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________________ * वर्धमानोपाध्यायमतनिरसनम् * ३८४ तेन 'द्रव्यत्वं कार्याऽकार्यवृत्ति न कार्यतावच्छेदकं, जन्यद्रव्यत्वस्य जन्यमात्रवृत्तित्वेऽपि तदवच्छिमजनकतावच्छेदकजातेरनहगीकारः, जलत्वादिना साइकर्यादिति वर्धमानोक्तिः =-* जयलता * अन्धकाभावस्याऽपि कारणत्वेन सामग्रीवकल्यात् । न च गौरवम्, फलाभिमुखत्वात् । अतो घटादिषु द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमेऽपि न दोष इति समाधानाभिप्रायः । नव्यन्यायप्रस्थापकगङ्गेशपुत्रवर्धमानमतनिराकरणार्थमुपक्रमते - एतेनेति । समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्येनाऽन्त्याऽवयविनः प्रतिबन्धकत्वकल्पनेनेति । अस्य चांपास्ते'त्यनेनाऽन्वयः । द्रव्यत्वं कार्याऽकार्यवृत्ति न कार्यतावच्छेदकमिति । एनेन समवायेन द्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन द्रव्यं कारणमिति कार्यकारणभावात् तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकारणतानिरूपिता या समवायसम्बन्धावच्छिन्ना द्रव्यनिष्ठा कार्यता सा किञ्चिद्भावच्छिन्ना कार्यतात्वादित्यनुमानेन कार्यतावच्छेदकधर्मविधया द्रव्यत्वजातिसिद्भिरिति प्रत्याख्यातम्, द्रव्यनिष्ठकार्यतावच्छेदकत्वं द्रव्यत्वस्य न सम्भवति, अन्यूनानतिप्रसक्तधर्मस्यवाऽवच्छेदकत्वनियमेन द्रव्यत्वस्य नित्यानित्यवृत्तितया कार्यताऽतिरिक्तवृत्तित्वात् । एवञ्च द्रव्यत्वावच्छिन्नकार्यत्वाऽप्रसिद्भया पक्षासिद्धेनोक्तानुमानसम्भवः । यद्यपि द्रव्यत्वस्यातिप्रसक्तत्वोपपादनाथाऽकार्यवृत्तीत्येव वक्तुमुचितं तथापि तस्य कार्यतावैयधिकरण्यप्रयुक्तावछेदकत्वाभावाऽ शकानिराकरणाय 'कार्याऽकार्यवृत्ती'त्युक्तमिति ध्येयम् । ___अस्तु, तर्हि द्रव्यत्वस्याऽतिप्रसक्तत्वेऽपि जन्यद्रव्यत्वस्याननिप्रसक्ततया तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकारणतानिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यताया अवच्छेदकत्वमित्यादाङ्कायां वर्धमान आह - जन्यद्रव्यत्वस्येति । सामानाधिकरण्येन | जन्यत्वविशिष्टद्रव्यत्वस्य, जन्यमात्रवृत्तित्वेऽपि = जन्यद्रव्यदृत्तित्वे सत्यजन्यद्रव्याऽवृत्तित्वेन कार्यतानतिरिक्तवृत्तित्वेऽपि, नदबच्छिन्नजनकतावच्छेदकजातेः = जन्यद्रव्यत्वावच्छित्रकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकजाते: अनङ्गीकारः, कुतः ? इत्याह - जलवादिना साङ्कर्यादिति । जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्ननिरूपितकारणताया अवच्छेदकत्वं द्रव्यत्वेऽसम्भवि, तस्याऽन्त्यावयविन्यपि वृत्ते: अन्त्यावयविनि तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नद्रव्यनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया असम्भवेन द्रव्यत्वस्य कारणताति द्रव्य की उत्पत्ति का आपादन नहीं किया जा सकता । प्रतिबन्धक होने पर कार्य का जन्म कैसे हो सकता है ? * वर्धमाज उपाध्याय के मत का निराकरण ** एतेन द्रव्य, इति । नव्यन्याय के प्रस्थापक गंगेश उपाध्याय के पुत्र वर्धमान उपाध्याय का यह कथन है कि -> 'द्रव्यत्व जाति कार्य और अकार्य में यानी नित्य और अनित्य में वृत्ति होने से अनन्त्य अश्यवी द्रव्य की कार्यतावच्छेदक नहीं बन सकती है । अवच्छेदक धर्म वह हो सकता है, जो अवच्छेद्य से अन्यून और अनतिरिक्त वृत्ति हो । द्वादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न समवायिकारणता से, जो अनन्य अवयरी में वृत्ति (= रहती) है, निरूपित समवायसम्बन्धावच्छिन्न कार्यता के आश्रयीभूत घटादि में एवं तादृश कार्यता के अनाश्रय गगनादि में भी द्रव्यत्व जाति रहती है । तादृश कार्यता से अतिरिक्तवृत्ति (=अधिकदेशवृत्ति) होने से द्रव्यत्व जाति नाश कार्यता की अवशेदक नहीं बन सकती। अगर जन्यत्वविशिष्टद्रव्यत्व को तादृश कार्यता का नियामक माना जाय तो भी जन्यद्रव्यत्वाच्छिन्न = सर जन्य द्रव्य की कारणता की अवच्छेदक जाति कोई भी नहीं हो सकती, क्योंकि उस जाति का जलत्व आदि जाति के साथ सांकर्य प्रसक्त होता है। आशय यह है कि जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न कार्यता से निरूपित कारणता के अरच्छेदकस्थिया द्रव्यत्व जाति का अंगीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्रव्यत्व अन्य अवयवी घटादि में भी रहता है, फिर भी वे समवाय सम्बन्ध से किसी द्रव्य का आश्रय नहीं बनते हैं, अन्य द्रव्य की समराय सम्बन्ध से उनमें उत्पत्ति नहीं होती है । इस तरह द्रव्यत्न तादृश कारणता को छोड़ कर भी घटादि में रहने से जन्यद्रव्यनिष्ठ कार्यता से निरूपित कारणता का अवच्छेदक नहीं हो सकता है। अतः अन्य अवयवी में न रहनेवाली जाति को ही तादृश कारणता का अवच्छेदक मानना होगा । मगर ऐसा होने पर जलत्वादि के साथ सांकर्य होगा। वह इस तरह-कपाल आदि द्रव्य घटादि का आरंभक होने से उसमें तादृश कारणतावच्छेदक जाति रहेगी, मगर वहाँ जलत्व जाति नहीं रहती है । अन्त्य जल अवयवी में जलत्व जाति रहती है, मगर उक्त कारणतावच्छेदक जाति नहीं रहती है। जलत्व जाति से व्यधिकरण उक्त कारणतावच्छेदक जातिविशेष अनन्त्य अवयवी जल द्रव्य में जलत्व की समानाधिकरण है, क्योंकि अनन्त्य जल अवयची अन्त्य जल अवयवी द्रव्य का आरम्भक होने से तादृशा कारणतावच्छेदक जातिविशेष का आश्रय होता है और वहाँ जलव जाति भी रहती ही है। इस तरह परस्पर न्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश होने से सांकर्य दोप प्रसक्त होता है। अतः अन्त्य अवयवी से व्यावृन जातिविशेष '-.-
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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