने से श्रुनाऽनिबद्ध प्रज्ञापनीय भाव असिद्ध है, तब उनमें अभिलाप्यत्व की अन्याप्ति का उद्भावन कैसे किया जा सकता है ?" -- क्योंकि श्रुत में अनिरद्ध प्रज्ञापनीय भावों का प्रतिपादन आगम में ही किया गया है । यह रहा बृहत्कल्पवृत्ति का वचन - 'पनवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअनिद्धो'। इसका अर्थ है - प्रज्ञापनीय भाव का अनंतवा भाग श्रुत में निवजू = दर्शित है। इससे अर्धतः फलित होता है कि श्रुतनिबद्ध प्रज्ञापनीय भाव की भाँति श्रुतअनिवद्ध प्रज्ञापनीय भाव भी होते हैं, जो श्रुत-निबद्ध प्रज्ञापनीय भाव से अनन्तगुण होते हैं। श्रुत = आगम में भी जिन प्रज्ञापनीय भावों का उल्लेख नहीं किया गया है या किया नहीं जा सकता है, उनमें कोश आदि से नियन्त्रित संकेत की विषयता ही कैसे हो सकती है ? और वह नामुमकिन होने पर तादृशपदवाच्यतावच्छेदक धर्म भी उनमें कैसे संभवित हो सके ? अतः श्रुताऽनिबद्ध प्रज्ञापनीय भावों में उपदर्शित अभिलाप्यत्व के लक्षण की अव्याप्ति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। इस तरह अभिलाप्यत्व धर्म का सम्यक् निर्वचन = व्याख्यान नहीं किया जा सकता है, तब एक धर्मी में अभिलाप्यत्व और अनमिलाप्यत्व के अविरोध का निरूपण % 3DDDDDDDD
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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